भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

भविष्य के संघर्षों के लिए मार्गदर्शन करेगी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेस

    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अखिल भारतीय पार्टी कांग्रेस सामान्यतः हर तीसरे साल की जाती है। पार्टी कांग्रेस भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च निकाय है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेेस का आयोजन 27 से 31 मार्च 2012 तक पटना में किया जा रहा है। पार्टी कांग्रेस राष्ट्रीय परिषद द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक और संगठनात्मक रिपोर्टों पर विचार-विमर्श करेगी, तदनुसार कार्य करेगी; पिछली अवधि में पार्टी के कामकाज की समीक्षा करेगी और वर्तमान स्थिति में पार्टी की कार्यनीतिक लाईन और नीति को तय करेगी।
    राजनैतिक प्रस्ताव और उसके साथ पेश की जाने वाली रिपोर्टें कांग्रेस के समक्ष बुनियादी दस्तावेज होंगे जिनमें उस कार्यनीतिक लाईन और नीति को शामिल किया गया है जिन पर पार्टी वर्तमान अवधि में अनुसरण करेगी। सभी राज्यो की समूची सदस्यता और पार्टी शाखाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग एक हजार डेलीगेट, वैकल्पिक डेलीगेट और पर्यवेक्षक कांग्रेस में भाग लेंगे और इन दस्तावेजों के आधार पर पार्टी कांग्रेस के इन पांच दिनों के दौरान विचार-विमर्श करेंगे।
    पार्टी संविधान के अनुसार, राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप को पार्टी कांग्रेस के शुरु होने से दो महीने पहले प्रसारित किया जाता है। न केवल कांग्रेस के डेलीगेटों बल्कि पार्टी के सभी सदस्यों को राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप पर अपने संशोधन एवं सुझाव भेजने का अधिकार है।
    राष्ट्रीय परिषद की 4 से 6 जनवरी 2012 तक हैदराबाद में सम्पन्न मीटिंग ने इस प्रारूप को अंतिम रूप दिया और प्रेस को जारी किया। पार्टी के जो भी लोग इस दस्तावेज को ध्यान से पढ़ना चाहते हैं इसके बारे में उनके सुझावों और आलोचना का स्वागत है और जब डेलीगेट सेशन में इन दस्तावेजों पर विचार-विमर्श किया जायेगा तो उनके विचारों पर समुचित ध्यान दिया जायेगा।
    यह कम्युनिस्ट पार्टी के आंतरिक पार्टी लोकतंत्र का सबूत है, पंूजीवादी पार्टियों से इतर, जहां नेताओं द्वारा पूर्णाधिवेशन में दिये गये सुझावों को उन पार्टियों के वर्तमान नीतिगत बयान माल लिया जाता है।
    भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में देश को आगे ले जाने के लिए पार्टी की नीति, उसकी रणनीति और कार्यनीति को तय करने में उसकी सभी इकाईयों को हर स्तर के नेतृत्व की सामूहिक समझ शामिल रहती है।
    आज देश की स्थिति की गंभीरता एवं जटिलता और आगे बढ़ने का रास्ता तलाश करने के लिए आम लोगों की गहरी उद्धिनता और जबर्दस्त ललक इस गहन एवं सामूहिक प्रयास की अपेक्षा करती है।
    जैसा कि राजनीतिक प्रस्ताव की प्रस्तावना में ही कहा गया है:
    ‘‘भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की 21वीं कांग्रेस एक ऐसे समय हो रही है जब देश अपने एक गंभीरतम संकट का सामना कर रहा है, अर्थव्यवस्था एक गंभीर गिरावट का शिकार हो रही है, मुद्रास्फीति आसमान छू रही है, निवेश कम हो रहा है, औद्योगिक उत्पादन में इतनी गिरावट आ रही है, जितनी पहले कभी नहीं आयी, कृषि विकास ह्वासोन्मुख है, रुपये का विनिमय मूल्य निम्नतम स्तर पर है, मेहनतकश लोगों की आमदनी पर जबर्दस्त हमला हो रहा है, अतिरिक्त रोजगार सृजन घटता जा रहा है, गरीबी बढ़कर नयी ऊंचाईयां छू रही है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, यहां तक कि किसान अपनी फसलों को जला रहे हैं। भारत का यह आर्थिक संकट दो वर्षों में दूसरी बार भूमंडलीय मंदी के एक अन्य दौर-दौरे की पृष्ठभूमिम में जारी है। जनता अभूतपूर्व कठिनाईयों की शिकार हैै।
