भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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सोमवार, 28 दिसंबर 2009

नफ़स-नफ़स कदम-कदम

नफ़स-नफ़स कदम-कदम
बस एक फिक्र दम-ब-दम
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
जहां अवाम के खिलाफ साजिशें हो शान से
जहां पे बेगुनाह हाथ धो रहे हों जान से
जहां पे लफ़्ज-ए-अमन एक खौफनाक राज हो
जहां कबूतरों का सरपरस्त एक बाज हो
वहां न चुप रहेंगे हम
कहेंगे, हां, कहेंगे हम
हमारा हक! हमारा हक! हमें जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
यकीन आँख मूंद कर किया था जिन पर जान कर
वही हमारी राह में खड़े हैं सीना तान कर
उन्हीं सरहदों में कैद हैं हमारी बोलियां
वही हमारे थाल में परस रहे हैं गोलियां
जो इनका भेद खोल दे
हरेक बाल बोल दे
हमारे हाथ में वही खुली किताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
वतन के नाम पर खुशी से जो हुए हैं बे-वतन
उन्हीं की आह बे-असर, उन्हीं की लाख बे-कफन
लहू पसीना बेचकर जो पेट तक न भर सके
करें तो क्या करें भले न जी सकें, न मर सकें
सियाह जिंदगी के नाम
उनकी हर सुबह ओ शाम
उनके आसमां को सुर्ख आफताब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए।
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
होशियार! कह रहा लहू के रंग का निशान
ऐ किसान होशियार! होशियार नौजवान!
होशियार! दुश्मनों की दाल अब गले नहीं
सफेदपोश रहजनों की चाल अब चले नहीं
जो इनका सर मरोड़ दे
गुरूर इनका तोड़ दे
वह सरफरोश आरजू वही जवाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!
तसल्लियों के इतने साल बाद अपने हाल पर
निगाह डाल, सोच और सोच कर सवाल कर
किधर गये वो वायदे? सुखों के ख्वाब क्या हुए?
तुझे था जिनका इन्तजार वो जवाब क्या हुए?
तू झूठी बात पर न और एकबार कर
कि तुझको सांस-सांस का सही हिसाब चाहिए!
घिरे हैं हम सवाल से हमें जवाब चाहिए!
जवाब दर सवाल है कि इंकलाब चाहिए!
इंकलाब जिन्दाबाद!
जिन्दाबाद इंकलाब!

-शलभ श्रीराम सिंह
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लोग कराह रहे हैं पर महंगाई बढ़ती ही जा रही है

नयी दिल्लीः लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गुरुदास दासगुप्त ने आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि पर हुई बहस में भाग लेते हुए कहाः मैं समझता हूं कि यह गंभीर बहस पटरी से नहीं उतरेगी। यह बात आर्थिक रूप से साबित नहीं हुई है और न ही यह दावा किया गया है कि उच्च वृद्धि से मुद्रास्फीति होती है। न तो सरकार ने कहा है और न ही आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि समर्थन मूल्य में वृद्धि से मुद्रास्फीति हुई है।
समावेशी विकास का अर्थ कीमत की उच्च लागत नहीं है। समावेशी विकास का अर्थ है विवेकसम्मत कीमत पर जनता को खाद्यान्न उपलब्ध कराना। मूल बात है कि क्यों कीमतें बढ़ रही हैं और सरकार को क्या करना चाहिए एवं सरकार ने क्या किया है। क्या इस बात से इन्कार किया जा सकता है कि हर सप्ताह कीमतें बढ़ती रही हैं।
