आज खाद्य पदार्थों के बेइंतिहा दाम बढ़ना और अबाध भ्रष्टाचार ये दो मुख्य मुद्दे हैं।
केन्द्र की सरकार घोटालों और राष्ट्रीय संपदा को लूटने में मगन है। सत्ता में बैठे लोगों का कार्पोरेट जगत की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ भयंकर सांठगांठ उजागर हुई है। इसका पूरा पर्दाफाश हुआ है कि यह सरकार पूंजीपतियों व्यापारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों का खिलौना है। संपूर्ण राजकीय तंत्र आम आदमी की कीमत पर पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए काम करता है।
कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वन में सरकारी भूमिका संदिग्ध है। नरेगा के लिये आवंटित राशि को पूरापूरी खर्च नहीं किया गया। सौ दिनों के बदले औसत 38 दिन प्रतिव्यक्ति ही काम मुहैया किया गया।
उदारीकरण के नये दौर में मुनाफे के विदेशी शिकारियों के लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं, जो राष्ट्रीय हितों की अवमानना करते हैं। वित्तीय क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रोत्साहन देने के लिए कई कानूनों के प्रारूप सरकार के विचारधीन हैं। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश 8 करोड़ लोगों को कुप्रभावित करेगा। 20 कामगारों से नीचे नियोजित करने वाले कारखानों को सरकारी निरीक्षण से बाहर करने का प्रस्ताव लाया गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूरी आजादी है कि वह जो चाहे करें। सार्वजनिक क्षेत्र के अंधाधुंध निजीकरण और विनिवेश से आत्मनिर्भर राष्ट्रीय चरित्र तेजी से खत्म हो रहा है।
असंगठित मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ है। सरकारी महकमे और सार्वजनिक क्षेत्र उद्योगों में भी नियमित कामों को ठेके पर लगाये जा रहे हैं।
देश में कुल श्रम बल 46 करोड़ है। बेरोजगारों की संख्या 10 प्रतिशत है। नौकरी की तलाश में 4 करोड़ लोगों की भीड़ श्रमबाजार में मौजूद है। 43.5 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। कुछ राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम पारिश्रमिक 65/- प्रतिदिन निर्धारित किया गया है। ऊँचा दैनिक पारिश्रमिक पाने वालों के बीच 600/- रुपये का फर्क है।
भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना है कि यहां 65/- न्यूनतम दैनिक पारिश्रमिक पर मजदूर काम करने को विवश हैं, वहीं देश के उद्योगपतियों का वेतन 83,000/- रुपये प्रतिदिन की ऊंचाई पर है। इस तथाकथित कल्याणकारी राज्य में आय का इतना बड़ा शर्मनाक अंतर है।
नियमित रोजगार का क्षरण हो रहा है। ठेका मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पूंजीपति सरकारी मदद से मजदूरों के श्रम से अधिकतम निचोड़ते हैं और बदले में उन्हें न्यूनतम वेतन भुगतान करते हैं। पारिश्रमिक बहुत कम है, जबकि उनका कार्यदिन अत्यधिक लंबा है। इस मायने में श्रम कानूनों का उल्लंघन होता है। ठेका मजदूरों में 32 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे हैं। यह प्रताड़नापूर्ण श्रम है। श्रम बाजार मंे बेरोजगारी का आलम है। सामाजिक सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा आदि का पूर्णतः अभाव है।
