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सोमवार, 31 मई 2010
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अखिल भारतीय हड़ताल की तैयारी करो - 15 जुलाई को दिल्ली में राष्ट्रीय कनवेंशन होगा
डा. जी. संजीव रेड्डी, सांसद की अध्यक्षता में गत 5 मई को सम्पन्न केन्द्रीय टेªड यूनियनों के प्रतिनिधियों की संयुक्त बैठक में समस्याओं से ग्रस्त दुखी मेहनतकश आवाम की मुसीबतों का समाधान कर पाने में सरकार के निकम्मेपन पर गंभीर चिंता प्रकट की गयी। केन्द्रीय मजदूर संगठनों ने पहले से ही बेलगाम महंगाई, श्रम कानूनों के उल्लंघन, रोजगार के हो रहे लगातार नुकसान, सार्वजनिक क्षेत्रों में सरकारी पूंजी का विनिवेश और असंगठित मजदूरों के लिये राष्ट्रीय कोष निर्माण करने में सरकारी विफलता के खिलाफ संयुक्त आंदोलन छेड़ रखा है।केन्द्रीय मजदूर संगठन फिर से दोहराता है कि वे इस आंदोलन को और भी तेज करेंगे। केन्द्रीय टेªड यूनियनों के शीर्ष नेताओं ने सरकारी नीति के खिलाफ, जिसने श्रमजीवियों का जीवन बदहाल कर दिया है, मजदूर जमात का गुस्सा जाहिर करने के लिये अखिल भारतीय हड़ताल की तैयारी करने का निश्चय किया है। इस जबर्दस्त औद्योगिक कार्रवाई की तैयारी के लिये केन्द्रीय टेªड यूनियनों ने एक राष्ट्रीय कनवेंशन 15 जुलाई 2010 को दिल्ली में आयोजित करना तय किया है। इसी राष्ट्रीय कनवेंशन में आगामी अखिल भारतीय हड़ताल की तारीख तय की जायेगी। राष्ट्रीय कनवेंशन में अखिल भारतीय हड़ताल को सफल करने के लिये राज्य स्तर पर किये जाने वाले आंदोलनों के अन्य तरीकों के कार्यक्रम की घोषणा की जायगी।केन्द्रीय टेªड यूनियनें अपनी सभी राज्य इकाइयों तथा फेडरेशनों से अनुरोध करते हैं कि वे पूरी तरह संयुक्त संघर्ष की तैयारी में लग जायेंबैठक के बाद एक प्रेस बयान जारी किया गया। प्रेस बयान पर भामस के सुब्बाराव, इंटक अध्यक्ष डा. जी. संजीव रेड्डी, एटक महासचिव गुरूदास दास गुप्त, एक्टू सचिव राजीव डीमरी, यूटीयूसी के अबनी राय, सीटू, हिमस, एआईयूटक, टीयूसी के प्रतिनिधयों ने हस्ताक्षर किये हैं।
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at 10:20 am | 0 comments |
बड़े उद्योगपतियों ने बैंकों के दबाए एक लाख करोड़
जमशेदपुर: सरकारी बैंकों ने पिछले दस साल में बड़े उद्योगपतियों और व्यावसायिक घरानों के एक लाख करोड रुपए से अधिक के ऋण को बट्टे खाते में डाल दिया है। आल इंडिया बैंक एम्पलाइज संघ के महासचिव सीएच वेंकटचलम ने बताया कि सरकार की गलत बैंकिंग नीतियों के कारण करोड़ों आम लोगअब भी बैंकिंग सुविधाओं से वंचित है।उन्होंने कहा कि रोजगार पैदा करने वाले छोटे और मझोले उद्योगों को ऋण नहीं मिल पा रहा जबकि हर साल लगभग 14 से 15 हजार करोड़ रुपए का ‘बैड लोन’ राइट ऑफ कर (बट्टे खाते में डाल) दिया जा रहा है जिसमें से एक बड़ा हिस्सा बड़े उद्योगों और व्यावसायिक घरानों का है।वेंकटचलम ने कहा कि एक तरफ तो छोटे-छोटे ऋण की वसूली के लिए आम लोगों को तुरन्त नोटिस जारी कर उनकी संपत्ति तक जब्त कर ली जा रही है वहीं जानबूझकर ऋण नहीं देने वाले उद्योगपतियों को बचाने के लिए बैंक प्रबंधन और नौकरशाहों की मिलीभगत से ऋण पुनर्सरचना जैसी सुविधा भी दी जा रही है। इस पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। उन्होंने सरकार से बैंकिंग नीति को जन केन्द्रित बनाने की मांग करते हुए निजी बैंकों के भी सरकारीकरण, कृषि आधारभूत संरचना तथा छोटे उद्योगों आदि को अधिक से अधिक ऋण मुहैया कराने की जरूरत बताई। वेंकटचलम ने बैंकों के एकीकरण के बजाय इनके विस्तारीकरण पर बल देते हुए कहा कि सुदूरवर्ती क्षेत्रों में अधिक सेअधिक बैंक खुलने चाहिए।उन्होंने अफसोस जताते हुए कहा कि आज भी देश के 54 करोड़ लोगों के पास खाते नहीं है तथा 88 फीसद लोगों को ऋण सुविधा नहीं है। कृषि जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र की मात्र 30 फीसद ऋण जरूरतेें ही सरकारी बैंक पूरा करते हैं।
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at 10:16 am | 0 comments | डॉ. कमलानन्द झा
शिकम की आग लिए फिर रहे है शहर-ब-शहर
मैं मुहाजिर नहीं हूं
(उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
सुनील साहित्य सदन
नई दिल्ली-2
मूल्य: 150/- रुपये
बादहशाह रिजवी का ताजा उपन्यास ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ विभाजन की गहरी पीड़ा और चुभते दंश की सरल-सहज अभिव्यक्ति है। अविभाज्य हिंदुस्तान के कथा नायक शमीम, लाहौर में रेलवे के बड़े अधिकारी हैं। 14 अगस्त 1947 की उस मनहूस रात को उन्हें ज्ञात होता है कि वे हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान में हैं। बस्ती के एक छोटे से गावं हिल्लौर वासी रेलवे अधिकारी शमीमुल हसन रिज़वी उर्फ शमीम से एक बार यह पूछने की ज़रूरत भी महसूस नहीं की जाती हैं कि वे हिंदुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में। इस विकल्प विहीनता की स्थिति में पाकिस्तान छोड़ने का मतलब था नौकरी से हाथ धो बैठना। दिल पर पत्थर रखकर शमीम लाहौर में रह जाते हैं किंतु उनका ‘सब कुछ’ बस्ती के उस छोटे-से गांव हिल्लौर में ही छूट जाता है। ‘सब कुछ’ का मलतब उनका अपना घर-परिवार, दोस्त, हिल्लौर की आबोहवा, वहां की खूबसूरती-बदसूरती, अच्छाई-बुराई, मन की भावनाएं, प्रेम, ईर्ष्या, सुख, दुख... सब कुछ। विभाजन की त्रासदी परशोध कर रहे शोधार्थी को अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए शमीम कहते हैं, “वक्त और लीडरों की सियासत ने मुझ जैसे बहुत सारे लोगों को उनके मां-बाप, भाई-बहन, पत्नियों, तमाम रिश्तेदारों से, उनकी अपनी सरज़मी से अलग कर दिया। मेरी ही मिसाल ले सकते हो, पैसे रहते हुए भी मैं अपने घरवालों के लिए कुछ नहीं कर सकता था। जब-जब उनके बारे में सोचता दिल कट के रह जाता। मां-बाप बड़ी लावारिसी की जिंदगी गुजार के इस दुनिया से गुजर गए। मैं इतना बदनसीब था कि बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल तो दूर, उनका आखिरी दीदार भी नहीं कर सका।”वर्षो बाद कथानायक शमीम अपने नाती के साथ हिल्लौर आते हैं। पूरे उपन्यास में शमीम कभी विगत यादों में खो-से जाते हैं, कभी लंबे अंतराल में हुए परिवर्तन को छोटे बच्चे की तरह चकित-भाव से देखते हैं। उपन्यास में शमीम वह बाइस्कोप हैं जहां से पूरे हिल्लौर के विगत और वर्तमान को देखा जाता है।उपन्यासकार हुसैन रिजवी की स्पष्ट धारणा है कि ‘विभाजन के पीछे अपने ही देसी लीडरों का हाथ था।’ मजे की बात तो यह है कि इन लीडरों ने कौम को दो हिस्सों में बांट दिया और देशभक्ति का खिताब भी पाया। विभाजन के समय आबादी की अदला-बदली की मुहिम जोर पकड़ती चली गई, आजाद हिंदुस्तान में इस मुहिम ने नई शक्लें अख्तियार कर लीं। सांप्रदायिक ताकतों ने अपनी-अपनी कौमें बांट लीं। स्वयं तय कर लिया कि हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और मुस्लिम लीग तथा जमात-ए-इस्लामी मुस्लिम समुदाय का। जिन्हें यह बंटवारा पसंद नहीं था वे राजेश जोशी के शब्दों में ‘मारे जायेंगे, मारे भी गए। आश्चर्य तो यह कि बंटवारे की एवज में इन दलों को महिमामंडित भी किया गया।‘मैं मुहाजिर नहीं’ गंगा-जमुना संस्कृति को अधिक से अधिक पुख्ता करने की नीयत से लिखा गया उपन्यास है। यह ठीक है कि औपन्यासिक कला की दृष्टि से यह उपन्यास वह ऊंचाई प्राप्त नहीं कर पाता है जिसमें झूठा-सच, तमस, ‘सत्ती मैया का चौरा’ और‘आधा-गांव’ आदि उपन्यासों को शामिल किया जाता है किन्तु यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम एकता और सह-संबंध की डोर मजबूत तो करता ही है साथ ही, अद्भुत रूप से आम पाठकों को कनविंस भी करता है। उपन्यासकार इस संबंध की संवेदनशीलता को उद्घाटित करने के लिए हिंदू घर में एक विवाह का दृश्य खींचता है। उस ‘बरहमन’ के यहां शादी में घारातियों और बरातियों में कई मुसलमान थे और वो भी अपनी पूरी पहचान के साथ। कथा नायक शमीम इस संस्कृति पर रीझकर नाज करते हुए कहते हैं, “नुसरत यही है हिंदुस्तान की असली पहचान। जिस पर कभी आंच नहीं आ सकती। जमाना जो भी कर ले। इस पर जितना भी नाज किया जाए कम है।” आगे मुहर्रम के दृश्यों के बहाने तो मीरा बाबा की प्रकृति के बहाने उपन्यासकार ने इस मिली-जुली अनूठी संस्कृति को अत्यंत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत किया है।उपन्यास मुस्लिम समाज में व्याप्त आंधविश्वास, पिछड़ेपन, अशिक्षा और परंपरावादिता की तीखी आलोचना करता चलता है। इस अंधविश्वास की जड़ की तलाश करते हुए उपन्यासकार इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि “दरअसल हम लोगों को ‘इल्यूजन’ में रहना ज्यादा अच्छा लगता है और यही आधार है, मिथकों के जिंदा रहने का।” इस ‘इल्यूजन’ या भ्रम के शिकार अशिक्षित मुसलमान ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे और विदेशों में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले मुसलमान भी हो जाते हैं। वास्तव में मुस्लिम समाज के विकास में यह ‘इल्यूजन’ बाधक के रूप में हाजिर होता है।इस उपन्यास ने एक और अमरीका की दहशतगर्दी और दूसरी ओर उच्च मुस्लिम समाज का अमरीकी संस्कृति के प्रति बढ़ते मोह के अंतर्द्वद्व को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिस ‘कॉमेंट्री शैली’ में अमेरिका के साम्राज्यवादी कूटनीतिक षड़यंत्र का पर्दाफाश उपन्यासकार ने किया है, वह गौर-तलब है- ”इजरायल जैसा दहशतगर्द मुल्क, जो एटमी हथियारों से लैस है, उसकी बेशर्मी की हद तक हिमायत कर रहा है और मोहलिक (घातक) हथियारों को तलाश करने का बेबुनियाद बहाना बनाकर अपने हिमायती मुल्कों की फौज के साथ इराक पर हमला करके पूरे इराक को गड्ढे में तब्दील कर दिया। खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली।“ इत्तफाक ही है कि इस उपन्यास के प्रकाशन वर्ष (2009) में ही शुएब मंसूर निर्मित-निर्देशित पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ में इस एकतरफा रोमांचकारी जंग को अद्भुत प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है। यह फिल्म मुस्लिम आतंकवाद, धार्मिक फिरकापरस्ती पर तीखी टिप्पणी भी प्रस्तुत करती हैं फिल्म को दो टूक संवाद ‘दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं’ मुस्लिम समाज से आत्मलोचन की मांग करता है। रिजवी साहब का उपन्यास भी इस आत्मलोचन के दौर से गुजरता है - ”मजहबी कट्टरपंथी तालिबानी निजाम कायम करना चाहते हैं। फौज की सरपरस्ती में दहशगर्दी के सैकड़ों कैंपों में खुदकुश बमबारों और दहशतगर्दी के टेªनिंग कैंप चल रहे हैं। 9/11 की दुर्घटना के बाद से अमरीका मुस्लिम मात्र को आंतकवादी ही नहीं समझता है बल्कि सिर्फ संदेह की बिना पर घोर यातना भी देता रहा हैं। ‘खुदा के लिए’ ने इस भयानक यातना का अत्यंत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। संगीत प्रेमी मंसूर अमरीका में संगीत का प्रशिक्षण ले रहा होता है, अचानक अमरीकी सरकार द्वारा ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ का शिकार हो जाता है। उसे गैर औपचारिक रूप से उठा लिया जाता है और महीनों कैद में असहनीय यातनाएं दी जाती है। ‘मैं मुहाजिर नहीं’ अमरीका की दादागिरी की पोल को परत-दर-परत उधेड़ता चलता है। इस लिहाज से उपन्यासकार की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी गौर करने लायक है। “दुनिया का सबसे बड़ा दहशतगर्द चला है दुनिया से दहशतगर्दी मिटाने“ वाकई ‘सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’ मुहावरा अमरीका पर सौ फीसदी सहीबैठता है।युवा इस्लामिक पीढ़ी पर अमरीकी संस्कृति की सेंध की जायज चिंता लेखक को हैं, इस ‘हाईब्रिड संस्कृति’ को लेखक ‘इस्लाम मेड इन अमेरिका’ की संज्ञा देते हैं। गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो इसमंे इस्लाम के अंतर्राष्टीªय संगठन और उसकी विचारधारा (पान- इस्लामिज्म) भी कम दोषी नहीं है। पाकिस्तान के लोकप्रिय पत्र ‘हेराल्ड’ (करांची, जनवरी 1996) में एस। अकबर की चिंता उपन्यासकार की चिंता से मिल जाती है जब वे लिखते हैं कि ”पाकिस्तान के शहरी मध्य वर्ग में उर्दू का चलन बहुत कम रह गया है। आश्चर्य यह है कि पढ़ा-लिखा एक तबका एक वाक्य भी बिना अंग्रेजी शब्दों के सहारे नहीं बोल सकता है। उसने स्वयं को अपने अतीत से बिल्कुल अलग कर लिया है। पाकिस्तान बनने के बाद वहां का शहरी मध्य वर्ग, अमेरिका में अपना भविष्य खोजता रहा है।“उपन्यास की सबसे बड़ी सीमा यह है कि लेखक विषय-वस्तु को उचित कथात्मकता प्रदान नहीं कर पाये। डाक्यूमंेट्री की तरह उपन्यास आगे बढ़ता है। अच्छे उपन्यास लेखन के लिए जिस व्यापक औपन्यासिक ‘विजन’ की आवश्यकता होती है उसका अभाव इस उपन्यास में स्पष्ट देखने को मिलता है। रिजवी के वैचारिक आग्रह कथा में कला की दृष्टि से गंुफित नहीं हो पाये हैं। यह उपन्यास एक सामाजिक स्टेटमंेट की तरह है जो भारतीय समाज मेंधर्मनिरपेक्ष संभावनाएं पैदा करना चाहता है। यह उपेदशात्मक अधिक रचनात्मक कम बना पाया है। इसमें दो राय नहीं कि उपन्यासकार का उद्देश्य एकधर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना है। भाषा की दृष्टि से इसमें सहज, सरल उर्दू का प्रयोग किया गया है। जहां कहीं कठिन उर्दू के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वहां कोष्ठक में हिंदी का समानार्थी शब्द प्रयुक्त हुआ है। उपन्यास में कहीं-कहीं उत्तर प्रदेश की बोलियों का प्रयेाग सुखकर लगता है- “अरे काका आप! दिल्ली कब अवा गय रहा। उत्तर के हमारा इंहा आवैक लगा रहत है। अच्छा, ई बताई कमवा भवा?” उत्तर भारत के मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज को जानने-समझने में यह उपन्यास काफी कारगर है। क्योंकि सामान्यतया मुस्लिम समाज मुख्यतः उर्दू रचनाओं में विन्यस्त होता है या फिर हमें उसके अनुवाद से इस समाज को जानने-समझने में मदद मिलती है। इस उपन्यास का अकादेमिक महत्व मुस्लिम समाज के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में है। कथात्मकता, चरित्र- चित्रण आदि औपन्यासिक तत्व तलाशने वालों को इस उपन्यास से थोड़ी निराशा हो सकती है।
- डॉ. कमलानन्द झा
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(उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
सुनील साहित्य सदन
नई दिल्ली-2
मूल्य: 150/- रुपये