    ‘‘भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की एक के बाद दूसरी रिपोर्ट में दोषी ठहरायी गयी यह दागदार सरकार कुछ भी नहीं कर रही है और आम आदमी की अभूतपूर्व तकलीफों के प्रति पूरी तरह असंवेदनशील है। वह केवल नवउदारवादी नीतियों के लिए पथ प्रशस्त करने में लगी है। यह सरकार आर्थिक संकट को अधिकाधिक संकटपूर्ण बनाते हुए और बेईमान तरीकोें के जरिये सत्ता में बने रहने की कोशिश करते हुए अपने तथाकथित आर्थिक सुधार कार्यक्रम के लिए संसद का अनुमोदन हासिल करने के लिए अक्सर भाजपा से साठगांठ करती रहती है।
    कोई भी याद कर सकता है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीपति वर्ग और देश-विदेश में उसके पीछे चलने वाले लोगों ने दावा कर दिया था कि यह इतिहास का अंत है और उन्होंने नव-उदारवाद को विकास के एकमात्र रास्ते के रूप में प्रोजेक्ट किया। उन्होंने जोर देकर कहा कोई अन्य विकल्प है ही नहीं (देयर इज जो आल्टरनेटिव-टिना)। उन्होंने घोषणा कर डाली, मार्क्सवाद मर गया है और समाजवाद विफल हो गया है। वह जो कुछ लिख रहे थे उसकी रोशनाई भी सूखी न थी और वे विजयोत्सव के तौर पर जो शोर मचा रहे थे उसकी आवाज अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दुनिया एक गहरे और लंबे आर्थिक, वित्तीय एंव मौद्रिक संकट में फंस गयी। इस संकट ने किसी एक देश को नहीं बल्कि विकसित विश्व के सभी देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।
    राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप में इस संकट के बारे में, और मेहनतकश लोगों के कंधों पर इसका बोध डालकर पूंजीपति वर्ग जिस तरह इस संकट से पार पाने की कोशिश कर रहा है उसके बारे में सुस्पष्ट, तीक्ष्ण पर सारगर्भित विवेचना की गयी है।
    पर जनता पूंजीवाद के हमले को सिर झुकाकर स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जनता इस हमले के विरुद्ध कार्रवाईयों पर उतर रही है। यूरोपीय संघ में, ग्रीस, पुर्तगाल और इटली में लाखों लोग इसके विरुद्ध सड़कों पर उतरे हैं। अमरीका तक में भी ‘‘आक्युपाई वाल स्ट्रीट’’ (वाल स्ट्रीट पर कब्जा करो) नामक आंदोलन में शामिल लोग पिछले कई महीनों से पूंजीवाद के सबसे बड़े किले पर चढ़ाई कर रहे हैं। वे उस बढ़ती बेरोजगारी और भयानक आर्थिक असमानता के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे हैं जो पंूजीवादी विश्व के हालात का विशेष लक्षण है। वे इसे ‘‘99 प्रतिशत के संघर्ष’’ का नाम देते हैं।
    यूपीए-दो द्वारा सब कुछ ठीक-ठाक बताने की तमाम कोशिशों के बावजूद भारत भी इस संकट का सामना कर रहा है। नवउदारवाद ने और कार्पोरेट इजारेदारों, ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों और शासक पार्टियों के अत्यंत ओछे राजनीतिज्ञों के बीच जो सांठगांठ कायम करता है उसने भ्रष्टाचार को आसमान की ऊंचाईयों तक पहुंचा दिया है। देश के प्रशासन के हर स्तर पर भ्रष्टाचार है। आम जनता भ्रष्टाचार से हददर्जा पीड़ित और दुखी है। नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों और सर्वव्यापक भ्रष्टाचार ने देश के आम लोगों को भ्रष्टाचार के विरुद्ध सड़कों पर उतार दिया है।
द    वास्तव में, देश के ज्यादातर हिस्सों की जनता के विभ्न्नि तबकें सरकार की नीतियों के चलते उन पर लाद दी गयी मुसीबतों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
