भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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मंगलवार, 25 नवंबर 2014

सेज़ के नाम पर लूट

भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण के दौर पर तमाम तरह लूट और घोटाले समय-समय पर सामने आते रहे हैं। हाल में कैग की एक रिपोर्ट ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़)  के नाम पर चल रहे घोटालों का भंडाफोड़ किया है। विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) स्थापित करते समय बड़े-बड़े वायदे किये गये थे। दावा किया गया था कि विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) स्थापित करने से निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा, देश में उत्पादन बढ़ेगा, रोजगार सृजित होगा और व्यापार संतुलन में मदद मिलेगी। इसी तर्क पर वहां लगने वाली औद्योगिक इकाईयों के लिए ढ़ेर सारी रियायतों की घोषणा की गई थी। विस्थापन और दूसरे स्थानों पर लगने वाले उद्योगों से भेदभाव के सवालों को विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) के तथाकथित संभावित लाभों का हवाला देकर दबा दिया गया था।
हाल में कैग की एक रिपोर्ट में इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) से क्या हासिल हुआ, इसका खुलासा हुआ है। कैग की रिपोर्ट बताती है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) गठित करने से रोजगार और निर्यात बढ़ाने में कोई मदद हासिल नहीं हुई है बल्कि कर रियायतों के कारण सरकारी खजाने को भारी कीमत चुकानी पड़ी है। रिपोर्ट के मुताबिक 2007 से 2013 के मध्य 83,000 करोड़ रूपये का राजस्व विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) को दिये जाने वाली रियायतों की भेट चढ़ गया है। इसमें कई तरह के केन्द्रीय कर और स्टाम्प शुल्क शामिल नहीं हैं। यानी यह आंकडा कई गुना ज्यादा भी हो सकता है। कई ऐसी कंपनियों ने भी कर रियायतें हासिल कीं, जिन्होंने विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) में आबंटित जमीन का इस्तेमाल अपनी स्वीकृत परियोजना के लिए नहीं किया और किसी और को वह जमीन दे दी।
कैग की रिपोर्ट के मुताबिक विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के नाम पर आबंटित जमीन में से आधी जमीन का उपयोग अभी तक नहीं किया गया है जबकि आबंटन 8 साल पहले हुआ था। यह विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के नाम पर जमीन की जमाखोरी के अलावा और कुछ नहीं है। तमाम कंपनियों ने वास्तविक जरूरत से ज्यादा जमीन हड़प ली।
इसका एक अर्थ यह भी है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के नाम पर जो हुआ विस्थापन और कृषि योग्य जमीन में आई कमी आवश्यता से कहीं अधिक थी। संप्रग और राजग अब भी यह समीक्षा करने को नहीं तैयार है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के नाम पर जमीन और राजस्व की भेट देने के बदले आखिर देश को और उसकी जनता को मिला क्या है। निर्यात के मोर्चे पर आज भी स्थिति बदहाल है और व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है।
जमीन और राजस्व की यह लूट केवल विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) के नाम पर ही नहीं की गई बल्कि और भी बहुत योजनाओं के तहत ऐसा किया गया। केवल उड़ीसा में खेती का रकबा 2005 से 2010 के मध्य 1,17,000 हेक्टेयर कम हो गया। यही कहानी पूरे देश में दोहराई गई है। उत्तर प्रदेश में लाखों हेक्टेयर जमीन एक्सप्रेस वे और उनके साथ विकसित किए जाने वाली टाउनशिप और इंडस्ट्रियल एरिया के नाम पर हड़प ली गई। इस बात का कोई आकलन नहीं किया गया कि ऐसे एक्सप्रेस वे स्थापित करने से क्या लाभ हासिल हो सकेगा।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज़) से संबंधित कैग की रिपोर्ट संसद के वर्तमान सत्र में पेश की जाने वाली है। इस पर उठने वाले स्वर दबा दिये जायेंगे। हमें पूरा विश्वास है कि संसद इस रिपोर्ट में उठाये गये मुद्दों पर कोई विचार नहीं करेगी। अंततः जनता को ही सड़कों पर उतर कर सवाल खड़े करने होंगे।
. प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 11 अक्टूबर 2014

नेहरू और मोदी

भाजपाई प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी एक ओर बड़ी तेजी से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी को रिझाने के लिए तमाम करतब लगातार कर रहे हैं तो दूसरी ओर वे कांग्रेस से गांधी-नेहरू-इंदिरा की विरासत को भी छीन लेने को व्यातुर हैं। गांधी जयंती के दिन उन्होंने अपना महत्वाकांक्षी अभियान ”स्वच्छ भारत“ बड़े प्रचार के साथ एक थाना परिसर में झाडू लगा कर शुरू किया जो इंदिरा जयंती (19 नवम्बर) तक चलेगा तो दूसरी ओर उन्होंने नेहरू जयंती (बाल दिवस 14 नवम्बर) बड़े पैमाने पर मनाने की घोषणा करके कांग्रेस को अजीबोगरीब स्थितियों में डाल दिया। उन्होंने संघ परिवार और भाजपा को भी वैचारिक संकट में डाल दिया है।
भगत सिंह, डा. बी. आर. आम्बेडकर, जवाहर लाल नेहरू, पूरन चन्द जोशी और अजय घोष आधुनिक भारत को नई राजनीतिक चेतना एवं दृष्टि से लैस करने वाले नेता रहे हैं। ये सभी वैचारिक जड़ता को तोड़ने का साहस, प्रचलित धारणाओं के खिलाफ बोलने और वक्त के आगे की सोचने वाले नेता रहे हैं। धार्मिक नेताओं में विवेकानन्द ने भी यही भूमिका अदा की थी। पूरन चन्द जोशी और अजय घोष के बारे में जानने वालों की संख्या लगातार सीमित होती गई जबकि डा. बी. आर. आम्बेडकर अभी भी दलित राजनीति का सबसे अधिक प्रचलित नाम है, बात दीगर है कि उनके विचारों और कार्यों को जानने वालों की संख्या भी सीमित हाती जा रही है। भाजपा आम्बेडकर को छू-छू कर उनसे हमेशा दूर होती रही। उसने एक बार विवेकानन्द और एक बार भगत सिंह को अपनाने की असफल कोशिशें जरूर कीं परन्तु उनके वैचारिक करन्ट को वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। उस दौर में जनता राजनीति में अधिक जागरूक थी और जनता ने भाजपा पर प्रश्नों की बौछार तेज कर दी थी कि भाजपा उनसे छिटक कर दूर खड़ी हो गयी। भाजपा गांधीवादी समाजवाद के नाम गांधी को भी अपनाने की असफल कोशिश कर चुकी है।
नेहरू अब तक भाजपा एवं संघ परिवार के लिए सबसे अधिक अछूत रहे हैं। ये लोग इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक की प्रशंसा कर चुके हैं परन्तु नेहरू हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। पहली बार भाजपा के किसी नेता ने नेहरू को स्वीकार करने की बात की है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव का माहौल अपने पक्ष में बनाने के लिए संघ-भाजपा एवं मोदी सभी ने नेहरू के बरक्स सरदार पटेल को खड़ा करने की कोशिश इस तरह की थी मानो सरदार पटेल न ही कांग्रेसी थे और न ही नेहरू के सहयोगी। जनता को याद होना चाहिए कि यहां तक कहा गया था कि ”अगर नेहरू की जगह पटेल प्रधानमंत्री बनते.......“ और पटेल की लौह प्रतिमा गुजरात में स्थापित करने के लिए गांव-गांव लोहा इकट्ठा किया गया था। अभी कुछ दिनों पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक काल्पनिक स्थिति देश के सामने रखने की कोशिश की थी कि कश्मीर मामले को अगर पटेल ने संभाला होता तो इसके एक हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा न होता। कुछ दिनों से फेसबुक आदि सोशल मीडिया पर भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा एक अभियान चल रहा था कि गांधी और नेहरू अगर चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती।
भाजपा एवं संघ के साथ समस्या यह रही है कि जब तक भारतीय राजनीति में नेहरू और अजय घोष (भाकपा के महासचिव एवं शहीद भगत सिंह के साथी) के जीवन काल में जनसंघ (भाजपा का पूर्व संस्करण) संसद में दूसरे दल के रूप में स्थापित नहीं हो पाई थी। जनसंघ अमरीका और विकसित यूरोपीय देशों के पक्ष में अपनी राजनीतिक-आर्थिक नीतियों को निरूपित करता रहा था जबकि नेहरू ने भारत के विकास के लिए और उसे स्वयं पर निर्भर अर्थव्यवस्था बनाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था का वैकल्पिक मॉडल पेश किया था और वे उसी रास्ते पर आगे बढ़े। नेहरू अमरीका और विकसित यूरोपीय देशों की आर्थिक दासता स्वीकार करने के बजाय उसे चुनौती पेश कर रहे थे और सोवियत संघ के सहयोग से जहां एक ओर भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे वहीं वैश्विक राजनीति में वे अमरीकी साम्राज्यवाद के सामने झुकने से इंकार करते हुए नासिर और टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की आधार शिला रखने में व्यस्त थे। नेहरू का मानना था कि अगर प्रचलित धारणाओं के खिलाफ नए तथ्य सामने आने पर हमें अपनी सोच को बदल लेना चाहिए और उन्होंने भारतीय जनता में वैज्ञानिक मिजाज यानी साइंटिफिक टेम्पर विकसित करने पर जोर दिया था।  नेहरू का यही काम आस्था को मुद्दा बनाकर अपनी राजनीति करने वाली जनसंघ के साथ-साथ संघ के लिए सबसे ज्यादा कष्टकर और असहज परिस्थितियां पैदा करने वाला था। नेहरू का ही कथन था कि अफवाहें देश की सबसे बड़ी दुश्मन हैं और दक्षिणपंथी एवं कट्टरपंथी ताकते अफवाहों को अपना सबसे कारगर हथियार समझते हैं। हिटलर झूठ को कला के स्तर तक ले ही गया था और इसी रणनीति के सहारे भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में विजयी हुई है।
नेहरू और इंदिरा गांधी की विरासत पर राजनीति करने वाली कांग्रेस उनके आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा भटक चुकी है। नेहरू की आर्थिक एवं वैश्विक राजनीतिक समझ से वह बहुत ज्यादा दूर जा चुकी है। आज की उसकी नीतियां वही हैं जो भाजपा की हैं। कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री शशि थरूर ने तो उस दौर की आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों को मूर्खतापूर्ण तक कह डाला था। कांग्रेस नेहरू पर अपना दावा एक तरह से छोड़ चुकी है।
आने वाले वक्त में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी नेहरू के साथ कितनी दूर तक चल पाते हैं और संघ परिवार की इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है? यह देखना और दिलचस्प होगा कि इस दौर में जनता नेहरू को लेकर भाजपा के सामने किस तरह के प्रश्न खड़ी करती है और क्या भाजपा और संघ को असहजता की उसी स्थिति तक धकेल पाती है अथवा नहीं जिस असहजता में वह विवेकानन्द और भगत सिंह को अंगीकार करने के दौर में भाजपा को खड़ी कर चुकी है।
- प्रदीप तिवारी
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सोमवार, 22 सितंबर 2014

34 करोड़ का उपभोक्ता बाजार

तमाम देश भारत के साथ कारोबार बढ़ाना चाहते हैं। अमरीका भले आतंकवाद की समाप्ति के लिए करोड़ों डालर पाकिस्तान की सेना को देकर भारत में आतंकवादी घटनायें अंजाम दिलाता रहे परन्तु उसे भारत के इस उपभोक्ता बाजार में अपने सरमायेदारों का हित नजर आता है। इजरायल भी यही चाहता है। जापान भी यही चाहता है। तमाम विकसित यूरोपीय देश भी यही चाहते हैं और चीन भी यही चाहता है। इसीलिए ये सभी भारत के साथ कूटनीतिक रिश्ते बनाये रखना चाहते हैं। केन्द्र में नई सरकार भी इन सभी से अपने रिश्तों को मजबूत करना चाहती है और उसके परिणामों की उसे कतई चिन्ता नहीं है।
पिछले 40-50 सालों में भारत में मध्यम वर्ग का उभार हुआ है और पिछले 23-24 सालों में बाजारवाद ने इस वर्ग के दिलो-दिमाग पर कब्जा कर लिया है। यह वर्ग तमाम उपभोक्ता वस्तुओं - कार, फ्रिज, टीवी, फ्लैट, मोबाईल, कम्प्यूटर को खरीदने के लिए व्याकुल है, भले उसकी आमदनी से इन्हें न खरीदा जा सकता हो। इस वर्ग की पूरी खरीददारी ईएमआई आश्रित है। पिछले दो दशकों से भारत के बैंकिंग क्षेत्र को इस बात की चिन्ता नहीं है कि किसानों, छोटे कारोबारियों, दस्तकारों और छोटे एवं मध्यम उद्योगों को वह कर्जा मुहैया करवा रहा है कि नहीं परन्तु उसे इस बात की बहुत चिन्ता है कि बड़े व्यापारियों और सरमायेदारों को अनाप-शनाप पैसा मुहैया हो पा रहा है कि नहीं। तो फिर मात्र 31 करोड़ की आबादी वाले अमरीका, 13 करोड़ की आबादी वाले जापान, 8 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी, 82 लाख की आबादी वाले इजरायल के साथ-साथ तमाम अन्य विकसित पश्चिमी देशों को इतना बड़ा उपभोक्ता बाजार और कहां मिलेगा?
इसीलिए एक बड़ी भूखी, निरक्षर, कुपोषण और रक्ताल्पता का शिकार आबादी वाले देश भारत से तमाम देश अपने सरमायेदारों के हितों को साधने के लिए व्यापारिक सम्बंध बनाने को तत्पर हैं। नए प्रधानमंत्री जापान हो आये हैं और चीन के राष्ट्रपति बरास्ते गुजरात भारत दर्शन को आ चुके हैं। प्रधानमंत्री की कई देशों की यात्रा की तैयारियां चल रहीं हैं तो कई देशों के राष्ट्राध्यक्षों में भारत आने की होड़ मच गयी है।
हमारे पास उनको बेचने को क्या है? अमरीका और चीन जैसे देशों के पास भी लौह अयस्क का अपार भंडार है। परन्तु वे अपने खनिज श्रोतों का उपभोग करने के बजाय यहां से लौह अयस्क और कोयला आदि खरीदते हैं। क्यों? क्योंकि इनके भंडार सीमित हैं। जब पूरी दुनिया के खनिज भंडार समाप्त हो जायेंगे, तब वे इसका उपभोग करेंगे। दूसरी ओर हमारी सरकारें कच्चा माल बेचने के लिए व्याकुल हैं। लौह अयस्क 46 रूपये टन, फाईन 3160 रूपये टन और कोयला 500 से 700 रूपये टन बेचते हैं और उसके बाद परिष्कृत इस्पात को 34 हजार रूपये टन के हिसाब से खरीदते हैं। नई सरकार की नीतियां क्या हैं - सार्वजनिक क्षेत्र में चलने वाले खाद कारखानों का भट्ठा बैठा दो, सेल की कब्र खोद दो और विदेशी पूंजी को यही माल बनाने के लिए पलक पांवड़े बिछा दो। 
अमरीका के बौद्धिक कामों के लिए अपने बुद्धिजीवियों (बुद्धिजीवियों से यहां आशय अपनी बुद्धि बेचकर भेट भरने वालों से है) को भेजने वाले तथा विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में शामिल हमारे देश को अपने एक पुरातन शहर वाराणसी को स्मार्ट बनाने के लिए दूसरों का मुंह ताकते हुए शर्म क्यों नहीं आती। मोदी जी दावा कर रहे हैं कि उन्होंने विदेशी सरमाये के लिए हिन्दुस्तान में रेड टेप हटा कर रेड कारपेट बिछा दी है। उनके कहने का मतलब पर गौर करना जरूरी है। उन्होंने हिन्दुस्तान के नियम, कायदे, कानून, विस्थापन, पर्यावरण तथा अपने देश की बहुसंख्यक आबादी के हितों - सभी को विदेशी सरमाये पर कुर्बान कर देने की तैयारी कर ली है।
हमें इस बात पर गौर करना होगा कि आज की तारीख में जब कोई विदेशी सरमायेदार उद्योग लगाता है तो विस्थापन और बेरोजगारी का शिकार कितने होते हैं, ठेका मजदूरी के नाम पर कितने मजदूरों का लहू पीने का हम अवसर मुहैया करा रहे हैं और उस उद्योग में कितने लोगों को प्रत्यक्ष रोजगार मिलेगा। सोवियत संघ की मदद से सार्वजनिक क्षेत्र में 4 मिलियन टन का इस्पात कारखाना जब बोकारों में लगा था तो 52000 लोगों को रोजगार मिला था। लेकिन यही उद्योग अगर विदेशी पूंजी लगाती है तो 3000 लोगों को भी रोजगार मुहैया हो जाये तो बहुत होगा। और इसमें अधिसंख्यक रोजगार असंगठित क्षेत्र में मिलेगा या फिर ठेका मजदूरी के जरिये।
पूरी मजदूरी मांगने का खामियाजा मारूति उद्योग के मजदूरों को क्या मिला था, यह हमें याद रखना चाहिए। सरकार तो सरमायेदारों का लठैत बनने के लिए व्याकुल है।
‘ट्रिकल डाउन’ सिद्धान्त (जिसने यह समझाने का प्रयास किया था कि जब पूंजीपति पर्याप्त मुनाफा कमा लेंगे तो पैसा टपक-टपक कर मजदूरों की जेबों में आने लगेगा) हमें आज भी याद होना चाहिए। आज तक तो ऐसा हो नहीं सका। सरमायेदारों का सरमाया तो हजारों गुना बढ़ चुका है लेकिन उनके पास से पैसा मजदूरों की जेब में गिरना तो आज तक शुरू नहीं हो सका।
कमजोर वामपंथ के दौर में यह सब होना ही है। अपनी बर्बादी की राह पर देश चल चुका है। जनता को सरकार के हर कदम और उसके हर संदेश के निहितार्थ लगातार समझते रहना होगा।
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 10 मई 2014