बादहशाह रिजवी का ताजा उपन्यास ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ विभाजन की गहरी पीड़ा और चुभते दंश की सरल-सहज अभिव्यक्ति है। अविभाज्य हिंदुस्तान के कथा नायक शमीम, लाहौर में रेलवे के बड़े अधिकारी हैं। 14 अगस्त 1947 की उस मनहूस रात को उन्हें ज्ञात होता है कि वे हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान में हैं। बस्ती के एक छोटे से गावं हिल्लौर वासी रेलवे अधिकारी शमीमुल हसन रिज़वी उर्फ शमीम से एक बार यह पूछने की ज़रूरत भी महसूस नहीं की जाती हैं कि वे हिंदुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में। इस विकल्प विहीनता की स्थिति में पाकिस्तान छोड़ने का मतलब था नौकरी से हाथ धो बैठना। दिल पर पत्थर रखकर शमीम लाहौर में रह जाते हैं किंतु उनका ‘सब कुछ’ बस्ती के उस छोटे-से गांव हिल्लौर में ही छूट जाता है। ‘सब कुछ’ का मलतब उनका अपना घर-परिवार, दोस्त, हिल्लौर की आबोहवा, वहां की खूबसूरती-बदसूरती, अच्छाई-बुराई, मन की भावनाएं, प्रेम, ईर्ष्या, सुख, दुख... सब कुछ। विभाजन की त्रासदी परशोध कर रहे शोधार्थी को अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए शमीम कहते हैं, “वक्त और लीडरों की सियासत ने मुझ जैसे बहुत सारे लोगों को उनके मां-बाप, भाई-बहन, पत्नियों, तमाम रिश्तेदारों से, उनकी अपनी सरज़मी से अलग कर दिया। मेरी ही मिसाल ले सकते हो, पैसे रहते हुए भी मैं अपने घरवालों के लिए कुछ नहीं कर सकता था। जब-जब उनके बारे में सोचता दिल कट के रह जाता। मां-बाप बड़ी लावारिसी की जिंदगी गुजार के इस दुनिया से गुजर गए। मैं इतना बदनसीब था कि बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल तो दूर, उनका आखिरी दीदार भी नहीं कर सका।”वर्षो बाद कथानायक शमीम अपने नाती के साथ हिल्लौर आते हैं। पूरे उपन्यास में शमीम कभी विगत यादों में खो-से जाते हैं, कभी लंबे अंतराल में हुए परिवर्तन को छोटे बच्चे की तरह चकित-भाव से देखते हैं। उपन्यास में शमीम वह बाइस्कोप हैं जहां से पूरे हिल्लौर के विगत और वर्तमान को देखा जाता है।उपन्यासकार हुसैन रिजवी की स्पष्ट धारणा है कि ‘विभाजन के पीछे अपने ही देसी लीडरों का हाथ था।’ मजे की बात तो यह है कि इन लीडरों ने कौम को दो हिस्सों में बांट दिया और देशभक्ति का खिताब भी पाया। विभाजन के समय आबादी की अदला-बदली की मुहिम जोर पकड़ती चली गई, आजाद हिंदुस्तान में इस मुहिम ने नई शक्लें अख्तियार कर लीं। सांप्रदायिक ताकतों ने अपनी-अपनी कौमें बांट लीं। स्वयं तय कर लिया कि हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और मुस्लिम लीग तथा जमात-ए-इस्लामी मुस्लिम समुदाय का। जिन्हें यह बंटवारा पसंद नहीं था वे राजेश जोशी के शब्दों में ‘मारे जायेंगे, मारे भी गए। आश्चर्य तो यह कि बंटवारे की एवज में इन दलों को महिमामंडित भी किया गया।‘मैं मुहाजिर नहीं’ गंगा-जमुना संस्कृति को अधिक से अधिक पुख्ता करने की नीयत से लिखा गया उपन्यास है। यह ठीक है कि औपन्यासिक कला की दृष्टि से यह उपन्यास वह ऊंचाई प्राप्त नहीं कर पाता है जिसमें झूठा-सच, तमस, ‘सत्ती मैया का चौरा’ और‘आधा-गांव’ आदि उपन्यासों को शामिल किया जाता है किन्तु यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम एकता और सह-संबंध की डोर मजबूत तो करता ही है साथ ही, अद्भुत रूप से आम पाठकों को कनविंस भी करता है। उपन्यासकार इस संबंध की संवेदनशीलता को उद्घाटित करने के लिए हिंदू घर में एक विवाह का दृश्य खींचता है। उस ‘बरहमन’ के यहां शादी में घारातियों और बरातियों में कई मुसलमान थे और वो भी अपनी पूरी पहचान के साथ। कथा नायक शमीम इस संस्कृति पर रीझकर नाज करते हुए कहते हैं, “नुसरत यही है हिंदुस्तान की असली पहचान। जिस पर कभी आंच नहीं आ सकती। जमाना जो भी कर ले। इस पर जितना भी नाज किया जाए कम है।” आगे मुहर्रम के दृश्यों के बहाने तो मीरा बाबा की प्रकृति के बहाने उपन्यासकार ने इस मिली-जुली अनूठी संस्कृति को अत्यंत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत किया है।उपन्यास मुस्लिम समाज में व्याप्त आंधविश्वास, पिछड़ेपन, अशिक्षा और परंपरावादिता की तीखी आलोचना करता चलता है। इस अंधविश्वास की जड़ की तलाश करते हुए उपन्यासकार इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि “दरअसल हम लोगों को ‘इल्यूजन’ में रहना ज्यादा अच्छा लगता है और यही आधार है, मिथकों के जिंदा रहने का।” इस ‘इल्यूजन’ या भ्रम के शिकार अशिक्षित मुसलमान ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे और विदेशों में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले मुसलमान भी हो जाते हैं। वास्तव में मुस्लिम समाज के विकास में यह ‘इल्यूजन’ बाधक के रूप में हाजिर होता है।इस उपन्यास ने एक और अमरीका की दहशतगर्दी और दूसरी ओर उच्च मुस्लिम समाज का अमरीकी संस्कृति के प्रति बढ़ते मोह के अंतर्द्वद्व को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिस ‘कॉमेंट्री शैली’ में अमेरिका के साम्राज्यवादी कूटनीतिक षड़यंत्र का पर्दाफाश उपन्यासकार ने किया है, वह गौर-तलब है- ”इजरायल जैसा दहशतगर्द मुल्क, जो एटमी हथियारों से लैस है, उसकी बेशर्मी की हद तक हिमायत कर रहा है और मोहलिक (घातक) हथियारों को तलाश करने का बेबुनियाद बहाना बनाकर अपने हिमायती मुल्कों की फौज के साथ इराक पर हमला करके पूरे इराक को गड्ढे में तब्दील कर दिया। खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली।“ इत्तफाक ही है कि इस उपन्यास के प्रकाशन वर्ष (2009) में ही शुएब मंसूर निर्मित-निर्देशित पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ में इस एकतरफा रोमांचकारी जंग को अद्भुत प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है। यह फिल्म मुस्लिम आतंकवाद, धार्मिक फिरकापरस्ती पर तीखी टिप्पणी भी प्रस्तुत करती हैं फिल्म को दो टूक संवाद ‘दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं’ मुस्लिम समाज से आत्मलोचन की मांग करता है। रिजवी साहब का उपन्यास भी इस आत्मलोचन के दौर से गुजरता है - ”मजहबी कट्टरपंथी तालिबानी निजाम कायम करना चाहते हैं। फौज की सरपरस्ती में दहशगर्दी के सैकड़ों कैंपों में खुदकुश बमबारों और दहशतगर्दी के टेªनिंग कैंप चल रहे हैं। 9/11 की दुर्घटना के बाद से अमरीका मुस्लिम मात्र को आंतकवादी ही नहीं समझता है बल्कि सिर्फ संदेह की बिना पर घोर यातना भी देता रहा हैं। ‘खुदा के लिए’ ने इस भयानक यातना का अत्यंत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। संगीत प्रेमी मंसूर अमरीका में संगीत का प्रशिक्षण ले रहा होता है, अचानक अमरीकी सरकार द्वारा ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ का शिकार हो जाता है। उसे गैर औपचारिक रूप से उठा लिया जाता है और महीनों कैद में असहनीय यातनाएं दी जाती है। ‘मैं मुहाजिर नहीं’ अमरीका की दादागिरी की पोल को परत-दर-परत उधेड़ता चलता है। इस लिहाज से उपन्यासकार की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी गौर करने लायक है। “दुनिया का सबसे बड़ा दहशतगर्द चला है दुनिया से दहशतगर्दी मिटाने“ वाकई ‘सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’ मुहावरा अमरीका पर सौ फीसदी सहीबैठता है।युवा इस्लामिक पीढ़ी पर अमरीकी संस्कृति की सेंध की जायज चिंता लेखक को हैं, इस ‘हाईब्रिड संस्कृति’ को लेखक ‘इस्लाम मेड इन अमेरिका’ की संज्ञा देते हैं। गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो इसमंे इस्लाम के अंतर्राष्टीªय संगठन और उसकी विचारधारा (पान- इस्लामिज्म) भी कम दोषी नहीं है। पाकिस्तान के लोकप्रिय पत्र ‘हेराल्ड’ (करांची, जनवरी 1996) में एस। अकबर की चिंता उपन्यासकार की चिंता से मिल जाती है जब वे लिखते हैं कि ”पाकिस्तान के शहरी मध्य वर्ग में उर्दू का चलन बहुत कम रह गया है। आश्चर्य यह है कि पढ़ा-लिखा एक तबका एक वाक्य भी बिना अंग्रेजी शब्दों के सहारे नहीं बोल सकता है। उसने स्वयं को अपने अतीत से बिल्कुल अलग कर लिया है। पाकिस्तान बनने के बाद वहां का शहरी मध्य वर्ग, अमेरिका में अपना भविष्य खोजता रहा है।“उपन्यास की सबसे बड़ी सीमा यह है कि लेखक विषय-वस्तु को उचित कथात्मकता प्रदान नहीं कर पाये। डाक्यूमंेट्री की तरह उपन्यास आगे बढ़ता है। अच्छे उपन्यास लेखन के लिए जिस व्यापक औपन्यासिक ‘विजन’ की आवश्यकता होती है उसका अभाव इस उपन्यास में स्पष्ट देखने को मिलता है। रिजवी के वैचारिक आग्रह कथा में कला की दृष्टि से गंुफित नहीं हो पाये हैं। यह उपन्यास एक सामाजिक स्टेटमंेट की तरह है जो भारतीय समाज मेंधर्मनिरपेक्ष संभावनाएं पैदा करना चाहता है। यह उपेदशात्मक अधिक रचनात्मक कम बना पाया है। इसमें दो राय नहीं कि उपन्यासकार का उद्देश्य एकधर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना है। भाषा की दृष्टि से इसमें सहज, सरल उर्दू का प्रयोग किया गया है। जहां कहीं कठिन उर्दू के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वहां कोष्ठक में हिंदी का समानार्थी शब्द प्रयुक्त हुआ है। उपन्यास में कहीं-कहीं उत्तर प्रदेश की बोलियों का प्रयेाग सुखकर लगता है- “अरे काका आप! दिल्ली कब अवा गय रहा। उत्तर के हमारा इंहा आवैक लगा रहत है। अच्छा, ई बताई कमवा भवा?” उत्तर भारत के मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज को जानने-समझने में यह उपन्यास काफी कारगर है। क्योंकि सामान्यतया मुस्लिम समाज मुख्यतः उर्दू रचनाओं में विन्यस्त होता है या फिर हमें उसके अनुवाद से इस समाज को जानने-समझने में मदद मिलती है। इस उपन्यास का अकादेमिक महत्व मुस्लिम समाज के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में है। कथात्मकता, चरित्र- चित्रण आदि औपन्यासिक तत्व तलाशने वालों को इस उपन्यास से थोड़ी निराशा हो सकती है।
- डॉ. कमलानन्द झा
at 10:13 am | 0 comments | महिला आरक्षण
इतिहास रचने का कदम है महिला आरक्षण
इन्दौर 22 मई। ’’सिर्फ संसद में सीटें पाने के लिए महिलाओं ़द्वारा महिला आरक्षण नहीं माँगा जा रहा है, बल्कि ये आजाद भारत की 60 बरसों में बनी तस्वीर को ऐतिहासिक रूप से बदल देगा। महिला आरक्षण को कानून की शक्ल में लागू करवाने के लिए जो अभियान महिला आरक्षण अधिकार यात्रा के रूप में छेड़ा गया है वो इतिहास रचने का अभियान है।’’उक्त बातें यंग वीमैन क्रिष्चियन एसोसिएषन (वाय।डब्ल्यू।सी.ए.) की इंदौर अध्यक्षा सुश्री एनी पँवार ने देषव्यापी महिला आरक्षण अधिकार यात्रा के इंदौर आगमन पर प्रेस क्लब में आयोजित कार्यक्रम में कही। गाँधी हॉल से प्रेस क्लब तक जुलूस की शक्ल में पहुँची अनेक स्थानीय संगठनों के प्रतिनिधियों ने प्रेस क्लब पर हुए कार्यक्रम में कहा कि 33 प्रतिषत महिला आरक्षण की जायज माँग के पक्ष में जनमत जुटाने और बनाने में निकले इस महिला आरक्षण अधिकार कारवाँ को इंदौर की महिलाओं और सभी प्रगतिषील पुरुषों का भरपूर समर्थन है। कॉमरेड पेरिन दाजी ने कहा कि इसे अभी तक लटकाया जाना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि यह पुरुषवादी अहं और टालमटोल वाली मानसिकता का परिचायक है। उन्होंने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक पारित होना सिर्फ महिलाओं के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देष की आम जनता के हित में होगा। राज्य महिला आयोग की पूर्व सदस्य और वामा क्लब की संस्थापिका डॉ. सविता इनामदार ने अपने अनुभव सुनाते हुए कहा कि पंचायतों में महिलाओं को आरक्षण दिये जाने से जो सकारात्मक बदलाव हुए हैं वे सबूत हैं इस बात का कि अगर मौका मिले तो महिलाएँ घर से लेकर देष तक की व्यवस्था बेहतर तरह से चला सकती हैं। कस्तूरबा ग्राम ट्रस्ट की वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता सुश्री पुष्पा सिन्हा ने कहा कि देष की आजादी की लड़ाई और बलिदान में महिलाओं की भूमिका पुरुषों से किसी तरह कम नहीं रही लेकिन आजाद भारत में अब तक स्त्री को उसकी आबादी का सही प्रतिनिधित्व नहीं मिला। आज हमें 33 प्रतिषत के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है, ये सत्ताधारियों के लिए शर्म की बात है। वरली ग्रामीण महिला विकास संस्थान की प्रमुख एवं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. जनक मैगलिगन पलटा ने कारवाँ के सभी सदस्यों के जोष को सलाम करते हुए इंदौर के सभी महिला संगठनों की ओर से भरपूर मदद का आष्वासन दिया। उन्होंने कहा कि हम किसी भी जाति, वर्ण, धर्म, देष, भाषा या संस्कृति की हों, सबसे पहले हम महिला हैं और हमारी यह पहचान हमें सारी दुनिया को अधिक सुंदर बनाने वाली ताकतों के साथ और बाँटने वाली ताकतों के खिलाफ खड़ा करती है। इस कार्यक्रम में 40 से अधिक महिला संस्थाओं का सामूहिक मंच महिला सषक्तिकरण महा संगठन, जनविकास, अवाड, रूपांकन, भारतीय महिला फेडरेषन, जनवादी महिला समिति, पहल, संदर्भ केन्द्र, रोग निरोधक स्वास्थ्य संरक्षक समिति, मुस्लिम वीमैन वेलफेयर ऑर्गनाइजेषन आदि संगठनों के कार्यकर्ता शामिल हुए।सभा में महिला आरक्षण अधिकार कारवाँ के साथ चल रहीं दिल्ली स्थित संस्था ’अनहद’ की कार्यकर्ता सुश्री मानसी ने बताया कि जो राजनीतिक दल आरक्षण के भीतर आरक्षण का सवाल उठाते हुए इस विधेयक के विरोध में हैं, वे दरअसल महिलाओं को आपस में बाँटकर देष की सर्वोच्च नीति निर्माता संस्था संसद पर से पुरुष वर्चस्व को खोने नहीं देना चाहते। वे जानते हैं कि अगर 33 प्रतिषत महिलाओं का संसद में प्रवेष हो गया तो उनकी बँटवारे की राजनीति पहले की तरह चलती नहीं रह सकेगी। उन्होंने बताया कि जनता को जागरूक करने और इस विधेयक को पारित करवाने के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए विभिन्न संगठनों से जुड़ी 20-20 महिलाओं के इस प्रकार के तीन जत्थे देष के 20 राज्यों के 56 शहरों और गाँवों में विभिन्न कार्यक्रम करते और विधेयक पारित किये जाने के पक्ष में लोगों के हस्ताक्षर एकत्र करते हुए 6 जून को वापस दिल्ली में इकट्ठे होंगे और इन जगहों से हासिल लोगों की आवाज सरकार तक पहुँचाएँगे। अब तक इस अभियान को 250 से ज्यादा संगठनों व संस्थाओं ने अपना समर्थन दिया है। गौरतलब है कि इंदौर आये कारवाँ में हरियाणा, दिल्ली, उ.प्र., गुजरात, जम्मू-कष्मीर से लेकर तमिलनाडु से भी महिलाएँ शामिल हैं। सभा का संचालन करते हुए वरिष्ठ अर्थषास्त्री डॉ. जया मेहता ने कहा कि 60 बरसों तक राजनेताओं ने जिस तरह से देष को चलाया है, उसने राजनीति शब्द के मायने ही बिगाड़ दिये हैं। अगर महिलाएँ बड़ी संख्या में राजनीति में अपना दखल मजबूत करेंगी तो राजनीति शब्द के अर्थ को बदल देंगी, वो भेदभाव आधारित समाज बनाने वाली और शोषण करने वाली राजनीति को बदल देंगी, और इसी से वो सभी डरते हैं। उन्होंने कहा कि 33 प्रतिषत हासिल करना हमारी लड़ाई का एक पड़ाव भर है, मंजिल तो हमारी ऐसे समाज का निर्माण करना है जहाँ न किसी का शोषण हो और न किसी को आरक्षण की आवष्यकता पड़े।कारवाँ के साथ चल रहीं जम्मू-कष्मीर की हसीना खान और गुजरात की नूरजहाँ ने कारवाँ के अपने अनुभव बताने के साथ ही ये भी बताया कि किस तरह दहषतगर्दी, कठमुल्लापन और साम्प्रदायिक हिंसा का सबसे ज्यादा कहर औरतों को ही भुगतना पड़ता है। सभा का समापन कारवाँ की महिलाओं के गीत से हुआ और अपने हक की लड़ाई की चेतना फैलाने के लिए कारवाँ अपने अगले मुकाम औरंगाबाद की ओर रवाना हो गया।इसके पूर्व सुबह 6 बजे इन्दौर घरेलू कामकाजी संगठन की सुश्री निर्मला देवड़े के नेतृत्व में पाटनीपुरा व लाला का बगीचा क्षेत्र में बस्तियों के अंदर घूमते, जागृति के गीत गाते, नुक्कड़ सभाएँ करते, परचे बाँटते हुए लोगों को महिला आरक्षण विधेयक के बारे में विस्तार से समझाइष दी गयी। कल शाम 21 मई को शहीद भवन में कामकाजी महिलाओं की व्यापक सभा का आयोजन कर कारवाँ का स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें रूपांकन द्वारा पोस्टर प्रदर्षनी का आयोजन भी किया गया। रंगमंच कलाकार सुलभा लागू ने महिलाओं पर केन्द्रित कविता का पाठ किया। कार्यक्रम में पार्षद सुनीता शुक्ला की महत्त्वपूर्ण उपस्थिति रही और कार्यक्रम का संचालन सारिका और पंखुड़ी ने किया। रात में वरली ग्रामीण महिला विकास संस्थान में देष के विभिन्न हिस्सों से रोजगारान्मुख षिक्षा हासिल कर रहीं करीब 100 आदिवासी महिलाओं के साथ कारवाँ की महिलाओं का संवाद हुआ जहाँ संस्था प्रमुख एवं वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. जनक मैगलिगन पलटा ने संस्था के पिछले 25 वर्षों से चल रहे सृजनात्मक कार्यों का ब्यौरा दिया।(प्रस्तुति: सारिका श्रीवास्तव एवं पंखुड़ी मिश्रा)
