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सोमवार, 31 मई 2010
at 10:16 am | 0 comments | डॉ. कमलानन्द झा
शिकम की आग लिए फिर रहे है शहर-ब-शहर
मैं मुहाजिर नहीं हूं
(उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
सुनील साहित्य सदन
नई दिल्ली-2
मूल्य: 150/- रुपये
बादहशाह रिजवी का ताजा उपन्यास ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ विभाजन की गहरी पीड़ा और चुभते दंश की सरल-सहज अभिव्यक्ति है। अविभाज्य हिंदुस्तान के कथा नायक शमीम, लाहौर में रेलवे के बड़े अधिकारी हैं। 14 अगस्त 1947 की उस मनहूस रात को उन्हें ज्ञात होता है कि वे हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान में हैं। बस्ती के एक छोटे से गावं हिल्लौर वासी रेलवे अधिकारी शमीमुल हसन रिज़वी उर्फ शमीम से एक बार यह पूछने की ज़रूरत भी महसूस नहीं की जाती हैं कि वे हिंदुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में। इस विकल्प विहीनता की स्थिति में पाकिस्तान छोड़ने का मतलब था नौकरी से हाथ धो बैठना। दिल पर पत्थर रखकर शमीम लाहौर में रह जाते हैं किंतु उनका ‘सब कुछ’ बस्ती के उस छोटे-से गांव हिल्लौर में ही छूट जाता है। ‘सब कुछ’ का मलतब उनका अपना घर-परिवार, दोस्त, हिल्लौर की आबोहवा, वहां की खूबसूरती-बदसूरती, अच्छाई-बुराई, मन की भावनाएं, प्रेम, ईर्ष्या, सुख, दुख... सब कुछ। विभाजन की त्रासदी परशोध कर रहे शोधार्थी को अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए शमीम कहते हैं, “वक्त और लीडरों की सियासत ने मुझ जैसे बहुत सारे लोगों को उनके मां-बाप, भाई-बहन, पत्नियों, तमाम रिश्तेदारों से, उनकी अपनी सरज़मी से अलग कर दिया। मेरी ही मिसाल ले सकते हो, पैसे रहते हुए भी मैं अपने घरवालों के लिए कुछ नहीं कर सकता था। जब-जब उनके बारे में सोचता दिल कट के रह जाता। मां-बाप बड़ी लावारिसी की जिंदगी गुजार के इस दुनिया से गुजर गए। मैं इतना बदनसीब था कि बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल तो दूर, उनका आखिरी दीदार भी नहीं कर सका।”वर्षो बाद कथानायक शमीम अपने नाती के साथ हिल्लौर आते हैं। पूरे उपन्यास में शमीम कभी विगत यादों में खो-से जाते हैं, कभी लंबे अंतराल में हुए परिवर्तन को छोटे बच्चे की तरह चकित-भाव से देखते हैं। उपन्यास में शमीम वह बाइस्कोप हैं जहां से पूरे हिल्लौर के विगत और वर्तमान को देखा जाता है।उपन्यासकार हुसैन रिजवी की स्पष्ट धारणा है कि ‘विभाजन के पीछे अपने ही देसी लीडरों का हाथ था।’ मजे की बात तो यह है कि इन लीडरों ने कौम को दो हिस्सों में बांट दिया और देशभक्ति का खिताब भी पाया। विभाजन के समय आबादी की अदला-बदली की मुहिम जोर पकड़ती चली गई, आजाद हिंदुस्तान में इस मुहिम ने नई शक्लें अख्तियार कर लीं। सांप्रदायिक ताकतों ने अपनी-अपनी कौमें बांट लीं। स्वयं तय कर लिया कि हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और मुस्लिम लीग तथा जमात-ए-इस्लामी मुस्लिम समुदाय का। जिन्हें यह बंटवारा पसंद नहीं था वे राजेश जोशी के शब्दों में ‘मारे जायेंगे, मारे भी गए। आश्चर्य तो यह कि बंटवारे की एवज में इन दलों को महिमामंडित भी किया गया।