भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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मंगलवार, 29 मार्च 2011

पश्चिम बंगाल विधान सभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के प्रत्याशी


1 - कलिम्पोंग दार्जीलिंग विक्रम छेत्री

2 - इटाहार उत्तर दिनाजपुर श्रीकुमार मुखर्जी

3 - कांडी मुर्शिदाबाद एनुल हक

4 - गायघाट (अ.जा.) 24 परगना उत्तर माओंज कांति बिश्वास

5 - हिंगलगंज (अ.जा.) 24 परगना उत्तर आनन्द मंडल

6 - सोनारपुर (दक्षिण) 24 परगना दक्षिण तड़ित चक्रबर्ती

7 - श्रीरामपुर हुगली पार्थसारथी रेज

8 - तामलुक पूर्व मेदिनीपुर जगन्नाथ मित्रा

9 - पांसकुड़ा (पश्चिम) पूर्व मेदिनीपुर निर्मल कुमार बेरा

10 - नन्दीग्राम पूर्व मेदिनीपुर परमानन्द भारती

11 - पतासपुर पूर्व मेदिनीपुर माखन नायक

12 - कांठी (दक्षिण) पूर्व मेदिनीपुर उत्तर कुमार प्रधान

13 - डान्टोन पश्चिमी मेदिनीपुर अरूण महापात्र

14 - मेदिनीपुर पश्चिमी मेदिनीपुर संतोष राणा
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असम विधान सभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के प्रत्याशी


1 - लखीमपुर लखीमपुर अरूप कालिता

2 - नवबोसिया लखीमपुर हरेन बरूआ

3 - बिहपुरिया लखीमपुर निर्दलीय को समर्थन

4 - बोटड्रबा नागांव जतीन भुयान

5 - कालियाबोर नागांव प्रमोद भुयान

6 - बोकाहाट गोलाघाट बोलो बोरा

7 - लाहोवाल डिब्रूगढ़ रतुल गोगोई

8 - दुलियाजान डिबू्रगढ़ पुलक गोगोई

9 - शिवसागर शिवसागर प्रमोद गोगोई

10 - नजीरा शिवसागर द्रुपद बर्गोहेन

11 - टीटाबोर जोरहट कुला दास

12 - मोरियानी जोरहट जोन ताती

13 - दुधानोई (अ.ज.जा.) ग्वालपाड़ा भूपेन्द्र राभा

14 - बिलासीपाड़ा (पश्चिमी) ढूब्री गियासुद्दीन अहमद

15 - बिलासीपाड़ा (पूर्व) ढुब्री बिपिन बर्मन

16 - गोलकगंज ढुब्री मनोरंजन चक्रवर्ती

17 - राताबाड़ी (अ.जा.) करीमगंज रागेन्द्र चौ. दास

18 - करीमगंज (उत्तर) करीमगंज सत्यजीत पॉल पुरकायस्थ

19 - मोरीगांव मोरीगांव मुनिन महन्ता

20 - गुवाहाटी (पूर्व) कामरूप (मेट्रो) उपेन तालुकदार

21 - ढलाई (अ.जा.) कछार ब्रजेन्द्र दास
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केरल विधान सभा चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के प्रत्याशी


क्रम चुनाव क्षेत्र जिला प्रत्याशी

1 - नेदुमंगद तिरूअनन्तपुरम एड. पी. रामचन्द्रन नायर

2 - चिरायिकिंल (अ.जा.) तिरूअनन्तपुरम वी. शशि

3 - पुनालुर कोल्लम एड. के. राजू

4 - चादया मंगलम कोल्लम मुल्लाक्करन रत्नाकर

5 - करूणागपल्ली कोल्लम सी. दिवाकरन

6 - चतान्नूर कोल्लम जी. एस. जयलाल

7 - अडूर (अ.जा.) पतनाम्थित्ता चित्तायम गोपकुमार

8 - हरिप्पद अलाप्पुझा जी. कृष्णप्रसाद

9 - चेरथला अलाप्पुझा पी. तिलोत्तमन

10 - कंजिराप्पली कोट्टायम एड. सुरेश टी. नायर

11 - वैकॉम (अ.जा.) कोट्टायम के. अजित

12 - पीरिनेडु इदुक्की ई. एस. बिजिमोल

13 - मूवात्तुलुपुझा एर्नाकुलम बाबू पॉल

14 - परूर एर्नाकुलम पन्नीयन रवीन्द्रन

15 - कोडुन्गल्लूर त्रिशूर के. जी. शिवानन्दन

16 - करिप्पामंगलम त्रिशूर वी. एस. सुनील कुमार

17 - ओलुर त्रिशूर राजाजी मैथ्यू थॉमस

18 - नाल्तिका (अ.जा.) त्रिशूर गीता गोपी

19 - त्रिशूर त्रिशूर पी. बालचन्द्रन

20 - पट्टाम्बी पालक्कड़ के. पी. सुरेश राज

21 - मन्नारकाड पालक्कड़ वी. चामुन्नी

22 - इरानाड मालाप्पुरम अशरफ अली कलियात

23 - तिरूरंगाडी मालाप्पुरम एड. के. के. समद

24 - मंजेरी मालाप्पुरम प्रो. पी. गौरी

25 - नादपुरम कोझिकोड ई. के. विजयन

26 - इरिक्कुर कन्नूर एड. पी. संतोष कुमार

27 - कान्हान्गड़ कसरगोड ई. चन्द्रशेखरन
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रविवार, 27 मार्च 2011

तर्क, विनम्रता और दृढ़ता के योग थे कमला प्रसाद


अच्छे आलोचक, साहित्य सर्जक की उनकी भूमिका परसाई रचनावली और वसुधा जैसे प्रगतिशील प्रकाशन से ही स्पष्ट हो जाती है, लेकिन वे इससे कहीं ज्यादा एक कार्यकर्ता और संगठनकर्ता थे। प्रगतिशील लेखक संघ का पूरे देश में विस्तार इसका उदाहरण है। कैंसर के बावजूद सतत कार्य करते कमला प्रसाद 25 मार्च 2011 को हमसे विदा हो गए। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव विनीत तिवारी ने उन्हें इन शब्दों में याद किया।


उनसे आप लड़ सकते थे, नाराज हो सकते थे, लेकिन वो लड़ाई और नाराजगी कायम नहीं रह सकती थी। वे आलोचक थे इसलिए विश्लेषण उनका सहज स्वभाव था, साथ ही वे संगठनकर्ता थे इसलिए अपनी आलोचना सुनने, खामियों को दुरुस्त करने और दूसरों को गलतियां सुधारने का भरपूर मौका देने का जबर्दस्त संयम उनके पास था। कोई अगर एक अच्छे कार्यक्रम की अस्पष्ट सी आकांक्षा भी प्रकट कर दे, तो वे उसके सामने संसाधनों के प्रबंध से लेकर वक्ता, विषय आदि का विस्तृत खाका खींच निश्चित कर देते थे कि कार्यक्रम हो। सक्रियता और गतिविधि में उनका गहरा यकीन था। वे कहते भी थे कि अगर कुछ हो रहा है तो उसमें कुछ गलत भी हो सकता है और उसे ठीक भी किया जा सकता है। पूरी तरह पवित्र और सही तो वही बने रह सकते हैं जो कुछ करते ही न हों।
मध्य प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरा अनेक इकाइयों में जाना हुआ। हर जगह छोटे-बड़े अनेक साहित्यकार उनसे अपने परिचय का जिक्र करते। मुझे देखने का तो मौका नहीं मिला लेकिन कुमार अंबुज, हरिओम, योगेश वगैरह से कितनी ही बार जाना कि उन्होंने संगठनकर्ता के नाते कितनी ही असुविधाजनक यात्राएं कीं। कहीं से इकाई बनाने का संकेत मिलते ही शनिवार-रविवार की छुट्टी में चल देते। रिजर्वेशन तो दूर की बात, सीट न मिलने पर घंटों खड़े रहकर भी संगठन के विस्तार की चाह में दूर-दूर दौड़े जाते थे। वे अपना वैचारिक और सांगठनिक गुरू परसाई जी को कहा करते थे और उन्होंने अपने गुरू के नाम और काम को आगे ही बढ़Þाया। नामवर जी से लेकर होशंगाबाद के गोपीकांत घोष तक उन्हें कमांडर कहते थे। कार्यक्रम की योजना वे कमांडर की ही तरह बनाते भी थे और फिर एक साधारण कार्यकर्ता की तरह काम में हिस्सा भी बंटाते थे, लेकिन कभी शायद ही किसी ने उन्हें आदेशात्मक भाषा में बात करते सुना हो। उल्टे हम कुछ साथियों को तो कई बार कुछ अयोग्य व्यक्तियों के प्रति उनकी उतनी विनम्रता भी बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सांस्कृतिक संगठन बनाने का काम तुनकमिजाजी और अक्खड़पन से नहीं, बल्कि तर्क, विनय और दृढ़ता के योग से बनता है, यह सीख हमने उनके काम को देखते-देखते हासिल की। उनको याद करते हुए राजेन्द्र शर्मा की याद न आए, मुमकिन ही नहीं। राजेन्द्र शर्मा ने जैसे उनके काम में जितना हो सके उतना हिस्सा बंटाने को ही अपना मिशन बना लिया था।
कमला प्रसाद की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था और इसलिए अपनी लेखकीय क्षमताओं के भरपूर दोहन के बारे में वे बहुत सजग कभी नहीं रहे। उनका अपना लेखन, किसी हद तक पठन-पाठन भी, संगठन के रोज के कामों के चलते किसी न किसी तरह प्रभावित होता ही था। फिर भी उन्होंने खूब लिखा। 'वसुधा' में उनके संपादकीय तो अनेक रचनाकारों के लिए राजनीतिक व संस्कृतिकर्म के रिश्तों की बुनियादी शिक्षा, और अनेक के लिए रचनात्मक असहमति व लेखन के लिए उकसावा भी हुआ करते थे। लेकिन वे ऐसे लोगों की बिरादरी में थे, जिन्होंने संगठन के लिए, और नए रचनाकार तैयार करने के लिए अपने खुद के लेखक की महत्त्वाकांक्षा को कहीं पीछे छोड़ दिया था।
प्रगतिशील लेखक संगठन का देश भर में विस्तार। पहले हिन्दी क्षेत्र में संगठन को एक साथ सक्रिय करना, फिर उर्दू के लेखकों से संपर्क और हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील ताकतों को इकट्ठा करना, फिर कश्मीर में, उत्तर-पूर्व में, बंगाल में और दक्षिण भारत में संगठन का आधार तैयार करना, और फिर समान विचार वाले संगठनों से भी संवाद कायम करना, इस सबके साथ-साथ 'वसुधा' का संपादन। दरअसल इतना काम आदमी तब ही कर सकता है, जब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य हो। यह एक बड़े विजन वाले व्यक्ति की कार्यपद्धति थी। अभी एक महीना पहले जब कालीकट, केरल में हम लोग राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में साथ में थे, तभी देश भर से आए संगठन के प्रतिनिधियों ने बेहद प्यार और सम्मान के साथ उनका 75वां जन्मदिन वहीं सामूहिक रूप से मनाया था। कैंसर का असर उनके शरीर पर भले ही दिखने लगा था, लेकिन कैंसर उनके मन पर बिल्कुल बेअसर था। वहां बैठक में और बाद में केरल से भोपाल तक के सफर के दौरान उनके पास ढेर सारे सांगठनिक कामों की फेहरिस्त थी, ढेर सारी योजनाएं थीं। सांप्रदायिक और साम्राज्यवादी ताकतों से अपने सांस्कृतिक औजारों से किस तरह मुकाबला किया जाए, किस तरह हम समाजवादी दुनिया के निर्माण में एक ईंट लगाने की अपनी भूमिका ठीक से निभा सकें, यह सोचते उनका मन कभी थकता नहीं था।
उनके जाने से उस पूरी प्रक्रिया में ही एक अवरोध आएगा, जो उन्होंने शुरू की थी। लेकिन हम उम्मीद करें कि देश में उनके जोड़े इतने सारे लेखक मिलकर उसे रुकने नहीं देंगे, आगे बढ़ाएंगे, यही उनके जाने के बाद उन्हें अपने साथ बनाए रखने का तरीका है, और यही उनके प्रति श्रद्धांजलि भी।

- विनीत तिवारी
महासचिव, मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ,
संपर्क: 2, चिनार अपार्टमेंट, 172, श्रीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर-452018
मोबाइल: ०९८९३१९२७४०

(२७ मार्च २०११ को दैनिक जनवाणी में प्रकाशित)
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अमरीकी शासन तंत्र ने यहाँ वहाँ ढेर सारे निरंकुश राजाओं, सुल्तानों, खून के प्यासे अधिनायक, तानाशाहों, बेदिमाग दुस्साहसी सेनापतियों और हवा-हवाई किस्म के



