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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

”माक्र्सवाद तथा समकालीन विश्व“ सम्बंधी वर्कशॉप

गत 21 से 24 दिसम्बर 2009 को हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) में “माक्र्सवाद तथा समकालीन विश्व“ विषय पर एक चार दिवसीय वर्कशाॅप का आयोजन किया गया। इसका आयोजन सी.आर.फाउंडेशन तथा एन. राजशेखर रेड्डी रिसर्च सेंटर द्वारा उन्हीं के परिसर में किया गया।
यह वर्कशाॅप जनवरी 2008 में हैदराबाद में ही आयोजित “21वीं सदी में समाजवाद“ विषय पर किए गए सेमिनार की ही अगली कड़ी थी। सेमिनर में तय किया गया था कि इस विषय पर अधिक गहराई से अलग-अलग हिस्सों में विचार किया जाए। इसलिए वर्तमान वर्कशाॅप का मुख्य विषय क्षेत्र दर्शन था।
भागीदारी और विषय क्षेत्र
वर्कशाॅप में सारे देश के लगभग 35 बढ़े हुए बुद्धिजीवियों ने भाग लिया। इनमें आंध्र प्रदेश से भी कइयों ने हिस्सा लिया। कई कारणों से वर्कशाॅप की तारीखें बदलनी पड़ीं। इसके अलावा, तेलंगाना आंदोलन को लेकर राज्य अनिश्चितता की स्थिति बनी रही। इन सबके बावजूद पर्याप्त संख्या में लोग पहुंचे और काफी दिलचस्पी से बहसों में भाग लिया। आंध्र प्रदेश के अलावा हरियाणा से सबसे अधिक भागीदारों ने हिस्सा लिया, उनकी संख्या सात थी। उनके अलावा तमिलनाडु महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली से भी वर्कशाॅप में हिस्सेदारी हुई।
वर्कशाप में गहन विचार के लिए निम्नलिखित विषय क्षेत्र बांटे गए- आधार पेपर; माक्र्सवाद और समाजवाद की समस्याएं: इतिहास की सीखें; जनतंत्र और समाजवाद; भविष्य की चुनौतियां; माक्र्सवाद और दर्शन; पर्यावरण एवं विकास; माक्र्सवाद तथा भारतीय समाज; खुली बहस; समापन सत्र।
वर्कशाप में कुल मिलाकर 19 (उन्नीस) पेपर प्रस्तुत किए गए। इन पेपरों के विषय इस प्रकार थे -परिवर्तनशील विश्व तथा माक्र्सवाद; वैज्ञानिक-तकनीकी क्रांति; क्वांटम विश्व; इलेक्ट्रानिक्स और दर्शन में संकट; समाजवाद के संघर्ष की पुनः सक्रियता; 21वीं सदी के समाजवाद में जनवाद; भारत में वामपंथी आंदोलन के समक्ष माक्र्सवाद संबधी चुनौतियां; उत्तरआधुनिक समाज में श्रम, वर्ग और वर्ग संघर्ष संबंधी समस्याएं; माक्र्सवादी दर्शन में विकास और विकृतियां; संसदीय प्रणाली के उपयोग के संबंध में माक्र्स और एंगेल्स; ‘नए विश्व की ओर रास्ता,; पर्यावरण और विकास का द्वंद्व; पर्यावरण संकट के संबंध में भविष्यवादी रूख; रासायनिक तत्वतालिका एवं द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के नियम; माक्र्सवाद और पहचान की राजनीति; माक्र्सवादी सिद्धांत के विकास संबंधी कुछ प्रश्न; पर्यावरण, विज्ञान और विकास; इत्यादि।
जिन विद्वानों के पेपर प्रस्तुत किए गए उनमें प्रमुख थे - अनिल राजिमवाले, एम. विजय कुमार, प्रो. एस.जी. कुलकर्णी, सी.आर. बक्शी, डा. रामेश्वर दास, डा. राकेश शर्मा, डा. पी.सी. झा, देव पेरिन्बल, डा. जे.के. गुप्ता, शैलेन्द्र, टीकाराम शर्मा, प्रो. युगल रायुल, डा. आर.जे. स्वामी, डा. ईश्वर सिंह दोस्त, डा. बी.के. कांगो तथा अन्य।
उद्घाटन तथा “आधार पेपर“
वर्कशाॅप का उद्घाटन सी.आर. फाउंडेशन एन.आर.आर.आर. सेंटर के डायरेक्टर सी. राघवाचारी ने किया। आगंतुकों का स्वागत करते हुए उन्होंने विषय वस्तु का परिचय दिया। उन्होंने इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि यह आयोजन पिछले सेमिनार की अगली कड़ी है। इस अवसर पर इनके साथ अनिल राजिमवाले, ए. विजय कुमार, प्रो. एस.जी. कुलकर्णी, बी. विजयलक्ष्मी और वी.आर. कारूमान्ची भी उपस्थित थें
आधार पेपर
वर्कशाॅप में बहस के लिए आधार पेपर अनिल राजिमवाले ने प्रस्तुत किया जिसका विषय था “वर्तमान विश्व में माक्र्सवाद“। इसमें आज के बदलते विश्व के संदर्भ में माक्र्सवाद के सम्मुख उपस्थित सम्भावानाओं, चुनौतियों एवं समस्याओं पर विचार किया गया। इस पेपर में जो प्रश्न उठाए गए और उन पर चर्चा की गई, वे इस प्रकार थे - समाजवाद संबंधी सैद्धांतिक समस्याएं, समाजवाद का दर्शन, द्वितीय विश्व युद्धोत्तर परिस्थिति का विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन द्वारा मूल्यांकन, समाजवाद और ऐतिहासिक भौतिकवाद की समस्याएं, जनतंत्र और समाजवाद, मजदूर वर्ग संबंधी अवधारणा, आधुनिक समाज की बदलती संरचना, संचार/सूचना क्रांति और चेतना का निर्माण, आलोचनात्मक सिद्धांत, आधुनिक राज्य का चरित्र, माक्र्सवाद और उत्तरआधुनिकता, इत्यादि।
अनिल राजिमवाले ने आधार पेपर प्रस्तुत करते हुए इस बात पर जोर दिया कि माक्र्सवादी सिद्धांत और दर्शन को आज के तेजी से बदलते विश्व के अनुरूप विकसित होना पड़ेगा; इसके लिए इन परिवर्तनों का अध्ययन और आत्मसातीकरण आवश्यक है। साथ ही जब कभी साम्राज्यवाद द्वारा माक्र्सवाद पर आक्रमण हो तो इसका उचित सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक उत्तर भी देना होगा।
आधार पेपर पर वर्कशाॅप में काफी गहराई और व्यापकता से विचार किया गया। चर्चा के दौरान कई बातें जोड़ी गइ और सिद्धांत एवं दर्शन के विषय में बड़ी दिलचस्प बहस हुई।
विभिन्न पेपर एवं बहस
वर्कशाॅप के विभिन्न सत्रों की अध्यक्षता करने वालों के नाम हैं - प्रो. एस.जी. कुलकर्णी, वी.आर. कारूमान्ची, प्रो. जे.के. गुप्ता, डा. बी.के. कांगो, डा. मुखदेव शर्मा और अनिल राजिमवाले।
विभिन्न पेपरों के गिर्द विद्धानों के बीच काफी दिलचस्प और गंभीर बहस छिड़ी। दिलचस्प इतनी अधिक थी कि भाग लेने वालों ने बार-बार समय बढ़ाने का अनुरोध किया; वे देर रात तक भी बैठने को तैयार थे। समय बीतने का पता ही नहीं चला। प्रत्येक भाग लेने वाले ने कई बार बहस में हिस्सा लिया।
चर्चा के दौरान कई प्रकार के मुद्दे सामने आए। बहस में इस बात पर जोर दिया गया कि हम एक तेजी से बदलते विश्व मे रह रहे हैं। इसके फलस्वरूप समाज, बाजार, उत्पादक शक्तियां, चेतना इत्यादि सब कुछ बदल रहे हैं। वे सिर्फ सिद्धांत के प्रश्न नहीं हैं बल्कि व्यावहारिक प्रश्न भी हैं। उदाहरण के लिए मजदूर वर्ग और समाज का ढांचा बदल रहा है, जैसा कि आधार पेपर में कहा गया है। साथ ही आम इलेक्ट्रानिक मीडिया की चेतना निर्माण में भूमिका बढ़ती जा रही है। इसलिए क्रांतिकारी और जनवादी शक्तियों को जनता के बीच नए तरीके से काम करना पड़ेगा।
औजारों, समाज और मानवों में इन परिर्वतनों तथा प्रकृति एवं समाज के
अध्ययन के नए तरीकों के प्रयोग से नई सच्चाइयां और तथ्य सामने आ रहे हैं, नई खोजें की जा रही है; इनके फलस्वरूप नए दार्शनिक पैदा हो रहे हैं।
