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सोमवार, 31 मई 2010
at 10:11 am | 0 comments | वेद प्रकाश
परसाई का पुनर्पाठ - "यातना के अनुभाव"
हरिशंकर परसाई की कहानियों में पात्र-वैविध्य की बात हम कर चुके हैं, इस वैविध्य का बहुत बड़ा कारण परिस्थितियां, उनसे जूझते चरित्र का निर्मित होता हुआ मनोविज्ञान और उस सूक्ष्म मनोविज्ञान की पकड़ है। परसाई द्वारा चित्रित मानव-चेहरे यंत्र नहीं हैं, उनकी जीवंत गतिविधियों में से समकालीन जीवन अपनी व्यापकता में झांकता नजर आता है। इसीलिए उनके पात्रों का आचरण, आचरण भर न होकर बहुत कुछ की ओर संकेत करने वाला माध्यम बन जाता है। वह जीवन की जटिलता को भी अभिव्यक्त करता है। अनेक प्रगतिशील कलाकारों पर पात्रों को सपाट बना देने का आरोप लगाया जाता रहा है। परसाई के पात्र इस आरोप से पूरी तरह मुक्त हैं। अन्य अनेक संदर्भों की तरह इस संदर्भ में भी परसाई के पूर्वज कथाकार प्रेमचंद का उल्लेख आवश्यक है।प्रेमचंद के पात्र सदैव, हर स्थिति में एक ही प्रकार का आचरण करने वाले पात्र नहीं है। प्रेमचंद उनमें मानवीय गुणों को देखने के साथ-साथ, उनकी कमजोरियों को भी यथावसर उभारते चलते हैं। होरी जैसे पात्र में भी कमजोरियों को मुंह उठाते देखा जा सकता है। वह भोला के मन में शादी कराने की उम्मीद जगाता है और इस आधार पर भोला से गाय ले लेता है। होरी स्त्रियों के मनोविज्ञान को भी खूब समझता है। धनिया, भोला को भूसा नहीं देती तो होरी भोला के मुंह सेधनिया की तारीफ सुनाता है। होरी-धनिया का वह संवाद बहुत पठनीय है। जो धनिया पहले भूसा देने के लिए मनाकर रही थी, वही धनिया होरी को फटकारती हुई भोला के घर भूसा पहुंचवाती है - यही तो होरी का उद्देश्य था। होरी भाइयों के हिस्से के बांस बचेने में भी बेईमानी करता है।संसार में कोई भी व्यक्ति न तो देवता होता है, न ही राक्षस। खलनायक भी आखिर होता तो नायक ही है। उसमें कभी-कभी मानवोचित, गुण उभर सकते हैं। इसी प्रकार अच्छे कहे जाने वाले पात्रों की भी कमजोरियां होती हैं। परसाई को पढ़ते समय मानव-व्यक्तित्व में इन परस्पर विरोधी गुणों को ध्यान में रखने की जरूरत महसूस होती है। इस परस्पर विरोधिता से ही परसाई की करुणा भी अभिव्यक्ति होती है। धनंजय वर्मा ने लिखा है -‘इसीलिए इन (परसाई की) कहानियों का भावबोध भी अलहदा है। वह ऐसा आधुनिकवादी भावबोध नहीं है जिसमें मनुष्य का या तो पाशविक बिम्ब उभरता है या यांत्रिक। न तो वह आत्मनिर्वासन भोगता हुआ शाश्वत निर्थकता का शिकार है, न अन्तर्गुहावासी और आत्मलीन है। अस्तित्ववादी विसंगतिबोध के बरअक्स इनकाभावबोध आधुनिकता की अनिवार्य प्रक्रिया से रूपायित है।’उपर्युक्त संदर्भ में परसाई की एक कहानी ‘मनीषीजी’ को यहां लिया जा रहा है। इस कहानी का आरंभ इस प्रकार होता है -‘शहर के मध्य भाग में स्थित एक चाय का होटल है जो होटल से अधिक क्लब है। बाहर से बहुत भद्दा दिखने वाले इस होटल में तीस-चालस सदस्य रोज नियमित रूप से चाय पीते हैं। यहां असामान्य व्यक्ति ही मैंने देखे हैं। सीमान्तों पर स्थित मनुष्यों का जमघट यहां होता है- याने वे जिनके मुख से निरन्तर ज्ञान झरता है, और वे जिनके मुख से गालियों की अजस्र वर्षा होती है। वे जो बीड़ी तक नहीं छूते और वे जो गांजे की चिलम फंूके बिना घर से बाहर नहीं निकलते हैं, वे जो अखण्ड संयमी हैं, और वे जो वेश्या के यहां जाकर पड़े रहते हैं। वे जो गऊ से सीधे हैं, और वे जो सियार से धूर्त हैं। पंडित, ज्ञानी, नेता, लेखक, कवि, शराबी, जुआड़ी, वेश्यगामी, गुण्डे - सब यहां आते हैं और अंधेरे कमरे की भारी-भरकम टेबिल के आसपास टूटी कुर्सियांे पर बैठकर उपनिषद की व्याख्या से लेकर ‘बर्थ कण्ट्रोल’ के विषयों पर चर्चा होती है।’यह परसाई के समकालीन परिवेश की तफसील का एक हिस्सा है। यह परसाई के रचना-लोक का एक बहुत बड़ा घटना स्थल भी है। बड़े लोगों के क्लबों के समानांतर निम्न और निम्नमध्यमवर्गीय लोगों का भी अपना क्लब होता है। यह क्लब हमारे आसपास की जानी-पहचानी स्थिति है। परसाई इन्हीं स्थितियों में से अपने पात्र उठाते हैं। कहने को तो इन स्थलों पर अनेक असामान्य, सीमांतों पर स्थित मनुष्य आते है, लेकिन यह उनका बाह्य परिचय है। परसाई ‘सीमांतों पर स्थित’ ऐसे मनुष्ययों के अंदर झांकते हैं और अनैतिक रूप से परिभाषित चरित्रों की नैतिकता की भीतरी शक्ति से साक्षात्कार करते हैं। यह साहित्य के लोकतंत्र की खूबी है, जहां अधिक-से-अधिक सकारात्मक होने की कोशिश की गई है। परसाई ने व्यंग्य की ऐसी धारा को नैतिक दिशा दी।रचनात्मक कलप्ना का आधार इसी लोक में होता है। विरोधी स्थितियां भी यहीं हैं। बुरे-से-बुरे कहे जाने वाले व्यक्ति में कोई खूबी हो सकती है और अच्छे-से-अच्छे में कोई कमी। मानवीय गुणों एवं सीमाओं से परे कोई व्यक्ति नहीं है। परसाई की रचनाओं में अनेक जगह बुरे समझे जाने वाले पात्र की अपनी सकर्मकता एंव आचरण में मानव-मूल्यों की रक्षा करने वाले पात्र के रूप में स्थापित है। भिन्न संदर्भ में कही गई आ। रामचंद्र शुक्ल को उक्ति याद आती है, ‘जिन मनोवृत्तियों का अधिकतर बुरा रूप हम संसार में देखा करते हैं उनका भी सुन्दर रूप कविता ढूंढकर दिखाती है।’ परसाई की एक कहानी है - ‘वे दोनों’। कहानी में व्यंजना है कि हनुमानजी के मंदिर से नियमित रूप से कथा सुनकर आने वाले वंशीलाल की तुलना में रोजाना जुए के अड्डे से लौटने वाले सुन्दरलाल का आचरण अधिक मानवीय है। बहरहाल, यहां हम मनीषीजी पर विचार कर रहे हैं, जो सही-गलत की श्रेणियों में आने वाले पात्रों से भिन्न है। उसका सही होना भी जटिलता लिए है और गलत होना भी। वह संश्लिष्ट स्थितियों को अभिव्यक्त करने वाला और कभी-कभी अभिव्यक्त न कर पाने के कारण अबूझ बन जाने वाला पात्र है। परसाई अपनी तरफ से अबूझ को बूझने का पूरा प्रयास करते हैं। यह प्रयास उनके पूरे लेखन की विशेषता है। वे चीजों का प्रकृत सम्बन्ध-कारण कार्य सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते हैं। उन्होंने मनीषी का परिचय यों दिया है-‘मेरी असामान्यता की साधना जब पूरी हुई, तब मैं भी एक मित्र के द्वारा यहां लाया गया और मेरा प्रथम परिचय ‘मनीषीजी’ से कराया गया। प्रथम दृष्टि में ही जिस व्यक्ति को मैं ग्रहण कर सका, वह कुछ ऐसा था, अब ऐसा ही है- और शायद हमेशा ऐसा रहेगा।