विशेष - फै़ज़ अहमद फै़ज़

अविकसित देश के नाते भारत के सामने आज अनेक समस्याएँ हैं। समाज में विघटनकारी और साम्प्रदायिक ताकतें आक्रामक मुद्रा में हैं, देश का समूचासांस्कृतिक तानाबाना टूट गया है। दूसरी ओर अमरीकी साम्राज्यवाद के अनुयायी के रूप में हमारे शासकों ने काम करना आरंभ कर दिया है। ऐसी अवस्था में फ़ैज़ का नजरिया हमारे लिए रोशनी का काम दे सकता है। फैज के व्यक्तित्व में जो बाग़ीपन है उसका आधार है दुनिया की गुलामी, गरीबी, लोकतंत्र का अभाव और साम्राज्यवाद का वर्चस्वशाली चरित्र।
आज
के संदर्भ में हमें 1983 के एफ्रो-एशियाई लेखक संघ की रजत जयंती के मौके पर उनके द्वारा दिए गए भाषण की याद आ रही है, यह भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण है। जिन समस्याओं की ओर इस भाषण में ध्यान खींचा गया था वे आज भी राजनीति से लेकर संस्कृति तक प्रधान समस्याएँ बनी हुई हैं। फैज ने कहा था इस युग की दोप्रधान समस्याएँ हैं-उपनिवेशवाद और नस्लवाद। फैज ने कहा था ‘हमारा इस बात में दृढ़ विश्वास है कि साहित्य बहुत गहराई से मानवीय नियति के साथ जुड़ा है, क्योंकि स्वतंत्रता और राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के बिना साहित्य का विकास संभव नहीं है, उपनिवेशवाद और नस्लवाद का समूल नाश, साहित्य की सृजनात्मकता के संपूर्ण विकास के लिए बेहद जरुरी है।’ फैज ने इन समस्याओं पर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रोशनी डालते हुए लिखा ‘‘तमाम युद्धों के अंत की तरह, लड़े गए पहले महायुद्ध के बाद सामाजिक, नैतिक और साहित्यिक बुर्जुआ मान्यताओं और वर्जनाओं के टूटने और समृद्धि के एक संक्षिप्त दौर में विजेताओं के दिमाग में अहं का उन्माद उफनने लगा था। खुदा आसमान पर था और धरती पर सब कुछ मजे में चल रहा था। नतीजतन ज्यादातर पश्चिमी और कुछ उपनिवेशों के साहित्य ने उसे आदर्श के रूप में अपना लिया। बड़े पैमाने पर शुद्ध रूपवाद के आनंद का सम्मोहन, अहं केन्द्रित चेतना की रहस्यात्मकता से लगाव, रूमानी मिथकों और कल्पित आख्यानों के बहकावों के साथ ‘कला के लिए कला’ के उद्बोधक सौंदर्यशास्त्रियों द्वारा अभिकल्पित गजदंती मीनारों का निर्माण होने लगा।’’ हिन्दी में भी नई कविता के दौर में यही सब दिखाई देता है और रूपवादी शिल्प और कला के लिए कला का नारा भी दिया गया था। यह जमाना था 1951-52 का। साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की मीमांसा करते हुए फैज ने लिखा कि प्रगतिशील साहित्यांदोलन की प्रेरणा के दो बड़े कारक हैं, ‘पहली तो वह राजनैतिक प्रेरणा है जो इन्हें सोवियत समाजवादी क्रांति से मिली और दूसरे माक्र्सवादी विचारों से मिला विचारधारात्मक दिशा-निर्देश।’ आज भी अनेक बुद्धिजीवी हैं जो परमाणु हथियारों की दौड़ के घातक परिणामों से अनभिज्ञ हैं। इस दौड़ ने सोवियत संघ के समाजवादी ढाँचे को तबाह किया और शांति के बारे में जो ख़याल थे उन्हें नुकसान पहुँचाया। फैज इस फिनोमिना की परिणतियों पर नजर टिकाए हुए थे। द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर के बारे में उन्होंने लिखा, ‘युद्ध के बाद का हमारा समय, विराट अंतर्विरोधों से ग्रस्त हमारा युग, विजयोल्लास और त्रासदियों से भरा युग, उत्सवों से भरा और हृदयविदारक युग, बड़े सपनों और उनसे बड़ी कुण्ठाओं का जमाना।
तीसरी दुनिया की जनता के लिए, एशियाई, अफ्रीकी और लातीनी अमरीकी लोगों के लिए, कम से कम इनकी एक बड़ी आबादी के लिए, किसी को तत्काल डिकेंस के शब्द याद आ जाएँगे-‘वह बेहतरीन वक्त था, वह बदतरीन वक्त था।’ अपने दो-दो विश्वयुद्धों से थके हुए साम्राज्यवाद का कमजोर पड़ते जाना, सोवियत सीमाओं का विस्तार लेता और एकजुट होता समाजवादी खेमा, संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म, राष्ट्रीय स्वतंत्रता और सामाजिक मुक्ति के आंदोलनों का उदय और उनकी सफलताएँ, सभी कुछ एक साहसी नई दुनिया का वादा कर रहे थे जहाँ स्वतंत्रता, शांति और न्याय उपलब्ध हो सकता था, पर हमारी बदकिस्मती से ऐसा नहीं था।’
परमाणु हथियारों की दौड़ पर लिखा- ‘आणविक हथियारों के जिन्न को बंद बोतल से आजाद करते हुए अमरीका ने समाजवादी खेमे को भी ऐसा ही करने का आमंत्रण दे दिया। उस दिन से आज तक हमारी दुनिया की समूची सतह पर विनाश के डरावने साए की एक मोमी परत चढ़ी है और आज जितने खतरनाक तरीके से हमारे सामने दुनिया झूल रही है, उतनी पहले कभी न थी।’ राजनीति में इस जमाने को शीतयुद्ध के नाम से जानते हैं। इस जमाने में मुक्त विश्व का नारा दिया गया। मुक्त विश्व के साथ मुक्त बाजार और मुक्त सूचना प्रवाह को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। इसी के अगले चरण के रूप में नव्य उदारतावाद आया। मुक्त विश्व की धारणाओं का मीडिया से जमकर प्रचार किया गया। इसके पक्षधर हमारे बीच में अभी भी हैं और अहर्निश मुक्त विश्व और मुक्त बाजार की हिमायत करते रहते हैं। इसके बारे में फैज ने लिखा- ‘स्वतंत्र विश्व के नाम पर संभवतः हमारे इतिहास के घोर अयथार्थ ढोल नगाड़ों के शोर के साथ अमरीकी शासन तंत्र ने यहाँ वहाँ ढेर सारे निरंकुश राजाओं, सुल्तानों, खून के प्यासे अधिनायक, तानाशाहों, बेदिमाग दुस्साहसी सेनापतियों और हवा-हवाई किस्म के राजनीतिज्ञों, जिस पर भी हाथ रख सकें, को सत्ता के सिंहासन पर बैठाने की कोशिशें की हैं और बैठाया भी है। यह कार्रवाई वियतनाम से बड़ी बदनामी के बाद हुई अमरीकी विदाई के साथ कुछ वक्त के लिए रुक सी गई थी।
फिर
रोनाल्ड रीगन के जमाने से हम अमरीकियों और उनके नस्लवादी साथियों को यहाँ-वहाँ भौंकते शिकारी कुत्तों की तरह इन तीन महाद्वीपों में बिखरे बारूद के ढेरों के आसपास देख रहे हैं।’ अमरीका द्वारा संचालित शीतयुद्ध और तीसरी दुनिया में स्वतंत्र सत्ताओं के उदय के साथ पैदा हुई परिस्थितियों ने समाज, साहित्य, संस्कृति और संस्कृतिकर्मियों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए फैज ने लिखा है- ‘नए शोषक वर्ग और निरंकुश तानाशाही के उदय और वैयक्तिक और सामाजिक मुक्ति के सपनों के ढह जाने से युवापीढ़ी मोहभंग, सनकीपन और अविश्वास की विषाक्त चपेट में आ गई है। नतीजतन बहुत से युवा लेखक पश्चिमी विचारकों द्वारा प्रतिपादित किए जा रहे जीवित यथार्थ से रिश्ता तोड़ने, उसके मानवीय और शैक्षणिक पक्ष को अस्वीकार करने और लेखक की तमाम सामाजिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने जैसे प्रतिक्रियावादी विचारों और सिद्धान्तों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। इन वैचारिक मठों और गढ़ों से रूपवाद, संरचनावाद, अभिव्यक्तिवाद और अब ‘लेखक की व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसे ऊपर से अत्यंत आकर्षक लगने वाले नारे की लगातार वकालत की जा रही है। इसका जाहिर उद्देश्य लेखक को अपनी सामाजिक, राजनैतिक, विचारधारात्मक प्रतिबद्धता से दूर करना है। इस सारे विभ्रम को विचारपूर्ण तरीकों से हटाने की जरूरत है। एक अन्य निबंध ‘अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याएँ’ में फैज ने भारत जैसे अविकसित देशों की सांस्कृतिक समस्याओं पर रोशनी डालते हुए लिखा है कि इन देशों की बुनियादी समस्या है सांस्कृतिक एकीकरण की। इस प्रसंग में लिखा सांस्कृतिक एकीकरण, का अर्थ है-नीचे से ऊपर तक एकीकरण, जिसका अर्थ है विविध राष्ट्रीय सांस्कृतिक प्रतिरूपों को साझा वैचारिक और राष्ट्रीय आधार प्रदान करना और क्षैतिज एकीकरण जिसका अर्थ है अपने समूचे जनसमूह को एक से सांस्कृतिक और बौद्धिक स्तर तक ऊपर उठाना और शिक्षित करना। इसका मतलब यह है कि उपनिवेशवाद से आजादी तक के गुणात्मक परिवर्तन के पीछे-पीछे वैसा ही गुणात्मक परिवर्तन उस सामाजिक संरचना में होना चाहिए जिसे उपनिवेशवाद अपने पीछे छोड़ गया है।
फ़ैज के अनुसार अविकसित देशों की पहली सांस्कृतिक समस्या है अपनी विध्वस्त राष्ट्रीय संस्कृतियों के मलबे से उन तत्वों को बचा कर निकालने की जो उनकी राष्ट्रीय पहचान का मूलाधार हैं, जिनका अधिक विकसित सामाजिक संरचनाओं की आवश्यकताओं के अनुसार समायोजन और अनुकूलन किया जा सके, और जो प्रगतिशील सामाजिक मूल्यों और प्रवृत्तियों को मजबूत बनाने और उन्हें बढ़ावा देने में मदद करें।
दूसरी
समस्या है उन तत्वों को नकारने और तजने की जो पिछड़ी और पुरातन सामाजिक संरचनाओं का मूलाधार हैं, जो या तो सामाजिक संबंधों की और विकसित व्यवस्था से असंगत हैं या उसके विरुद्ध हैं, और जो अधिक विवेकवान, बुद्धिपूर्ण और मानवीय मूल्यों और प्रवृत्तियों की प्रगति में बाधा बनते हैं।
तीसरी समस्या है, आयातित विदेशी और पश्चिमी संस्कृतियों से उन तत्वों को स्वीकार और आत्मसात करने की जो राष्ट्रीय संस्कृति को उच्चतर तकनीकी, सौंदर्यशास्त्रीय और वैज्ञानिक मानकों तक ले जाने में सहायक हों, और चौथी समस्या है उन तत्वों का परित्याग करने की जो अधः पतन, अवनति और सामाजिक प्रतिक्रिया को सोद्देश्य बढ़ावा देने का काम करते हैं। ’फैज ने इन्हें नवीन’ सांस्कृतिक अनुकूलन, सम्मिलन और मुक्ति की समस्याओं के रूप में देखा।-

-जगदीश्वर चतुर्वेदी
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शनिवार, 26 मार्च 2011

विश्व रंगमंच दिवस संदेश : 27 मार्च, 2011

इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट (यूनेस्को),पेरिस



विश्व रंगमंच दिवस संदेश : 27 मार्च, 2011


मानवता की सेवा में रंगमंच

जेसिका ए. काहवा


नाट्य विशेषज्ञ, युगांडा


आज की सभा समुदायों को समूहबन्द करने और विभाजन पाटने की रंगमंच की असीम क्षमता का सच्चा प्रतिबिम्बन है।

क्या आपने कभी कल्पना की है कि रंगमंच शान्ति और सामंजस्य की स्थापना में एक ताकतवर औज़ार हो सकता है? दुनिया के हिंसक संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में शान्ति रक्षा के लिए राष्ट्र भारी-भरकम रकम खर्च करते हैं लेकिन संघर्ष के रूपान्तरण और प्रबन्धन हेतु विकल्प के रूप में रंगमंच की ओर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। धरती मां के नागरिकों को कैसे सार्वभौमिक शान्ति की प्राप्ति हो सकती है, जब इसके औजार बाहरी हों और दिखावटी दमनकारी ताकतों से आ रहे हों?

रंगमंच लोगों की आत्म-छवि की पुर्नरचना कर मानव आत्मा में बारीकी से प्रवेश करता है और इस तरह व्यक्ति तथा परिणामतः समाज के लिए विकल्पों की दुनिया उद्घाटित करता है। अनिश्चित भविष्य की पहले से पहचान कर यह रोजमर्रा की वास्तविकता को अर्थ दे सकता है। यह सीधे-सादे तरीके से लोगों के हालात की राजनीति में शामिल हो सकता है। अपनी समावेशी विशेषता के कारण यह ऐसा अनुभव प्रस्तुत करता है, जो पहले की मिथ्या धारणाओं का अतिक्रमण करता हो।

साथ ही साथ रंगमंच ऐसे विचारों की तरफदारी करने और उन्हें आगे बढ़ाने का सिद्ध माध्यम है, जो सामूहिक रूप से हमारे हैं और उन पर हमला होने की दशा में हम उनके लिए लड़ने की इच्छा रखते हैं।

एक शान्तिपूर्ण भविष्य की प्रत्याशा में हमें उन माध्यमों का प्रयोग शुरू करना चाहिए, जो शान्ति के लिए तत्पर हर व्यक्ति के योगदान को सम्मान व महत्व दे सकें। रंगमंच वह सार्वभौमिक भाषा है, जिससे हम शान्ति और सामंजस्य के संदेश को अगो ले जा सकते हैं।

प्रतिभागियों को सक्रिय रूप से शामिल कर रंगमंच तमाम लोगों को पूर्व अवधारणाओं को विखण्डित करने के लिए प्रेरित कर सकता है और पुर्नअन्वेषित ज्ञान व वास्तविकता पर आधारित विकल्प प्रस्तुत कर व्यक्ति को नवोन्मेष का अवसर देता है। हमें अन्य कला रूपों की तरह रंगमंच की उन्नति के लिए इसे संघर्ष व शान्ति के नाजुक मुद्दों से जोड़कर रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बनाने को मज़बूत कदम उठाने चाहिए।

समुदायों के सामाजिक रूपान्तरण व पुर्नरचना के प्रति सम्बद्ध रंगमंच पहले से ही युद्धग्रस्त क्षेत्रों और दीर्घकालीन गरीबी व बीमारी से पीड़ित आबादियों के बीच मौजूद है। सफलता की दिन-दिन बढ़ती ऐसी कहानियां हैं, जो ये बताती हैं कि रंगमंच सजगता का निर्माण करने व युद्धोत्तर घावों से ग्रस्त लोगों की मदद करने में सक्षम रहा है। “इंटरनेशनल थियेटर इंस्टीट्यूट जैसे अन्तर्राष्ट्रीय मंच मौजूद हैं, जिनका लक्ष्य शान्ति और मित्रता के लिए जनता को एकजुट करना है।”

ऐसे में यह हास्यास्पद है कि हमारे जैसे समय में रंगमंच की शक्ति का ज्ञान होते हुए हम चुप रहें और बन्दूक-बमबाजों को अपनी दुनिया के शान्तिरक्षक बने रहने दें। अलगाव के हथियारों को कैसे शान्ति-सामंजस्य के उपकरणों के रूप में प्रोत्साहित करते रहें?

इस विश्व रंगमंच दिवस पर मैं आपसे आग्रह करती हूं कि इस परिप्रेक्ष्य पर विचार करें और संवाद, सामाजिक रूपान्तरण एवं सुधार का सार्वभौमिक उपकरण बनाने के लिए रंगमंच को आगे बढ़ायें। एक ओर जहां संयुक्त राष्ट्र संघ हथियारों के इस्तेमाल से दुनिया में शान्ति मिशनों पर अकूत धन खर्च कर रहा है, वहीं रंगमंच एक स्वतः स्फूर्त मानवीय, कम खर्चीला और अधिक सशक्त विकल्प है।

शान्ति लोगों के लिए रंगमंच ही अकेला उपाय नहीं लेकिन इसे निश्चित रूप से शान्ति रक्षा अभियानों में शामिल करना चाहिए।

(अनुवाद एवम् प्रस्तुति: जितेन्द्र रघुवंशी)

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद
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फ़ैज़ की जन्मशती - एक साल चलने वाले समारोहों का शानदार आगाज़


उर्दू के क्रांतिकारी शायर फै़ज़ की जन्मशती के सिलसिले में एक साल चलने वाले समारोहों की शुरूआत दिल्ली में दो दिन के कार्यक्रम से हुई जिसका उद्घाटन भारत की प्रथम नागरिक प्रतिभा पाटिल ने किया और इसके साथ ही देश के विभिन्न भागों में प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) समेत - जिनके निर्माण में स्वयं फै़ज़ की एक प्रमुख भूमिका थी - विभिन्न सांस्कृतिक एवं साहित्यिक संगठनों द्वारा विभिन्न कार्यक्रमों का सिलसिला भी शुरू हो गया।

उद्घाटन कार्यक्रम का आयोजन 25 फरवरी को दिल्ली के विज्ञान भवन में किया गया जिसमें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्र की लब्धप्रतिष्ठित हस्तियों ने हिस्सा लिया। उद्घाटन समारोह के मुख्य अतिथि थे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी. बर्धन। इस कार्यक्रम के लिए पाकिस्तान से लगभग दो दर्जन लेखक, शायर एवं कलाकार खासतौर पर आये। उनमें फै़ज़ की दोनों बेटियां-सलीमा और मुनीज़ा भी शामिल थी।

जन्मशती समारोहों का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति प्रतिभा पटिल ने सही ही कहा कि “कुछ लोग अपने देश की सीमाओं और समय से परे जीवित रहते हैं और काम करते हैं। फैज ऐसे ही चंद लोगों मंे थे।” प्रख्यात शायर के योगदान का स्मरण करते हुए राष्ट्रपति ने स्वतंत्रता संग्राम और साथ ही देश की धर्मनिरपेक्ष राज्य व्यवस्था में उर्दू भाषा के योगदान की याद दिलायी।

प्रतिभा पाटिल ने यह भी कहा कि “फै़ज़ ने गालिब की परम्परा को आगे बढ़ाया। कहा जाता है कि यदि शब्दों में आत्मा होती तो गालिब शब्दों के भगवान होते और फै़ज़ उनके मसीहा होते।”

क्रांति के इस शायर के बारे मंे बोलते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी. बर्धन ने फै़ज़ के साथ अपनी उस मुलाकत की याद ताजा की जब उनकी कथित भूमिका के लिए मनगढ़ंत रावपिंडी साजिश केस से रिहा होने के बाद फै़ज़ भारत के दौरे पर आये थे। ग़ज़लों की महारानी इकबाल बानों की आवाज से अमर यादगार बनी फै़ज़ की मशहूर नज़्म ‘हम भी देखेंगे...’ का जिक्र करते हुए बर्धन ने कहा कि हमें गर्व है कि फै़ज़ एक मार्क्सवादी थे। आईसीसीआर के अध्यक्ष डा. कर्ण सिंह ने कहा कि फै़ज़ जैसे महान कवियों के शब्द अमर हो जाते हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि “फै़ज़ की शायरी सीमा पार के लोगों के साथ जुड़ने के लिए एक पुल का काम करेगी।”

अंजुमन तरक्कीपसंद मुस्सन्फीन के महासचिव डा. अली जावेद ने अतिथियों का स्वागत करते हुए साल भर चलने वाले कार्यक्रमों का ब्यौरा दिया। पाकिस्तान मंे उद्घाटन कार्यक्रम पहले ही फै़ज़ के जन्मदिन 13 फरवरी को हो चुका है। पाकिस्तान प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन (पीडब्लूए) ने अन्य संगठनों के साथ मिल कर साल के अंत तक विभिन्न शहरों में हर पन्द्रह दिन में एक कार्यक्रम करने का मंसूबा बनाया है। इसी प्रकार पीडब्लूए-भारत, जर्मनी, रूस और कनाडा ने भी इस वर्ष के दौरान यादगार कार्यक्रम करने के लिए तय किया है।

इस अवसर पर पाकिस्तान की टीना सानी द्वारा गायी गयी फै़ज़ की गज़लों एवं नज़्मों की एक काम्पेक्ट डिस्क भी जारी की गयी। प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा फै़ज़ के संबंध मंे एक 20 मिनट की डाक्यूमेंटरी फिल्म का प्रदर्शन भी किया गया।

