गौतमबुद्धनगर के साबेरी गांव के भूमि अधिग्रहण को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा निरस्त करने के फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार, ग्रेटर नोएडा औद्योगिक विकास प्राधिकरण तथा बिल्डरों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की थी। सर्वोच्च न्यायालय ने 5 जुलाई को अपील पर सुनवाई की तथा 6 जुलाई को अपना निर्णय सुना दिया। सुनवाई के दौरान और फिर अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने जो तल्ख टिप्पणियां की हैं, वे न केवल काबिले तारीफ हैं बल्कि वे उत्तर प्रदेश की मायावती सरकार के साथ-साथ केन्द्रीय सरकार एवं सरमायेदारों के लिए भूमि अधिगृहीत करने वाली राज्य सरकारों के लिए आईना हैं। सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी एवं न्यायमूर्ति ए.के.गांगुली की खंड पीठ ने उत्तर प्रदेश सरकार की भूमि अधिग्रहण नीति को जनविरोधी बताते हुए आपात उपबंध के गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार से सवाल किया कि विकास के नाम पर वह कर क्या रही है? किसानों की खेतिहर जमीन मल्टीप्लेक्स और मॉल बनाने के लिए अधिगृहीत की जा रही है जो आम आदमी की पहुंच से दूर हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर सरकार नहर या पुल बनाने के लिए जमीन अधिगृहीत करती तो समझ आता लेकिन यहां तो जमीन मॉल, होटल और टाउनशिप के लिए ली गयी है।
बिल्डरों द्वारा लगाये गये ब्रोशरों पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि स्पॉ, स्विमिंग पूल, आयुर्वेदिक मसाज, हेल्थ क्लब वाले ये फ्लैट क्या गरीबों के लिए बन रहे हैं? जिनकी जमीने ली गयीं हैं वे क्या इन्हें खरीद पायेंगे? सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अन्य राज्यों में भी यही बदतर हालात हैं।
मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों की भूमि अधिग्रहण नीति पर गंभीर सवाल उठाते हुए कहा कि सरकारें इस कानून एवं इन नीतियों को दमन यंत्र की तरह इस्तेमाल कर रहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल किया आखिर भूस्वामी किसानों को क्या मिला - मुकदमेंबाजी और लाठियां। पुरूष जेल गये और महिलाओं से दुवर््यवहार किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान कहा कि जमीन किसान की मां होती है। इस टिप्पणी को बहुत गंभीरता से लिये जाने की जरूरत है, इसके गहन निहितार्थ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि एक किसान से जमीन लेने पर सिर्फ उसी के जीवन यापन का साधन नहीं जाता। इसके भी बहुत गंभीर अर्थ हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने आगे टिप्पणी की कि किसानों को मिलता है थोड़ा सा मुआवजा जिसे वह मुकदमेबाजी में खर्च करता है।
बिल्डरों के वकीलों ने दलील देने की कोशिश की कि किसानों ने मुआवजा ले लिया है तो सर्वोच्च न्यायालय ने फिर सवाल किया कि अगर वे मुआवजा नहीं लेते तो उनके पास और क्या विकल्प था? सरकारें उनकी जमीने हड़प कर उन्हें गुलाम बना रही है। ये ‘भूमंडलीकरण’ (ग्लोबलाईजेशन) नहीं है बल्कि ‘लोगों को हाशिये पर धकेलना’ (मार्जिनलाइजेशन) है। सरकार किसानों को हाशिये पर डाल रही है। ये किसी विपक्षी दल के आरोप नहीं सरकारों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ की टिप्पणियां हैं, इसलिए इनकी अपनी गंभीरता है।
अगले दिवस अपना फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय की खंड पीठ ने भूमि उपयोग को औद्योगिक से आवासीय करने पर ग्रेटर नोएडा अधिकरण पर बिल्डरों के साथ सांठगांठ करने का आरोप लगाते हुए उस पर रू. 10.00 लाख का जुर्माना भी ठोंक दिया जिसे गरीब वादकारियों की मदद करने पर खर्च किया जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार पर कानून के अधीन अपने अधिकारों के भ्रष्ट दुरूपयोग का आरोप लगाते हुए कहा कि भूमि अधिग्रहण कानून के ‘अत्यावश्यक’ प्राविधानों को किसी जन हित में नहीं बल्कि बिल्डर्स को फायदा पहुंचाने के इरादे से उपयोग किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात की भी नोटिस ली कि इंडस्ट्रियल टाउनशिप के लिए अधिगृहीत कुल भूमि के 60 फीसदी का उपयोग अब तक नहीं किया जा सका है।
यह तो सर्वोच्च न्यायालय का अभिमत है लेकिन पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों ने इस फैसले को आशियाने के लिए प्रतीक्षारत मध्यमवर्गीय परिवारों पर हमला करार देने की असफल कोशिश की। इस निर्णय में ही सर्वोचच न्यायालय ने बिल्डरों के ब्रोशरों का जिक्र करते हुए तल्ख टिप्पणी की है। क्या इस देश के मध्यम वर्ग का कोई ईमानदार व्यक्ति इन फ्लैटों को खरीदने का ख्वाब देख सकता है? हरगिज नहीं! पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यम पूंजी पर हर हमले पर जनमत अपने पक्ष में बनाने की कोशिश करते हैं। यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि ऐसा करना जनहित में नहीं है। एक बार फिर उन्होंने यह प्रयास किया परन्तु असफल रहे हैं।
पूंजीवाद का जो दंश भारतीय जन-मानस इस समय झेल रहा है, उसमें इस तरह के पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यमों के प्रयास सफल नहीं हो सकते। देश को एक वामपंथी समाचार तंत्र की जरूरत है, जिस पर हमें गौर करना होगा।
- प्रदीप तिवारी