सरमाये एवं मीडिया का नग्न नृत्य और असहाय चुनाव आयोग

लोक सभा चुनाव के अंतिम दौर का प्रचार आज सायं समाप्त हो जायेगा और इस अंक के पाठकों तक पहुंचने के पहले चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे और नई सरकार के गठन की कवायद चल रही होगी। लोक सभा चुनावों के चुनाव परिणामों के बारे में कोई भी टिप्पणी परिणाम आने के बाद ही की जा सकती है लेकिन इस चुनाव के दौरान जिस तरह सरमाये एवं मीडिया ने एक व्यक्ति विशेष को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अभियान चलाया और जिस तरह चुनावों के दौरान धर्म एवं जातियों में मतदाताओं के संकीर्ण ध्रुवीकरण के प्रयास हुए, वह दोनों निहायत चिन्ताजनक है। भारतीय संविधान की आत्मा जार-जार की जाती रही। इस पूरे चुनाव के दौरान मुद्दे गायब रहे, जनता के सरोकार गायब रहे और चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो गई। जिस विकास की बातें की गईं, उस तरह का विकास पूरे देश में जगह-जगह पिछले 23 सालों में देखने को मिलता रहा है। इस दौर में हर चीज बढ़ती रही है, सरमायेदारों का सरमाया बढ़ता चला गया है और गरीबों की गरीबी बढ़ती चली गई है। महंगाई, बेरोजगारी, दमन, उत्पीड़न, अपराध सब प्रगति के पथ पर बेरोकटोक आगे बढ़ते रहे हैं। नई आर्थिक नीतियों की शुरूआत में नीति नियंताओं और साम्राज्यवादी अर्थशास्त्रियों का दावा था कि सरमायेदारों का सरमाया बढ़ने से टपक-टपक कर पैसा आम जनता तक पहुंचने लगेगा और यह सिद्धान्त ‘ट्रिकल डाउन’ थ्योरी के रूप में जाना गया। 23 साल बीत गये हैं परन्तु ऐसा होता कहीं दिखाई नहीं दिया। ऊपर से नीचे टपकता धन कहीं दिखाई नहीं दिया। उलटे नीचे से उछल कर धन ऊपर वालों की तिजोरियों में जाता रहा।
तीव्र ध्रुवीकरण के लिए नेता अनाप-शनाप बोलते रहे। लम्बे समय तक चुनाव आयोग खामोश रहा। अमित शाह, तोगड़िया, गिरिराज सिंह और बाबा रामदेव सरीखे अन्यान्य के आपत्तिजनक बयानों को लेकर निर्वाचन आयोग पर उदारता बरतने के आरोप लगते रहे। फिर उसने कुछ को नोटिसें और कुछ के खिलाफ एफआईआर लिखाने के निर्देश दिये। शुरूआत में अमित शाह एवं आजम खां के उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार करने पर पाबंदी लगा दी परन्तु बाद में अमित शाह के माफी मांगने के बाद उन पर लगाया गया प्रतिबंध वापस ले लिया गया। सवाल उठता है कि ऐसा क्यों किया गया? यदि एक अपराध किया जाता है तो दुनियां के किसी भी कानून में माफी मांग लेने से अपराध की तीव्रता कम नहीं हो जाती। चुनाव आयोग को बार-बार चैलेन्ज किया जाता रहा। कभी आजम खां ने तो कभी मोदी ने संवैधानिक संस्था पर दवाब बनाने के प्रयास किये। वाराणसी में बिना अनुमति मोदी ने रोड शो किया और ध्रुवीकरण के तमाम प्रयास किये। चुनाव आयोग निरपेक्ष भाव से देखता रहा। संवैधानिक संस्थाओं को सार्वजनिक रूप से चैलेन्ज करना लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है।
विज्ञापनों एवं पेड न्यूज की भरमार रही। इलेक्ट्रानिक मीडिया पूरी तरह और प्रिंट मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा बिका हुआ साफ दिखाई दिया। विज्ञापनों के अलावा खबरों तथा सर्वेक्षणों को इस प्रकार पेश किया गया कि जनता का अधिसंख्यक तबका मानने लगा है कि मीडिया बिका हुआ था। मीडिया की विश्वसनीयता पर अभूतपूर्व प्रश्नचिन्ह लग गया है।
चुनावों के दौरान कई स्थानों पर पैसे के बल पर मतदाताओं के खरीदने के नापाक प्रयास किये जाने के समाचार हैं। कई स्थानों पर बूथ कैपचरिंग की भी घटनायें हुई हैं। आश्चर्य का विषय है कि कई पोलिंग बूथों पर 100 प्रतिशत से अधिक मत पड़ने के समाचार मिले हैं। ऐसा कैसे सम्भव हुआ, इसका कोई उत्तर किसी के पास नहीं है।
सबसे अधिक चिन्ता का विषय यह है कि चुनावों के दौरान मीडिया में वामपंथ को कोई स्थान नहीं मिला। चुनाव सर्वक्षणों में वामपंथ को 20 सीटों के करीब सिमटा दिया गया। चुनाव परिणाम क्या होंगे, इस बारे में कयास लगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह अंक पाठकों तक पहुंचते-पहुंचते चुनाव परिणाम घोषित हो चुके होंगे।
चुनाव परिणाम कुछ भी हों, देश पिछले 23 सालों से जिन आर्थिक नीतियों के रास्ते पर चल रहा है, उसमें बदलाव की कोई भी संभावना नहीं दिखाई दे रही है। अगर तीसरे मोर्चे की भी सरकार बन जाती है, तो उसमें अधिसंख्यक वहीं क्षेत्रीय राजनैतिक दल होंगे जो अपने-अपने राज्यों में जनविरोधी पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को अमल में लाते रहे हैं।
इन आर्थिक नीतियों में बदलाव के लिए चुनावों के बाद वामपंथ, विशेषकर भाकपा को अपनी रणनीति में सुधार की दिशा में निर्ममता के साथ आगे बढ़ना होगा। प्रखर जनांदोलनों के जरिये जनता को पंूजीवाद के खिलाफ लामबंद करने की दिशा में हमें आगे बढ़ना होगा।
इस चुनाव के दौरान चुनाव सुधारों की आवश्यकता बहुत ही प्रबलता के साथ महसूस की गई। इस दिशा में प्रखर जनांदोलन समय की मांग है। भाकपा को इसके लिए पहल करनी होगी।
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 1 फ़रवरी 2014

वायदों को निगलती अखिलेश सरकार

पिछले विधान सभा चुनावों के दौरान वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सहित समाजवादी पार्टी के तमाम नेता जनता से बड़े-बड़े वायदे करते हुए प्रदेश भर में जनसभायें कर रहे थे। विभिन्न तबकों के वोटों के लिए किए गए इन वायदों पर अखिलेश सरकार खरी नहीं उतरी।
बेरोजगार युवकों को बेरोजगारी भत्ता, किसानों की ऋण माफी, इंटर के विद्यार्थियों को टैबलेट और इंटर पास चुके छात्रों को लैपटॉप देने सरीखे तमाम वायदे किये गये थे। बेरोजगार युवकों को बेरोजगारी भत्ता के नाम पर की गई घोषणा में तमाम ‘किन्तु’ और ‘परन्तु’ जोड़ दिये गये जिसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश में फैली विकराल बेरोजगारों की फौज में से केवल एक लाख लोगों को बेरोजगारी भत्ता दिये जाने का मामला सामने आया। बाकी लाखों बेरोजगारों को निराशा ही हाथ लगी।
इसी तरह किसानों के कर्जा माफी के नाम पर केवल भूमि विकास बैंक के कर्जों को ही माफ किया गया। चुनावों के दौरान ऋण माफी के वायदे को देखते हुए तमाम किसानों ने अपना कर्जा अदा नहीं किया जिसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें न केवल उस कर्जे पर ब्याज की अदायगी करनी पड़ी बल्कि तमाम किसानों के खिलाफ बैंकों ने वसूली प्रमाणपत्र जारी कर दिये जिसके कारण तमाम लोगों की जमीनें और ट्रैक्टर आदि नीलाम हो गये।
इंटर के 25 लाख विद्यार्थियों को टैबलेट देने का वायदा किया गया था। दो साल पूरे होने को हैं परन्तु इस वायदे को आज तक पूरा नहीं किया गया। अब पता चला है कि इस योजना के नाम पर जो कदमताल की जा रही थी, उसे भी बंद कर दिया गया है। माध्यमिक शिक्षा विभाग ने अगले साल के बजट के लिये वित्त एवं नियोजन विभाग को भेजे गये अपने बजट प्रस्ताव में इस मद में केवल एक रूपये का प्राविधान करने के लिए कहा है। मात्र एक रूपये में वे कितने छात्रों को टैबलेट दे पायेंगे, यह बड़ा सवालिया निशान है। ध्यान देने वाली बात यह है कि माध्यमिक शिक्षा विभाग मुख्यमंत्री स्वयं सीधे देख रहे हैं और निश्चित रूप से ऐसा उनके निर्देशों पर ही विभाग ने किया होगा।
इंटर पास करने वाले छात्रों को अलबत्ता लैपटॉप बांटने की कवायद की गई। कहा जाता है कि जितने के लैपटॉप नहीं बांटे गये उससे ज्यादा पैसा लैपटॉप बांटने के आयोजनों पर किया गया। जो लैपटॉप बांटे गये वे बहुत ही घटिया क्वालिटी के हैं और जिन्हें यह मिले हैं, वे इसका उचित एवं आवश्यक प्रयोग भी नहीं कर पा रहे हैं। सूत्रों के अनुसार इन लैपटॉप की खरीद में भी भारी घोटाला हुआ है।
बुनकरों को किये गये तमाम वायदे भी हवा में ही तैर रहे हैं।
केन्द्र सरकार कई सालों से स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना चला रही है। योजना के क्रियान्वयन की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है। खाद्यान्न एवं भोजन पर बनने वाले व्यय का आबंटन केन्द्र सरकार राज्य सरकार को करती है। चौकाने वाली खबर है कि वर्तमान शैक्षिक सत्र में अब तक ग्राम प्रधानों तथा विद्यालयों को न तो खाद्यान्न मुहैया कराया गया है और न ही उसके बनने पर होने वाले व्यय को ही उपलब्ध कराया गया है। जिन ग्राम प्रधानों एवं प्रधानाध्यापकों ने इस आशा में कि देर-सबेर आबंटन मिल ही जायेगा, राशन की दुकान से एडवांड खाद्यान्न उठा कर भोजन बनवा कर बच्चों को मध्यान्न भोजन सुलभ कराया, वे अब परेशान हो रहे हैं क्योंकि कोटेदार राशन के पैसे मांग रहा है और भोजन बनवाने में होने वाला खर्चा तो वे अपने पास से कर ही चुके हैं।
अन्यान्य ऐसे वायदे हैं जो किये गये थे और जिन्हें अखिलेश सरकार लगातार निगलती चली जा रही है। आने वाले लोक सभा चुनावों में जनता के तमाम तबके किये गये वायदों पर जवाब जरूर मांगेंगे।
- प्रदीप तिवारी
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

एक प्रतीक की तलाश में भाजपा

आरएसएस, भाजपा (और भाजपा के पूर्व संस्करण जनसंघ) हमेशा एक प्रतीक की तलाश में रहे हैं। उनका अपना कोई ऐसा नेता पैदा नहीं हुआ जो खुद प्रतीक के रूप में याद किया जा सकता। ऐसे अकाल में निश्चय ही उन्हें एक प्रतीक के लिए भटकना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जनसंघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना प्रतीक गढ़ने का नापाक असफल प्रयास किया परन्तु विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो वक्तव्य ने जनसंघ की राह में रोड़े अटकाये जिसमें उन्होंने बड़ी शिद्दत से कहा था कि ”भूखों को धर्म की आवश्यकता नहीं होती है“। विवेकानन्द ने भूखों के लिए पहले रोटी की बात की जबकि जनसंघ और आरएसएस उस समय भारतीय पूंजीपतियों के एकमात्र राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राजनीति में कुख्यात थे।
उसी दशक में जनसंघ का अवसान हुआ और उसके नये संस्करण भाजपा का जन्म। भाजपा ने अपने जन्मकाल से सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में दो रास्ते निर्धारित किये - एक तो समाज के अंध धार्मिक विभाजन के जरिये मतों का ध्रुवीकरण और दूसरा एक प्रतीक को अंगीकार कर उसके आभामंडल के जरिये कुछ लाभ प्राप्त करना। पहले मंतव्य में तो भाजपा कुछ हद तक एक दौर में सफल रही परन्तु दूसरे मोर्चे पर उसके लगातार पराजय मिली है।
उन्होंने भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश इसलिए की क्योंकि शहीदे आजम भगत सिंह निर्विवाद रूप से भारतीय जन मानस में, और विशेष रूप से नवयुवकों में, एक नायक के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। भाजपा की यह बहुत बड़ी गलती थी क्योंकि भारतीय क्रान्तिकारियों में भगत सिंह उन नायकों में शामिल थे जिनके विचारों को पहले से ही बहुत प्रचार मिल चुका था। भगत सिंह के आदर्शों को भाजपा स्वीकार नहीं सकती क्योंकि वह ‘मार्क्सवादी’ दर्शन था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी बोला और लिखा था जो पहले ही प्रकाशित हो चुका था। भाजपा एक बार फिर बुरी तरह असफल रही।
तत्पश्चात् भाजपा ने महात्मा गांधी को अपना प्रतीक बनाने की एक कोशिश की। अस्सी के दशक में ‘गांधीवादी समाजवाद’ लागू करने का नारा दिया गया। यह पहले की गल्तियों से कहीं बड़ी गलती थी। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि गांधी एक महापुरूष थे और दुनियां के तमाम देशों में स्वतंत्रता और दमन के खिलाफ संघर्ष करने वालों ने उनके ‘सत्याग्रह’ के विचारों को लागू करने के सफल प्रयास किये परन्तु गांधी जी कभी समाजवादी नहीं रहे थे। इसलिए आम जनता कथित ‘गांधीवादी समाजवाद’ को स्वीकार भी नहीं कर सकती थी। दूसरे भाजपा की नाभि आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप उस समय लग चुका था जब न तो जनसंघ वजूद में था और न ही भाजपा।
कांग्रेस नीत संप्रग अपने दो कार्यकाल पूरे कर रही है। निश्चित रूप से उसे पिछले 10 सालों के अपने काम-काज के कारण जनता में व्याप्त असंतोष का सामना आसन्न लोक सभा चुनावों में करना होगा। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाने के लिए बहुत व्याकुल है। एक ओर वह अपने एक साम्प्रदायिक प्रतीक नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर ‘लौह पुरूष’ के नाम से विख्यात कांग्रेसी नेता सरदार पटेल को अपना प्रतीक बना लेने की कोशिशें कर रही हैं।
भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने के पहले ही मोदी यह घोषणा कर चुके थे कि वे नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बांध के पास सरदार पटेल की लोहे की एक 182 मीटर ऊंची विशालकाय प्रतिमा बनवायेंगे जो दुनियां की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। इस प्रतिमा के निर्माण के लिए गांव-गांव से खेती में प्रयुक्त होने वाले लोहे के पुराने बेकार पड़े सामानों को इकट्ठा किया जायेगा। अभी हाल में उन्होंने इस प्रतिमा का शिलान्यास समारोह भी सम्पन्न करवा दिया। समारोह के पहले मोदी ने पटेल के प्रधानमंत्री न बनने पर अफसोस जताकर गुजराती अस्मिता को उभारने की कोशिश की। उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरदार पटेल की अंतेष्टि में जवाहर लाल नेहरू उपस्थित नहीं थे। एक तरह से मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आक्रमण के जरिये ‘सोनिया-राहुल’ को भी निशाने पर लेना चाह रहे थे। कांग्रेस का मोदी पर पलट वार स्वाभाविक था।
भाजपा के किसी जमाने के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आणवानी आज कल आरएसएस की बौद्धिकी का काम संभाल चुके हैं। सोशल मीडिया पर ब्लॉग लेखन वे काफी समय से कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम की घोषणा पर उन्होंने कुछ नाक-भौ जरूर सिकोड़ी थी परन्तु आज कल वे अपने ब्लॉग के जरिये मोदी के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। आरएसएस की यह पुरानी रणनीति रही है कि वह अपने सभी अस्त्र-शस्त्र एक साथ प्रयोग नहीं करती बल्कि किश्तों में करती है जिससे मुद्दा अधिक से अधिक समय तक समाचार माध्यमों में छाया रहे।
आणवानी जी ने पहला शिगूफा छोड़ा कि नेहरू ने कैबिनेट बैठक में 1947 में सरदार पटेल को साम्प्रदायिक कहा था। इसका श्रोत उन्होंने एक पूर्व आईएएस अधिकारी को बताया। इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह है कि जिस अधिकारी का हवाला दिया गया है वह उस समय सेवा में था अथवा नहीं और अगर सेवा में था तो भी वह कैबिनेट बैठक में कैसे पहुंचा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आजादी के पहले आईएएस नहीं आईसीएस होते थे। दो दिन बाद ही उन्होंने पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा कि नेहरू 1947 में पाकिस्तान की मदद से कबाईलियों द्वारा कश्मीर पर हमले के समय फौज ही भेजना नहीं चाहते थे और फौज भेजने का फैसला सरदार पटेल के दवाब में लिया गया था। यह मामला भी कैबिनेट बैठक का बताया जाता है। इस पर भी प्रश्नचिन्ह है कि 1947 में मॉनेकशा फौज के एक कनिष्ठ अधिकारी थे और वे कैबिनेट बैठक में मौजूद भी हो सकते थेे अथवा नहीं। आने वाले दिनों में इसी तरह के न जाने कितने रहस्योद्घाटन आरएसएस की फौज करेगी जिससे मामला बहस और मीडिया में लगातार बना रह सके।
उत्सुकता स्वाभाविक है कि आखिर सरदार पटेल को इस गंदे खेल के मोहरे के रूप में क्यों चुना गया है? बात है साफ, दलीलों की जरूरत क्या है। एक तो भाजपा सरदार पटेल के नाम पर गुजराती वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। दूसरे पटेल गुजरात की एक ताकतवर जाति है और उत्तर भारत की एक ताकतवर पिछड़ी जाति ‘कुर्मी’ भी अपने को सरदार पटेल से जोड़ती रही है। इस तरह उत्तर भारत में ‘कुर्मी’ वोटरों का ध्रुवीकरण भी उसका मकसद है।
मकसद कुछ भी हो, एक बात साफ है कि जब स्वामी विवेकानन्द भाजपा के न हो सके, न ही भगत सिंह और महात्मा गांधी तो फिर सरदार पटेल भी भाजपा के प्रतीक नहीं बन पायेंगे। सम्भव है कि चुनावों के पहले इसका भी रहस्योद्घाटन हो ही जाये कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी सरदार पटेल ने ही लगाया था और तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवलकर से माफी नामा भी उन्होंने ही लिखाया था क्योंकि वे उस समय अंतरिम कैबिनेट में गृह मंत्री थे।
- प्रदीप तिवारी
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गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