घुटनों तक खादी की धोती, खादी की मिरजंई, पांव में फटी चप्पलें, ऐसी कि पांवों की रक्षा कम करें, इज्जत की ज्यादा- आंखों पर चश्मा, बड़ी-बड़ी पानीदार आंखे जिनमें एक क्षण में दार्शनिक-सी चिंता, और दूसरे क्षण मूढ़-सी शून्यता, चौड़ा चेहरा जिस पर पहाड़ी झरने-सी निर्मल हंसी तथा बडप्पन और सद्भावना की झलक।उम्र अभिनेत्री की उम्र जैसीधोखेबाज और स्थिर।’पहले कहा जा चुका है कि परसाई की रचनाओं का एक वैशिष्टय यह है कि उनमें विधाओं का संश्लेष मिलता है। उपयुक्त उद्धरण में पहले स्थानीयता का चित्र खींचा गया है, फिर पात्र का पोर्ट्रेट के रूप में। यह शैली पूरी तरह से नाट्यधर्मी है। यहां दो जगह असामान्यता का उल्लेख है। एक आसामान्यता तो उन व्यक्तियों में है जो चाय के होटल में नियमित आते हैं। दूसरी वाचक की है। वस्तुतः असामान्य कौन है? परसाई संभवतः उस रचनाकार को असामान्य कहना चाहते हैं जो इन निम्नवर्गीय क्लबों के प्रतीक्षा करते पात्रों को वाणी देने के कार्य की उपेक्षा करके मध्यवर्गीय कुण्ठाओं, अजनबीपन, मौन आदि की अभिव्यक्ति में ही सैदव लगे रहते हैं।मनीषीजी जिन जीवन स्थितियों से गुजरकर अपने वर्तमान तक पहुंचे, हमारे देखे गए व्यक्तियों में से कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो एक विशेष प्रकार के स्थैर्य तक पहुंचे हुए हैं, जिनके जीवन में कोई संभावना ही नहीं बची है। इस तरह का स्थैर्य और संभावनाहीनता, करुणाजनक स्थिति है। मनीषीजी का बाहरी व्यक्तित्व आकर्षित करता है, लेकिन अन्दर से उसमें इतनी पर्तें हैं जिन्हें पूरी तरह जान पाना असंभव है-‘वेश और शरीर को मिलाकर यह रूप ‘मनीषी’ के व्यक्तित्व की किताब की रंगीन ‘जैकिट’ है, जिसके भीतर जासूसी उपन्यास की तरह एक के बाद एक रहस्यमय अध्याय भरे हैं जिनहें पढ़ते हुए मुझे दस साल हो गये, फिर भी जब अंतिम अध्याय पर पहुंचता हूं, तो देखता हूं कि आगे कोई परिशिष्ट जुड़ गया है।’मनीषी के जीवन के अध्यायों और परिशिष्टों का ब्यौरा कहानी में हास्य-व्यंग्य के रूप में आया है। परसाई की यह विशेषता है कि किसी पात्र का परिचय देते समय वे स्थितियों को वास्तविक रूप में ही रखते हैं, अतिशयोक्ति का प्रयोग नहीं करते। जरूरत पड़ती है तो फैण्टेसी रचते हैं। साथ ही वे इन संघर्ष में पड़े पात्रों को दयनीय भी नहीं बनाते, न ही इनके प्रति भावुक होते हैं। यह करुणा और दया का भेद है। परसाई रचनाओं के माध्यम से पाठकों के विवेक, उनकी बौद्धिकता को सैदव जाग्रत रखते हैं।मनीषी के जीवन का निर्माण असंख्य भारतीयों के जीवन-निर्माण के मेल में है। वह ऊपर से असामान्य लग सकता है, लेकिन ध्यान देने पर वह विश्वसनीय पात्रों में से एक है। स्वातंत्र्योत्तर के भीतर रहकर एक आमजन तरह तरह से अपनी आजीविका का प्रबंध करता रहा है। उसे एक को छोड़कर दूसराधंधा खोजना पड़ा है। एक में आमदनी नहीं तो दूसरा सही। इस क्रम में वह तरह-तरह की पदवियां धारण करता है। ऐसे लोगों को हम अपने आस-पास, अपने परिवार-सम्बन्धियों में खूब देख सकते हैं, मनीषी ने जो पदवियां धारण की हैं, उन्हें देखिए -‘पदवियों सहित पूरा नाम ‘पंडित महादेव प्रसाद शास्त्री, ‘साहित्य मनीषी, भूतपूर्व सम्पादक-हिमाचल, आयुर्वेदाचार्य, ज्योतिषरत्न है। ‘शास्त्री’, ‘साहित्य मनीषी’, ‘आयुर्वेदाचार्य’ और ‘ज्योतिषरत्न’ पदवियां उन्होंने बिना किसी परीक्षा पास किये अपने आपको प्रदान कर ली हैं। ये ‘ऑनरेरी डिगरियां हैं, जैसी अरब के शाह को भारतीय विश्वविद्यालयों द्वारा दी गयी ‘डॉक्टरेट’। हिमाचल साप्ताहिक के कभी मनीषी स्वयं संपादक, व्यवस्थापक, कम्पोजिटर, मशीन मैन, हॉकर-सब एक साथ ही थे। यह साप्ताहिक जब उनका मन होता था, तब निकलता था। एक बार किसी अन्य पत्र के सम्पादक ने उनका नाम महादेव प्रसाद मनीषी की जगह ‘महादेव प्रसाद मवेशी’ छाप दिया। मनीषीजी को जब्त कहां? दूसरे ही अंक में उस सम्पादक के लिए माता और भगिनी से सम्बन्धित सब अश्लील गालियंा छाप दीं। मुकदमा चला और वे शीघ्र ही ‘भूतपूर्व सम्पादक’ हो गये।‘ऐलोपेथी’ और आयुर्वेद के वे समान रूप से पंडित हैं - कुनैन और कड़ा-चिरायता की सीमाओं को लांघने की बदतमीजी उनके ज्ञान ने कभी नहीं की। वे अपने को गरीबों का वैद्य कहते हैं। रोगी की जांच का दो पैसा और एक खुराक दवा का एक पैसा, जो उनका रेट है, अक्सर उधार ही रहता है।’ ऐसे आयुर्वेदाचार्यों का अपना ही तर्कशास्त्र होता है। मनीषी के चिकित्सा-ज्ञान पर जब किसी ने संदेह प्रकट किया तो उन्होंने समझाया -‘देखो भाई, गरीब आदमी न तो एलोपेथी से अच्छा होता है, न होमियोपैथी से, उसे तो -सिम्पेथी’ (सहानुभूति) चाहिए। मैं ‘सिम्पेथी’ की सहस्रपुटी मात्रा देता जाता हूं, रोगी अच्छा होता जाता है।’ अपनी चिकित्सा की सफलता के सम्बन्ध में उन्होंने एक बार कहा - ‘सौ में पचास रोगी अपने आप अच्छे हो जाते हैं - दस डॉक्टर की दवा से अच्छे होते हैं। जो चालीस मरते हैं, उनमें पन्द्रह तो जीवन-शक्ति की समाप्ति के कारण मरते हैं और पच्चीस को डॉक्टर की दवा मार डालती है। मैं इन पच्चीस लोगों को साफ बचा लेता हूं, क्योंकि मेरी पुड़िया न अच्छा असर करती है, न बुरा। पन्द्रह तो धन्वन्तरि के इलाज में भी मरेंगे ही। शेष को मैं अपनी ‘सिम्पेथी’ की डोज से बचा लेता हंू। इस तरह मेरे इलाज में पचासी फीसदी रोगी अच्छे हो जाते हैं।’परसाई गद्य-पद्य की किसी भी शैली या साहित्य-रूप का यथोचित प्रयोग करने में अद्वितीय हैं। इस कहानी में एक स्थान पर रहस्य-भावना की सृष्टि की गई है। वस्तुतः यह सृष्टि भी कहने का एक ढंग है। इससे लगता है कि मनीषी के जीवन का बहुत कुछ ऐसा है जिसे जाना नहीं जा सकता। बताता तो वह बहुत है। एक कप चाय के बदले अपना एक जीवनाभुव सुनाता हैं, पर ऐसा भी कुछ छूट जाता है जिसे वह कभी नहीं कहता। वह बेहद निजी, मार्मिक है। उसे कहना करुणा चुराना है, और मनीषी, परसाई के उन पात्रों में से है जो करुण नहीं चुराता। परसाई ने ऐसे भी पात्र देखे-दिखाये हैं जिन पर स्थितियों से संघर्ष का तुरंत असर पड़ता है, वह संघर्ष उनके ऊपर साफ दिखता है, लेकिन उन्होंने मनीषी जैसे पात्रों को भी खोजकर दिखाया जिनके संघर्ष में कोई कमी नहीं लेकिन उनमें संघर्ष के बाद का एक स्थैर्य भी आ गया है। अब जिन पर किसी बात का कोई असर नहीं पड़ता। इस स्थैर्य की विसंगति को न समझ पाने पर ऐसे पात्रों