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at 10:11 am | 0 comments | वेद प्रकाश
परसाई का पुनर्पाठ - "यातना के अनुभाव"
हरिशंकर परसाई की कहानियों में पात्र-वैविध्य की बात हम कर चुके हैं, इस वैविध्य का बहुत बड़ा कारण परिस्थितियां, उनसे जूझते चरित्र का निर्मित होता हुआ मनोविज्ञान और उस सूक्ष्म मनोविज्ञान की पकड़ है। परसाई द्वारा चित्रित मानव-चेहरे यंत्र नहीं हैं, उनकी जीवंत गतिविधियों में से समकालीन जीवन अपनी व्यापकता में झांकता नजर आता है। इसीलिए उनके पात्रों का आचरण, आचरण भर न होकर बहुत कुछ की ओर संकेत करने वाला माध्यम बन जाता है। वह जीवन की जटिलता को भी अभिव्यक्त करता है। अनेक प्रगतिशील कलाकारों पर पात्रों को सपाट बना देने का आरोप लगाया जाता रहा है। परसाई के पात्र इस आरोप से पूरी तरह मुक्त हैं। अन्य अनेक संदर्भों की तरह इस संदर्भ में भी परसाई के पूर्वज कथाकार प्रेमचंद का उल्लेख आवश्यक है।प्रेमचंद के पात्र सदैव, हर स्थिति में एक ही प्रकार का आचरण करने वाले पात्र नहीं है। प्रेमचंद उनमें मानवीय गुणों को देखने के साथ-साथ, उनकी कमजोरियों को भी यथावसर उभारते चलते हैं। होरी जैसे पात्र में भी कमजोरियों को मुंह उठाते देखा जा सकता है। वह भोला के मन में शादी कराने की उम्मीद जगाता है और इस आधार पर भोला से गाय ले लेता है। होरी स्त्रियों के मनोविज्ञान को भी खूब समझता है। धनिया, भोला को भूसा नहीं देती तो होरी भोला के मुंह सेधनिया की तारीफ सुनाता है। होरी-धनिया का वह संवाद बहुत पठनीय है। जो धनिया पहले भूसा देने के लिए मनाकर रही थी, वही धनिया होरी को फटकारती हुई भोला के घर भूसा पहुंचवाती है - यही तो होरी का उद्देश्य था। होरी भाइयों के हिस्से के बांस बचेने में भी बेईमानी करता है।संसार में कोई भी व्यक्ति न तो देवता होता है, न ही राक्षस। खलनायक भी आखिर होता तो नायक ही है। उसमें कभी-कभी मानवोचित, गुण उभर सकते हैं। इसी प्रकार अच्छे कहे जाने वाले पात्रों की भी कमजोरियां होती हैं। परसाई को पढ़ते समय मानव-व्यक्तित्व में इन परस्पर विरोधी गुणों को ध्यान में रखने की जरूरत महसूस होती है। इस परस्पर विरोधिता से ही परसाई की करुणा भी अभिव्यक्ति होती है। धनंजय वर्मा ने लिखा है -‘इसीलिए इन (परसाई की) कहानियों का भावबोध भी अलहदा है। वह ऐसा आधुनिकवादी भावबोध नहीं है जिसमें मनुष्य का या तो पाशविक बिम्ब उभरता है या यांत्रिक। न तो वह आत्मनिर्वासन भोगता हुआ शाश्वत निर्थकता का शिकार है, न अन्तर्गुहावासी और आत्मलीन है। अस्तित्ववादी विसंगतिबोध के बरअक्स इनकाभावबोध आधुनिकता की अनिवार्य प्रक्रिया से रूपायित है।’उपर्युक्त संदर्भ में परसाई की एक कहानी ‘मनीषीजी’ को यहां लिया जा रहा है। इस कहानी का आरंभ इस प्रकार होता है -‘शहर के मध्य भाग में स्थित एक चाय का होटल है जो होटल से अधिक क्लब है। बाहर से बहुत भद्दा दिखने वाले इस होटल में तीस-चालस सदस्य रोज नियमित रूप से चाय पीते हैं। यहां असामान्य व्यक्ति ही मैंने देखे हैं। सीमान्तों पर स्थित मनुष्यों का जमघट यहां होता है- याने वे जिनके मुख से निरन्तर ज्ञान झरता है, और वे जिनके मुख से गालियों की अजस्र वर्षा होती है। वे जो बीड़ी तक नहीं छूते और वे जो गांजे की चिलम फंूके बिना घर से बाहर नहीं निकलते हैं, वे जो अखण्ड संयमी हैं, और वे जो वेश्या के यहां जाकर पड़े रहते हैं। वे जो गऊ से सीधे हैं, और वे जो सियार से धूर्त हैं। पंडित, ज्ञानी, नेता, लेखक, कवि, शराबी, जुआड़ी, वेश्यगामी, गुण्डे - सब यहां आते हैं और अंधेरे कमरे की भारी-भरकम टेबिल के आसपास टूटी कुर्सियांे पर बैठकर उपनिषद की व्याख्या से लेकर ‘बर्थ कण्ट्रोल’ के विषयों पर चर्चा होती है।’यह परसाई के समकालीन परिवेश की तफसील का एक हिस्सा है। यह परसाई के रचना-लोक का एक बहुत बड़ा घटना स्थल भी है। बड़े लोगों के क्लबों के समानांतर निम्न और निम्नमध्यमवर्गीय लोगों का भी अपना क्लब होता है। यह क्लब हमारे आसपास की जानी-पहचानी स्थिति है। परसाई इन्हीं स्थितियों में से अपने पात्र उठाते हैं। कहने को तो इन स्थलों पर अनेक असामान्य, सीमांतों पर स्थित मनुष्य आते है, लेकिन यह उनका बाह्य परिचय है। परसाई ‘सीमांतों पर स्थित’ ऐसे मनुष्ययों के अंदर झांकते हैं और अनैतिक रूप से परिभाषित चरित्रों की नैतिकता की भीतरी शक्ति से साक्षात्कार करते हैं। यह साहित्य के लोकतंत्र की खूबी है, जहां अधिक-से-अधिक सकारात्मक होने की कोशिश की गई है। परसाई ने व्यंग्य की ऐसी धारा को नैतिक दिशा दी।रचनात्मक कलप्ना का आधार इसी लोक में होता है। विरोधी स्थितियां भी यहीं हैं। बुरे-से-बुरे कहे जाने वाले व्यक्ति में कोई खूबी हो सकती है और अच्छे-से-अच्छे में कोई कमी। मानवीय गुणों एवं सीमाओं से परे कोई व्यक्ति नहीं है। परसाई की रचनाओं में अनेक जगह बुरे समझे जाने वाले पात्र की अपनी सकर्मकता एंव आचरण में मानव-मूल्यों की रक्षा करने वाले पात्र के रूप में स्थापित है। भिन्न संदर्भ में कही गई आ। रामचंद्र शुक्ल को उक्ति याद आती है, ‘जिन मनोवृत्तियों का अधिकतर बुरा रूप हम संसार में देखा करते हैं उनका भी सुन्दर रूप कविता ढूंढकर दिखाती है।’ परसाई की एक कहानी है - ‘वे दोनों’। कहानी में व्यंजना है कि हनुमानजी के मंदिर से नियमित रूप से कथा सुनकर आने वाले वंशीलाल की तुलना में रोजाना जुए के अड्डे से लौटने वाले सुन्दरलाल का आचरण अधिक मानवीय है। बहरहाल, यहां हम मनीषीजी पर विचार कर रहे हैं, जो सही-गलत की श्रेणियों में आने वाले पात्रों से भिन्न है। उसका सही होना भी जटिलता लिए है और गलत होना भी। वह संश्लिष्ट स्थितियों को अभिव्यक्त करने वाला और कभी-कभी अभिव्यक्त न कर पाने के कारण अबूझ बन जाने वाला पात्र है। परसाई अपनी तरफ से अबूझ को बूझने का पूरा प्रयास करते हैं। यह प्रयास उनके पूरे लेखन की विशेषता है। वे चीजों का प्रकृत सम्बन्ध-कारण कार्य सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने मनीषी का परिचय यों दिया है-‘मेरी असामान्यता की साधना जब पूरी हुई, तब मैं भी एक मित्र के द्वारा यहां लाया गया और मेरा प्रथम परिचय ‘मनीषीजी’ से कराया गया। प्रथम दृष्टि में ही जिस व्यक्ति को मैं ग्रहण कर सका, वह कुछ ऐसा था, अब ऐसा ही है- और शायद हमेशा ऐसा रहेगा।घुटनों तक खादी की धोती, खादी की मिरजंई, पांव में फटी चप्पलें, ऐसी कि पांवों की रक्षा कम करें, इज्जत की ज्यादा- आंखों पर चश्मा, बड़ी-बड़ी पानीदार आंखे जिनमें एक क्षण में दार्शनिक-सी चिंता, और दूसरे क्षण मूढ़-सी शून्यता, चौड़ा चेहरा जिस पर पहाड़ी झरने-सी निर्मल हंसी तथा बडप्पन और सद्भावना की झलक।उम्र अभिनेत्री की उम्र जैसीधोखेबाज और स्थिर।’पहले कहा जा चुका है कि परसाई की रचनाओं का एक वैशिष्टय यह है कि उनमें विधाओं का संश्लेष मिलता है। उपयुक्त उद्धरण में पहले स्थानीयता का चित्र खींचा गया है, फिर पात्र का पोर्ट्रेट के रूप में। यह शैली पूरी तरह से नाट्यधर्मी है। यहां दो जगह असामान्यता का उल्लेख है। एक आसामान्यता तो उन व्यक्तियों में है जो चाय के होटल में नियमित आते हैं। दूसरी वाचक की है। वस्तुतः असामान्य कौन है? परसाई संभवतः उस रचनाकार को असामान्य कहना चाहते हैं जो इन निम्नवर्गीय क्लबों के प्रतीक्षा करते पात्रों को वाणी देने के कार्य की उपेक्षा करके मध्यवर्गीय कुण्ठाओं, अजनबीपन, मौन आदि की अभिव्यक्ति में ही सैदव लगे रहते हैं।मनीषीजी जिन जीवन स्थितियों से गुजरकर अपने वर्तमान तक पहुंचे, हमारे देखे गए व्यक्तियों में से कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो एक विशेष प्रकार के स्थैर्य तक पहुंचे हुए हैं, जिनके जीवन में कोई संभावना ही नहीं बची है। इस तरह का स्थैर्य और संभावनाहीनता, करुणाजनक स्थिति है। मनीषीजी का बाहरी व्यक्तित्व आकर्षित करता है, लेकिन अन्दर से उसमें इतनी पर्तें हैं जिन्हें पूरी तरह जान पाना असंभव है-‘वेश और शरीर को मिलाकर यह रूप ‘मनीषी’ के व्यक्तित्व की किताब की रंगीन ‘जैकिट’ है, जिसके भीतर जासूसी उपन्यास की तरह एक के बाद एक रहस्यमय अध्याय भरे हैं जिनहें पढ़ते हुए मुझे दस साल हो गये, फिर भी जब अंतिम अध्याय पर पहुंचता हूं, तो देखता हूं कि आगे कोई परिशिष्ट जुड़ गया है।’मनीषी के जीवन के अध्यायों और परिशिष्टों का ब्यौरा कहानी में हास्य-व्यंग्य के रूप में आया है। परसाई की यह विशेषता है कि किसी पात्र का परिचय देते समय वे स्थितियों को वास्तविक रूप में ही रखते हैं, अतिशयोक्ति का प्रयोग नहीं करते। जरूरत पड़ती है तो फैण्टेसी रचते हैं। साथ ही वे इन संघर्ष में पड़े पात्रों को दयनीय भी नहीं बनाते, न ही इनके प्रति भावुक होते हैं। यह करुणा और दया का भेद है। परसाई रचनाओं के माध्यम से पाठकों के विवेक, उनकी बौद्धिकता को सैदव जाग्रत रखते हैं।मनीषी के जीवन का निर्माण असंख्य भारतीयों के जीवन-निर्माण के मेल में है। वह ऊपर से असामान्य लग सकता है, लेकिन ध्यान देने पर वह विश्वसनीय पात्रों में से एक है। स्वातंत्र्योत्तर के भीतर रहकर एक आमजन तरह तरह से अपनी आजीविका का प्रबंध करता रहा है। उसे एक को छोड़कर दूसराधंधा खोजना पड़ा है। एक में आमदनी नहीं तो दूसरा सही। इस क्रम में वह तरह-तरह की पदवियां धारण करता है। ऐसे लोगों को हम अपने आस-पास, अपने परिवार-सम्बन्धियों में खूब देख सकते हैं, मनीषी ने जो पदवियां धारण की हैं, उन्हें देखिए -‘पदवियों सहित पूरा नाम ‘पंडित महादेव प्रसाद शास्त्री, ‘साहित्य मनीषी, भूतपूर्व सम्पादक-हिमाचल, आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषरत्न है। ‘शास्त्री’, ‘साहित्य मनीषी’, ‘आयुर्वेदाचार्य’ और ‘ज्योतिषरत्न’ पदवियां उन्होंने बिना किसी परीक्षा पास किये अपने आपको प्रदान कर ली हैं। ये ‘ऑनरेरी डिगरियां हैं, जैसी अरब के शाह को भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा दी गयी ‘डॉक्टरेट’। हिमाचल साप्ताहिक के कभी मनीषी स्वयं संपादक, व्यवस्थापक, कम्पोजिटर, मशीन मैन, हॉकर-सब एक साथ ही थे। यह साप्ताहिक जब उनका मन होता था, तब निकलता था। एक बार किसी अन्य पत्र के सम्पादक ने उनका नाम महादेव प्रसाद मनीषी की जगह ‘महादेव प्रसाद मवेशी’ छाप दिया। मनीषीजी को जब्त कहां? दूसरे ही अंक में उस सम्पादक के लिए माता और भगिनी से सम्बन्धित सब अश्लील गालियंा छाप दीं। मुकदमा चला और वे शीघ्र ही ‘भूतपूर्व सम्पादक’ हो गये।‘ऐलोपेथी’ और आयुर्वेद के वे समान रूप से पंडित हैं - कुनैन और कड़ा-चिरायता की सीमाओं को लांघने की बदतमीजी उनके ज्ञान ने कभी नहीं की। वे अपने को गरीबों का वैद्य कहते हैं। रोगी की जांच का दो पैसा और एक खुराक दवा का एक पैसा, जो उनका रेट है, अक्सर उधार ही रहता है।’ ऐसे आयुर्वेदाचार्यों का अपना ही तर्कशास्त्र होता है। मनीषी के चिकित्सा-ज्ञान पर जब किसी ने संदेह प्रकट किया तो उन्होंने समझाया -‘देखो भाई, गरीब आदमी न तो एलोपेथी से अच्छा होता है, न होमियोपैथी से, उसे तो -सिम्पेथी’ (सहानुभूति) चाहिए। मैं ‘सिम्पेथी’ की सहस्रपुटी मात्रा देता जाता हूं, रोगी अच्छा होता जाता है।’ अपनी चिकित्सा की सफलता के सम्बन्ध में उन्होंने एक बार कहा - ‘सौ में पचास रोगी अपने आप अच्छे हो जाते हैं - दस डॉक्टर की दवा से अच्छे होते हैं। जो चालीस मरते हैं, उनमें पन्द्रह तो जीवन-शक्ति की समाप्ति के कारण मरते हैं और पच्चीस को डॉक्टर की दवा मार डालती है। मैं इन पच्चीस लोगों को साफ बचा लेता हूं, क्योंकि मेरी पुड़िया न अच्छा असर करती है, न बुरा। पन्द्रह तो धन्वन्तरि के इलाज में भी मरेंगे ही। शेष को मैं अपनी ‘सिम्पेथी’ की डोज से बचा लेता हंू। इस तरह मेरे इलाज में पचासी फीसदी रोगी अच्छे हो जाते हैं।’परसाई गद्य-पद्य की किसी भी शैली या साहित्य-रूप का यथोचित प्रयोग करने में अद्वितीय हैं। इस कहानी में एक स्थान पर रहस्य-भावना की सृष्टि की गई है। वस्तुतः यह सृष्टि भी कहने का एक ढंग है। इससे लगता है कि मनीषी के जीवन का बहुत कुछ ऐसा है जिसे जाना नहीं जा सकता। बताता तो वह बहुत है। एक कप चाय के बदले अपना एक जीवनाभुव सुनाता हैं, पर ऐसा भी कुछ छूट जाता है जिसे वह कभी नहीं कहता। वह बेहद निजी, मार्मिक है। उसे कहना करुणा चुराना है, और मनीषी, परसाई के उन पात्रों में से है जो करुण नहीं चुराता। परसाई ने ऐसे भी पात्र देखे-दिखाये हैं जिन पर स्थितियों से संघर्ष का तुरंत असर पड़ता है, वह संघर्ष उनके ऊपर साफ दिखता है, लेकिन उन्होंने मनीषी जैसे पात्रों को भी खोजकर दिखाया जिनके संघर्ष में कोई कमी नहीं लेकिन उनमें संघर्ष के बाद का एक स्थैर्य भी आ गया है। अब जिन पर किसी बात का कोई असर नहीं पड़ता। इस स्थैर्य की विसंगति को न समझ पाने पर ऐसे पात्रों पर जीवन रहस्यात्मक लगता है। मनीषी चाय के होटल के ऊपरी हिस्से में न जाने कब से रहता चला आ रहा है और लगता है कि आजीवन वहीं रहेगा। वह कोईधन्धा नहीं करता पर भोजन वह करता ही है। कपड़े भी उसके उजले हैं। यह एक रहस्य ही है। मनीषी के चेहरे पर कभी चिंता, परेशानी नहीं देखी गयी। वह इन भावों से ऊपर उठ गया है -‘परन्तु इस व्यक्ति के मुख पर मैंने कभी चिन्ता-रेखा नहीं देखी, कभी परेशानी की छाया नहीं देखी, कभी दुःख की मलिनता नहीं देखी, जिसके खाने का ठिकाना नहीं है, जो दो दिन भूख पड़ा रहता है, एक फटा टाट जिसकी शैया है, वर्षों पहले जिसके ईंट के चूल्हे पर अभी तक मिट्टी नहीं चढ़ पायी, एक मिट्टी का घड़ा, एक टीन का गिलास, एक तवा और डेगची जिसकी समस्त सम्पत्ति है, शरीर पर पहने हुए कपड़ों के सिवा जिसके पास एक अंगोछा और एक फटा कम्बल-मात्र है - बस चिर यौवन से कैसे लदा है? वार्धक्य इससे क्यों डरता है? केश किस भय से श्वेत नहीं होते? झुर्रियां चेहरे को क्यों नहीं छूती? चिन्ताओं के दैत्य इससे क्यों दूर रहते हैं? दुःख इसके पास क्यों नहीं फटकता? यह किस स्रोत से जीवन-रस खीेंचता हैं कि सदा हरा-भरा रहता है? किस अमृत-घट से इसने घूंट पी लिया है कि संसार का जहर उस पर चढ़ता ही नहीं?‘अंधेरे में’ की वे पंक्तियों याद आती हैं जो श्रीकांत वर्मा और अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में नहीं है -किन्तु वह फटे हुए वस्त्र क्यों पहने हैं?उसका स्वर्ण-वर्ण मुख मैला क्यों?वक्ष पर इतना बड़ा घाव कैसे हो गया?उसने कारावास दुख झेला क्यों?उसकी इतनी भयानक स्थिति क्यों है?रोटी उसे कौन पहुंचाता है?कौन पानी देता है?फिर भी उसके मुख पर स्मित क्यों है?प्रचंड शक्तिमान क्यों दिखाई देता है?मनीषी का चरित्र कभी ‘जिंदगी और जांेक’ के रजुआ की तरफ जाता है, कभी स्वयं परसाई की कहानी ‘रामदास’ के रामदास की ओर, लेकिन मनीषी इन दोनों से भिन्न एक तीसरी तरह का पात्र है। उसके चरित्र को गरिमापूर्ण दिखाया गया है, वह पढ़ा-लिखा व्यक्ति है, इसीलिए स्थैर्य उसकी दार्शनिक भूमि है। वैसे भी तीनों ही पात्र भारतीय जनता के बीच से उठाए गए हैं और प्रतिनिध पात्र बन गए हैं। मनीषी और रामदास अलग-अलग ढंग से यातनाओं को झेलते हैं।कुछ लोग तब बांसुरी बजाते हैं, जब आग बाहर लगी हो लेकिन मनीषी पेट की आग से जूझने के लिए या उसे व्यक्त करने के लिए बांसुरी बजाता है-‘एक दिन मैं होटल में बैठा था। ऊपर से बांसुरी की आवाज आयी। मैंने होटल-मालिक से पूछा, ‘बांसुरी कौन बजा रहा है।’ उन्होंने कहा, ‘वही होगा, मनीषी। खाना नहीं मिला होगा, तो बांसुरी बजा रहा है।’ उन्होंने उसे पुकारा और पूछा, ‘अरे, खाना खाया कि नहीं?’ भूखे मनीषी के मुख पर मुस्कान आयी, जैसी भरे पेटवाले के मुख पर भी दुर्लभ है। वह बोला, ‘खाया तो था, लेकिन परसों।’ होटल-मालिक ने उसे कुछ पैसे देकर कहा, जा कुछ खा ले और यह गाना-बजाना बन्द कर दे।अर्थात जब मनीषी भूखा होता है तो बांसुरी बजाता है। पेट भरा होने पर वह कभी बांसुरी नहीं बजाता। परसाई ने आगे लिखा -‘आगामी कल की जिसे चिन्ता न हो ऐसा आदमी दुर्लभ है, पर मनीषी को आज की भी चिन्ता नहीं है। कल कहीं से रोटी मिल गयी थी, तो आज भी कहीं से मिल जायेगी। आज न आयी तो झक मारकर कल आयेगी- ऐसा उसका विश्वास है।’एक होता है नकटापन। इसमें बिना बात ढिठाई, जिद होती है। मनीषी की जिद का स्थैर्य ऐसा नहीं है। उसने खूब काम किया, कई बार धंधे बदले, लेकिन श्रम से कुछ बना नहीं। बहुतों के संदर्भ में ‘श्रम का फल अवश्य मिलता है’ की उपदेशात्मकता धरी रह जाती है। मनीषी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह व्यक्ति की असफलता का प्रतीक है। रामदास की ही तरह। उसने राजनीति का ‘व्यवसाय’ भी अपनाया, यह जानकर कि नेता होना बड़ा अच्छा धंधा है, लेकिन राजनीति में भी मनीषी कुछ न कर पाया। राजनीति में उसने अपने को हास्य की वस्तु बना लिया, जिसके बदले उसको चाय और कुछ पैसे मिल जाते। मनीषी ने फिल्म-कम्पनी में भी काम किया, लेकिन वहां से भी वह एक औसत, डरपोक की तरह जोखिम और अनैतिकता से डरकर भाग आया। परसाई की कहानियों में समकालीनता की ऐतिहासिक दृष्टि से पड़ताल है। स्वातंत्र्योत्तर भारत जिसे धनंजय वर्मा ने भ्रम-भंग और दिग्भ्रान्ति के दोनों छोरों के बीच तना हुआ परिवेश कहा है, में सफलता के लिए स्थार्थी होना अनिवार्य था। लेकिन मनीषी जैसा व्यक्ति सफलता की इस अनिवार्य शर्त पर खरा नहीं उतरा, उल्टे उसके व्यक्तित्व की गरिमा ही झड़ती जाती है, वह निरंतर हास्य की वस्तु होता जाता है- परसाई उसी में से करुणा उत्पन्न करते हैं। मनीषी ‘उदारता’ मे कर्ण और ‘शरणागत वत्सल’ है। अभाव में भी दूसरों के बारे में सोचा जा सकता है- मनीषी इसका उदाहरण है। परसाई ने विरोधी स्थितियों में पड़े हुए मनीषी की मानवीय प्रवृत्तियों को बचा हुआ दिखाया है। मनीषी जैसे पात्र के रूप में उन्होंने मध्यवर्गीय अवसरवादी, स्वार्थी, चालाक लोगों का विवादी पात्र चित्रित किया है। परसाई मनीषी जैसे पात्रों के जीवन से असंतुष्ट हैं, वे उनमें बचे हुए मानवीय मूल्यों को लेकर कभी-कभी परेशान भी होते हैं, क्योंकि ये उनकी यातना को बढ़ाते ही हैं, लेकिन यदि उनमें ये गुण हैं तो उनका उल्लेख भी भरपूर करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यंग्यात्मक वचन इन पात्रों की जटिलता को व्यक्त करते हैं, विरोध में नहीं जाते। मनीषी के पास जो कुछ है, जैसा भी है, उसमें दूसरा का भी हिस्सा है और नहीं है तो उस अभाव को भी वह दूसरों के समक्ष बांसुरी के माध्यम से परोस सकता है -‘कोई आफत का मारा आ जाय, मनीषी के गज-भर टाट पर और मक्के की दो रोटी पर उसकाअधिकार है। जब तक घड़े में आटा है तब तक रोटी खिलायेगा और आप खायेगा। जब आटा चुक जायेगा, तब मनीषी बांसुरी बजायेगा और अतिथि कुढ़ता हुआ सुनेगा।... जिसे सब तिरस्कृत करें, वह अगर मनीषी के यहां पहुंच गया तो मनीषी अपना भाई बना लेंगे। कितने ही लोग उसका आश्रय पाते हैं। घर में निकले हुए लड़के, बेकार आदमी, तिरस्कृत नारियां-सब उसके औदार्य की छाया में आ बैठते हैं। कोई-कोई कृतध्न जिस वृक्ष की छाया में बैठते हैं उसे एक-दो कुल्हाड़ी मार जाते हैं या कुछ शाखाएं ही नोंच जाते हैं। सुनते हैं ये आश्रयहीन लोग जाते वक्त उनका फटा कम्बल या लोटा ही ले भागे हैं।परसाई की रचनाओं में भूख को अनेक रूपों में बिंबित किया गया है। उनके याहं ऐसे भी पात्र आते हैं जिनका सारा प्रयास, सारी चालाकी पेट भरने तक सीमित होकर रह जाती है। कभी-कभी ऐसे पात्र इस उद्देश्य में भी असफल रहते हैं। ये पात्र सफलता के लिए अपने को स्थितियों के अनुसार नहीं ढाल पाए, इसलिए लगातार पिछड़े गए। परसाई की ही एक अन्य कहानी है - ‘पुराना खिलाड़ी’ कहानी में जीवन-हेतु अनिवार्य के लिए संघर्ष करते या चालाकी करते पात्र के लिए होटल वाले सरदारजी बार-बार ‘पुराना खिलाड़ी है, ‘जरा बचके रहना’- वाक्य का प्रयोग करते हैं। वाचक द्वारा पूछने पर कि ‘पुराना खिलाड़ी होता तो ऐसी हालत में रहता?’ सरदारजी जो उत्तर देते हैं, वह ध्यान देने योग्य है -‘उसका सबब है। वह छोटे खेल खेलता है। छोटे दांव लगाता है। मैंने उसे समझाया कि एक-दो बड़े दांव लगा और माल समेटकर चैन की बंशी बजा। मगर उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती।बड़ा दांव लगाने की हिम्मत मनीषी में भी नहीं है। परसाई के अनेक सामान्य पात्रों में यह साहस नहीं है, यही उनकी त्रासदी का कारण है। ‘बेचारा कॉमनमैन’ का हलकू ईमानदार होने के कारण संत पद प्राप्त न कर सका। रामदास को भी यही बीमारी है। ‘सेवा का शौक’ का रामनाथ हंसने का नाटक नहीं कर सकता, इसीलिए मां-बहिन समेत भूखों मरता है। ‘पुराना खिलाड़ी’ अपने ही जैसों से चालाकी करने को अभिशप्त है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जो आचरण होना चाहिए था, उसे यदि कुछ लोगों ने अपना लिया तो वह विडंबना का कारण बन गया। अब जो जितना बड़ा दांव लगाएगा उतना ही सुखी-सफल होगा। जो इसमें समर्थ नहीं वे भूख लगने पर बांसुरी बजाने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं? ऐसे लोगों में धीरे-धीरे कुछ भी उद्यम करने की निरर्थकता का बोध जगता है। वे उदासीन, विरक्त होते हैं। ऐसे पात्रों के लिए जीवन-जगत, प्रकृति, स्थितियों को कोई अर्थ नहीं- यही इनका स्थैर्य है। यह स्थिति संघर्ष करके थकने के बाद की स्थिति है, उद्यम की निरर्थकता का फैसला दो कारणों से लिया जा सकता है। बड़े दांव खेल सकने वाले कुछ लोगों की आत्मा में यह प्रकाश बिना किसी संघर्ष के जल्दी फैल सकता है, यह जल्दी-जल्दी ऊंची सफलता प्राप्त कर लेने की महत्वाकांक्षा है। परसाई ने ‘टार्च बेचने वाले’ कहानी में लिखा, ‘तुम शायद सन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है।’ परसाई के रचना-लोक में ऐसे ‘हरामखोर’ खूब मिलते हैं। लेकिन मनीषी ने जब यह सोचा कि ‘कोई काम नहीं करना ही अच्छा है’ तो यह उसकी यातना का चरम-बिन्दु है। यह अपने आपसे ही अलगाव-बोध है। यह जीवन-स्थितियांें से टक्कर लेने में असफल रहने वाले सामान्य व्यक्ति द्वारा सत्य का साक्षात्कार है। जब सिर्फ और सिर्फ पेट ही भरना है तो कुछ करने और न करने में क्या अंतर है। ‘पूस की रात’ के हल्कू को यह साक्षात्कार हुआ था। मनीषी ने भी स्वीकार कर लिया कि यही उसकी नियति है। जब यही निश्चित है तो रोने-गाने, चीखने- चिल्लाने से क्या बनता-बिगड़ता है। दूसरे तो इसमें भी आनंद ही लेंगे। इसलिए वह दुःख की अभिव्यक्ति का रूप बदल देता है-‘थोड़ी देर बाद नीचे उतरे तो चेहरे पर वही मस्ती, वही हंसी थी। मैं सोचता हूं, क्या यह हंसी विक्षिप्त की हंसी है? क्या यह निरपेक्ष जीवन का हास्य है? क्या यह उस चरम विफलता की हंसी है, जब आदमी सोच लेता है कि हमसे अब कुछ नहीं बनेगा? क्या यह उस उदासीन वृत्ति का हास्य है कि हमारे बनने या बिगड़ने में कोई मतलब नहीं? अथवा दर्द को कलेजे की भट्टी में गलाकर इसने हंसी के रूप में प्रवाहित कर दिया है,।परसाई मानव के आचरण से ही उसकी मूल प्रकृति को नहीं पकड़ते, वे भावों तथा मनोविकारों के बदलते हुए अनुभावों को भी पहचानते हैं। वे रुलाई वाली हंसी और हंसीवाली रुलाई और इनसे भी अलग विचित्र हंसी को पहचानने में माहिर हैं। वे अपने पात्रों को केवल उसी रूप में नहीं देखते, जिस रूप में लापरवाह लोग देखते हैं, और उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं। वे असामान्य लगने वालों के भीतर तक जाते हैं, स्थितियों में उनकी असामान्यता के कारणों की खोज करते हैं। इसलिए जो पात्र पाठकों को अब तक विचित्र, हास्य के आलंबन लगते थे, अब वे करुणा के आलंबन हो गए। परसाई करुणा के प्रसार के रचनाकार हैं, लेकिन यहां यह याद रखना चाहिए कि यह करुणा यथायोग्य है, बेमतलब की नहीं। परसाई क्रोध और घृणा की अभिव्यक्ति के भी रचनाकार हैं। वे बुरी माने जाने वाली मनोवृत्तियों के शुभ पक्ष की भी स्थापना करते हैं। इसीलिए भी कहा जाता है कि परसाई की कहानियों ने काहनी के आस्वाद के धरातल में परिवर्तन किया है। मनीषी एक पात्र तो है ही, वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने का माध्यम भी है।
- वेद प्रकाश
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- वेद प्रकाश
at 10:08 am | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
मई दिवस: तीन ऐतिहासिक घटनाओं की जयंतियां
मई दिवस के बारे में हर साल बहुत कुछ लिखा जाता है। आगे भी लिखा जाएगा। कुछ लोग मई दिवस के अनजान पन्नों की खोज में घटनाओं का अंबार लगाते हैं, तब भी वे अधूरे ही दिखते हैं। असल में श्रमिकों और पूंजीपतियों के बीच हुए संघषों का संपूर्ण कलैंडर बनाना कठिन है। फिर भी ऐसे प्रयत्न होते रहेंगे। लेकिन यहां जो बात ध्यान देने की है, वह यह कि औद्योगिक क्रान्ति के बाद दुनिया में पूंजी और श्रम के रूप मंे जो दो संघर्षशील विपरीत ध्रुव पैदा हो गये, उनके बीच का टकराव इतना सर्वांगीण व्यापक साबित हुआ कि इसने प्रचीन समाज रचना का आमूल-चूल हिला दिया। पूंजी और श्रम के बीच का टकराव बहुआयामी है और इसकी दिशा युगांतकारी एवं क्रांन्तिकारी है। इसलिए इसे अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग का त्यौहार कहा जाता है। मई दिवस का महत्व इस तथ्य में निहित है कि यह दिन दुनिया भर के मेहनतकशों को एक वर्ग के रूप में एक साथ खड़े होने की वर्ग चेतना का अहसास कराता है।मई दिवस का जन्म अकस्मात स्वतः स्फूर्त नहीं हुआ, बल्कि यह सचेत क्रान्तिकारी विचारधारा का क्रमिक सामाजिक रूपातंरण है। मई दिवस स्फुटिक स्थानिक घटनाओं का संगम नहीं है, प्रत्युत्त यह इंकलाबी तहरीक है, जो व्यवस्था परिवर्तन के जद्दोजहद के मध्य विकसित हुआ। शोषण पर आधारित सामाजिक आर्थिक व्यवस्था और उसे बरकरार रखने के अन्यायपूर्ण दमन तंत्र के विरुद्ध विद्रोह का आहवान करता है मई दिवस। यही नहीं कि मई दिवस विद्रोह का प्रतीक है, प्रत्युत्त यह इससे आगे बढ़कर समतामूलक शोषणविहीन न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था स्थापित करने का संकल्प दुहराता हैंवास्तव में हर साल की पहली मई को हम तीन ऐतिहासिक घटनाओं की तीन जयंतियां एक साथ मई दिवस के रूप में मनाते हैं। पहली जयंती शिकागो के शहीदों को समर्पित है जो आठ घंटे के कार्य दिवस हासिल करने की लड़ाई में शहीद हुए। यह जयंती 1886 इस्वी के मई महीने की उन तारीखों की याद दिलाती है, जब अमेरिका में लाखों मजदूरों ने आठ घंटे के कार्य दिवस के लिए हड़तालें की थी और उन हड़तालों को कुचलने के लिए शिकांगो पुलिस ने बहशियाना गोलियां चलायी थी। तत्कालीन प्रशासन ने झूठा मुकदमा चलाकर हड़ताली नेता पार्सन्स, श्पीस, फीशर और इंगेल को फांसी दे दी तथा अन्यों को कठोर कारावास में बंद कर दिया था।सर्वविदित है कि 1886 की पहली मई को अमेरिका के अनेक शहरों में लाखों मजदूरों ने “आठ घंटे काम आठ घंटे आराम और आठ घंटे अपनी मर्जी” के नारे के साथ व्यापक हड़तालंे की थी। हड़ताल इतनी जबर्दस्त थी कि पुलिस प्रशासन ने 3 मई को बौखलाहट में मैकार्मिक कारखाना के शांतिपूर्ण हड़तालियों पर गोलियां चलाकर छः मजदूरों की हत्या कर दी और अनेकों को घायल किया। इस अनावश्यक गोलीकांड के विरोध में और मृतकों को श्रद्धांजलि देने के लिए 4 मई को हे मार्केट स्क्वायर में शोकसभा आयोजिज की गयी। शोकसभा शान्तिपूर्ण तरीके से सम्पन्न होने को थी यकायक पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर 10 मजदूरों की हत्या कर दी और सैकड़ों को घायल। पहली मई को हड़ताल प्रारंभ हुई थी। इसलिए पहली मई को उन सभी शहीदों की शहादत को हम याद करते हैं और हक हासिल करने के लिए अनवरत संघर्ष का संकल्प लेते हैं।सेकेंड इंटरनेशनलदूसरी जयंती 1889 की 14 जुलाई से 20 जुलाई की याद दिलाती है, जब पेरिस में सेकंड इंटरनेशनल की स्थापना हुई और शिकागो के शहीदों की याद में प्रत्येक वर्ष पहली मई को दुनिया भर के मजदूरों का अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस मनाने का आहवान किया गया। यह एक क्रान्तिकारी ऐतिहासिक फैसला था, जब शिकागो की स्थानिक घटना का अंतर्राष्ट्रीयकरण हुआ। अमेरिकन लेबर फैडरेशन (एएफएल) ने इस तारिख को पहले ही शिकागो के मजदूरों की शहादत का दिवस मनाने का फैसला लिया था। लेकिन सेकंड इंटरनेशनल ने अपने प्रस्ताव द्वारा पहली मई की तारीख को अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस के लिए स्वीकार करके इसे विश्वव्यापक बना दिया। प्रस्ताव में कहा गया है: “हरेक देश के मजदूर इस प्रदर्शन को इस तरीके से मनायेंगे जो उस देश की परिस्थिति में संभव है।”सेकंड इंटरनेशनल के इस फैसले ने शिकागो की घटनाओं और एएफएल के दिवस मनाने के फैसले को गुणात्मक ऊंचाई पर पहुंचा दिया और उसे क्रान्तिकारी दिशा प्रदान की। मई दिवस इसलिए सेकंड इंटरनेशनल के इस क्रान्तिकारी फैसले की जयंती के रूप में भी याद की जाती है।1890 का प्रथम मई दिवससेकंड इंटरनेशनल के इस फैसले के मुताबिक सर्वप्रथम 1890 की पहली मई को अमेरिका और अमेरिका के बाहर दुनिया भर में खासतौर पर यूरोप में सर्वहारा वर्ग ने अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता दिवस मनाया। 1890 का यह प्रथम मई दिवस बहुत कठिन परिस्थिति में मनाया गया। फ्रांस के शासकों ने फरमान जारी किया कि जो मई दिवस में भाग लेगा उसे देश निकाला किया जाएगा। इस सरकारी फरमान की अवहेलना कर 10 लाख फ्रांसीसी मजदूरों ने 1890 की पहली मई को अनेक शहरों में जुलूस निकाले और सभाएं की। जर्मन सरकार ने उस दिन मजदूरों को गिरफ्तार करने की धमकियां दी, फिर भी लाखों जर्मन मजदूरों ने मई दिवस मनाया। लंदन हाइड पार्क में 4 मई को पांच लाख मजदूरों ने इकट्ठा होकर मई दिवस मनाया। बेलजियम, आस्ट्रिया, हंगरी, इटली, स्पेन, स्विटजरलैंड, रूमानिया, रूस और अमेरिका के अनेक शहरों में इस दिन बड़े-बड़े प्रदर्शन किये गये और सभाएं की गयीं। इसलिए हर साल का मई दिवस 1890 की पहली मई की भी जयंती है, जिस दिन ‘मई दिवस’ सही मायने में अमेरिका से बाहर निकलकर अंतर्राष्ट्रीय चरित्र ग्रहण करता है। यह निश्चय ही मामूली घटना नहीं थी कि सेकंड इंटरनेशनल के आह्वान पर दुनिया के जागृत मजदूर वर्ग ने सरकारी दमन की परवाह किये बगैर सरकारी फरमान की अवज्ञा करके 1890 की पहली मई को अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का जबरदस्त इजहार किया। 1890 के मई दिवस का खौफ पूंजीपति वर्ग पर इतना गहरा था कि अनेक फ्रांसीसी और जर्मन पूंजीपतियों ने अपने बैंक खाते का स्थानांतरण सुरक्षित बैंकों में कराया।1890 में जब पहला मई दिवस मनाया गया तो उसे देखकर एंगेल्स भाव-विहृवल हो गये। उन्होंने लिखा: “जब हम लोगों (मार्क्स और एंगेल्स)” ने बयालिस वर्ष पहले 1848 में “दुनिया के मजदूरों एक हो” का नारा दिया था तो कुछ ही लोगों ने अनुकूल प्रतिक्रिया व्यक्त की थी... आज यूरोपीय और इमेरिकी सर्वहारा अपनी जुझारू ताकतों को... एक झंडे के नीचे एक सेना के रूप में गोलबंद है। उन्होंने अपने साथी कार्ल मार्क्स, जिनका निधन हो चुका था, के बारे में लिखा: “क्या ही अच्छा होता यदि मार्क्स मेरी बगल में इसे अपनी आंखों से देखने के लिए जीवित होते।”इसी तारीख के 100 वर्ष पूरे होने पर दुनिया भर में मई दिवस की शतवार्षिकी 1990 की पहली मई को मनायी गयी थी। भारत में भी एटक के आह्वान पर 1990 की पहली मई को मई दिवस की शतवार्षिकी के भव्य समारोह देशभर में आयोजित किये गये थे। इसी तरह 1986 में दुनिया भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग द्वारा शिकागो के शहीदों की याद में शतवार्षिकी समारोह आयोजित किया गया और 1989 में फ्रांसीसी जनगण जन फ्रांसीसी क्रान्ति की द्विसहस्राब्दी मना रहे तो अंतराष्ट्रीय मजदूर वर्ग द्वारा सेकंड इंटरनेशनल की शताब्दी मनायी गयी थी। इस तरह हर साल का मई दिवस तीन युगांतकारी ऐतिहासिक घटनाओं की जयंति का सम्मिलित प्रतीक बन गया।मजदूरवर्गीय अर्थशास्त्र की जीत1847 में ब्रिटिश पार्लियामेंट ने 10 घंटे का कार्य दिवस का कानून पास किया। यह ब्रिटिश मजदूरों के तीस वर्षों के कठिन संघर्षों का परिणाम था। इस घटना की चर्चा कार्ल मार्क्स ने इंटरनेशनल ऐसोसिएशन, जिसे प्रथम इंटरनेशनल भी कहा जाता है, के स्थापना समारोह में दिये गये अपने भाषण में की है। 10 घंटे के कानून पास करने को मार्क्स ने “एक सिद्धांत की जीत” और एक “महान व्यावहारिक सफलता” के रूप में चित्रित किया। कार्ल मार्क्स के शब्दों में “यह पहला मौका था, जब मजदूर वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र की विजय बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र के ऊपर दर्ज हुई।” कार्लमार्क्स और फ्रेडरिक ऐंगेल्स द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव में लिखा गयाः “हम कार्य दिवस में आठ घंटे की कानूनी सीमा का प्रस्ताव करते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका के मजदूरों द्वारा ऐसी सीमा निर्धारित करने की मांग की जा रही है, जिसे हमने इस प्रस्ताव के जरिये व्यापक बना दिया है, और दुनिया के मजदूर वर्ग को एक समान मंच पर ला खड़ा किया है।”जनता की आवाज सुनो11 नवम्बर 1887 को पार्सस, श्पीस और इंगेल को फांसी की सजा दी गयी। फांसी के तख्ते पर झूलते हुए अलबर्ट पार्संस ने ऊंची आवाज में कहाः “ओ अमेरिका के लोगों, जनता की आवाज सुनने दो।” अगस्त श्पीस ने भी फांसी के तख्ते को चूमते हुए कहाः “तुम मेरी आवाज घोंट सकते हो, किंतु एक दिन ऐसा आएगा, जब हमारी यह चुप्पी (फांसी) ज्यादा ताकतवर होगी... इस आवाज से ज्यादा, जिसे आज तुम घोंट रहेे हो।” जाहिर है इस घटना के तीन साल के अंदर 1890 में जब पहली मर्तबा अमेरिका समेत संपूर्ण यूरोप में मई दिवस मनाया गया तो वह “आवाज”, जिसे पहले घोंटकर चुप किया गया था, दुनियाभर में ज्यादा मुखर और प्रखर सुनाई दे रही थी। इसलिए काम का घंटा कम करने का संघर्ष बुनियादी तौर पर पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र के विरुद्ध मजदूर वर्ग की संगठित आवाज है।अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने स्वीकार किया है कि अनौपचारिक मजदूरों की तादाद आज बेशुमार बढ़ रही है। अनौपचारिक रोजगार का मतलब है, अधिकतम समय काम, किंतु कम से कम पारिश्रमिक। असुरक्षित कार्यदशा, किंतु कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। कैजुअल रोजगार, किंतु लगातार काम मिलने की गारंटी नहीं। स्थायी प्रकृति के कामों का ठेकाकरण/ आउटसोर्सिंग आदि इत्यादि। ये सब कार्पोरेट मुनाफा बढ़ाने के ताजा उपाय हैं। पूंजीपति वर्ग का यह नया पैंतरा है। वैज्ञानिक तकनीकी क्रान्ति की उपलब्धियों को पूंजीपति वर्ग ने हथिया लिया है। फलस्वरूप शोषण का परिमाण आज सैंकड़ों गुना बढ़ गया है।इसलिए यह अकारण और अकस्मात नहीं था कि कार्ल मार्क्स ने इंटरनेशनल वर्किंगमेंस ऐसोसिएशन के स्थापना सम्मेलन में काम के घंटे कम करने के संघर्ष को पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र के ऊपर मजदूरवर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र की जीत बताया था।
- सत्य नारायण ठाकुर
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- सत्य नारायण ठाकुर
at 10:05 am | 0 comments | बेचू गिरी
पेंशनयाफ्ता मजदूरों की जेब पर डाका
गत दिनों भारत सरकार ने निजी क्षेत्र में कार्यरत 4.5 करोड़ मजदूरों की जेब पर दिन-दहाड़े डाका डालते हुए कर्मचारी पेंशन योजना 1995 में भारी कटौती कर दी है जबकि 1995 में फैमिली पेंशन स्कीम को कर्मचारी पेंशन योजना में तब्दील करते समय केन्द्र सरकार ने वृद्ध कर्मचारियों की भलाई हेतु बड़े लम्बे चौड़े वायदों का ढोल पीटा था। जगह-जगह सेमिनार- मीटिंग्स आदि किये गये तथा मजदूर संगठनों द्वारा उठाई गई शंकाओं को दरकिनार कर दिया गया। फैमिली पेंशन योजना के तहत मजदूर व मालिकों के अंशदान से 1.17 प्रतिशत कुल 2.33 प्रतिशत तथा सरकार का भी 1.17 यानी 3.51 प्रतिशत का अंशदान होता था तथा मृत्यु की स्थिति मेें कर्मचारी कीविधवा को पेंशन मिलता था। 1995 में मालिकों के अंशदान से 8.33 प्रतिशत की कटौती करके तथा बहुत बाद से सरकार द्वारा अपना 1.17 प्रतिशत का अंशदान पुनः शुरू करने (पेंशन योजना लागू होने के बाद सरकार ने अपना 1.17 प्रतिशत का अंशदान पुनः बंद कर दिया था) के बाद कुल 9.5 प्रतिशत का फंड इसके लिए स्थापित किया गया।यह गौर करने वाली बात है कि अंशदान 12 प्रतिशत होने के बाद अगर सिर्फ पारिवारिक पेंशन योजना होती तो उसमें 2.33 प्रतिशत ही अंशदान जाता तथा 21.67 प्रतिशत (दोनों हिस्से मालिक - मजदूर के) मजदूरों के अपने फंड में जाते जबकि कर्मचारी पेंशन योजना के बाद 8.33 प्रतिशत पेंशन में तथा सिर्फ 15.67 प्रतिशत अंशदान अपने फंड में जाता है। 1995 में 5000 रु. वेतन कोआधार बनाया गया तथा मई 2001 में 6500 रु. प्रतिमाह वेतन पेंशन हेतु तय किया गया। इसके बाद इस वेतन सीमा में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है, जबकि 1995 के थोक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को 100 माना जाये तो वह अब 350 के करीब है। यानी इसके अनुसार पेंशन हेतु वेतन सीमा 17500 रु. होनी चाहिए थी। वेतन सीमा में बढ़ोतरी न होने का खामयाजा पेंशनभोगी भुगत रहे है तथा हर साल एक माह का वेतन (8.33 प्रतिशत) पेंशन कोष में देने के बावजूद मजदूरों को इस फंड में जमा उनके पैसे के ब्याज के बराबर ही पेंशन बमुश्किल मिल रहा है। बहुत सारे राज्यों में आम नागरिकों की वृद्ध या विधवा पेंशन भी राज्य सरकारों द्वारा 700 रु. प्रतिमाह दिया जा रहा है, जबकि कर्मचारी पेंशन योजना के अंतर्गत आज भी बहुत सारे पेंशनभोगी है, जो अंशदान देने के बावजूद मात्र 300-400 रु. तक पेंशन ले रहे हैं। यहां यह भी जानना आवश्यक है कि पेंशन हेतु वेतन सीमा सिर्फ निजी क्षेत्रों के 4.5 करोड़ कर्मचारियेां के लिए ही लागू है। बाकी इस देश में किसी भी महकमे में पेंशन हेतु वेतन सीमा तय नहीं है। इसलिए उनकी वेतनवृद्धि के साथ ही उनके पेंशन में इस वृद्धि का लाभ अच्छा खासा मिल जाता है। हैरानी की बात है कि पेंशन कानून 1995 की धारा 32 के अनुसार केन्द्र सरकार को हर साल पेंशन की समीक्षा करनी थी, ताकि पेंशन से मिलनेवाली रकम को बाजार के मूल्य से सामंजस्य बनाया जा सके। मगर सरकार ने गत 9 सालों से कोई समीक्षा नहीं की। उसके विपरीत बड़ी बेशर्मी से सरकार ने कर्मचारी पेंशन योजना की धारा 12 ए जिसके तहत पेंशन की 1/3 भाग की रकम के सौ गुणा रकम के बराबर एक मुश्त राशि पेंशनभोगी को मिलने का प्रावधान था को अपनी एक अधिसूचना जीएसआर-688 (इ) ता. 26.09.2008 द्वारा खत्म कर दिया।इस धारा के तहत अगर किसी कर्मचारी को 1200 रु. पेंशन बनता था तथा वह अपना 1/3 भाग यानी 40 रु. पेंशन छोड़ देता था तो उसे 4 का सौ गुणा यानी 40 हजार रु. पेंशन शुरू होने के साथ ही एकमुश्त राशि मिल जाती थी। इसके अलावा 800 रु. पेंशन भी मिलता था। सरकार का दूसरा हिस्सा इस कानून की धारा 13 को खत्म कर मजदूरों पर किया गया जिसके तहत पूंजी वापसी का प्रावधान था। उदाहरार्थ द्वारा 13 के विकल्प (1) के अनुसार 1200 रु. पेंशन लेनेवाला मजदूर 10 प्रतिशत पेंशन छोड़ देता था तो उसे 1080 रु. पेंशन प्रतिमाह मिलता था तथा उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा को एक लाख बीस हजार रु. एकमुश्त मिल जाता था। इसके अलावा विधवा को 540 रु. पेंशन प्रतिमाह मिलता था।निजी क्षेत्र के पेंशनभोगियों पर एक और बड़ा हमला करते हुए सरकार ने अधिसूचना जीएसआर-438 (ई) ता. 09.06.2008 द्वारा मजदूरों को 1995 के कानून के तहत मिलनेवाला पेंशन को कम कर दिया। 1971 सेे 1995 तक के पेंशन गणक को कम कर दिया है। उसका परिणाम हो रहा है कि इस अधिसूचना से पहले अगर किसी का पेंशन 1400 रु. बनता था तो अब इतनी ही अवधि का पेंशन 1250 रु. यानी पहले की तुलना में 150 रु. कम बन रहा है। साथ ही आगे समय में यह कमी 350 रु. तक हो जायेगी। यह एक ऐसा हमला है जो पेंशनभोगियों को जीवन भर आर्थिक हानि पहुंचाएगा, जबकि चीजों की कीमत में 350 गुणा बढ़ोतरी हुई है।एक तथ्य यह भी है कि इस देश में मंत्री से लेकर संतरी तथाअधिकारी से लेकर चपरासी तक हर एक के पेंशन में 1995 की तुलना में अब तक भारी वृद्धि हुई है। मगर सरकार द्वारा यही मापदंड निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के लिए भी अपनाया जाना चाहिए था। इसी प्रकार सरकार ने न्यूनतम पेंशन लेनेवालों (50 वर्ष से ऊपर तथा 58 साल से नीचे की उम्र में पेंशन लेनेवालों) की कटौती दर 3 प्रतिवर्ष से बढ़ाकार 4 प्रतिशत कर दी है। साथ ही जो लोग 10 साल की सर्विस पूरी नहीं कर रहे हैं, उनकी रकम की वापसी भी काफी कम दर हो रही है। यानी सरकार ने कर्मचारी पेंशन योजना की हर सुविधा के अंदर 1995 की तुलना में 2008 से भारी कटौती कर दी है।निजी क्षेत्र के साढ़े चार करोड़ कर्मचारियेां की पेंशन योजना में इस अन्यायपूर्ण कटौती की तरफ यथोचित ध्यान नहीं दिया गया है। पेंशन में छीनी गयी सुविधाओं को बहाल करने, पेंशन निर्धारण में वेतन सीमा हटाने और पेंशन को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ने की मांग उठाना सर्वथा न्यायपूर्ण है। निजी क्षेत्र के 4.5 करोड़ कर्मचारियों की पेंशन सुविधा में सरकार द्वारा भारी कटौती के बावजूद भी मजदूर संगठनों द्वारा सार्थक विरोध नहीं हुआ जबकि अन्य मुद्दों पर काफी आंदोलन चले हैं तथा आगे भी चलेंगे। इसलिए मई दिवस पर हमारा प्रण होना चाहिए कि आगे आने वाले समय में कर्मचारी पेश्ंान योजना में सरकार द्वारा छीनी गई सुविधाएं वापस कराने, पेश्ंान हेतु वेतन सीमा हटवाने, पेंशन को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जुड़वाने व किसी भी हालत में कर्मचारियेां की पेंशन आम नागरिकों की पेंशन से कम न होने देने तथा अन्य सुधारों हेतु इन मांगों को भी अन्य मांगों के साथ प्रमुखता से उठाये।
- बेचू गिरी
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- बेचू गिरी
at 9:58 am | 0 comments | रूप नारायण पाण्डे
चरदा का किसान आन्दोलन
जमींदारी उन्मूलन विधेयक विधान सभा में पास होने के कुछ दिन पूर्व संयुक्त प्रान्त (उत्तर प्रदेश) सभी राजाओं, तालुकेदारों तथा जमींदारों की एक बैठक जनपद बहराइच के चरदा किला (राजा बलरामपुर की एक तहसील) के पास बुलाई गयी थी। इस सभा का आयोजन महाराजा बलरामपुर पटेश्वरी प्रसाद सिंह ने किया था।इस आम सभा में संयुक्त प्रान्त के राजाओं के संघ को बुलाया गया था। इसमें जमींदारी उन्मूलन कानून सरकार द्वारा वापस लेने के लिये प्रस्ताव पास करके सरकार पर दबाव बनाना था। अगर सरकार प्रस्ताव वापस नहीं लेती है तो आन्दोलन की क्या रूप रेखा होगी इस पर भी विचार करना था।राजाओं, तालुकेदारों तथा जमींदारों के अधिकारी तथा उनके कर्मचारियों से आम किसान-मजदूर त्राहि-त्राहि कर रहे थे। जमींदार नाराज होने पर जोत भूमि को बेदखल करके बदल देते थे। घरेलू वृक्ष जैसे अमरुद, कटहल, नींबू आदि नहीं लगाने देेते थे। जमींदार के नाम बाग किए बगैर किसान बाग नहीं लगा सकता था। चरदा क्षेत्र में आर.एस.पी. के साथ मिल कर कम्युनिस्ट पार्टी ने सन् 1948 ई. से ही भूमि बेदखल के विरोध में आवाज बुलंद करना प्रारम्भ कर दिया था। गोविन्द बल्लभ पन्त सरकार ने पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया था।पार्टी कार्यकर्ता गांवों में भूमि बेदखली के खिलाफ जगह-जगह जनसभायें करते थे। सभा के लिये प्रचार प्रसार बाबा का. कुन्जादास घोड़े पर बैठ कर तुरही द्वारा आवाज बुलन्द करते थे, इसके विरोध में रियासत के विसरवार (चौकीदार) मीटिंग में जाने से आम जनता को रोकने का प्रयास करते थे। रियासत के ठेकेदार जो गांवों में ही रहते थे वह भी मना करते थे। 15 अगस्त सन् 1947 को देश आजाद हो गया। उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता का. पवन सुतदास, का. विजय कुमार नौरंग और जरवल रोड के पास के जमींदार सैय्यद अतहर मंेहदी चरदा क्षेत्र में रियासतों के खिलाफ जोरदार अभियान चला कर किसानों को रियासतों की जोत वाली भूमि पर मालिकाना हक दिलाने का प्रचार करते थे। सन् 1952 में देश का आम चुनाव हुआ। उस समय उ.प्र. में कांग्रेस पार्टी सत्ता में आ गई। उसी समय एक घटना घटी कि उ.प्र. में पूरी की पूरी आर.एस.पी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में मिल गयी। उसके प्रमुख नेता एवं अध्यक्ष दादा योगेश चटर्जी द्वारा घोषणा होते ही इस क्षेत्र के नेता का. राम हर्ष विद्रोही ने राजाओं के खिलाफ अपना आन्दोलन तेज कर दिया।उ.प्र. सरकार ने जमींदारी उन्मूलन कानून पास कराने के लिये विधानसभा में पेश बिल पेश होते ही उ.प्र. के सभी राजा, जमींदार सकते में आ गये और अपने संगठन ताल्लुकदार संघ उ.प्र. की एक आम सभा जनपद बहराइच के रियासत बलरामपुर के तहसील चरदा में बुलाने का ऐलान किया गया। अपने नियत समय पर प्रदेश के सभी राजा, ताल्लुकेदार, जमींदार तथा रियासत बलरामपुर के सभी ग्रामों के ठेकेदार चरदा में एकत्र हुये। एक बड़े पंडाल जो राजा नानपारा का था ‘दल बादल’ लगाया गया जिसमें 5000 से अधिक लोग बैठ सकते थे मंच पर सभी राजागण विराजमान हुये।सभा की अध्यक्षता के लिये महाराजा बलरामपुर पटेश्वरी सिंह का नाम प्रस्तावित किया गया। संचालन राजा नानपारा सआदत अली खां कर रहे थे। कुछ कहने के लिये राजा काला कांकर जैसे ही खड़े हुये वैसे ही पंडाल में बैठे कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता तथा सदस्य जो जेब में लाल झंडा लिये थे अपने डंडों में लगाकर खड़े हो गये और नारा लगाना प्रारम्भ कर दिया कम्युनिस्ट पार्टी जिन्दाबाद-इन्कलाब, जिन्दाबाद, राजाओं की मनमानी नहीं चलेगी, जमींदारी प्रथा-समाप्त होगी, खेत जोतने वालों को मिलेगा तथा कुछ कार्यकर्ता पंडाल गिराने लगे। मंच से सारे राजा भाग खड़े हुए। पुलिस तथा रियासत के सिपाही कर्मचारी मूक दर्शक की तरह खडे़ रहे।मीटिंग असफल होने पर राजा बलरामपुर पता लगाने लगे कि किस नेता के अगुवाई में यह दंगा हो गया और मीटिंग असफल हो गयी। पता चला कि उनके राज्य के रामपुर निगहा के ठेकेदार पं. सियाराम का पुत्र राम हर्ष जो कम्युनिस्ट है उसी की अगुवाई में यह आन्दोलन हुआ है। इस आन्दोलन में जिले भर के कम्युनिस्ट आये हुये थे जिसमें प्रमुख रूप से का. कामता प्रसाद आर्य, का. स्वामी दयाल त्रिपाठी, का. सैय्यद अतहर मेंहदी (जो स्वयं जमींदार थे और मंच पर विराजमान थे), का. पवन सुतदास, का. विजय कुमार नौरंग तथा छोटेलाल कुरील सभी इस बैठक को विफल करने के लिये एकत्र थे। राजा बलरामपुर ने पं. सियाराम की 500 बीघा भूमि बेदखल कर दिया जिसमें न्यायालय ने केवल 100 बीघा भूमि वापस कराई, शेष भूमि जब्त हो गयी। इस आन्दोलन से जिले के कांग्रेस पार्टी के सभी नेता कम्युनिस्ट पार्टी की इस सफलता से घबड़ा कर कम्युनिस्टों के खिलाफ कुचक्र रचने लगे। इतने ही में चरदा भोज के बाबा गंज बाजार में एक दुकानदार राम बरन के घर डकैती पड़ गयी थी। उस डकैती में कांग्रेसी नेताओं ने का. राम हर्ष विद्रोही, का. स्वामी दयाल त्रिपाठी तथा श्यामता प्रसाद आर्य जैसे जिले के लगभग 10 प्रमुख नेताओं के नाम एफ.आर.आई. में दर्ज करा दिया। पार्टी के प्रमुख नेता का. डा. जेड.ए. अहमद की पैरवी में यह तफसील सी.आई.डी. को सौंपी गयी। सी.आई.डी. ने सभी कम्युनिस्टों को अपने जांच से निकाल दिया।इस आन्दोलन से चरदा तथा इकौना क्षेत्र में भाकपा का अच्छा प्रभाव पड़ा। जनता भी कम्युनिस्टों की कार्यवाही से प्रभावित हुई। उधर जमींदारी उन्मूलन कानून भी पास हो गया। सारी रियासतें समाप्त हो गयी। किसानों को भूमि का मालिकाना हक भी प्राप्त हो गया।कम्युनिस्टों ने विजय तो हासिल किया परन्तु अपने कार्यकर्ताओं को पार्टी से लैस बहुत दिनों तक नहीं कर पाया जिससे हम अधिक आगे बढ़ नहीं पाये जोकि पार्टी के लिए आत्म मंथन का विषय होना चाहिए।(का. रामहर्ष विद्रोही के घर पुराने पार्टी रिकार्डों तथा मौखिक वार्ता केआधार पर)
- रूप नारायण पाण्डे
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- रूप नारायण पाण्डे
at 9:53 am | 0 comments | कोल्ली नागेश्वर राव
बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कृषि में दखल
सरकार ने घोषणा की है कि संसद के वर्तमान सत्र में बायोटेक्नोलोजी नियंत्रण आथोरिटी बिल (बीआरएआई-ब्राई) 2009 पेश किया जायेगा। इसमें संदेह नहीं है कि हर क्षेत्र और खासकर कृषि और बायो टेक्नोलोजी में वैधानिक नियंत्रण प्राधिकरण होना चाहिए। इस प्राधिकरण का काम राष्ट्रीय हित में और खासकर कृषि, पर्यावरण और जनहित के कार्यों से जुड़ा होना चाहिए। इंटरनेट पर उपलब्ध केन्द्रीय सरकार के द्वारा तैयार किये गए बिल से ऐसा लगता है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग, फसल आदि के निगरानी का काम विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को सौंप दिया गया है। ऐसा लगता है कि इस बिल को बायो टेक्लोलोजी विभाग ने तैयार किया है। बिल प्रयोग के उपयोग2000 में मोनसांटों बहुराष्ट्रीय कम्पनी के द्वारा बिना किसीप्राधिकरण के इजाजत के बीटीआई बीज के भारत में प्रयोग का हमारे पास अनुभव है। जब आंध्र प्रदेश में किसान संगठनों ने बीटीआई के गैरकानूनी ढंग से प्रयोग के विरूद्ध संघर्ष किया तो आंध्र प्रदेश की विधानसभा ने इसके प्रयोग पर रोक लगाने का प्रस्ताव किया क्योंकि इसे किसी भी प्राधिकरण या प्रशासन से इस प्रयोग की इजाजत नहीं थी। राज्य सरकार के इस फैलसे के बाद कम्पनी ने 2002 में जीईएसी से खेत में प्रयोग के लिए इजाजत ली।जीईएसी ने बिना किसी प्रयोग या जांच के इस के वाणिज्यीय तौर पर उत्पादन की इजाजत दे दी। इससे पता चलता है कि बीटीडी और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग देश के पर्यावरण कानून तथा जनता और किसानों को सुरक्षा के प्रति कितना सजग है। बायोटेक्नोलोजी मूल रूप से पर्यावरण और वन मंत्रालय तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रति जागरूक है। इसलिए यह कार्य इन दो में से किसी एक मंत्रालय और खासकर पर्यावरण और वन मंत्रालय को सौंपा जाना चाहिए।एक दूसरा पहलू है कि यह राज्य की विषय है और राज्य सरकार को कृषि की निगरानी करने का अधिकार है। लेकिन वर्तमान बिल राज्य सरकारों को अक्षम बना देगा क्योंकि “राज्य बायोटेक्नालोजी नियंत्रक सलाहकार समितियों” के रूप में उसे सिर्फ सलाह देने का अधिकार दिया गया है। राज्य सरकारों को कोई भी फैसला लेने का अधिकार नहीं रह जाता है।कुछ लोग यह विश्वास करते है कि बीआरएआई - 2009 एनबीआरए - 2008 के बिल का विकसित रूप है। लेकिन बीआरएई-2009 देश के अन्दर के किसानों के पक्ष में कम और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पक्ष में ज्यादा है। ऐसा लगता है कि बिल का पूरा जोर हमारे देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था और किसानों के खिलाफ है और मोनसांटो जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पक्ष में है। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जीएम और बीटी फसलों का विकास करती है।मोनसांटो अन्य कम्पनियों का रुखमोनसांटो कम्पनी बीटी-1 बीज को किसानों के हाथों 1880 रु। प्रति पैकेट बेचकर उनका शोषण करना चाहती है। बीटी-1 बीज के 450 ग्राम के पैकेट की लगात मूल्य 600 रु. है। अखिल भारतीय किसान सभा का नेतृत्व और उपाध्यक्ष कोल्ली नागेश्वर राव के साथ-साथ आंध्र प्रदेश की सरकार मोनसांटो की मनमानी के खिलाफ संघर्षों और अदालती कार्रवई के द्वारा लड़ रही है। लेकिन इसके बावजूद यह कम्पनी कानूनी और गैरकानूनी माध्यमों से कीमत की दर बढ़ाने में लगी हुई है। जब अखिल भारतीय किसान राज्य सरकार को प्रभावित करने में असफल रही तो इसनेे केन्द्र सरकार तक अपनी पहुंच लगाई।अब केन्द्र सरकार को प्रभावित कर यह कपास के बीज को आवश्यक वस्तु कानून में शामिल करने में सफल हो गया है। ध्यान रहे इसी केन्द्र सरकार ने दो वर्ष पहले कपास के बीज को इस कानून से अलग कर दिया था। इससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने केन्द्र सरकार की लाचारी साबित होती है।भारत सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के एक सदस्य डा. पीएम भार्गव ने कहा कि बिल का मूल उद्देश्य खाद्य सुरक्षा समेत पर्यावरण सुरक्षा कानून को खत्म करना है। फिर भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह उनके कार्य को अपने हाथ में कैसे लेगा और उसका निष्पादन और बेहतर तरीके से कैसे करेगा। इसमें जनता के द्वारा हस्तक्षेप का भी कोई प्रावधान नहीं है।टीआरआईपीएम (ट्रिप्स) समझौतमा मालिकाना अधिकार के गलत इस्तेमाल के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। ट्रिप्स समझौते की धारा 7,8 और 40 सुरक्षा की बात करता है। पेटेंट कानून के अंतर्गत भी अनिवार्य लाइसेंस का प्रावधान है और पेटेंट की गई खोजों को जनता को वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराने का भी प्रावधान है। पेटेंट करने वालों के द्वार अधिकारों के गलत इस्तेमाल पर रोक का प्रावधान होना चाहिए जिससे आम जनता को पेटेंट किये गए खोजों को उचित कीमत पर उपलब्ध कराना सुनिश्चित किया जा सके।इस संदर्भ में बीआरएआई (ब्राई) 2009 बिल के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पक्षी धाराओं में संशोधन किया जाना चाहिए जिससे कि किसानों, पर्यावरण और देश की सुरक्षा की जा सके। इसके लिए निम्नलिखित संशोधनों को बिल में उपयुक्त स्थान पर जोड़ा जाना चाहिएःअध्याय 5 में:21 (1) प्राधिकरण के पास कम से कम तीन नियंत्रण संकाय होंगे, जो इस प्रकार हैंः(1) कृषि, वन और मत्स्य पालन को देखने और कानून के प्रावधानों के अनुसार नियंत्रण की जिम्मेदारी और शेड्यूल के खण्उ-1 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पाद के अंतर्गत नियम और कानून के लिए एक संकाय का गठन;(2) जन स्वास्थ्य और पशु स्वास्थ्य के नियमन और (3) शेड्यूल-1 खण्ड-3 में वर्णित और उत्पादन के अंतर्गत बने नियम और कानून के प्रावधानों के अनुसार नियंत्रण के लिए एक संकाय का गठन।इन धाराओं का संशोधन करने के लिए सलाह दी जाती है कि आयात, उत्पादन या किसी और अन्य उद्देश्यों के लिए कार्यान्वयन को विज्ञान आधारित मूल्यांकन के लिए जोखिम के मूल्यांकन को प्रस्तावित तीन खण्डों जोखिम के मूल्यांकन, इकाई और उत्पाद नियमन समिति पर नहीं छोड़ा जा सकता है। जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पर्यवेक्षकों ने बार-बार कहा है, स्वतंत्रता जांच और जांच की सुविधा की जरूरत है। इसलिए जोखिम के मूल्यांकन में फसल/उत्पाद विकसित करने वालों के द्वारा जमा किया गया बायो सुरक्षा फाइल का मूल्यांकन शामिल होना चाहिए। इसके अलावा अनिवार्य रूप से स्वतंत्र सार्वजनिक जांच के साथ-साथ परिणाम की स्वतंत्र जांच को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। किसी भ प्रस्तावित प्रशासन के पास जांच की सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए।अध्याय 1361. इस कानून की जरूरतों तथा निर्देशों के संबंध में अगर कोई व्यक्ति सूचना देता है या दस्तावेज प्रस्तुत करता है जिसे गलत या भ्रामक होने का उसे ज्ञान है, तो उसे 3 महीने तक की सजा और 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। 61 (1) अगर कोई व्यक्ति या उसके बदले कोई अन्य व्यक्ति प्रयोगशाला में भाग 33 के नियमों के विरूद्ध शेड्यूल-1 के खण्ड 2 में वर्णित या सूक्ष्म जीवों का परीक्षण करता है तो उसे 5 से 10 वर्षो के कारावास के साथ 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। ऊपर के उपनियमों में संशोधन के लिए निम्नलिखित सलाह दी जा रही हैःअपराध और जुर्माना के संबंध में अध्याय 13यह स्पष्ट नहीं है कि गलत या भ्रामक सूचना से संबंधित खण्ड 61 उस व्यक्ति पर कैसे लागू होगा जो जानबूझकर गलत या भ्रामक सूचना देता है। अगर यह विशेष रूप से राष्ट्रीय बायोसुरक्ष प्राधिकरण के लिए नहीं है तो इसको जनता को परेशान करने वाला कानून समझा जाएगा। उसी प्रकार खण्ड-63 पूर्ण रूप से आपत्तिजनक है और इस विनाशकारी तकनीक के कार्यान्वन से चिंतित नागरिक समाज के समूहों को परेशान करने के लिए है। इस उपभाग में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति जीएमओ उत्पादों के विषय में बिना किसी सबूत या वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर जनता को भ्रमित करता है तो वह जुर्माना या कारावास का हकदार हो सकता है।हकीकत में इस प्रस्तावित कानून में जिम्मेदारी का पक्ष बहुत कमजोर है। सर्वप्रथम कम्पनियों, विश्वविद्यालयों, सोसाइटी, ट्रस्ट, सरकारी विभाग आदि में भेद नहीं होना चाहिए। सभी पर दण्ड का प्रावधान समान होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि कानून को शिकायत दूर करने या मुआवजा देने और समाधान निकालने या सफाई करने के मामले में द्रुतगामी होना चाहिए। इस कानून में ऐसा प्रावधान भी होना चाहिए जो उत्पाद के विकास की पूरी प्रक्रिया के हर स्तर पर लिंक करने या मिलावट आदि के लिए विकसित करने वाले को पूर्ण रूप से जिम्मेदार बनाता हो। इसके अलावा एक वर्ष का कारावास और 2 लाख रुपये का जुर्माना कोई सजा नहीं है। इसे और कठिन बनाया जाना चाहिए।अध्याय 6शेड्यूल-1 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों का आयात से संबंधित व्यवस्थाः कस्टम कानून 1962 या किसी और कानून के द्वारा आयात पर रोक लगे वस्तुओं के संबंध में कानून के खण्ड 26 के अंतर्गत आएगा और शेड्यूल-1 के उपभोग 1,2 और 3 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के संबंध में लागू होगा। उन वस्तुओं के आयात के लिए अध्याय... के तहत प्रशासन और कस्टम कानून 1962 के अंतर्गत अधिकार प्राप्तअधिकारियों से उस समय लागू किसी अन्य कानूनी इजाजत की जरूरत होगी। उप वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पाद पर कर लगाने के लिए कस्टम के कमिश्नर तथा अन्य अधिकारियों को भी वही अधिकार प्राप्त होगा। इनमें संशोधन लाने की सलाह दी जाती है।अध्याय 10 सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के आयात से संबंधितप्रावधानों के लिए है। यहां हानि किये जाने वाले सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के डब्बों को रोकने के अलावा यह व्यवस्था होनी चाहिए कि आयातकर्ता आयात के समय घोषणा करे कि आयातित होने वाले सामान में कोई जीएमओ या हानिकारक उत्पाद नहीं है।यह नियम भारत आ रहे सभी आयात के लिए होना चाहिए।अध्याय 4इस कानून के उद्देश्यांें के लिए प्रशासक कानून द्वार प्रमाणित प्रयोगशालाओं, शोध संस्थानों आदि को सूचित कर सकते हैं।बायोटेक्नोलोजी के आधुनिक विकास और प्रयोगशालाओं में उपलब्ध नए उपकरणों और सुविधाओं के मद्देनजर प्रशासक अगर उचित समझे तो गैर प्रमाणित संस्थाओं को भी इसकी सूचना दे सकते हैं।उपनियम में संशोधन की सलाहअध्याय 10 में प्रयोगशालाओं को सूचित करने के संबंध में यह उचित नहीं है कि ‘बायोटेक्नोलोजी के आधुनिकता विकास के कारण’ गैरप्रमाणित संस्थाओं को भी सूचित किया जाय। आधुनिक तकनीक के विकास के ऐसे समय इंतजार करने की जरूरत है।शेड्यूल-1 के खण्ड-2 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों का उत्पादन, बिक्री और वितरण। इसके बाद निम्नलिखित को जोड़ा जाना चाहिएः “अगर अधिकतम खुदरा मूल्य समर्थन को देखते हुए निश्चित किया गया है।”व्याख्या: प्रशासन को चाहिए कि वे छोटी और मध्यम आकार की कम्पनियों को आदेश दे कि वे बायोटेक्नोलोजी की जानकारी किसानों तक पहुंचाये। किसान तकनीक से लाभ प्राप्त करने वाले है। प्रस्तावित बिल में स्वागतयोग्यः कार्यालय के कार्य स्थगन होने पर ट्रिब्यूनल और प्रशासन में विभिन्न पदों के लिए नियुक्ति पर कम से कम 2 वर्षों के लिए रोक। यह एक स्वागतयोग्य कदम है।
- कोल्ली नागेश्वर राव
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- कोल्ली नागेश्वर राव
at 9:53 am | 0 comments | कोल्ली नागेश्वर राव
बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा कृषि में दखल
सरकार ने घोषणा की है कि संसद के वर्तमान सत्र में बायोटेक्नोलोजी नियंत्रण आथोरिटी बिल (बीआरएआई-ब्राई) 2009 पेश किया जायेगा। इसमें संदेह नहीं है कि हर क्षेत्र और खासकर कृषि और बायो टेक्नोलोजी में वैधानिक नियंत्रण प्राधिकरण होना चाहिए। इस प्राधिकरण का काम राष्ट्रीय हित में और खासकर कृषि, पर्यावरण और जनहित के कार्यों से जुड़ा होना चाहिए। इंटरनेट पर उपलब्ध केन्द्रीय सरकार के द्वारा तैयार किये गए बिल से ऐसा लगता है कि जेनेटिक इंजीनियरिंग, फसल आदि के निगरानी का काम विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय को सौंप दिया गया है। ऐसा लगता है कि इस बिल को बायो टेक्लोलोजी विभाग ने तैयार किया है। बिल प्रयोग के उपयोग2000 में मोनसांटों बहुराष्ट्रीय कम्पनी के द्वारा बिना किसीप्राधिकरण के इजाजत के बीटीआई बीज के भारत में प्रयोग का हमारे पास अनुभव है। जब आंध्र प्रदेश में किसान संगठनों ने बीटीआई के गैरकानूनी ढंग से प्रयोग के विरूद्ध संघर्ष किया तो आंध्र प्रदेश की विधानसभा ने इसके प्रयोग पर रोक लगाने का प्रस्ताव किया क्योंकि इसे किसी भी प्राधिकरण या प्रशासन से इस प्रयोग की इजाजत नहीं थी। राज्य सरकार के इस फैलसे के बाद कम्पनी ने 2002 में जीईएसी से खेत में प्रयोग के लिए इजाजत ली।जीईएसी ने बिना किसी प्रयोग या जांच के इस के वाणिज्यीय तौर पर उत्पादन की इजाजत दे दी। इससे पता चलता है कि बीटीडी और विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग देश के पर्यावरण कानून तथा जनता और किसानों को सुरक्षा के प्रति कितना सजग है। बायोटेक्नोलोजी मूल रूप से पर्यावरण और वन मंत्रालय तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के प्रति जागरूक है। इसलिए यह कार्य इन दो में से किसी एक मंत्रालय और खासकर पर्यावरण और वन मंत्रालय को सौंपा जाना चाहिए।एक दूसरा पहलू है कि यह राज्य की विषय है और राज्य सरकार को कृषि की निगरानी करने का अधिकार है। लेकिन वर्तमान बिल राज्य सरकारों को अक्षम बना देगा क्योंकि “राज्य बायोटेक्नालोजी नियंत्रक सलाहकार समितियों” के रूप में उसे सिर्फ सलाह देने का अधिकार दिया गया है। राज्य सरकारों को कोई भी फैसला लेने का अधिकार नहीं रह जाता है।कुछ लोग यह विश्वास करते है कि बीआरएआई - 2009 एनबीआरए - 2008 के बिल का विकसित रूप है। लेकिन बीआरएई-2009 देश के अन्दर के किसानों के पक्ष में कम और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पक्ष में ज्यादा है। ऐसा लगता है कि बिल का पूरा जोर हमारे देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था और किसानों के खिलाफ है और मोनसांटो जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के पक्ष में है। ये बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जीएम और बीटी फसलों का विकास करती है।मोनसांटो अन्य कम्पनियों का रुखमोनसांटो कम्पनी बीटी-1 बीज को किसानों के हाथों 1880 रु। प्रति पैकेट बेचकर उनका शोषण करना चाहती है। बीटी-1 बीज के 450 ग्राम के पैकेट की लगात मूल्य 600 रु. है। अखिल भारतीय किसान सभा का नेतृत्व और उपाध्यक्ष कोल्ली नागेश्वर राव के साथ-साथ आंध्र प्रदेश की सरकार मोनसांटो की मनमानी के खिलाफ संघर्षों और अदालती कार्रवई के द्वारा लड़ रही है। लेकिन इसके बावजूद यह कम्पनी कानूनी और गैरकानूनी माध्यमों से कीमत की दर बढ़ाने में लगी हुई है। जब अखिल भारतीय किसान राज्य सरकार को प्रभावित करने में असफल रही तो इसनेे केन्द्र सरकार तक अपनी पहुंच लगाई।अब केन्द्र सरकार को प्रभावित कर यह कपास के बीज को आवश्यक वस्तु कानून में शामिल करने में सफल हो गया है। ध्यान रहे इसी केन्द्र सरकार ने दो वर्ष पहले कपास के बीज को इस कानून से अलग कर दिया था। इससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के सामने केन्द्र सरकार की लाचारी साबित होती है।भारत सरकार के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के एक सदस्य डा. पीएम भार्गव ने कहा कि बिल का मूल उद्देश्य खाद्य सुरक्षा समेत पर्यावरण सुरक्षा कानून को खत्म करना है। फिर भी यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि यह उनके कार्य को अपने हाथ में कैसे लेगा और उसका निष्पादन और बेहतर तरीके से कैसे करेगा। इसमें जनता के द्वारा हस्तक्षेप का भी कोई प्रावधान नहीं है।टीआरआईपीएम (ट्रिप्स) समझौतमा मालिकाना अधिकार के गलत इस्तेमाल के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। ट्रिप्स समझौते की धारा 7,8 और 40 सुरक्षा की बात करता है। पेटेंट कानून के अंतर्गत भी अनिवार्य लाइसेंस का प्रावधान है और पेटेंट की गई खोजों को जनता को वाजिब कीमत पर उपलब्ध कराने का भी प्रावधान है। पेटेंट करने वालों के द्वार अधिकारों के गलत इस्तेमाल पर रोक का प्रावधान होना चाहिए जिससे आम जनता को पेटेंट किये गए खोजों को उचित कीमत पर उपलब्ध कराना सुनिश्चित किया जा सके।इस संदर्भ में बीआरएआई (ब्राई) 2009 बिल के बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पक्षी धाराओं में संशोधन किया जाना चाहिए जिससे कि किसानों, पर्यावरण और देश की सुरक्षा की जा सके। इसके लिए निम्नलिखित संशोधनों को बिल में उपयुक्त स्थान पर जोड़ा जाना चाहिएःअध्याय 5 में:21 (1) प्राधिकरण के पास कम से कम तीन नियंत्रण संकाय होंगे, जो इस प्रकार हैंः(1) कृषि, वन और मत्स्य पालन को देखने और कानून के प्रावधानों के अनुसार नियंत्रण की जिम्मेदारी और शेड्यूल के खण्उ-1 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पाद के अंतर्गत नियम और कानून के लिए एक संकाय का गठन;(2) जन स्वास्थ्य और पशु स्वास्थ्य के नियमन और (3) शेड्यूल-1 खण्ड-3 में वर्णित और उत्पादन के अंतर्गत बने नियम और कानून के प्रावधानों के अनुसार नियंत्रण के लिए एक संकाय का गठन।इन धाराओं का संशोधन करने के लिए सलाह दी जाती है कि आयात, उत्पादन या किसी और अन्य उद्देश्यों के लिए कार्यान्वयन को विज्ञान आधारित मूल्यांकन के लिए जोखिम के मूल्यांकन को प्रस्तावित तीन खण्डों जोखिम के मूल्यांकन, इकाई और उत्पाद नियमन समिति पर नहीं छोड़ा जा सकता है। जैसा कि उच्चतम न्यायालय के पर्यवेक्षकों ने बार-बार कहा है, स्वतंत्रता जांच और जांच की सुविधा की जरूरत है। इसलिए जोखिम के मूल्यांकन में फसल/उत्पाद विकसित करने वालों के द्वारा जमा किया गया बायो सुरक्षा फाइल का मूल्यांकन शामिल होना चाहिए। इसके अलावा अनिवार्य रूप से स्वतंत्र सार्वजनिक जांच के साथ-साथ परिणाम की स्वतंत्र जांच को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। किसी भ प्रस्तावित प्रशासन के पास जांच की सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए।अध्याय 1361. इस कानून की जरूरतों तथा निर्देशों के संबंध में अगर कोई व्यक्ति सूचना देता है या दस्तावेज प्रस्तुत करता है जिसे गलत या भ्रामक होने का उसे ज्ञान है, तो उसे 3 महीने तक की सजा और 5 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। 61 (1) अगर कोई व्यक्ति या उसके बदले कोई अन्य व्यक्ति प्रयोगशाला में भाग 33 के नियमों के विरूद्ध शेड्यूल-1 के खण्ड 2 में वर्णित या सूक्ष्म जीवों का परीक्षण करता है तो उसे 5 से 10 वर्षो के कारावास के साथ 10 लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है। ऊपर के उपनियमों में संशोधन के लिए निम्नलिखित सलाह दी जा रही हैःअपराध और जुर्माना के संबंध में अध्याय 13यह स्पष्ट नहीं है कि गलत या भ्रामक सूचना से संबंधित खण्ड 61 उस व्यक्ति पर कैसे लागू होगा जो जानबूझकर गलत या भ्रामक सूचना देता है। अगर यह विशेष रूप से राष्ट्रीय बायोसुरक्ष प्राधिकरण के लिए नहीं है तो इसको जनता को परेशान करने वाला कानून समझा जाएगा। उसी प्रकार खण्ड-63 पूर्ण रूप से आपत्तिजनक है और इस विनाशकारी तकनीक के कार्यान्वन से चिंतित नागरिक समाज के समूहों को परेशान करने के लिए है। इस उपभाग में कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति जीएमओ उत्पादों के विषय में बिना किसी सबूत या वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर जनता को भ्रमित करता है तो वह जुर्माना या कारावास का हकदार हो सकता है।हकीकत में इस प्रस्तावित कानून में जिम्मेदारी का पक्ष बहुत कमजोर है। सर्वप्रथम कम्पनियों, विश्वविद्यालयों, सोसाइटी, ट्रस्ट, सरकारी विभाग आदि में भेद नहीं होना चाहिए। सभी पर दण्ड का प्रावधान समान होना चाहिए। दूसरी बात यह है कि कानून को शिकायत दूर करने या मुआवजा देने और समाधान निकालने या सफाई करने के मामले में द्रुतगामी होना चाहिए। इस कानून में ऐसा प्रावधान भी होना चाहिए जो उत्पाद के विकास की पूरी प्रक्रिया के हर स्तर पर लिंक करने या मिलावट आदि के लिए विकसित करने वाले को पूर्ण रूप से जिम्मेदार बनाता हो। इसके अलावा एक वर्ष का कारावास और 2 लाख रुपये का जुर्माना कोई सजा नहीं है। इसे और कठिन बनाया जाना चाहिए।अध्याय 6शेड्यूल-1 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों का आयात से संबंधित व्यवस्थाः कस्टम कानून 1962 या किसी और कानून के द्वारा आयात पर रोक लगे वस्तुओं के संबंध में कानून के खण्ड 26 के अंतर्गत आएगा और शेड्यूल-1 के उपभोग 1,2 और 3 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के संबंध में लागू होगा। उन वस्तुओं के आयात के लिए अध्याय... के तहत प्रशासन और कस्टम कानून 1962 के अंतर्गत अधिकार प्राप्तअधिकारियों से उस समय लागू किसी अन्य कानूनी इजाजत की जरूरत होगी। उप वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पाद पर कर लगाने के लिए कस्टम के कमिश्नर तथा अन्य अधिकारियों को भी वही अधिकार प्राप्त होगा। इनमें संशोधन लाने की सलाह दी जाती है।अध्याय 10 सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के आयात से संबंधितप्रावधानों के लिए है। यहां हानि किये जाने वाले सूक्ष्म जीवों और उत्पादों के डब्बों को रोकने के अलावा यह व्यवस्था होनी चाहिए कि आयातकर्ता आयात के समय घोषणा करे कि आयातित होने वाले सामान में कोई जीएमओ या हानिकारक उत्पाद नहीं है।यह नियम भारत आ रहे सभी आयात के लिए होना चाहिए।अध्याय 4इस कानून के उद्देश्यांें के लिए प्रशासक कानून द्वार प्रमाणित प्रयोगशालाओं, शोध संस्थानों आदि को सूचित कर सकते हैं।बायोटेक्नोलोजी के आधुनिक विकास और प्रयोगशालाओं में उपलब्ध नए उपकरणों और सुविधाओं के मद्देनजर प्रशासक अगर उचित समझे तो गैर प्रमाणित संस्थाओं को भी इसकी सूचना दे सकते हैं।उपनियम में संशोधन की सलाहअध्याय 10 में प्रयोगशालाओं को सूचित करने के संबंध में यह उचित नहीं है कि ‘बायोटेक्नोलोजी के आधुनिकता विकास के कारण’ गैरप्रमाणित संस्थाओं को भी सूचित किया जाय। आधुनिक तकनीक के विकास के ऐसे समय इंतजार करने की जरूरत है।शेड्यूल-1 के खण्ड-2 में वर्णित सूक्ष्म जीवों और उत्पादों का उत्पादन, बिक्री और वितरण। इसके बाद निम्नलिखित को जोड़ा जाना चाहिएः “अगर अधिकतम खुदरा मूल्य समर्थन को देखते हुए निश्चित किया गया है।”व्याख्या: प्रशासन को चाहिए कि वे छोटी और मध्यम आकार की कम्पनियों को आदेश दे कि वे बायोटेक्नोलोजी की जानकारी किसानों तक पहुंचाये। किसान तकनीक से लाभ प्राप्त करने वाले है। प्रस्तावित बिल में स्वागतयोग्यः कार्यालय के कार्य स्थगन होने पर ट्रिब्यूनल और प्रशासन में विभिन्न पदों के लिए नियुक्ति पर कम से कम 2 वर्षों के लिए रोक। यह एक स्वागतयोग्य कदम है।
- कोल्ली नागेश्वर राव
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- कोल्ली नागेश्वर राव
at 9:50 am | 0 comments | अंतोन चेखव
देशांतर/चोरी छिपाये न छिपे - अंतोन चेखव