अंतरंग (क्रोनी) पूंजीवाद के युग में वैकल्पिक मीडिया की जरूरत

संप्रग शासन काल में पूंजीवाद के साथ जिस विशेषण का लगातार प्रयोग किया गया वह है ”क्रोनी“। अर्थशास्त्र का ज्ञान न रखने वाले लोग इसे छोटा पूंजीवाद, कारपोरेट पूंजीवाद या ऐसा ही कुछ और समझ लते हैं। अंग्रेजी में ‘क्रोनी’ संज्ञा है जिसका अर्थ है ‘अंतरंग मित्र’। अंग्रेजी भाषा की यह खासियत है कि संज्ञा को विशेषण और क्रिया के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। अर्थशास्त्री ”क्रोनी कैपिटलिज्म“ को पूंजीवाद का वह भ्रष्टतम रूप बताते हैं जिसमें शासक और पूंजीपतियों में अंतरंग मित्रता हो और दोनों एक दूसरे के लिए कुछ भी करने को तैयार हों। यानी पूंजीवाद के जिस दौर से हम हिन्दुस्तान में गुजर रहे हैं वह पूंजीवाद का वही भ्रष्टतम रूप है जिसमें पूंजीपति और पूंजीवादी राजनीतिक दल अंतरंग मित्र बन चुके हैं। हमने पिछले पांच सालों में देखा कि पूंजीवाद के इसी भ्रष्टतम रूप के कारण संप्रग-2 के सात मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में त्यागपत्र देने को मजबूर होना पड़ा परन्तु उनमें से केवल एक ए.राजा को छोड़ कर किसी को भी जेल की हवा काटने अभी तक नहीं जाना पड़ा है। भाजपा भी इस भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही।
यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि इलेक्ट्रानिक संमाचार माध्यम और प्रिंट मीडिया (विशेष रूप से अंग्रेजी और हिन्दी) के मालिकान कारपोरेट घराने हैं और निश्चित रूप से पूंजीवाद के वर्तमान रूप में वे अपने राजनीतिक मित्रों और हितचिन्तकों के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। आज पत्रकारिता पत्रकारिता रह ही नहीं गई है। इसे पत्रकारिता का कौन सा रूप कहा जाये, इस पर हम सबको विचार करना चाहिए। मीडिया आज कल कारपोरेट पॉलिटिक्स का औजार बन कर रह गया है।
आइये कुछ घटनाओं के साथ-साथ कारपोरेट मीडिया और राजनीतिज्ञों की अंतरंगता की बात करते हैं। रविवार 29 सितम्बर को दिल्ली में प्रधानमंत्री के इकलौते घोषित भाजपाई प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी की मीडिया में बहुप्रचारित रैली आयोजित थी। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार लगभग 7000 सुरक्षाकर्मियों और 5000 कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर मोदी प्रस्थान कर गये। ठीक उसी वक्त इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यम इस रैली का ‘लाइव’ प्रसारण कर रहे थे और रैली में आई भीड़ को पांच लाख बता रहे थे। अगले दिन समाचार पत्रों ने इस रैली के समाचारों को मुखपृष्ठों पर बड़े-बड़े मोटे टाईप में प्रकाशित किया। यह वास्तविकता थी कि न कहीं जाम लगा और न ही मीडिया को पांच लाख की भीड़ आने पर लगने वाले जाम के न लगने पर कोई परेशानी हुई।
यही मीडिया अगले लोक सभा चुनावों को मुद्दों के बजाय दो व्यक्तियों - भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी और कांग्रेस के अघोषित प्रधानमंत्री प्रत्याशी राहुल गांधी के बीच केन्द्रित कर देना चाहती है। कारण स्पष्ट है कि कांग्रेस जीते या भाजपा नीतियां वहीं रहेंगी जो देशी और विदेशी पूंजी चाहती है, आखिरकार दोनों ही पार्टियां कारपोरेट घरानों की अंतरंग मित्र हैं।
आइये अब हाल में बनी ‘आम आदमी पार्टी’ के बारे में चर्चा करते हैं। यह पार्टी तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी (अन्ना) आन्दोलन की कोख से पैदा हुई है। इस आन्दोलन के शुरू होने के पहले ही चर्चा गरम थी कि एक के बाद एक भ्रष्टाचार के खुलते मामलों पर जनता में व्याप्त आक्रोश को शान्त करने के लिए कारपोरेट घरानों और सत्ताधीशों की अंतरंगता से यह आन्दोलन आयोजित किया जा रहा है। इस आन्दोलन के दौरान दो बातें सामने आयीं जिनका एक बार फिर उल्लेख जरूरी होगा। पहला जिस तादाद में पूरे हिन्दुस्तान में प्रचार सामग्री की बाढ़ आई थी, उसके लिए एक बड़े तंत्र की और करोड़ों के धन की जरूरत थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के पास एकाएक पैसा कहां से आया और एकदम से इतना बड़ा तंत्र कहां से खड़ा हो गया, इन दोनों बातों पर प्रश्नचिन्ह आज तक लगा हुआ है? दूसरा कारपोरेट मीडिया ने भ्रष्टाचार के राजनैतिक सवाल पर इसे एक गैर राजनैतिक पहलकदमी बताते हुए जितना प्रचार-प्रसार किया, वह आन्दोलन के फैलाव से कहीं बहुत अधिक था। पूंजी और उसके चन्द समाजवादी पैरोकार राजनीति का गैर राजनीतीकरण करने के लिए बहुत अरसे से काम करते रहे हैं। 1957 में समाजवादियों के मिलान सम्मेलन से विचारधारा विहीन मनुष्य की जिस परिकल्पना का जन्म हुआ था, जिसे आपातकाल के दौर में संजय गांधी ने पाला पोसा, उसे ही आज कारपोरेट मीडिया आगे बढ़ा रहा है। नवउदारवाद के जन्म के साथ उसके बरक्स वैकल्पिक राजनीति के निर्माण की भी शुरूआत हो गयी थी। भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन और आम आदमी पार्टी ने वैकल्पिक राजनीति को भारी नुकसान पहुंचाया और उसके इस कारनामे में कारपोरेट मीडिया उसका सहोदर बना रहा है। आज इस ‘आम आदमी पार्टी’ को मीडिया जितना कवरेज दे रहा है, उसका दशांश भी मुख्य धारा की वैकल्पिक राजनीतिक पार्टियों को वह कवर नहीं करता है।
लखनऊ में 30 सितम्बर को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने ”महंगाई, अत्याचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ! सद्भाव, विकास एवं कानून के राज के लिए!!” के नारे के साथ लखनऊ में एक विशाल जुलूस निकाला और ज्योतिर्बाफूले पार्क में एक विशाल जनसभा की। यह घटना उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए महत्वपूर्ण इसलिए थी कि यहां काफी अरसे से वामपंथी पार्टियों का जनाधार विशालतम नहीं रहा है। इस रैली में मोदी की दिल्ली रैली के मुकाबले चार-पांच गुना अधिक कार्यकर्ता मौजूद थे फिर भी किसी इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इसे कवर नहीं किया। अंग्रेजी और हिन्दी के समाचार-पत्रों ने केवल स्थानीय पन्नों पर इसका जिक्र किया। उर्दू अखबारों पर अभी भी कारपोरेट मीडिया का स्वामित्व नहीं है। उर्दू समाचार पत्रों ने इस घटना को पूरी गम्भीरता से स्थान दिया।
कुछ भी माह पहले सभी केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों तथा स्वतंत्र फेडरेशनों ने दिल्ली में एक बड़ी रैली की थी जिसमें लगभग एक लाख के करीब भीड़ थी। इस घटना को भी किसी टी.वी. चैनल ने नहीं दिखाया और समाचार पत्रों में जाम के कारण जनता को होने वाली असुविधा के समाचार ही छपे थे। एक लाख मजदूर और कर्मचारी पूरे देश से राजधानी दिल्ली में क्यों जमा हुए, कारपोरेट मीडिया का इससे कोई सरोकार नहीं था।
लगभग एक साल पहले वामपंथी पार्टियों ने जिस समय ‘हर परिवार को हर माह दो रूपये के हिसाब से 35 किलो अनाज की कानूनी गारंटी’ के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर एक हफ्ते धरना दिया था, उसी समय ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ का उसी जंतर-मंतर पर धरना चल रहा था। मीडिया ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के धरने को लगातार दिखा रहा था परन्तु उससे कहीं बहुत अधिक बड़े वामपंथी पार्टियों के धरने को कवर नहीं किया गया। कुछ यही समाचार पत्रों ने भी किया था।
मीडिया के यह दोहरे मानदण्ड यह इशारा करते हैं कि पूंजीवादी राजनीति के बरक्स वैकल्पिक राजनीति - वाम राजनीति के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत जरूरी है कि आम जनता एक विशालकाय वैकल्पिक मीडिया खड़ा करे। इसे एक रात में खड़ा नहीं किया जा सकता है। इसलिए यह जरूरी है कि ”पार्टी जीवन“ और ”मुक्ति संघर्ष“ के प्रसार को आम जनता के मध्य ले जाया जाये। हर बड़े जिले में इन समाचार पत्रों के कम से कम 200-200 ग्राहक तथा छोटे जिलों में कम से कम 100-100 ग्राहक जनता के मध्य बनाये जाये, जिससे वैकल्पिक राजनीति के समाचार और लेख आम जनता के मध्य पहुंच सके। शुरूआत इसी से करनी होगी और हम आशा करते हैं कि हमारे साथी इसे गम्भीरता से लेते हुए इस कार्यभार को भी अदा करेंगे।
- प्रदीप तिवारी
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मंगलवार, 6 अगस्त 2013

घटता रोजगार बढ़ती बेरोजगारी

उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षकों के 72,000 पदों के लिए 58,00,0000 आवेदन प्राप्त हुए तो पश्चिम बंगाल में 35,000 पदों के लिए 54,50,000 आवेदन प्राप्त हुए। एक पद के लिए उत्तर प्रदेश में 80 तो पश्चिम बंगाल में 156 उम्मीदवार का औसत है। ऐसी ही हालत पूरे देश में है। केवल इन दो राज्यों में जितने लोगों ने आवेदन किया है, उनकी संख्या सिंगापुर की कुल आबादी की दो गुना है। पता नहीं कितने पिताओं के दर्शन का दुर्भाग्य मुझे प्राप्त हुआ जो यह कहने के लिए आये थे कि वे खेत बेच कर अपने पुत्र या पुत्री की नौकरी के लिए कितने लाख देने को लालयित हैं। बाजार लगा हुआ है जहां खरीददार ज्यादा और माल (नौकरियां) कम हैं। काबिलियत कोई मायने नहीं रखती।
देश में शिक्षित बेरोजगार युवकों की तादाद तेजी से बढ़ रही है। सरकारी आंकड़ों का सन्देश यह है कि आप जितने शिक्षित होंगे, बेरोजगारी की संभावनायें उतनी ही ज्यादा प्रबल हो जायेंगी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश के शहरी इलाकों में अशिक्षित बेरोजगार केवल 1.3 प्रतिशत और ग्रामीण इलाकों में केवल 1.1 प्रतिशत हैं। माध्यमिक स्तर की पढ़ाई करने वाले 4.4 प्रतिशत शहरों में बेरोजगार हैं तो गांवों में 5.4 प्रतिशत। शहरी इलाकों में स्नातक बेरोजगारों की संख्या 8.4 प्रतिशत है तो गांवों में 11 प्रतिशत जबकि परास्नातक बेरोजगारों की संख्या शहरों में 7.7 प्रतिशत है तो गांवों में 13.9 प्रतिशत।
हाल में रोजगार संबंधी समाधान सुझाने वाली एक कंपनी एस्पारिंग माइंड्स ने करीब 6000 स्नातकों पर कराये गये अध्ययन में यह पाया कि 53 प्रतिशत युवक ही किसी नौकरी के काबिल हैं क्योंकि बाकी की अंग्रेजी काफी कमजोर है। आजादी के इतने सालों बाद भी देश में नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान की आवश्यकता भी बहस का एक मुद्दा है।
बेरोजगारी बढ़ने के बावजूद युवाओं में कोई गुस्सा नहीं दिखाई देता। वे सड़कों पर रोजगार मांगते दिखाई नहीं देते तो सरकार उनकी तरफ सोचे भी तो क्यों?
कुछ साल पहले की बात है कि एक चिकित्सक महोदय एक सम्मेलन में इंग्लैंड गये थे। लौट कर उन्होंने अपने सभी मरीजों को यह बताना शुरू किया कि वहां पर चिकित्सा व्यवस्था किस तरह निःशुल्क है और कैसी बेहतर सुविधायें वहां पर मौजूद हैं। वे बताया करते थे कि अगर किसी वृद्ध की तबियत खराब होती है तो वह अपने पुत्र या पुत्री के बजाय अस्पताल को फोन करता है, अस्पताल से एम्बुलेंस आकर उसे ले जाती है, उसका डाक्टरी मुआइना होता है और वह अस्पताल से बिना कुछ भी खर्च किये हुये दवाओं के साथ वापस आ जाता है। इस व्यवस्था का कारण वह यह बताते थे कि इंग्लैंड में वयस्कों की संख्या ज्यादा है और जिस किसी भी पार्टी की सरकार होती है, वह इनसे इनके इस अधिकारों को छीनने की जुर्रत इसलिए नहीं कर सकता है कि सरकार बनाना और गिराना उनके हाथ में होता है। जरा सी बात होने पर यह लोग सड़कों पर आ जाते हैं। हो सकता है कि उनकी इन बातों में कुछ अतिश्योक्ति हो लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि वहां की जनता अपने चिकित्सा के अधिकारों के प्रति जागरूक थी और उसके लिए संघर्ष करना जानती थी।
हिन्दुस्तान की आबादी का आज एक बहुत बड़ा हिस्सा युवा है और उसका अधिसंख्यक हिस्सा बेरोजगार है। यह वह हिस्सा है जो अपनी पारिवारिक आर्थिक स्थिति में कारण टॉप-10 या टॉप-20 कालेजों में दाखिला नहीं पा सकता और न ही ऐसे कालेजों की फीस भर सकता है। इसलिए उसका अंग्रेजी का ज्ञान कमजोर होता है। लेकिन यह तबका अपनी ताकत को नहीं समझता। सरकारें बनाने और सरकारें गिराने की क्षमता रखते वाला यह नौजवान अपनी ताकत को नहीं जानता। अपनी काबिलियत पर नौकरी छीनने की बात न कर अपने पिता के खेत को बेचने के ख्वाब देखता है। ‘नौकरी दो या बेरोजगारी भत्ता दो’ या ‘एक पैर रेल में एक पैर जेल में’ जैसे नारे लगाते युवाओं के हुजूम सड़कों पर नहीं दिखाई देते। शिक्षित नौजवान देश में क्रान्ति कर सकते हैं। परन्तु उन्हें क्रान्ति की चेतना से लैस करने वाले संगठन भी आज कल खामोश है। यह खामोशी समझ में नहीं आती।
बकौल भगत सिंह ऐसे नौजवानों में अगर क्रान्ति की चेतना नहीं भरी जाती तो यह प्रतिक्रियावादियों के हाथ के औजार बन जाते हैं। आइये इस खामोशी पर कुछ बहस करते हैं और कोशिश करते हैं कि इस बहस से इन नौजवानों में व्याप्त श्मशान सी खामोशी को तोड़ा जाये।
- प्रदीप तिवारी
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शुक्रवार, 28 जून 2013