द    वामपंथी एवं जनवादी पार्टियों द्वारा महंगाई के खिलाफ चलाये जा रहे निरंतर आंदोलनों और संघर्षों का असर भैंस के आगे बीन बजाने की तरह हो रहा है। और मानो उन्हें चिढ़ने के लिए तथा इजारेदारों की मदद करने के लिए, सरकार एक के बाद एक ऐसे कदम उठा रही है जो मुद्रास्फीति और महंगाई की आग में घी का काम कर रही है।
द    कई राज्यों में, राज्यों और केंद्र सरकारों द्वारा औद्योगीकरण के लिए, एसईजेड स्थापित करने के लिए, अथवा एक या दूसरे प्रोजेक्ट के नाम पर बड़े पैमाने पर जमीन हथियाने की चालों का किसान जबर्दस्त विरोध कर रहे हैं। हजारों एकड़ जमीन गैर-कृषि उद्देश्यों की भेंट चढ़ गयी है। इनमें से ज्यादातर भू-माफिया या बिल्डर माफियाओं तथा रीयल इस्टेट सट्टेबाजों द्वारा हथिया ली गयी है। इससे लाखों गरीब किसानों, खेत मजदूरों और अपनी आजीविका के लिए भूमि पर निर्भर अन्य लोगों के विस्थापित होने के अलावा और इन्हें पुनः बसाने और पुनः स्थापित करने की कोई उम्मीद भी नहीं है-इससे जरूरी खाद्य उत्पादन भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इससे देश पूरी तरह खाद्यान्नों का आयातक बनता जा रहा है। उपनिवेशी दौर के भूमि अधिग्रहण कानून 1884 की जगह एक न्यायपूर्ण और किसान समर्थक भूमि अधिग्रहण कानून लाने का काम आज तक सपना ही बना हुआ है।
द    सरकार की खाद्य सुरक्षा कानून लाने की बातें एक मजाक बन कर रह गयी हैं। इससे लाभ पाने वाले लोगों की श्रेणियों और संख्या के मामले में मनमानेपन से तथा प्रत्येक श्रेणी को दिये जाने वाले सब्सिडी अनाज की मात्रा में मनमानेपन से वास्तव में वे लोग इससे वंचित हो जायेंगे जो कुछ राज्यों में जैसे (केरल, तमिलनाडु में) पहले से बहुत अधिक सब्सिडी पर (अथवा मुफ्त तक) राशन पर रहे हैं।
    जनता के आम सरोकारों के मुद्दों पर तथा अपने जनवादी एवं दशकों पुराने ट्रेड यूनियन अधिकारों पर हमलों के खिलाफ फैक्टरी, आफिसरों और सेवा क्षेत्र के कर्मचारी और मजदूर स्त्री-पुरुष, संगठित एवं असंगठित लाखों लोग दो वर्ष से धिक समय से आंदोलन एवं संघर्ष की राह पर हैं।
    प्रसंगवश, ‘बदलाव’ के नारे के साथ पं.बंगाल में सत्ता में आने वाली ममता बनर्जी सरकार ने अभी हाल ही में बड़ी ढिठाई से यह घोषणा की है कि वह सरकारी दफ्तरों में न तो कर्मचारियों के संगठनों की इजाजत देगी और न ही उन्हें आंदोलन करने देगी।
    मजदूर और कर्मचारी ट्रेड यूनियन आंदोलन के 150 वर्षों से अधिक समय से इस तरह के दमन का सामना करते आ रहे हैं और वे ऐसी धमकियों से चुप बैठने वाले नहीं। केंद्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों और औद्योगिक फेडरेशनों ने सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ 28 फरवरी को संयुक्त रूप से देशव्यापी हड़ताल का आह्वान दिया है। निस्संदेह इस हड़ताल से अन्य तबकों के आंदोलनों को भी जबर्दस्त प्रेरणा मिलेगी।
द    यूपीए सरकार ने देश के खुदरा व्यापारियों को भी नहीं बख्शा है। अमरीका और वालमार्ट जैसे बड़े बहुराष्ट्रीय खुदरा व्यापारियों के दबाव के आगे घुटने टेकते हुए उसने रिटेल कारोबार में एफडीआई की घोषणा की। भारत में रिटेल श्रंृखला की पहुंच केवल सभी शहरों और नगरों तक ही नहीं है बल्कि सभी गांवों और देश के सभी कोनों में हैं। तकरीबन 4.5 करोड़ लोग रिटेल के काम में लगे हैं जो उनके परिवारों के साथ हमारी जनता के लगभग  14-15 करोड़ लोगों को आजीविका प्रदान करते हैं। सरकार का यह कदम उनमें से अधिकांश को आजीविका से वंचित कर देगा जबकि इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अत्याधिक मुनाफे के दरवाजे खोल देगा। पहली बार ऐसे करोड़ों रिटेल कारोबारियों ने भी 1 दिसंबर 2011 को विरोध के लिए हड़ताल का सहारा लिया। वामपंथी और अन्य पार्टियों तथा यूपीए के सहयोगियों के विरोध के चलते तथा हड़ताल की इस कार्रवाई के चलते सरकार को इस कदम को फिलहाल टालने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन यह केवल अस्थायी राहत है, क्योंकि सरकार ने बाद में किसी अवसर पर एफडीआई लाने की अपनी मंशा की दृढ़ता से घोषणा की है। इससे संघर्ष का एक और मोर्चा ही खुला है।