तीन देहाती घोड़ों के पीछे, बेहद एहतियात बरतते हुए अपनी शिनाख्त महफूज रख, पीटर पॉसुडिन किसी गुमनाम खत की पुकार के वश-पीछे की गलियों से ‘एनः प्रांत’ के छोटे से आंचलिक नगर की ओर-कदम उछालता चला जा रहा था।“कितना प्रच्छन्न; वाह; धुंए समान काफूर हो आया हूं ना- कोट की गरेबान में चेहरा लुपकाया वह मन ही मन इतराया। अपनी वाहियात षडयंत्री योजनाओं की कामयाबी के बाद, अब, इस ख्याल-कि कितनी चालाकी दिखा उन्होंने रास्ते फुदक लिये-से बेहद प्रफुल्ल वे नीच बर्बर परस्पर पीठें ठोक रहे होंगे - हा! हा! विजयोल्लास के चरम पर, यह सुन - ‘लिऑपकिन तिऑपकिन को मेरे पास लाओ’ उनके चेहरे की उड़ी हवाई और सिर पर मंडराये आतंक को मैं टुकुर टुकुर देख रहा हूं। कितना बवाल मचा होगा वहां। हा! हा!”मनमोदन से चुकने के बाद पासुडिन ने कोचवान को वार्तालाप में उलझाया। ख्याति के लोभी हर आदमी समान उसने सर्पप्रथम अपने ही बाबत पूछा:”जरा बताओ, तुम जानते हो पॉसुडिन कौन है?““मुझे क्या मालूम?” कोचवान ने खीसंे निपोरी। “हमें बस यही पता वह कौन है।”“हंस क्या रहे हो?”“कितना अजीब। यह सोचना कि पॉसुडिन कौन है, जबकि हर कोई छोटे से छोटे हर कारकून को जानता है। इसलिए तो वह यहां है, हर किसी के जाना जाने के लिए।”“ठीक-तो उसके बारे में क्या ख्याल है? वह अच्छा आदमी है ना?”“बुरा नहीं,” किसान जम्हाई लेता है। वह एक अच्छा जेंटिलमॅन है; अपना काम समझता है। करीब दो वर्ष पूर्व ही तो उसे यहां भेजा गया था, और देखो, उसने तभी से कमाल कर दिया।“क्या-क्या किया उसने? ठीक से बताओ।”“उसने कई बढ़िया काम किये हैं, ईश्वर उसका भला करे। वह रेलरोड लाया, उसने खोखिंकोव को जिलाबदर किया, बहुत ही खराब आदमी था वो खोखिंकोव; बदमाश, कमीना। पहले वालों को तो उसने जाल में फंसा लिया था, लेकिन पॉसुडिन क्या आया कि खोखिंकोव ऐसा लोप हुआ मानो कभी था ही नहीं। जी हां, सर! पॉसुडिन के हाथों में कभी रिश्वत नहीं रखी जा सकती; कतई नहीं! अगर आप उसे सौ या हजार रूबल रिश्वत देते तो किसी पाप का बोझ उस पर से नहीं - वाकई नहीं - उतार पाते।”‘खुदा का शुक्र है कम से कम उस बाबत मुझे ठीक समझा गया!’ मन में बोलता पॉसुडिन उल्लास से जा भरा। ‘वाकई शानदार’“वह खुशमिजाज जेंटिलमॅन है। हमारे कतिपय आदमी, एक बार, उसके पास कुछ शिकायतें ले गये तो उसने उनके साथ जेंटिलमॅनों जैसा ही बरताव किया। सबसे हाथ मिला बोला, ‘आइये बैठिये।’ बड़ा फुरतीला, बल्कि उतावला जेंटिलमॅन है वह; गुपचुप चर्चा जरा पसंद नहीं उसे, एकदम फटाफट - हमेशा फटाफट! धीमे कदम जरा नहीं, बिलकुल नहीं! हमेशा दौड़ता, भागता हुआ। हमारे लोगों की बात पूरी हुई न हुई कि चिल्ला पड़ाः ‘गाड़ी लाओ!’ और सीधा यहां, हमारे यहां चला आया। सारे मामलात आनन फानन निपटा दिये, एक कोपेक की भी रिश्वत नहीं ली। पिछले वाले से हजार गुना बेहतर है वह हांलाकि वह भी भला था। वह साफ सुथरा था, और आनबान बनाये रखना पसंद करत, लेकिन पूरे इलाके भर कोई उससे ऊंची आवाज नहीं बोल सकता था। सड़क पर जब होता दस मील तक उसकी आवाज सुनाई देती। लेकिन काम के निपटारे बाबत वर्तमान वाला ही हजार गुना कुशाग्र। इस वाले का भेजा खोपड़ी के ठीक ठिकाने ही नहीं दूसरे से सौ गुना बड़ा है। ये हर तहर बढ़िया आदमी है; सिर्फ एक ही बात तकलीफदेह यह कि - शराबखोर है!”‘हे भगवान!’ पॉसुडिन सोचने लगा।“तुम्हे कैसे मालूम उसने पूछा कि मैं- कि वो शराबी है?”“ओह, बेशक, हुजूर हालांकि मैंने उसे कभी भी नशा किया हुआ नहीं देखा। जो सच नहीं वह नहीं कहूंगा, दरअसल लोगों ने मुझे कहा - यद्यपि उन्होंने भी उसे नशा किया हुआ नहीं देखा; लेकिन उसके बारे में ऐसा ही कहा जाता है। सार्वजनिक स्थानों पर, या किसी से मुलाकात के दौरान, या बॉल-समारोहों के बीच वह भी नहीं पीता; वह घर में ही गटकता है। सुबह उठा, आंखे मलीं, कि ध्यान में उसके पहली चीज जो आ समाये वह होती है वोडका! उसका खानगी नौकर एक गिलास भर कर लाया न लाया कि गले उतार दूसरा मंगवाता है, और इसी तरह सारे दिन। और एक मजेदार बात बताऊं कि इतना पीने पर भी चेहरे पर कोई असर कभी नहीं! अपने को आपे में रखना बखूबी जानता है। जब अपना खोखिंकोव पीता आया तब लोग क्या कुत्ते तक भौंकते, लेकिन पॉसुडिन की नाक तक लाल नहीं होती। अपने अध्ययन कक्ष में जा बैठ सुड़कता रहता है। उसने अपनी मेज पर जमाये रखे किसी न किसी किस्म के पात्र में नली फिट की हुई है ताकि कोई न जान सके वह क्या कर रहा है जबकि पात्र मदिरा से लबालब होता है। थोड़ी ही सी हरकत की दरकार - बस, छोटी सी नली के सिरे तक झुको, सुड़को और मदमस्त हो जाओ। बाहर घूमते क्षण भी, अपने बैग में....”...‘उन्हें ये सत्र कैसे मालूम?’ बेहद भौंचक पॉसुडिन सोचता है। ‘हे भगवान, ये तक उन्हें पता है! कितना भयानक!...“और फिर, स्त्रियों के मामले में, वह बेहद धूर्त है।” चालक ने हंसते-हंसते मसखरे अंदाज में सिर लहराया। “बेहद लज्जास्पद बात है, वाकई शर्मनाक! उसने दस रख रखी हैं। दो तो उसी के घर में रहती हैं। एक का नाम है नतासिआ इवानोवना; उसे एक तरह से, पटरानी बना रखा है; दूसरी, क्या अजीब नाम उसका? ओह हां, लुडमिला सेमिओनावना। वह ऐसी गोया उसकी सेक्रेटरी हो। दसियों की सरगना है नतासिआ। उसके वश इतनी शक्तियां कि लोग पॉसुडिन की बनिस्वत उससे खौफ खाते हैं। और, तीसरी छिछोरी का क्या कहना- वह काशलाना स्ट्रीट में रहती है। कितना लज्जास्पद!“‘ये तो उनके नाम तक जानता है, ‘पॉसुडिन सोचने लगा, उसका चेहरा पीला पड़ गया। ‘और सोचो जरा, कौन है ये? - एक मामूूली किसान, कोचवान! कितनी भद्दी बात!’“तुम्हे यह सब कैसे पता चला?” उसने चिढ़ते हुए पूछा।“लोग ऐसा कहते हैं। मैंने खुद अपनी आंखों से नहीं देखा, लेकिन औरों के मुंह से सुना। ठीक क्या है कह नहीं सकता। किसी नौकर का या कोचवान का मुंह बंद करना मुश्किल है, और फिर, बहुत कर यह ही संभव कि नतासिआ स्वयं यहां-वहां जा सारी गलियां घूम अपनी हैसियत का एहसास अन्य स्त्रियों को कराती हो। कोई भी ऐसा आदमी नजरों से लुका नहीं रह सकता। फिर बात यह कि ये पॉसुडिन मुआयनों के अपने दौरे गोपनीय रखने लगा है। बीते दिनों जब कभी बाहर जाने का निर्णय लेता, तो महिना भर पहले प्रगट करता और जब जाता इतना होहल्ला, इतना उधम, इतना शोर होता- भगवान बचाये! आगे, पीछे, दोनों बाज घुड़सवार। अपने गंतव्य पहुंच, जरा झपकी ले, भरपेट खा पी चिल्ला, चीख-चीख पैर पटक-पटक प्रशासकीय काम कर दूसरी झपकी ले, जैसा आया वैसा ही लौट जाता। हालांकि अब कोई बात कानों पड़ी कि वह गुपचुप - ताकि कोई देखे न जाने - निगरानी रखता है,” सोचता है कि होगा, चिंता न करो बात आयी गयी- शायद कहीं किसी ने मजाक भी की होगी। वह घर से बाहर ऐसा जा खिसकता है कि कोई कर्मचारी देख न पाये, और टेªन पकड़ता है। गंतव्य के स्टेशन पर पहुंच न तो तेज तर्रार घोड़ों से लैस डाकगाड़ी और न ही किसी बग्धी पर सवार होता है बल्कि भीड़ में घुस-घुसा बाहर निकल स्वयं को किसी वृद्ध समान लबादे में लपेट पूरी राह किसी बुड्ढे कुत्ते जैसा गले से खरखराता रहता है ताकि उसकी आवाज पहचानी न जाये। लोग इतनी दिल्लगी बिखेरते ये सब सुनाते हैं कि हंसते-हंसते पेट फट जाये। मूढ़ बना गाड़ी में सवार सोचता होगा कोई क्या पहचानेगा। लेकिन जरा ही दिमाग चला हर कोई चीन्ह लेता है कौन है - हह!”“कैसे? कैसे?“बड़ी आसानी से। बीते दिनों, ऐसे ही आते जाते खोखिंकोव को उसकी भारी भारी भुजाओं से भांप लिया जाता था। जिसे गाड़ी पर बैठाया अगर मुंह पर गाली बके समझों खोखिंकोव। जबकि पॉसुडिन को तो देखते ही पहचान सकते हो। सामान्य यात्री का आचरण सीधा सादा, लेकिन पॉसुडिन सरलता से कोसों दूर। नगर पहुंच कोचवान पूछते हैं कहां चलें? - डाक बंगला - वह तत्क्षण चिल्ला पड़ता है। जगह गंधाती होती है, या खूब गर्म, या खूब ठंडी; वह ताजा मुर्गियां और नाना भंाति फल और मुरब्बे मंगवाता है। इस तरह डाक बंगलों पर उसे चीन्ह लिया जाता है; सर्दियों में कोई मुर्गियां और फल बुलवाये समझो पॉसुडिन है। अगर कोई खूब बनते हुए कहे ‘माय डीयर फेलो’, और तत्क्षण उसे घेरे लोग मूर्खों समान इत उत दौड़ते फिरें, पक्का मानो पॉसुडिन ही है। और फिर, उसकी देह से सामान्य महक नहीं उभरती है, तथा, सोते क्षण लेटने की उसकी अपनी ही विशिष्ट शैली है। डाक बंगले में वह सोफे पर लेट चारों बाजू इत्र छिड़क सिरहाने तीन कैंडल जलवा कर अखबार पढ़ता है। कोई आदमी क्या जरा सा तोता भी ये सब देख बता दे ये कौन शख्स है।”‘हूं’ पॉसुडिन सोचने लगा, ‘मैंने पहले से ख्याल क्यों नहीं रखा?’“और सुनो, उसे तो फलों, मुर्गियों के बगैर भी पहचाना जा सकता है। टेलीग्राम से सब कुछ पहले ही पता चल जाता है। चाहे जितना चेहरा ढंक ले, मन आये वैसा स्वयं को छिपा ले, यहां यूं ही खबर पड़ जाती है वो आ रहा है। लोग उसकी बाट जोहते हैं। पॉसुडिन ने उधर घर छोड़ा, विद ा ली, इधर उसके लिए सब कुछ तैयार! किसी को अचानक धर पकड़ गिरफ्तार करने, या बरखास्त करने आ रहा है; वे उस पर हंसते हैं। ‘हां हुजूर’, वे कहते हैं, यद्यपि आप भले अनायास आये, तथापि यहां सब कुछ व्यवस्थित है! इधर उधर चक्कर लगा अंततः आया वैसा ही लौट जाता है। बेशक, सब की प्रशंसा कर हाथ मिला व्यवधान पहुंचाने के लिए क्षमा मांगता है। बिलकुल सच कह रहा हूं, सर, यहां लोग बड़े उस्ताद हैं। हर कोई इतने कि पूछा न जाये! मसलन, आज ही क्या हुआ, जरा सुनिये। अलसुबह खाली छकड़ा लिये सड़क पर निकला क्या निकला कि यहूदी - रेस्तरां का मालिक मेरी ओर दौड़ा आया। ‘कहां चले यहूदी-स्वामी?” मैंने पूछा।... ‘कुछ मदिरा कुछ फल आदि नगर-एन ले जाना है,’ वह कहता है, ‘जनाब पॉसुडिन शायद आज वहां तशरीफ ला रहे हैं; ऐसा सुना है। ...अब तो बात साफ हो गयी ना? ...और उधर पॉसुडिन रवाना होने को तैयार हो रहा होगा, चेहरा लबादे और अन्य उपकरणों से ढंक स्वयं को यों छिपा रहा होगा कोई पहचाने नहीं। शायद, राह चलते सोच में मस्त होगा किसी को नहीं मालूम वह आ रहा है, फिर भी मदिरा और मसालेदार कीमा और पनीर उसके लिए तैयार हैं। बोलो, अब क्या कहेंगे? गाड़ी पर सवार वह सोच रहाः ‘अब, बच्चू, तुम लोगों की खैर नहीं!’ जबकि उस्तादों ने सब कुछ पहले ही छिपा दिया।”“गाड़ी पलटाओ!” पॉसुडिन खीज कर चीखा। “सीधे वापस ले चलो, साले बदमाश!”भौंचक चालक ने गाड़ी पलटायी और लौटने लगा।
- अंतोन चेखव
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- अंतोन चेखव
at 9:48 am | 0 comments | प्रदीप तिवारी
संप्रग-2 सरकार का एक साल
22 मई को संप्रग-2 सरकार ने अपना पहला साल पूरा कर लिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस दिन एक भोज देने वाले थे। उस दिन की शुरूआत मंगलौर हवाई अड्डे पर एयर इंडिया के एक विमान के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के साथ हुई जिसमें 158 यात्री काल कवलित हो गये। संप्रग-2 के एक वर्ष के दौरान केन्द्रीय सरकार द्वारा नियंत्रित यातायातसाधनों की दुर्घटनाओं में एक हजार से अधिक यात्री मारे गये। यह संप्रग-2 की कार्यकुशलता की एक बानगी है।संप्रग-1 सरकार से वामपंथ द्वारा समर्थन वापसी के बाद से मंहगाई जिस गति से बढ़ना शुरू हुई उसने संप्रग-2 सरकार के पहले साल में एक ऐसी गति पकड़ ली जिसका ढूंढ़ने पर भी इतिहास में कोई उदाहरण शायद ही मिल सके। खाद्यान्नों की कीमतें दो गुना से ज्यादा बढ़ गयीं। दालों और चीनी की कीमतों में तो तीन गुने से ज्यादा वृद्धि हुई। आम जनता के कराहने की आवाज को अपने कानों तक न आने देने के लिए प्रधानमंत्री ऐतिहासिक विकास-दर हासिल करने की बांसुरी बजाने में मशगूल रहे, मंहगाई पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने कुछ नहीं किया। 24 मई केा अखबार नबीसों को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने महंगाई की बाबत पूछे गये सवालों का जवाब देते हुए वर्षान्त तक महंगाई पर काबू पाने की उम्मीद जताते हुए जोर दिया कि जल्दी ही देश 10 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेगा। महंगाई से त्रस्त जनता के घावों पर संप्रग-2 सरकार के मंत्री नमक छिड़कते रहे। ”चीनी की कमी से मधुमेह से बचने में मदद मिलेगी“ जैसे जुमले पूरी की पूरी सरकार के रवैये को साफ करते हैं। उल्टे पेट्रोलियम पदार्थों और खाद की कीमतों में बढ़ोतरी कर सरकार ने महंगाई की आग को और हवा दी। साथ ही खेती को पूरी तरह अलाभप्रद कर देने की साजिश भी जिससे कार्पोरेट खेती के लिए रास्ता खोला जा सके।संप्रग-2 सरकार के पहले साल ही स्पेक्ट्रम और आईपीएल जैसे घोटाले सामने आ चुके हैं। स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपी संचार मंत्री ए. राजा अभी भी उसी विभाग के मंत्री बने हुए हैं। ऐ घोटाले तो बानगी मात्र हैं कि संप्रग-2 के कार्यकाल में पहले ही साल कितने घोटाले किए जा चुके हैं जिनका खुलना अभी बाकी है। शायद ही कोई विभाग हो जो भ्रष्टाचार से बजबजा न रहा हो। पूरी की पूरी व्यवस्था भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी है।संप्रग-2 सरकार के सभी मंत्री अहंकार से ग्रस्त हैं। बड़े बोल बोलना और दूसरे की बेइज्जती करना उनके प्रिय शगल है। शशि थरूर ने तो देश के प्रथम कांग्रेसी प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू पर भी कीचड़ उछाल दिया। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने बीजिंग में हदें पार कर अपनी ही सरकार का मखौल बना दिया। गृह मंत्री चिदम्बरम आनन-फानन में माओवादियों के खात्मे की उद्घोषणायें करते रहे और उन्होंने इस समस्या की जड़ समझने तक की कोई कोशिश नहीं की। परिणामस्वरूप एक सौ से अधिक पुलिस जवान शहीद हो चुके हैं। देश के समन्वित विकास के प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। 72 प्रतिशत जनता बीस रूपये प्रतिदिन से कम की आय पर जीवन-यापन कर रही है। असंगठित क्षेत्र में आय और रोजगार की दशा सुधारने के कोई संकेत प्रधानमंत्री भी नहीं दे सके हैं।संप्रग-2 सरकार ने अमरीकी साम्राज्यवाद और उसके संगठन - विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सामने समर्पण कर दिया। देश की सम्प्रभुता तक से समझौता कर लिया गया। भारत सरकार वही नीतियां लागू कर रही है जो उसके अमरीकी आका चाहते हैं। नाभिकीय दायित्व बिल इसका ज्वलन्त उदाहरण है।अपनी असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए संप्रग-2 सरकार के कर्णधार राज्य सरकारों के मत्थे तमाम बातों को मढ़ते रहते हैं। युवराज राहुल अपनी मां के साथ अमेठी एवं रायबरेली संसदीय क्षेत्र का विकास न होने का आरोप वर्तमान बसपा सरकार पर मढ़ते रहते हैं। लम्बे समय तक केन्द्र एवं राज्य सरकार कांग्रेस की रही हैं, उस दौरान उन क्षेत्रों के विकास के लिए कांग्रेसी सरकारों ने क्या किया? यह जनता के लिए सोचने का सवाल है।संप्रग-2 सरकार के पहले साल भी उस पर सरकार बचाने के लिए सीबीआई के दुरूपयोग के आरोप लगते रहे। महंगाई को लेकर वाम मोर्चा के कटौती प्रस्ताव पर लोक सभा में सपा, राजग और बसपा का बहिष्कार का रवैया इसका ताजा उदाहरण है।इसीलिए शायद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 24 मई की अपनी प्रेस कांफ्रेस में अपनी सरकार को कोई नम्बर नहीं दिये जैसाकि वे संप्रग-1 की सरकार के कार्यकाल के दौरान किया करते थे।
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at 9:47 am | 0 comments |
कामरेड वेद वर्मा दिवंगत
भाकपा फैजाबाद के जिला मंत्री कामरेड वेद वर्मा का 19 मई को एक सड़क दुर्घटना में असामयिक निधन हो गया।कामरेड वर्मा 1980 में नौजवान सभा में अपनी सक्रियता के दौरान पार्टी के सदस्य बने थे। वे इसके पूर्व कई सालों तक फैजाबाद भाकपा के सह सचिव रहे। कई वर्षों बाद फैजाबाद जिला सचिव के रूप में अपनी स्वतंत्र भूमिका स्थापित करने में वे सफल रहे थे। उनके निधन से पार्टी को तीव्र झटका लगा है। उनके निधन का समाचार मिलते ही राज्य केन्द्र पर शोक का माहौल हो गया। पार्टी ध्वज को उनके सम्मान में झुका दिया गया। भाकपा राज्य सचिव समाचार मिलते ही शाहजहांपुर से फैजाबाद के लिए रवाना हो गये। राज्य सचिव मंडल के सदस्य अशोक मिश्रा भी फैजाबाद के लिए रवाना हो गये।
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