फुकुषिमा के परमाणु विध्वंस से ये साफ हो गया है कि चाहे परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा का कितना भी दावा किया जाए, वो पूरी तरह सुरक्षित नहीं कहे जा सकते। फुकुषिमा में चारों रिएक्टरों में हुए विस्फोट से परमाणु विकिरण कितने बड़े इलाके़ में पहुँचा है और इसके कितने दूरगामी असर होंगे, इन सवालों का ठीक-ठीक जवाब देने की स्थिति में न तो राजनीतिज्ञ हैं और न ही वैज्ञानिक। ऐसे में भारत में दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र स्थापित करने के पीछे भारत सरकार की ओर से दिये जा रहे तर्क हास्यास्पद हैं और उनमें से जनता के प्रति धोखे को साफ पहचाना जा सकता है।
संदर्भ केन्द्र की 12वीं सालगिरह के मौके पर इन्दौर प्रेस क्लब के राजेन्द्र माथुर सभागृह में 20 अप्रैल को आयोजित कार्यक्रम में मुंबई से आये डॉ. विवेक मोंटेरो ने दर्षकों-श्रोताओं को अपने व्याख्यान में फुकुषिमा से जैतापुर तक के परमाणु कार्यक्रम की यादगार यात्रा करवाते हुए, एक वैज्ञानिक होने के नाते न केवल परमाणु ऊर्जा की वैज्ञानिक कसौटियों को जाँचा-परखा, बल्कि एक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता होने के नाते परमाणु ऊर्जा के पैरोकारों के तर्कों की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर भी बखूबी जाँच-पड़ताल की।
संदर्भ केन्द्र की ओर से डॉ. जया मेहता ने डॉ. विवेक मोंटेरो का परिचय देते हुए कहा कि विवेक ने अमेरिका से भौतिकी में पीएचडी कर लेने के बाद और कुछ समय टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च में पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च फेलो रहने के बाद तमाम सुख-सुविधा वाले कैरियर को छोड़ मुंबई में मजदूरों के संघर्षों में शामिल होने का निष्चय किया। फिलहाल वे मजदूर संगठन सीटू के महाराष्ट्र के राज्य सचिव हैं और जैतापुर में चल रहे परमाणु संयंत्र विरोधी आंदोलन ‘‘कोंकण बचाओ समिति’’ में शामिल हैं।
डॉ. विवेक मोंटेरो ने अपने व्याख्यान में कहा कि भारत में परमाणु ऊर्जा के पक्ष में तीन बातें कही जाती हैं कि ये सस्ती है, सुरक्षित है और स्वच्छ यानि पर्यावरण हितैषी है। जबकि सच्चाई ये है कि इनमें से कोई एक भी बात सच नहीं है बल्कि तीनों झूठ हैं। देष की जनता को धोखे में रखकर भारत में परमाणु कार्यक्रम बरास्ता जैतापुर जिस दिषा में आगे बढ़ रहा है, वहाँ अगर कोई दुर्घटना नहीं भी होती है तो भी आर्थिक रूप से देष की जनता को एनरॉन जैसे, और उससे भी बड़े आर्थिक धोखे का षिकार बनाया जा रहा है। और अगर कोई दुर्घटना हो जाती है तो आबादी के घनत्व को देखते हुए ये सोचना ही भयावह है लेकिन निराधार नहीं, कि भारत में किसी भी परमाणु दुर्घटना से हो सकने वाली जनहानि का परिमाण कहीं बहुत ज्यादा होगा।
विवेक मोंटेरो ने कहा कि फुकुषिमा में परमाणु रिएक्टरों के भीतर हुए विस्फोटों को ये कहकर संदर्भ से अलगाने की कोषिष की जा रही है कि वहाँ तो सुनामी की वजह से ये तबाही मची। और भारत में तो सुनामी कभी आ नहीं सकती। उन्होंने कहा कि ये सच है कि फुकुषिमा में एक प्राकृतिक आपदा के नतीजे के तौर पर परमाणु रिसाव हुआ लेकिन जादूगुड़ा या तारापुर या रावतभाटा या कलपक्कम आदि जो भारत के मौजूदा परमाणु ऊर्जा संयंत्र हैं, जहाँ कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई है, वहाँ के नजदीकी गाँवों और बस्तियों में रहने वाले लोगों में अनेक रेडियोधर्मिता से जुड़ी बीमारियों का फैलना साबित करता है कि परमाणु विकिरण के असर उससे कहीं ज्यादा हैं जितने सरकार या सरकारी वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं। मोंटेरो ने कहा कि लोग आमतौर पर सोचते हैं कि परमाणु ऊर्जा सिर्फ बम के रूप में ही हानिकारक होती है अन्यथा नहीं। लेकिन सच ये है कि परमाणु बम में रेडियोएक्टिव पदार्थ कुछ किलो ही होता है और विस्फोट की वजह से उसका नुकसान एकबार में ही काफी ज्यादा होता है, जबकि एक रिएक्टर में रेडियाधर्मी परमाणु ईंधन टनों की मात्रा में होता है। अगर वह किसी भी कारण से बाहरी वातावरण के संपर्क में आ जाता है तो उससे रेडियोधर्मिता का खतरा बम से भी कई गुना ज्यादा बढ़ जाता है। उन्होंने परमाणु ऊर्जा के सस्ती व सुरक्षित होने के मिथ को तोड़ने के साथ ही इसके पर्यावरण हितैषी मिथ को भी तोड़ा। उन्होंने कहा कि परमाणु ईंधन को ठंडा रखने के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में पानी उस पर लगातार छोड़ा जाता है। ये पानी परमाणु प्रदूषित हो जाता है और इसके असर जानलेवा भी होते हैं। फुकुषिमा में ऐसा ही साठ हजार टन पानी रोक कर के रखा हुआ था जिसमें से 11 हजार टन पानी समंदर में छोड़ा गया और बाकी अभी भी वहीं रोक कर के रखे हैं। जो पानी छोड़ा गया है, वो भी काफी रेडियोएक्टिव है और उसके खतरे भी मौजूद हैं।
जहाँ तक परमाणु ऊर्जा की लागत का सवाल है तो इसके लिए आवष्यक रिएक्टर तो बहुत महँगे हैं ही और भारत-अमेरिकी परमाणु करार की वजह से हम पूरी तरह तकनीकी मामले में विदेषों पर आश्रित हैं। साथ ही किसी भी परमाणु संयंत्र की लागत का अनुमान करते समय न तो उससे निकलने वाले परमाणु कचरे के निपटान की लागत को शामिल किया जाता है और न ही परमाणु संयंत्र की डीकमीषनिंग (ध्वंस) को। कोई दुर्घटना न भी हो तो भी एक अवस्था के बाद परमाणु संयंत्रों को बंद करना होता है और वैसी स्थिति में परमाणु संयंत्र का ध्वंस तथा उसके रेडिएषन कचरे को दफन करना बहुत बड़े खर्च का मामला होता है। और अगर परमाणु दुर्घटना हो जाए तो उसके खर्च का तो अनुमान ही मुमकिन नहीं। चेर्नोबिल की दुर्घटना से 1986 में 4000 वर्ग किमी का क्षेत्रफल हजारों वर्षों के लिए रहने योग्य नहीं रह गया। उन्होंने स्लाइड्स के माध्यम से बताया कि वहाँ हुए परमाणु ईंधन के रिसाव से करीब सवा लाख वर्ग किमी जमीन परमाणु विकिरण के भीषण असर से ग्रस्त है। कोई कहता है कि वहाँ सिर्फ 6 लोगों की मौत हुई जबकि कुछ के आँकड़े 9 लाख भी बताये जाते हैं। क्या इसकी कीमत का आकलन किया जा सकता है? विकिरण के असर को खत्म होने में 24500 वर्ष लगने का अनुमान है, तब तक ये जमीन किसी भी तरह के उपयोग के लिए न केवल बेकार रहेगी बल्कि इसे लोगों की पहुँच से दूर रखने के लिए इसकी सुरक्षा पर भी हजारों वर्षों तक खर्च करते रहना पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि फुकुषिमा के हादसे के बाद से दुनिया के तमाम देषों ने अपने परमाणु कार्यक्रमों को स्थगित कर उन पर पुनर्विचार करना शुरू किया है। जर्मनी में तो वहाँ की सरकार ने परमाणु ऊर्जा को शून्य पर लाने की योजना बनाने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। खुद अमेरिका