भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शनिवार, 26 मार्च 2011

विश्व रंगमंच दिवस संदेश : 27 मार्च, 2011

इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट (यूनेस्को),पेरिस



विश्व रंगमंच दिवस संदेश : 27 मार्च, 2011


मानवता की सेवा में रंगमंच

जेसिका ए. काहवा


नाट्य विशेषज्ञ, युगांडा


आज की सभा समुदायों को समूहबन्द करने और विभाजन पाटने की रंगमंच की असीम क्षमता का सच्चा प्रतिबिम्बन है।

क्या आपने कभी कल्पना की है कि रंगमंच शान्ति और सामंजस्य की स्थापना में एक ताकतवर औज़ार हो सकता है? दुनिया के हिंसक संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में शान्ति रक्षा के लिए राष्ट्र भारी-भरकम रकम खर्च करते हैं लेकिन संघर्ष के रूपान्तरण और प्रबन्धन हेतु विकल्प के रूप में रंगमंच की ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। धरती मां के नागरिकों को कैसे सार्वभौमिक शान्ति की प्राप्ति हो सकती है, जब इसके औजार बाहरी हों और दिखावटी दमनकारी ताकतों से आ रहे हों?

रंगमंच लोगों की आत्म-छवि की पुर्नरचना कर मानव आत्मा में बारीकी से प्रवेश करता है और इस तरह व्यक्ति तथा परिणामतः समाज के लिए विकल्पों की दुनिया उद्घाटित करता है। अनिश्चित भविष्य की पहले से पहचान कर यह रोजमर्रा की वास्तविकता को अर्थ दे सकता है। यह सीधे-सादे तरीके से लोगों के हालात की राजनीति में शामिल हो सकता है। अपनी समावेशी विशेषता के कारण यह ऐसा अनुभव प्रस्तुत करता है, जो पहले की मिथ्या धारणाओं का अतिक्रमण करता हो।

साथ ही साथ रंगमंच ऐसे विचारों की तरफदारी करने और उन्हें आगे बढ़ाने का सिद्ध माध्यम है, जो सामूहिक रूप से हमारे हैं और उन पर हमला होने की दशा में हम उनके लिए लड़ने की इच्छा रखते हैं।

एक शान्तिपूर्ण भविष्य की प्रत्याशा में हमें उन माध्यमों का प्रयोग शुरू करना चाहिए, जो शान्ति के लिए तत्पर हर व्यक्ति के योगदान को सम्मान व महत्व दे सकें। रंगमंच वह सार्वभौमिक भाषा है, जिससे हम शान्ति और सामंजस्य के संदेश को अगो ले जा सकते हैं।

प्रतिभागियों को सक्रिय रूप से शामिल कर रंगमंच तमाम लोगों को पूर्व अवधारणाओं को विखण्डित करने के लिए प्रेरित कर सकता है और पुर्नअन्वेषित ज्ञान व वास्तविकता पर आधारित विकल्प प्रस्तुत कर व्यक्ति को नवोन्मेष का अवसर देता है। हमें अन्य कला रूपों की तरह रंगमंच की उन्नति के लिए इसे संघर्ष व शान्ति के नाजुक मुद्दों से जोड़कर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बनाने को मज़बूत कदम उठाने चाहिए।

समुदायों के सामाजिक रूपान्तरण व पुर्नरचना के प्रति सम्बद्ध रंगमंच पहले से ही युद्धग्रस्त क्षेत्रों और दीर्घकालीन गरीबी व बीमारी से पीड़ित आबादियों के बीच मौजूद है। सफलता की दिन-दिन बढ़ती ऐसी कहानियां हैं, जो ये बताती हैं कि रंगमंच सजगता का निर्माण करने व युद्धोत्तर घावों से ग्रस्त लोगों की मदद करने में सक्षम रहा है। “इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मंच मौजूद हैं, जिनका लक्ष्य शान्ति और मित्रता के लिए जनता को एकजुट करना है।”

ऐसे में यह हास्यास्पद है कि हमारे जैसे समय में रंगमंच की शक्ति का ज्ञान होते हुए हम चुप रहें और बन्दूक-बमबाजों को अपनी दुनिया के शान्तिरक्षक बने रहने दें। अलगाव के हथियारों को कैसे शान्ति-सामंजस्य के उपकरणों के रूप में प्रोत्साहित करते रहें?

इस विश्व रंगमंच दिवस पर मैं आपसे आग्रह करती हूं कि इस परिप्रेक्ष्य पर विचार करें और संवाद, सामाजिक रूपान्तरण एवं सुधार का सार्वभौमिक उपकरण बनाने के लिए रंगमंच को आगे बढ़ायें। एक ओर जहां संयुक्त राष्ट्र संघ हथियारों के इस्तेमाल से दुनिया में शान्ति मिशनों पर अकूत धन खर्च कर रहा है, वहीं रंगमंच एक स्वतः स्फूर्त मानवीय, कम खर्चीला और अधिक सशक्त विकल्प है।

शान्ति लोगों के लिए रंगमंच ही अकेला उपाय नहीं लेकिन इसे निश्चित रूप से शान्ति रक्षा अभियानों में शामिल करना चाहिए।

(अनुवाद एवम् प्रस्तुति: जितेन्द्र रघुवंशी)

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद
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फ़ैज़ की जन्मशती - एक साल चलने वाले समारोहों का शानदार आगाज़


उर्दू के क्रांतिकारी शायर फै़ज़ की जन्मशती के सिलसिले में एक साल चलने वाले समारोहों की शुरूआत दिल्ली में दो दिन के कार्यक्रम से हुई जिसका उद्घाटन भारत की प्रथम नागरिक प्रतिभा पाटिल ने किया और इसके साथ ही देश के विभिन्न भागों में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) समेत - जिनके निर्माण में स्वयं फै़ज़ की एक प्रमुख भूमिका थी - विभिन्न सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का सिलसिला भी शुरू हो गया।

उद्घाटन कार्यक्रम का आयोजन 25 फरवरी को दिल्ली के विज्ञान भवन में किया गया जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र की लब्धप्रतिष्ठित हस्तियों ने हिस्सा लिया। उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी. बर्धन। इस कार्यक्रम के लिए पाकिस्तान से लगभग दो दर्जन लेखक, शायर एवं कलाकार खासतौर पर आये। उनमें फै़ज़ की दोनों बेटियां-सलीमा और मुनीज़ा भी शामिल थी।

जन्मशती समारोहों का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पटिल ने सही ही कहा कि “कुछ लोग अपने देश की सीमाओं और समय से परे जीवित रहते हैं और काम करते हैं। फैज ऐसे ही चंद लोगों मंे थे।” प्रख्यात शायर के योगदान का स्मरण करते हुए राष्ट्रपति ने स्वतंत्रता संग्राम और साथ ही देश की धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था में उर्दू भाषा के योगदान की याद दिलायी।

प्रतिभा पाटिल ने यह भी कहा कि “फै़ज़ ने गालिब की परम्परा को आगे बढ़ाया। कहा जाता है कि यदि शब्दों में आत्मा होती तो गालिब शब्दों के भगवान होते और फै़ज़ उनके मसीहा होते।”