‘मैं मुहाजिर नहीं’ गंगा-जमुना संस्कृति को अधिक से अधिक पुख्ता करने की नीयत से लिखा गया उपन्यास है। यह ठीक है कि औपन्यासिक कला की दृष्टि से यह उपन्यास वह ऊंचाई प्राप्त नहीं कर पाता है जिसमें झूठा-सच, तमस, ‘सत्ती मैया का चौरा’ और‘आधा-गांव’ आदि उपन्यासों को शामिल किया जाता है किन्तु यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम एकता और सह-संबंध की डोर मजबूत तो करता ही है साथ ही, अद्भुत रूप से आम पाठकों को कनविंस भी करता है। उपन्यासकार इस संबंध की संवेदनशीलता को उद्घाटित करने के लिए हिंदू घर में एक विवाह का दृश्य खींचता है। उस ‘बरहमन’ के यहां शादी में घारातियों और बरातियों में कई मुसलमान थे और वो भी अपनी पूरी पहचान के साथ। कथा नायक शमीम इस संस्कृति पर रीझकर नाज करते हुए कहते हैं, “नुसरत यही है हिंदुस्तान की असली पहचान। जिस पर कभी आंच नहीं आ सकती। जमाना जो भी कर ले। इस पर जितना भी नाज किया जाए कम है।” आगे मुहर्रम के दृश्यों के बहाने तो मीरा बाबा की प्रकृति के बहाने उपन्यासकार ने इस मिली-जुली अनूठी संस्कृति को अत्यंत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत किया है।उपन्यास मुस्लिम समाज में व्याप्त आंधविश्वास, पिछड़ेपन, अशिक्षा और परंपरावादिता की तीखी आलोचना करता चलता है। इस अंधविश्वास की जड़ की तलाश करते हुए उपन्यासकार इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि “दरअसल हम लोगों को ‘इल्यूजन’ में रहना ज्यादा अच्छा लगता है और यही आधार है, मिथकों के जिंदा रहने का।” इस ‘इल्यूजन’ या भ्रम के शिकार अशिक्षित मुसलमान ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे और विदेशों में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले मुसलमान भी हो जाते हैं। वास्तव में मुस्लिम समाज के विकास में यह ‘इल्यूजन’ बाधक के रूप में हाजिर होता है।इस उपन्यास ने एक और अमरीका की दहशतगर्दी और दूसरी ओर उच्च मुस्लिम समाज का अमरीकी संस्कृति के प्रति बढ़ते मोह के अंतर्द्वद्व को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिस ‘कॉमेंट्री शैली’ में अमेरिका के साम्राज्यवादी कूटनीतिक षड़यंत्र का पर्दाफाश उपन्यासकार ने किया है, वह गौर-तलब है- ”इजरायल जैसा दहशतगर्द मुल्क, जो एटमी हथियारों से लैस है, उसकी बेशर्मी की हद तक हिमायत कर रहा है और मोहलिक (घातक) हथियारों को तलाश करने का बेबुनियाद बहाना बनाकर अपने हिमायती मुल्कों की फौज के साथ इराक पर हमला करके पूरे इराक को गड्ढे में तब्दील कर दिया। खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली।“ इत्तफाक ही है कि इस उपन्यास के प्रकाशन वर्ष (2009) में ही शुएब मंसूर निर्मित-निर्देशित पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ में इस एकतरफा रोमांचकारी जंग को अद्भुत प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है। यह फिल्म मुस्लिम आतंकवाद, धार्मिक फिरकापरस्ती पर तीखी टिप्पणी भी प्रस्तुत करती हैं फिल्म को दो टूक संवाद ‘दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं’ मुस्लिम समाज से आत्मलोचन की मांग करता है। रिजवी साहब का उपन्यास भी इस आत्मलोचन के दौर से गुजरता है - ”मजहबी कट्टरपंथी तालिबानी निजाम कायम करना चाहते हैं। फौज की सरपरस्ती में दहशगर्दी के सैकड़ों कैंपों में खुदकुश बमबारों और दहशतगर्दी के टेªनिंग कैंप चल रहे हैं। 