देश में कोई 140 श्रम कानून हैं, किंतु इसका लगातार उल्लंघन बढ़ रहा है। उल्लंघन सार्वजनिक क्षेत्र में और निजी क्षेत्र में भी समान रूप से हो रहा है। टेªड यूनियन का निबंधन मुश्किल हो गया है। अधिकतर श्रम विभाग कार्पोरेट सेक्टर के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है।
सामाजिक सुरक्षा लाभ असंगठित और ठेका श्रमिकों को नहीं मिलता है। उन्हें नियोजकों की दया पर छोड़ दिया गया है। देश में कुल श्रमिकों की संख्या 46 करोड़ हैं, किंतु केवल पांच करोड़ श्रमिकों को ही इपीएफ और इएसआई की सुविधा प्राप्त है।
उत्पीड़ित असंगठित मजदूर
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को, जो देश की जनसंख्या का 40 प्रतिशत हैं, शोषण एवं प्रताड़न का शिकार बनाया जा रहा है। उनमें सामूहिक सौदा करने की क्षमता नही है। इससे उनकी स्थिति बद से बदतर है। बीड़ी मजदूरों की कल्याण योजनाएं केवल कागज पर हैं। भवन एवं निर्माण मजदूरों के लिये अनेक राज्यों में अब तक बोर्ड का निर्माण भी नहीं हुआ है। कृषि मजदूरों का शोषण बेदर्दी से हो रहा है। इस तरह हथकरघा बुनकरों की दशा दयनीय हैं।
नयी संभावनाएं
ऐसी परिस्थिति में अच्छी मजदूरी के लिये, श्रम कानूनों के कार्यान्वन के लिये, ठेका मजदूरों की सेवा के नियमन, असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, मातृत्व लाभ, न्यूनतम मजदूरी आदि मांगों के लिये अनवरत संघर्ष अनिवार्य हो गया है। इन मांगों के लिये संघर्ष पूंजीवादी अमानवीय शोषण के विरूद्ध बेहतर दशा के लिये श्रमिकों की राजनीतिक लड़ाई का आधार प्रदान करता है। यह पूंजीवादी हमले का मुकाबला करने का युद्ध है। यह सही माने में पूंजीवादी पद्धति के विरूद्ध विद्रोह है। यह अपने आप में एक राजनीतिक लड़ाई है। यह पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का अभिन्न अंग है। यह साम्राज्यवादी नवउदारतावाद के विरूद्ध धर्मयुद्ध है।
मजदूरों का रूझान संघर्ष के प्रति तेज हुआ है। विभिन्न स्तरों पर टेªड यूनियनों की एकता आगे बढ़ी है। संगठन में विभिन्न स्तरों पर संघर्ष के प्रति विश्वास दृढ़ हुआ है। देश में टेªड यूनियन आंदोलन आगे बढ़ा है। टेªड यूनियन आंदोलन में नयी संभावनाओं का उदय हुआ है। सरकारी दमन के खिलाफ मजदूरों की प्रत्याक्रमण क्षमता बढ़ी है। इसलिये आगे बढ़ो और नग्न पूंजीवाद और उसकी रक्षक सरकार के दमन का मुकाबला करो। यह मौका चोट करने का है।
इस विषम परिस्थिति में मजदूर वर्ग का विश्वसनीय दोस्त वामपंथ बंगाल, केरल, असम एवं अन्य राज्यों में चुनाव का सामना कर रहा है। पूंजीवादी नवउदारतावादी सत्तारूढ़ कांग्रेस और सत्ता की दावेदार भाजपा दोनों ही पार्टियां सत्ता का द्विपक्षीय ध्रुव बनाने पर तुली हैं। इन दोनों ही पार्टियों का सहयोग अमेरिकी साम्राज्यवाद से है। यह दोनों पार्टियां सार्वजनिक संपत्ति की लूट और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर तथा पूंजीवादी शोषण एवं सम्प्रदायवाद की नीति चलाकर जनता को बांटती हैं और दूसरी तरफ जन समस्याओं का प्रवक्ता बनने का भी दम भरती हैं।