बिखरा राजग, अब संप्रग-2 की बारी

जैसे-जैसे लोक सभा चुनाव 2014 नजदीक आ रहे हैं, राष्ट्रीय राजनीति में नैसर्गिक रूप से एक नए ध्रुवीकरण की प्रक्रिया भी गति पकड़ रही है। जिस राजग में कभी भाजपा के साथ 23 और क्षेत्रीय दल हुआ करते थे, उसमें शुरू हुआ बिखराव एक तरह से अपने चरम पर पहुंच चुका है। सम्प्रति राजग में भाजपा के साथ केवल शिरोमणि अकाली दल और शिव सेना बचे हैं। मोदी के नाम पर शिव सेना भी आक्रामक रूख दिखा रही है, बात दीगर है कि उसे बाद में स्पष्टीकरण देकर नरम कर दिया जा रहा है। शिव सेना के मुखपत्र ‘सामना’ के सम्पादकीय में उत्तराखंड त्रासदी में मोदी के हवाले से किये गये इस दावे पर हमला किया गया था कि उन्होंने देहरादून जाकर उत्तराखंड में फंसे 15,000 गुजरातियों को सुरक्षित निकाल कर गुजरात वापस पहुंचा दिया। वैसे तो यह दावा स्वयं में हास्यास्पद था परन्तु आम जनता पर उसकी प्रतिक्रिया कुछ दूसरी तरह की थी। लोगों को यह कहते सुना गया कि इसी तरह अगर अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी देहरादून जाकर अपने-अपने राज्य के पर्यटकों को निकाल लाते तो अच्छा होता। इसके मद्देनज़र इस दावे की हकीकत पर यहां गौर करना जरूरी हो जाता है।
मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मजबूत कैडर हैं, संघ ने बहुत कुछ हिटलर और मुसोलिनी से सीखा और हिटलर के गुरू का यह कहना था कि किसी झूठ को सौ बार बोलने पर वह सच लगने लगता है। इतिहास में हमने स्टोव बाबा और गणेश जी के दुग्धपान जैसे तमाम झूठों का सच देखा है। मोदी इस गुरूवाणी पर बहुत यकीन रखते हैं और उन्होंने मीडिया - इलेक्ट्रानिक, प्रिन्ट एवं सोशल को प्रभावित करने का एक शक्तिशाली तंत्र विकसित कर रखा है। मोदी उत्तराखंड एक चाटर्ड हवाई जहाज से जाते हैं, वहां वे 80 इनोवा कारों को किराए पर लेते हैं और उसके ठीक 24 घंटों के बाद 15,000 गुजरातियों को बचा कर गुजरात पहुंचाने का दावा कर दिया जाता है। प्राकृतिक विपदा से जहां इतनी बड़ी विभीषिका आई हुई हो, रास्ते बंद हों, 10 दिन से अधिक का समय बीत जाने पर भी सेना हेलीकाप्टरों से लोगों को निकाल नहीं पाई है, वहां 80 इनोवा 24 घंटों में कैसे 15,000 गुजरातियों को गुजरात पहुंचा देती हैं, इसकी मीमांसा हम सुधी पाठकों पर छोड़ देते हैं। वे खुद तय कर लें कि मोदी से बड़ा मक्कार राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान में कोई दूसरा नहीं होगा। इसी के साथ हम अपने मूल विषय पर लौट चलते हैं।
राजग के विघटन के बाद क्या? यह एक सवाल है, जिस पर आज-कल हर आदमी बात करना चाहता है। क्या संप्रग-2 मजबूत हो रहा है? क्या तमाम घपले-घोटालों और महंगाई के बावजूद संप्रग-2 फिर एक बार सत्ता की ओर लौट रहा है? वैसे तो संप्रग-2 का विकल्प राजग नहीं था क्योंकि दोनों की आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है। जनता जो बदलाव चाहती है वह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते आने वाला नहीं है। भाजपा खुद अपनी दुर्गति का एहसास कर छटपटा रही थी और इसी छटपटाहट में उसने मोदी का कार्ड खेलने की कोशिश की। यहां स्पष्ट करना जरूरी हो जाता है कि गुजरात गुजरात है, महाराष्ट्र महाराष्ट्र है और तमिलनाडु तमिलनाडु है। इन राज्यों में जो राजनीतिक युक्तियां कामयाब हो जाती हैं, वे पूरे हिन्दुस्तान में कामयाब हो ही नहीं सकती हैं। आडवाणी और नितीश की छटपटाहट के पीछे यही सत्य था, जिसे भाजपा अपनी छटपटाहट में देखना ही नहीं चाहती क्योंकि ऊपर यानी संघ के आदेश हैं।
संप्रग-2 आसन्न लोकसभा चुनावों में विजय प्राप्त करेगी, ऐसा तो वर्तमान हालातों में लगता नहीं है। जनता में भ्रष्टाचार के खिलाफ गुस्से को शान्त करने का सरमायेदारों ने जो गैर-राजनीतिक तरीका यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल कानून का आन्दोलन चलाया था, उसका असर एक बार फिर समाप्त हो रहा है। जनता में गुस्सा पनप रहा है। जब गुस्सा पनप रहा है तो वह कहीं तो कहीं निकलेगा ही और अगर चुनाव सामान्य परिस्थितियों में हो जाते हैं, तो संप्रग-2 का सत्ता में वापस आना नामुमकिन लगता है।
संप्रग-2 में भी इस समय कुल 24 दल हैं। कुछ अन्दर तक शामिल हैं तो कुछ बाहर बैठ कर सहारा दिये हुये हैं। कोई मंत्री बन कर सहारा दिये हुये है तो कोई सीबीआई के खौफ से सहारा दिये हुये है। काठ की हांड़ी के नीचे जल रही आग ने हाड़ी के अधिसंख्यक हिस्से को जला दिया है। संप्रग-2 एक डूबता हुआ जहाज है और राजनीति में डूबते हुए जहाज से पहले चूहे भागते हैं और एक बार जो भगदड़ शुरू होती है तो रूकने का नाम नहीं लेती। देखना दिलचस्प होगा कि यह भगदड़ कब शुरू होती है - चुनावों के कितना पहले? कांग्रेसी बहुत खुश हैं कि वे 24 हैं लेकिन उनकी खुशी जल्दी ही काफूर होने वाली है। जमाना था जब राजग में 24 दल थे और इतिहास में यही लिखा जाने वाला है कि संप्रग-2 में 24 दल थे।
किसी मोर्चे के रूप में चुनावों के पूर्व कोई विकल्प उभर सकेगा ऐसा नहीं लगता है परन्तु वामपंथ को अपने इतिहास से सबक लेते हुए बहुत संभल-संभल कर चलना होगा। पहली बात, उसे अपनी वैकल्पिक आर्थिक नीतियों की स्पष्ट व्याख्या करनी होगी। जब तक यह अंक आम जनता तक पहुंचेगा, 1 जुलाई को दिल्ली सम्मेलन में वामपंथ उस वैकल्पिक नीति को पेश कर चुका होगा और उसी के इर्द-गिर्द एक सैद्धान्तिक मोर्चा खड़ा करने की शुरूआत करेगा। जनता ऐसे आर्थिक-राजनैतिक विकल्प के इर्द-गिर्द लामबंद हो सकती है। दूसरे उसे पिछले चुनावों की अपेक्षा अपने अधिक उम्मीदवार देने का प्रयास करना चाहिए और अधिक से अधिक सीटों को जीतने के लिए लड़ना चाहिए जिससे वह अपने पिछले आकड़े 60 के आगे निकल सके। 60 से आगे निकलने का मतलब होगा कि चुनाव पश्चात् होने वाले ध्रुवीकरण का केन्द्र यानी न्यूक्लियस वामपंथ होगा न कि कोई अन्य क्षेत्रीय दल। वामपंथी कतारों को भी अभी से ही जुट जाना चाहिए। यह वक्त धन इकट्ठा करने का है, जनता को लामबंद करने का है और जनता के गुस्से को धार देने का है। उन्हें इस समय इसी मुहिम पर जुटना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 23 जून 2013
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शनिवार, 8 जून 2013

सूचना आयोग का राजनीति दलों के बारे में फैसला

कानून के जानकारों के लिए केन्द्र सूचना आयोग ने सूचना के अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सभी राजनीतिक दलों को सार्वजनिक अधिकरण घोषित करने का फैसला आश्चर्यचकित करने वाला है। आयोग ने अपने फैसले के जो भी आधार गिनाये हैं, उनका स्वयं का कोई कानूनी आधार नहीं है। निश्चित रूप से फैसले के खिलाफ न्यायपालिका में कई अपीलें प्रस्तुत की जायेंगी और कानून के विभिन्न पहलूओं पर विचार-विमर्श होगा, मीडिया खुद इस मुद्दे का ट्रायल शुरू कर पूरे देश में एक जन उभार पैदा करने की कोशिश करेगा। इन सबके परिणामों से इतर लोकतंत्र के वर्तमान हालातों में कुछ मुद्दे हैं, जिन पर गंभीरता से चिन्तन की जरूरत है।
वैसे केन्द्रीय सूचना आयोग की दलीलें तकनीकी और खोखली हैं। आयकर में छूट, पार्टी कार्यालयों के निर्माण के लिए भूमि का आबंटन, वोटर लिस्टों का दिया जाना उन्हें केन्द्र सरकार द्वारा फंडेड संगठन की श्रेणी में नहीं लाता है। जन प्रतिनिधित्व कानून कंे प्रभावी क्रियान्वयन के लिए लोकतंत्र में राजनीतिक तंत्र के प्रभावी रूप से कार्यशील होने के लिए उक्त सुविधायें सरकार द्वारा राजनीतिक दलों को दिया जाना लाजमी है। इसी देश में ऐसी तमाम कंपनियां और संगठन हैं, जिन्हें सरकार तमाम सुविधायें मुहैया कराती है। परन्तु वे सूचना के अधिकार कानून के बाहर हैं। केन्द्रीय सूचना आयोग ने हास्यास्पद रूप से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को नई दिल्ली में 78 करोड़ की भूमि निःशुल्क दिये जाने की बात की है। ज्ञात होना चाहिए कि 4 दशक पहले कोटला रोड पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को अजय भवन के निर्माण के लिए जो भूमि का छोटा सा टुकड़ा दिया गया था, उसकी कीमत चन्द लाख रूपये थी। उस वक्त वह जगह वीरान थी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार को भूमि की कीमत अदा करना चाहती थी परन्तु तत्कालीन सरकार ने कीमत लेने से मना कर दिया था।
राजनीतिक दल भारतीय लोकतंत्र की रक्त-मज्जा हैं। राजनीतिक दलों से स्वस्थ लोकतंत्र में अपेक्षा होती है कि वे लोकतंत्र को होने वाले तमाम बाहरी संक्रमणों (बीमारियों) से रक्षा करने की ताकत (एंटी बॉडीज) पैदा करें  परन्तु आज का कटु सत्य यह है कि हमारे वर्तमान पूंजीवादी राजनीतिक तंत्र ने भ्रष्टाचार रूपी एक ऐसी ताकत यानी एंटी बॉडीज का निर्माण कर दिया है जो भारतीय लोकतंत्र को ही चट किये जा रहा है। लाजिमी है कि एक जागरूक लोकतंत्र की जागरूक जनता में इस पूरी व्यवस्था के खिलाफ एक गुस्सा हो। यह गुस्सा जायज है और हम इसके खिलाफ कुछ भी कहने नहीं जा रहे हैं।
ऐसे माहौल में अगर जनता राजनीतिक दलों की आमदनी के श्रोतों तथा खर्चों के बारे में जानना चाहती है, तो उसमें कुछ भी बुरा नहीं है। कुछ व्यक्ति विशेष ऐसा करते हुए, केन्द्रीय सूचना आयोग तक पहुंच गये तो इसका दोष उन्हें भी नहीं दिया जा सकता। हमारे विचार से उनकी इच्छा इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं थी। सरकार, राजनैतिक दलों और भारतीय संसद का यह उत्तरदायित्व बनता है कि वे इस जन भावना का आदर करते हुए इस बारे में एक प्रायोगिक एवं लागू किये जा सकने वाली संहिता के बारे में गंभीर मंथन करें। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। स्वैच्छिक संगठन (वालेंटरी अर्गनाईजेशन) होने के बावजूद उन्हें अपनी आमदनी एवं खर्चों को पारदर्शी बनाना चाहिए। ‘जन लोकपाल आन्दोलन’ के गर्भ से हाल ही में पैदा हुई आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल का यह दावा कि उनकी पार्टी ने एक रूपया चंदा देने वाले तक का नाम वेब साइट पर डाल दिया है, एक लफ्फाजी है, एक गैर जिम्मेदाराना बयान है, जिस पर चर्चा नहीं की जानी चाहिए। पूरे हिन्दुस्तान में फैले संजाल वाली किसी भी पार्टी के लिए ऐसा कर पाना बिलकुल असम्भव है। इसकी कामना भी लोगों को नहीं करनी चाहिए।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के अंतर्गत अगर राजनीतिक दल फार्म 24 पर बीस हजार रूपये से ज्यादा का धन जमा करने वालों के नाम निर्धारित अवधि में भारत निर्वाचन आयोग को प्रस्तुत नहीं करते हैं तो आय कर अधिनियम के अंतर्गत उन्हें अपनी आमदनी पर आयकर से मिलने वाली छूट नहीं मिलेगी। थोड़े दिनों पहले वित्तमंत्री ने इस सीमा को समाप्त कर सभी चंदा देने वालों का नाम इसमें घोषित करने की बात की थी और कहा था कि चुनाव आयोग की संस्तुति पर ही ऐसा किया जा सकता है। चुनाव आयोग ने जवाब दिया था कि यह कार्यपालिका का कार्य है। परन्तु इसे घटा कर हजार-दो हजार करना हास्यास्पद ही कहा जायेगा। इस सम्बंध में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 15 जुलाई 1998 और 5 जुलाई 2004 को सरकार को भेजे गये सुक्षाव स्पष्ट हैं। आयोग ने राजनीतिक दलों के लिए अपने खातों का अंकेक्षण अनिवार्य करने तथा उससे जनता को सुलभ कराने के बावत कानून बनाये जाने की जरूरत रेखांकित की थी। इस पर राजनीतिक दलों में बहस हो सकती है।
सन 2009 में आयकर अधिनियम में धारा 80 जीजीबी और 80 जीजीसी जोड़ कर कंपनियों एवं व्यक्तियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिये जाने वाले चन्दे पर आयकर माफ कर दिया गया था। यह कानून जनता के अधिसंख्यक लोगों को मालूम नहीं है। सरकार को चाहिए कि वह इस बारे में जनता की जागरूकता के लिए विज्ञापन जारी करे। निश्चित रूप से आयकर से छूट प्राप्त करने के लिए चन्दा देने वाले लोग रसीद को आयकर विभाग में प्रस्तुत करेंगे और आयकर विभाग के केन्द्रीय प्रॉसेसिंग सेन्टर को स्वतः इसका पूरा डाटा मिल जायेगा।
परन्तु लोकतंत्र को और अधिक मजबूत करने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी बैठकों में हुई बहस की जानकारी को गोपनीय रखने की अनुमति दी जानी चाहिए। बैठक के बाद हर राजनैतिक दल बैठक के फैसलों को प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सार्वजनिक करता है। सामान्य व्यक्तियों को राजनीतिक दलों के अंदरूनी मसलों में नाक घुसेड़ने की आदत नहीं है। परन्तु सूचना आयोग ने जो करने की कोशिश की है, वह निश्चित रूप से राजनीतिक तंत्र में दलों में तोड़-फोड़ करने के लिए दूसरे सक्षम दलों को और सक्षम करने जैसा है। एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसा उचित नहीं होगा। केन्द्रीय सूचना आयोग को अपने फैसले पर स्वयं पुनर्विचार करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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बुधवार, 29 मई 2013