9/11 की दुर्घटना के बाद से अमरीका मुस्लिम मात्र को आंतकवादी ही नहीं समझता है बल्कि सिर्फ संदेह की बिना पर घोर यातना भी देता रहा हैं। ‘खुदा के लिए’ ने इस भयानक यातना का अत्यंत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। संगीत प्रेमी मंसूर अमरीका में संगीत का प्रशिक्षण ले रहा होता है, अचानक अमरीकी सरकार द्वारा ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ का शिकार हो जाता है। उसे गैर औपचारिक रूप से उठा लिया जाता है और महीनों कैद में असहनीय यातनाएं दी जाती है। ‘मैं मुहाजिर नहीं’ अमरीका की दादागिरी की पोल को परत-दर-परत उधेड़ता चलता है। इस लिहाज से उपन्यासकार की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी गौर करने लायक है। “दुनिया का सबसे बड़ा दहशतगर्द चला है दुनिया से दहशतगर्दी मिटाने“ वाकई ‘सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’ मुहावरा अमरीका पर सौ फीसदी सहीबैठता है।युवा इस्लामिक पीढ़ी पर अमरीकी संस्कृति की सेंध की जायज चिंता लेखक को हैं, इस ‘हाईब्रिड संस्कृति’ को लेखक ‘इस्लाम मेड इन अमेरिका’ की संज्ञा देते हैं। गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो इसमंे इस्लाम के अंतर्राष्टीªय संगठन और उसकी विचारधारा (पान- इस्लामिज्म) भी कम दोषी नहीं है। पाकिस्तान के लोकप्रिय पत्र ‘हेराल्ड’ (करांची, जनवरी 1996) में एस। अकबर की चिंता उपन्यासकार की चिंता से मिल जाती है जब वे लिखते हैं कि ”पाकिस्तान के शहरी मध्य वर्ग में उर्दू का चलन बहुत कम रह गया है। आश्चर्य यह है कि पढ़ा-लिखा एक तबका एक वाक्य भी बिना अंग्रेजी शब्दों के सहारे नहीं बोल सकता है। उसने स्वयं को अपने अतीत से बिल्कुल अलग कर लिया है। पाकिस्तान बनने के बाद वहां का शहरी मध्य वर्ग, अमेरिका में अपना भविष्य खोजता रहा है।“उपन्यास की सबसे बड़ी सीमा यह है कि लेखक विषय-वस्तु को उचित कथात्मकता प्रदान नहीं कर पाये। डाक्यूमंेट्री की तरह उपन्यास आगे बढ़ता है। अच्छे उपन्यास लेखन के लिए जिस व्यापक औपन्यासिक ‘विजन’ की आवश्यकता होती है उसका अभाव इस उपन्यास में स्पष्ट देखने को मिलता है। रिजवी के वैचारिक आग्रह कथा में कला की दृष्टि से गंुफित नहीं हो पाये हैं। यह उपन्यास एक सामाजिक स्टेटमंेट की तरह है जो भारतीय समाज मेंधर्मनिरपेक्ष संभावनाएं पैदा करना चाहता है। यह उपेदशात्मक अधिक रचनात्मक कम बना पाया है। इसमें दो राय नहीं कि उपन्यासकार का उद्देश्य एकधर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना है। भाषा की दृष्टि से इसमें सहज, सरल उर्दू का प्रयोग किया गया है। जहां कहीं कठिन उर्दू के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वहां कोष्ठक में हिंदी का समानार्थी शब्द प्रयुक्त हुआ है। उपन्यास में कहीं-कहीं उत्तर प्रदेश की बोलियों का प्रयेाग सुखकर लगता है- “अरे काका आप! दिल्ली कब अवा गय रहा। उत्तर के हमारा इंहा आवैक लगा रहत है। अच्छा, ई बताई कमवा भवा?” उत्तर भारत के मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज को जानने-समझने में यह उपन्यास काफी कारगर है। क्योंकि सामान्यतया मुस्लिम समाज मुख्यतः उर्दू रचनाओं में विन्यस्त होता है या फिर हमें उसके अनुवाद से इस समाज को जानने-समझने में मदद मिलती है। इस उपन्यास का अकादेमिक महत्व मुस्लिम समाज के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में है। कथात्मकता, चरित्र- चित्रण आदि औपन्यासिक तत्व तलाशने वालों को इस उपन्यास से थोड़ी निराशा हो सकती है।