पर जीवन रहस्यात्मक लगता है। मनीषी चाय के होटल के ऊपरी हिस्से में न जाने कब से रहता चला आ रहा है और लगता है कि आजीवन वहीं रहेगा। वह कोईधन्धा नहीं करता पर भोजन वह करता ही है। कपड़े भी उसके उजले हैं। यह एक रहस्य ही है। मनीषी के चेहरे पर कभी चिंता, परेशानी नहीं देखी गयी। वह इन भावों से ऊपर उठ गया है -‘परन्तु इस व्यक्ति के मुख पर मैंने कभी चिन्ता-रेखा नहीं देखी, कभी परेशानी की छाया नहीं देखी, कभी दुःख की मलिनता नहीं देखी, जिसके खाने का ठिकाना नहीं है, जो दो दिन भूख पड़ा रहता है, एक फटा टाट जिसकी शैया है, वर्षों पहले जिसके ईंट के चूल्हे पर अभी तक मिट्टी नहीं चढ़ पायी, एक मिट्टी का घड़ा, एक टीन का गिलास, एक तवा और डेगची जिसकी समस्त सम्पत्ति है, शरीर पर पहने हुए कपड़ों के सिवा जिसके पास एक अंगोछा और एक फटा कम्बल-मात्र है - बस चिर यौवन से कैसे लदा है? वार्धक्य इससे क्यों डरता है? केश किस भय से श्वेत नहीं होते? झुर्रियां चेहरे को क्यों नहीं छूती? चिन्ताओं के दैत्य इससे क्यों दूर रहते हैं? दुःख इसके पास क्यों नहीं फटकता? यह किस स्रोत से जीवन-रस खीेंचता हैं कि सदा हरा-भरा रहता है? किस अमृत-घट से इसने घूंट पी लिया है कि संसार का जहर उस पर चढ़ता ही नहीं?‘अंधेरे में’ की वे पंक्तियों याद आती हैं जो श्रीकांत वर्मा और अशोक वाजपेयी द्वारा सम्पादित ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ में नहीं है -किन्तु वह फटे हुए वस्त्र क्यों पहने हैं?उसका स्वर्ण-वर्ण मुख मैला क्यों?वक्ष पर इतना बड़ा घाव कैसे हो गया?उसने कारावास दुख झेला क्यों?उसकी इतनी भयानक स्थिति क्यों है?रोटी उसे कौन पहुंचाता है?कौन पानी देता है?फिर भी उसके मुख पर स्मित क्यों है?प्रचंड शक्तिमान क्यों दिखाई देता है?मनीषी का चरित्र कभी ‘जिंदगी और जांेक’ के रजुआ की तरफ जाता है, कभी स्वयं परसाई की कहानी ‘रामदास’ के रामदास की ओर, लेकिन मनीषी इन दोनों से भिन्न एक तीसरी तरह का पात्र है। उसके चरित्र को गरिमापूर्ण दिखाया गया है, वह पढ़ा-लिखा व्यक्ति है, इसीलिए स्थैर्य उसकी दार्शनिक भूमि है। वैसे भी तीनों ही पात्र भारतीय जनता के बीच से उठाए गए हैं और प्रतिनिध पात्र बन गए हैं। मनीषी और रामदास अलग-अलग ढंग से यातनाओं को झेलते हैं।कुछ लोग तब बांसुरी बजाते हैं, जब आग बाहर लगी हो लेकिन मनीषी पेट की आग से जूझने के लिए या उसे व्यक्त करने के लिए बांसुरी बजाता है-‘एक दिन मैं होटल में बैठा था। ऊपर से बांसुरी की आवाज आयी। मैंने होटल-मालिक से पूछा, ‘बांसुरी कौन बजा रहा है।’ उन्होंने कहा, ‘वही होगा, मनीषी। खाना नहीं मिला होगा, तो बांसुरी बजा रहा है।’ उन्होंने उसे पुकारा और पूछा, ‘अरे, खाना खाया कि नहीं?’ भूखे मनीषी के मुख पर मुस्कान आयी, जैसी भरे पेटवाले के मुख पर भी दुर्लभ है। वह बोला, ‘खाया तो था, लेकिन परसों।’ होटल-मालिक ने उसे कुछ पैसे देकर कहा, जा कुछ खा ले और यह गाना-बजाना बन्द कर दे।अर्थात जब मनीषी भूखा होता है तो बांसुरी बजाता है। पेट भरा होने पर वह कभी बांसुरी नहीं बजाता। परसाई ने आगे लिखा -‘आगामी कल की जिसे चिन्ता न हो ऐसा आदमी दुर्लभ है, पर मनीषी को आज की भी चिन्ता नहीं है। कल कहीं से रोटी मिल गयी थी, तो आज भी कहीं से मिल जायेगी। आज न आयी तो झक मारकर कल आयेगी- ऐसा उसका विश्वास है।’