माक्र्सवाद अपरिवर्तनीय सूत्रों और प्रस्थानपनाओं का जमावड़ा नहीं है। माक्र्सवाद धर्म नहीं हैं जो शाश्वत जड़सूत्रों में विश्वास करता है; वह एक विज्ञान है। इसलिए माक्र्सवादी सिद्धांत और दर्शन का निरंतर विकास होते रहना चािहए। उन्हें नई वैज्ञानिक खोजों तथा तकनीकी एवं सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तनों के अनुरूप स्वयं को ढालना होगा। माक्र्सवाद सबसे आगे बढ़ी हुई विकसित विचार प्रणाली है। माक्र्स, एंगेल्स और लेनिन सबसे विकसित विचारक थे। वे औद्योगिक युग के क्षितिज तक देख सकते थे। इसलिए माक्र्स और माक्र्सवाद इतने प्रभावशाली बन पाए।
यही कारण हे कि माक्र्सवाद साम्राज्यवाद के आक्रमण का सामना कर पाया है। आर्थिक संकट के बारे में माक्र्स की भविष्यवाणियां सही साबित हुई है। जनता आज भी पूंजीवाद के विकल्प के लिए संघर्ष कर रही है।
लेकिन साथ ही, माक्र्सवाद एक जगह ठहरा हुआ और बिना बदलाव के नहीं रह सकता है। उसे आज के परिवर्तनशील युग से सीख लेते हुए आवश्यक नतीजे निकालने होंगे और उन्हें आत्मसात करना होगा, तभी उसका विकास हो पाएगा। जैसे औद्योगिक युग का अध्ययन माक्र्स ने किया था वेैसे ही इलेक्ट्रानिक युग, आधुनिक प्राकृतिक विज्ञानों, इलेक्ट्रानिक्स, जेनेटिक्स, क्वांटम विज्ञान इत्यादि का
अध्ययन करके सिद्धांत एवं दर्शन को उच्चतर स्तर पर ले जाना होगा। इन घटनाओं तथा उत्तर-औद्योगिक एवं उत्तर-आधुनिकता संबंधी चर्चाओं ने पदार्थ एवं चेतना, कर्ता एवं वस्तु, कारण-प्रभाव, उत्पादन के साधनों, सूचनातंत्र, इत्यादि के संबंध में नए प्रश्न खड़े कर दिए हैं।
माक्र्सवादी दर्शन को इन्हें हल करना होगा। माक्र्सवाद को आलोचनात्मक सिद्धांत को नई मंजिलों में पहुंचाना होगा। इस संदर्भ में द्वंद्ववाद की पद्धति का महत्व पहले से कहीं अधिक हो उठता है, खासकर इलेक्ट्रानिक युग के संदर्भ में। आज की घटनाओं के अध्ययन में इस पद्धति की अधिक आवश्यकता है। तभी माक्र्सवाद विश्व को बेहतर समझ सकता है और बेहतर तरीके से बदल सकता है।
पर्यावरण का संकट एक गंभीर चिंता का विषय है। पर्यावरण का प्रदूषण इस हद तक हो चुका है कि अब स्वयं मौसम पर ही उसका असर पड़ने लगा है जिससे सारा विश्व प्रभावित होने लगा है। ऐसी स्थिति में विकास की नई रणनीति का सवाल पैदा हो गया है। विकास और पर्यावरण का द्वंद्व तेज हो गया है।
कई अन्य दार्शनिक एवं व्यावहारिक प्रश्न भी उठाए गए। बहस के दौरान कई अन्य प्रश्न और विषय उठाए गए- बदलते सामाजिक संदर्भ में पहचान का प्रश्न, समाज के नए तबके, साम्राज्यवादी, साम्प्रदायिक एवं नवउदारवादी आक्रमण के सामने माक्र्सवाद की रक्षा का प्रश्न; उत्तर-आधुनिकता एंव अन्य रूझानों से टकराव, अन्य रूझानों के सकारात्मक पहलुओं से सीखने का प्रश्न; वैज्ञानिक, तकनीकी एवं सूचना क्रांति का अध्ययन, इत्यादि।
खुली बहस और समापन सत्र
वर्कशाप के अंतिम दिन बचे पेपर प्रस्तुत किए गए। साथ ही समूचे वर्कशाप के संबंध में खुली एवं विस्तृत बहस की गई। वैसे हर पेपर की प्रस्तुति के बाद बहस होती रही। इसके बाद समापन सत्र हुआ।
इस सत्र में सी.आर. फाउंडेशन/एन.आर.आर.आर. सेंटर के अध्यक्ष एस. सुधाकर रेड्डी, पूर्व एम.पी. उपस्थित थे। वर्कशाप के भागीदारों ने माक्र्सवाद के सद्धिांत और व्यवहार से संबंधित कई सवाल उठाते हुए वर्कशाप के लिए अधिक समय की मांग की। इनमें बहस के लिए और भी ज्यादा समय की आवश्यकता थी। इनका सुझाव था कि अगला वर्कशाप कम से कम पांच दिनों का होना चाहिए।
वर्कशाप की विशेषता यह रही कि इसमें सभी ने काफी उत्साह और लगन से हिस्सा लिया।
सुधाकर रेड्डी ने वर्कशाप के आयोजकों एंव भागीदारों को बधाई दी। उन्होंने कहा कि बहस एक निरन्तर प्रक्रिया है और किसी वर्कशाप या सेमिनार में किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंचा जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज की अपनी कुछ विशेषताएं और समस्याएं है जिसका अध्ययन जरूरी है, जैसे जाति। धार्मिक समस्या भी गंभीर है। उन्होंने स्पष्ट किया कि कम्युनिस्ट बनने के लिए अनीश्वरवादी होना जरूरी नहीं है।
सुधारक रेड्डी ने कहा कि बहस सिर्फ कम्युनिस्टों या भाकपा के सदस्यों तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। इसमें
अधिक व्यापक माक्र्सवादी तबकों तथा गैर-माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों और लोगों को भी बड़ी संख्या में शामिल किया जाना चािहए। उन्होंने बताया कि फाउंडेशन और सेंटर की ओर से हर वर्ष ऐसी चर्चाओं का आयोजन किया जाएगा। यह आंदोलन में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा।
अनिल राजिमवाले ने वर्कशाप के पेपरों और बहसों की समीक्षा प्रस्तुत की।
सी. राघवाचारी ने अंतिम सत्र की अध्यक्षता की। इस अवसर पर एम. विजय कुमार, कारूमान्ची तथा प्रो. कुलकर्णी भी उपस्थित थे।
एम. विजय कुमार और अनिल राजिमवाले वर्कशाप के आयोजक/संगठनकर्ता थे। विजय कुमार के अथक परिश्रम के कारण इसका सफल आयोजन किया जा सका।
अनिल राजिमवाले ने वर्कशाप के संयोजककर्ता का कार्य संभाला। प्रो. एस.जी. कुलकर्णी, अनिल राजिमवाले और विजन कुमार ने वर्कशाप के विषयों, सत्रों, पेपर प्रस्तुतकर्ता, अध्यक्षों इत्यादि का चयन किया।
अनुकूल वातावरण में चर्चा
वर्कशाप का आयोजन अत्यंत ही अनुकूल वातावरण में किया गया। सी.आर. फाउंडेशन, एन.आर.आर.आर. सेंटर का परिसर अत्यंत ही शांत और सुंदर एवं ऐसी चर्चा के आयोजन के अनुकूल था। विद्धानों ने बड़े शांत-सुरम्य एवं नैसर्गिक वातावरण में विचार-विमर्श एवं विचारों को आदान-प्रदान किया। रहने का इंतजाम बड़े ही सीधे-सादे लेकिन अनौपचारिक तरीके से किया गया।
अधिकतर भागीदार छोटे हाॅलों में साथ रहे; कुछ के लिए परिवारों सहित कमरों का भी इंतजाम किया गया। वातावरण घरेलू और भोजन सादा किन्तु स्वादिष्ट तथा स्वास्थ्यकर था।
इस संदर्भ में सी.आर. फाउंडेशन द्वारा चलाए जा रहे ‘ओल्ड एज होम’ अर्थात् वृद्ध लोगों के लिए निवास भवन का उल्लेख आवश्यक है। वे सौ से भी अधिक वृद्धों के लिए निवास होस्टल चला रहे हैं। इसके स्टाफ और प्रशासन ने खाने-पीने, रहने, दैनिक रूटीन इत्यादि का बड़ा ही सुचारू, सुंदर एवं अनुशासित इंतजाम किया। कहीं भी कोई समस्या पैदा नहीं हुई। पुस्तकालय से भी काफी सहायता मिली। वर्कशाप में भाग लेने वालों के लिए यह एक स्मरणीय घटना रहेगी। एम. विजय कुमार विशेष धन्यवाद के पात्र है।