सरकारी बैंकों के विलय की साजिश फिर शुरू

चिदम्बरम के वित्तमंत्री बनने के बाद से एक बार फिर सरकारी बैंकों, जोकि अब पूर्णतया सरकारी नहीं रहे हैं, को आपस में मिलाने की साजिश जोर पकड़ने लगी है। चिदम्बरम आखिर चाहते क्या हैं, वे स्पष्ट नहीं कर पाते। वे बार-बार दोहराते हैं कि देश को ग्लोबल बैंकों की जरूरत है और इसलिए सरकारी बैंकों का विलय कर पांच-छः बड़े बैंक बना दिये जायें। वास्तविकता यह है कि अगर सभी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का विलय कर दिया जाये तो भी कुल व्यवसाय के मामले में शायद ही वह नया बैंक ग्लोबल बैंकों की सूची में स्थान पा सके। इस तथ्य से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तव में चिदम्बरम का दीर्घकालिक लक्ष्य कुछ और ही है, जिसे वह साफ नहीं करना चाहते।
सन 2008-09 में वैश्विक मंदी के दौर में जब चिदम्बरम को गृह मंत्री बना दिया गया था, तो वित्त मंत्रालय का प्रभार प्रणव मुखर्जी के पास था। उस दौर में यह एजेंडा स्वतः पृष्ठभूमि में चला गया था। कुछ समय पहले जारी सालाना मौद्रिक नीति में भारतीय रिजर्व बैंक ने इस पर आगे विचार-विमर्श के लिए आधार पत्र जारी करने की बात कहीं है। रिजर्व बैंक बहकी-बहकी बाते करता है। वह इसी नीति में कहता है कि वित्तीय एवं बैंकिंग सेवाओं के लिए स्थानीय बैंकों की जरूरत है और इसके लिए उसने संकेत दिया है कि शहरी सहकारी बैंकों को पूर्ण वाणिज्यिक बैंक का दर्जा दिया जा सकता है ताकि वे शहरी क्षेत्रों में बैंकिंग जरूरतों को पूरा कर सकें। रिजर्व बैंक यूनिवर्सल बैंकिंग लाईसेन्स के स्थान पर घरेलू और विदेशी कारोबार करने वाले बैंकों को अलग-अलग लाईसेंस देने की भी वकालत करता है।
एक ओर उनकी सरकार बार-बार बैंकिंग क्षेत्र में प्रतिस्पर्घा की कमी का रोना रोती है और इसीलिए नये निजी बैंकों के लिए लाईसेंस जारी करने की योजना पर भी काम कर रही है। नये निजी बैंक निश्चित रूप से देशी और विदेशी सरमायेदारों द्वारा स्थापित किये जायेंगे। ये नये बैंक ग्रामीण क्षेत्र, जहां वास्तव में बैंकिंग सेवाओं की कमी आज भी है, में शाखाएं खोलने से रहे। वे शाखाएं खोलेंगे शहरों में जहां बैंकों की शाखाओं का विराट संजाल पहले से मौजूद है और किसी न किसी तरह ये सरकारी बैंकों के व्यवसाय का ही एक हिस्सा काट कर फलेंगे, फूलेंगे। आखिर वे बैंकिंग क्षेत्र की किस कमी को पूरा करेंगे, इस पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगा रहा है और लगा रहेगा।
आइये इस मुद्दे पर कांग्रेस के अंदर चल रहे द्वन्द्व का भी जिक्र कर दिया जाये। कांग्रेस के केरल से बड़े नेता व्यालर रवि ने 9 फरवरी को केरल के कोची में आल इंडिया बैंक इम्लाइज एसोसिएशन के 27वें राष्ट्रीय महाधिवेशन का उद्घाटन करते हुए कहा कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक बड़ा काम था, जिसे कारपोरेट घराने पटरी से उतारना चाहते हैं। काफी स्पष्ट शब्दों में उन्होंने कहा कि “बैंकिंग संशोधन बिल के जरिये कारपोरेट घराने भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण में लेना चाहते हैं। वे किसी सामाजिक जिम्मेदारी को तो निर्वाह करना नहीं चाहते और उन्हें नये बैंक खोलने की अनुमति देना देश के लिए अच्छा नहीं होगा। अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने में बैंक निर्णायक भूमिका निभाते हैं।”
व्यालर रवि यहीं नहीं रूकते, वे और आगे बढ़ते हैं, ”कुछ नीति नियंता कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्रियों की नीतियों को बदल रहे हैं। किसी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह न करने वाले कारपोरेटों को खुश किया जा रहा है।“ उन्होंने कहा कि उनका मानना है कि इनमें सुधार के लिए वामपंथी ताकतों की आवाज की महती जरूरत है। हालांकि वे सीधे-सीधे कहने के बजाय बचते हुए निकल जाते हैं परन्तु उनकी भावभंगिमा साफ थी कि केन्द्र सरकार की जनविरोधी नीतियों में बदलाव के लिए देश में वामपंथ को मजबूत करने की जरूरत है।
व्यालर रवि कांग्रेस के कोई छोटे नेता नहीं हैं। वे केरल सरकार में दो बार गृह मंत्री रह चुके हैं और कई सालों से केन्द्र में प्रवासी भारतीय मामलों के मंत्री हैं। वे केरल में कांग्रेस के अध्यक्ष तथा केन्द्र में कांग्रेस के महासचिव भी रह चुके हैं। वे केरल की उस क्रान्तिकारी जमीन पर अपना भाषण दे रहे थे जहां कई दशक पहले साक्षरता दर शत प्रतिशत पहुंच चुकी थी और वामपंथ मजबूत है और कांग्रेस नीत गठबंधन और वामपंथ के मध्य सत्ता परिवर्तन लगातार होता रहता है। उनका कथोपकथन किसी हाल में शामियाने में सीमित नहीं रह जाना था। वे जानते थे कि ये आवाज कहीं दूर तक केरल के साथ-साथ हिन्दुस्तान में भी पहंुचेगी।
इसके बाद तो हम मनमोहन और चिदम्बरम से केवल इतना कहना चाहेंगे कि -
बात है साफ दलीलों की जरूरत क्या है?
दो कदम चल कर बता दो जन्नत की हकीकत क्या है?
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 13 अप्रैल 2013

मी लार्ड! हमें न्याय चाहिए

किसी की अवमानना मकसद नहीं है। अगर होती है, तो ये उसके अपने कर्म हैं, जिसका जिम्मेदार किसी और को नहीं ठहराया जा सकता। सवाल उठते हैं, तो उठाना भी जरूरी है। लगभग चार महीने पहले वर्ल्ड जस्टिस प्रोजेक्ट ने ‘रूल ऑफ लॉ इंडेक्स 2012’ शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की थी जिसमें 97 देशों की सूची में भारत को 78वां स्थान मिला है। जबकि हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका को हमसे बेहतर बताया गया है जबकि वहां की स्थिति को भी हम अच्छी नहीं कह सकते। रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रशासनिक एजेंसियाँ बेहतर प्रदर्शन नहीं करती और न्यायिक प्रणाली की गति अत्यधिक धीमी है। इसकी मुख्य वजह अदालत की कार्यवाही में होने वाली देरी है। हाल में आई एक रिपोर्ट में जिक्र था कि देश की अदालतों में 3 करोड़ मुकदमें 15 साल या उससे ज्यादा समय से लम्बित हैं।
संविधान बनाने वाले हमारे बुजुर्गों ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए संविधान में तीन स्तम्भ कायम किये जिसमें एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ‘न्यायपालिका’ है। न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र का एक ऐसा स्तम्भ है, जिसकी ओर कहीं और से न्याय न मिलने पर जनता ताकती है। पुरानी कहावत है कि समय से न्याय न मिलने का मतलब न्याय देने से मुकरना है और आज देश की पूरी न्यायपालिका नीचे से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक देश की जनता को न्याय देने से मुकर रही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के दौर में शासक वर्गों को न्याय प्रणाली पर खर्च करना फिजूलखर्ची लग सकती है और अहलूवालिया एवं थरूर जैसे बददिमाग राजनीतिज्ञ न्यायपालिका को गैरजरूरी भी करार दे सकते हैं। ऐसे दौर में भारतीय न्यायपालिका की जिम्मेदारियां और बढ़ जाती हैं और उसे प्रोएक्टिव तरीके से न्याय मुहैया कराने की ओर बढ़ना चाहिए।
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर बेगुनाह मुसलमान युवकों को बिना मुकदमा चलाये जेल में रखने का जिक्र गाहे-बेगाहे हुआ करता है और इस मामले में गठित निमेष आयोग की रिपोर्ट में वर्णित कतिपय अन्य बातों का भी जिक्र होता है। ऐसे वाकये भी हैं जिसमें एक व्यक्ति को पिछले 10 सालों से विभिन्न जिलों में एक के बाद एक मुकदमें ठोके जा रहे हैं और वे लम्बे समय से जेलों में हैं। जिन मुकदमों में फैसला हो चुका है, उसमें वे बरी कर दिये गये हैं। चूंकि प्रदेश सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया है, इसलिए उसके निष्कर्षों की अधिकारिक जानकारी नहीं हो सकती परन्तु बार-बार ऐसे नौजवानों की रिहाई की मांग उठती है और सत्तासीन सपा के नेतागण उस पर वायदे करते भी दिखाई देते हैं। अगर न्यायपालिका अपने कर्तव्यों को निभा रही होती तो क्या ऐसी नौबत नहीं आती?
दण्ड प्रक्रिया संहिता के प्राविधानों के अनुसार किसी भी नागरिक को गिरफ्तार करने के 24 घंटों के अन्दर पुलिस को उसे न्यायालय के सामने पेश करना होता है। न्यायिक अभिरक्षा में किसी को जेल भेजने के 90 दिनों के अन्दर अदालत में आरोप पत्र न दाखिल होने पर उस व्यक्ति को जेल में नहीं रखा जा सकता। जिला न्यायाधीश, मुख्य न्यायिक/मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट जेलों का मुआईना करने के लिए अधिकृत होते हैं। जेलों के मुआइनों का मतलब जेल अधीक्षक के सामने बैठ कर चाय-नाश्ता करना नहीं होता। यह देखना होता है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कोई व्यक्ति बिना आरोपपत्र के 90 दिनों से ज्यादा जेल में है अथवा कोई कैदी अपने अपराध के लिए नियत सजा से अधिक समय से बिना सजा पाये ही जेल में है। यह निरीक्षण अमूमन वार्षिक और मासिक आधार पर किये जाते हैं। इस व्यवस्था के विपरीत जब देश की विभिन्न जेलों में तमाम कैदी अनाधिकृत रूप से बन्द हों, तो इसे किसकी लापरवाही कहा जायेगा?
दिल्ली में एक बालक के साथ एक पुलिस कांस्टेबल द्वारा किये यौन अनाचार को पांच साल से अधिक हो चुके हैं। मामला अभी लम्बित है। उस बेचारे को गाहे-बगाहे बिहार से दिल्ली गवाही देने के लिए आना पड़ता है और बिना किसी कार्यवाही के वह वापस लौट जाता है। उस बालक की पीड़ा को समझने की जिम्मेदारी आखिर किसकी है और कौन उसे इस पीड़ा से निजात दिला सकता है।
दिल्ली में ही एक 12 वर्ष की बालिका का पहले अपहरण और फिर उसके साथ बलात्कार होता है। उसे बेहद दर्दनाक स्थिति में पाया गया था। इस मामले को भी पांच साल हो रहे होंगे। मामला अदालत में अभी भी लम्बित है।
दिल्ली कोई अपवाद नहीं है। देश के हर कोने में इस तरह के मामले मिल जायेंगे। सत्र न्यायालयों में गवाही का काम शुरू होने पर लगातार चलता था। अब ऐसा देखा जा रहा है कि एक-एक या दो गवाहियां ही एक बार में होती हैं और फिर उसके बाद लम्बी तारीख लगा दी जाती है।
आज कल एक चुटकुला बहुत प्रचलित है। कहा जाता है कि अगर आप 40-45 साल की उम्र पार कर चुके हैं, कोई भी अपराध कीजिए, आपको इस जिन्दगी में सजा भुगतनी नहीं पड़ेगी। दस-बारह साल मुकदमा निचली अदालत में चलेगा, फिर 20 साल उच्च न्यायालय में और उसके बाद जब तक अपील की सुनवाई का वक्त सर्वोच्च न्यायालय में मुकर्रर होगा, आप गत हो चुके होंगे।
दीवानी मामलों में और श्रम मामलों में तो स्थिति और भी खराब है। अमूमन देखा जाता है कि गांवों में दबंग लोग गरीबों की परिसम्पत्तियों पर लाठी-गोली के बल पर कब्जा कर लेते हैं। पहली बात, अगर आप गरीब हैं तो मुकदमा का खर्च बर्दाश्त कर मुकदमा लड़ नहीं सकते और किसी तरह आपने अगर ऐसी जहमत उठा भी ली तो कई पीढ़ियां पार हो चुकी होंगी। श्रम कानूनों का उल्लंघन आम हो चुका है और न्यायालयों में बढ़ते मामलों की सुनवाई नहीं हो रही है। सरकार को तो निवेशकों की चिन्ता है, वह कोई कार्यवाही क्यों करेगी?
न्यायपालिका के लोग दलील दे सकते हैं कि मुकदमें बढ़ते जा रहे हैं, न्यायधीशों की संख्या बहुत कम है। संसाधन नहीं हैं। सरकार न्यायिक सुधार करना नहीं चाहती। आदि-आदि। यह बात भी ठीक है, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के दौर में सरकार का यह रवैया हो सकता है लेकिन भारतीय संविधान न्यायपालिका को ऐसी मुरव्वत नहीं देता। याद आता है न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर, चंद्राचूड और पी.एन. भगवती का कार्यकाल जब सर्वोच्च न्यायालय में वकीलों को मोटी फीस न दे सकने वाले भी एक पोस्ट कार्ड लिख कर न्याय पा जाते थे। मिनटों में बड़े से बड़े मुद्दों पर खुली अदालत में निर्णय हो जाता था।
उदाहरण के तौर पर गाजीपुर जिला सहकारी बैंक ने सन 1957 में एक ड्राईवर रामेश्वर राय को बर्खास्त कर दिया था, वह श्रम न्यायालय से जीत गया तो बैंक ने उच्च न्यायालय में और उसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपीलें कीं। बैंक की आखिरी अपील 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दी थी। 1962 से 1984 तक रामेश्वर राय बहाली और तनख्वाह के लिए दर-दर की ठोकरें खाता रहा। फिर आया वह वक्त जिसका जिक्र ऊपर किया गया है। उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव, श्रम सचिव, श्रमायुक्त तथा वाराणसी के सहायक श्रमायुक्त तथा गाजीपुर के जिलाधिकारी को सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसे निर्देश जारी किये थे कि आदेश के 30 दिनों के अन्दर रामेश्वर राय न केवल बहाल हो गया था बल्कि उसे अपने पूरी पिछली मजदूरी का भी भुगतान मिल गया था।
यह उल्लेख जरूरी होगा कि अगर रामेश्वर राय सर्वोच्च न्यायालय में उस वक्त एक याचिका दाखिल भी करना चाहता तो उसे मिलने वाला पूरा एरियर पहले कहीं से कर्ज लेकर एडवोकेट को देना होता। फैसला जब आता तो मय ब्याज के इस पैसे को वह साहूकार को अदा नहीं कर सकता था। 27 साल की बेरोजगारी का दंश बहुत कष्टकर होता है। वह अपने परिवार के साथ दाने-दाने को मोहताज़ था। जब वह बहाल हुआ था, उसे सेवानिवृत्त होने में कुछ ही समय बचा था। आज का जमाना होता तो वह बिना न्याय पाये मर ही जाता।
विशेष परिस्थितियों में न्यायपालिका को कानून बनाने का भी अधिकार प्राप्त है और इस अधिकार का प्रयोग भारतीय न्यायपालिका ने किया भी है।
मी लार्ड! आप समर्थ हैं, लेकिन करेंगे तो तब जब करना चाहेंगे और आपके चाहने की प्रतीक्षा हिन्दुस्तान के तमाम दबे-कुचले पीड़ित नागरिक कर रहे हैं। उन्हें त्वरित न्याय चाहिए, जिसे आप उपलब्ध करा सकते हैं। कह नहीं सकते कि यह प्रतीक्षा कितनी लम्बी होगी.......
- प्रदीप तिवारी
9 अप्रैल 2013
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गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

राम और मोदी किन-किन के लिए जरूरी हैं?