हर सप्ताह कीमतों में वृद्धि की दर में बढ़ोत्तरी हो रही है। इसीलिए सरकार आज कटघरे में खड़ी है। यह राजनीति का सवाल नहीं है। यह एक समाज कल्याणकारी राज्य का सवाल है। लोगों को अवश्य ही जीवित रहने के लिए खाद्य सामग्री पाने की सुविधा होनी चाहिए। लोगों को अवश्य ही एक मकान चाहिए। लोगों को अवश्य ही एक विवेकसम्मत आय चाहिए। यह कल्याणकारी राज्य है। कांग्रेस प्रतिबद्ध है। इसीलिए सवाल है, क्यों सरकार कीमतों पर अंकुश लगाने में विफल रही है जो हाल की अवधि में एक महाविपदा हो गयी है। इसीलिए सवाल उठता है कि यह बड़ी आशंका है कि सरकार के पास उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की कोई इच्छाशक्ति ही नहीं है जो महंगाई के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए हमें अपनी जिम्मेदारी दूसरों पर नहीं डालनी चाहिए कि यह उत्तर प्रदेश विधानसभा नहीं है, न ही यह बिहार विधानसभा है। हमें यह नहीं कहना चाहिए कि कीमतें बढ़ रही हैं क्योंकि राज्य सरकार अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में विफल रही है।
दिल्ली, भारत की राजधानी के बारे में क्या है? हम दिल्ली में रहते हैं। दिल्ली में आलू 35 रुपये किलो बिक रहा है। केन्द्र सरकार यहां है। राज्य में भी उसी पार्टी की सरकार है। इसलिए हमें राज्य सरकारों के कामकाज के पीछे सरकार को अपनी अकर्मण्यता को नहीं छिपाना चाहिए। पूरे देश में, देश के हर हिस्से में कीमतें बढ़ रही हैं। इसके क्या कारण हैं? क्या इसीलिए क्योंकि 100 दिनों के रोजगार की मांग बढ़ रही है, क्योंकि आबादी में वृद्धि के कारण कीमतें बढ़ गयी हैं और कि अंतर्राष्ट्रीय कीमतों के कारण कीमतें बढ़ गयी है। हमें इस महान देश की बुनियादी मानवीय समस्याओं पर वास्तविक रूप से विचार करना चाहिए। हर व्यक्ति को इस दृष्टि से इस पर विचार करना चाहिए।
मेरी समझ है कि बुनियादी आर्थिक नीतियां महंगाई के लिए जिम्मेवार है। मेरी समझ है कि सट्टेबाजी अर्थव्यवस्था जिसे सरकार ने पिछले वर्षों में निर्मित किया है, इसके लिए जिम्मेवार है। मैं अमरीका में प्रधानमंत्री द्वारा दिये गये भाषण को पढ़ रहा था। वे सावधानीपूर्वक कार्पोरेट से कह रहे हैं- चिंता न करें उदारीकरण को आगे बढ़ाया जायगा। इसलिए आप आयें और भारत में निवेश करें। यह मूल प्रश्न है। बिना किसी देखरेख के बिना किसी सुरक्षा के उदारीकरण की अतिमात्रा ने देश में हर व्यक्ति को गलत संदेश दिया है कि आप जो कुछ भी चाहें कर सकते हैं क्योंकि सरकार उदारीकरण के लिए प्रतिबद्ध है और उदारीकरण का अर्थ है राज्य का अहस्तक्षेप यानी राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
यह सही है कि उत्पादन की कमी है। वित्तमंत्री ने अपने भाषण में कहा कि देश में खाद्य उत्पादन में 20 प्रतिशत की कमी हो सकती है। लेकिन मुद्दा है कि कीमतों में वृद्धि उत्पादन में कमी के अनुरूप नहीं है। खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि खाद्यान्न उत्पादन में कमी के अनुपात में नहीं है। वह उससे काफी अधिक है। हमें तीर निशाने पर मारना चाहिए। इसलिए सवाल है कि मूल्यवृद्धि केवल मांग और आपूर्ति का बेमेल होना नहीं है। बुनियादी सुधारात्मक कदम उठाये बिना सरकार खाद्यान्न का अंधाधुंध आयात कर रही है। श्री शरद पवार जी, यह शर्म की बात है कि बीस वर्ष के बाद आप इस देश, भारत में चावल का आयात कर रहे हैं जो विश्व के चावल का कटोरा है, हरित क्रांति का स्थल है, श्री प्रताप सिंह कैरो का स्थल है, क्रांति का स्थल है जिसकी भारत ने बात की। यह एक राष्ट्रीय शर्म है कि भारत बीस वर्षों के बाद चावल का आयात कर रहा है। यह केवल सरकार के लिए नहीं बल्कि हम सबके लिए है जो इसका सामना कर रहे हैं।
