सार्वजनिक वितरण प्रणाली ठप्प हो चुकी है। सट्टेबाजों के आगे सरकार नत-मस्तक है। विकास दर को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने के लिए तरह-तरह के उपक्रम चल रहे हैं। चालू खाते का घाटा बढ़ता चला जा रहा हैं। सरकार को केवल (विदेशी) निवेशकों की चिन्ता है। लोग भूख से मर रहे हैं तो मरते रहें। सरकार भारी सब्सिडी देकर खाद्यान्न का निर्यात तो कर सकती है परन्तु भूखे देशवासियों को निवाला नहीं दे सकती।
30 जुलाई से वामपंथी दलों - भाकपा, माकपा, आरएसपी और फारवर्ड ब्लाक ने आम जनता के लिए ”खाद्य सुरक्षा“ पर पांच दिवसीय धरना दिल्ली के जंतर-मंतर पर दिया। धरने पर रोजाना 5000 से अधिक का जनमानस रोजाना शामिल होता रहा। धरने में शामिल होने वाले लोग प्रतिदिन बदल रहे थे। देश के कोने-कोने से प्रतीकात्मक रूप से जनता प्रतिदिन आती थी, धरने में शरीक होती थी और वापस लौट जाती थी।
इस आन्दोलन की एक प्रमुख मांग थी - एपीएल और बीपीएल की श्रेणियों को समाप्त कर देश के हर परिवार को 2 रूपये प्रति किलोग्राम की दर से 35 किलो अनाज का पैकेट घर-घर पहुंचाने की व्यवस्था की कानूनी गारंटी की जाये।
इसी जंतर मंतर पर दूसरी ओर एक दूसरा आन्दोलन चल रहा था - अन्ना टीम का आन्दोलन। इस आन्दोलन को चलाने वालों में तरह-तरह के लोग शामिल थे। यह आन्दोलन पिछले साल जब शुरू हुआ था तब से ही इसे चलाने वालों के चरित्र पर उंगलियां उठी थीं। शुरूआती दौर में ही इस आन्दोलन पर लगभग एक सौ करोड़ रूपये का खर्चा आया था। पूरे देश में तिरंगा झंडा, अन्ना के चेहरे वाली टीशर्ट, बैनरों आदि की बाढ़ आई हुई थी। यह सब व्यवस्था रातों-रात सम्भव नहीं थी। लोगों ने इस खर्च के श्रोत पर भी सवाल खड़े किये थे।
यह दूसरा आन्दोलन भी 3 अगस्त को समाप्त हो गया - इस घोषणा के साथ कि वह अब राजनीतिक विकल्प पेश करने के लिए काम करेगा। हालांकि एक दिन पहले तक वे राजनीति से दूर रहने की कसमें खा रहे थे।
मध्यम वर्ग में इस दूसरे आन्दोलन के प्रति उपजी सहानुभूति के स्पष्ट कारण थे। एक के बाद एक लगातार खुलते घपले-घोटालों की खबरों से आम जनता उद्वेलित थी। उसमें गुस्सा था। आजकल का वह मध्यम वर्ग जो टीवी पर चैनलों को बदल-बदल कर अपनी शाम काटता है, वह इस आन्दोलन के पहले दौर में बहुत प्रभावित हुआ था।
पूंजी नियंत्रित समाचार माध्यम (मीडिया) का एक बड़ा हिस्सा इस आन्दोलन की खबरों से अटा पड़ा था और पहले वाले आन्दोलन का उसने बहिष्कार कर रखा था। इस बहिष्कार का एक कारण तो मालिकों की नीति थी तो दूसरी ओर मीडिया में काम कर रहे अति उत्साही और अतार्किक लोग थे।
इंदौर में 5 अगस्त को वरिष्ठ पत्रकार महेन्द्र जोशी की याद में ‘अण्णा आन्दोलन, मीडिया और आन्दोलन की परिणति’ विषय पर आयोजित परिचर्चा में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने मीडिया पर आरोप लगाते हुए कहा कि (अण्णा हजारे के) आन्दोलन के दौरान मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भावनाओं में बह गया और उसने गैर जिम्मेदाराना बर्ताव किया। काटजू ने स्पष्ट कहा कि तटस्थ भाव से रिपोर्टिंग करने के बजाय वे खुद आन्दोलन का हिस्सा बन गये। काटजू ने कहा, ”आपमें (पत्रकारों में) गुणदोष के आधार पर विवेचना की क्षमता होनी चाहिये। आपको घटनाओं का तार्किक विश्लेषण करना था। लेकिन आप भी उसी जज्बात में बह गए। .... बाबरी मस्जिद आन्दोलन के दौरान भी हिंदी प्रेस का एक हिस्सा कारसेवक हो गया था। यह मीडिया का भारी दोष था।”
इस आन्दोलन के बारे में बाकायदा दलील देते हुए काटजू ने कहा कि अगर उनकी बातें मान ली जायें तो भ्रष्टाचार दो गुना हो जायेगा क्योंकि आजकल की निम्न नैतिकता के चलते अधिकतर निरंकुश लोकपालों के ब्लैकमेलर हो जाने का खतरा है।
इस आन्दोलन द्वारा देश को राजनैतिक विकल्प देने के सवाल पर काटजू ने कहा कि अन्ना ने कहा कि वे खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे क्योंकि चुनाव लड़ने में 15-20 करोड़ रूपये खर्च होते है और इतनी मोटी रकम उनके पास नहीं है। उन्होंने सवाल किया कि फिर चुनाव में 15-20 करोड़ रूपये खर्च करने लायक ईमानदार उम्मीदवार वे कहां से लायेंगे? उन्होंने मीडिया पर आरोप जड़ते हुए कहा कि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, दवाइयों की किल्लत के अहम मुद्दों को प्रमुखता से दिखाने के बजाय वे क्रिकेट को अफीम की तरह परोस रहे हैं। उन्होंने मीडिया को सलाह दी कि वह जनता के बौद्धिक स्तर को अपनी रिपोर्टिंग से ऊंचा उठायें।
वास्तविक मुद्दों पर चुप्पी तथा गैर मुद्दों को सनसनी के तौर पर पेश कर राजनीति को मुद्दाविहीन बनाना मीडिया को बन्द करना चाहिए। इस मामले में हम जो कुछ कहना चाहते थे, कमोबेश वही न्यायमूर्ति काटजू ने कह दिया। मीडिया को इससे सबक लेना चाहिए। वैसे हमें भी वैकल्पिक मीडिया के लिए कुछ करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी