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मध्य प्रदेश के प्रगतिशील लेखक संघ का महासचिव होने के नाते मेरा अनेक इकाइयों में जाना हुआ। हर जगह छोटे-बड़े अनेक साहित्यकार उनसे अपने परिचय का जिक्र करते। मुझे देखने का तो मौका नहीं मिला लेकिन कुमार अंबुज, हरिओम, योगेश वगैरह से कितनी ही बार जाना कि उन्होंने संगठनकर्ता के नाते कितनी ही असुविधाजनक यात्राएं कीं। कहीं से इकाई बनाने का संकेत मिलते ही शनिवार-रविवार की छुट्टी में चल देते। रिजर्वेशन तो दूर की बात, सीट न मिलने पर घंटों खड़े रहकर भी संगठन के विस्तार की चाह में दूर-दूर दौड़े जाते थे। वे अपना वैचारिक और सांगठनिक गुरू परसाई जी को कहा करते थे और उन्होंने अपने गुरू के नाम और काम को आगे ही बढ़Þाया। नामवर जी से लेकर होशंगाबाद के गोपीकांत घोष तक उन्हें कमांडर कहते थे। कार्यक्रम की योजना वे कमांडर की ही तरह बनाते भी थे और फिर एक साधारण कार्यकर्ता की तरह काम में हिस्सा भी बंटाते थे, लेकिन कभी शायद ही किसी ने उन्हें आदेशात्मक भाषा में बात करते सुना हो। उल्टे हम कुछ साथियों को तो कई बार कुछ अयोग्य व्यक्तियों के प्रति उनकी उतनी विनम्रता भी बर्दाश्त नहीं होती थी। लेकिन सांस्कृतिक संगठन बनाने का काम तुनकमिजाजी और अक्खड़पन से नहीं, बल्कि तर्क, विनय और दृढ़ता के योग से बनता है, यह सीख हमने उनके काम को देखते-देखते हासिल की। उनको याद करते हुए राजेन्द्र शर्मा की याद न आए, मुमकिन ही नहीं। राजेन्द्र शर्मा ने जैसे उनके काम में जितना हो सके उतना हिस्सा बंटाने को ही अपना मिशन बना लिया था।
कमला प्रसाद की प्रतिष्ठा आलोचक के रूप में, लेखक व संपादक के रूप में खूब रही है। लेकिन मेरा मानना है कि उन्होंने सांगठनिक कार्य का चयन अपनी प्राथमिकता के तौर पर कर लिया था और इसलिए अपनी लेखकीय क्षमताओं के भरपूर दोहन के बारे में वे बहुत सजग कभी नहीं रहे। उनका अपना लेखन, किसी हद तक पठन-पाठन भी, संगठन के रोज के कामों के चलते किसी न किसी तरह प्रभावित होता ही था। फिर भी उन्होंने खूब लिखा। 'वसुधा' में उनके संपादकीय तो अनेक रचनाकारों के लिए राजनीतिक व संस्कृतिकर्म के रिश्तों की बुनियादी शिक्षा, और अनेक के लिए रचनात्मक असहमति व लेखन के लिए उकसावा भी हुआ करते थे। लेकिन वे ऐसे लोगों की बिरादरी में थे, जिन्होंने संगठन के लिए, और नए रचनाकार तैयार करने के लिए अपने खुद के लेखक की महत्त्वाकांक्षा को कहीं पीछे छोड़ दिया था।
प्रगतिशील लेखक संगठन का देश भर में विस्तार। पहले हिन्दी क्षेत्र में संगठन को एक साथ सक्रिय करना, फिर उर्दू के लेखकों से संपर्क और हिन्दी-उर्दू की प्रगतिशील ताकतों को इकट्ठा करना, फिर कश्मीर में, उत्तर-पूर्व में, बंगाल में और दक्षिण भारत में संगठन का आधार तैयार करना, और फिर समान विचार वाले संगठनों से भी संवाद कायम करना, इस सबके साथ-साथ 'वसुधा' का संपादन। दरअसल इतना काम आदमी तब ही कर सकता है, जब उसके सामने एक बड़ा लक्ष्य हो। यह एक बड़े विजन वाले व्यक्ति की कार्यपद्धति थी। अभी एक महीना पहले जब कालीकट, केरल में हम लोग राष्ट्रीय कार्य परिषद की बैठक में साथ में थे, तभी देश भर से आए संगठन के प्रतिनिधियों ने बेहद प्यार और सम्मान के साथ उनका 75वां जन्मदिन वहीं सामूहिक रूप से मनाया था। कैंसर का असर उनके शरीर पर भले ही दिखने लगा था, लेकिन कैंसर उनके मन पर बिल्कुल बेअसर था। वहां बैठक में और बाद में केरल से भोपाल तक के सफर के दौरान उनके पास ढेर सारे सांगठनिक कामों की फेहरिस्त थी, ढेर सारी योजनाएं थीं। सांप्रदायिक और साम्राज्यवादी ताकतों से अपने सांस्कृतिक औजारों से किस तरह मुकाबला किया जाए, किस तरह हम समाजवादी दुनिया के निर्माण में एक ईंट लगाने की अपनी भूमिका ठीक से निभा सकें, यह सोचते उनका मन कभी थकता नहीं था।
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