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हमारा लोकतंत्र: कितना लोक, कितना तंत्र है

60वें गणतंत्र दिवस के मौके पर यह देखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हमारे लोकतंत्र में कितना लोक और कितना तंत्र है। लोकतंत्र की जनकांक्षा पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांगलादेश और नेपाल में हिलोरे मारती रही है। छोटा देश भूटान भी इससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा। यहां भी जनता ने चुनकर संसद का निर्माण किया है। लातिन अमरीकी देशों में हालिया इतिहास लोकतंत्र की जय, पराजय और फिर विजय की उथल-पुथल की घटनाओं से भरा है। इस जय, पराजय और विजय में निःसंदेह जनता की निर्णायक भूमिका होती है, किंतु पूंजी की दखलंदाजी से इंकार नहीं किया जा सकता है। पूंजी लोकतंत्र का क्षरण करती है। फलस्वरूप लोकतंत्र का हरण होता है। जहां कहीं भी लोकतंत्र का हरण हुआ है, उसके पीछे झुकने पर पूंजी की काली करतूत उजागर होती है।
भारत के गुजरे दो दशकों पर दृष्टिपात करें तो साफ प्रतीत होता है कि भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक क्षरण 14 जुलाई 1991 को प्रारंभ हुआ, जब तत्कालील प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने देश के लिए नयी आर्थिक नीति की घोषणा की। नयी आर्थिक नीति अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में की गयी सरकारी घोषणा थी, जो लोकसभा की पीठ पीछे की गयी थी। यह नयी आर्थिक नीति लोकसभा में बहस कराये बगैर घोषित की गयी। सन् 1991 में घोषित यह नयी आर्थिक नीति 1956 के उस औद्योगिक प्रस्ताव का निषेध करती है, जिसे देश की निर्वाचित प्रथम संसद ने सर्वसहमति से पास किया था। विडंबना है कि देश की संसद द्वारा पारित सर्वसहमत प्रस्ताव को एक अल्पमत सरकार ने खारिज कर दिया। सर्वविदित है कि जब आर्थिक नीति की घोषणा की गयी थी तो तत्कालीन नरसिंह राव सरकार को लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था।
इस नयी आर्थिक नीति ने भारत की परम्परागत साम्राज्यवाद - विरोधी लोकहितकारी कल्याणकारी आत्मनिर्भर स्वावलंबी राष्ट्रीय अर्थतंत्र निर्मित करने के सपने को खंडित कर दिया, जो सपना आजादी की लड़ाई के दौर में देखा गया था और जिसकी अभिव्यक्ति संविधान में की गयी। नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने तमाम लोकतंात्रिक संवैधानिक संस्थाओं की अवहेलना करके एकतरफा भारतीय अर्थतंत्र को साम्राज्यवाद निर्यातमुखी मुक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर कर दिया। सबकों मालूम है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार व्यवस्था न तो मुक्त है और न ही न्यायपूर्ण। अंतर्राष्ट्रीय बाजार व्यवस्था मगरमच्छ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का क्रीड़ास्थल है, जहां बड़ी मछली छोटी मछली को खाती हैं। नयी आर्थिक नीति के मध्य में पूंजी खड़ी है। आम आदमी के बारे में कहा गया कि उसे उसका लाभ “बूंद-बूंद टपकेगा“। जाहिर है, पूंजीवाद में आम आदमी भिखारी बन रहा है।
इस तरह पहली बार भारतीय राष्ट्रीय अर्थतंत्र में लोक के स्थान पर ‘लाभ’ का प्रतिष्ठित किया गया। यह लोकतंत्र का निषेध और पूंजीतंत्र (कार्पोरेट गवर्नेस) का श्रीगणेश था, जहां मुनाफा,
अधिकाधिक मुनाफा और अधिक मुनाफा (सुपर प्राॅफिट) सरकारी मंत्र बन गया।
भारतीय लोकतंत्र को दूसरा जबर्दस्त धक्का लगा सन् 1995 में जब भारत सरकार ने विश्व व्यापार संघ (डब्लूटीओ) के डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया। भारतीय संविधान में कृषि राज्य सरकारों के मामलों की सूची में दर्ज है, किन्तु भारत को राज्य विधानसभाओं की अनुमति के बगैर भारत सरकार ने डब्लूटीओ प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया, जो मुख्यतया कृषि संपदा के भाग्य का निर्णय करते थे।
यहां यह भी ध्यातव्य है कि खेत मजदूरों के लिए व्यापक केन्द्रीय कानून बनाने की मांग को इस आधार पर इंकर किया जाता रहा है कि कृषि राज्य सरकारों का मामला है। सरकार के इस तर्क में कोई दम नहीं है, क्योंकि श्रम संविधान की समवर्ती सूची में दर्ज है और खेत मजदूरों का मामला बुनियादी तौर पर श्रम का मामला बनता है। घोषित नयी आर्थिक नीति में श्रम और श्रम अधिकार गौण है और इसमें श्रमिक और टेªड यूनियनों को पूंजी की सेवा में पालतू बनाने का प्रावधान है।
इसी तरह डब्लूटीओ समझौते में कृषि, खेत मजदूर और उनके हित गायब हैं। यह समझौता अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के सामने साष्टांग दंडवत है। सन् 1991 में संसद की उपेक्षा कर नयी आर्थिक नीति की घोषणा की गयी। फिर 1995 में राज्य के विधानमंडलों की उपेक्षा कर डब्लूटीओ पर हस्ताक्षर किया गया।
भारतीय लोकतंत्र को तीसरा झटका 2008 के प्रारंभ में लगा, जब सरकार ने अमरीका के साथ बेजरूरत परमाणु संधि पर हस्ताक्षर किया। इस समझौते में भारत के आणविक संयंत्रों के अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण को स्वीकार किया गया। यह भारतीय लोकतंत्र की सार्वभौमिकता पर अंकुश लगाने का प्रयास है। सबको पता है कि भारत में थोरियम का अपार भंडार है, जिससे अकूत बिजली प्राप्त की जा सकती है, इसके अलावा नदियों का अजस्र जल प्रवाह है, जिसे विद्युत सर्जन का अक्षय स्त्रोत में तब्दील किया जा सकता है। ऐसा नहीं करके सरकार ने साम्राज्यवादी खेमा ज्वायन करना बेहतर समझा। ऐसा करना भारत की जनभावना का निरादर करना है।
2009 के अंत में पर्यावरण सम्बंधी कोपेनहेगन समझौता भारतीय लोकतंत्र पर चैथा और ताजा हमला है। कोपेनहेगन में सरकार ने भारत के आर्थिक विकास के मार्ग में नया साम्राज्यवादी लगाम स्वीकार किया है। पर्यावरण संबंधी कोपेनहेगन समझौता भारत को विकासमान देशों से अलग- थलग करता है और साम्राज्यवादी विकसित देशों के सामने घुटना टेकता है। इस समझौते से विकसित देशों को कार्बन डाई आॅक्साड कम करने की बाध्यता से छुट्टी मिल गयी है और उसने विकासमान देशों के कार्बन उत्सर्जन की मानेटरिंग और निरीक्षण करने का अतिरिक्त अधिकार हासिल कर लिया है। कोपेनहेगन समझौता पूर्व के परमाणु अप्रसार संधि जैसा बेमेल समझौता है जिसके मुताबिक विकसित औद्योगिक देश स्वयं तो परमाणु हथियार का जखीरा रखते हैं किन्तु दूसरे देशों को ऐसा नहीं करने देते हैं।