उद्घाटन सत्र के बाद पाकिस्तान से आये मेहमानों के साथ बातचीत का दौर चला। इसमें फै़ज़ की दोनों बेटियां और पीडब्लूए पाकिस्तान के महासचिव राहत सईद भी शामिल थे। डा. अली इमाम, शायरा किश्वर नाहीद एवं अन्य ने फै़ज़ और उनके कृतित्व पर अपने विचार व्यक्त किये। उन सभी का मानना था कि फै़ज़ एक प्रतिबद्ध कवि थे जिन्होंने अपनी शायरी को मेहनतकश लोगों की जिंदगी के रोजमर्रा के संघर्षों के साथ जोड़ा। पाकिस्तान सरकार के, खासकर एक के बाद आने वाली दूसरी फौजी सरकारों के जबर्दस्त दमन के बावजूद वह अपनी विचारधारा - मार्क्सवाद - लेनिनवाद की अपनी प्रतिबद्धता से कभी नहीं हटे। वह सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयवाद के सिद्धातंों पर चलने वाले सच्चे व्यक्ति थे। उन्होंने हिन्दुस्तान और पाकिस्तान समेत विश्व भर के संघर्षरत लोगों की एकता के लिए अथक काम किया। एफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन के मुखपत्र ‘लोटस’ के संपादक के रूप में उन्होंने विकासशील देशों के ध्येय की हिमायत की और तीसरी दुनिया के लेखकों और बुद्धिजीवियों को एकताबद्ध करने के लिए शानदार कोशिशें की। फिलिस्तीन पर उनकी नज्में स्वतंत्रता एवं समाजवाद के लिए संघर्षरत लोगों को हमेशा प्रेरणा देती रहेंगी।

इस समारोह के आकर्षण का केन्द्र थे कैप्टन जफरूल्ला पोशानी जो उन दिनों पाकिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सज्जाद जहीर और कुछ फौजी अफसरों के समेत फै़ज़ के साथ मनगढ़ंत रावलपिंडी साजिश केस के मुल्जिम थे। उन्होंने पांच वर्ष जेल में काटे। अपने जेल प्रवास के उन पांच वर्षों को याद को उन्होंने एक दिलचस्प किताब “जिंदगी जिंदादिली का नाम है” में कलमबद्ध किया है। पाकिस्तान के प्रतिनिधिमंडल मंे शामिल अन्य हस्तियां थींः एक प्रख्यात वकील और पाकिस्तान वर्कर्स पार्टी के महासचिव आबिद हुसैन मिंटो, बलूचिस्तान नेशनल पार्टी के ताहिर बेजेंजों, युसफ सिंधी, मुश्ताक फूल, गुजरात विश्वविद्यालय के उपकुलपति डा. निजामुद्दीन, इमदाद आकाश, शोएब मोहिउद्दीन अशरफ।

सिटी फोर्ट आडिटारियम में पाकिस्तान से आयी टीना सामी और भारत के जगजीत सिंह ने जब फै़ज़ की ग़ज़लें और नज़्में गायीं तो हजारों श्रोता झूम उठे और वह एक यादगार शाम बन गयी।

अगले दिन फिक्की आडिटोरियम में एक सेमिनार किया गया। सेमिनार के पहले सत्र के मुख्य वक्ता थे डा. एजाज अहमद। योजना आयोग की सदस्य डा. सईदा हमीद ने सेमिनार की अध्यक्षता की। दूसरे सत्र की अध्यक्षता पाकिस्तान से आयी मेहमान डा. किश्वर नाहीद ने की। अशोक वाजपेयी मुख्य वक्ता थे। रखशंदा जलील, जिन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के इतिहास पर अनुसंधान किया है, ने दोनों सत्रों का संचालन किया।

सेमिनार के दो सत्रों मंे जिन प्रमुख लोगों ने हिस्सा लिया उनमें शामिल थेः डा. राजेन्द्र शर्मा (भोपाल), डा. रमेश दीक्षित (लखनऊ), मुरली मनोहर प्रसाद सिंह (जनवादी लेखक संघ), हारून बीए (मालेगांव), अपूर्वानंद, जावेद नकवी (दिल्ली) और पाकिस्तान से आये कैप्टन जफरूल्ला पोशानी, युसुफ सिंधी, सलीमा हाशमी और डा. आलिया इमाम।

शाम को फिक्की आडिटोरियम में एक शानदार मुशायरा हुआ जिसमें भारत और पाकिस्तान के शायरों ने अपनी गज़ले-नज़्मंे सुनायी। उनमें शामिल थेः आलिया इमाम, डा. किश्वर नाहीद, वसीम बरेलवी, शहरयार, मेहताब हैदर नकवी आदि।

2 मार्च को लखनऊ में और 5 मार्च को हैदराबाद में भी गज़ल कार्यक्रमों के आयोजन किये गये। दोनों स्थल पर गज़ल कार्यक्रमों से पहले शायरों, लेखकों और बुद्धिजीवियों के बीच बातचीत हुई, सेमिनार हुए। लखनऊ के कार्यक्रम का उद्घाटन लखनऊ विश्वविद्यालय के उपकुलपति मनोज कुमार मिश्रा ने किया और डा. रूपरेखा वर्मा ने अध्यक्षता की। लखनऊ के कार्यक्रम मंे शकील अहमद सिद्दीकी, अनीस अशफाक, रमेश दीक्षित, शारिब रूदोलवी, आबिद सुहैल, मुद्राराक्षस और नसीम इक्तदार अली आदि शामिल थे।

हैदराबाद के उर्दू हाल में आयोजित कार्यक्रम की प्रख्यात व्यंग्यकार मुज़तबा हुसैन, संसद सदस्य अज़ीज़ पाशा और अंजुमन तरक्की-ए-उर्दू के राज्य अध्यक्ष ने की। इस कार्यक्रम में डा. बेग इलियास, बी. नरसिंग राव, रहीम खान, नुसरत मोहिउद्दीन, अली जहीर, तस्नीम जौहर, अवधेश रानी गौड़ एवं अन्य ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम के प्रारंभ में डा0 अली जावेद ने वर्ष भर चलने वाले कार्यक्रमों के संबंध में विस्तार से बताया।

इससे पहले सभी मेहमानों ने टैंक बंद तक मार्च किया और मखदूम मोहिउद्दीन और श्रीश्री की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण किया। 7 मार्च को पाकिस्तानी मेहमानों ने हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी का दौरा किया और वहां के शिक्षकों एंव छात्रों से बातचीत की।

इसी प्रकार का कार्यक्रम उर्दू एकेडमी, पंजाबी लिखाड़ी सभा और पीडब्लूए के सहयोग से 11 मार्च को चंडीगढ़ में भी किया जायेगा।

- डा. अली जावेद
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बजट 2011-12


एक बार फिर 2011-12 के लिए सरकार के वित्तीय एवं अन्य कार्यकलाप का ब्यौरा बजट के जरिये पेश किया गया है। बजट पेश करना एक कानूनी आवश्यकता तो है ही यह सरकार की बहुमुखी राजनैतिक-आर्थिक चाल का भी प्रतिनिधित्व करता है। अब लोगों को उसके नतीजे का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। अब लोगों को उसके नतीजे का इंतजार करने की जरूरत नहीं उन्हें पहले से ही जोरशोर से बता दिया गया है कि उन्हें कितना अधिक फायदा पहुंचने वाला है। पर विरले ही इनसे फायदा पहुंचता है। भारत की लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकरों ने इस बात की जरूरत कभी नहीं समझी कि जो लोग अपेक्षाकृत खराब हालत में हैं, वंचित हैं, हाशिये पर हैं, असमानता का शिकार हैं उनके हित में ऐसी सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाएं आगे बढ़ायी जायें कि उन्हें अधिक फायदा पहुंचे, बेहतर सेवाएं मिले, उनकी जिंदगी में कुछ रोशनी आये।

आज जो आर्थिक दृष्टिकोण हावी है बजट 2011-12 भी उसी के अनुरूप है। उम्मीद की जाती थी कि कुछ कारणों से स्थापित तरीके से थोड़ा हटकर बजट आये। पहला, पिछले दो वर्षों से अधिक समय से देश में अत्यधि महंगाई का दौर-दौरा चल रहा है। यह महंगाई देश के आम गरीब लोगों पर जबर्दस्त मुसीबत ढा रही है। सरकार के लोग भी मानते हैं कि महंगाई जनता पर एक गैरकानूनी तरीक से थोपा गया टैक्स है। जाहिर है बाजार की ताकतें इस टैक्स को जनता पर थोपती हैं, अतः वही इसे वसूल भी करती हैं।

दूसरा, बिजनेस वर्ग की तरफ को जो अतिरिक्त नकद धन बहकर जा रहा है वह दरअसल उन्हें सरकार से मिल रही सौगात है। इस वर्ग की तरफ को धन के बहने का कारण यह है कि आज महंगाई की उग्रता और उसका जारी रहना-यह स्वयं सरकार का ही कारनामा है। सरकार के पास खाद्यान्न का विशाल भंडार है। उस खाद्यान्न भंडार को कम करके और उसके जरिये कीमतों को गिरा कर गरीब लोगों को सस्ते दर पर खाद्यान्न मुहैया करने के बजाय सरकार ने उसे गोदामों में ही सड़ाना या उसे किसी न किसी तरीके से व्यापारियों एवं कालाबाजारियों के हवाले करना ही बेहतर समझा। साथ ही सरकार ने देशी-विदेशी बड़ी कम्पनियों को इजाजत दी कि वे सीधे किसानों सेे खाद्यानन खरीदें और फिर ऊचें दामों पर बेचें। आज जो आर्थिक वृद्धि हो रही है उसकी कमान कार्पोरेट क्षेत्र के हाथ में है, उत्तरोत्तर बढ़ती ‘असमावेशी वृद्धि’ के ‘राष्ट्रीय’ कार्य को आगे बढ़ाने के कार्य के लिए उन्हें प्रोत्साहन दिया जा रहा है, रियायतें दी जा रही हैं, खोलकर उन्हें पैसा दिया जा रहा है।

जिन रजिस्टर्ड कम्पनियों के आय-व्यय के विवरण आ चुके हैं उनके मुनाफों के आंकड़े देखने योग्य हैं। उन्होंने बेतहाशा मुनाफे कमाये हैं। 2009-10 में, रिटर्न फाईल करने वाली लगभग 4.27 लाख कम्पनियों में से 2.5 लाख कम्पनियों ने लगभग 2.54 लाख करोड़ रुपये का मुनाफा कमाया था। उन्होंने कानून के अनुसार 33 प्रतिशत टैक्स देने के बजाय 23.63 प्रतिशत का प्रभावी टैक्स ही अदा किया। गत वर्ष कम्पनियों द्वारा दिये गये टैक्स की प्रभावी दर लगभग 22 प्रतिशत रही इसका अर्थव्यवस्था में जो लोग सबसे अधिक मालामाल हैं उन्हें सरकार ने टैक्सों के मामले में सबसे अधिक रियातें दी। कभी यह सवाल नहीं पूछा जाता कि इन कम्पनियों को इतनी रियायत देकर आखिर देश को क्या फायदा पहुंचता है। यह स्पष्ट है कि हमारी वित्तीय नीति से सामाजिक न्याय और समानता जैसी बातें लम्बे समय से या स्थायी तौर पर गायब हो चुकी हैं।

उम्मीद की जाती थी कि जमीनी स्तर पर आम लोगों के दबाव के चलते वित्तीय तौर-तरीकों की प्रतिगामी प्रकृति में कुछ कमी कर नीतियों को सही रास्ते पर लाने की दिशा में शायद कोई कदम उठा लिया जाये। जाहिर है यह उम्मीद बिजनेस वर्ग और कार्पोरेट घरानांे के लिए लाबीईंग करने वालों के चमक-दमक भरे कागजों में पेश ज्ञापनों के सामने कमजोर पड़ी और अंत में बिजनेस वर्ग और कार्पोरेट घराने ही विभिन्न स्पष्ट एवं सुनिश्चित रियायतें और ऐसे संशोधन हासिल करने में कामयाब हो गये जिनके फलस्वरूप प्रत्यक्ष करों के रूप में उन्हें कम पैसा देना पड़ेगा।

इस प्रकार वर्तमान बजट के फलस्वरूप 11 हजार करोड़ रुपये की धनराशि को इस प्रकार न्यौछावर कर दिया गया क उससे कार्पोरेटों के पक्के चिट्ठे बैलेंस शीट में उनके मुनाफों में सीधे तौर पर बढ़ोतरी हो जायेगी। एक बिजनेस दैनिक पत्र में कुछ कम्पनियों के नाम देकर बताया है कि उन्हें कितना-कितना फायदा पहुंचेगा।

क्या किसी ने सोचा कि इतने पैसे से तो उस पूरे के पूरे आदिवासी क्षेत्र की शक्ल ही बदली जा सकती है जहां के लोगों को किसी कम्पनी की फैक्टरी या पावर प्लांट या अन्य कोई कारखाना लगाने के लिए उनके रोजगार के प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल कर दिया गया है।

असल में केन्द्र के बजट खर्च का लगभग आधा हिस्सा अमीरों और सम्पन्न वर्गों के लिए है। यह पैसे का ऐसा हस्तांतरण हैं जिसके बदले में देश को कुछ नहीं मिलता। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है। लम्बे अरसे से खासकर 1991 से जबकि विकास एक वृद्धि की भूमिका इन बड़े लोगोें के हवाले कर दी गयी और इस महान दायित्व को पूरा करने में उन्हें कामयाब करने के लिए सरकार उनके वफादार सेवक के रूप में खड़ी हो गयी है- यही सब चल रहा है।

बजट की कुछ अन्य बातें देखें जिनसे पता चले कि बजट का असली चेहरा क्या है, असली जोर किस बात पर है। सबसे पहले देखें महात्मा

गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना- जिसकी बहुत चर्चा होती है और जो तत्वतः अत्यंत सकारात्मक स्कीम है- की बजट में क्या तुलनात्मक स्थिति है। पिछले वर्ष इसके लिए जो आवंटन हुआ था न तो वह पूरा खर्च किया गया औरन ही वित मंत्री इस वर्ष के बजट में उसमें कटौती करने से बाज आये। इधर तो उसमें दैनिक मजदूरी बढ़ाने की बातें चल रही हैं। पर बजट में उसके लिए पैसे का आवंटन ही कम कर दिया गया है। जाहिर है उसमें अब कम लोगों को काम मिलेगा और यह कानून एक मजाक बन कर रह जायेगा। नियेक्ता वर्गों का दबाव है कि मनरेगा पर कोई अंकुश लगे क्योंकि मनरेगा के कारण अनेक बार उन्हें उचित मजदूरी देेने पर मजबूर होना पड़ता है। मनरेगा में आवंटन कम करना बेहतर हालात वाले तबकों की मांग के अनुरूप है।

सरकार कार्पोरेट तबकों, खुशहाल तबकों और विश्व बैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष पर निष्ठावान लोगों की इस मांग के लिए प्रतिबद्ध है कि वित्तीय घाटा कम किया जाये, इसके लिए सकल घरेलु उत्पाद के हिस्से के रूप में सरकारी खर्चे में निर्धारित समय में उत्तरोत्तर कमी लायी जाये और सरकारी खर्चे की ऊपरी सीमा तय हो भले ही राष्ट्रीय जरूरतें कैसी भी हों, या कार्पोरेटांे जैसी बड़ी हस्तियां इस सिलसिले में आवश्यक दायित्व को पूरा करने में विफल रहें। अतः सार्वजनिक व्यय को कम करने की हर चंद कोशिश की जाती है बशर्ते उसमें कार्पोरेट हितों पर या उन जी-7 देशों की अर्थव्यवस्था पर कोई आंच न आए जो भारत के बाजारों से बड़े मुनाफे कमाने पर नजर गड़ाये हैं।

बजट से पता चलता है कि टैक्स-जीडीपी अनुपात भी व्यवहारतः ठहराव की स्थिति में है। कार्पोरेट तबका खुश है कि संसाधन बढ़ाने के लिए उन पर ऐसा कोई दबाव नहीं कि जिस हद तक उन्हें मंजूर है उसमें अधिक टैक्स देने के लिए सरकार उनसे कहे। इस तरह सार्वजनिक व्यय में और टैक्स वसूल करने की सरकार की कोशिश में कमी से यह तबका गदगद है। इससे उनके निजी खातों में दौलत बढ़ती है और कोई भी आर्थिक वृद्धि उस तरीके से ही होती है जो उन्हें मंजूर हो। इसमें विभिन्न रूपों मे और उनकी शर्तों के अनुसार विदेशी पूंजी आने की भी भरपूर गुंजाइश रहती है। इस वित्तीय व्यवस्था में जिनके पास टैक्स देने की क्षमता है उन्हें छूने पर बहुत हो-हल्ला होता है। इस प्रकार एक तरफ वित्तीय घाटे को कम रखने का कृत्रिम लक्ष्य और दूसरी तरफ राजनैतिक रूप से स्वार्थसाधक टैक्स नपुंसकता- ये दोनों बातें आम आदमी के प्रति सरकार की जो नैतिक एवं आर्थिक दायित्व है उनको पूरा करने के लिए सरकार के पास उपलब्ध साधनों को सीमित बना देती हैं। टैक्स राजस्व में 23 प्रतिशत वृद्धि का और जी-3 स्पेक्ट्रम से जबर्दस्त राजस्व पाने का दावा भले ही किया जाये, सरकार का दृष्टिकोण सार्वजनिक व्यय के संबंध में जस का तस है।