2014 में लोक सभा चुनाव होने हैं। सबसे बड़ा प्रदेश होने के कारण देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश ने हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है क्योंकि लोकसभा के लिए 80 सदस्य केवल इस प्रदेश से ही चुने जाते हैं। पिछले कुछ दशकों में उत्तर प्रदेश की जनता धार्मिक एवं जातीय संकीर्णता में जकड़ गयी है, जिसके कारण प्रदेश की राजनीति मुख्य चार दलों - कांग्रेस, भाजपा, सपा एवं बसपा के बीच सिमट कर रह गयी है। प्रदेश में होने वाले मतदान का बड़ा हिस्सा इन्हीं चारों राजनीतिक दलों के बीच बट जाता है और लोकसभा के सीटें भी मुख्यतः इन्हीं के बीच बंट जाती हैं। प्राप्त होने वाले मतों में हल्का सा परिवर्तन परिणामों पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है।
उदाहरण के लिए 2009 में हुये लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में 6.3 प्रतिशत रूझान ने उसे 18.3 प्रतिशत मत एवं 21 सीटों पर विजय दिला दी थी, जबकि 2.5 प्रतिशत रूझान ने बसपा को 27.4 प्रतिशत मत एवं 20 सीटों पर विजय दिलाई थी जबकि भाजपा के मतों में 4.7 प्रतिशत कमी ने उसे 17.5 प्रतिशत मतों के साथ केवल 10 सीटों पर सीमित कर दिया था और सपा के मतों में 3.4 प्रतिशत कमी से वह केवल 23.3 प्रतिशत वोट पर सिमट गयी थी परन्तु उसे 23 सीटों पर विजय मिल गयी थी। उससे ठीक तीन साल बाद हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस के वोट घट कर 11.65 प्रतिशत रह गये और उसे केवल 28 विधान सभा सीटों पर विजय मिली, उस वक्त सत्ताधारी बसपा के वोटों में हल्की से कमी से उसे केवल 25.91 प्रतिशत मतों पर सीमित कर दिया परन्तु उसे केवल 80 विधान सभा सीटों पर ही विजय मिल सकी जबकि सपा के वोट बढ़कर 29.13 प्रतिशत पहुंच गये और उसे 224 विधान सभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने का मौका मिला। भाजपा के वोटों में लगभग ढाई प्रतिशत की कमी परिलक्षित हुई और वह केवल 15 प्रतिशत मतों के साथ केवल 47 विधान सभा सीटों पर सिमट गयी थी। लोक सभा और विधान सभा चुनावों में मतों के रूझान में थोड़ा सा परिवर्तन देखा जाता रहा है। लोक सभा चुनावों में जनता का रूझान हल्का सा राष्ट्रीय दलों की ओर बढ़ जाता है।
2014 में प्रधानमंत्री होने का ख्वाब उत्तर प्रदेश से कई लोग पाले हुए हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल तो हैं ही, सपा के मुलायम सिंह और बसपा की मायावती भी किसी से पीछे नहीं हैं। भाजपा में गड़करी के हटने पर राजनाथ सिंह अध्यक्ष बने हैं और भाजपा उत्तर प्रदेश में उनके नाम पर कार्ड खेलने की कोशिश कर सकती है।
राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह कांग्रेस और भाजपा तथा उत्तर प्रदेश के स्तर पर सपा और बसपा भ्रष्टाचार में लीन रही हैं, ये चारों दल यह नहीं चाहते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा हो। आर्थिक नीतियों के सवाल पर भी चारों दल नए आर्थिक सुधारों के ध्वजवाहक हैं और वे नहीं चाहते कि चुनावों के दौरान महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे खड़े हों। संक्षेप में यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि चार के चारों दलों का हित इसी में है कि 2014 के चुनाव मुद्दाविहीन राजनीति का शिकार बन जायें और इसीलिए ये चाहते हैं कि देश और उत्तर प्रदेश में संकीर्ण धार्मिक एवं जातीय ध्रुवीकरण तीव्र होकर उनके-उनके मतों की संख्या में बढ़ोतरी करे।
भाजपा लगातार अपने गिरते मत स्तर से बहुत चिन्तित है। गांधी की हत्या से लेकर गांधीवादी समाजवाद तक के सफर में उत्तर प्रदेश में उसे टिकने का मौका नहीं मिला और न ही ”भूखों को धर्म की जरूरत नहीं होती“ कहने वाले विवेकानन्द को अपनाने का ही कोई फायदा मिला। उसे केवल राम के सहारे ही केन्द्र में और राज्य में सत्ता में भागीदारी मिली थी और इसीलिए उसे राम की आज एक बार फिर जरूरत है। इसी जरूरत के मद्देनजर परिवार के उग्र मुखौटे विश्व हिन्दू परिषद द्वारा महाकुंभ मेले के अवसर पर इलाहाबाद में आयोजित तथाकथित धर्म संसद में भाजपा के नये अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने राम मंदिर पर अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता दोहराई तो आरएसएस प्रमुख भागवत ने यहां तक उद्घोष कर डाला कि जो मंदिर बनायेगा वहीं सत्ता में आयेगा और जो सत्ता में आयेगा, उसे मंदिर बनाना ही होगा। लोगों का यह कयास था कि इलाहाबाद में मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया जायेगा। परन्तु भाजपा और संघ के लोग जानते हैं कि मोदी का नाम केवल गुजरात में बिक सकता है, उत्तर प्रदेश में तो कतई नहीं। इसलिए उसी वक्त मोदी श्री राम कालेज आफ कामर्स दिल्ली में विकास की बात कर रहे थे।
अपने हालिया कुशासन में कांग्रेस, बसपा और सपा ने ऐसा कुछ किया नहीं है जिसका उन्हें सहारा हो। नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार शेयर सूचकांक को ऊपर उठा सकते हैं लेकिन गरीबों के वोट नहीं दिला सकते। इसलिए ये तीनों यही चाहते हैं कि भाजपा राम का नाम ले, मोदी का नाम ले तो गरीब अल्पसंख्यकों का ध्रुवीकरण उनकी ओर हो सके। बसपा तो एक साल पहले हुए विधान सभा चुनावों में अपने कुकर्मों का फल भुगत भी चुकी है। सपा को भी मालूम है कि विधान सभा में मिले वोटों में इजाफे की गुंजाईश तो कतई है ही नहीं, उसमें कमी ही आयेगी। कांग्रेस को भी मालूम है कि अगर कहीं उसे उतने ही वोट मिले जो उसे एक साल पहले मिले थे तो 21 तो छोडिये 10 सीटें भी उत्तर प्रदेश में नहीं आनी हैं।
इसका स्पष्ट मतलब है कि राम और मोदी के नाम की जरूरत उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेस, सपा और बसपा को भी है। लोकतंत्र के लिए बेहतर यही होगा कि उत्तर प्रदेश की जनता राम और मोदी से किनारा काट जाये और चुनावों को मुद्दाविहीन न बनने दे।
- प्रदीप तिवारी
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सोमवार, 14 जनवरी 2013

बलात्कार के खिलाफ जनाक्रोश को भुनाने की कवायद

16 दिसम्बर की रात देश की राजधानी में एक पैरा-मेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार की घृणित बहशी हरकत होती है। वह बेचारी तो अब इस दुनियां में नहीं रही लेकिन उसके साथ घटी घटना के फलस्वरूप दिल्ली की सड़कों और उसके बाद पूरे देश की सड़कों पर हुए विरोध प्रदर्शनों ने यह जाहिर किया कि जनता में आक्रोश है। जहां मीडिया ने शुरूआत से ही इसे एक विचारधाराविहीन जनसंघर्ष की संज्ञा देने शुरू कर दिया था, वहीं देश के राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में तमाम लोगों ने इस घटना पर तरह-तरह की अनर्गल प्रतिक्रिया देकर उस जनाक्रोश को भुनाने की अपनी-अपनी तरह की कोशिशें कीं। इन कोशिशों में देखा जाना चाहिए कि जिन संगठनों का यह प्रतिनिधित्व करते हैं, उन संगठनों का महिलाओं के बारे में, महिलाओं के सशक्तीकरण के बारे में और उनकी अस्मिता के बारे में सोच क्या है।
दूरदर्शन सहित सभी प्रमुख न्यूज चैनलों पर सबसे पहले दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वार्ता दिखाई गयी जिसमें वे इस घटना पर अपना गुस्सा प्रकट करते हुए सख्त एवं त्वरित कार्यवाही की मांग कर रही थीं। शीला जी लम्बे अर्से से देश की उसी राजधानी की मुख्यमंत्री हैं, जहां घटना घटी थी और केन्द्र में लगभग साढ़े आठ सालों से उन्हीं की सरकार सत्तासीन है। समझ में नहीं आया कि वे इस घटना के लिए किसको जिम्मेदार बता रही थीं - खुद को या सोनिया को या मनमोहन को? वे जो फार्मूले पेश कर रहीं थी, वे किसके लिए थे। उसी समय कांग्रेस के कुछ नेता, जिसमें राष्ट्रपति के सांसद पुत्र भी शामिल हैं, ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के लिए अशोभनीय शब्दों का प्रयोग किया, बाद में उनकी बहन और उन्होंने खुद माफी मांग ली।
इसके बाद सोनिया जी खुद सामने आती हैं और बलात्कार के अपराधियों के लिए मृत्यु दंड और उन्हें नपुंसक कर देने तक की सजा की मांग करती हैं। वे किस हैसियत से और किससे यह मांग कर रहीं थीं, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। चूंकि दिल्ली की घटना में एक नाबालिग भी शामिल था, इसलिए उन्हीं की पार्टी नाबालिग बच्चों पर भी मुकदमा चलाने के लिए कानून बदलने की मांग करती है। ध्यान देने योग्य बात है कि अगर कानून बदल भी दिया जाये तो उसे पीछे से लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे यूएन कंवेंशन होने के कारण इसे बदल पाना शायद आसान नहीं है।
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी कुछ अभद्र टिप्पणियां कीं। बाद में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत सामने आये और पहले दिन उन्होंने कहा कि बलात्कार ‘इंडिया’ में होते हैं, ‘भारत’ में नहीं। वैसे तो ‘इंडिया’ और ‘भारत’ में फर्क केवल इतना है कि ये दो अलग-अलग भाषाओं के शब्द हैं, जिसे हिन्दी में हम भारत कहते हैं उसे ही अंग्रेजी में इंडिया कहा जाता है। भागवत का इससे क्या आशय था, इसे साफ नहीं किया गया परन्तु इसके दो ही अर्थ हो सकते हैं - या तो वे प्राचीन भारत को भारत और वर्तमान को इंडिया कह रहे थे अथवा वे ग्रामीण भारत को भारत और शहरी भारत को इंडिया कह रहे थे। दोनों अर्थों पर उनके ज्ञान पर तरस आता है। प्राचीन भारत के “महाभारत“ में द्रौपदी के चीरहरण का प्रकरण जनमानस में बहुत ख्यात है। प्राचीन भारत के गांवों में उत्तर और दक्षिण टोला हुआ करता था और जो आज भी अपने अस्तित्व को समाप्त नहीं कर सका है। बात को स्पष्ट कहने की जरूरत नहीं है। ग्रामीण अंचलों में निवास करने वाले लोग आशय समझ जायेंगे। दिल्ली की घटना के बाद रोज अखबारों को पलटने पर पता चलता है कि रोजाना कम से कम पांच बलात्कारों के समाचार तो केवल उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचलों के होते हैं। यानी कम से कम 5 घटनायें तो रौशनी में आ जाती हैं, पता नहीं कितनी घटनायें समाचार ही नहीं बन पाती हैं।
भागवत की इस टिप्पणी के समाचार पत्रों में प्रकाशित होने और न्यूज चैनलों में दिखाये जाने से वे उत्साहित हुये और फिर बोल उठे। उन्होंने विवाह को एक ऐसा ”समझौता“ करार दे दिया, जिसमें महिला अस्मिता और सम्मान तार-तार होते दिखाई देते हैं।
जमायते इस्लामी पीछे कैसे रहती। उसने भी न्यायमूर्ति वर्मा आयोग को एक प्रतिवेदन दे दिया जिसमें सह-शिक्षा पर पाबंदी लगाने और लड़के-लड़कियों के मिलने जुलने और चलने तक पर पाबंदी लगाने की मांग कर दी।
इन सबके टीआरपी को देख कर आसाराम बापू में भी जोश में आ गये और कहा कि पीड़ित लड़की को बलात्कारियों के सामने हाथ जोड़ कर, बलात्कारियों के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाना चाहिए था, दया की याचना करनी चाहिए थी। इनके इस बयान की भी खूब पब्लिसिटी हुई।
आने वाले दिनों पता नहीं कौन-कौन क्या-क्या कहेगा परन्तु इस घटना और उसके बाद उपजे जनाक्रोश तथा उसके फलस्वरूप हुए प्रलापों के कुछ अर्थ निकाले जाने जरूरी हैं। महिला आन्दोलन और भाकपा कार्यकर्ताओं को चाहिए कि जहां-जहां भागवत और आसाराम सरीखे महिला विरोधी जायें, वहां उनके कार्यक्रमों के समय इनके विरोध में महिलाओं को भारी संख्या में भागीदारी करनी चाहिए और उनके कार्यक्रमों में व्यापक व्यवधान पैदा करना चाहिए। जहां-जहां बलात्कार की घटनाओं के समाचार मिलते हैं, वहां-वहां जनता की व्यापक लामबंदी करनी चाहिए और दिल्ली जैसे लगातार और लम्बे समय तक चलने वाले तथा व्यापक विरोध आयोजित करने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
9 जनवरी 2013
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बुधवार, 26 दिसंबर 2012

बलात्कार और मीडिया की भूमिका

16 दिसम्बर की रात दिल्ली में चलती बस में एक 23 साल की मेडिकल छात्रा के साथ घटी घटना से सभ्य समाज का सिर शर्म से झुक गया। हर सभ्य नागरिक उस घटना की निन्दा करेगा और पीड़िता के साथ पूरी सहानुभूति रखेगी। ऐसे लोग ढूंढे नहीं मिलेंगे जिनकी चाहत यह हो कि उस घटना के आरोपियों को सख्त से सख्त सजा न दी जाये। घटना ने समाज में एक कंपन पैदा किया। संसद से लेकर सड़क तक आक्रोश दिखाई दिया। सब कुछ स्वाभाविक था परन्तु जिस तरह देखते-देखते तमाम समाचार चैनल आन्दोलनकारी हो गये, हर कोण से कमेंट्री करने की कोशिश में लग गये, उस पर चिंतन जरूर होना चाहिए।
पहली बात, लगभग सभी चैनलों के लगभग सभी एंकर बार-बार जोर दे रहे थे कि सड़कों पर विरोध करने उतरी जनता की कोई विचारधारा नहीं है। उसकी कोई राजनीति नहीं है। वह किसी राजनीतिक दल का प्रतिनिधित्व नहीं करती। उनकी यह टिप्पणी कोई नई नहीं थी। ऐसा वे इसके पहले अप्रैल 2010 में शुरू हुए अन्ना आन्दोलन के समय भी कह रहे थे। अन्ना आन्दोलन के हस्र और उसकी वर्तमान स्थिति पर कोई टिप्पणी करने की हमारी मंशा इस समय नहीं है।
यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आन्दोलनकारियों के रूप में सड़कों पर उतरी जनता के विचारों में एक सामान्य सी साम्यता है, वे सब बलात्कार को गलत मानने वाले हैं, वे एक बालिका पर हुए बहशीपन से आक्रोशित हैं, वे अपराधियों को दण्ड दिये जाने के पक्ष में है और वे सब त्वरित कार्यवाही चाहते हैं। यह एक विचार है। इसी विचार से वे आन्दोलन में उतरे हैं और यही विचार उनके मध्य एकता स्थापित कर रहा है। वे गैर राजनीतिक नहीं हैं। उनका बड़ा तबका किसी न किसी राजनीतिक दल का समर्थक रहा है और उन्हें वोट देता रहा है। मीडिया को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन प्रदर्शनों में तमाम प्रदर्शन महिला संगठनों के द्वारा किये गये थे और तमाम प्रदर्शनों को तमाम राजनीतिक दलों ने भी आयोजित किया था।
मूलतः पूंजीवाद अपने जन्म काल से ही विचार और विचारधाराओं को नष्ट करने का प्रयास करता रहा है। पूंजीवाद इसके लिए विभिन्न रूप रख कर सामने आता है। 1957 में मिलान में समाजवादियों के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ”विचारधाराविहीन मनुष्य“ का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, आपातकाल के अंतिम दौर में स्वयंभू युवा हृदय सम्राट संजय गांधी द्वारा विचारधाराविहीनता का दिया गया नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच का परिणाम था, 1990 के करीब विचारधारा का अन्त का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था तो 2010 में अन्ना आन्दोलन के समय में मीडिया द्वारा विचारधाराविहीन आन्दोलन का नारा भी पूंजीवाद के इसी सोच से निकला था। पूंजीवाद वर्तमान भारत में अपने विरोध को समाप्त करने के लिए राजनीतिक दलों और राजनीतिक विचारों के प्रति शहरी नव मध्यम वर्ग के मध्य एक विरोध पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। और इस बार भी मीडिया की यह टिप्पणी अपने आकाओं के इसी उद्देश्य की पूर्ति कर रही है।
मीडिया स्त्रियों की अस्मिता के प्रति कतई गम्भीर नहीं है। मीडिया ने सुषमा स्वराज के लोकसभा में दिये गये भाषण के आपत्तिजनक अंशों को बार-बार प्रसारित कर स्त्री अस्मिता को तार-तार किया। इस घटना के कवरेज के बीच-बीच ”लौंडिया पटाएंगे मिस्ड कॉल से’ के प्रसारण को अश्लील और दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है। दबंग-2 के विज्ञापन के लिए चैनलों ने छांट-छांट कर जो संवाद और फुटेज दिखाए, वे मीडिया को कटघरे में खड़ा करते हैं। एक चैनल ने ‘रात में डराती है दिल्ली’ कार्यक्रम के बीच-बीच में स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापन दिखाए। स्त्री अस्मिता को तार-तार करने वाले विज्ञापनों के अंतःपुर में बैठे मीडिया के लोग किस स्त्री हिंसा के खिलाफ माहौल बनाने में लगे हुए है, यह गौर करने लायक विषय है। सभ्य समाज को यह भी सोचना होगा कि वारदात, जुर्म, सनसनी और एसीपी अर्जुन जैसे कार्यक्रमों की अपनी क्या भूमिका है?
एक समाचार चैनल ने एक दिन अंग्रेजी और हिन्दी दोनों में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के लम्बे इंटरव्यू दिखाये। इंटरव्यू की विषयवस्तु मूलतः स्पांर्स्ड प्रोग्राम या विज्ञापन की तरह थी। शीला जी बड़ी गंभीरता से दिल्ली में घटने वाली वारदातों का ठीकरा पुलिस वालों और न्यायालयों पर थोप रहीं थीं। दिल्ली में लम्बे समय से राज्य सरकार उनकी है, केन्द्र में लम्बे समय से उनकी सरकार सत्ता में है। आखिरी पुलिस सुधारों को रोक किसने रखा है? आखिर न्यायिक सुधार क्यों नहीं हो रहे हैं? आखिर लोगों को न्याय क्यों नहीं मिलता? इसकी जवाबबदेही क्या सत्ता से दूर वामपंथियों की है?
मीडिया एक बार फिर जनता के मुद्दों को पृष्ठभूमि में ढकेलता नजर आया। मीडिया के इस पूरे खेल को हमें समझना होगा और इसका पर्दाफाश करना होगा।
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 8 दिसंबर 2012