क्रांति के इस शायर के बारे मंे बोलते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी. बर्धन ने फै़ज़ के साथ अपनी उस मुलाकत की याद ताजा की जब उनकी कथित भूमिका के लिए मनगढ़ंत रावपिंडी साजिश केस से रिहा होने के बाद फै़ज़ भारत के दौरे पर आये थे। ग़ज़लों की महारानी इकबाल बानों की आवाज से अमर यादगार बनी फै़ज़ की मशहूर नज़्म ‘हम भी देखेंगे...’ का जिक्र करते हुए बर्धन ने कहा कि हमें गर्व है कि फै़ज़ एक मार्क्सवादी थे। आईसीसीआर के अध्यक्ष डा. कर्ण सिंह ने कहा कि फै़ज़ जैसे महान कवियों के शब्द अमर हो जाते हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि “फै़ज़ की शायरी सीमा पार के लोगों के साथ जुड़ने के लिए एक पुल का काम करेगी।”

अंजुमन तरक्कीपसंद मुस्सन्फीन के महासचिव डा. अली जावेद ने अतिथियों का स्वागत करते हुए साल भर चलने वाले कार्यक्रमों का ब्यौरा दिया। पाकिस्तान मंे उद्घाटन कार्यक्रम पहले ही फै़ज़ के जन्मदिन 13 फरवरी को हो चुका है। पाकिस्तान प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (पीडब्लूए) ने अन्य संगठनों के साथ मिल कर साल के अंत तक विभिन्न शहरों में हर पन्द्रह दिन में एक कार्यक्रम करने का मंसूबा बनाया है। इसी प्रकार पीडब्लूए-भारत, जर्मनी, रूस और कनाडा ने भी इस वर्ष के दौरान यादगार कार्यक्रम करने के लिए तय किया है।

इस अवसर पर पाकिस्तान की टीना सानी द्वारा गायी गयी फै़ज़ की गज़लों एवं नज़्मों की एक काम्पेक्ट डिस्क भी जारी की गयी। प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा फै़ज़ के संबंध मंे एक 20 मिनट की डाक्यूमेंटरी फिल्म का प्रदर्शन भी किया गया।

उद्घाटन सत्र के बाद पाकिस्तान से आये मेहमानों के साथ बातचीत का दौर चला। इसमें फै़ज़ की दोनों बेटियां और पीडब्लूए पाकिस्तान के महासचिव राहत सईद भी शामिल थे। डा. अली इमाम, शायरा किश्वर नाहीद एवं अन्य ने फै़ज़ और उनके कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त किये। उन सभी का मानना था कि फै़ज़ एक प्रतिबद्ध कवि थे जिन्होंने अपनी शायरी को मेहनतकश लोगों की जिंदगी के रोजमर्रा के संघर्षों के साथ जोड़ा। पाकिस्तान सरकार के, खासकर एक के बाद आने वाली दूसरी फौजी सरकारों के जबर्दस्त दमन के बावजूद वह अपनी विचारधारा - मार्क्सवाद - लेनिनवाद की अपनी प्रतिबद्धता से कभी नहीं हटे। वह सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयवाद के सिद्धातंों पर चलने वाले सच्चे व्यक्ति थे। उन्होंने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान समेत विश्व भर के संघर्षरत लोगों की एकता के लिए अथक काम किया। एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन के मुखपत्र ‘लोटस’ के संपादक के रूप में उन्होंने विकासशील देशों के ध्येय की हिमायत की और तीसरी दुनिया के लेखकों और बुद्धिजीवियों को एकताबद्ध करने के लिए शानदार कोशिशें की। फिलिस्तीन पर उनकी नज्में स्वतंत्रता एवं समाजवाद के लिए संघर्षरत लोगों को हमेशा प्रेरणा देती रहेंगी।

इस समारोह के आकर्षण का केन्द्र थे कैप्टन जफरूल्ला पोशानी जो उन दिनों पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सज्जाद जहीर और कुछ फौजी अफसरों के समेत फै़ज़ के साथ मनगढ़ंत रावलपिंडी साजिश केस के मुल्जिम थे। उन्होंने पांच वर्ष जेल में काटे। अपने जेल प्रवास के उन पांच वर्षों को याद को उन्होंने एक दिलचस्प किताब “जिंदगी जिंदादिली का नाम है” में कलमबद्ध किया है। पाकिस्तान के प्रतिनिधिमंडल मंे शामिल अन्य हस्तियां थींः एक प्रख्यात वकील और पाकिस्तान वर्कर्स पार्टी के महासचिव आबिद हुसैन मिंटो, बलूचिस्तान नेशनल पार्टी के ताहिर बेजेंजों, युसफ सिंधी, मुश्ताक फूल, गुजरात विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा. निजामुद्दीन, इमदाद आकाश, शोएब मोहिउद्दीन अशरफ।

सिटी फोर्ट आडिटारियम में पाकिस्तान से आयी टीना सामी और भारत के जगजीत सिंह ने जब फै़ज़ की ग़ज़लें और नज़्में गायीं तो हजारों श्रोता झूम उठे और वह एक यादगार शाम बन गयी।

अगले दिन फिक्की आडिटोरियम में एक सेमिनार किया गया। सेमिनार के पहले सत्र के मुख्य वक्ता थे डा. एजाज अहमद। योजना आयोग की सदस्य डा. सईदा हमीद ने सेमिनार की अध्यक्षता की। दूसरे सत्र की अध्यक्षता पाकिस्तान से आयी मेहमान डा. किश्वर नाहीद ने की। अशोक वाजपेयी मुख्य वक्ता थे। रखशंदा जलील, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के इतिहास पर अनुसंधान किया है, ने दोनों सत्रों का संचालन किया।

सेमिनार के दो सत्रों मंे जिन प्रमुख लोगों ने हिस्सा लिया उनमें शामिल थेः डा. राजेन्द्र शर्मा (भोपाल), डा. रमेश दीक्षित (लखनऊ), मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ), हारून बीए (मालेगांव), अपूर्वानंद, जावेद नकवी (दिल्ली) और पाकिस्तान से आये कैप्टन जफरूल्ला पोशानी, युसुफ सिंधी, सलीमा हाशमी और डा. आलिया इमाम।

शाम को फिक्की आडिटोरियम में एक शानदार मुशायरा हुआ जिसमें भारत और पाकिस्तान के शायरों ने अपनी गज़ले-नज़्मंे सुनायी। उनमें शामिल थेः आलिया इमाम, डा. किश्वर नाहीद, वसीम बरेलवी, शहरयार, मेहताब हैदर नकवी आदि।

2 मार्च को लखनऊ में और 5 मार्च को हैदराबाद में भी गज़ल कार्यक्रमों के आयोजन किये गये। दोनों स्थल पर गज़ल कार्यक्रमों से पहले शायरों, लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच बातचीत हुई, सेमिनार हुए। लखनऊ के कार्यक्रम का उद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति मनोज कुमार मिश्रा ने किया और डा. रूपरेखा वर्मा ने अध्यक्षता की। लखनऊ के कार्यक्रम मंे शकील अहमद सिद्दीकी, अनीस अशफाक, रमेश दीक्षित, शारिब रूदोलवी, आबिद सुहैल, मुद्राराक्षस और नसीम इक्तदार अली आदि शामिल थे।