तथ्य यह है कि देश में औद्योगिक एवं कृषि उत्पाद की ऐसी विशाल क्षमताएं हैं जो अभी तक प्रयोग में नहीं लायी गयी है, देश में विशाल युवा आबादी है जिनमें हर तरह की शिक्षा प्राप्त लोग शामिल हैं। ये दो सकारात्मक पहलू है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए इनका लाभ उठाने की कोशिश नहीं की गयी है।

यदि कृषि में, खासकर वर्षा सिंचित इलाकों में दालों एवं खाद्यान्नों के उत्पादन के लिए सार्वजनिक एवं निजी निवेश में वास्तव में वृद्धि की जाती तो उससे मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिल सकती थी। दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए 60 हजार गांवों को 300 करोड़ रुपये देना ऊंट के मुंह में जीरे के समान है।

मुख्य बात यह हे कि कीमतों को नीचे लाने की दिशा में मांग और आपूर्ति में तालमेल और व्यापक उपभोग की वस्तुओं के विकेन्द्रीकरण उत्पादन की आवश्यकता है ताकि बुनियादी जरूरतें पूरी हों और अत्यधिक आयातों, पूंजी निवेश, ऊर्जा खपत और प्रदूषण पर अंकुश लगे।

कहने का मतलब यह है कि जब सार्वजनिक व्यय बढ़ने से मांग बढ़ती है तो कम अरसे में आपूर्ति में वृद्धि करने के लिए हमारे पास अच्छी क्षमता एवं संभावना है। पर कार्पोरेट निवेशकों के लिए कोष की अथाह गंगा बहती रहे इस मकसद से सरकार सार्वजनिक व्यय को कम कर रही है और सभी नीतियां इस तरह बनायी जा रही हैं कि कार्पोरेटों को खूब पैसा मिलता रहे, उनके लिए सभी संसाधन उपलब्ध रहें और उनका विस्तार हो और उन्हें बाजार के अवसर मिलें। बजट की यही दिशा है। यह कहना कि सरकार केवल वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सार्वजनिक व्यय को कम कर रही है, सच नहीं है।

महंगाई को रोकना भी सरकार की प्राथमिकता नहीं है क्योंकि सरकार का विचार है कि महंगाई को रोकने से विकास दर घट जायेगी और पूंजीपति वर्ग के मुनाफे घट जायेंगे।

यह सुविदित है कि बचतों से आने वाला पैसा सामान्यतः काफी गरीब परिवारों से आता है जो पेट काटकर भविष्य के लिए कुछ बचत करने की कोशिश करते हैं और उन्हें बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थान जो ब्याज देते हैं वह बहुत कम होता है; खुदरा बाजार में कीमतें जिस रेट पर बढ़ रही हैं उससे बहुत कम ब्याज उन्हें बैंकों से मिलता है। कार्पोरेट क्षेत्र और अमीरों को उनसे अधिक ब्याज दिया जाता है और इस तरह गरीब परिवारों के संसाधनों का कार्पोरेट क्षेत्र का वास्तव में अघोषित हस्तांतरण हो जाता है और यह बरसों-बरस से चल रहा है।

हमारे देश के आज के हालात में आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई में तेज एवं सुनिश्चित वृद्धि संभव है। अतः बजट में एक बड़ा कदम उठाते हुए मनरेगा में वर्ष में लगभग 200 दिन काम देकर और न्यूनतम वेतन देकर और रोजगार गारंटी कानून के दायरे में शहरी गरीबों को लाकर इस दिशा में बढ़ा जा सकता था। पर बजट में ऐसा नहीं किया गया।

आज आवश्यकता है कि भारत के नौजवानों को रोजगार दिलाने पर फोकस किया जाये। पर हो इससे उलटा रहा है। भारत के कार्पोरेट विदेशों में निवेश कर रहे हैं और सरकार उन्हें रियायत के बाद रियायत दिये चली जा रही है, यह फिक्र किए बिना कि इससे भारत में रोजगार सृजन को नुकसान पहुंच रहा है।

नवउदारवाद के तहत समावेशी वृद्धि का दावा सरकार फरेब और धोखा है। इस तरह के विकास के स्थान पर सच्चे तौर पर समावेशी वृद्धि की दिशा में चलने की जरूरत है। पर हमारे देश के वास्तविक हालात और जरूरतों को अनदेखा कर हमारी पूंजीपति-समर्थक सरकार ने बेशर्मी के साथ इस तरह की गलत एवं विकास विरोधी नीतियां देश पर थोप दी हैं जिनसे सार्वजनिक व्यय कम होता है और सभी आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई पर अति समृद्ध लोगों की इजारेदारी हो जाती है।

जिस तरीके से कस्टम ड्यूटी (आयात शुल्क) साल-दर-साल नीचे की गयी है उसके कारण सरकार आयात शुल्क आधारित राजस्व की विशाल राशि से महरूम हो जाती है और देश में सस्ते आयात की बाढ़ आती है। इससे न केवल राजस्व को नुकसान पहुंच रहा है बल्कि भारत के मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र के रोजगार का निर्यात हो रहा है, रोजगार घट रहा है।

इस समय मेन्यूफैक्चर्ड मालों का आयात हमारे अपने मेन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र में होने वाले कुल उत्पादन से अधिक है। यह देश में उद्योगों को खत्म करने की प्रक्रिया है। विश्व में औद्योगिक क्रांति के समय हमारे विदेशी शासक कोशिश किया करते थे कि हमारे यहां कोई माल न बने, सभी माल विदेशों से आये। आज हमारे अपने शासक ही वही काम कर रहे हैं। यह सब भूमंडलीकरण पर अंधा होकर चलने के कारण हो रहा है, बदले में हमारे नीति निर्माताओं को विदेशी सरकारों एवं विशेषज्ञों की तरफ से शाबाशी मिल जाती है।

बजट में सामाजिक क्षेत्र में वृद्धि का दावा सरासर गुमराह करने वाला है। महंगाई के हिसाब से देखें तो यह वृद्धि बहुत ही मामूली सी है। इसके अलावा कई सेवाओं जैसे कि ब्राडकास्टिंग या वैज्ञानिक एवं अन्य आकर्षक अनुसंधान केवल गरीबों के लिए नहीं। दरअसल उन्हें तो इसके फायदों को लेशमात्र भी हिस्सा नहीं पहुंचता। शिक्षा एवं भोजन के तथाकथित अधिकारों के प्रकाश में स्वास्थ्य एवं शिक्षा के दायरे में समूची आबादी आनी चाहिये। इनके लिए बजट में क्या प्रावधान हैं? जब पर्याप्त बजट आवंटन ही नहीं है तो इन अधिकारों का मतलब ही क्या रह जाता है?

इसके अलावा ये अधिकार जनता को मिल जायें इसके लिए न तो तफसील से कोई कार्यक्रम है न तंत्र; न ही केन्द्र सरकार या राज्य सरकरों को इसके प्रभावी अमल में कोई दिलचस्पी है। क्या हम नहीं देखते नौकरशाही किस कदर भ्रष्ट और जनता के हितों के प्रति किस तरह भाव शून्य है। सामाजिक खर्चो आदि के लिए कोई पैसा बजट में दिया भी जाता है तो भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाही के बीच साठगांठ और बंदरबांट के चलते जमीनी स्तर पर जनता को उसका फायदा पहुंच ही कहां पाता है?

आवश्यकता इस बात की है कि बजट में शीघ्र एवं दृश्यमान परिणाम-उन्मुखी जनता परस्त संसाधन आवंटन करने के लिए सरकारी नीतियों के महत्व को समझा जाये और इस तरह का सुस्पष्ट बजट बनाया जाये जिससे न सिर्फ शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसे अति आवश्यक सामाजिक कार्यों के लिए संसाधन जुटाये जायें बल्कि हमारी अर्थव्यस्था और देश में जो सुस्पष्ट असंतुलन पैदा हो गये हैं उन्हें ठीक किया जाये। जनता के सशक्तीकरण के लिए और हमारे लोकतंत्र को वास्तव में प्रेरणास्पद एवं अग्रगामी सामाजिक परिवर्तनों का जरिया बनाने के लिए बजट में ऐसे बदलाव जरूरी हैं।

- कमल नयन काबरा
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मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं थे, न हैं और न ही हो सकते हैं

हिटलर के अनुसार किसी भी झूठ को सत्य बनाने के लिए उसे बार-बार बोलने की जरूरत होती है। पिछले बीस सालों में मनमोहन सिंह और अटल बिहारी बाजपेई के ईमानदार होने का झूठ इसलिए लाखों बार बोला गया जिससे यह लगने लगे कि वे ईमानदार हैं। ईमानदार होने का अनवरत अलाप पूंजी नियंत्रित समाचार-माध्यम पूंजी के निजी हितों को साधने के लिए करते रहे हैं।

क्या महात्मा गांधी को कभी किसी संचार माध्यम ने ईमानदार कहा? क्या भगत सिंह और चन्द्र शेखर आजाद को किसी ने आज तक ईमानदार कहा? क्या जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री और अजय घोष एवं पी.सी. जोशी को कभी किसी ने ईमानदार कहा? नहीं! क्यों? क्योंकि वे सही मायनों में ईमानदार थे। वे देश के प्रति ईमानदार थे, वे अपने सोच से ईमानदार थे, वे देश की जनता के प्रति ईमानदार थे, वे कार्य और व्यवहार में ईमानदार थे.......... ये सब सार्वभौमिक रूप से ईमानदार थे। उन्हें पूंजी नियंत्रित संचार माध्यमों से ईमानदारी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं थी।

यहां डा. भाभा का उल्लेख करना जरूरी होगा। राष्ट्र के प्रति निष्ठा और देश की अगली पीढ़ी की बेहतरी का ख्वाब उन्हें विदेश से वापस भारत ले आया। उन्होंने ईमानदारी से देश में विज्ञान, चिकित्सा और प्रौद्योगिकी की शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया और साम्राज्यवादी अमरीका की सीआईए द्वारा एक कथित विमान दुर्घटना में अकाल मौत को प्राप्त हुए। वैभव, धन और ख्याति वे विदेश में रह कर, विदेशी राष्ट्र की सेवा कर प्राप्त कर सकते थे लेकिन उन्होंने राष्ट्र के लिए और देश की अगली पीढ़ी के लिए अपने निजी हितों को न्यौछावर करना पसन्द किया। वे ईमानदार थे लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार नहीं कहा। डा. भाभा जैसे अन्यान्य उदाहरण से भारतीय इतिहास भरा हुआ है। ग्रंथ के ग्रंथ लिखे जा सकते हैं उन लोगों पर जिन्होंने देश के लिए अपना सुख, सम्पत्ति सभी कुछ न्यौछावर कर दिया लेकिन आज तक किसी ने उन्हें ईमानदार कहने की हिमाकत नहीं दिखाई क्योंकि वे सभी ईमानदार थे।

सत्ता की खरीद फरोख्त कांग्रेस भी करती रही है और प्रमुख विपक्षी दल भाजपा भी। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी प्रभृति क्षेत्रीय दल भी यही सब करते रहे हैं। जबसे नई आर्थिक नीतियां शुरू हुई हैं, तबसे पूंजी की हवस को हवा मिलना शुरू हो गयी है। भ्रष्ट होने के लिए पूंजी पैसा मुहैया कराती है। सत्ता की खरीद-फरोख्त के लिए यही पूंजी पैसा मुहैया कराती है। इसे कभी कोई शर्म नहीं रही।

1991 में नरसिम्हा राव के नेतृत्व में अल्पमत कांग्रेस की सरकार बनी थी। शुरू में विश्वास प्रस्ताव आया तो समूचे विपक्ष ने विकल्पहीनता के कारण उस सरकार को काम करने की छूट दे दी। 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद का ध्वंस हो गया। उंगलियां उठीं थी - भाजपा और कांग्रेस के मध्य दुरभि संधि की। वित्त मंत्री मनमोहन सिंह थे। बजट सत्र में अविश्वास प्रस्ताव आया। मोहन सिंह कई बार जिक्र कर चुके हैं कि राम लखन सिंह यादव पंडित पंत मार्ग की कोठी नं. 9 में रहते थे जबकि मोहन सिंह 7 नम्बर में। वी. पी. सिंह द्वारा बनाये गये जनता दल के सदस्यों की भीड़ राम लखन सिंह यादव के आवास पर लगने लगी। मोहन सिंह ने आरोप लगाये हैं कि राम लखन सिंह यादव ने उन्हें भी प्रलोभन दिया था - एक करोड़ रूपये, एक पेट्रोल पम्प या गैस एजेंसी के साथ मंत्री पद। वी.पी. सिंह के तमाम करीबी लोगों की निष्ठा रातों-रात बदल गयी। मोहन सिंह ने लिखा है कि जनता दल तोड़ने के लिए एक सांसद कम पड़ रहा था कि उनके सामने से मुरादाबाद के सांसद हाजी गुलाम मोहम्मद को सतीश शर्मा और बलराम यादव ने बीच सड़क से कार में जबरदस्ती टांग लिया। जनता दल तोड़ने का कोटा पूरा हो गया। पूरा देश जानता है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के नौ आदिवासी सांसदों को थोक में खरीद लिया गया। राम लखन सिंह यादव और अजित सिंह दोनों केन्द्र सरकार में मंत्री बन गये।

उसके बाद आये अटल बिहारी बाजपेई। 21 दलों के मोर्चा के वे नेता थे। जयललिता ने अन्ना द्रुमुक का समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गयी थी। स्वाभाविक था कि सरकार को फिर से विश्वास मत लेने की जरूरत पड़ गयी। सरकार के प्रबंधक प्रमोद महाजन और जार्ज फर्नांडीस के नेतृत्व में भाजपा सक्रिय हुई। कौन से हथकंडे़ अटल बिहारी बाजपेई ने नहीं अपनाये थे? पूर्वोत्तर के निर्दलीय सांसद उनके जाल में फंसे। यदि बसपा रात में समर्थन का ऐलान न करती तो उसके सांसदों का भी सौदा भाजपा कर चुकी थी। सुबह संसद में मायावती पलट गयीं। संसद में ही प्रमोद महाजन ने उन्हें सन्देश दिया कि कल ही कल्याण सिंह से इस्तीफा लेकर उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया जायेगा। लेकिन मायावती ने अंत में दगा कर उनकी सरकार को गिरा दिया। सरकार गिरने के बाद हुआ कारगिल युद्ध क्या चुनाव जीतने के लिए अटल बिहारी बाजपेई द्वारा देश के साथ की गयी बेईमानी नहीं थी?

मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी अमरीकी साम्राज्यवाद नियंत्रित संस्थाओं में नौकरी कर अमरीकी साम्राज्यवाद की सेवा की। क्या यह देश के प्रति उनकी ईमानदारी का सबूत है? क्या वे भारत में रह कर यहां के जनमानस की सेवा नहीं कर सकते थे? उन्होंने अमरीका के साथ परमाणु करार किया। क्या यह देश के प्रति मनमोहन सिंह की ईमानदारी थी। उन्होेंने भारत-ईरान गैस पाईप लाईन को अमरीका के कहने पर खटाई में डाल दिया और भारत के चिरमित्र रहे ईरान के साथ विश्वासघात किया। क्या यह राजनयिक ईमानदारी थी? क्या भाजपा सांसदों द्वारा विश्वास मत पर बहस के दौरान लोकसभा में लहराई गयी गड्डियों पर गठित संयुक्त संसदीय समिति की अनुशंसा पर उन्होंने इस दौरान हुए पूरे खेल की जांच किसी एजेन्सी को सौपी? यह कौन से ईमानदारी थी? मनमोहन सिंह न अपने सोच में ईमानदार हैं, न वे देश की जनता के प्रति ईमानदार हैं और न ही अपने कार्य और व्यवहार में ईमानदार हैं। न ही देश के भविष्य के लिए उन्होंने कभी कोई ख्वाब देखा था, न देख सकते हैं और न ही देख पायेंगे।

असली समस्या भारत की वह जनता है जिसमें भ्रष्टाचार के खिलाफ तेवर नहीं हैं। उसके विकल्प सीमित हैं। उसे किसी न किसी भ्रष्ट को ही वोट देना है तो करे क्या? कोई कानून, कोई जांच, कोई बहस इस संस्थागत भ्रष्टाचार से संघर्ष में सक्षम नहीं है। हमें जनता के सामने एक राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत करते हुए उसमें चेतना भरनी होगी, उसे भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष के लिए तैयार करना होगा और तभी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है।

- प्रदीप तिवारी
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आगामी चुनाव और वामपंथ


पांच राज्यों - असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी के विधान सभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है और उम्मीदवारों के नामांकन की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। ये चुनाव, खासकर पश्चिम बंगाल और केरल के चुनाव वामपंथी पार्टियों के लिए बड़े महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इस समय वहां क्रमशः वाम मोर्चा और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा की सरकारें हैं। वामपंथ के लिए तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम के चुनाव भी काफी अहमियत रखते हैं।

अपनी सत्ता को कायम रखने के लिए केरल और पश्चिम बंगाल में विजय प्राप्त करना वामपंथी पार्टियों के लिए आवश्यक है। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा पिछले लगभग 34 सालों से लगातार शासन कर रहा है जबकि केरल में एलडीएफ पिछले पांच वर्षों से सत्ता में है।

जब कोई सरकार सत्ता में होती है तो कुछ समस्याएं अपरिहार्य होती है। सभी वायदे पूरे नहीं किये जा सकते। पश्चिम बंगाल में कुछ गलतियां हो गयी हो सकती हैं। जब कोई सत्ता लम्बे अरसे तक रहती है तो कुछ अवांछनीय तत्वों समेत सभी तबके उसकी तरफ आकृष्ट होते हैं। भूल-चूकों और गलतियों की कुछ हद तक पहचान हो चुकी है और उन्हें दूर करने के लिए कुछ गंभीर प्रयत्न भी किये गये हैं।

कुछ अन्य समस्याएं भी हो सकती हैं। उद्योगीकरण के ईमानदार प्रयास भूमि अधिग्रहण के गलत तरीकों से किये गये, जिसका विरोधियों ने फायदा उठाया, उसे हजारों गुना बढ़ाकर पेश किया गया और उससे जनता का एक हिस्सा भ्रमित हुआ। सभी वामपंथ विरोधी पार्टियों के एकजुट हो जाने की उम्मीद तो थी पर जब तृणमूल कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस माओवादियों को खुले समर्थन के साथ एकजुट हुई तो उन्होंने लक्ष्मण रेखा ही लांघ दी।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह लगातार इस अभियान को जारी रखे हुए हैं कि वामपंथी अतिवाद देश के लिए सबसे बड़ा खतरा है। उनके लिए सीमापार से आतंकवाद, अभूतपूर्व तरीके से बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, करोड़ों-अरबों रूपये कालाधन जैसी बातें मुख्य समस्याओं में नहीं हैं पर माओवाद सबसे बड़ी समस्या है। पर उनकी पार्टी ममता बनर्जी से हाथ मिलाती है और पश्चिम बंगाल में सत्ता छीनने के अपने सपने में माओवादियों से सहर्ष समर्थन लेती है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथ का हमेशा ही विचार रहा है कि माओवाद एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और इसके एक राजनैतिक समाधान की जरूरत है। हमने गोलियों और हत्याकांडों के जरिये माओवाद को कभी खत्म करना नहीं चाहा। यह कांग्रेस सरकार ही है जो माओवाद की तर्ज पर माओवादी समस्या का हल बन्दूक की नली की ताकत से निकालना चाहती है। वे माओवादियों को अत्यधिक नृशंसता से मार डालते हैं, यहां कि गिरफ्तार करने के बाद भी उनकी हत्या कर देते हैं जैसे उन्होंने आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद जिले में राज कुमार उर्फ आजाद के साथ किया और उसके बाद वे पश्चिम बंगाल में माओवादियों के साथ गलबहियां भी कर लेते हैं। यह हैरानी की बात है कि पश्चिम बंगाल में अपने अंध वामपंथ विरोधी रवैये के कारण वे कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के घिनौने खेल को नहीं समझ पा रहे हैं। माओवादियों को बाद में अहसास होगा कि असली दोस्त कौन है और दुश्मन कौन है। पर जो भयंकर राजनैतिक गलती वे आज कर रहे हैं, उसे दुरूस्त करने के लिए तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार को श्रेय जाता है कि उसने राज्य में बटाईदारों के अधिकारों की गारंटी समेत सार्थक भूमि सुधार किये; समुदायों के बीच शानदार धर्मनिरपेक्ष सम्बंध बनाये रखे; उनकी शिक्षा और सुविधाओं के साथ उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए मुस्लिम अल्पसंख्यकों को विशेष रियायतें प्रदान कीं। वाम मोर्चा को बदनाम करने के लिए कुछ गलतियों, भूलों को, खासकर आदिवासी क्षेत्रों में, बेहद बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया गया है। पश्चिम बंगाल के लोग राजनीतिक तौर पर काफी अधिक सचेत हैं और हम आशा करते हैं कि वे तमाम बातों को समझेंगे और एक मजबूत वाममोर्चा के पक्ष में जनादेश देंगे।

केरल एक ऐसा राज्य है जहां एलडीएफ ने ऐसे अनेक सकारात्मक कार्यक्रम चलाये हैं जिनसे जनता को, खासकर गरीबों एवं मध्यवर्ग के लोगों को फायदा पहुंचा है। केरल में देश की सबसे अच्छी सार्वजनिक वितरण प्रणाली है जिसके जरिये चावल दो रूपये किलो दिया जाता है और गरीबी रेखा के नीचे के लगभग 35 लाख परिवारों को खाद्य तेल, दाल और लगभग दो दर्जन आवश्यक वस्तुएं आपूर्ति की जाती हैं। गरीबी की रेखा से ऊपर के अन्य 40 लाख परिवारों को 50,000 सहकारी दुकानों के जरिये बाजार दर से 15 से 40 प्रतिशत की कम कीमत पर आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति की जाती है। इस अवधि में गरीबों के लिए साढ़े तीन लाख मकान बनाये गये, एम.एन. आवास योजना के मकानों पर प्रति मकान एक लाख रूपये खर्च कर एक लाख पुराने मकानों की मरम्मत कराई गयी और उन्हें बड़ा बनाया गया। केरल देश का एक अकेला राज्य है जहां किसान कर्ज राहत कमीशन का गठन किया गया और कर्ज राहत देकर किसानों को संकट से बचाया जाता है। केरल के मछुआरों की काफी बड़ी आबादी है, उन्हें 300 करोड़ रूपये की कर्ज राहत दी गयी। इस कर्ज राहत का फायदा 80,000 मछुआरों को मिला। जहां जमीन कम है वहां और अधिक जमीन को धान की खेती के तहत लाया गया।

केरल को इसका भी श्रेय है कि वहां सुशासन है, भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन है, सबसे अच्छे साम्प्रदायिक सम्बंध हैं और कानून एवं व्यवस्था की स्थिति अच्छी है।

यह हैरानी की बात है कि चुनाव आयोग ने गरीबी की रेखा के ऊपर के लोगों को भी दो रूपये किलो राशन के दायरे में लाने की इजाजत केरल सरकार को नहीं दी हालांकि इसका फैसला चुनाव संहिता के लागू होने से पहले बजट अधिवेशन के दौरान ही घोषित किया जा चुका था। यही बात ममता बनर्जी पर लागू नहीं की गयी जिन्होंने छात्राओं को रेलों में मुफ्त सफर करने की घोषणा की। अलग-अलग पैमाने - इससे भारत के चुनाव आयोग की अच्छी छवि देश के सामने नहीं जायेगी। उसे अपने फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए।

एलडीएफ के राजनैतिक अभियान को केरल में उत्साहपूर्ण समर्थन मिल रहा है, एलडीएफ के दो जत्थों ने सभी 140 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया। उन्हें जनता का भरपूर समर्थन और प्यार मिला। क्रीम पार्लर सेक्स घोटाला का, जिसमें पूर्व मंत्री और मुस्लिम लीग के नेता कुन्हाली कुट्टी शामिल हैं, पूर्व मंत्री बाल कृष्ण पिल्लई को एक साल की सजा, जिसकी पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की है, पूर्व मंत्रियों पर अन्य मामले - इन तमाम बातों से भ्रष्ट यूडीएफ सरकार का चेहरा पूरी तरह जनता के सामने आ गया है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के. जी. बालाकृष्णन के भाई और उनके दादाद - जो दोनों ही कांग्रेस के कार्यकर्ता हैं - कालेधन के साथ पकड़े गये हैं। केरल के पामोलीन घोटाले में शामिल थॉमस की भारत के मुख्य सतर्कता आयुक्त के रूप में नियुक्ति को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त किये जाने से केन्द्र की संप्रग सरकार की नाक तो कटी ही केरल में यूडीएफ की छवि भी खराब हुई। केरल के लोग उच्च साक्षर हैं और अत्यंत सचेत हैं। यूडीएफ, मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों, जो केरल की आबादी का 40 प्रतिशत हिस्सा हैं - के राजनैतिक प्रबंधकों पर निर्भर करता है। जनता अपनी पसंद तय करने के मामले में काफी होशियार है। पिछले कुछ महीनों के राजनैतिक घटनाक्रम से निश्चय ही वामपंथ के पक्ष में वातावरण बना है।

तमिलनाडु बहुत हद तक दो द्रविड़ पार्टियों के प्रभाव में है। वामपंथ ने आल इंडिया द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) के साथ तालमेल किया है। वामपंथ वहां सीमित संख्या में - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 10 स्थानों पर तथा भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) 12 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

दोनों वामपंथी पार्टियों की छवि है कि वे गरीबों, दबे-कुचले लोगों, किसानों, श्रमिकों और मजदूर वर्ग के लिए लड़ती है। पिछले कुछ वर्षों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने कई संघर्ष किये हैं जिनसे पार्टी की विश्वसनीयता बढ़ी है।

ठीक इसी समय में डीएमके बदनाम हुई, उसकी साख गिरी। वह भ्रष्टाचार का पर्याय बन गयी है। करूणानिधि ने डीएमके को एक पारिवारिक सम्पत्ति बना लिया है। करूणानिधि मुख्यमंत्री हैं, उनका छोटा बेटा स्टालिन उप मुख्यमंत्री है, बड़ा बेटा केन्द्र में कैबिनेट मंत्री है और बेटी राज्य सभा की सदस्य है।

2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले ने - डीएमके नेता और टेली कम्युनिकेशन के मंत्री के रूप में केन्द्रीय कैबिनेट में डीएमके नामजद ए. राजा की गिरफ्तारी ने - डीएमके के भ्रष्ट तौर-तरीकों का पर्दाफाश कर दिया है। अब क्लाइन्गर टीवी में 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले के पैसे के प्रवाह के सम्बंध में सीबीआई जांच चल रही है। चुनाव तक वह जांच दिखाने भर के लिए चलेगी क्योंकि हम सभी जानते हैं कि सीबीआई को एक निष्पक्ष सरकारी एजेंसी के रूप में रखने के बजाय उसे अब कांग्रेस पार्टी का एक साधन, एक औजार बना दिया गया है।

पिछले लोकसभा चुनाव में डीएमके ने समूचे तमिलनाडु को भ्रष्ट करने की कोशिश की। अपने उम्मीदवारों को जिताने के लिए उसने अत्यंत शर्मनाक तरीके अपनाये। अंग्रेजी पत्र ‘हिंदू’ द्वारा कुछ वीकीलीक्स दस्तावेजों को प्रकाश में लाया गया है जिसमें अमरीकी राजनयिक द्वारा अमरीकी सरकार को भेजे गये संदेशों से पता चलता है कि तमिलनाडु चनाव मंे किस हद तक भ्रष्टाचार हुआ। भ्रष्टाचार से हमेशा ही फायदा पहुंचे, ऐसा नहीं है। तमिलनाडु की जनता इस भ्रष्ट परिवार के शासन से तंग आ चुकी है और इस अत्यंत बदनाम सरकार को उखाड़ फेंकने में अपनी भूमिका अदा करेगी।

असम में दारोमदार आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों पर

असम में चुनाव के पहले चरण में चुनाव होंगे। राज्य की अनेक विशेषताएं हैं। यह एक ऐसा राज्य भी है जहां अल्पसंख्यकों एवं आदिवासियों का संकेन्द्रण है। वहां नियमित रूप से बाढ़ आती है या बंगला देश से बड़ी संख्या में लोग आ जाते हैं। विद्रोही गतिविधियां और उल्फा द्वारा इक्के-दुक्के हमले वहां की सामान्य बात बन गयी है। अब एक चुनावी चाल के तौर पर, उल्फा बोडो पार्टियों और अल्पसंख्यकों से समर्थन चाहती है। दुर्भाग्य से, असम गण परिषद - जो पहले भाजपा के खिलाफ कोई निश्चित एवं ठोस दृष्टिकोण नहीं अपना सकी थी - इस बार भाजपा के साथ चुनावी गठबंधन में है।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और अन्य वामपंथी पार्टियां अलग से चुनाव लड़ रही हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी असम के लोगों के सच्चे अधिकारों के लिए और शोषण के विरूद्ध हमेशा ही संघर्ष करती रही है। राज्य विधान सभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रतिनिधित्व बढ़ने से असम की जनता की ज्वलंत समस्याओं का समाधान सुनिश्चित करने के लिए एक बेहतर संघर्ष करने में मदद मिलेगी। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी 19 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है।

पुडुचेरी में भाकपा का अच्छा रहेगा प्रदर्शन

तमिलनाडु के साथ ही पुडुचेरी में भी चुनाव हो रहा है। यह फ्रांसीसी उपनिवेश, जिसने फ्रांसीसी उपनिवेशवाद के साथ संघर्ष किया, भारतीय संघ में कुछ देर बाद शामिल हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी यहां मजदूरों और दबे-कुचले लोगों के लिए समझौताविहीन तरीके से संघर्ष करती आयी है और जनता के मध्य पार्टी की एक अच्छी छवि रही है और उसे जनता का समर्थन रहा है।

शासक पार्टी कांग्रेस को पूर्व मुख्यमंत्री रंगासामी के कांग्रेस से बाहर निकल जाने से एक झटका लगा है। तमिलनाडु की राजनीति का पुडुचेरी में भी असर पड़ेगा। पिछले कार्यकाल में पुडुचेरी में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायकों ने अच्छा काम किया है। अतः पार्टी को आशा है कि विधान सभा में पार्टी के प्रतिनिधित्व में बढ़ोतरी होगी।

सामान्यतः राज्य विधान सभा के चुनावों में राज्य एवं स्थानीय मुद्दे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पर इस बार राष्ट्रीय राजनीति का भी इन चुनावों में बड़ी हद तक असर पड़ेगा। इन उपरोक्त पांच राज्यों में असम के सिवा भाजपा कहीं नहीं है। अन्य राज्यों में उसका अभी तक खाता नहीं खुला है और अब भी वह संभव नहीं है।

इन सभी पांच राज्यों में कांग्रेस और वामपंथ तथा कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। संसद के चुनावों के बाद दो वर्षों तक संप्रग-दो का नेतृत्व करने वाली कांग्रेस बड़े जोश में थी। दूसरे बार की विजय ने उसमें अहंकार पैदा कर दिया और इस तरह वह आम जनता से पूरी तरह अलग-थलग हो गयी। अभूतपूर्व भ्रष्टाचार, कांग्रेस नेताओं-मंत्रियों के घपले-घोटालों ने इस पार्टी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया है, उसकी छवि और प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी है। खाद्यान्नों एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं। महंगाई और मुद्रास्फीति बढ़ रही है। बढ़ती बेरोजगारी नई ऊंचाईयों पर पहुंच गयी है। लोगों में भारी आक्रोश है। पिछले दो वर्षों में दो बार ”भारत बंद“ हुए, मजदूरों की एक राष्ट्रीय हड़ताल हुई, सरकार के विरूद्ध अनेकानेक विराट रैलियां हुईं। सरकार के हर जनविरोधी कदम का विरोध हो रहा है।

कांग्रेस और संप्रग-दो की जनविरोधी नीतियों को शिकस्त देने के लिए और भ्रष्टाचार को पूरी तरह नकारने के लिए इन सभी पांचों राज्यों में कांग्रेस को शिकस्त देना एक राजनैतिक जरूरत है। वक्त का तकाजा है कि कांग्रेस को हटाया जाये।

- एस. सुधाकर रेड्डी
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शुक्रवार, 25 मार्च 2011

प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव कामरेड कमला प्रसाद को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, उत्तर प्रदेश राज्य परिषद की श्रद्धांजलि


लखनऊ 25 मार्च। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य परिषद प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव कामरेड (डा.) कमला प्रसाद के आकस्मिक निधन पर उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करती है। कामरेड कमला प्रसाद का निधन आज सुबह दिल्ली के एम्स में हो गया। वे रक्त कैंसर से पीड़ित थे जिसका पता चन्द दिनों पहले ही हुआ था। उनके निधन का समाचार मिलते ही भाकपा के राज्य कार्यालय पर उनके सम्मान में पार्टी ध्वज को झुका दिया गया।

भाकपा की उत्तर प्रदेश राज्य परिषद की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में भाकपा के राज्य कोषाध्यक्ष एवं ”पार्टी जीवन“ के सम्पादक प्रदीप तिवारी ने कहा कि उनके निधन से प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के साथ ही साथ मजदूर-किसान आन्दोलन को जो क्षति हुई है, उसकी भरपाई निकट भविष्य में सम्भव नहीं दिखाई देती।