दो मौतों पर कतारबद्ध पूंजीवादी राजनीतिज्ञ और मीडिया

कुछ ही दिनों पहले की बात है। दो व्यक्तियों की मौत होती है। एक व्यक्ति था - मुम्बई का बाल ठाकरे तो दूसरा था दो दशकों में खाकपति से अरबपति बनने वाला पोंटी चढ्ढा। एक मरा था अपनी उम्र के कारण स्वाभाविक मौत से तो दूसरे की हत्या हुई थी। दोनों ऐसे व्यक्तित्व नहीं थे जिनसे देश के जनमानस का कोई जुड़ाव रहा हो लेकिन उस दिन इलेक्ट्रानिक चैनलों के पास अन्य कोई खबर नहीं थी जो दोनों के ऊंचे कद के बारे में धारा प्रवाह प्रवचन दे रहे थे तो दूसरे दिन के अखबारों के पन्ने उनसे भरे हुए थे। यह तो था मीडिया का चरित्र तो दूसरी ओर देश के तमाम बड़े राजनीतिज्ञ इन दोनों को भरे गले से श्रद्धांजलि दे रहे थे। आश्चर्य हो रहा था इस गिरावट पर, हम कहां से कहां पहुंच गये हैं।
दहशत में मुम्बई बन्द रही क्योंकि वहां बाल ठाकरे के समर्थक कम उनसे आतंकित लोगों की संख्या ज्यादा है। कुछ लोग उन्हें बिहारी मानते हैं जो अन्य सामान्य भारतीयों की तरह बिहार से आकर रोजी-रोटी के लिए मुम्बई में बस गया था। शुरूआती दौर में वह एक स्ट्रग्लिंग कार्टूनिस्ट था। फिर वह बतौर कांग्रेसियों एवं पूंजीपतियों के एजेंट, वामपंथी ट्रेड यूनियनों को तोड़ने के लिए हिंसा के कारण चर्चा में आया था। इस दौर में वामपंथी ट्रेड यूनियनों पर ठाकरे और उसके समर्थकों ने हिंसक हमले किये थे। कामरेड कृष्णा देसाई की हत्या इन्हीं हिंसक घटनाओं के बीच में हुई थी। इसी दौर में मराठियों के रोजगार का प्रश्न उठाकर दक्षिण भारतीयों का विरोध शुरू किया, फिर मुम्बई में गुजरातियों का और अंत में उसने सभी गैर मराठियों पर हमले शुरू कर दिये। अंततः वह हिन्दुत्व के रथ पर सवार हो गया, अयोध्या के विवादित ढांचे को शिव सैनिकों द्वारा गिराये जाने का दावा करते हुए उसने कहा था कि उसे उन पर गर्व है। 1992-93 में मुम्बई में हुये दंगों में उसने जम कर हिस्सेदारी की। उसके भाषण और उसका लेखन हमेशा नागरिकों के मध्य घृणा फैलाता रहा परन्तु कभी भी कांग्रेसी और एनसीपी की सरकारों ने उसके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया। एक बार चुनाव आयोग ने जरूर उसे 6 सालों के लिए मताधिकार से वंचित कर दिया था। वह मराठी दलितों के खिलाफ भी काम करता रहा और उसे मंडल आयोग तथा दलित महत्वाकांक्षाओं का प्रखर विरोधी माना जाता रहा। अम्बेडकर की एक पुस्तक का महाराष्ट्र सरकार द्वारा प्रकाशन करने का उसने विरोध किया और शिव सैनिकों ने दलितों पर जम कर हमले किये थे।
उसके बाद एक और घटना घटी। मुम्बई की बंदी पर एक बालिका ने किसी सोशल नेटवर्किंग साईट पर अपने विचार लिख दिये और एक दूसरी बालिका ने उस विचार का समर्थन कर दिया। दोनों को पुलिस पकड़ कर थाने ले गयी और शिव सैनिकों ने एक के चाचा के अस्पताल को तहस-नहस कर दिया। देशव्यापी प्रक्रिया होने पर दोनों बालिकाओं को छोड़ दिया गया परन्तु उनके गिरफ्तार किये जाने के तथ्य ने एक बार फिर बाल ठाकरे और कांग्रेस के मध्य दुरभिसंधि की याद जरूर दिला दी।
 जहां तक पोंटी चढ्ढा का सवाल है, कहा जाता है कि दो दशक पहले वह एक देशी शराब के ठेके के सामने मछलियां तल कर बेचता था परन्तु दो दशकों में वह अथाह सम्पत्ति का मालिक बन गया। कैसे का जवाब तो नहीं दिया जा सकता परन्तु कहा जाता है कि उसके कारोबार में तमाम राजनीतिज्ञों की गलत कमाई का पैसा लगा हुआ था। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शराब की आपूर्ति पर उसका एकाधिकार कायम हो गया था। वह कई मल्टीप्लेक्स एवं मॉल्स का मालिका हो गया था। वह मुलायम सिंह और मायावती का चहेता माना जाता था। मायावती ने उसे चीनी निगम की कई मिलों की बेशकीमती सम्पत्तियों को कौड़ियों के भाव दे दिया था। उसकी मौत पर शोक संतप्त होने वालों में मुलायम सिंह और मायावती के अलावा उत्तराखंड के कांग्रेसी एवं भाजपाई मुख्यमंत्रियों के साथ-साथ पंजाब, हरियाणा, राजस्थान एवं दिल्ली के बड़े-बड़े राजनेता शामिल थे। इनमें से तमाम ने उसके अंतिम संस्कार में तो कईयों ने उसके घर पर बाद में होने वाले कर्मकांडों में शिरकत भी की।
यह दोनों मौतें ऐसी नहीं थीं कि उन पर कुछ लिखा जाये परन्तु उनकी मौतों पर कतारबद्ध हुये मीडिया और राजनीतिज्ञों ने एक बार फिर भारतीय राजनीति की उस गिरावट की ओर संकेत कर दिया है, जिस पर देश के हर नागरिक को चिन्तित होना चाहिए। इस गिरावट को रोकने का काम केवल जनता कर सकती है। कम से कम राजनीतिज्ञों पर नकेल कसने का काम उसका है।
- प्रदीप तिवारी 22.11.2012
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शनिवार, 10 नवंबर 2012

दस दंगे केवल नौ महीने में

एक बार फिर उत्तर प्रदेश के हालात बहुत ही खतरनाक हैं। सपा सरकार को बने केवल नौ महीने हुये हैं और प्रदेश में दस साम्प्रदायिक वारदातें हो चुकी हैं। हर घटना में प्रशासन की लापरवाही ने सरकार की मंशा, कार्यप्रणाली और कार्यकुशलता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। चुनाव के वक्त ही यह आशंका जतायी जा रही थी कि समाजवादी पार्टी की सरकार बनते ही प्रदेश में दंगों और अपराधों की बाढ़ न आ जाये। लोगों ने सरकार तो बना दी परन्तु सरकार ने खुद की साख पर ही बट्टा लगा लिया है। मथुरा, बरेली, प्रतापगढ़, गाजियाबाद, इलाहाबाद, फैजाबाद, बाराबंकी जैसी जगहों पर आज भी तनाव बरकरार है। सरकारी सूत्रों का कहना है कि खुफिया तंत्र ने पहले ही आशंका जता दी थी कि प्रदेश बारूद के ढेर पर बैठा है और कहीं भी कोई भी बड़ी साम्प्रदायिक घटना घट सकती है। सरकारी सूत्रों का यह खुलासा तो सरकार और प्रशासन की मंशा पर गंभीर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। सरकार और प्रशासन ने सुधरने के बजाय घटनाओं की शुरूआत में सुस्ती दिखा कर खुद पर ही सवालिया निशान लगा लिया।
सामान्य जनता समझ नहीं पा रही है कि अचानक प्रदेश में इस तरह दंगों की बाढ़ कैसे आ गयी। लोग अपने-अपने हिसाब से इसकी परिभाषा करने में जुटे हैं। मुख्यमंत्री ने फैजाबाद दंगों के बाद कहा कि ‘यह दंगे उनकी सरकार को बदनाम करवाने के लिये करवाये जा रहे हैं। इसके पीछे कुछ लोगों की साजिश है।’ अगर यह विरोधियों की साजिश है तो मुख्यमंत्री खुद कर क्या रहे हैं? फैजाबाद के दंगों के लगभग 14 दिन बाद प्रशासनिक अधिकारियों को हटाने का फैसला लिया गया है। दंगों के लिए इन प्रशासनिक अधिकारियों को उदारता दिखाते हुए अगर दोषी न भी माना जाये तो कम से कम जिस प्रकार घटनायें घटी थीं, उसमें समय पर कार्यवाही न करने का दोष तो कम से कम इन अधिकारियों द्वारा पर था ही। जिस प्रकार इन अधिकारियों ने अपराधिक सुस्ती दिखाई थी, उसी तरह की सुस्ती मुख्यमंत्री ने उन्हें हटाने का फैसला लेने में दिखाई। क्या मुख्यमंत्री जनता को यह बताने का साहस दिखायेंगे कि इसके पीछे किसकी साजिश थी? वैसे दंगों के पीछे किसी की साजिश थी तो फिर मुख्यमंत्री ने उस साजिश का नाकाम करने के लिए क्या किया, इसे भी जनता जानना चाहेगी। केवल साजिश का बहाना बनाने से सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती।
इन घटनाओं की हकीकत यह है कि मरने वालों में अधिसंख्यक मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं। सरकार बनाते ही मुसलमानों के कब्रिस्तानों की बाउंड्री बनवाने की घोषणा की गयी थी। इसके भी निहितार्थ अब तलाशे जाने लगे हैं।
ऐसा नहीं है कि ये हालात सिर्फ इसलिये पैदा हो रहे हैं कि अफसरों का इकबाल खत्म हो चुका है। कानून-व्यवस्था के लिए सरकार लम्बा समय नहीं मांग सकती। वास्तविकता यह है कि मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री का तेवर देख कर ही अधिकारियों के काम करने का रवैया बदल जाता है और अगर तेवर दिखाने के लिए भी समय की जरूरत हो, तो इस पर आश्चर्य जरूर होता है।
2014 के लोकसभा चुनावों में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए यहां के राजनैतिक दल अवसरवादी कदम उठा रहे हैं और उनके हाथों में खेल रही साम्प्रदायिक ताकतें कोई मौका छोड़ना नहीं चाहतीं। इन घटनाओं में जानमाल का नुकसान तो होता ही है पूरे सूबे का सौहार्द भी दांव पर लग जाता है।
वैसे प्रदेश में भाई-चारे के माहौल को तार-तार करने के प्रयास सफल नहीं होंगे। उत्तर प्रदेश की गंगा-जमुनी तहजीब बरकरार रही है और बरकरार रहेगी, इसे प्रदेश की जनता एक बार फिर साबित करेगी। ऐसे समय में धर्मनिरपेक्ष ताकतों और आम जनता की यह जिम्मेदारी बन जाती है कि वे सतर्क रहंे और भविष्य में वोटो के ध्रुवीकरण के लिए किए जाने वाले ऐसे किसी भी संकीर्ण और धृणित प्रयास को असफल कर ऐसी ताकतों को मुंहतोड़ जवाब दें।
- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 29 सितंबर 2012

राजनीतिक विरोध की वास्तविकता

संप्रग-2 सरकार एक ऐसे भंवर में फंस गयी है जिससे वह निकल नहीं पा रही है। वह इस भंवर से जितना निकलने की कोशिश करती है वह ही अधिक वह उस भंवर में फंसती चली जा रही है। लोगों को याद होगा कि सन 1991 में देश का विदेशी मुद्रा भंडार इतना कम हो गया था कि तत्कालीन केन्द्रीय सरकार को सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा का इंतजाम करना पड़ा था। लोगों ने उस समय इस बात पर ध्यान नहीं दिया था कि ऐसी दुर्गति का कारण क्या था। चूंकि कारण जानने की कोशिश नहीं की गयी तो उस कारण के निदान की भी कोई कोशिश नहीं हुई।
विदेशी मुद्रा की आवश्यकता होती है आवश्यक वस्तुओं के विदेशों से होने वाले निर्यात के लिए, विदेशों से प्राप्त ऋणों की अदायगी के लिए और विदेशी निवेश पर प्राप्त लाभांश की वापसी के लिये। विदेशी मुद्रा की आय का मुख्य जरिया होता है निर्यात से प्राप्त आय। इसके अतिरिक्त जिन श्रोतों से विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है वे हैं विदेशों से प्राप्त ऋण, अनुदान और निवेश के लिए आई राशि। इन दोनों के मध्य संतुलन को भुगतान संतुलन या ‘बैलेन्स आफ पेमेन्ट’ के नाम से जाना जाता है। किसी भी देश के लिए विदेशी मुद्रा का संतुलन बहुत जरूरी होता है। आजादी के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने वाले राजनेताओं ने शुरूआत से ही निर्यात से प्राप्त विदेशी मुद्रा की आय के अतिरिक्त अन्य श्रोतों को प्रयोग करने में कोताही बरती। उन्होंने निर्यात से अधिक आयात को हमेशा हतोत्साहित किया और इसी के फलस्वरूप वे भारतीय रूपये की कीमत को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में स्थिर रखने में सफल रहे। सन 1980 तक भुगतान संतुलन का ग्राफ एक सीध में हल्के-फुल्के उतार-चढ़ाव के साथ संतुलित रहा। आज की युवा पीढ़ी को सुनकर शायद यह आश्चर्य हो कि उस दौर में अमरीकी डालर की औकात भारतीय रूपये के सामने बहुत कम थी। केवल पौने पांच रूपये खर्च करने पर एक अमरीकी डालर मिल जाया करता था।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही सत्ता की राजनीति में नई पीढ़ी सामने आयी जिसने न तो आजादी की लड़ाई में भाग लिया था और न ही उसने अर्थशास्त्र को समझने की इच्छा। संचार क्रांति की ओर देश बढ़ा परन्तु अमरीका से अनाप-शनाप मूल्यों पर कम्प्यूटर एवं दूसरे यंत्रों के अंधाधुंध निर्यात से विदेशी मुद्रा का भंडार खाली होने लगा। आज जो कम्प्यूटर बीस हजार रूपये में मिल जाता है, उससे कई गुना कम क्षमता वाला कम्प्यूटर उस दौर में हिन्दुस्तान में दो-दो लाख रूपये में लाया गया। लोगों को दस साल पहले मिलने वाले मोबाईल की कीमत भी याद ही होगी और उसके फीचर्स भी। कभी यह ध्यान नहीं दिया गया कि इस निर्यात के लिए आवश्यक विदेशी मुद्रा का प्रबंध कैसे होगा। उसी का परिणाम सन 1990 में सामने आया जब विदेशी मुद्रा भंडार पूरी तरह चुक गया था और भारतीय रिजर्व बैंक को अपना सोने का भंडार गिरवी रखना पड़ा था। निश्चित रूप से देश के लिए वह शर्मनाक हालत थी। देश का हर नागरिक इस स्थिति के लिए दुखी था परन्तु अधिसंख्यक को इसका कारण ज्ञात नहीं था।
फिर उसके बाद दौर शुरू हुआ एक ऐसे दौर का जिसमें सत्ता से जुड़े राजनीतिज्ञों की वह पीढ़ी आई जिसने कभी भी देश के गरीबों की हालत नहीं देखी थी, जिसे कभी बेरोजगारी के दंश का सामना नहीं करना पड़ा था और जिसने देश के लिए कभी कोई ख्वाब नहीं देखा था। उसने जिन आर्थिक नीतियों पर चलने का फैसला किया उसी का परिणाम है कि कहने को तो देश की विकास दर आसमान छू रही है परन्तु अमरीकी डालर के सामने भारतीय रूपया इतना बौना हो गया है कि 55 रूपये खर्च करने पर भी एक अमरीकी डालर नहीं खरीदा जा सकता। इसी का परिणाम है कि आज हमे पेट्रोल और डीजल की कीमतें इतनी अधिक भुगतनी पड़ रही हैं। विदेशी मुद्रा भंडार एक बार फिर शून्य की ओर बढ़ रहा है। हमने आयात को निर्यात से अधिक कर दिया। विदेशी ऋणों से फौरी हल निकालने की कोशिश की जिससे एक ओर तो भ्रष्टाचार बढ़ा तो दूसरी ओर उस ऋण की ब्याज सहित अदायगी के लिए और अधिक विदेशी मुद्रा की जरूरत हुई। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए आया धन मुनाफे के साथ वापस चला गया। जितना लेकर आया था उससे कई गुना ज्यादा विदेशी मुद्रा लेकर गया।
मनमोहन सिंह जैसे अमरीका परस्त नौकरशाह से राजनीतिज्ञ बने लोग अब भी सुधरने का नाम नहीं ले रहे हैं। इस संकट का हल अभी भी वे उसी तरह फौरी तौर पर निकालना चाहते हैं। अमरीका के इशारे पर विदेशी पूंजी को खुदरा व्यापार तक करने की इजाजत दे दी गयी है। वे अभी भी उसी दिवास्वप्न में जी रहे हैं, जिस दिवास्वप्न को उन्होंने 1991 में देखा था। कहते हैं कि ठोकर लगने से आदमी सीखता है परन्तु मनमोहन सिंह और उनके साथी अभी भी सीखने को तैयार नहीं हैं।
संप्रग-2 आज एक डूबता हुआ जहाज है जो अपने साथ पूरे देश को डूबो देना चाहता है। भाजपा अपने जन्मकाल से अमरीका परस्त रही है। इस देश के समाजवादी भी अमरीका परस्त रहे हैं। वे बात तो देश के गरीबों की करते हैं परन्तु आजादी के अगले दशक में ही उन्होंने देश में विचारधाराविहीनता का परचम बुलन्द करने की कोशिश की थी। वे बात अल्पसंख्यकों की करते हैं परन्तु अल्पसंख्यकों के लिए लालू और मुलायम जैसे मुख्यमंत्रियों ने क्या किया, इसे जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि बेवकूफ बनाने के सिवा उनके भले के लिए कुछ किया ही नहीं। उल्टे ऐसे-ऐसे कदम उठाये कि क्या कहना। उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा बुनकरों का है, उसे बर्बाद करने के लिए हैण्डलूम कारपोरेशन से लेकर कताई मिलों को बंद करवा दिया था। बुनकर अब रिक्शा चलाते हैं या फिर अभी भी करघा लेकर भूखों मर रहे हैं। प्रदेश की बेशकीमती सम्पत्ति को औने पौने दामों पर बेच दिया। बसपा की बातें और काम भी इससे अलग नहीं रहे हैं। वास्तव में दोनों ही मौसेरे भाई-बहन हैं।
डीजल के दाम बढ़े, गैस सिलेण्डरों की संख्या अतिसीमित कर दी गयी और खुदरा व्यापार में एफडीआई को अनुमति दे दी गयी तो समाजवादी भी सड़कों पर उतरे विरोध करने के लिए। लेकिन उन्होंने तुरन्त घोषणा कर दी कि साम्प्रदायिकता के प्रेत के डर से वे संप्रग-2 सरकार को समर्थन देना जारी रखेंगे। विरोध और समर्थन की यह फितरत तो केवल हिन्दुस्तान के समाजवादियों में ही देखने को मिलती रही है। संप्रग-2 की तरह साम्प्रदायिकता की नाव पर सवार दल भी आज डूबता जहाज हैं। राजग ने भी भ्रष्टाचार के आरोप में संसद न चलने देकर किस प्रकार संप्रग-2 को वह सब करने का मौका मुहैया कराया जो अमरीका और विदेशी पूंजी चाहती है। उनकी राजनीति तो विरोध के जरिये सहयोग पर चलती रही है।
भाजपा और समाजवादियों की इस फितरत को समझना होगा। जनता के हर तबके को सोचना चाहिए कि कौन विरोध के लिए विरोध कर रहा है और कौन वास्तव में विरोध कर रहा है। केन्द्र सरकार के जन विरोधी कार्यों का विरोध करने के लिए जनता के विशाल तबके को उन वामपंथी ताकतों के इर्दगिर्द ही इकट्ठा होना चाहिए जो वास्तव में इन कदमों का विरोध कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नागरिकों को तो इस पर ज्यादा ही गौर करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी, 26 सितम्बर 2012
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मंगलवार, 11 सितंबर 2012