हमने खाद्य सुरक्षा खो दी है। हम अपनी आर्थिक संप्रभुता खो देने के कगार पर है। मैं कोई अतिरंजित बयान नहीं दे रहा हूं। एक देश की आर्थिक संप्रभुता खाद्य में आत्म-निर्भरता पर निर्भर करती है। हम खाद्य में आत्मनिर्भरता खो रहे है तो यह आशंका भी है कि हमारी आर्थिक संप्रभुता भी अस्तव्यस्त हो सकती है। हमारी राजनीतिक संप्रभुता भी जोखिम में पड़ सकती है। आज विश्व में खाद्य में संप्रभुता किसी भी देश की राजनीतिक संप्रभुता की बुनियाद है।
महंगाई कोई पहेली नहीं है। हम चकरा देने वाली महंगाई पर बहस कर रहे हैं जो भारत के इतिहास में अभूतपूर्व है। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए। वास्तव में यह व्यापारियों का एक हमला है- यह एक अत्यंत उदारीकृत अर्थव्यवस्था में जहां सरकार की अकर्मण्यता, जगजाहिर हो चुकी है, भारतीय उपभोक्ताओं के खिलाफ व्यापारियों का एक हमला है। महंगाई कोई आज की परिघटना नहीं है। हमने पिछले अधिवेशन में भी इस पर चर्चा की थी। इसलिए महंगाई कोई आज की परिघटना नहीं है।
मैं आशा करता हूं कि सरकार बुरा नहीं मानेगी यदि मैं कहूं कि 2004 में जिस दिन से यूपीए सत्ता में आया, महंगाई एक संलक्षण हो गयी है। पिछले छह वर्षों में महंगाई लगातार बढ़ती रही है, इसलिए मैं समझता हूं कि बहस का विषय महंगाई नहीं है। बहसा का विषय सट्टेबाजी एवं जमाखोरी पर प्रशासनिक अंकुश लगाने में सरकार की अकर्मण्यता, उसकी असमर्थता, उसकी भयंकर विफलता है। मैं कहना चाहता हूं कि 65 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर करते हैं। श्री शरद पवार हमेशा कहते है कि वे भी एक किसान हैं। पर उनके नेतृत्व में भी देश में कृषि में गिरावट को रोका नहीं जा सका है। किस गति से महंगाई बढ़ रही है। मैं आंकड़ों में नहीं जाना चाहता हूं। एक सप्ताह में, 7.11.2009 को समाप्त होने वाले सप्ताह में आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में 65 प्रतिशत वृद्धि हुई है। उसके पहले सप्ताह में वह वृद्धि 40 प्रतिशत थी। में तीन वस्तुओं चावल, गेहूं तथा आलू का उदाहरण देना चाहूंगा।
भारत 11 करोड़ टन चावल का उत्पादन करता है। अब कृषि मंत्री को इस बात की पुष्टि करनी है कि 10 करोड़ टन चावल का उत्पादन हो रहा है। यह हमारी आबादी को खिलाने के लिए पर्याप्त है। तो मूल्यवृद्धि क्यों हो रही है। एक खास किस्म का चावल कलम चावल 24 रु. प्रति किलो उपलब्ध था। आज वह 40 रु. प्रति किलो उपलब्ध है। यह कैसे हुआ? इससे चिन्ता उत्पन्न होती है। गेहूं के बारे में क्या है? शरद पवार कहते हैं कि 7.8 करोड़ टन गेहूं कर उत्पादन हुआ है। कितना उपभोग किया जाता है। 7.6 करोड़ टन। तो फिर क्यों गेहूं की कीमत प्रति किलो 6 से 8 रु. तक बढ. गयी।
मेरे मित्र जगदम्बिका बाबू बोले और चले गये। वे मांग और आपूर्ति के बीच असमानता की बात कह रहे थे। आप आलू को लें। यह प्रत्येक भारतीय के लिए महत्वपूर्ण सब्जी है। इसकी मूल्यवृद्धि कितनी हुई है? हाल की अवधि में 102.4 प्रतिशत वृद्धि हुई है। पिछले बहस में मैंने कहा था कि वह 6 रु. प्रतिकिलो से बढ़कर 20 रु. प्रति किलो हो गया। 300 प्रतिशत मूल्यवृद्धि हुई। आज फिर उसमें 100 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह दिखलाता है कि केवल उत्पादन में कभी इसका कारण नहीं है। वह बल्कि आपूर्ति में कमी, व्यापारियों द्वारा स्टाक को दबा रखने से इसकी कमी हुई है। वही इसके लिए जिम्मेदार है।