प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव कामरेड कमला प्रसाद का जन्म 14 फरवरी 1938 को मध्य प्रदेश के सतना जिले में धौरहरा नामक गांव में एक गरीब किसान के घर में हुआ था। उनका बचपन काफी मुश्किल हालातों में गुजरा। उसका जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था कि ”हर दूसरे-तीसरे साल अकाल प़डता। किसानों की हालत बहुत ख़राब रहती। जीना मुश्किल होता। ग़रीबी, बेचैनी, कर्ज का दबाव - ये ऐसे प्रश्न थे जिन पर रात-रात भर चिंताएं और बातचीत चलती। कैसे पटेगा? क्या होगा? यही प्रश्न घूम-घूमकर सामने आ जाते। खूब गुस्सा आता था कि ऐसा क्यों है? दिमाग में बचपन से ही प्रश्नो के जो बीज प़डे उन्होंने मुझे मार्क्सवादी चिंतन अपनाने में ब़डी मदद की।“ इन्हीं जीवन स्थितियों में उनकी मुलाकात विख्यात साहित्यकार हरिशंकर परसाई से हुई और वे प्रगतिशील लेखन आन्दोलन से जुड़ गये।

उन्होंने रीवा विश्वविद्यालय के पहले प्राध्यापक फिर हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष की हैसियत से शिक्षण को रचनात्मक स्वरूप दिया और ‘अंतर्भारती’ जैसे बहुकला केन्द्र की नींव रखी। उन्होंने उस दौरान बहुमूल्य अकादमिक भूमिका का निर्वाह कर नयी पीढ़ी का सशक्त मार्गदर्शन किया। कमला प्रसाद एम.ए., पी.एच.डी. व सागर विश्वविद्यालय से डी. लिट. थे। दो दिन पहले ही 23 मार्च को उन्हें प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान से सम्मानित करने का निर्णय लिया गया था। उन्हें इसके पूर्व म. प्र. साहित्य अकादमी का नंद दुलारे वाजपेयी पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका था। डा. कमला प्रसाद आधुनिक हिन्दी की प्रगतिशील परंपरा के महत्वपूर्ण और सुप्रसिद्ध आलोचक थें जिनकी साहित्यिक उपस्थिति पूरे हिंदी क्षेत्र में जानी-पहचानी जाती है। उन्होंने आलोचना के अलावा साहित्य के जिन तीन प्रमुख क्षेत्रों - अकादमिक दक्षता, संपादन और संगठनात्मक कौशल में जिस तरह अपना योगदान दिया है वह विशेष रूप उल्लेखनीय और उनके व्यक्तित्व का असाधारण पहलू है। उनके कुशल संयोजन एवं संपादन में निकलने वाली पत्रिका ‘प्रगतिशील वसुधा’ भारतीय मनीषा के लिए एक ज़रूरी पत्रिका के रूप में सिद्ध हुई है। इन सारे और बहुकोणीय क्षेत्रों में सतत् संलग्न रहने के अलावा रचनात्मक लेखन कार्यों में भी वे निरंतर सक्रिय रहे। वे मध्य प्रदेश कला परिषद के निदेशक भी रहे थे और केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष भी। दर्जनों सरकारी-गैर सरकारी कमेटियों, विश्वविद्यालयों की कार्य परिषदों की सदस्यता के साथ देश भर में फैले लेखक समुदाय को उन्होंने एक बार फिर एकताबद्व किया था। वे गैर हिन्दी भाषी लेखकों के भी प्रिय थे और उनके सम्बंध पाकिस्तान, मारीशस, बंगलादेश जैसे अन्यान्य देशों के लेखकों से उनके सम्बंध थे। उन्होंने ‘रचना और आलोचना की द्वंद्वात्मकता’ जैसी सैद्धान्तिक पुस्तक लिखी जिसमें आधुनिक हिन्दी कविता के संदर्भ में रचना और आलोचना के द्वंद्वात्मक सम्बंधों को पहली बार वस्तुपरक ढंग से ब्यौरेवार विचार किया गया।

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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तीन दिवसीय प्रशिक्षण शिविर का उद्घाटन

लखनऊ 25 मार्च। आज प्रातः 10.00 बजे सौभाग्य मंडप अलीगढ़ में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के तीन दिनों तक चलने वाले शिक्षण शिविर का उद्घाटन सम्पन्न हुआ। इस राज्य स्तरीय शिविर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के पूरे राज्य से आये पार्टी के नेता और पदाधिकारी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं।

उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता बी. राम ने की। मंच पर राज्य मंत्री डा. गिरीश, अलीगढ़ के जिला मंत्री डा. सुहेव शेरवानी, इम्तियाज अहमद, आशा मिश्रा एवं अरविन्द राज स्वरूप उपस्थित रहे। मंच को उद्घाटनकर्ता अजीज पाशा, सांसद एवं पार्टी के केन्द्रीय शिक्षा विभाग के अध्यापक अनिल राजिमवाले एवं कृष्णा झा ने भी सुशोभित किया। सत्र के प्रारम्भ में ही भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने देश के प्रसिद्ध आलोचक, लेखक एवं प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री डा. कमला प्रसाद के आकस्मिक निधन पर शोक प्रस्ताव पेश किया। उपस्थित सभी भागीदारों ने दो मिनट का मौन रखकर दिवंगत साहित्यकार को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

भाकपा अलीगढ़ के मंत्री डा. सुहेव शेनवानी ने उपस्थित सहभागियों का स्वागत करते हुए आज की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं की राजनैतिक एवं वैचारिक प्रखरता की महती आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि धार्मिक असहिष्णुता एवं जातिवादी उभारों को तेज राजनीतिक धार से ही नकारा जा सकता है और समाज को बेहतर दिशा की ओर ले जाया जा सकता है।

शिक्षण शिविर का उद्घाटन मुख्य अतिथि एवं पार्टी के राष्ट्रीय नेता तथा सांसद अजीज पाशा ने किया। उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की बड़ी समृद्ध परम्परायें रही हैं। यहाँ पार्टी ने जनता के बड़े-बड़े प्रश्नों को उठाया है। इधर कुछ वर्षों से साम्प्रदायिकता और जातिवाद के असर ने महत्वपूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक प्रश्नों को पीछे कर दिया है और लोगों की सोच में बदलाव किया है। पार्टी की कतारों को संघर्ष जारी रखना होगा और संघर्षों को नये ढंग से खड़ा करना होगा ताकि पार्टी की भूमिका नुमाया हो सके। उन्होंने कहा कि पुस्तकें तक लिख दी गयी थीं कि साम्यवाद का भविष्य समाप्त हो चुका है पर लातिन अमरीकी देशों जिनको अमरीका अपना खलिहान समझता था, आज वहां 13 देशों ने अमरीकी पूंजीवाद एवं साम्राज्यवाद को धता बताकर वामपंथी और तरक्की पसंद रूझान की सरकारें बनाई हैं। चीन एवं वियतनाम जैसे देश दुनिया को चकाचौध कर रहे हैं। वियतनाम जैसा छोटा देश चावल के निर्यात करने में नम्बर दो का स्थान हासिल कर लिया है। उन्होंने कहा कि अमरीका की आर्थिक मंदी ने अमरीका एवं यूरोप में कार्ल मार्क्स की लिखित कालजयी पुस्तक ”पूंजी“ में पुनः भारी दिलचस्पी पैदा कर दी है। अतः यह कहना गलत साबित हो चुका है कि साम्यवाद का कोई भविष्य नहीं है। उन्होंने जोर देकर कहा कि देश और दुनिया का भविष्य समाजवाद में ही निहित है। उन्होंने अपने सम्बोधन में केन्द्रीय सरकार की आर्थिक नीतियों का भी विश्लेषण करते हुए कहा कि भ्रष्टाचार उसकी नीतियों में ही निहित है। उन्होंने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे दलितों, आदिवासियों और मुस्लिम अल्पसंख्यकों की आवाज और समस्याओं को उठायें। उन्होंने अरब दुनिया में होने वाले परिवर्तनों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया और लीबिया में यूरोप और अमरीका की फौजों की बमबारी को तत्काल रोकने की मांग की। उन्होंने कहा कि पश्चिम बंगाल और केरल में हो रहे चुनावों में विरोधियों का जबरदस्त टक्कर दी जायेगी।

इस अवसर पर पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश ने वर्तमान देश और दुनियां की परिस्थितियों को समझने के लिए मार्क्सवाद और लेनिनवाद की प्रासंगिकता को रेखांकित करते हुए कार्यकर्ताओं का आह्वान किया कि वे समाजवाद की रचना के लिए निरन्तर अपने प्रयासों को जारी रखें। ध्वजारोहण अनिल राजिमवाले ने किया।

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गुरुवार, 17 मार्च 2011

As to how UPA-I Government was saved in 2008 - US Ambassy Cable published on Wkileaks

Political horse-trading continued in anticipation of the special session of parliament to consider the confidence vote on July 21 followed by the vote itself on July 22.




162458 7/17/2008 13:23 08 NEWDELHI 1972 Embassy New Delhi SECRET 08 KOLKATA 209 "VZCZCXRO9793OO RUEHBI RUEHCI RUEHLH RUEHPWDE RUEHNE #1972/01 1991323ZNY SSSSS ZZHO 171323Z JUL 08FM AMEMBASSY NEW DELHITO RUEHC/SECSTATE WASHDC IMMEDIATE 2668INFO RUCNCLS/ALL SOUTH AND CENTRAL ASIA COLLECTIVERUCNNSG/NUCLEAR SUPPLIERS GROUP COLLECTIVERUEAIIA/CIA WASHDCRHEBAAA/DEPT OF ENERGY WASHINGTON DCRUEKJCS/JOINT STAFF WASHDCRHEHNSC/NSC WASHDCRUEKJCS/SECDEF WASHDCRUEHUNV/USMISSION UNVIE VIENNA 1566RUCNDT/USMISSION USUN NEW YORK 6661" "S E C R E T SECTION 01 OF 04 NEW DELHI 001972



SIPDIS



E.O. 12958: DECL: 07/17/2018 TAGS: PREL, PARM, TSPL, KNNP, ETTC, ENRG, TRGY, IN SUBJECT: POLITICAL BARGAINING CONTINUES PRIOR TO KEY VOTE IN PARLIAMENT



REF: KOLKATA 209





Classified By: Charge D'Affaires Steven White for Reasons 1.4 (B and D)





1. (C) SUMMARY. Foreign Secretary Shiv Shankar Menon and his delegation departed for Vienna on July 17 to brief the 35 Board members of the International Atomic Energy Agency (IAEA) and another 19 members of the Nuclear Suppliers Group (NSG) on the U.S.-India Civil Nuclear Cooperation Initiative. In Delhi, government officials responded positively to suggestions about how to address concerns emerging from Vienna, particularly the need to begin negotiating an IAEA Additional Protocol and for the IAEA to circulate India's (INFCIRC) already-public separation plan as an official IAEA document. Political horse-trading continued in anticipation of the special session of parliament to consider the confidence vote on July 21 followed by the vote itself on July 22. Prime Minister Manmohan Singh and opposition Bharatiya Janata Party (BJP) leader L.K. Advani each plan to host a dinner for supporters on July 20; the parties will presumably have to chose one or the other. An estranged Congress Party MP and three Telangana Rashtra Samithi (TRS) MPs publicly stated their intention to vote against the UPA, leaving the government still clinging to a slim majority. Small parties representing collectively about 20 votes find themselves with generous suitors; one party chief has reportedly succeeded in having the Lucknow airport renamed after his father. The unrequited Left continued its anti-government rant, but showed signs of internal strain. Lok Sabha Speaker Somnath Chatterjee refused to resign despite pressure from within the Communist party to do so and has made it clear that he was not in favor of the Left voting with the opposition BJP against the government, a position that seems to have resonance among comrades disinclined to face early elections.



END SUMMARY.





GOI to Address IAEA Member Concerns, Fumbles on Scheduling



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2. (SBU) Foreign Secretary Shiv Shankar Menon departed for Vienna on July 17 for his briefing on July 18 to IAEA Board members and NSG members on the U.S.-India Civil Nuclear Cooperation Initiative. Local media had reported statements by an IAEA spokesman on July 16 that the briefing by the visiting Indian delegation had been canceled. In fact, the briefing was scaled down from all 140 IAEA members to just the 35 Board members, in addition to the 19 others that comprise the 45-member NSG that do not also sit on the IAEA Board. Menon is traveling with Department of Atomic Energy director for strategic plans Dr. R.B. Grover, Department Of Atomic Energy's (DAE) Gitish Sharma, and Chief of Staff Naveen Srivastava. They will be joined in Vienna by Geneva-based Ministry of External Affairs Counselor Venkatesh Varma, a veteran of nuclear deal negotiations.





3. (C) Pursuant to recommendations from the U.S. Mission to the IAEA, PolCouns raised two issues of concern to IAEA Board members on July 16 with Ministry of External Affairs Joint Secretary for the Americas Gaitri Kumar and Virender Paul in the National Security Adviser's office. PolCouns stressed the importance of starting negotiations on an Additional Protocol as soon as possible, relaying that such agreements usually take about a year to conclude but that IAEA Legal could have a model text ready quickly if the Indians ask to begin negotiations. PolCouns also reported, following messages from UNVIE, that some IAEA delegations did not understand the connection between the safeguards agreement (with its blank safeguarded facilities list) and the separation plan listing the civil nuclear facilities that would fall under safeguards (already a public document). PolCouns shared that the IAEA is prepared to circulate the separation plan as an official IAEA document if the Indians request it. Both Kumar and Paul promised to get on these two tasks ""right away"" to set things up for a productive trip to Vienna for Menon. On the Additional Protocol, the Prime Minister's Special Envoy will have to push the Department of Atomic Energy, which will have the lead. On the facilities list, an instruction could go to India's mission in Vienna fairly quickly.





UPA Maintains Precarious Lead In Vote Count



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4. (SBU) The special session of parliament to consider the confidence vote will begin on July 21 and conclude with a vote on July 22. Minister for Parliamentary Affairs Vayalar Ravi claimed on July 15 that the government would prevail in the July 22 confidence vote with over 280 votes cast in its favor. Kuldip Bishnoi, an estranged Congress Party MP who had been suspended for floating the idea of forming his own party in December 2007, confirmed his intention to defect in the confidence vote. (This development was apparently expected by party insiders and not a leading indicator of further fragmentation within the party.) Consulate Chennai reported on July 17 that the Telangana Rashtra Samithi (TRS) has publicly stated it will vote against the UPA. One of its three members of parliament has broken from the party, but is unlikely to support the government because the TRS has positioned the trust vote as a statehood issue, so voting for the UPA would mean voting against Telangana interests.





5. (SBU) Our best guess at this time show the government maintaining its slim majority with the anticipated vote count at about 273 in favor, 251 opposed, and 19 abstentions. A similar analysis from the British High Commission tracks closely with our numbers.



Dueling Dinners Force Parties to Declare Loyalties - - -





6. (SBU) Prime Minister Manmohan Singh and opposition Bharatiya Janata Party (BJP) leader L.K. Advani each plan to host a dinner for supporters on July 20, the evening before the special parliamentary session begins on July 21. Media reported that Advani will use the dinner as a strategy session to field MPs to speak against the confidence motion. Advani will also reportedly meet the BJP's National Democratic Alliance (NDA) supporters on July 17, including Chief Ministers of the states where NDA constituents are in power. Rajasthan Chief Minister Raje reportedly plans to skip the meeting, raising the ire of the BJP leadership.





7. (SBU) Prime Minister Singh's dinner on July 20 will include the Congress Party's new allies in the Samajwadi Party as well as other recent converts and fence-sitters from smaller parties. The Telegraph quoted a senior government source who said that PM Singh was ""neither crunching numbers nor seeking daily briefings on the political sensex. His bottom line is clear."" It also claimed that PM Singh was upset with the BJP for allegedly recanting on an ""understanding"" that it would support the deal. The article concludes that if the government survives the July 22 vote, PM Singh's priority would be to implement flagship social programs to thank his party for rallying behind him.





Votes For Sale



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8. (SBU) Behind the scenes, the Congress Party machine is working overtime. Sonia Gandhi reportedly plans to meet Jharkhand Mukti Morcha (JMM) leader Shibu Soren and Janata Dal Secular (JD-S) leader H.D. Deve Gowda. Retaining the support of JMM's five seats and the JD-S's three seats is reportedly vital to the UPA government's strategy. In exchange for retaining the support of the three votes of the Rashtriya Lok Dal (RLD), the Congress Party has reportedly pledged its support to rename Lucknow's Amausi airport after Chaudhary Charan Singh, father of RLD leader Ajit Charan Singh, who may also get a cabinet seat.





9. (C) On July 16, PolCouns met with Captain Satish Sharma, a Congress Party MP in the Rajya Sabha, a former Indian Airlines Pilot, and a close associate of former Prime Minister Rajiv Gandhi considered to be a very close family friend of Sonia Gandhi. Sharma mentioned that he, as well as others in the party, was working hard to ensure that the UPA government wins the confidence vote on July 22. He said that the Prime Minister, Sonia Gandhi, and Rahul Gandhi were committed to the nuclear initiative and had conveyed this message clearly to the party. Sharma said that PM Singh and others were trying to work on the Akali Dal (8 votes) through financier Sant Chatwal and others, but unfortunately it did not work out. He mentioned that efforts to encourage Shiv Sena (12 votes) to abstain were on-going. While different Congress operatives were working on different groups of MPs, Sharma said that Rahul Gandhi was personally working Omar





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Abdullah's Jammu and Kashmir National Conference (J&KNC), whose two MPs are inclined to vote in favor of the UPA. Sharma mentioned that he was also exploring the possibility of trying to get former Prime Minister Vajpayee's son-in-law Ranjan Bhattacharya to speak to BJP representatives to try to divide the BJP ranks. He mentioned that if the party wins the trust vote, they would then prefer to go for national elections in February or March 2009, which would give the UPA time to control prices and bring down inflation.