यद्यपि छिटपुट कुछ संघर्ष हुए हैं, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर पूंजीवाद का विरोध करनेवाली ताकतों द्वारा कुछ भी उल्लेखनीय आंदोलन नहीं उभरा है। ऐसी स्थिति में टेªड यूनियनों की व्यापक एकता हासिल की गयी और सितम्बर की विगत हड़ताल, जेल भरो आंदोलन, 23 फरवरी 2011 को दिल्ली में विशालतम रैली के आयोजन जैसे कार्यक्रमों ने नई आशाओं का संचार किया है। इस नये सामाजिक सकारात्मक विकास क्रम के रचनाकार का सहज श्रेय एटक को जाता है।
पूंजीपक्षी बजट
संसद में प्रस्तुत बजट तत्वतः पूंजीपति पक्षी है। कृषि क्षेत्र में तथाकथित हरित क्रांति के नाम पर मात्र 400 करोड़ रुपये का नामलेवा आबंटन बढ़ाया गया है। दाल उत्पादन के लिए महज 300 करोड़ की अल्प धनराशि का आबंटन शर्मनाक है, जबकि दाल का अभाव सर्वत्र महसूस किया जाता है। सब्जी उत्पादन के लिये 300 करोड़ का आबंटन किया गया है, जबकि सब्जी का दाम सब जगह ऊंचा है। इस तरह के दिखावे की प्रतीकात्मक वृद्धि के अनेक नमूने बजट में देखे जा सकते हैं। ये अल्प आबंटन देश की जरूरत के मद्देनजर नगण्य हैं।
जीडीपी ऊंचा बढ़ रहा है, किंतु स्वास्थ्य पर खर्च की राशि नीचे घट रही है। स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास और कृषि जैसे चार महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पिछले साल के आबंटन की तुलना में मात्र 6.5 की वृद्धि की गयी है। नरेगा का आबंटन तो सही मायने में घटा दिया गया है। वित्त मंत्री ने मुद्रास्फीति घटाने का कुछ भी उपाय नहीं किया जिसके चलते खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं।
संरचनात्मक गतिविधियों में विदेशी निवेश की अनुमति सट्टेबाजार को बढ़ावा देती है और इससे मुद्रास्फीति कम करने के बैंकों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को धक्का लगेगा। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश (एफडीआई) को न्योते का खतरा इस संदर्भ में और भी ज्यादा भयावह है।
इस पूंजीपतिपक्षी बजट की विशेषता है कि इसमें कार्पोरेट टैक्स की माफी दी गयी है। जो पूंजीपति अधिक मुनाफा कमाते हैं, उनके कर प्रावधानों में कमी की गयी है। यह संघीय बजट कार्पोरेट सेक्टर का आयकर 240 करोड़ रुपये रोजाना अपलेखित करता है। पिछले सालों में 3,74,937 करोड़ रुपये टैक्स अपलिखित किये गये हैं, जो 2जी घोटाले की रकम का दुगुना है। यह एक्साइड ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी में दी गयी छूट के अलावा कार्पोरेट को वित्त मंत्री द्वारा दिया गया स्पेशल तोहफा है।
टैक्स माफी
कुल मिलाकर पूंजीपतियों को भारी इनाम दिया गया है। इस वर्ष भी वित्त मंत्री ने 88,263 करोड़ रुपये टैक्स अपलिखित करने का प्रस्ताव किया है, जो पिछले साल में 1,800 करोड़ से कहीं ज्यादा है। राजस्व की हानि काफी हो रही है। व्यक्तिगत करदाताओं के मामले में प्रस्तुत बजट में 45,222 करोेड़ रुपये की छूट प्रस्तावित है, जो गत वर्ष के 5,000 करोड़ रुपये के मुकाबले कहीं ज्यादा है। धनी और ज्यादा धनाढ्य लोगों को लाभ दिये गये हैं। वर्ष 2009-10 में कर उगाही में दी गयी छूट की कुल रकम 2.22 लाख करोड़ है। राजस्व की जो रकम प्रदर्शित की गयी है, उसमें टैक्सचोरी की भारी रकम छुपायी गयी है। फिर भी कार्पोरेट टैक्सों का बकाया अभी भी 1.45 लाख करोड़ रुपये है। ये कुछ उदाहरण हैं कि धनी लोगों को कैसे लाभान्वित किया गया है और गरीबों को लूटा गया है। धन का अभाव बताकर आम आदमी को उनके अधिकारों से वंचित किया गया है, किंतु अमीरों के टैक्स माफ किये जाते हैं।