ये सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौते विश्वजनमत के विरूद्ध लोकतांत्रिक संस्थानों की उपेक्षा करके किये गये हैं। इन समझौतों पर हस्ताक्षर करने के पहले संसद और विधानसभाओं से अनुमति नहीं ली गयी। अमरीका और अन्य देशों में सरकार द्वारा किये गये अंतर्राष्ट्रीय समझौते तभी वैध और कार्यान्वित किये जाते हैं, जब उस देश की संसद उसे संपुष्ट करती हैं। किंतु भारत में इसके विपरित सरकार ने संसद की बिना अनुमति के अंतर्राष्ट्रीय समझौते किये और उसे देश की जनता पर लाद दिया। यह भारतीय जनगण की अवमानना नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र में लोक अपनी किस्मत तय करता है, किन्तु भारत में लोकहित के हर महत्वपूर्ण बिंदु पर केवल तंत्र ने ही ताने कसे हैं। यही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्थ में विश्व पूंजीवाद का हस्तक्षेप खतरनाक सीमा तक बढ़ गया है। इसके चलते संसद और विधानमंडलों की भूमिका का अवमूल्यन हुआ है। केन्द्रीय बजट के प्रावधानों पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष-विश्व बैंक में परामर्श किया जाता है। केन्द्रीय बजट को विश्वपूंजी की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जाता है।
शासनतंत्र के इन्हीं-लोक विरोधी तांत्रिक फैसलों का लाजिमी नतीजा है कि आज सवा अरब की आबादी वाले देश में 85 करोड़ लोग (77 प्रतिशत) 20 रुपये रोजाना से कम पर गुजारा करते हैं, वहीं सैकड़ें पांच आदमी के पास इतना अफरात पैसा जमा हो गया है कि वह दुनिया को कोई भी माल किसी भी कीमत पर खरीदने को उतावला है। भारत के तीस परिवार के पास देश की एक तिहाई संपदा संचित हो गयी है। सरकार की इसी तांत्रिक करतूतों ने उन संवैधानिक प्रावधानों को निकम्मा कर दिया है, जिसके तहत कुछ व्यक्तियों के हाथों में धन के संकेन्द्रण की मनाही है। प्रो. अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बने असंगठित क्षेत्र आयोग के प्रतिवेदन के मुताबिक देश के 77 प्रतिशत लोगों की आय 20 रुपये के नीचे है। इस बीस रुपये की आय से एक किलोग्राम चावल नहीं खरीदा जा सकता और न एक किलो दाल अथवा आटा। तो गरीब किस प्रकार गुजारा करते हैं। इस स्थिति से रोंगेटे खड़े होते हैं। प्रकटतः सरकार अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं करती है, जिसके तहत उसे नागरिकों की आजीविका, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गयी है।
सरकार भूमिहीनों को आवास और विस्थापितों केा पुनर्वास तथा भूमि
सुधार कानूनों के कार्यान्वयन में विफल है, किन्तु पूंजीपतियों को हजारों हजार एकड़ जमीन का आवंटन करने को बेताब है। भूमि हदबंदी कानून के अंतर्गत भूस्वामियों के कब्जे से जमीन निकालने और उसका भूमिहीनों में वितरित करने के काम में सरकार निकम्मा है, किन्तु पूंजीपतियों को भूमि औने-पौने दामों पर आवंटन, करने में सक्रिय है। सरकार की इन कारगुजारियों में सरकार का पूंजी पक्षी और लोक-विरोधी चरित्र का दर्शन होता है। इसमें आम आदमी की तस्वीर कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। लोक गायब हो रहा है। तंत्र हावी हो रहा है। आखिर यह लोकतंत्र किसके लिए है?
गणतंत्र के इस मौके पर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढना निश्चय ही अर्थपूर्ण होगा।
गुजरे दिनों में अनार्थिक प्रश्नों का अनर्थ खूब ढाया जाता रहा है। अनार्थिक भावानात्मक मुद्दों का जनता की खुशहाली से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। लेाकतंत्र केवल शाही नहीं है। लोकतंत्र के साथ आम आदमी की खुशहाली जुड़ने से लोकतंत्र सुसंगत और अर्थपूर्ण बनता है। लेाकतंत्र को धनतंत्र बनने से रोकने और इसे सुसंगत और अर्थपूर्ण बनाने के लोक संघर्ष को जाहिर है, और भी तेज करना होगा। क्योंकि पूंजी सबको लीलता है, लोकतंत्र को भी। पूंजी और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चलते। ये दोनों कभी सहयात्री नहीं बन सकते। इसलिए पूंजी पर लगाम जरूरी है। अन्यथा, आम आदमी को ये कुचल डालेंगे। कहते हैं, पूंजी खून से लथपथ पैदा हुई थी। कार्ल माक्र्स लिखते हैं कि जब पूंजी पैदा हुई तो इसके अंग-अंग और प्रत्येक अंग का प्रत्येक पोर रक्त रंजित था।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशकों के आर्थिक प्रयोग काल में तीन करोड़ लोग सामाजिक सुरक्षा कवच से बाहर धकेल दिये गये हैं। इसी अवधि में बेरोजगारी और बदहाली बेशुमार बढ़ी है। यह लोकतंत्र को धनतंत्र में ढालने का नतीजा है। इसी खतरे का अहसास कर देश के प्रमुख नौ केन्द्रीय मजदूर संगठन इकट्ठे होकर श्रमजीवी जनगण के हितों की रक्षा के लिए आगे बढ़ रहे हैं। इनके आह्वान पर आगामी 5 मार्च को 10 लाख लोग देशव्यापी सत्याग्रह करके जेलयात्रा करेंगे। निश्चय ही श्रमिक, पूंजी के समक्ष हथियार नहीं डालेंगे। हमें विश्वास है पूंजी और श्रम के बीच के टकराव का समाधान निश्चय ही आमजनों के पक्ष में होगा।

सत्यनारायण ठाकुर
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प्रगतिशील लेखक संघ का प्रान्तीय सम्मेलन

20-21 फरवरी 2010, वाराणसी

उत्तर प्रदेश को प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना का गौरव प्राप्त है। बनारस के पास लमही में जन्मे प्रेमचंद ने 1936 में लखनऊ में हुए पहले अधिवेशल की अध्यक्षता की थी। प्रेमचंद ने ही हिन्दी-उर्दू साहित्य को राजमहल से निकाल कर किसान-मजदूर की झोपड़ी में प्रतिष्ठित किया था। प्रेमचंद सज्जाद ज़हीर, डाॅ. रशीद जहां से शुरू हुई जनवादी प्रगतिशील धारा पर आज बाजारवाद साम्प्रदायिकता, जातीयता के हमले हो रहे हैं।
ऐसे समय में जब साहित्य, कला, संस्कृति को उपभोक्ता माल में तब्दील कर दिया गया हो लेखक- संस्कृतिकर्मियों की जिम्मेदारी कहीं अधिक बढ़ जाती है। प्रगतिशील लेखक संघ, उ.प्र. का प्रान्तीय सम्मेलन आगामी 20-21 फरवरी 2010 को वाराणसी में हो रहा है। जहां इन्हीं चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए साहित्यिक, सांस्कृतिक रणनीति पर विचार किया जाएगा। 20 फरवरी 2010 का दिन प्रख्यात अवामी शायर नजीर बनारसी की स्वर्ण जयंती को समर्पित रहेगा। 21 फरवरी 2010 को भोजन से पहले वैचारिक सत्र तथा शाम को सांगठनिक सत्र होगा।
प्रगतिशील लेखक संघ निश्चय ही लेखकों का संगठन है लेकिन देश के किसान-मजदूरों के संघर्ष जहां उनके लेखन को धार देते हैं वहीं उनकी लेखनी संघर्षों को दिशा देती हैं। इसलिए इस रिश्ते को और मजबूत बनाने की जरूरत है।
पार्टी की जिला इकाइयों, जन संगठनों से आग्रह है कि प्रगतिशील लेखक संघ के इस सम्मेलन को सफल बनाने के लिए प्रगतिशील प्रबुद्ध साथियों को प्रेरित करें।