एक होता है नकटापन। इसमें बिना बात ढिठाई, जिद होती है। मनीषी की जिद का स्थैर्य ऐसा नहीं है। उसने खूब काम किया, कई बार धंधे बदले, लेकिन श्रम से कुछ बना नहीं। बहुतों के संदर्भ में ‘श्रम का फल अवश्य मिलता है’ की उपदेशात्मकता धरी रह जाती है। मनीषी के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह व्यक्ति की असफलता का प्रतीक है। रामदास की ही तरह। उसने राजनीति का ‘व्यवसाय’ भी अपनाया, यह जानकर कि नेता होना बड़ा अच्छा धंधा है, लेकिन राजनीति में भी मनीषी कुछ न कर पाया। राजनीति में उसने अपने को हास्य की वस्तु बना लिया, जिसके बदले उसको चाय और कुछ पैसे मिल जाते। मनीषी ने फिल्म-कम्पनी में भी काम किया, लेकिन वहां से भी वह एक औसत, डरपोक की तरह जोखिम और अनैतिकता से डरकर भाग आया। परसाई की कहानियों में समकालीनता की ऐतिहासिक दृष्टि से पड़ताल है। स्वातंत्र्योत्तर भारत जिसे धनंजय वर्मा ने भ्रम-भंग और दिग्भ्रान्ति के दोनों छोरों के बीच तना हुआ परिवेश कहा है, में सफलता के लिए स्थार्थी होना अनिवार्य था। लेकिन मनीषी जैसा व्यक्ति सफलता की इस अनिवार्य शर्त पर खरा नहीं उतरा, उल्टे उसके व्यक्तित्व की गरिमा ही झड़ती जाती है, वह निरंतर हास्य की वस्तु होता जाता है- परसाई उसी में से करुणा उत्पन्न करते हैं। मनीषी ‘उदारता’ मे कर्ण और ‘शरणागत वत्सल’ है। अभाव में भी दूसरों के बारे में सोचा जा सकता है- मनीषी इसका उदाहरण है। परसाई ने विरोधी स्थितियों में पड़े हुए मनीषी की मानवीय प्रवृत्तियों को बचा हुआ दिखाया है। मनीषी जैसे पात्र के रूप में उन्होंने मध्यवर्गीय अवसरवादी, स्वार्थी, चालाक लोगों का विवादी पात्र चित्रित किया है। परसाई मनीषी जैसे पात्रों के जीवन से असंतुष्ट हैं, वे उनमें बचे हुए मानवीय मूल्यों को लेकर कभी-कभी परेशान भी होते हैं, क्योंकि ये उनकी यातना को बढ़ाते ही हैं, लेकिन यदि उनमें ये गुण हैं तो उनका उल्लेख भी भरपूर करते हैं। ऐसी स्थिति में व्यंग्यात्मक वचन इन पात्रों की जटिलता को व्यक्त करते हैं, विरोध में नहीं जाते। मनीषी के पास जो कुछ है, जैसा भी है, उसमें दूसरा का भी हिस्सा है और नहीं है तो उस अभाव को भी वह दूसरों के समक्ष बांसुरी के माध्यम से परोस सकता है -‘कोई आफत का मारा आ जाय, मनीषी के गज-भर टाट पर और मक्के की दो रोटी पर उसकाअधिकार है। जब तक घड़े में आटा है तब तक रोटी खिलायेगा और आप खायेगा। जब आटा चुक जायेगा, तब मनीषी बांसुरी बजायेगा और अतिथि कुढ़ता हुआ सुनेगा।... जिसे सब तिरस्कृत करें, वह अगर मनीषी के यहां पहुंच गया तो मनीषी अपना भाई बना लेंगे। कितने ही लोग उसका आश्रय पाते हैं। घर में निकले हुए लड़के, बेकार आदमी, तिरस्कृत नारियां-सब उसके औदार्य की छाया में आ बैठते हैं। कोई-कोई कृतध्न जिस वृक्ष की छाया में बैठते हैं उसे एक-दो कुल्हाड़ी मार जाते हैं या कुछ शाखाएं ही नोंच जाते हैं। सुनते हैं ये आश्रयहीन लोग जाते वक्त उनका फटा कम्बल या लोटा ही ले भागे हैं।