- डॉ. कमलानन्द झा
(उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
सुनील साहित्य सदन
नई दिल्ली-2
मूल्य: 150/- रुपये
बादहशाह रिजवी का ताजा उपन्यास ‘मैं मुहाजिर नहीं हूं’ विभाजन की गहरी पीड़ा और चुभते दंश की सरल-सहज अभिव्यक्ति है। अविभाज्य हिंदुस्तान के कथा नायक शमीम, लाहौर में रेलवे के बड़े अधिकारी हैं। 14 अगस्त 1947 की उस मनहूस रात को उन्हें ज्ञात होता है कि वे हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान में हैं। बस्ती के एक छोटे से गावं हिल्लौर वासी रेलवे अधिकारी शमीमुल हसन रिज़वी उर्फ शमीम से एक बार यह पूछने की ज़रूरत भी महसूस नहीं की जाती हैं कि वे हिंदुस्तान में रहना चाहते हैं या पाकिस्तान में। इस विकल्प विहीनता की स्थिति में पाकिस्तान छोड़ने का मतलब था नौकरी से हाथ धो बैठना। दिल पर पत्थर रखकर शमीम लाहौर में रह जाते हैं किंतु उनका ‘सब कुछ’ बस्ती के उस छोटे-से गांव हिल्लौर में ही छूट जाता है। ‘सब कुछ’ का मलतब उनका अपना घर-परिवार, दोस्त, हिल्लौर की आबोहवा, वहां की खूबसूरती-बदसूरती, अच्छाई-बुराई, मन की भावनाएं, प्रेम, ईर्ष्या, सुख, दुख... सब कुछ। विभाजन की त्रासदी परशोध कर रहे शोधार्थी को अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए शमीम कहते हैं, “वक्त और लीडरों की सियासत ने मुझ जैसे बहुत सारे लोगों को उनके मां-बाप, भाई-बहन, पत्नियों, तमाम रिश्तेदारों से, उनकी अपनी सरज़मी से अलग कर दिया। मेरी ही मिसाल ले सकते हो, पैसे रहते हुए भी मैं अपने घरवालों के लिए कुछ नहीं कर सकता था। जब-जब उनके बारे में सोचता दिल कट के रह जाता। मां-बाप बड़ी लावारिसी की जिंदगी गुजार के इस दुनिया से गुजर गए। मैं इतना बदनसीब था कि बुढ़ापे में उनकी सेवा-टहल तो दूर, उनका आखिरी दीदार भी नहीं कर सका।”वर्षो बाद कथानायक शमीम अपने नाती के साथ हिल्लौर आते हैं। पूरे उपन्यास में शमीम कभी विगत यादों में खो-से जाते हैं, कभी लंबे अंतराल में हुए परिवर्तन को छोटे बच्चे की तरह चकित-भाव से देखते हैं। उपन्यास में शमीम वह बाइस्कोप हैं जहां से पूरे हिल्लौर के विगत और वर्तमान को देखा जाता है।उपन्यासकार हुसैन रिजवी की स्पष्ट धारणा है कि ‘विभाजन के पीछे अपने ही देसी लीडरों का हाथ था।’ मजे की बात तो यह है कि इन लीडरों ने कौम को दो हिस्सों में बांट दिया और देशभक्ति का खिताब भी पाया। विभाजन के समय आबादी की अदला-बदली की मुहिम जोर पकड़ती चली गई, आजाद हिंदुस्तान में इस मुहिम ने नई शक्लें अख्तियार कर लीं। सांप्रदायिक ताकतों ने अपनी-अपनी कौमें बांट लीं। स्वयं तय कर लिया कि हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हिंदू समुदाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और मुस्लिम लीग तथा जमात-ए-इस्लामी मुस्लिम समुदाय का। जिन्हें यह बंटवारा पसंद नहीं था वे राजेश जोशी के शब्दों में ‘मारे जायेंगे, मारे भी गए। आश्चर्य तो यह कि बंटवारे की एवज में इन दलों को महिमामंडित भी किया गया।