राकेश, महामंत्री, इप्टा, उ. प्र.
संयोजक, सांस्कृतिक प्रकोष्ठ
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मुशी प्रेमचन्द्र की प्रतिमा हटाने की भाकपा द्वारा निन्दा

लखनऊ 8 फरवरी 2009। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रदेश सचिव डाॅ. गिरीश ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती से मांग की है कि वे कहानी सम्राट, मूर्धन्य साहित्यकार एवं प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक अध्यक्ष मुंशी प्रेमचन्द्र की अवमानना करने की वाराणसी के जिला प्रशासन की कार्यवाही को तत्काल रोंके साथ ही उनके गांव लमही में प्रस्तावित प्रेमचन्द्र शोध संस्थान के लिये जमीन उपलब्ध करपने को तत्काल ठोस कदम उठायें।
मुख्यमंत्री को लिखे गये एक पत्र में डॉ. गिरीश ने कहा है कि वाराणसी नगर के पाण्डेयपुर चैराहे पर मुंशी प्रेमचन्द्र की प्रतिमा इसलिए लगवायी गयी थी कि वाराणसी नगर से मुंशी प्रेमचन्द्र का गहरा रिश्ता है और उसी चैराहे से होकर वे अपने गांव लमही आया जाया करते थे। अब वहां बनाये जा रहे फ्लाई ओवर के नीचे उनकी प्रतिमा आ रही है। ऐसे महापुरूष की प्रतिमा को सम्मान के साथ बनारस के ही किसी पार्क में स्थापित करने के बजाय वाराणसी जिला प्रशासन, सार्वजनिक निर्माण विभाग एवं नगर निगम ने इसे हटाकर लमही भेज देने का फैसला लिया है।
बनारस प्रशासन के इस फैसले से तमाम लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों एंव संवेदनशील नागरिकों को भारी पीड़ा पहुंची है और वे उद्वेलित हैं। विद्धत समाज चाहता है कि महापुरुषों की प्रतिमाओं को स्थानान्तरित करने सम्बन्धी शासनादेश को ध्यान में रखकर वाराणसी महानगर के ही किसी पार्क में उनकी प्रतिमा को सम्मान पूर्वक स्थापित किया जाये। ज्ञात हो कि वाराणसी में ऐसे कई पार्क हैं जहां उनकी प्रतिमा स्थापित की जा सकती है। राम कटोरा पार्क में भी यह प्रतिमा स्थापित की जा सकती है जहां कि श्री प्रेमचन्द्र की मृत्यु हुई थी।
भाकपा प्रदेश सचिव ने मुख्यमंत्री से यह भी आग्रह किया है कि वह राज्य सरकार की घोषणा के अनुसार लमही में प्रस्तावित प्रेमचन्द्र शोध संस्थान के लिय 3 एकड़ जमीन शीघ्र उपलब्ध करायें ताकि उसका निर्मार्ण शीघ्र पूरा हो सके। ज्ञात हो कि केन्द्र सरकार ने इसके निर्माण के निये नोडल एजेन्सी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को 2 एकड़ जमीन उपलब्ध नहीं करा पायी। जो 1.97 एकड़ जमीन अब तक अधिग्रहीत की गयी है उसको भी आज तक हस्तान्तरित नहीं किया गया है।
डाॅ. गिरीश ने मुख्यमंत्री जी को स्मरण दिलाया है कि उन्हें उन महापुरूषों की मूर्तियों की स्थापना से बेहद लगाव है जो शोषित पीड़ित जनता के उत्थान के प्रतीक रहे हैं। मुंशी प्रेमचन्द्र ने भी अपने उपन्यासों एवं कहानियों में दलितों, वंचितों, शोषित-पीड़ितों के सरोकारों को न केवल चित्रित किया बल्कि अपनी लेखनी के माध्यम से उनकी जीवन दशा सुधारने को लगातर आवाज उठायी। ऐसे महापुरुष प्रेमचन्द्र शोध-संस्थान के निर्माण हेतु जमीन उपलब्ध कराने तथा तमाम संवदेनशील लोगों की भावनाओं को आहत करने वाले बनारस प्रशासन के कदम को खारिज करने की मुख्यमंत्री जी शीघ्र ठोस कदम उठाएंगी, भाकपा प्रदेश सचिव ने ऐसी आशा व्यक्त की है।
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केरल के वनमंत्री का सराहनीय कार्य