परसाई की रचनाओं में भूख को अनेक रूपों में बिंबित किया गया है। उनके याहं ऐसे भी पात्र आते हैं जिनका सारा प्रयास, सारी चालाकी पेट भरने तक सीमित होकर रह जाती है। कभी-कभी ऐसे पात्र इस उद्देश्य में भी असफल रहते हैं। ये पात्र सफलता के लिए अपने को स्थितियों के अनुसार नहीं ढाल पाए, इसलिए लगातार पिछड़े गए। परसाई की ही एक अन्य कहानी है - ‘पुराना खिलाड़ी’ कहानी में जीवन-हेतु अनिवार्य के लिए संघर्ष करते या चालाकी करते पात्र के लिए होटल वाले सरदारजी बार-बार ‘पुराना खिलाड़ी है, ‘जरा बचके रहना’- वाक्य का प्रयोग करते हैं। वाचक द्वारा पूछने पर कि ‘पुराना खिलाड़ी होता तो ऐसी हालत में रहता?’ सरदारजी जो उत्तर देते हैं, वह ध्यान देने योग्य है -‘उसका सबब है। वह छोटे खेल खेलता है। छोटे दांव लगाता है। मैंने उसे समझाया कि एक-दो बड़े दांव लगा और माल समेटकर चैन की बंशी बजा। मगर उसकी हिम्मत ही नहीं पड़ती।बड़ा दांव लगाने की हिम्मत मनीषी में भी नहीं है। परसाई के अनेक सामान्य पात्रों में यह साहस नहीं है, यही उनकी त्रासदी का कारण है। ‘बेचारा कॉमनमैन’ का हलकू ईमानदार होने के कारण संत पद प्राप्त न कर सका। रामदास को भी यही बीमारी है। ‘सेवा का शौक’ का रामनाथ हंसने का नाटक नहीं कर सकता, इसीलिए मां-बहिन समेत भूखों मरता है। ‘पुराना खिलाड़ी’ अपने ही जैसों से चालाकी करने को अभिशप्त है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जो आचरण होना चाहिए था, उसे यदि कुछ लोगों ने अपना लिया तो वह विडंबना का कारण बन गया। अब जो जितना बड़ा दांव लगाएगा उतना ही सुखी-सफल होगा। जो इसमें समर्थ नहीं वे भूख लगने पर बांसुरी बजाने के अतिरिक्त और क्या कर सकते हैं? ऐसे लोगों में धीरे-धीरे कुछ भी उद्यम करने की निरर्थकता का बोध जगता है। वे उदासीन, विरक्त होते हैं। ऐसे पात्रों के लिए जीवन-जगत, प्रकृति, स्थितियों को कोई अर्थ नहीं- यही इनका स्थैर्य है। यह स्थिति संघर्ष करके थकने के बाद की स्थिति है, उद्यम की निरर्थकता का फैसला दो कारणों से लिया जा सकता है। बड़े दांव खेल सकने वाले कुछ लोगों की आत्मा में यह प्रकाश बिना किसी संघर्ष के जल्दी फैल सकता है, यह जल्दी-जल्दी ऊंची सफलता प्राप्त कर लेने की महत्वाकांक्षा है। परसाई ने ‘टार्च बेचने वाले’ कहानी में लिखा, ‘तुम शायद सन्यास ले रहे हो। जिसकी आत्मा में प्रकाश फैल जाता है, वह इसी तरह हरामखोरी पर उतर आता है।’ परसाई के रचना-लोक में ऐसे ‘हरामखोर’ खूब मिलते हैं। लेकिन मनीषी ने जब यह सोचा कि ‘कोई काम नहीं करना ही अच्छा है’ तो यह उसकी यातना का चरम-बिन्दु है। यह अपने आपसे ही अलगाव-बोध है। यह जीवन-स्थितियांें से टक्कर लेने में असफल रहने वाले सामान्य व्यक्ति द्वारा सत्य का साक्षात्कार है। जब सिर्फ और सिर्फ पेट ही भरना है तो कुछ करने और न करने में क्या अंतर है। ‘पूस की रात’ के हल्कू को यह साक्षात्कार हुआ था। मनीषी ने भी स्वीकार कर लिया कि यही उसकी नियति है। जब यही निश्चित है तो रोने-गाने, चीखने- चिल्लाने से क्या बनता-बिगड़ता है। दूसरे तो इसमें भी आनंद ही लेंगे। इसलिए वह दुःख की अभिव्यक्ति का रूप बदल