हैदराबाद के उर्दू हाल में आयोजित कार्यक्रम की प्रख्यात व्यंग्यकार मुज़तबा हुसैन, संसद सदस्य अज़ीज़ पाशा और अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू के राज्य अध्यक्ष ने की। इस कार्यक्रम में डा. बेग इलियास, बी. नरसिंग राव, रहीम खान, नुसरत मोहिउद्दीन, अली जहीर, तस्नीम जौहर, अवधेश रानी गौड़ एवं अन्य ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम के प्रारंभ में डा0 अली जावेद ने वर्ष भर चलने वाले कार्यक्रमों के संबंध में विस्तार से बताया।

इससे पहले सभी मेहमानों ने टैंक बंद तक मार्च किया और मखदूम मोहिउद्दीन और श्रीश्री की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया। 7 मार्च को पाकिस्तानी मेहमानों ने हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दौरा किया और वहां के शिक्षकों एंव छात्रों से बातचीत की।

इसी प्रकार का कार्यक्रम उर्दू एकेडमी, पंजाबी लिखाड़ी सभा और पीडब्लूए के सहयोग से 11 मार्च को चंडीगढ़ में भी किया जायेगा।

- डा. अली जावेद
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बजट 2011-12


एक बार फिर 2011-12 के लिए सरकार के वित्तीय एवं अन्य कार्यकलाप का ब्यौरा बजट के जरिये पेश किया गया है। बजट पेश करना एक कानूनी आवश्यकता तो है ही यह सरकार की बहुमुखी राजनैतिक-आर्थिक चाल का भी प्रतिनिधित्व करता है। अब लोगों को उसके नतीजे का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। अब लोगों को उसके नतीजे का इंतजार करने की जरूरत नहीं उन्हें पहले से ही जोरशोर से बता दिया गया है कि उन्हें कितना अधिक फायदा पहुंचने वाला है। पर विरले ही इनसे फायदा पहुंचता है। भारत की लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकरों ने इस बात की जरूरत कभी नहीं समझी कि जो लोग अपेक्षाकृत खराब हालत में हैं, वंचित हैं, हाशिये पर हैं, असमानता का शिकार हैं उनके हित में ऐसी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाएं आगे बढ़ायी जायें कि उन्हें अधिक फायदा पहुंचे, बेहतर सेवाएं मिले, उनकी जिंदगी में कुछ रोशनी आये।

आज जो आर्थिक दृष्टिकोण हावी है बजट 2011-12 भी उसी के अनुरूप है। उम्मीद की जाती थी कि कुछ कारणों से स्थापित तरीके से थोड़ा हटकर बजट आये। पहला, पिछले दो वर्षों से अधिक समय से देश में अत्यधि महंगाई का दौर-दौरा चल रहा है। यह महंगाई देश के आम गरीब लोगों पर जबर्दस्त मुसीबत ढा रही है। सरकार के लोग भी मानते हैं कि महंगाई जनता पर एक गैरकानूनी तरीक से थोपा गया टैक्स है। जाहिर है बाजार की ताकतें इस टैक्स को जनता पर थोपती हैं, अतः वही इसे वसूल भी करती हैं।

दूसरा, बिजनेस वर्ग की तरफ को जो अतिरिक्त नकद धन बहकर जा रहा है वह दरअसल उन्हें सरकार से मिल रही सौगात है। इस वर्ग की तरफ को धन के बहने का कारण यह है कि आज महंगाई की उग्रता और उसका जारी रहना-यह स्वयं सरकार का ही कारनामा है। सरकार के पास खाद्यान्न का विशाल भंडार है। उस खाद्यान्न भंडार को कम करके और उसके जरिये कीमतों को गिरा कर गरीब लोगों को सस्ते दर पर खाद्यान्न मुहैया करने के बजाय सरकार ने उसे गोदामों में ही सड़ाना या उसे किसी न किसी तरीके से व्यापारियों एवं कालाबाजारियों के हवाले करना ही बेहतर समझा। साथ ही सरकार ने देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को इजाजत दी कि वे सीधे किसानों सेे खाद्यानन खरीदें और फिर ऊचें दामों पर बेचें। आज जो आर्थिक वृद्धि हो रही है उसकी कमान कार्पोरेट क्षेत्र के हाथ में है, उत्तरोत्तर बढ़ती ‘असमावेशी वृद्धि’ के ‘राष्ट्रीय’ कार्य को आगे बढ़ाने के कार्य के लिए उन्हें प्रोत्साहन दिया जा रहा है, रियायतें दी जा रही हैं, खोलकर उन्हें पैसा दिया जा रहा है।

जिन रजिस्टर्ड कम्पनियों के आय-व्यय के विवरण आ चुके हैं उनके मुनाफों के आंकड़े देखने योग्य हैं। उन्होंने बेतहाशा मुनाफे कमाये हैं। 2009-10 में, रिटर्न फाईल करने वाली लगभग 4.27 लाख कम्पनियों में से 2.5 लाख कम्पनियों ने लगभग 2.54 लाख करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया था। उन्होंने कानून के अनुसार 33 प्रतिशत टैक्स देने के बजाय 23.63 प्रतिशत का प्रभावी टैक्स ही अदा किया। गत वर्ष कम्पनियों द्वारा दिये गये टैक्स की प्रभावी दर लगभग 22 प्रतिशत रही इसका अर्थव्यवस्था में जो लोग सबसे अधिक मालामाल हैं उन्हें सरकार ने टैक्सों के मामले में सबसे अधिक रियातें दी। कभी यह सवाल नहीं पूछा जाता कि इन कम्पनियों को इतनी रियायत देकर आखिर देश को क्या फायदा पहुंचता है। यह स्पष्ट है कि हमारी वित्तीय नीति से सामाजिक न्याय और समानता जैसी बातें लम्बे समय से या स्थायी तौर पर गायब हो चुकी हैं।

उम्मीद की जाती थी कि जमीनी स्तर पर आम लोगों के दबाव के चलते वित्तीय तौर-तरीकों की प्रतिगामी प्रकृति में कुछ कमी कर नीतियों को सही रास्ते पर लाने की दिशा में शायद कोई कदम उठा लिया जाये। जाहिर है यह उम्मीद बिजनेस वर्ग और कार्पोरेट घरानांे के लिए लाबीईंग करने वालों के चमक-दमक भरे कागजों में पेश ज्ञापनों के सामने कमजोर पड़ी और अंत में बिजनेस वर्ग और कार्पोरेट घराने ही विभिन्न स्पष्ट एवं सुनिश्चित रियायतें और ऐसे संशोधन हासिल करने में कामयाब हो गये जिनके फलस्वरूप प्रत्यक्ष करों के रूप में उन्हें कम पैसा देना पड़ेगा।

इस प्रकार वर्तमान बजट के फलस्वरूप 11 हजार करोड़ रुपये की धनराशि को इस प्रकार न्यौछावर कर दिया गया क उससे कार्पोरेटों के पक्के चिट्ठे बैलेंस शीट में उनके मुनाफों में सीधे तौर पर बढ़ोतरी हो जायेगी। एक बिजनेस दैनिक पत्र में कुछ कम्पनियों के नाम देकर बताया है कि उन्हें कितना-कितना फायदा पहुंचेगा।