संभवतः लश्करे-तैयबा कार्यकर्ता तादियांतविदा नासिक की आतंकवादी गतिविधियों के संबंध में राजनैतिक रूप से संवेदनशील रिपोर्टों से जुड़ी खबरों और पाॅल जार्ज मुथूट एवं भास्कर करनवार की हत्याओं के मामले केरल में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में छाये रहने के कारण वन विभाग द्वारा गत 25 नवम्बर को जारी एक अत्यंत महत्वपूर्ण अधिसूचना पर मीडिया द्वारा ध्यान नहीं दिया गया। यह आदेश राज्य के वनमंत्री विनय विश्वम द्वारा तीन साल पहले किये गये एक कठिन एंव चुनौतीपूर्ण मिशन के सफलतापूर्ण पूरा करने के रूप में था। इसे वनमंत्री की एक सबसे बड़ी प्रशासनिक उपलब्धि कहा जा सकता है क्योंकि वे इस आशय का सरकारी आदेश तैयार करने और उसे जारी करने में सफल रहे ताकि सरकार की वन एवं गैर-वन जमीन तथा उसे लीज पर देकर राजस्व बढ़ाया जा सके। यहां यह नोट किया जाना चाहिए कि सरकार जमीन का इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों एवं निजी संस्थाओं से सरकार बहुत ही कम शुल्क लेती रही है।
वास्तव में वनमंत्री ने एक काफी जटिल मुद्दे में हस्तक्षेप करने का साहस किया जबकि उनके पूर्ववर्ती मंत्रियों ने राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव होने के बावजूद या तो इसकी उपेक्षा कर दी या फिर कुछ कार्रवाई करने के बाद उसे आधा-अधूरा छोड़ दिया। वन मंत्री के हस्तक्षेप से संबंधित कानून में एक बड़ी त्रुटि दूर कर दी गयी जिसके कारण राज्य को लगभग डेढ़ शताब्दी से सालाना करोड़ों रु. का नुकसान हो रहा था।
केरल के इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण एवं असामान्य उपलब्धि को तभी समझा जा सकता है जब इसकी पृष्ठभूमि मालूम हो। 19वीं सदी की पहली तिमाही में ट्रावनकोर में ब्रिटिश औपनिवेशक स्थापित हो जाने के बाद ब्रिटिश बागान मालिकों ने कीमती वन संसाधनों का दोहन करना शुरू कर दिया। इस लूट के पीछे शुरू में कर्नल मुनरो का दिमाग था जिन्होंने एक अत्यधिक साहसी एवं देशभक्त शासन वेलू थांपी डलावा की मृत्यु के बाद वाचिनाड की राजसत्ता छील ली थी। बाद में राज्य का दीवान बन जाने के बाद उन्होंने अपने स्वयं के देश के लिए लोगों को वन संसाधनों की लूटखसोट करने के लिए बुला लिया था, ठीक उसी तरह जैसे कि उसने लगभग उन पन्द्रह सौ मंदिरों पर कब्जा कर लिया था जो राज्य के सामाजिक जीवन की रीढ़ थे और जिन पर राज्य का कोई अधिकार भी नहीं था।
1870 के दशक में वन संसाधनों की लूट चरमसीमा पर पहुंच गयी। उन्होंने 10 जुलाई 1877 को पुंजार के राजा को केवल 3000 रु. लगान पर 1,37,424 एकड़ वन भूमि एक ब्रिटिश जमींदार जाॅन डेनियल मुनरों को टाइटिल डीड पर देने के लिए मजबूर कर लूट के इतिहास में एक नया
अध्याय ही जोड़ दिया और इसकी कोई समयसमीा भी नहीं रखी। सी. अच्युत मेनन के मुख्यमंत्रित्व काल में केरल सरकार 1971 में कन्नन देवन हिल्स कानून बनाने के बाद इनमें से करीब तीन चैथाई वन संसाधनों को वापस लेने में सफल रही। टाटा टी कंपनी अभी भी 57,192 एकड़ वन भूमि अपने पास रखे हुए है।
पिछले डेढ़ सौ साल से लीज की शर्तों के अनुसार जमीन के मालिक को चंदन को छोड़कर किसी भी पेड़ को काटने का अधिकार है। टीक और ब्लैक वुड आदि लकड़ियों के लिए सरकार को नाम मात्र की रायल्टी दी जाती है और शेष पेड़ों पर कोई शर्त नहीं है। यहां यह नोट किया जाना चाएि कि किसी भी पूर्व सरकार ने आय के इन स्रोतों को हाथ में लेने की कोशिश नहीं की, जबकि इस डेढ़ शताब्दी में आय कर एवं अन्य करों में वृद्धि की गयी। हाल के वर्षों में इन करों में वृद्धि करने के प्रयास की कहानी काफी दिलचस्प है।
मुख्यमंत्री ई.के. नयनार के प्रथम कार्यकाल में वन एवं श्रममंत्री आर्यदान मुहम्मद ने जून 1980 में लकड़ियों की कीमत तथा लीज की दर आदि बढ़ाने की दिशा में पहला कदम उठाया जो कि डेढ़ शताब्दी तक ज्यों की त्यों थी। उन्होंने इसके लिए एक अध्यादेश जारी किया और बाद में इसे बिना कोई देरी किये कानून का रूप दिया? लेकिन अक्टूबर, 1981 में नयनार सरकार ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद नया कानून बनाने में करीब दस साल लग गये। निहित स्वार्थी तत्वों ने इसको लेकर शोर मचाना शुरू कर दिया। एस्टेट मालिकों के एक प्रमुख संगठन ने सरकार को एक कड़ा ज्ञापन दिया जिसके बाद सात महीने पहले बनायी गयी नियमावली को स्टे कर दिया गया।
इसके बाद एक और दुर्घटना घटी। इतने महत्वपूर्ण मामले से जुड़ी फाइल सचिवालय से रहस्यपूर्ण ढंग से गायब हो गयी। इसके बाद इससे जुड़े
अध्यादेश को जारी करने में सरकार को पांच साल लग गये। नवंबर 1996 में जारी किये गये उस अध्यादेश का श्रेय अन्य किसी को नहीं बल्कि पी.आर. कुरूप को जाता है जो ई.के. नयनार के तीसरे मंत्रिमंडल में वन एवं परिवहन मंत्री थे। लेकिन राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह अध्यादेश जनवरी 1999 में दिल्ली से वापस भेजा गया यानी दो साल गुजरने के बाद। इस अभागे बिल को केरल विधानसभा ने अप्रैल 1999 में एक महत्वपूर्ण संशोधन कर पारित कर फिर से दिल्ली भेजा जिसे केन्द्र सरकार ने सात साल तक वापस नहीं किया। मई, 2006 में इसे यह कहकर वापस किया गया कि इन संशोधनों को कोई जरूरत नहीं है। विनय विश्वम को, जो वलतक्काड द्वीप के पर्यावरण संबंधी महत्व को अच्छी तरह समझते हैं। संबंधित कानून एवं नियमों की त्रुटियों को देर करने और अधिसूचना जारी करने में साढ़े तीन साल लग गये। इस प्रकार वन लाॅबी और सरकार में निहित लेटलतीफी के विभिन्न निहित स्वार्थों के विरोध के कारण इस कानून के बनने में कुल 29 वर्ष का समय लग गया। उन्होंने न केवल डेढ़ शताब्दी से चले आ रहे भ्रष्टाचार को दूर किया है बल्कि गैर-टैक्स संसाधनों से सालाना करीब सात करोड़ रु. वसूल करने का एक ठोस आधार भी तैयार कर दिया।
विनय विश्वम राज्य के संभवतः प्रथम वन मंत्री है जो किसी भी दबाव के आगे नहीं झुके और यह साहसिक घोषणा की कि इदुक्की जिले के कार्डमोम हिल (इलायची पर्वत) संरक्षित वनभूमि है, न कि ऐसी राजस्व भूमि जिस पर किसी को आक्रमण करने दिया जाये। यह दूसरी बात है कि उनके दृष्टिकोण को अन्ततः माना नहीं गया।
वन मंत्री ने एक बार फिर एर्नाकुलम जिले के मराड द्वीप में भूमि माफिया के चंगुल से 46 गरीब परिवारों को मुक्त कराया। राज्य में वन एवं भूमि माफियाओं की लाॅबी काफी मजबूत है जो अपने आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभावों से सरकारों को गिराते रहे है। लेकिन वे वनमंत्री विनय विश्वम को सही दिशा में कदम आगे बढ़ाने से रोक नहीं पाये। यह वन माफिया पुराने पेड़ो को काटने, अतिक्रमण करने और हजारों एकड़ वन भूमि और गैर वन भूमि पर कब्जा करने में लिप्त रहा है और पिछले कई दशकों से उसने सरकार को एक भी पैसे का भुगतान नहीं किया है।

सी.पी. नायर

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जनता का साहित्य किसे कहते हैं?