सरकार किसी व्यापारी, किसी जमाखोर पर या किसी भी उस व्यक्ति पर जो जनता के जीवन से खिलवाड़ करते हैं, हाथ डालने से कतराती है। मैं यह नहीं कहता कि सारा दोष केन्द्र सरकार का ही है। राज्य सरकारें भी अपना कर्तव्य पूरा नहीं कर रही है। केन्द्र सरकार को बताना है कि दिल्ली में कितने बेईमान व्यापारी गिरफ्तार किये गये है। यह इस बात को साबित करता है कि मुद्रास्फीति किसी भी विवेकसम्मत दर से परे है। सरकार की नीति और जनता के महत्वपूर्ण सरोकारों के बीच काफी अंतर है। भारतीय अपनी आय का 45 प्रतिशत भोजन पर खर्च करते हैं। वह अमरीका नहीं है, ओबामा का देश नहीं है। हमारे देश में हमारी आय का 45 प्रतिशत भोजन पर खर्च होता है और एक वर्ष में खाद्य पदार्थों की कीमतों में 100 प्रतिशत वृद्धि हुई हैं तो क्या सरकार का कोई दोष नहीं है? हम उसकी नीति को जनता को दी जाने वाली सेवा की कसौट पर परखेंगे।
देश के मुख्य सांख्यिकीविद, एक सिविल सर्वेंट ने कहा है कि मूल्यवृद्धि जमाखोरी तथा स्टाक जमा करने के कारण हुई है। यह मैं नहीं, बल्कि एक नौेकरशाह कह रहा है। इसलिए वह वायदा कारोबार है जो तबाही मचा रहा है जिसकी सरकार ने इजाजत दी है। वह उदारीकृत निर्यात जिसने बर्बादी अंजाम दिया है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ध्वस्त हो जाने से बाजार बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इसलिए देश में कृषि के ढह जाने की पृष्ठभूमि में यह सब हुआ है और सरकार ने पिछले छह वर्षों में कृषि में सुधार के लिए कोई भी महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया है, कृषि संकट इसकी पृष्ठभूमि रहा है और उसके साथ ही सट्टेबाज तबाही मचा रहे हैं और सरकार काफी उदार एवं नरम बनी हुई हैं। सरकार को दिखाना है कि उसके पास इच्छाशक्ति है या नहीं। यह तो पूरी विफलता है। मैं सरकार के नेताओं से पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि चुनावी विजय हमेशा सरकार की आपराधिक विफलता को माफ नहीं कर सकती है। आखिरकार यह एक लोकतंत्र है, मैं सरकार से आग्रह करूंगा कि वह इस पर विचार करे कि राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य के निर्वहन में उसका चूक हुई या नहीं।
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संघ का अंतर्द्वंद्व - भाजपा का अस्तित्व

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दावा तो सांस्कृतिक संगठन होने का करता है परन्तु उसने भारत की बहुलतावादी संस्कृति एवं सहअस्तित्व की भावना से हमेशा परहेज ही किया। उसके गैर-राजनीतिक होने के दावे की हकीकत से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। बाजपेई और आडवाणी 85 वर्ष के करीब हो गये, वे अपनी उम्र और भूमिका दोनों का सफर तय कर चुके हैं। उनके शरीर नश्वर हैं..... समाप्ति की ओर अग्रसर। लेकिन भाजपा की आत्मा - ”राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ“ भी 85 साल की होने के बावजूद न तो स्वयं को मृतप्रायः स्वीकार करने को तैयार और न ही अपने राजनीतिक संस्करण भाजपा को ही।
सत्ता में आने के लिए भाजपा बार-बार अपनी आत्मा यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोषित सोच के साथ समझौता करने के बावजूद राजनीतिक क्षितिज पर पराभव की ओर अग्रसर है। अपने राजनीतिक संस्करण की इस दुर्दशा पर बहुत चिन्तित है संघ। बड़ी कुलबुलाहट, बड़ी छटपटाहट का शिकार है संघ। पूर्व संघ प्रमुख के.सी.सुदर्शन भाजपा नेतृत्व से शिकायतें करते ही रह गये कि भाजपा सत्ता के नशे में परिवार के योगदान को भुला बैठी। भागवत संघ परिवार के मुखिया बनने के बाद लोकसभा चुनावों में पार्टी की पराजय को बर्दाश्त नहीं कर सके। अपनी 60वीं वर्षगांठ की ओर अग्रसर भागवत चीख उठे - ”बदलाव जरूरी है।“ समाचार माध्यमों एवम् राजनीतिक हल्कों में भाजपा ने कुलबुलाहट को शान्त करने का प्रयास किया। राजनाथ सिंह पार्टी में आन्तरिक लोकतंत्र के नाम पर मामले को शान्त करते नजर आये। वे पार्टी के जिस आंतरिक लोकतंत्र की दुहाई दे रहे थे, पूरा देश उसके अस्तित्वहीन होने से परिचित है।