देता है-‘थोड़ी देर बाद नीचे उतरे तो चेहरे पर वही मस्ती, वही हंसी थी। मैं सोचता हूं, क्या यह हंसी विक्षिप्त की हंसी है? क्या यह निरपेक्ष जीवन का हास्य है? क्या यह उस चरम विफलता की हंसी है, जब आदमी सोच लेता है कि हमसे अब कुछ नहीं बनेगा? क्या यह उस उदासीन वृत्ति का हास्य है कि हमारे बनने या बिगड़ने में कोई मतलब नहीं? अथवा दर्द को कलेजे की भट्टी में गलाकर इसने हंसी के रूप में प्रवाहित कर दिया है,।परसाई मानव के आचरण से ही उसकी मूल प्रकृति को नहीं पकड़ते, वे भावों तथा मनोविकारों के बदलते हुए अनुभावों को भी पहचानते हैं। वे रुलाई वाली हंसी और हंसीवाली रुलाई और इनसे भी अलग विचित्र हंसी को पहचानने में माहिर हैं। वे अपने पात्रों को केवल उसी रूप में नहीं देखते, जिस रूप में लापरवाह लोग देखते हैं, और उन्हें हास्यास्पद बना देते हैं। वे असामान्य लगने वालों के भीतर तक जाते हैं, स्थितियों में उनकी असामान्यता के कारणों की खोज करते हैं। इसलिए जो पात्र पाठकों को अब तक विचित्र, हास्य के आलंबन लगते थे, अब वे करुणा के आलंबन हो गए। परसाई करुणा के प्रसार के रचनाकार हैं, लेकिन यहां यह याद रखना चाहिए कि यह करुणा यथायोग्य है, बेमतलब की नहीं। परसाई क्रोध और घृणा की अभिव्यक्ति के भी रचनाकार हैं। वे बुरी माने जाने वाली मनोवृत्तियों के शुभ पक्ष की भी स्थापना करते हैं। इसीलिए भी कहा जाता है कि परसाई की कहानियों ने काहनी के आस्वाद के धरातल में परिवर्तन किया है। मनीषी एक पात्र तो है ही, वह सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने का माध्यम भी है।
- वेद प्रकाश
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प्रस्तावानाः राष्ट्रीय परिषद की पिछली बैठक (दिसम्बर, 2009, बंगलौर) के बाद राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक आर्थिक और राजनैतिक घटनाक...
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पेट्रोल एवं डीजल पर वैट घटाने की भी मांग लखनऊ 1 जून। घरेलू बिजली दरों में बेपनाह बढ़ोतरी पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने आक्रोश जाहिर करते ...
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Claiming that anti- Congress and anti- BJP mood is prevailing in the country, CPI today said an alternative front of Left and regional p...
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New Delhi, July 9 : Communist Party of India (CPI) leader D. Raja on Tuesday launched a scathing attack on the Bharatiya Janata Party (B...
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गरीबों को प्राविधिक शिक्षा से बाहर कर उन्हें आज का एकलव्य बनाने का रास्ता उत्तर प्रदेश सरकार ने तैयार कर दिया है। विश्वगुरु बनाने के नारे ...
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दूध, दालों के बढ़ते दाम से खाद्य वस्तुओं की महंगाई १७.70% पर नई दिल्ली: दूध, फलों एवं दालों की बढ़ती कीमतों से 27 मार्च को समाप्त हुए सप्ताह...
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