जिन्दगी के दौरान जो तजुर्बे हासिल होते हैं, उनसे नसीहतें लेने का सबक तो हमारे यहां सैकड़ों बार पढ़ाया गया है। होशियार और बेवकूफ में फर्क बताते हुए एक बहुत बड़े विचारक ने यह कहा, “गलतियां सब करते हैं, लेकिन होशियार वह है, जो कम-से-कम गलतियां करें और गलती कहां हुई यह जान ले और सावधानी बरते कि कहीं वैसी गलती तो फिर नहीं हो रही है।” जो आदमी अपनी गलतियों से पक्षपात करता है, उसका दिमाग साफ नहीं रह सकता।
गलतियों के पीछे एक मनोविज्ञान होता है। या, यूं कहिए कि गलतियों का स्वयं एक अपना मनोविज्ञान है। तजुर्बे से नसीहतें लेते वक्त, अपने गलतियों वालों मनोविज्ञान के कुहरे को भेदना पड़ता है। जो जितना भेदेगा, उतना पायेगा। लेकिन पाने की यह जो प्रक्रिया है, वह हमें कुछ सिद्धान्तों के किनारे तक ले जाती है, कुछ सामान्यीकरणों को जन्म देती हैं। यानी, तजुर्बे की कोख से सिद्धान्तों का जन्म होता है।
मैं अपने तजुर्बे से कौन-सा निष्कर्ष निकालूं, यह एक सवाल है और तजुर्बा यह है।
एक उत्साही सज्जन को जब मैंने यह कहा कि फलां पार्टी छुईखदान गोलीकाण्ड पर इतनी देर से क्यों वक्तव्य निकाल रही है, तो उसका जवाब देते हुए उन्होंने यह कहा कि वक्तत्व मैंने लिखा (वे उस पार्टी के हैं,) और पार्टी उसे पास करने जा रही है। आपका भी यह काम था कि आप वक्तव्य को जल्दी-से-जल्दी लिखते और पास करवा लेते।
मैंने इसका जवाब यह दिया कि वह मेरा काम नहीं हैं। मेरे काम में हिस्सा बंटाने के लिए क्या वे लोग आते हैं? (‘मेरे काम’ मेरा मतलब ‘साहित्यिक कार्य’ से था) उन्होंने उसका जवाब यह कहकर दिया कि यह आपका व्यक्तिगत कार्य है और वह सामूहिक।
इसका यह मतलब हुआ कि साहित्य एक व्यक्तिगत कार्य है और राजनीतिक सामूहिक कार्य, और सामूहिक कार्य में व्यक्तिगत स्वार्थ की कोई महत्ता नहीं।
लेकिन क्या यह सच है? क्या कवि-कर्म मात्र व्यक्तिगत है? क्या साहित्य कार्य की मूल प्रेरणा और क्षेत्र शुद्ध व्यक्तिगत है?
मजेदार बात यह है कि साहित्य को मात्र व्यक्तिगत कार्य कहकर, व्यक्तिगत उत्तरदायित्व कहकर, अपने हाथ झाड़-पोंछकर साफ करने वाले ठीक वे ही लोग हैं, जो ‘जनता के लिए साहित्य’ का नारा बुलन्द करते हैं, गो उन्हें यह मालूम नहीं है कि जिन शब्दों को वे बार-बार दुहरा रहे हैं, उसका मतलब क्या है?
यह छोटी-सी बात हमारे हिन्दुस्तान के पिछडे़पन को ही सूचित करती है। स्वतन्त्र होने पर भी, हमारा देश आर्थिक दृष्टि से अभी गुलाम है। औपनिवेशिक देश के बुद्धिजीवी निश्चय ही उतने ही पिछड़े हुए हैं जितना कि उनका अर्थतन्त्र।
यूरोप में एक-एक विचार की प्रस्थापना के लिए बड़ी-बड़ी कुरबानियाँं देनी पड़ी है, लेकिन हिन्दुस्तान को पका-पकाया मिल रहा है। लेकिन, चूंकि उसके पीछे स्वतः उद्योग नहीं है, इसलिए बहुत-से विचार हजम नहीं हो पाते। शरीर में उनका खून नहीं बन पाता। आंखों में उनकी लौ नहीं जल पाती। मस्तिष्क में उनका प्रकाश नहीं फैल पाता। इसीलिए विचारों में बचकानापन रहता है और कार्य विचारों का अनुसरण नहीं कर पाते। यह बात हिन्दुस्तान के औपनिवेशिक रूप पर ही हमारी दृष्टि ले जाती है।
हम अपने मूल प्रश्न पर आयें। क्या साहित्य-कार्य मात्र व्यक्तिगत कार्य है, मात्र व्यक्तिगत उत्तरदायित्व है?
इसका जवाब यों है:
1. साहित्य का सम्बन्ध आपकी संस्थिति से है, आपकी भूख-प्यास से है -मानसिक और सामाजिक। अतएव किसी प्रकार का भी आदर्शात्मक साहित्य जनता से असम्बद्ध नहीं।
2. ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ जनता को तुरन्त ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज नहीं। अगर ऐसा होता तो किस्सा तोता मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते। साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं। सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलन्दी, बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहना है, सुनने या पढ़ने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है। वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार। साहित्य का उद्देश्य सांस्कृतिक परिष्कार है, मानसिक परिष्कार है। किन्तु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वारा तभी सम्भव है, जब स्वयं सुनने वाले या पढ़ने वाले की अवस्था शिक्षित (की) हो। यही कारण हे कि माक्र्स का दास कैपिटल, लेनिन के ग्रन्थ, रोम्यां रोलां के ताॅलस्ताॅय और गोर्की के उपन्यास एकदम अशिक्षित और असंस्कृतों के न समझ में आ सकते हैं, न वे उनके पढ़ने के लिए होते ही हैं ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ ‘जनता के लिए साहित्य’ से है और वह जनता ऐसी हो जो शिक्षा और संस्कृति द्वारा कुछ स्टैण्डर्ड प्राप्त कर चुकी हो। ध्यान रहे कि राजनीति के मूल ग्रन्थ बहुत बार बुद्धिजीवियों के भी समझ में नहीं आते, जनता का तो कहना ही क्या। लेकिन वे हमारी सांस्कृतिक विरासत है। ऐसे राजनीति- ग्रंथों के मूल भाव हमारी राजनीतिक पार्टियों और सामाजिक कार्यकर्ता अपने भाषणों और आसान जबाव में लिखी किताबों द्वारा प्रसारित करते रहते हैं। चूंकि ऐसे ग्रन्थ जनता की एकदम समझ मे नहीं आते (बहुत बार बुद्धिजीवियों की भी समझ में नहीं आते), इसलिए वे ग्रन्थ जनता के लिए नहीं, यह समझना गलत है। अज्ञान और अशिक्षा से अपने उद्धार के लिए जनता को ऐसे ग्रन्थों की जरूरत है। जो लोग ‘जनता का साहित्य’ से यह मतलब लेते हैं कि वह साहित्य जनता के तुरन्त समझ में आये कि जनता उसका मर्म पा सके, यही उसकी पहली कसौटी है - वे लोग यह भूल जाते हैं कि जनता को पहले सुशिक्षित और सुसंस्कृत करना है। वह फिलहाल अन्धकार में है। जनता को अज्ञान से उठाने के लिए हमें पहले उसको शिक्षा देनी होगी। शिक्षित करने के लिए जैसे ग्रन्थों की आवश्यकता होगी, वैसे ग्रन्थ निकाले जाएंगे और निकाले जाने चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उसको प्रारम्भिक शिक्षा देने वाले ग्रन्थ तो श्रेष्ठ हैं और सर्वोच्च शिक्षा देने वाले ग्रन्थ श्रेष्ठ नहीं है। ठीक यही भेद साहित्य में भी है। कुछ साहित्य तो निश्चय ही प्रारम्भिक शिक्षा के अनुकूल होगा, तो कुछ सर्वोच्च शिक्षा के लिए। प्रारम्भिक श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य तो साहित्य है ओर सर्वोच्च श्रेणी के लिए उपयुक्त साहित्य जनता का साहित्य नहीं है, यह कहना जनता से गद्दारी करना हैं
तो फिर ‘जनता का साहित्य’ का अर्थ क्या है? जनता के साहित्य से अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन-मूल्यों का, जनता के जीवनादर्शों का, प्रतिष्ठापाति करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो। इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनैतिक मुक्ति से लगाकर अज्ञान से मुक्ति तक है। अतः इसमें प्रत्येक प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह सचमुच उसे मुक्तिपथ पर अग्रसर करे।
जनता के मानसिक परिष्कार, उसके आदर्श मनोरंजन से लगाकर तो क्रान्ति पथ पर मोड़ने वाला साहित्य, मनावीय भावनाओं का उदात्त वातावरण उपस्थित करने वाला साहित्य, जनता का जीवन-चित्रण करने वाला साहित्य, मन को मानवीय और जन को जन-जन करने वाला साहित्य, शोषण और सत्ता के घमण्ड को चूर करने वाले स्वातन्त्रय और मुक्ति के गीतों वाला साहित्य, प्राकृतिक शोभा ओर स्नेह के सुकुमार दृश्यों वाला साहित्य - सभी प्रकार का साहित्य सम्मिलित है, बशर्ते कि वह मन को मानवीय, जन को जन-जन बना सके और जनता को मुक्ति पथ पर अग्रसर कर सके। साहित्य के सम्बन्ध में यही दृष्टिकोण जनता का दृष्टिकोण है। फ्रांस के लुई ऐरॅगां ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जनता के बीच काम किया और युद्ध समाप्ति पर रोमैण्टिक उपन्यास लिखा। शायद उन्हें जन-संघर्ष के दौरान में दुश्मनों से लड़ते-लड़ते रोमैण्टिक अनुभव भी हुए हों। उन अनुभवों के आधार पर उन्होंने रोमैण्टिक उपन्यास लिखा। किन्तु तुरन्त बाद ही वे ऐसे उपन्यास लेकर आये, जिसमें, अलावा एक रोमैण्टिक धारा के, जनता के संघर्ष का सौन्दर्यात्मक चित्रण था। यही हाल इलिया एहरेनबर्ग आदि का है। उनका उपन्यास स्टाॅर्म (तूफान-इसका हिन्दी में अनुवाद हो चुका है) भी जन-संघर्ष के दौरान का चित्रण करता है, जिसमें कई मानवोचित रोमैण्टिक घटनाओं और उपकथाओं का सन्निवेश है। उसी तरह सोवियत साहित्य के अन्तर्गत द्वितीय विश्वयुद्ध के विशाल साहित्य चित्रों में मानवोचित सुकुमार रोमैण्टिक कथाओं और प्राकृतिक सौन्दर्य-दृश्यों का अंकन किया गया है।
जो जाति, जो राष्ट्र जितना ही स्वाधीन है, यानी जहां की जनता शोषण और अज्ञान से जितने अंशों तक मुक्ति प्राप्त कर चुकी होती है, उतने ही अंशों तक वह शक्ति और सौन्दर्य तथा मानवदर्श के समीप पहुंचती हुई होती है। आज की दुनिया में जिस हद तक शोषण बढा़ हुआ है, जिस हद तक भूख और प्यास बढ़ी हुई है, उसी हद तक मुक्ति-संघर्ष भी बढ़ा हुआ है और उसी हद तक बुद्धि तथा हृदय की भूख-प्यास भी बढ़ी हुई है।
आज के युग में साहित्य का यह कार्य है कि वह जनता के बुद्धि तथा हृदय की इस भूख-प्यास का चित्रण करे और उसे मुक्ति पथ पर अग्रसर करने के लिए ऐसी कला का विकास करे जिससे जनता प्ररेणा प्राप्त कर सके और जो स्वयं जनता से प्रेरणा ले सके। अतएव निष्कर्ष यह निकला कि जनता के साहित्य के अन्तर्गत सिर्फ एक ही प्रकार का साहित्य नहीं, सभी प्रकार का साहित्य है। यह बात अलग है कि साहित्य में कभी-कभी जनता के अनुकूल एक विशेष धारा का ही प्रभाव रहे - जैसे प्रगतिशील साहित्य में किसान-मजदूरों की कविता का।
इस विवेचन के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाएगा कि जनता के जीवन-मूल्यों और जीवनादर्शों की दृष्टि में रख जो साहित्य निर्माण होता है, वह यद्यपि व्यक्ति-व्यक्ति की लेखनी द्वारा उत्पन्न होता है, किन्तु उसका उत्तरदायित्व मात्र व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक उत्तरदायित्व है। जिस प्रकार एक वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला में अनुसन्धान करता है और शोघ कर चुकने पर एक फाॅर्मूला तैयार करता है, यद्यपि वह साधारण जनता की समझ में न आये, लेकिन वैज्ञानिक यह जानता है कि उस फार्मूले की कार्य में परिणति करने पर नयी मशीनें और नये रसायन तैयार होते हैं, जो मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी हैं। तो उसी तरह जनता भी यह जानती है कि वह वैज्ञानिक जनता के लिए ही कार्य कर रहा है। उसी तरह साहित्य भी है। उदाहरणतः साहित्यशास्त्र का ग्रन्थ साधारण जनता की समझ में भले ही न आये, किन्तु वह लेखकों और आलोचकों के लिए जरूरी है - उन लेखकों और आलोचकों के लिए जो जनता के जीवनादर्शों और जीवन-मूल्यों को अपने सामने रखते हैं। यह बात ऐसे साहित्य के लिए भी सच है जिनमें मनोभावों के चित्रण में बारीकी से काम लिया गया है और अत्याधुनिक विचारधाराओं के अद्यतन रूप का अंकन किया गया है।
वास्तविक बात यह है कि शोषण के खिलाफ संघर्ष, तदनन्तर शोषण से छुटकारा, और फिर उसके बाद दैनिक जीवन के उदर-निर्वाह-सम्बन्धी व्यवसाय में कम-से-कम समय खर्च होने की स्थिति और अपनी मानसिक-सांस्कृति उन्नति के लिए समय खर्च होने की स्थिति और अपनी मानसिक-सांस्कृतिक उन्नति के लिए समय और विश्राम की सुविधा-व्यवस्था की स्थापना, जब तक नहीं होती, तब तक शत-प्रतिशत जनता साहित्य और संस्कृति का पूर्ण उपयोग नहीं कर सकती, न उससे अपना पूर्ण रंजन ही कर सकती है।
इस सम्पूर्ण मनुष्य-सत्ता का निर्माण करने का एकमात्र मार्ग राजनीति है, जिसका सहायक साहित्य है। तो यह राजनैतिक पार्टी जनता के प्रति अपना कत्र्तव्य नहीं पूरा करती, जो कि लेखक के साहित्य-निर्माण को व्यक्तिगत उत्तरदायित्व कहकर टाल देती है।
(नया खून, फरवरी, 1953 में प्रकाशित। नये साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र में संकलित)