सरकार में इस इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव है कि वह उन लोगों से टैक्स की रकम वसलू करे जो भुगतान करने की अपार क्षमता रखते हैं। अत्यधिक लाभ कमानेवाली कंपनियों से टैक्स वसूल न करना सरकार की प्रतिगामी टैक्स नीति है। 500 करोड़ से ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों की संख्या 22.55 प्रतिशत है।, वहीं 100 करोड़ रुपये तक मुनाफा कमानेवाली कंपनियों की संख्या 26 प्रतिशत है। इनसे समुचित मात्रा में कर वसूलना ज्यादा मुश्किल नहीं है। सरकार पूंजीपतियों पर मेहरबान है। इससे आम आदमी के प्रति न्याय और समानता के सरकारी दावे का पाखंड उजागर होता है। बेरोजगारी, भूख, गरीबी और बीमारी दूर करने के लिये कार्पोरेट पर टैक्स लगाने की सरकारी अक्षमता पूरी तरह बेपर्द हुई है।
सार्वजनिक क्षेत्र की विनिवेश के रास्ते से 40,000 करोड़ रुपये उगाहने की मंशा प्रकट की गयी है। यह घर के जेवर बेचने जैसा कृत्य है। इस बजट का चरित्र पूर्णतः अन्यायपूर्ण, असमान, नैतिकताविहीन, जनविरोधी और पूंजीपतिपक्षी है। यह आम जनता के किसी तबके की समस्या का समाधान करने में विफल है।
आंगनबाड़ी कर्मचारियों और सहायिकाओं के मानदेय में मामूली बढ़ोत्तरी की गयी है। देश में कुल आंगनबाड़ी कर्मचारियों की संख्या 22 लाख है। बिहार एवं अनेक स्थानों में अनेक प्रदर्शन हुए। यह वृद्धि एटक द्वारा अनवरत किये गये प्रयासों का फल है। आंगनबाड़ी कर्मचारियों के संगठन मजबूत करना जरूरी है।
डब्ल्यूएफटीयू
लोकतंत्र के पक्ष में और पंूजीवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में श्रमजीवियों का संघर्ष तेज हो रहा है। अरब दुनिया में और यूरोप में व्यापक जन उभार हुए हैं। इस पृष्ठभूमि में डब्ल्यूएफटीयू का विश्व सम्मेलन 6 अप्रैल से एथेंस में होने जा रहा है। इसमें 140 देशों से प्रतिनिधि भाग लेनेवाले हैं। एटक का एक शक्तिशाली प्रतिनिधिमंडल इस सम्मेलन में भाग ले रहा है।
चोट करो
मौजूदा हालात ने हमारे सामने हमारा सबक निर्धारित कर दिया है। मजदूर वर्ग का संघर्ष और भी ज्यादा ऊंचाई प्राप्त करेगा। सरकारी निकम्मापन और देशी विदेशी कंपनियों की सांठगांठ से की जा रही लूट-खसोट के खिलाफ लड़ाकू संघर्ष करना है। एटक इसके लिये एक राष्ट्रीय कनवेंशन करने का इरादा रखता है, जहां से आंदोलनों का आगे विस्तार किया जायगा। राज्य स्तर पर और जिला एवं क्षेत्रीय स्तर पर सघन कार्रवाइयों के बाद फिर एक बड़ी राष्ट्रीय हड़ताल होगी।
कोयला, बैंक बीमा, ट्रांसपोर्ट, बिजली आदि के मजदूर एवं कर्मचारी अपने आंदोलन के कार्यक्रम तय कर रहे हैं। एटक सभी क्षेत्रों के कर्मचारियों का आह्वान करता है कि वे आंदोलन की तैयारी करें। यह आराम का समय नहीं है। हमें अनवरत समझौताविहीन संघर्ष की ओर आगे बढ़ना है।
(उपर्युक्त आलेख 2-3 अप्रैल 2011 की एटक वर्किंग कमेटी में प्रस्तुत महासचिव प्रतिवेदन का सारांश है।)
- गुरूदास दास गुप्ता