क्या किसी ने सोचा कि इतने पैसे से तो उस पूरे के पूरे आदिवासी क्षेत्र की शक्ल ही बदली जा सकती है जहां के लोगों को किसी कम्पनी की फैक्टरी या पावर प्लांट या अन्य कोई कारखाना लगाने के लिए उनके रोजगार के प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल कर दिया गया है।

असल में केन्द्र के बजट खर्च का लगभग आधा हिस्सा अमीरों और सम्पन्न वर्गों के लिए है। यह पैसे का ऐसा हस्तांतरण हैं जिसके बदले में देश को कुछ नहीं मिलता। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। लम्बे अरसे से खासकर 1991 से जबकि विकास एक वृद्धि की भूमिका इन बड़े लोगोें के हवाले कर दी गयी और इस महान दायित्व को पूरा करने में उन्हें कामयाब करने के लिए सरकार उनके वफादार सेवक के रूप में खड़ी हो गयी है- यही सब चल रहा है।

बजट की कुछ अन्य बातें देखें जिनसे पता चले कि बजट का असली चेहरा क्या है, असली जोर किस बात पर है। सबसे पहले देखें महात्मा

गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना- जिसकी बहुत चर्चा होती है और जो तत्वतः अत्यंत सकारात्मक स्कीम है- की बजट में क्या तुलनात्मक स्थिति है। पिछले वर्ष इसके लिए जो आवंटन हुआ था न तो वह पूरा खर्च किया गया औरन ही वित मंत्री इस वर्ष के बजट में उसमें कटौती करने से बाज आये। इधर तो उसमें दैनिक मजदूरी बढ़ाने की बातें चल रही हैं। पर बजट में उसके लिए पैसे का आवंटन ही कम कर दिया गया है। जाहिर है उसमें अब कम लोगों को काम मिलेगा और यह कानून एक मजाक बन कर रह जायेगा। नियेक्ता वर्गों का दबाव है कि मनरेगा पर कोई अंकुश लगे क्योंकि मनरेगा के कारण अनेक बार उन्हें उचित मजदूरी देेने पर मजबूर होना पड़ता है। मनरेगा में आवंटन कम करना बेहतर हालात वाले तबकों की मांग के अनुरूप है।

सरकार कार्पोरेट तबकों, खुशहाल तबकों और विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष पर निष्ठावान लोगों की इस मांग के लिए प्रतिबद्ध है कि वित्तीय घाटा कम किया जाये, इसके लिए सकल घरेलु उत्पाद के हिस्से के रूप में सरकारी खर्चे में निर्धारित समय में उत्तरोत्तर कमी लायी जाये और सरकारी खर्चे की ऊपरी सीमा तय हो भले ही राष्ट्रीय जरूरतें कैसी भी हों, या कार्पोरेटांे जैसी बड़ी हस्तियां इस सिलसिले में आवश्यक दायित्व को पूरा करने में विफल रहें। अतः सार्वजनिक व्यय को कम करने की हर चंद कोशिश की जाती है बशर्ते उसमें कार्पोरेट हितों पर या उन जी-7 देशों की अर्थव्यवस्था पर कोई आंच न आए जो भारत के बाजारों से बड़े मुनाफे कमाने पर नजर गड़ाये हैं।

बजट से पता चलता है कि टैक्स-जीडीपी अनुपात भी व्यवहारतः ठहराव की स्थिति में है। कार्पोरेट तबका खुश है कि संसाधन बढ़ाने के लिए उन पर ऐसा कोई दबाव नहीं कि जिस हद तक उन्हें मंजूर है उसमें अधिक टैक्स देने के लिए सरकार उनसे कहे। इस तरह सार्वजनिक व्यय में और टैक्स वसूल करने की सरकार की कोशिश में कमी से यह तबका गदगद है। इससे उनके निजी खातों में दौलत बढ़ती है और कोई भी आर्थिक वृद्धि उस तरीके से ही होती है जो उन्हें मंजूर हो। इसमें विभिन्न रूपों मे और उनकी शर्तों के अनुसार विदेशी पूंजी आने की भी भरपूर गुंजाइश रहती है। इस वित्तीय व्यवस्था में जिनके पास टैक्स देने की क्षमता है उन्हें छूने पर बहुत हो-हल्ला होता है। इस प्रकार एक तरफ वित्तीय घाटे को कम रखने का कृत्रिम लक्ष्य और दूसरी तरफ राजनैतिक रूप से स्वार्थसाधक टैक्स नपुंसकता- ये दोनों बातें आम आदमी के प्रति सरकार की जो नैतिक एवं आर्थिक दायित्व है उनको पूरा करने के लिए सरकार के पास उपलब्ध साधनों को सीमित बना देती हैं। टैक्स राजस्व में 23 प्रतिशत वृद्धि का और जी-3 स्पेक्ट्रम से जबर्दस्त राजस्व पाने का दावा भले ही किया जाये, सरकार का दृष्टिकोण सार्वजनिक व्यय के संबंध में जस का तस है।

तथ्य यह है कि देश में औद्योगिक एवं कृषि उत्पाद की ऐसी विशाल क्षमताएं हैं जो अभी तक प्रयोग में नहीं लायी गयी है, देश में विशाल युवा आबादी है जिनमें हर तरह की शिक्षा प्राप्त लोग शामिल हैं। ये दो सकारात्मक पहलू है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए इनका लाभ उठाने की कोशिश नहीं की गयी है।

यदि कृषि में, खासकर वर्षा सिंचित इलाकों में दालों एवं खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए सार्वजनिक एवं निजी निवेश में वास्तव में वृद्धि की जाती तो उससे मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिल सकती थी। दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए 60 हजार गांवों को 300 करोड़ रुपये देना ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।

मुख्य बात यह हे कि कीमतों को नीचे लाने की दिशा में मांग और आपूर्ति में तालमेल और व्यापक उपभोग की वस्तुओं के विकेन्द्रीकरण उत्पादन की आवश्यकता है ताकि बुनियादी जरूरतें पूरी हों और अत्यधिक आयातों, पूंजी निवेश, ऊर्जा खपत और प्रदूषण पर अंकुश लगे।

कहने का मतलब यह है कि जब सार्वजनिक व्यय बढ़ने से मांग बढ़ती है तो कम अरसे में आपूर्ति में वृद्धि करने के लिए हमारे पास अच्छी क्षमता एवं संभावना है। पर कार्पोरेट निवेशकों के लिए कोष की अथाह गंगा बहती रहे इस मकसद से सरकार सार्वजनिक व्यय को कम कर रही है और सभी नीतियां इस तरह बनायी जा रही हैं कि कार्पोरेटों को खूब पैसा मिलता रहे, उनके लिए सभी संसाधन उपलब्ध रहें और उनका विस्तार हो और उन्हें बाजार के अवसर मिलें। बजट की यही दिशा है। यह कहना कि सरकार केवल वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सार्वजनिक व्यय को कम कर रही है, सच नहीं है।

महंगाई को रोकना भी सरकार की प्राथमिकता नहीं है क्योंकि सरकार का विचार है कि महंगाई को रोकने से विकास दर घट जायेगी और पूंजीपति वर्ग के मुनाफे घट जायेंगे।