में 1976 के बाद से कोई भी नया परमाणु संयंत्र नहीं लगाया गया है। वे सिर्फ दूसरे कमजोर देषों को बेचने के लिए रिएक्टर बना रहे हैं। इसके बावजूद भारत सरकार ऊर्जा की जरूरत का बहाना लेकर जैतापुर में परमाणु संयंत्र लगाने के लिए आमादा है। इसके पीछे की वजहों का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन और रूस के साथ ये करार किया है कि भारत इन चारों देषों से 10-10 हजार मेगावाट क्षमता के रिएक्टर खरीद कर अपने देष में स्थापित करेगा। ये हमारे देष की नयी विदेष नीति का नतीजा है जो हमारे सत्ताधीषों ने साम्राज्यवादी ताकतों के सामने गिरवी रख दी है। महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जैतापुर में लगाये जाने वाले परमाणु संयंत्र के बारे में उन्होंने बताया कि वहाँ फ्रांस की अरीवा कंपनी द्वारा लगाया जाने वाला परमाणु संयंत्र खुद फ्रांस में ही अभी सवालों के घेरे में है और हम भारत में उसे लगाने के लिए तैयार हैं। फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोजी की पिछले दिनों हुई भारत यात्रा के पीछे भी ये व्यापारिक समझौता ही प्रमुख था। उन्होने विभिन्न श्रोतों का हवाला देकर बताया कि परमाणु संसाधनों से बनने वाली ऊर्जा न केवल अन्य श्रोतों से प्राप्त हो सकने वाली ऊर्जा से महँगी होगी बल्कि वो देष की ऊर्जा की जरूरत को कहीं से भी पूरी कर सकने में सक्षम नहीं होगी। खुद सरकार मानती है कि परमाणु ऊर्जा हमारे मौजूदा कुल ऊर्जा उत्पादन का मात्र 3 से साढ़े तीन प्रतिषत है जो अगले 40 वर्षों के बाद अधिकाधिक 10 प्रतिषत तक पहुँच सकेगी, वो भी तब जब कोई विरोध या दुर्घटना न हो। उन्होंने कहा कि एक मीटिंग में मौजूदा पर्यावरण मंत्री जयराम रमेष ने उनसे बिलकुल साफ कहा था कि महाराष्ट्र के जैतापुर में बनने वाला परमाणु संयंत्र किसी भी कीमत पर बनकर रहेगा और इसकी वजह ऊर्जा की कमी नहीं बल्कि हमारी विदेष नीति और अन्य देषों के साथ हमारे रणनीतिक संबंध हैं।
जहाँ तक ऊर्जा की कमी का सवाल है, ये ऊर्जा की उपलब्धता से कम और उसके असमान वितरण से अधिक जुड़ा हुआ है। बहुत दिलचस्प तरह से इसका खुलासा करते हुए उन्होंने मुंबई के एक 27 मंजिला घर की स्लाइड दिखाते हुए कहा कि इस बंगले में एक परिवार रहता है और इसमें हैलीपैड, स्वीमिंग पूल आदि तरह-तरह की सुविधाएँ मौजूद हैं। इस बंगले में प्रति माह 6 लाख यूनिट बिजली की खपत होती है। ये बंगला अंबानी परिवार का है। दूसरी स्लाइड दिखाते हुए उन्होंने कहा कि शोलापुर में रहने वाले दस हजार परिवारों की कुल मासिक खपत भी 6 लाख यूनिट की है। अगर देष में बिजली की कमी है तो दस हजार परिवारों जितनी बिजली खर्च करने वाले अंबानी परिवार को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन उल्टे अंबानी को इतनी ज्यादा बिजली खर्च करने पर सरकार की ओर से कुल बिल पर 10 प्रतिषत की छूट भी मिलती है।
पवन, सौर तथा बायोमास जैसे विकल्पों का संक्षेप में ब्यौरा देकर अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि अगर परमाणु ऊर्जा इतनी महँगी, खतरनाक और नाकाफी है तो फिर उसे किस लिए देष की जनता पर थोपा जा रहा है-ये देष के लोगों को देष की सत्ता संभाले लोगों से पूछना चाहिए। अंतर्राष्ट्रीय ताकतों के सामने और उनके मुनाफे की खातिर देष की राजनीति और देष के लोगों की सुरक्षा को दाँव पर लगाया जा रहा है। ये मसला ऊर्जा की जरूरत का नहीं बल्कि राजनीति के पतन का है और पतित राजनीति का मुकाबला राजनीति से अलग रहकर नहीं बल्कि सही राजनीति के जरिये ही किया जा सकता है।