आखिर 18 दिसम्बर को वह घड़ी आ ही गयी जब संघ के प्रतिनिधि के तौर पर गडकरी ने भाजपा की शीर्षसत्ता यानी उसके अध्यक्ष पद पर आसीन हो गये। भागवत के निर्देशन में ‘हेडगेवार भवन’ में भाजपा को एक बार फिर जिन्दा रखने के लिए जो ब्लूप्रिन्ट तैयार किया गया था, उसको अगली जामा पहनाया जाने लगा।
गडकरी की क्या पहचान होगी? उनके सामने पार्टी की लगभग वही स्थिति है तो सन 1984 में भाजपा की थी। संघ का स्वास्थ्य हमेशा जन-मानस के रूधिर से ही पनपता रहा है। तब संघ को अयोध्या में एक प्रतीक नजर आ गया। उस प्रतीक के झुनझुने को लाल कृष्ण आडवाणी को एक रथ पर बैठा कर पकड़ा दिया गया। वे पूरे देश में उस झुनझुने को बजा-बजाकर आवाम की शान्ति-चैन छीनने निकल पड़े क्योंकि फासिस्ट संघ के राजनीतिक संस्करण भाजपा को जीने के लिए तमाम लाशों की जरूरत थी। उधर संघ परिवार अपने अन्य अनुषांगिक संगठनों के साथ मिलकर अयोध्या के प्रतीक को ध्वंस करने के ब्लूप्रिन्ट को अमली जामा पहनाने की तैयारी करता रहा। उस दौर में पूरे देश में काफी लाशें गिराने में संघ और भाजपा सफल रहे। उन लाशों से गुजर कर आखिरकार भाजपा को एक नया जीवन मिल गया। केन्द्र में सत्तासीन होने का उसका रास्ता प्रशस्त हुआ था परन्तु वह 24 पार्टियों का सर्वमान्य नेता कथित उदारमना अटल बिहारी बाजपेई के नाम पर सहमत होने पर ही सम्भव हो सका था।
उस दौर ने जनता के सामने संघ परिवार की सोच को साफ-साफ पेश कर दिया था। उसके इस चेहरे से भी जनता अब परिचित हो गयी है।
अब देखना होगा कि गडकरी के हाथ में भागवत ”हेडगेवार भवन“ से कौन सा झुनझुना और कैसा रथ भेजते हैं। हमें सतर्क रहना होगा क्योंकि मृतप्रायः भाजपा को नया जीवनदान देने के लिए संघ फिर लाशों की राजनीति करने से नहीं हिचकेगा। हम जनता से यही गुजारिश कर सकते हैं कि जागते रहो और फासिस्ट संघ की नई चाल से सतर्क रहो।
ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अयोध्या के प्रतीक रूपी झुनझुने की अवधारणा तैयार करने के पहले संघ परिवार ने सत्तर के दशक से अस्सी के दशक के मध्य तक कई पैतरों का इस्तेमाल किया था। पहले उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को अपनाने का प्रयास किया परन्तु स्वामी विवेकानन्द के शिकागो के ऐतिहासिक भाषण की यह लाईनें कि ”भूखों को धर्म की नहीं रोटी की जरूरत होती है“ भाजपा के रास्ते पर आकर खड़ी हो गईं। फिर उन्होंने शहीदे-आजम भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने का प्रयास किया तो भगत सिंह का खुद को नास्तिक घोषित करने का मामला भाजपा के आड़े आ गया। तब उन्होंने ”गांधीवादी समाजवाद“ का प्रलाप शुरू किया तो जनता ने गांधी के हत्यारे के रूप में भाजपा को चित्रित कर उसे लोकसभा में दो सीटों तक पहुंचा दिया। सम्भव है शुरूआती दौर में संघ एक बार फिर इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल करने की असफल कोशिश करे परन्तु अन्तोगत्वा उसे जिन्दा रहने के लिए लाशों की ही जरूरत पड़ेगी। उसका इतिहास तो यही बताता है।

प्रदीप तिवारी
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