यह सुविदित है कि बचतों से आने वाला पैसा सामान्यतः काफी गरीब परिवारों से आता है जो पेट काटकर भविष्य के लिए कुछ बचत करने की कोशिश करते हैं और उन्हें बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थान जो ब्याज देते हैं वह बहुत कम होता है; खुदरा बाजार में कीमतें जिस रेट पर बढ़ रही हैं उससे बहुत कम ब्याज उन्हें बैंकों से मिलता है। कार्पोरेट क्षेत्र और अमीरों को उनसे अधिक ब्याज दिया जाता है और इस तरह गरीब परिवारों के संसाधनों का कार्पोरेट क्षेत्र का वास्तव में अघोषित हस्तांतरण हो जाता है और यह बरसों-बरस से चल रहा है।

हमारे देश के आज के हालात में आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई में तेज एवं सुनिश्चित वृद्धि संभव है। अतः बजट में एक बड़ा कदम उठाते हुए मनरेगा में वर्ष में लगभग 200 दिन काम देकर और न्यूनतम वेतन देकर और रोजगार गारंटी कानून के दायरे में शहरी गरीबों को लाकर इस दिशा में बढ़ा जा सकता था। पर बजट में ऐसा नहीं किया गया।

आज आवश्यकता है कि भारत के नौजवानों को रोजगार दिलाने पर फोकस किया जाये। पर हो इससे उलटा रहा है। भारत के कार्पोरेट विदेशों में निवेश कर रहे हैं और सरकार उन्हें रियायत के बाद रियायत दिये चली जा रही है, यह फिक्र किए बिना कि इससे भारत में रोजगार सृजन को नुकसान पहुंच रहा है।

नवउदारवाद के तहत समावेशी वृद्धि का दावा सरकार फरेब और धोखा है। इस तरह के विकास के स्थान पर सच्चे तौर पर समावेशी वृद्धि की दिशा में चलने की जरूरत है। पर हमारे देश के वास्तविक हालात और जरूरतों को अनदेखा कर हमारी पूंजीपति-समर्थक सरकार ने बेशर्मी के साथ इस तरह की गलत एवं विकास विरोधी नीतियां देश पर थोप दी हैं जिनसे सार्वजनिक व्यय कम होता है और सभी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई पर अति समृद्ध लोगों की इजारेदारी हो जाती है।

जिस तरीके से कस्टम ड्यूटी (आयात शुल्क) साल-दर-साल नीचे की गयी है उसके कारण सरकार आयात शुल्क आधारित राजस्व की विशाल राशि से महरूम हो जाती है और देश में सस्ते आयात की बाढ़ आती है। इससे न केवल राजस्व को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि भारत के मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र के रोजगार का निर्यात हो रहा है, रोजगार घट रहा है।

इस समय मेन्यूफैक्चर्ड मालों का आयात हमारे अपने मेन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में होने वाले कुल उत्पादन से अधिक है। यह देश में उद्योगों को खत्म करने की प्रक्रिया है। विश्व में औद्योगिक क्रांति के समय हमारे विदेशी शासक कोशिश किया करते थे कि हमारे यहां कोई माल न बने, सभी माल विदेशों से आये। आज हमारे अपने शासक ही वही काम कर रहे हैं। यह सब भूमंडलीकरण पर अंधा होकर चलने के कारण हो रहा है, बदले में हमारे नीति निर्माताओं को विदेशी सरकारों एवं विशेषज्ञों की तरफ से शाबाशी मिल जाती है।

बजट में सामाजिक क्षेत्र में वृद्धि का दावा सरासर गुमराह करने वाला है। महंगाई के हिसाब से देखें तो यह वृद्धि बहुत ही मामूली सी है। इसके अलावा कई सेवाओं जैसे कि ब्राडकास्टिंग या वैज्ञानिक एवं अन्य आकर्षक अनुसंधान केवल गरीबों के लिए नहीं। दरअसल उन्हें तो इसके फायदों को लेशमात्र भी हिस्सा नहीं पहुंचता। शिक्षा एवं भोजन के तथाकथित अधिकारों के प्रकाश में स्वास्थ्य एवं शिक्षा के दायरे में समूची आबादी आनी चाहिये। इनके लिए बजट में क्या प्रावधान हैं? जब पर्याप्त बजट आवंटन ही नहीं है तो इन अधिकारों का मतलब ही क्या रह जाता है?

इसके अलावा ये अधिकार जनता को मिल जायें इसके लिए न तो तफसील से कोई कार्यक्रम है न तंत्र; न ही केन्द्र सरकार या राज्य सरकरों को इसके प्रभावी अमल में कोई दिलचस्पी है। क्या हम नहीं देखते नौकरशाही किस कदर भ्रष्ट और जनता के हितों के प्रति किस तरह भाव शून्य है। सामाजिक खर्चो आदि के लिए कोई पैसा बजट में दिया भी जाता है तो भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाही के बीच साठगांठ और बंदरबांट के चलते जमीनी स्तर पर जनता को उसका फायदा पहुंच ही कहां पाता है?

आवश्यकता इस बात की है कि बजट में शीघ्र एवं दृश्यमान परिणाम-उन्मुखी जनता परस्त संसाधन आवंटन करने के लिए सरकारी नीतियों के महत्व को समझा जाये और इस तरह का सुस्पष्ट बजट बनाया जाये जिससे न सिर्फ शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे अति आवश्यक सामाजिक कार्यों के लिए संसाधन जुटाये जायें बल्कि हमारी अर्थव्यस्था और देश में जो सुस्पष्ट असंतुलन पैदा हो गये हैं उन्हें ठीक किया जाये। जनता के सशक्तीकरण के लिए और हमारे लोकतंत्र को वास्तव में प्रेरणास्पद एवं अग्रगामी सामाजिक परिवर्तनों का जरिया बनाने के लिए बजट में ऐसे बदलाव जरूरी हैं।

- कमल नयन काबरा
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मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं थे, न हैं और न ही हो सकते हैं

हिटलर के अनुसार किसी भी झूठ को सत्य बनाने के लिए उसे बार-बार बोलने की जरूरत होती है। पिछले बीस सालों में मनमोहन सिंह और अटल बिहारी बाजपेई के ईमानदार होने का झूठ इसलिए लाखों बार बोला गया जिससे यह लगने लगे कि वे ईमानदार हैं। ईमानदार होने का अनवरत अलाप पूंजी नियंत्रित समाचार-माध्यम पूंजी के निजी हितों को साधने के लिए करते रहे हैं।

क्या महात्मा गांधी को कभी किसी संचार माध्यम ने ईमानदार कहा? क्या भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद को किसी ने आज तक ईमानदार कहा? क्या जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और अजय घोष एवं पी.सी. जोशी को कभी किसी ने ईमानदार कहा? नहीं! क्यों? क्योंकि वे सही मायनों में ईमानदार थे। वे देश के प्रति ईमानदार थे, वे अपने सोच से ईमानदार थे, वे देश की जनता के प्रति ईमानदार थे, वे कार्य और व्यवहार में ईमानदार थे.......... ये सब सार्वभौमिक रूप से ईमानदार थे। उन्हें पूंजी नियंत्रित संचार माध्यमों से ईमानदारी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं थी।