कार्यक्रम की शुरुआत फैज की जन्मषती के मौके पर फैज की दो नज्मों पर संदर्भ केन्द्र की ओर से बनाये गये एक पोस्टर को जारी करने के साथ हुई। फैज की मषहूर नज्म ‘‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’’ को गाया सारिका श्रीवास्तव ने। इस मौके पर बड़ों व स्कूली बच्चों की ओर से परमाणु ऊर्जा के खतरों से आगाह करती एक पोस्टर प्रदर्षनी भी लगायी गई थी जिसका शीर्षक था, ‘‘जैतापुर की संघर्षषील जनता के नाम’’। विवेक मोंटेरो के व्याख्यान के पूर्व मुंबई की डॉक्युमेंट्री फिल्म बनाने वालीं मानसी पिंगले ने 10 मिनट की फिल्म ‘‘कोंकण जलतासा’’ (कोंकण जल रहा है) का भी प्रदर्षन किया। मानसी ने फिल्म के माध्यम से बताया कि जैतापुर में बनने वाले परमाणु संयंत्र के प्रति स्थानीय लोगों का विरोध पिछले चार वर्षों से लगातार जारी है। पुलिस उनका दमन कर रही है और प्रषासन कभी ज्यादा मुआवजे का लालच दे रहा है तो कभी धमका रहा है तो कभी अच्छे और उजले भविष्य का आष्वासन दे रहा है लेकिन अधिकांष लोगों ने अपनी जगह छोड़ने से इन्कार कर दिया है। फिल्म में प्रभावित गाँवों के लोग उन जगहों के नजदीक रहने वाले लोगों से जाकर मिलते और बात करते भी बताये गए जहाँ परमाणु संयंत्र पहले लग चुके हैं। पुराने संयंत्रों की वजह से उजड़े लोगों में से एक का ये बयान हमारे विकास के पूरे परिदृष्य को ही प्रतिबिंबित करता है कि ‘‘वो कहते थे कि जिंदगी में अच्छा होगा, फर्क पड़ेगा। लेकिन क्या बदला? पहले भी हमें बिजली नहीं मिलती थी और अब भी आठ-आठ घंटे की कटौती होती है।’’ ऐसे अनेक लोगों ने उन्हें पिछले कुछ वर्षों में पनपीं और बढ़ीं बीमारियों के बारे में भी बताया जिसकी वजह उन्हें सीधे-सीधे नजदीक मौजूद परमाणु संयंत्र के साथ जुड़ी लगती हैं। चूँकि सरकार उन गाँवों को प्रभावित ही नहीं मानती अतः उन्हें इलाज में भी काफी तकलीफों का सामना करना पड़ता है। फिल्म दस मिनट की अल्प अवधि में भी जैतापुर में चल रहे लोगों के संघर्ष और सरकार के दमन का चित्र खींचने में कामयाब रही।
अंत में हुए सवाल जवाबों के लम्बे दौर में भी अनेक श्रोताओं ने भागीदारी की। एक उल्लेखनीय सवाल ये था कि अगर चेर्नोबिल और फुकुषिमा ही दो मात्र परमाणु दुर्घटनाएँ हुईं हैं तो ऐसी दुर्घटनाएँ तो किसी भी तरीके के ऊर्जा संयंत्रों में होती रहती हैं, फिर परमाणु ऊर्जा का ही विरोध क्यों? जवाब में विवेक ने कहा कि अगर आप रेल में केरोसीन या पेट्रोल लेकर सफर करते हैं तो जरूरी नहीं कि उससे हर बार ट्रेन में आग ही लग जाए, लेकिन आप इसी आधार पर ट्रेन में पेट्रोल लेकर चलने को सही तो नहीं ठहराने लगते। दूसरी बात ये है कि चेर्नोबिल और फुकुषिमा बेषक सात तीव्रता वाली दो ही परमाणु दुर्घटनाएँ हुई हैं लेकिन कम तीव्रता वाली अनेक दुर्घटनाएँ दुनिया के अलग-अलग देषों में हुईं हैं। खुद भारत में भी ऐसी अनेक दुर्घटनाएँ हो चुकी हैं। परमाणु संयंत्रों की डीकमीषनिंग (विध्वंस), भारत के परमाणु ऊर्जा विभाग की गैर जिम्मेदार भूमिका, परमाणु कचरे की समस्या आदि पर भी विस्तृत सवाल-जवाब हुए।
(प्रस्तुति: विनीत तिवारी)