10. (S) Sharma's political aide Nachiketa Kapur mentioned to an Embassy staff member in an aside on July 16 that Ajit Singh's RLD had been paid Rupees 10 crore (about $2.5 million) for each of their four MPs to support the government. Kapur mentioned that money was not an issue at all, but the crucial thing was to ensure that those who took the money would vote for the government. Kapur showed the Embassy employee two chests containing cash and said that around Rupees 50-60 crore (about $25 million) was lying around the house for use as pay-offs.





11. (S) Another Congress Party insider told PolCouns that Minister of Commerce and Industry Kamal Nath is also helping to spread largesse. ""Formerly he could only offer small planes as bribes,"" according to this interlocutor, now he can pay for votes with jets.""





""What If""s: No Vote or a UPA Defeat



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12. (SBU) PM Singh appears to have opened the door to the Left to call off the vote, telling media on July 16 that the government had the numbers to prevail in the confidence vote and that it was ""unfortunate"" that the special session had to be foisted upon parliament and distract the government from addressing urgent issues like inflation. PM Singh publicly acknowledged trying to get the BJP to support the nuclear initiative by reaching out to former PM Atal Bihari Vajpayee, but Vajpayee reportedly deferred to opposition leader L.K. Advani to make the call.





13. (SBU) There are some signs that the GOI may decide to go ahead with the nuclear initiative even if it loses the confidence vote on July 22. Media quoted Rahul Gandhi on July 16 as saying, ""I support the PM 100 percent on the nuke deal. We are going to win the trust vote, but even if the government falls, so be it."" He also claimed the BJP was divided over the nuclear initiative, saying, ""There are people in the BJP who support the deal and do not know why their party is opposing it."" Rahul Gandhi also recalled how Left parties in the mid-1980s had stonewalled his father Rajiv Gandhi's efforts to introduce computers in government offices and vision of a computerized India. Congress Party Chief Sonia Gandhi said in Andra Pradesh on July 17 that the government ""will not compromise on the nuclear deal because it is in the national interest.""





Disagreements Among Comrades: Left Shows Signs of Strain



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14. (SBU) The Left continued its rant against the government. The Community Party of India-Marxist (CPI-M) Polit Bureau groused that the Prime Minister's Office set a ""dangerous precedent"" by meeting industrialist Mukesh Ambani on July 14, during which Ambani reportedly offered help in securing Shiv Sena support for the UPA government. The CPI-M said the government's rejection of the use of force against Iran by Israel was ""timely,"" but that it would only be credible if the government were to cut military ties with Israel.





15. (SBU) The Left has also begun to show signs of internal strain. CPI-M Polit Bureau member Sitaram Yechury told media on July 15 that the party erred in listing Lok Sabha Speaker Somnath Chatterjee among its members who withdrew support from the UPA government on July 8. Chatterjee said he does not want to step down as Speaker despite pressure from within the party to do so. He also wrote a letter to Prakash Karat making it clear that he was not in favor of the Left voting with the opposition BJP against the government. (Chatterjee has looked to the UPA government to help him keep his position as Speaker and appears to be rallying moderate CPI-M members disinclined to join their comrades in voting with their rival BJP against a government that they supported for





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several years.) Also on July 15, Samajwadi Party leader Amar Singh and two other SP leaders called for Chatterjee not to quit his post.





16. (SBU) Consulate Kolkata reported on the growing split within the CPI-M (reftel). Many CPI-M members, particularly Muslims, cannot fathom voving with the ""communalist"" BJP. A large group of West Bengal MPs do not want to bring down the government and are angry at Karat for his failed strategy. If the government falls, they fear the CPI-M could lose 10-15 seats in new elections based on unfavorable recent local election results. If the government survives, the Left will be embarrassed for having achieved nothing on the issues that are important to their constituents, few of whom care about the nuclear initiative. Though defection is a possibility, Communist Party discipline remains strong and members are unlikely to vote with the government.





Communists Find Muslims To Be More Anti-BJP Than Anti-American



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17. (SBU) A Times of India report on July 17 claimed that Muslim MPs do not view the nuclear initiative confidence vote as a communal issue, but rather one of differences in perception of national interest based on party positions. Of the 37 Muslim members of parliament, 26 are in parties that have declared their support to the government for the confidence vote, while 11 are with anti-deal parties. Mayawati's Bahujan Samaj Party (BSP) has tried to turn the confidence vote into into a communal issue by reaching out to Muslim councils (""bhaichara"" committees) and Islamic scholars in Uttar Pradesh and claiming that the Congress Party has compromised their interests. This strategy appears to be failing, partly because Muslims view the BJP as a more immediate threat than closer relations with the U.S. Communist Party of India-Marxist (CPI-M) MP and central committee member Hannan Mollah reportedly told media, ""Let's see what strategy can be worked out to convince the Muslim electorate that we are not working in tandem with the BJP."" Media reported a Forward Bloc local assembly member in West Bengal, Mehboob Mondal, saying, ""It's becoming difficult to explain that we are not with the BJP. It's clear that Muslims are not happy with us and their feelings may well reflect on Lok Sabha results.""





WHITE

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विकीलीक्स के ताजा खुलासे पर गुरूदास दासगुप्ता ने पेश किया कार्य स्थगन प्रस्ताव


नई दिल्ली 17 मार्च। वेबसाइट विकिलीक्स के मुताबिक संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग-1) सरकार ने जुलाई, 2008 में विश्वास मत जीतने के लिए सांसदों को रिश्वत दी थी। विकिलीक्स ने यह खुलासा कांग्रेस नेता सतीश शर्मा के सहयोगी रहे नचिकेता कपूर के हवाले से किया है। इसके अनुसार कपूर ने अमेरिकी अधिकारी को रुपये से भरी दो पेटियां दिखाई और कहा कि इनका इस्तेमाल सांसदों को घूस देने के लिए किया जा रहा है, ताकि सरकार को बचाया जा सके।

अंग्रेजी समाचार पत्र ‘हिन्दू’ में गुरुवार को प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कपूर ने बताया कि परमाणु समझौते पर सांसदों का समर्थन हासिल करने के लिए कांग्रेस ने जो 50-60 करोड़ रुपये जुटाये थे, उसमें उनकी अहम भागीदारी थी। कपूर के अनुसार अजीत सिंह के राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के चार लोकसभा सांसदों को संप्रग के पक्ष में मतदान करने के लिए 10 करोड़ रुपये दिए गए। ‘हिन्दू’ ने विकिलीक्स के जिस केबल के जरिये यह सूचना जुटाई है, उसे 17 जुलाई, 2008 को अमेरिकी विदेश विभाग को भेजा गया था। इसमें अमेरिका के एक अधिकारी स्टीवन व्हाइट ने सतीश शर्मा को ‘पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का घनिष्ठ सहयोगी और सोनिया गांधी का करीबी पारिवारिक मित्र’ बताया है।
रिपोर्ट में केबल के हवाले से कहा गया है कि सतीश शर्मा ने अमेरिकी अधिकारी से बातचीत के दौरान कहा कि वह और पार्टी के अन्य सदस्य यह सुनिश्चित करने में जुटे है कि 22 जुलाई को विश्वास मत के दौरान सरकार की स्थिरता पर कोई संकट न आए। रिपोर्ट के मुताबिक सांसदों का समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस का अभियान केवल उन्हीं रुपयों तक सीमित नहीं था, जो नचिकेता कपूर और सतीश शर्मा ने जुटाए थे।
उधर, विकिलीक्स के खुलासे ने केंद्र सरकार को मुश्किल में डाल दिया। इस खुलासे को लेकर संसद के दोनों सदनों में विपक्षी सदस्यों ने जोरदार हंगामा करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के इस्तीफे की मांग की। इस ताजा खुलासे पर अंग्रेजी दैनिक ‘हिन्दू’ में छपी एक रिपोर्ट के हवाले से लोकसभा में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के नेता गुरुदास दास गुप्ता ने अपनी ओर से दिए एक कार्यस्थगन प्रस्ताव को स्वीकार करने और उस पर चर्चा कराने की मांग की। दासगुप्ता ने कहा कि भारतीय इतिहास में आज तक ऐसी खबर नहीं छपी है। यह बेहद गंभीर आरोप है। उन्होंने कहा कि वह किसी का नाम नहीं ले रहे है लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को बचाने के लिए 50-60 करोड़ रुपये खर्च किए गए। उन्होंने कहा कि नई दिल्ली स्थित अमेरिकी दूतावास अपने राष्ट्रपति को यह सूचना भेजता है कि अमेरिका के साथ परमाणु संधि पर पेश किए जाने वाले विश्वास प्रस्ताव के दौरान सरकार को बचाने के लिए 50 से 60 करोड़ रखे हुए है। यह बेहद शर्मनाक घटना है। इससे लगता है कि दिल्ली की सरकार अमेरिका से नियंत्रित हो रही है। उन्होंने इस मसले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से तुरंत सदन में जवाब देने की मांग करते हुए कहा कि अगर वह ऐसा नहीं करते है तो उन्हे इस्तीफा दे देना चाहिए।
इस दौरान कांग्रेस के सदस्य हंगामा कर रहे थे और विपक्ष के आरोपों का प्रतिकार कर रहे थे। भाजपा और कांग्रेस सदस्यों के बीच टोकाटोकी के चलते लोकसभा अध्यक्ष ने सदन की कार्यवाही 12 बजे तक स्थगित कर दी। दोपहर 12 बजे जब सदन की कार्यवाही आरम्भ हुई तो जनता दल (युनाइटेड) के शरद यादव ने इस गम्भीर मसला बताते हुए इस पर चर्चा की मांग की। उन्होंने कहा कि विश्वास मत के दौरान 19 सांसद इधर से उधर गए थे। इसमें एक हमारा सांसद भी था। बिना लालच के ऐसा संभव नहीं है। यह बहुत गंभीर बात है। इसलिए प्रधानमंत्री को आकर सदन में बयान देना चाहिए, नहीं तो संसद चलने का कोई मतलब नहीं है। इसके बाद जैसे ही कांग्रेस के संजय निरुपम का नाम पुकारा गया तो विपक्षी सदस्यों ने हंगामा शुरू कर दिया। हंगामे के कारण लोकसभा के उपाध्यक्ष करिया मुंडा ने सदन की कार्यवाही दो बजे तक के लिए स्थगित कर दी।
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बुधवार, 9 मार्च 2011

अमीर और गरीब के मध्य बढ़ती खाई


वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सन 1991 में जब पहली बार वित्तमंत्री बने थे तो

उन्होंने विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के इशारों पर नई आर्थिक

नीतियों - ”उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण“ को लागू करना शुरू किया

था। इन बीस सालों में एक लम्बा सफर तय हुआ है। सरकार दावा करती है कि विकास

दर को शीघ्र ही दो अंकों में पहुंचा दिया जायेगा। इन बीस सालों में अमीर

और गरीब के मध्य खाई बेइंतिहा बढ़ गयी है। महंगाई खूब बढ़ी है। बेरोजगारी

भी खूब बढ़ी है। भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया है। पूंजी का मुनाफा खूब

बढ़ा है। कथित विकास दर के कारण पूंजी के मुनाफे में मजदूरों का और

किसानों का हिस्सा धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। सरकारों में बैठे लोग

इन्हीं मजदूरों-किसानों के वोटों के सहारे सत्तासीन हुए हैं लेकिन इनकी

दुर्दशा से उनका कोई सरोकार नहीं रहा।

आजादी के बाद सन 1990 तक सरकारों ने न्यूनतम आय और अधिकतम आय के बीच की

खाई को लगातार कम करने का काम किया था। 1991 में मनमोहन सिंह ने इस प्रक्रिया

को उलट दिया। न्यूनतम और अधिकतम आय के बीच की खाई बढ़ना शुरू हो गयी

और आज यह बहुत गहरी हो चुकी है। आज औद्योगिक मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी

उत्तर प्रदेश में रू. 2300.00 प्रतिमाह है। अगर साल में सौ दिन रोजगार मिला

नरेगा के अंतर्गत मिलने वाली मजदूरी के आधार पर अगर ग्रामीण मजदूर की मासिक

आय निकाली जाये तो यह लगभग रू. 833.00 आती है। मध्यान्ह भोजना रसोईया को

उत्तर प्रदेश में केवल रू. 1,000.00 मजदूरी प्रतिमाह मिलती है। अभी तक आंगनबाड़ी

सहायक का मासिक वेतन रू. 750.00 है। देश की तमाम जनता ऐसी है जिसे यह भी नसीब

नहीं होता है।

इसके ठीक उलट सरमायेदारों और उनके प्रबंधकों की आय कुलांचे मारने लगी है।

”इकोनॉमिक टाईम्स“ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वित्तीय वर्ष में

कारपोरेट हाउसों के सीईओ का वेतन उस कंपनी के सभी कर्मचारियों के औसत

वेतन का 68 गुना पहुंच गया है। एक साल पहले तक यह 59 गुना ही था। इसका मतलब है

कि इन कारपोरेट हाउसों के सीईओ ने अपनी कम्पनी के कुल कर्मचारियों के औसत

सालाना वेतन को केवल पांच दिन के वेतन के जरिये कमा लेते हैं। 1990 तक किसी

भी कम्पनी की न्यूनतम पगार और अधिकतम पगार में केवल दस गुने का अंतर हुआ

करता था।

इन सरमायेदारों को अभी संतोष नहीं है। एक माह पहले मुम्बई में व्यापारियों

के एक सम्मेलन में के. लक्ष्मीकांत ने कहा था कि अमरीका में यह अंतर 250 गुना है

और हमें वहां पहुंचना है। मेसर्स जिंदल स्टील एंड पॉवर के कार्यकारी उपाध्यक्ष

नवीन जिंदल (जोकि कुरूक्षेत्र से कांग्रेस के सांसद हैं) ने अपनी कंपनी के औसत

प्रति कर्मचारी वेतन का 2000 गुना पिछले साल वेतन के रूप में लिया। उनका सालाना

वेतन रू. 48.98 करोड़ प्रतिवर्ष है जिसमें कुछ सहूलियतें शामिल नहीं हैं। सन

टीवी के अध्यक्ष कलानिधि मारन और उनकी पत्नी ने वेतन के रूप में पिछले साल

सैंतीस-सैंतीस करोड़ निकाले जोकि सन टीवी के कुल कर्मचारियों के औसत सालाना

वेतन का 1760 गुना है।

यह सीमाओं का नितान्त अतिक्रमण है और आगे आने वाले समय में पूंजी के मुनाफे

के इस तरह बंटवारे को बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। जाति, धर्म एवं क्षेत्रीयता

की संकीर्ण राजनीति करने वाले लोग इस बंदरबांट को रोक नहीं सकते और न ही

इसके खिलाफ निर्णायक संघर्ष का हिस्सा हो सकते हैं। जरूरत वर्गीय आधार पर

एकता के आधार पर जुझारू संघर्षों की है, जिसे हमें ही निभाना होगा।

- प्रदीप तिवारी
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मंगलवार, 8 मार्च 2011

बजट चर्चा

देश के अधिसंख्यक लोगांे को बजट का इंतजार रहता है - चाहे वह उत्तर प्रदेश सरकार का हो, केन्द्र सरकार का हो अथवा रेलवे का। केन्द्र सरकार के बजट के प्रति आकर्षण और उत्सुकता अन्य बजटों की अपेक्षा अधिक होती है।

28 फरवरी 2011 को वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने वर्ष 2011-12 का बजट संसद में पेश किया। राजनीतिज्ञों द्वारा समाजवाद का रास्ता छोड़े यानी देश की आम जनता से विमुख होकर देश एवं विदेशी सरमायेदारों की चाकरी के लिए उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की व्यवस्था को शुरू किए 20 साल पूरे हो गये। अर्थव्यवस्था की तथाकथित उदारता के दौर में पेश किए गए बजटों की श्रृंखला में यह 21वाँ बजट है। बजट के दिन तीन महीनों से गिरते चले आ रहे सेंसेक्स और निफ्टी ने उछल-उछल कर बजट को सलामी दी और उसके अगले दिन तो यह दोनों खूब उछले। अब यह फिर गिरने लगे हैं। उनके उछाल ने यह संदेश दे दिया कि बजट एक बार फिर देशी और विदेशी पूंजी के हितों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है।