यहां डा. भाभा का उल्लेख करना जरूरी होगा। राष्ट्र के प्रति निष्ठा और देश की अगली पीढ़ी की बेहतरी का ख्वाब उन्हें विदेश से वापस भारत ले आया। उन्होंने ईमानदारी से देश में विज्ञान, चिकित्सा और प्रौद्योगिकी की शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया और साम्राज्यवादी अमरीका की सीआईए द्वारा एक कथित विमान दुर्घटना में अकाल मौत को प्राप्त हुए। वैभव, धन और ख्याति वे विदेश में रह कर, विदेशी राष्ट्र की सेवा कर प्राप्त कर सकते थे लेकिन उन्होंने राष्ट्र के लिए और देश की अगली पीढ़ी के लिए अपने निजी हितों को न्यौछावर करना पसन्द किया। वे ईमानदार थे लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार नहीं कहा। डा. भाभा जैसे अन्यान्य उदाहरण से भारतीय इतिहास भरा हुआ है। ग्रंथ के ग्रंथ लिखे जा सकते हैं उन लोगों पर जिन्होंने देश के लिए अपना सुख, सम्पत्ति सभी कुछ न्यौछावर कर दिया लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार कहने की हिमाकत नहीं दिखाई क्योंकि वे सभी ईमानदार थे।

सत्ता की खरीद फरोख्त कांग्रेस भी करती रही है और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा भी। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी प्रभृति क्षेत्रीय दल भी यही सब करते रहे हैं। जबसे नई आर्थिक नीतियां शुरू हुई हैं, तबसे पूंजी की हवस को हवा मिलना शुरू हो गयी है। भ्रष्ट होने के लिए पूंजी पैसा मुहैया कराती है। सत्ता की खरीद-फरोख्त के लिए यही पूंजी पैसा मुहैया कराती है। इसे कभी कोई शर्म नहीं रही।

1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में अल्पमत कांग्रेस की सरकार बनी थी। शुरू में विश्वास प्रस्ताव आया तो समूचे विपक्ष ने विकल्पहीनता के कारण उस सरकार को काम करने की छूट दे दी। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो गया। उंगलियां उठीं थी - भाजपा और कांग्रेस के मध्य दुरभि संधि की। वित्त मंत्री मनमोहन सिंह थे। बजट सत्र में अविश्वास प्रस्ताव आया। मोहन सिंह कई बार जिक्र कर चुके हैं कि राम लखन सिंह यादव पंडित पंत मार्ग की कोठी नं. 9 में रहते थे जबकि मोहन सिंह 7 नम्बर में। वी. पी. सिंह द्वारा बनाये गये जनता दल के सदस्यों की भीड़ राम लखन सिंह यादव के आवास पर लगने लगी। मोहन सिंह ने आरोप लगाये हैं कि राम लखन सिंह यादव ने उन्हें भी प्रलोभन दिया था - एक करोड़ रूपये, एक पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी के साथ मंत्री पद। वी.पी. सिंह के तमाम करीबी लोगों की निष्ठा रातों-रात बदल गयी। मोहन सिंह ने लिखा है कि जनता दल तोड़ने के लिए एक सांसद कम पड़ रहा था कि उनके सामने से मुरादाबाद के सांसद हाजी गुलाम मोहम्मद को सतीश शर्मा और बलराम यादव ने बीच सड़क से कार में जबरदस्ती टांग लिया। जनता दल तोड़ने का कोटा पूरा हो गया। पूरा देश जानता है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नौ आदिवासी सांसदों को थोक में खरीद लिया गया। राम लखन सिंह यादव और अजित सिंह दोनों केन्द्र सरकार में मंत्री बन गये।

उसके बाद आये अटल बिहारी बाजपेई। 21 दलों के मोर्चा के वे नेता थे। जयललिता ने अन्ना द्रुमुक का समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गयी थी। स्वाभाविक था कि सरकार को फिर से विश्वास मत लेने की जरूरत पड़ गयी। सरकार के प्रबंधक प्रमोद महाजन और जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में भाजपा सक्रिय हुई। कौन से हथकंडे़ अटल बिहारी बाजपेई ने नहीं अपनाये थे? पूर्वोत्तर के निर्दलीय सांसद उनके जाल में फंसे। यदि बसपा रात में समर्थन का ऐलान न करती तो उसके सांसदों का भी सौदा भाजपा कर चुकी थी। सुबह संसद में मायावती पलट गयीं। संसद में ही प्रमोद महाजन ने उन्हें सन्देश दिया कि कल ही कल्याण सिंह से इस्तीफा लेकर उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जायेगा। लेकिन मायावती ने अंत में दगा कर उनकी सरकार को गिरा दिया। सरकार गिरने के बाद हुआ कारगिल युद्ध क्या चुनाव जीतने के लिए अटल बिहारी बाजपेई द्वारा देश के साथ की गयी बेईमानी नहीं थी?

मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अमरीकी साम्राज्यवाद नियंत्रित संस्थाओं में नौकरी कर अमरीकी साम्राज्यवाद की सेवा की। क्या यह देश के प्रति उनकी ईमानदारी का सबूत है? क्या वे भारत में रह कर यहां के जनमानस की सेवा नहीं कर सकते थे? उन्होंने अमरीका के साथ परमाणु करार किया। क्या यह देश के प्रति मनमोहन सिंह की ईमानदारी थी। उन्होेंने भारत-ईरान गैस पाईप लाईन को अमरीका के कहने पर खटाई में डाल दिया और भारत के चिरमित्र रहे ईरान के साथ विश्वासघात किया। क्या यह राजनयिक ईमानदारी थी? क्या भाजपा सांसदों द्वारा विश्वास मत पर बहस के दौरान लोकसभा में लहराई गयी गड्डियों पर गठित संयुक्त संसदीय समिति की अनुशंसा पर उन्होंने इस दौरान हुए पूरे खेल की जांच किसी एजेन्सी को सौपी? यह कौन से ईमानदारी थी? मनमोहन सिंह न अपने सोच में ईमानदार हैं, न वे देश की जनता के प्रति ईमानदार हैं और न ही अपने कार्य और व्यवहार में ईमानदार हैं। न ही देश के भविष्य के लिए उन्होंने कभी कोई ख्वाब देखा था, न देख सकते हैं और न ही देख पायेंगे।

असली समस्या भारत की वह जनता है जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ तेवर नहीं हैं। उसके विकल्प सीमित हैं। उसे किसी न किसी भ्रष्ट को ही वोट देना है तो करे क्या? कोई कानून, कोई जांच, कोई बहस इस संस्थागत भ्रष्टाचार से संघर्ष में सक्षम नहीं है। हमें जनता के सामने एक राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत करते हुए उसमें चेतना भरनी होगी, उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करना होगा और तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है।

- प्रदीप तिवारी
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आगामी चुनाव और वामपंथ


पांच राज्यों - असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के विधान सभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और उम्मीदवारों के नामांकन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। ये चुनाव, खासकर पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव वामपंथी पार्टियों के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस समय वहां क्रमशः वाम मोर्चा और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकारें हैं। वामपंथ के लिए तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम के चुनाव भी काफी अहमियत रखते हैं।

अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए केरल और पश्चिम बंगाल में विजय प्राप्त करना वामपंथी पार्टियों के लिए आवश्यक है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा पिछले लगभग 34 सालों से लगातार शासन कर रहा है जबकि केरल में एलडीएफ पिछले पांच वर्षों से सत्ता में है।