‘मैं मुहाजिर नहीं’ गंगा-जमुना संस्कृति को अधिक से अधिक पुख्ता करने की नीयत से लिखा गया उपन्यास है। यह ठीक है कि औपन्यासिक कला की दृष्टि से यह उपन्यास वह ऊंचाई प्राप्त नहीं कर पाता है जिसमें झूठा-सच, तमस, ‘सत्ती मैया का चौरा’ और‘आधा-गांव’ आदि उपन्यासों को शामिल किया जाता है किन्तु यह उपन्यास हिन्दू-मुस्लिम एकता और सह-संबंध की डोर मजबूत तो करता ही है साथ ही, अद्भुत रूप से आम पाठकों को कनविंस भी करता है। उपन्यासकार इस संबंध की संवेदनशीलता को उद्घाटित करने के लिए हिंदू घर में एक विवाह का दृश्य खींचता है। उस ‘बरहमन’ के यहां शादी में घारातियों और बरातियों में कई मुसलमान थे और वो भी अपनी पूरी पहचान के साथ। कथा नायक शमीम इस संस्कृति पर रीझकर नाज करते हुए कहते हैं, “नुसरत यही है हिंदुस्तान की असली पहचान। जिस पर कभी आंच नहीं आ सकती। जमाना जो भी कर ले। इस पर जितना भी नाज किया जाए कम है।” आगे मुहर्रम के दृश्यों के बहाने तो मीरा बाबा की प्रकृति के बहाने उपन्यासकार ने इस मिली-जुली अनूठी संस्कृति को अत्यंत विश्वसनीयता के साथ प्रस्तुत किया है।उपन्यास मुस्लिम समाज में व्याप्त आंधविश्वास, पिछड़ेपन, अशिक्षा और परंपरावादिता की तीखी आलोचना करता चलता है। इस अंधविश्वास की जड़ की तलाश करते हुए उपन्यासकार इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि “दरअसल हम लोगों को ‘इल्यूजन’ में रहना ज्यादा अच्छा लगता है और यही आधार है, मिथकों के जिंदा रहने का।” इस ‘इल्यूजन’ या भ्रम के शिकार अशिक्षित मुसलमान ही नहीं बल्कि पढ़े-लिखे और विदेशों में ऊंचे ओहदे पर काम करने वाले मुसलमान भी हो जाते हैं। वास्तव में मुस्लिम समाज के विकास में यह ‘इल्यूजन’ बाधक के रूप में हाजिर होता है।इस उपन्यास ने एक और अमरीका की दहशतगर्दी और दूसरी ओर उच्च मुस्लिम समाज का अमरीकी संस्कृति के प्रति बढ़ते मोह के अंतर्द्वद्व को बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। जिस ‘कॉमेंट्री शैली’ में अमेरिका के साम्राज्यवादी कूटनीतिक षड़यंत्र का पर्दाफाश उपन्यासकार ने किया है, वह गौर-तलब है- ”इजरायल जैसा दहशतगर्द मुल्क, जो एटमी हथियारों से लैस है, उसकी बेशर्मी की हद तक हिमायत कर रहा है और मोहलिक (घातक) हथियारों को तलाश करने का बेबुनियाद बहाना बनाकर अपने हिमायती मुल्कों की फौज के साथ इराक पर हमला करके पूरे इराक को गड्ढे में तब्दील कर दिया। खोदा पहाड़ और चुहिया भी नहीं निकली।“ इत्तफाक ही है कि इस उपन्यास के प्रकाशन वर्ष (2009) में ही शुएब मंसूर निर्मित-निर्देशित पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ में इस एकतरफा रोमांचकारी जंग को अद्भुत प्रतीकात्मक ढंग से दिखाया गया है। यह फिल्म मुस्लिम आतंकवाद, धार्मिक फिरकापरस्ती पर तीखी टिप्पणी भी प्रस्तुत करती हैं फिल्म को दो टूक संवाद ‘दीन में दाढ़ी है, दाढ़ी में दीन नहीं’ मुस्लिम समाज से आत्मलोचन की मांग करता है। रिजवी साहब का उपन्यास भी इस आत्मलोचन के दौर से गुजरता है - ”मजहबी कट्टरपंथी तालिबानी निजाम कायम करना चाहते हैं। फौज की सरपरस्ती में दहशगर्दी के सैकड़ों कैंपों में खुदकुश बमबारों और दहशतगर्दी के टेªनिंग कैंप चल रहे हैं। 