अगले दिन पूंजी नियंत्रित कई समाचार-पत्रों पर नजर दौड़ाई। लगभग सभी के मुखपृष्ट पर अर्थव्यवस्था के ‘समाजवाद’ से ‘पूंजीवाद’ में संक्रमण के बीस साल पूरे होने की खुशी स्पष्ट और जोरदार तरीके से दिखाई दी। स्पष्ट जिक्र किया गया है कि 20 सालों पहले जब मनमोहन सिंह वित्तमंत्री बने थे तब भारत के पास विदेशी मुद्रा केवल इतनी थी कि दो सप्ताह के आयात का भुगतान किया जा सके जबकि आज 300 बिलियन अमरीकी डॉलर के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है। तब श्वेत-श्याम टीवी के नाम पर केवल ‘उबाऊ’ दूरदर्शन था आज रंगीन डिजीटल टीवी सेट के साथ सेटटॉप बॉक्स के जरिये सैकड़ों चैनेलों में से किसी एक को देखने का विकल्प है। तब पिता या भाई की मृत्यु का समाचार कोना कटे पोस्टकार्ड अथवा तार से मिलने में हफ्ते से अधिक वक्त लग जाता था आज 2-जी और 3-जी के जरिये हजारों कि.मी. दूर बैठा आदमी अपने पिता के मरने के ‘लाइव’ और रियल टाईम दृश्य देख सकता है और मरते हुए पिता को अपने आंसू दिखा सकता है। यह बात दीगर है कि इस अवधि में वास्तव में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वालों की तादाद - संख्या और प्रतिशत दोनों में काफी बढ़ गयी है।

ये दो जयघोष काफी कुछ कह गये, यानी बजट उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण की प्रक्रिया को और तेजी से आगे बढ़ाने के लिए केन्द्रित है, आम जनता महंगाई, बेरोजगारी सहित तमाम आक्रमणों के लिए तैयार रहे। कहीं जिक्र नहीं दिखाई दिया 880 मिलियन उन आदमियों का जो आज भी बीस रूपये या इससे भी कम पर यानी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर करने को विवश है। ध्यान दीजिएगा कि 880 मिलियन को अपनी भाषा में भी लिखा जा सकता है परन्तु आज-कल ईकाई-दहाई-सैकड़ा-हजार-लाख-करोड़-अरब........... शंख-नील सब छुद्र हो गये हैं, बाते मिलियन, बिलियन, ट्रिलियन लगती हैं औकात वाली। 1.1 बिलियन भारतीय आबादी में 880 मिलियन औकात रखता है। सरकार बना और बिगाड़ सकता है अगर जाति-धर्म और क्षेत्रीयता की संकीर्णता के मकड़जाल में फंसा हुआ न हो।

वित्तमंत्री ने अपने बजट भाषण की शुरूआत में ही विकास दर को दो गिनतियों यानी दस से निन्यानवे प्रतिशत के क्षेत्र में शीघ्र ही पहुंचने की बात कही। मनमोहन सिंह बता ही चुके हैं कि विकास दर और महंगाई के बीच ककड़ी और पानी जैसा रिश्ता है। भरपूर पानी मिलने पर जिस तरह ककड़ी की बित्त भर की बतिया रात भर में हाथ भर की ककड़ी हो जाती है उसी तरह विकास-दर दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती है महंगाई को भरपूर बढ़ा कर। जान लेवा महंगाई पर उन्होंने चिन्ता इस लहजे में जाहिर की मानो प्रकृति की वर्षा और बाढ़ जैसी कोई मार हो जिसमें सरकार के लिए कुछ करने और सोचने को ज्यादा होता नहीं है। यानी बजट महंगाई को और बढ़ायेगा।

उल्लेख जरूरी होगा कि सरकार के आंकड़ों के अनुसार विकास दर बढ़ाने के प्रयास में बढ़ाई गयी महंगाई के कारण सन 1990 का बीस हजार रूपया आज के दो लाख रूपयों के बराबर हो चुका है। सरकारी आंकड़े कितने सत्य होते हैं? यह हम सभी जानते हैं। आंकड़े ढूंढ़ने होंगे कि सन 1991 में गरीबी रेखा कितने रूपये प्रतिदिन पर मानी जाती थीऔर आज कितने रूपयों पर। क्या उसमें विकास दर का कोई अनुपात है अथवा नहीं।

कुछ ऐसे समाचार भी बजट से निकलते हैं। अस्पतालों एवं होटल के बिल अब 5 प्रतिशत महंगे हो जायेंगे क्योंकि उन पर सेवा कर लगेगा। सरकार खुद के अस्पतालों को धीरे-धीरे खत्म कर रही है। फ्री इलाज तो भूल जाइये, इलाज के लिए अब ज्यादा पैसे देने के लिए तैयार रहिये। 130 उत्पादों पर से उत्पाद कर की छूट वापस ले ली गयी है जिसके कारण टूथ पाउडर, टूथ पेस्ट, चश्में, लेंस, साईकिल, सिलाई मशीन, पेन, पेंसिल जैसी तमाम चीजें महंगी हो जायेंगी। कुछ अन्य उत्पादों पर उत्पाद कर की दर 4 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत कर देने के कारण चीनी, टॉफी, चाकलेट, बिस्कुट, पेस्ट्री, केक, कागज, दवाईयां और इलाज महंगे हो जायेंगे। जीवन बीमा की किश्तों पर सेवाकर लग जाने के कारण अब ज्यादा प्रीमियम देना होगा और हर साल मिलने वाला लाभांश कम हो जायेगा। कुछ अन्य प्राविधानों के कारण परचून की दुकान का बिल लगभग 5 प्रतिशत तो बढ़ ही जायेगा।

सीमेंन्ट पर उत्पाद कर को बढ़ा कर रू. 160.00 प्रति टन कर देने का बहाना सीमेन्ट कंपनियों को मिल गया है और बजट के दिन ही सीमेन्ट कंपनियों ने पांच रूपये प्रति बैग दाम बढ़ने की आशंका जता दी।

आंगनबाड़ी कार्यकात्रियों के वेतन को रू. 1500.00 से रू. 3,000.00 करने तथा आंगनबाड़ी सहायकों के वेतन को रू. 750.00 से रू. 1500.00 करने की बात अवश्य स्वागत योग्य है। परन्तु यह राशि अभी भी न्यूनतम मजदूरी से बेइंतिहा कम है और इन लोगों पर अत्याचार है। इसमें तथा इसी जैसे अन्य असंगठित क्षेत्र के कर्मियों के वेतन में बढ़ोतरी के लिए संघर्ष को और सघन करना होगा।

सरकार ने मनरेगा के अंतर्गत ग्रामीण मजदूरों को देय मजदूरी को महंगाई के साथ जोड़ने (इंडेक्सिंग) की बात की है लेकिन पिछले साल मनरेगा के अंतर्गत उपलब्ध कराये गये 40,000 करोड़ रूपये की राशि में केवल 100 करोड़ रूपये की बढ़ोतरी सरकार की मंशा पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। एक तो मनरेगा का लाभ गरीबी रेखा के नीचे की शत-प्रति-शत आबादी को मिल नहीं पा रहा है और अगर इंडेक्सिंग की जानी है तो इस राशि में कम से कम 4,000 करोड़ रूपये की बढ़ोतरी की जानी चाहिए थी।

वित्तमंत्री ने पेट्रोलियम पदार्थों, खाद तथा खाद्यान्न पर दी जाने वाली सब्सिडी को नगद देने का ऐलान किया है लेकिन उन्होंने खुद स्वीकार किया कि इसे अगले साल यानी 2012-13 के पहले लागू नहीं किया जा सकता। उन्होंने दी जाने वाली सभी सब्सिडी के लिए प्राविधानों को काफी कम कर दिया है। जैसे पेट्रोलियम पदार्थों - मिट्टी का तेल, एलपीजी आदि पर दी जानी सब्सिडी के लिए राशि को 15000 करोड़ रूपये से अधिक कम कर दिया है। जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार के कच्चे तेल की कीमतें आसमान छू रहीं हैं, तो सरकार इस घटी हुई राशि से जनता को कैसे राहत देना चाहती है, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है। निश्चित रूप से लोगों को इसकी बढ़ी हुई कीमतें अदा करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

खाद्यान्नों पर दी जाने वाली सब्सिडी की राशि को भी कम कर वित्तमंत्री ने स्पष्ट बता दिया है कि सोनिया की अध्यक्षता वाली जिस राष्ट्रीय सलाहकार परिषद द्वारा जिस खाद्य सुरक्षा कानून का ढोल काफी दिनों से पीटा जा रहा है, उसे एक साल अभी लागू करने का कोई इरादा नहीं है।

वित्तमंत्री ने किसानों को उनके उत्पादों के लिए मिलने वाले अलाभकारी मूल्यों तथा बाजार में उन उत्पादों की उच्च कीमतों की तो चर्चा की लेकिन किसानों को लाभकारी मूल्यों को मुहैया कराने के बारे में वे चुप हैं। उन्होंने छोटी अवधि के लिए फसली ऋणों की समय से अदायगी पर एक प्रतिशत ब्याज का अनुदान देने की तो घोषणा की और ब्याज दर को 4 प्रतिशत होने का दावा भी किया परन्तु जब किसानों को समय से पैसा मिलना सुनिश्चित नहीं होगा तो वे ऋण समय से अदा करेंगे कैसे? यह सवाल अभी भी बरकरार है। ज्ञातव्य हो कि गन्ना जैसी फसलों को उगाने वाले किसान का पैसा लम्बे समय तक चीनी मिल मालिक दबाये बैठे रहते हैं और तमाम फसलों के बाजार में आने पर उसके मूल्य बइंतिहा कम होने के कारण किसान दाम बढ़ने की आस में अपना अनाज थोड़े दिनों तक रोकना चाहता है।

किसानों का कोई और चर्चा लायक मुद्दा बजट में नहीं दिखाई दिया। किसानों को अपने उत्पादों के लाभकारी मूल्यों तथा अन्य सुविधाओं के लिए संघर्ष तेज करना होगा।

वित्तमंत्री ने बीमा क्षेत्र में 49 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति देने, विदेशी संस्थागत निवेशकों को बैंकों में मतदान का अधिकार देने सहित वित्तीय क्षेत्रों से संबंधित लंबित 7 बिलों को पारित करने का इरादा जता दिया और नए बैंक खोलने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक को लाईसेन्स देने को कहा। यह सभी कदम प्रतिगामी होंगे। यह पूंजी को जन सामान्य की बहुमूल्य बचत से मुनाफा कमाने का अवसर देगा। राष्ट्रीयकरण के पहले और उसके बाद हमने निजी बैंकों के साथ उनमें जमा जनता के धन को डूबते देखा है। जनता को इन निजी बैंकों से न केवल होशियार रहना होगा बल्कि इनसे अपनी दूरी बनाये रखनी होगी। वित्तमंत्री ने यह इरादा भी साफ किया कि बैंकिंग सेवाओं को दूरस्थ ग्रामीण अंचलों में बैंक कर्मचारियों के जरिये न पहुंचा कर कारपोरेट घरानों सहित सभी प्रकार के निजी व्यावसायिक सहायकों की आउटसोर्सिंग के द्वारा होगी। यानी रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के बजाय कम किया जायेगा।

बजट में घोषित इन उपायों को अमली जामा पहनाने के लिए जरूरी होगा कि सरकार भाजपा से हाथ मिलाकर संसद में संबंधित विधेयकों को पारित कराये। हाथ मिलाने में दोनों को कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि दोनों के रास्ते एक ही हैं। दोनों अपने अमरीकी आकाओं के हुक्म की तामील ही तो करते रहे हैं।

सहकारी बैंकों की उपेक्षा की गयी है तथा सहकारिता आन्दोलन के बारे में कोई घोषणा नहीं की गयी है। सहकारी समितियों और बैंकों को आयकर से मुक्त करने की बात नहीं मानी गयी है जबकि कारपोरेट घरानों को आयकर से छूट दी गयी है। यह समितियां एवं बैंक अगर एक रूपये का भी मुनाफा कमाते हैं तो उन्हें आयकर देना होगा।

बैंकों द्वारा दिये जाने वाले प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को ऋणों का लक्ष्य प्राप्त कराने के लिए पच्चीस लाख रूपये तक के गृह ऋण को प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र में वर्गीकृत करने की बात कही गयी है। एक तरह से कृषि, कारीगरों, छोटे उद्यमियों, छोटे दुकानदारों तथा अन्य छोटे स्तर के सेवा प्रदाताओं को इसके कारण बैंकों से ऋण मिलना कम होगा।

वित्तमंत्री ने सार्वजनिक क्षेत्र में रू. 40,000 हजार करोड़ के विनिवेश द्वारा वित्तीय घाटे को कम करने की कोशिश की है। इन बीस वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र के तमाम उद्यमों का निजीकरण किया जा चुका है। सरकार को इनसे मिलने वाले लाभांश की राशि में भी लगातार गिरावट दिखाई नहीं दे रही है।

शहर में मध्यमवर्गीय कर्मचारियों की संख्या ज्यादा होती है या फिर छोटे व्यापारियों की। बेचारों को इंकम टैक्स देना खलता है। छोटे-मोटे व्यापारी तो खर्चा-वर्चा दिखाकर और कुछ खर्च-वर्च करके कुछ बचा लेते हैं, इस कर्मचारी वर्ग के पास विकल्प ही नहीं हैं। सरकारी कर्मचारी हुआ तो ऊपरी आमदनी टैक्स देने से बच जाती है। बैंक, बीमा, शिक्षक, डिफेन्स जैसे सूखे क्षेत्र वालों के पास तो वह विकल्प भी नहीं है। हर साल 28 फरवरी को मुंह बाये बजट-बजट बतियाते रहते हैं फिर सिर धुनकर बैठ जाते हैं कि कुछ बचा नहीं। आयकर मुक्त आमदनी की सीमा में पुरूषों के लिए कुछ बढ़ोतरी की गयी है, महिलाओं को तो उससे भी महरूम रखा गया है। वरिष्ठ नागरिकों को कुछ छूट अवश्य दी गयी है। समाचार माध्यमों में छपा कि रू. 1,030.00 से लेकर रू. 26,780 तक की बचत होगी। रू. 1,030.00 तो समझ में आया लेकिन रू. 26,780.00 का आयकर कितनों का बचेगा, यह समझ में नहीं आया। रू. 1,030.00 का मतलब रू. 2.82 रोज। आयकर की सीमा में बढ़ोतरी दो साल बाद हुई है। इन दो सालों में महंगाई बढ़ने पर जो महंगाई भत्ता पा-पाकर संतोष कर रहे थे, वे अगर गणना करें तो पायेंगे कि इस बचत के बाद भी उनकी क्रयशक्ति में भारी गिरावट आयी है। दो साल पहले वे जितना खरीद सकते थे, आज वे उतना नहीं खरीद सकते। जो भविष्य निधि आज बचा-बचा कर रख रहे हैं, सेवानिवृत्त होने पर उसकी क्रयशक्ति भी बहुत कम हो चुकी होगी।

इसके उलट देशी कारपोरेट घरानों की एक करोड़ से अधिक आय पर लगने वाले सरचार्ज को साढ़े सात प्रतिशत से घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया है। विदेशी कारपोरेट घरानों को तो यह सरचार्ज केवल 2 प्रतिशत की दर से देना होगा। विदेशी सहयोगी कंपनियों से मिलने वाली लाभांश आय पर आयकर को घटाकर 16.22 प्रतिशत कर दिया गया है। कुछ छोटे सरमायेदारों पर थोड़ी सी गाज गिराई गयी है। न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) को लाभ के 18 प्रतिशत से बढ़ाकर 18.5 प्रतिशत कर दिया गया है। सेज़ में काम कर रही कंपनियों को भी अब न्यूनतम वैकल्पिक कर (मैट) देना होगा। यह स्वागत योग्य है और उनसे पूरा आयकर लेने की मांग की जानी चाहिए।

भ्रष्टाचार और काले धन के बारे में वित्तमंत्री ने मंत्रियों के ग्रुप को दी गयी जिम्मेदारी का संदर्भ ही दिया है। यानी आने वाले दिनों में भी भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और काले धन की बरामदी/जब्ती होने वाली नहीं है।

बजट के निहितार्थ यही हैं कि जनता पर - मजदूर वर्ग पर और किसानों पर आने वाले दिनों में आर्थिक हमले और तेज होंगे और जनता के पैसे की लूट देशी और विदेशी दोनों तरह की ‘पूंजी’ करती रहेगा। रोजगारों की कोई संभावना नहीं है। असंगठित क्षेत्र का शोषण जारी रहेगा। संगठित क्षेत्र में सेवा सुरक्षा को खतरा बढ़ेगा। बेरोजगारी बढ़ेगी।

इन हमलों से निजात पाने के लिए मजदूर वर्ग और किसानों को अपने वर्गीय संगठनों में अपनी एकजुटता को बढ़ाना होगा, दमन और अत्याचार के खिलाफ अपने संघर्षों को धार देनी होगी। देश में मिस्र और ट्यूनीशिया की तरह विकराल जंगी प्रदर्शनों और आम हड़तालों को आयोजित करना होगा।

ऐसे हालातों में हमें जनता के तमाम तबकों को वर्गीय चेतना से लैस करने के उत्तरदायित्व को तेजी से अमली जामा पहनाना होगा।

- प्रदीप तिवारी
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