जब कोई सरकार सत्ता में होती है तो कुछ समस्याएं अपरिहार्य होती है। सभी वायदे पूरे नहीं किये जा सकते। पश्चिम बंगाल में कुछ गलतियां हो गयी हो सकती हैं। जब कोई सत्ता लम्बे अरसे तक रहती है तो कुछ अवांछनीय तत्वों समेत सभी तबके उसकी तरफ आकृष्ट होते हैं। भूल-चूकों और गलतियों की कुछ हद तक पहचान हो चुकी है और उन्हें दूर करने के लिए कुछ गंभीर प्रयत्न भी किये गये हैं।

कुछ अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं। उद्योगीकरण के ईमानदार प्रयास भूमि अधिग्रहण के गलत तरीकों से किये गये, जिसका विरोधियों ने फायदा उठाया, उसे हजारों गुना बढ़ाकर पेश किया गया और उससे जनता का एक हिस्सा भ्रमित हुआ। सभी वामपंथ विरोधी पार्टियों के एकजुट हो जाने की उम्मीद तो थी पर जब तृणमूल कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस माओवादियों को खुले समर्थन के साथ एकजुट हुई तो उन्होंने लक्ष्मण रेखा ही लांघ दी।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लगातार इस अभियान को जारी रखे हुए हैं कि वामपंथी अतिवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उनके लिए सीमापार से आतंकवाद, अभूतपूर्व तरीके से बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, करोड़ों-अरबों रूपये कालाधन जैसी बातें मुख्य समस्याओं में नहीं हैं पर माओवाद सबसे बड़ी समस्या है। पर उनकी पार्टी ममता बनर्जी से हाथ मिलाती है और पश्चिम बंगाल में सत्ता छीनने के अपने सपने में माओवादियों से सहर्ष समर्थन लेती है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ का हमेशा ही विचार रहा है कि माओवाद एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और इसके एक राजनैतिक समाधान की जरूरत है। हमने गोलियों और हत्याकांडों के जरिये माओवाद को कभी खत्म करना नहीं चाहा। यह कांग्रेस सरकार ही है जो माओवाद की तर्ज पर माओवादी समस्या का हल बन्दूक की नली की ताकत से निकालना चाहती है। वे माओवादियों को अत्यधिक नृशंसता से मार डालते हैं, यहां कि गिरफ्तार करने के बाद भी उनकी हत्या कर देते हैं जैसे उन्होंने आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में राज कुमार उर्फ आजाद के साथ किया और उसके बाद वे पश्चिम बंगाल में माओवादियों के साथ गलबहियां भी कर लेते हैं। यह हैरानी की बात है कि पश्चिम बंगाल में अपने अंध वामपंथ विरोधी रवैये के कारण वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के घिनौने खेल को नहीं समझ पा रहे हैं। माओवादियों को बाद में अहसास होगा कि असली दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है। पर जो भयंकर राजनैतिक गलती वे आज कर रहे हैं, उसे दुरूस्त करने के लिए तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार को श्रेय जाता है कि उसने राज्य में बटाईदारों के अधिकारों की गारंटी समेत सार्थक भूमि सुधार किये; समुदायों के बीच शानदार धर्मनिरपेक्ष सम्बंध बनाये रखे; उनकी शिक्षा और सुविधाओं के साथ उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विशेष रियायतें प्रदान कीं। वाम मोर्चा को बदनाम करने के लिए कुछ गलतियों, भूलों को, खासकर आदिवासी क्षेत्रों में, बेहद बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। पश्चिम बंगाल के लोग राजनीतिक तौर पर काफी अधिक सचेत हैं और हम आशा करते हैं कि वे तमाम बातों को समझेंगे और एक मजबूत वाममोर्चा के पक्ष में जनादेश देंगे।

केरल एक ऐसा राज्य है जहां एलडीएफ ने ऐसे अनेक सकारात्मक कार्यक्रम चलाये हैं जिनसे जनता को, खासकर गरीबों एवं मध्यवर्ग के लोगों को फायदा पहुंचा है। केरल में देश की सबसे अच्छी सार्वजनिक वितरण प्रणाली है जिसके जरिये चावल दो रूपये किलो दिया जाता है और गरीबी रेखा के नीचे के लगभग 35 लाख परिवारों को खाद्य तेल, दाल और लगभग दो दर्जन आवश्यक वस्तुएं आपूर्ति की जाती हैं। गरीबी की रेखा से ऊपर के अन्य 40 लाख परिवारों को 50,000 सहकारी दुकानों के जरिये बाजार दर से 15 से 40 प्रतिशत की कम कीमत पर आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाती है। इस अवधि में गरीबों के लिए साढ़े तीन लाख मकान बनाये गये, एम.एन. आवास योजना के मकानों पर प्रति मकान एक लाख रूपये खर्च कर एक लाख पुराने मकानों की मरम्मत कराई गयी और उन्हें बड़ा बनाया गया। केरल देश का एक अकेला राज्य है जहां किसान कर्ज राहत कमीशन का गठन किया गया और कर्ज राहत देकर किसानों को संकट से बचाया जाता है। केरल के मछुआरों की काफी बड़ी आबादी है, उन्हें 300 करोड़ रूपये की कर्ज राहत दी गयी। इस कर्ज राहत का फायदा 80,000 मछुआरों को मिला। जहां जमीन कम है वहां और अधिक जमीन को धान की खेती के तहत लाया गया।

केरल को इसका भी श्रेय है कि वहां सुशासन है, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है, सबसे अच्छे साम्प्रदायिक सम्बंध हैं और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति अच्छी है।

यह हैरानी की बात है कि चुनाव आयोग ने गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों को भी दो रूपये किलो राशन के दायरे में लाने की इजाजत केरल सरकार को नहीं दी हालांकि इसका फैसला चुनाव संहिता के लागू होने से पहले बजट अधिवेशन के दौरान ही घोषित किया जा चुका था। यही बात ममता बनर्जी पर लागू नहीं की गयी जिन्होंने छात्राओं को रेलों में मुफ्त सफर करने की घोषणा की। अलग-अलग पैमाने - इससे भारत के चुनाव आयोग की अच्छी छवि देश के सामने नहीं जायेगी। उसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।

एलडीएफ के राजनैतिक अभियान को केरल में उत्साहपूर्ण समर्थन मिल रहा है, एलडीएफ के दो जत्थों ने सभी 140 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया। उन्हें जनता का भरपूर समर्थन और प्यार मिला। क्रीम पार्लर सेक्स घोटाला का, जिसमें पूर्व मंत्री और मुस्लिम लीग के नेता कुन्हाली कुट्टी शामिल हैं, पूर्व मंत्री बाल कृष्ण पिल्लई को एक साल की सजा, जिसकी पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की है, पूर्व मंत्रियों पर अन्य मामले - इन तमाम बातों से भ्रष्ट यूडीएफ सरकार का चेहरा पूरी तरह जनता के सामने आ गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन के भाई और उनके दादाद - जो दोनों ही कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं - कालेधन के साथ पकड़े गये हैं। केरल के पामोलीन घोटाले में शामिल थॉमस की भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किये जाने से केन्द्र की संप्रग सरकार की नाक तो कटी ही केरल में यूडीएफ की छवि भी खराब हुई। केरल के लोग उच्च साक्षर हैं और अत्यंत सचेत हैं। यूडीएफ, मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों, जो केरल की आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं - के राजनैतिक प्रबंधकों पर निर्भर करता है। जनता अपनी पसंद तय करने के मामले में काफी होशियार है। पिछले कुछ महीनों के राजनैतिक घटनाक्रम से निश्चय ही वामपंथ के पक्ष में वातावरण बना है।