बेरोजगारी भत्ते की ओर ताकते नौजवान

कल 9 सितम्बर को लखनऊ में एक कार्यक्रम के दौरान समाजवादी पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े जोर-शोर के प्रचार के साथ नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देना शुरू कर दिया। हर बेरोजगार को उत्तर प्रदेश में कल से मिलने लगा हर माह एक हजार रूपये का बेरोजगारी भत्ता। पिछले विधान सभा चुनावों में समाजवादी पार्टी के नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की बात की थी। बड़ी चतुराई से चुनाव घोषणापत्र में यह लिखा गया था कि 35 साल के ऊपर के बेरोजगार नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। चुनाव घोषणापत्र में लिखा कौन पढ़ता है। मुलायम सिंह और अखिलेश सिंह पूरे प्रदेश में अपनी चुनाव सभाओं के दौरान नौजवानों को बेरोजगारी भत्ता देने की बात करते रहे। अखबारों में उनका यह उद्घोष मोटे-मोटे टाईप में मुखपृष्ठों पर छपता रहा। बेरोजगार नौजवान उनके पीछे दौड़ने लगे और लम्बी-लम्बी लाईन लगाकर समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाकर सत्ता में पहुंचा दिया।
सत्ता में पहुंचने के बाद सरकार ने चुनाव घोषणापत्र दिखाते हुए घोषणा कर दी कि केवल 35 साल के ऊपर के नौजवान बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जायेगा। चर्चा शुरू हुई, असंतोष शुरू हुआ। चुनाव घोषणापत्र में जो छापा था, वह तो नौजवानों को दिखाया नहीं गया था। 35 साल की उम्र तक आदमी रोजगार न मिलने पर कुछ न कुछ तो करने लगता है चाहे रिक्शा चलाये या जूता गांठे या मजदूरी करे। बेरोजगारी के असली दंश को उसे शिक्षा पूरी करने के बाद 18-20 साल की उम्र में ही झेलना शुरू करना पड़ता है। जहां नौकरी निकलती है, वहां आवेदन देने के पैसे भी भरने पड़ते हैं फिर दौड़ कर टिकट खरीद कर जाना भी पड़ता है। उससे 35 साल की उम्र तक बेरोजगार रहने और इंतजार करने को कहना निश्चित रूप से उसकी बेरोजगारी का मजाक उड़ाना नहीं तो क्या था। दूसरे 35 साल की उम्र में आदमी प्रौढ़ होना शुरू कर देता है, जवानी तो उसकी खत्म ही हो जाती है।
हल्ला मचना शुरू हुआ, रोष उपजना शुरू हुआ तो उम्र कम करते करते पहले 30 फिर 25 साल कर दी गयी। कम से कम लोगों को बेरोजगारी भत्ता देना पड़े इसके लिए कई शर्ते लगाई जाने लगीं - मसलन बेरोजगारी भत्ता पाने वाले को जब बुलाया जायेगा, उसे काम करने के लिए हाजिर होना होगा नहीं तो भत्ता बन्द कर दिया जायेगा और दिये गये भत्ते की वसूली कर ली जायेगी। विरोध होने पर कुछ शर्तों को तो वापस ले लिया गया लेकिन एक नई शर्त के साथ कि बेरोजगार नौजवान की कुल श्रोतों से पारिवारिक आमदनी 3000 रूपये से ज्यादा नहीं होनी चाहिए और उसे कम से कम ग्रैजुएट तो होना ही चाहिए।
बेरोजगार आखिर बेरोजगार ही होता है। चाहे कितना भी पढ़ा लिखा हो या फिर न पढ़ा लिखा हो, बेरोजगारी का दंश को उसे ही झेलना होता है। उसका परिवार चाहे कितना भी कमाता हो अथवा भूखा मरता हो। बेरोजगारी की पीड़ा तो किसी बेरोजगार से पूछिये।
कल के इस समारोह के समाचार कई दिनों से समाचार पत्रों में छप रहे थे। अधिकारिक आंकड़े को अभी तक मालूम नहीं हुए हैं परन्तु इतना पता चला है कि सरकार ने लगभग सत्तर-पचहत्तर हजार नौजवानों को चिन्हित कर लिया है जोकि प्रदेश में बेरोजगार हैं।
जानकर आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि जिस तरह से सरकार बेरोजगारी भत्ता देना चाहती थी और नही भी देना चाहती थी, उसको देखते हुए लगभग इतने ही लोगों को बेरोजगारी भत्ता मिलने का अंदाजा हमें था। लेकिन उत्तर प्रदेश के बेरोजगार नौजवानों को शायद आश्चर्य हुआ हो।
योजना आयोग के अनुसार उत्तर प्रदेश में लगभग 6 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं जिसमें से लगभग 1 करोड़ लोग नौजवान हैं। योजना आयोग द्वारा गरीबी की परिभाषा के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति प्रति दिन आय 26 रूपये और शहरी क्षेत्र में 32 रूपये है। इस प्रकार यदि 30 दिनों का महीना माना जाये और 4 व्यक्तियों का परिवार को ग्रामीण क्षेत्र में गरीबों की प्रति परिवार मासिक आय 3120 रूपये और शहरी क्षेत्र में 3840 रूपये बनती है। उत्तर प्रदेश ने 3000 रूपये प्रतिमाह की आमदनी का आंकड़ा उससे भी कम रख दिया। गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले परिवारों के बच्चे ग्रैजुएट बन कहां पाते हैं? अगर बन भी जाते हैं तो बेरोजगार कहां रह पाते हैं दस-पांच रूपये के लिए किसी न किसी पंचर बनाने की दुकान या होटल पर बर्तन साफ करने की नौकरी करने लग जाते हैं।
लोगों को कायल होना चाहिए कि ऐसी विषम परिस्थितियों में उत्तर प्रदेश सरकार को कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी पात्र बेरोजगारों को ढूंढने के लिए। लोगों को बेवकूफ बनाने के हुनर के लिए हमें समाजवादियों की तारीफ करनी चाहिए। लेकिन जो बार-बार बेवकूफ बन कर भी न समझ सके ...........?
- प्रदीप तिवारी
10 सितम्बर 2012
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रविवार, 26 अगस्त 2012

66वें स्वतंत्रता दिवस पर 99 प्रतिशत की बात

यह एक आमंत्रण है स्थितिप्रज्ञ एवं विज्ञ अर्थशास्त्रियों को। उन्हें झकझोरने का एक प्रयास है कि वे कुछ बोलें। देश न सही परन्तु जनता तो आर्थिक संकटों से घिरती चली जा रही है। यह आर्थिक संकट कितने गहन है, इसका आकलन होना चाहिए।
संप्रग-2 के तीन साल पूरे होने के मौके पर प्रधानमंत्री ने तो कह दिया कि अमरीकी डालर की बढ़ती कीमतें और देश के संकटग्रस्त भुगतान संतुलन से वे परेशान नहीं हैं क्योंकि करेंसी के भाव घटते-बढ़ते  रहते हैं और भूमंडलीकृत दुनियां में विचरणशील मुद्रा को विचरण करने से कौन रोक सकता है।
मनमोहन सिंह को आखिर चिन्ता हो भी तो क्यों? जब नौकरशाह थे तो सरकारी पेट्रोल जलाते थे और आज प्रधानमंत्री हैं तो फिर चिन्ता काहे की है। 2014 में अगर गद्दी से उतार दिये गये तो भी सरकारी पेट्रोल ही फूंकना है। जिस आदमी को अपनी कमाई से एक लीटर पेट्रोल भी कभी खरीदना न पड़ा हो, तो वह परेशान हो भी तो क्यों?
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड के दाम बढ़ रहे हैं तो दूसरी ओर अमरीकी डालर के दाम भी बढ़ रहे हैं। इस मौसम में वैसे भी वायरल, डेंगू, स्वाइन फ्लू आदि का कहर जनता पर ही बरपा होता है। इनके संक्रमण से जनता बुखार में थरथर कांपती है। बिना इलाज के मर जाती है। मैं जिधर देखता हूं उधर लोग पेट्रोल-डीजल की कीमतों में आठ-दस रूपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की आशंका से कांपते हुये दिखते हैं।
आजादी के बाद एक डालर की औकात होती थी लगभग रू. 4.79 मात्र। दो-दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू-शास्त्री) के कार्यकाल निकल गये लेकिन अमरीकी डालर तैरता रहा रू. 4.76 से रू. 4.79 के बीच। आज उसकी वैल्यू है रू. 77 के आस-पास यानी तब से लगभग 16 गुनी ज्यादा। उदारीकरण के बीस सालों में रूपया कितना गिर गया। आज अमरीकी डालर के सामने भारतीय रूपये की कोई औकात ही नहीं बची। वाह क्या परफार्मेंस दिखाई है! कितनी उछल रही है हमारी विकास दर। इस विकास-दर का कोई तो लेखा-जोखा होना चाहिये।
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किसी ने सवाल किया कि रूपये को अगर कुल परिवर्तनीय (फुल कंवरटिबल) न किया गया होता तो पेट्रोल आज कितने रूपये लीटर होता। सवाल जायज है। इसका उत्तर कौन देगा?
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एक समाचार यह है कि सन 2014 तक भारत के चालू खाते का घाटा बढ़कर इतना अधिक हो जायेगा कि विदेशी मुद्रा भंडार शून्य के करीब पहुंच जायेगा।
दूसरा समाचार यह है कि पिछले वर्ष 2011-12 में चालू खाते का कुल घाटा 78.20 बिलियन डालर था, जो सकल घरेलू उत्पाद का 4.2 प्रतिशत है। इस घाटे में 60.00 बिलियन डालर का योगदान तो केवल सोना आयात का था। यह पूरे विश्व के सोना उत्पादन का एक तिहाई है। यह बात कही हैं प्रधान मंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी. रंगराजन ने।
तीसरा समाचार यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी इस चिन्ता को सरकार से अवगत कराया है कि ऊंची ब्याज दरों के बावजूद नागरिकों द्वारा बचत न करने का एक मात्र कारण है - महंगाई जिसने नागरिकों के पास पैसा बचाने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है।
सवाल उठता है कि गरीबी रेखा के नीचे वाले तो यह सोना खरीद नहीं रहे हैं। किसान अपना कर्ज अदा नहीं कर पा रहे हैं, सोना क्या खरीदेंगे। पचास हजार रूपये तक की मासिक आमदनी (मतलब नम्बर 1 की कमाई) वाले महंगाई के कारण जब छोटी-मोटी बचत नहीं कर पा रहे हैं तो 31000 रूपये प्रति दस ग्राम के हिसाब से सोना कहां से खरीदेंगे। देश के 99 प्रतिशत नागरिक सोना नहीं खरीद रहें हैं। तो फिर पूरे विश्व के उत्पादन का एक तिहाई सोना भारत में कहां इकट्ठा हो रहा है? जनता इस सवाल का जवाब चाहेगी।
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सुना है कि कांग्रेस और भाजपा में फिर गठजोड़ हो गया है। दोनों पार्टियां नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार लागू करना चाहती हैं। दोनों को निवेशकों (विदेशी संस्थागत) की बड़ी चिन्ता है। दोनों ही उनका विश्वास हासिल करना चाहती हैं। वर्षाकालीन सत्र की शुरूआत में कोलगेट पर प्रधानमंत्री के इस्तीफे तक संसद न चलने देने का संकल्प दिखा कर भाजपा संसद के चलने में व्यवधान पैदा करेगी। उसके सांसद सदन के बाहर रहेंगे और इसी बीच मौका पाकर कांग्रेस उपस्थित बहुमत से डीजल एवं रसोई गैस की कीमतों को बाजार के सहारे खुला छोड़ने, बैंकिंग-पेंशन-पीएफ-बीमा आदि सुधारों को लागू करने, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को अनुमति, विदेशी पूंजी को भारतीय कारपोरेशनों में वोटिंग के असीमित अधिकार देने आदि का काम निपटा देगी।
राजनीति में सहयोग देकर असहयोग करना और असहयोग कर सहयोग देना कोई नई चीजें नहीं हैं।
ये नई पीढ़ी के आर्थिक सुधार जनता का कितना भला करेंगे और कितना बुरा, इसका आकलन होना चाहिए।
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चलते-चलते अंतिम बात। दूरदर्शन पर बैंक कर्मचारियों एवं अधिकारियों की हड़ताल पर परिचर्चा चल रही थी। किसी आर्थिक समाचार पत्र के सम्पादक महोदय बड़ी उत्तेजना में दाये हाथ से अपनी दाढ़ी नोचते और बाये हाथ को बड़ी तेजी से ऊपर नीचे झकझोरते हुए बोल रहे थे, ”....... भूमंडलीकरण के दौर में आयडियॉलॉजिकल (विचारधारात्मक) मुद्दों पर दो-दो दिन की हड़ताल। आखिर ये लोग चाहते क्या हैं? उदारीकरण के 22 सालों के बाद भी ये लोग पूरी दुनियां को यह संदेश क्यों दे रहे हैं कि भारतीय जनता का माइंडसेट (मानसिकता) अभी भी सोशलिस्ट है।“ सुनकर अच्छा लगा कि पूंजीवाद अभी भी कांप रहा है किसी के नाम से ....., किसी के प्रेत से ........।
- प्रदीप तिवारी
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