द    आमतौर पर अपने को किसी भी जन आंदोलन से दूर रखने वाले मध्य वर्ग के तबके भी भ्रष्टाचार को खत्म करने की  मांग के साथ सरकार के खिलाफ खुले आंदोलन में खिंच आये गये हैं। भ्रष्टाचार देश के राष्ट्रीय संसाधनों को सोख ले रहा है, सरकार बड़ी संख्या के लोगों की जेबों को काटकर मुट्ठीभर लोगों की जेबें भर रही है और चौतरफा विकास में बाधा खड़ी कर रही है। भाकपा और वामपंथी पार्टियां लगातार भ्रष्टाचार से पर्दा हटाती रही हैं ओर इसके खिलाफ लड़ती रही हैं। वे इस बुराई को दूर करने के लिए एक मजबूत व कारगर लोकपाल कानून के साथ ही सभी आवश्यक कदमों की मांग कर रही हैं।
द    हम छात्रों के अच्छी शिक्षा के अधिकार के लिए, युवाओं के रोजगार के लिए और महिलाओं के लिंग समानता और सशक्तीकरण के लिए आंदोलनों को भी देख रहे हैं।
    राजनीतिक प्रस्ताव सामाजिक न्याय की जरूरत पर जोर देता है जिससे अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और अन्य वंचित तबके शेष जनता की बराबरी का दर्जा हासिल कर सकंेगे। केवल इसी के जरिये वास्तविक समावेशी (इंकलूसिव) विकास और चौतरफा प्रगति सुनिश्चित हो सकती है।
    यह प्रस्ताव क्षेत्रीय पार्टियों, उनकी सकारात्मक एवं नकारात्मक विशेषताओं पर विशेष ध्यान देता है तथा आने वाली अवधि में सामाजिक बदलाव लाने के लिए व्यापक जनवादी एकता का निर्माण करने में उनकी भूमिका के महत्व पर जोर देता है।
    राजनीतिक प्रस्ताव इन सभी उभरते संघर्षों और जन आंदोलनों की ओर ध्यान आकर्षित करता है और सत्ता पर काबिज पंूजीपतियों और अर्द्ध-सामंती भूस्वामियों के खिलाफ इन सभी स्वतःस्फूर्त आंदोलनों और संगठित आंदोलनों के बीच समन्वय बनाने एवं उनसे संपर्क साधने की जरूरत को रेखांकित करता है। सही दिशा और स्पष्ट लक्ष्य और सकारात्मक दिशा के अभाव में बहुत-से संघर्ष और आंदोलन गतिरोध और अवरोध का शिकार हो गये हैं फिर चाहे वे कितने भी व्यापक और जुझारू हों।
    इसलिए जरूरत है एक सजग, सक्रिय और मजबूत कम्युनिस्ट पार्टी की जो वास्तविक हालात की ठोस वास्तविक सच्चाई के अनुरूप मार्क्सवाद-लेनिनवाद की वैज्ञानिक एवं क्रांतिकारी विचारधारा से लैस हो, जरूरत है एक ऐसी पार्टी की जिसका आम जनता से घनिष्ठ संपर्क हो। प्रस्येक वर्ग और जन संगठन में कम्युनिस्टों को ऐसे संघर्षों के जरिये मजदूर-किसान सहमेल का निर्माण करने और जनता के बाकी सभी संघर्षशील तबकों को उनके इर्द-गिर्द लामबंद करने के लिए कड़े प्रयास करने होंगे। उन्हें सत्ता में बने रहने के लिए दो पार्टियों की पूंजीवादी व्यवस्था थोपने के सभी प्रयासों का विरोध करना होगा।
    प्रस्ताव प्रमुख राजीनीतिक एवं सांगठनिक कार्यभार के रूप में भाकपा को मजबूत बनाने का आह्वान करता है। इससे वामपंथी एवं जनवादी एकता को व्यापक बनाने में, सभी जनतांत्रिक शक्तियो की व्यापकतम एकता कायम करने में तथा जनवादी क्रांति के कार्यभार को पूरा करने के लिए नेतृत्व में एक नया वर्ग समीकरण लाने में क्रांतिकारी रूपांतरण में सहायता मिलेगी।
    राजनीतिक प्रस्ताव के अंत में कहा गया है: ‘‘हमारा रास्ता मार्क्सवाद-लेनिनवाद का रास्ता है जो हमारे आंदोलन के अनुभव के आधार पर हमारी अपनी स्थितियों पर लागू किया गया हो।’’
    ‘‘हमारा लक्ष्य समाजवाद बना हुआ है जो हमारे इतिहास से और हमारी विशिष्ट विशेषताओं के साथ विकसित है। पंूजीवाद का अंत तय है। समाजवाद ही एकमात्र विकल्प है।’’
- ए.बी. बर्धन
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