तमिलनाडु बहुत हद तक दो द्रविड़ पार्टियों के प्रभाव में है। वामपंथ ने आल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के साथ तालमेल किया है। वामपंथ वहां सीमित संख्या में - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 10 स्थानों पर तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) 12 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

दोनों वामपंथी पार्टियों की छवि है कि वे गरीबों, दबे-कुचले लोगों, किसानों, श्रमिकों और मजदूर वर्ग के लिए लड़ती है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कई संघर्ष किये हैं जिनसे पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ी है।

ठीक इसी समय में डीएमके बदनाम हुई, उसकी साख गिरी। वह भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है। करूणानिधि ने डीएमके को एक पारिवारिक सम्पत्ति बना लिया है। करूणानिधि मुख्यमंत्री हैं, उनका छोटा बेटा स्टालिन उप मुख्यमंत्री है, बड़ा बेटा केन्द्र में कैबिनेट मंत्री है और बेटी राज्य सभा की सदस्य है।

2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने - डीएमके नेता और टेली कम्युनिकेशन के मंत्री के रूप में केन्द्रीय कैबिनेट में डीएमके नामजद ए. राजा की गिरफ्तारी ने - डीएमके के भ्रष्ट तौर-तरीकों का पर्दाफाश कर दिया है। अब क्लाइन्गर टीवी में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के पैसे के प्रवाह के सम्बंध में सीबीआई जांच चल रही है। चुनाव तक वह जांच दिखाने भर के लिए चलेगी क्योंकि हम सभी जानते हैं कि सीबीआई को एक निष्पक्ष सरकारी एजेंसी के रूप में रखने के बजाय उसे अब कांग्रेस पार्टी का एक साधन, एक औजार बना दिया गया है।

पिछले लोकसभा चुनाव में डीएमके ने समूचे तमिलनाडु को भ्रष्ट करने की कोशिश की। अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए उसने अत्यंत शर्मनाक तरीके अपनाये। अंग्रेजी पत्र ‘हिंदू’ द्वारा कुछ वीकीलीक्स दस्तावेजों को प्रकाश में लाया गया है जिसमें अमरीकी राजनयिक द्वारा अमरीकी सरकार को भेजे गये संदेशों से पता चलता है कि तमिलनाडु चनाव मंे किस हद तक भ्रष्टाचार हुआ। भ्रष्टाचार से हमेशा ही फायदा पहुंचे, ऐसा नहीं है। तमिलनाडु की जनता इस भ्रष्ट परिवार के शासन से तंग आ चुकी है और इस अत्यंत बदनाम सरकार को उखाड़ फेंकने में अपनी भूमिका अदा करेगी।

असम में दारोमदार आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों पर

असम में चुनाव के पहले चरण में चुनाव होंगे। राज्य की अनेक विशेषताएं हैं। यह एक ऐसा राज्य भी है जहां अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों का संकेन्द्रण है। वहां नियमित रूप से बाढ़ आती है या बंगला देश से बड़ी संख्या में लोग आ जाते हैं। विद्रोही गतिविधियां और उल्फा द्वारा इक्के-दुक्के हमले वहां की सामान्य बात बन गयी है। अब एक चुनावी चाल के तौर पर, उल्फा बोडो पार्टियों और अल्पसंख्यकों से समर्थन चाहती है। दुर्भाग्य से, असम गण परिषद - जो पहले भाजपा के खिलाफ कोई निश्चित एवं ठोस दृष्टिकोण नहीं अपना सकी थी - इस बार भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन में है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और अन्य वामपंथी पार्टियां अलग से चुनाव लड़ रही हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी असम के लोगों के सच्चे अधिकारों के लिए और शोषण के विरूद्ध हमेशा ही संघर्ष करती रही है। राज्य विधान सभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व बढ़ने से असम की जनता की ज्वलंत समस्याओं का समाधान सुनिश्चित करने के लिए एक बेहतर संघर्ष करने में मदद मिलेगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 19 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

पुडुचेरी में भाकपा का अच्छा रहेगा प्रदर्शन

तमिलनाडु के साथ ही पुडुचेरी में भी चुनाव हो रहा है। यह फ्रांसीसी उपनिवेश, जिसने फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष किया, भारतीय संघ में कुछ देर बाद शामिल हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यहां मजदूरों और दबे-कुचले लोगों के लिए समझौताविहीन तरीके से संघर्ष करती आयी है और जनता के मध्य पार्टी की एक अच्छी छवि रही है और उसे जनता का समर्थन रहा है।

शासक पार्टी कांग्रेस को पूर्व मुख्यमंत्री रंगासामी के कांग्रेस से बाहर निकल जाने से एक झटका लगा है। तमिलनाडु की राजनीति का पुडुचेरी में भी असर पड़ेगा। पिछले कार्यकाल में पुडुचेरी में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायकों ने अच्छा काम किया है। अतः पार्टी को आशा है कि विधान सभा में पार्टी के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी होगी।

सामान्यतः राज्य विधान सभा के चुनावों में राज्य एवं स्थानीय मुद्दे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर इस बार राष्ट्रीय राजनीति का भी इन चुनावों में बड़ी हद तक असर पड़ेगा। इन उपरोक्त पांच राज्यों में असम के सिवा भाजपा कहीं नहीं है। अन्य राज्यों में उसका अभी तक खाता नहीं खुला है और अब भी वह संभव नहीं है।

इन सभी पांच राज्यों में कांग्रेस और वामपंथ तथा कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। संसद के चुनावों के बाद दो वर्षों तक संप्रग-दो का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस बड़े जोश में थी। दूसरे बार की विजय ने उसमें अहंकार पैदा कर दिया और इस तरह वह आम जनता से पूरी तरह अलग-थलग हो गयी। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार, कांग्रेस नेताओं-मंत्रियों के घपले-घोटालों ने इस पार्टी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है, उसकी छवि और प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी है। खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ रही है। बढ़ती बेरोजगारी नई ऊंचाईयों पर पहुंच गयी है। लोगों में भारी आक्रोश है। पिछले दो वर्षों में दो बार ”भारत बंद“ हुए, मजदूरों की एक राष्ट्रीय हड़ताल हुई, सरकार के विरूद्ध अनेकानेक विराट रैलियां हुईं। सरकार के हर जनविरोधी कदम का विरोध हो रहा है।

कांग्रेस और संप्रग-दो की जनविरोधी नीतियों को शिकस्त देने के लिए और भ्रष्टाचार को पूरी तरह नकारने के लिए इन सभी पांचों राज्यों में कांग्रेस को शिकस्त देना एक राजनैतिक जरूरत है। वक्त का तकाजा है कि कांग्रेस को हटाया जाये।

- एस. सुधाकर रेड्डी
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