9/11 की दुर्घटना के बाद से अमरीका मुस्लिम मात्र को आंतकवादी ही नहीं समझता है बल्कि सिर्फ संदेह की बिना पर घोर यातना भी देता रहा हैं। ‘खुदा के लिए’ ने इस भयानक यातना का अत्यंत जीवंत रूप में प्रस्तुत किया है। संगीत प्रेमी मंसूर अमरीका में संगीत का प्रशिक्षण ले रहा होता है, अचानक अमरीकी सरकार द्वारा ‘रेशियल प्रोफाइलिंग’ का शिकार हो जाता है। उसे गैर औपचारिक रूप से उठा लिया जाता है और महीनों कैद में असहनीय यातनाएं दी जाती है। ‘मैं मुहाजिर नहीं’ अमरीका की दादागिरी की पोल को परत-दर-परत उधेड़ता चलता है। इस लिहाज से उपन्यासकार की यह व्यंग्यात्मक टिप्पणी गौर करने लायक है। “दुनिया का सबसे बड़ा दहशतगर्द चला है दुनिया से दहशतगर्दी मिटाने“ वाकई ‘सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को’ मुहावरा अमरीका पर सौ फीसदी सहीबैठता है।युवा इस्लामिक पीढ़ी पर अमरीकी संस्कृति की सेंध की जायज चिंता लेखक को हैं, इस ‘हाईब्रिड संस्कृति’ को लेखक ‘इस्लाम मेड इन अमेरिका’ की संज्ञा देते हैं। गंभीरतापूर्वक देखा जाए तो इसमंे इस्लाम के अंतर्राष्टीªय संगठन और उसकी विचारधारा (पान- इस्लामिज्म) भी कम दोषी नहीं है। पाकिस्तान के लोकप्रिय पत्र ‘हेराल्ड’ (करांची, जनवरी 1996) में एस। अकबर की चिंता उपन्यासकार की चिंता से मिल जाती है जब वे लिखते हैं कि ”पाकिस्तान के शहरी मध्य वर्ग में उर्दू का चलन बहुत कम रह गया है। आश्चर्य यह है कि पढ़ा-लिखा एक तबका एक वाक्य भी बिना अंग्रेजी शब्दों के सहारे नहीं बोल सकता है। उसने स्वयं को अपने अतीत से बिल्कुल अलग कर लिया है। पाकिस्तान बनने के बाद वहां का शहरी मध्य वर्ग, अमेरिका में अपना भविष्य खोजता रहा है।“उपन्यास की सबसे बड़ी सीमा यह है कि लेखक विषय-वस्तु को उचित कथात्मकता प्रदान नहीं कर पाये। डाक्यूमंेट्री की तरह उपन्यास आगे बढ़ता है। अच्छे उपन्यास लेखन के लिए जिस व्यापक औपन्यासिक ‘विजन’ की आवश्यकता होती है उसका अभाव इस उपन्यास में स्पष्ट देखने को मिलता है। रिजवी के वैचारिक आग्रह कथा में कला की दृष्टि से गंुफित नहीं हो पाये हैं। यह उपन्यास एक सामाजिक स्टेटमंेट की तरह है जो भारतीय समाज मेंधर्मनिरपेक्ष संभावनाएं पैदा करना चाहता है। यह उपेदशात्मक अधिक रचनात्मक कम बना पाया है। इसमें दो राय नहीं कि उपन्यासकार का उद्देश्य एकधर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील भारत का निर्माण करना है। भाषा की दृष्टि से इसमें सहज, सरल उर्दू का प्रयोग किया गया है। जहां कहीं कठिन उर्दू के शब्द प्रयुक्त हुए हैं, वहां कोष्ठक में हिंदी का समानार्थी शब्द प्रयुक्त हुआ है। उपन्यास में कहीं-कहीं उत्तर प्रदेश की बोलियों का प्रयेाग सुखकर लगता है- “अरे काका आप! दिल्ली कब अवा गय रहा। उत्तर के हमारा इंहा आवैक लगा रहत है। अच्छा, ई बताई कमवा भवा?” उत्तर भारत के मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज को जानने-समझने में यह उपन्यास काफी कारगर है। क्योंकि सामान्यतया मुस्लिम समाज मुख्यतः उर्दू रचनाओं में विन्यस्त होता है या फिर हमें उसके अनुवाद से इस समाज को जानने-समझने में मदद मिलती है। इस उपन्यास का अकादेमिक महत्व मुस्लिम समाज के समाजशास्त्रीय विश्लेषण में है। कथात्मकता, चरित्र- चित्रण आदि औपन्यासिक तत्व तलाशने वालों को इस उपन्यास से थोड़ी निराशा हो सकती है।
- डॉ. कमलानन्द झा
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