गजानन माधव मुक्तिबोध
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२६ जनवरी को कामरेड सुभाष मुख़र्जी की शहादत की ६०वी वर्षगांठ

अमर शहीद कामरेड सुभाष मुखर्जी

इलाहाबाद के तरूण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता साथी सुभाष मुखर्जी लगभग 25 वर्ष की आयु में 26 जनवरी 1950 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ग्राम कुड़वा-मानिकपुर में खेत मजदूरों और किसानों के एक सम्मेलन में पुलिस की गोली के शिकार होकर शहीद हुए। उनके साथ शहीद होने वालों में महिला कम्युनिस्ट कार्यकर्ता सुबंशा भी थीं।
पार्टी में साथी सुभाष का जीवन बड़ा अल्पकालीन था परन्तु उस अल्प समय में भी जिस लगन से उन्होंने काम किया और कुर्बानी करने की जो क्षमता दिखलाई वह हम सबके लिए अनुकरणीय है। उस अल्प समय में ही जिस बहुमुखी प्रतिभा का उन्होंने परिचय दिया वह हम सबके लिए स्पर्धा का विषय है और यह विश्वास दिलाता है कि किसी भी क्रांतिकारी तरूण की प्रतिभा के विकसित होने और प्रस्फुटित होने का स्थान कम्युनिस्ट पार्टी ही है।
1942 के अगस्त आंदोलन के बाद विद्यार्थियों और तरूण कार्यकर्ताओं के जो ग्रुप इलाहाबाद की कम्युनिस्ट पार्टी में आये उनमें साथी सुभाष मुखर्जी का ग्रुप काफी बड़ा और महत्वूपर्ण था। पार्टी कार्यालय से लगे मुहल्ले मोहतशिमगंज में उनका घर था। उनके पिता केन्द्रीय सरकार में उच्च अधिकारी थे। प्रकाश चन्द्र मुखर्जी के वह अकेले पुत्र थे। उन दिनों सरकारी कर्मचारियों में परिवार वालों का कम्युनिस्ट पार्टी में आना हर एक की नजर में चढ़ जाता था। विशेष तौर से यदि वह परिवार उच्च मध्यवर्गीय हो। साथी सुभाष का घरेलू नाम रूसिया था। उनकी बहन (जो स्वयं कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थी) का नाम चाइना था। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि साथी सुभाष के परिवार वाले किस निष्ठा से रूस और चीन की ओर इस शताब्दी के तीसरे दशक में देखते थे। उनके पिता तो दिल्ली में सरकारी नौकरी करते थे परन्तु इलाहाबाद में उनका घर था जिसमें साथी सुभाष अपनी बहन चाइना के साथ रहते, प्रायः पार्टी कम्यून या दूसरे पार्टी दफ्तर जैसा इस्तेमाल होता था।
भाई-बहन दोनों की दिलचस्पी नृत्य, संगीत और नाटकों में होने के कारण वह भारतीय जन नाट्य संघ इलाहाबाद शाखा के अभिन्न अंग बन गये। मुहल्लों और गांवों में नाट्य कार्यक्रम प्रस्तुत करना और जनसभाओं में गीत गाना साथी सुभाष की टुकड़ी का प्रस्तुत काम था। उनके कितने ही सहयोगी आज केन्द्रीय सरकार के संगीत नाटक विभाग और राष्ट्रीय नाट्य स्कूल, संगीत नाटक अकादमी आदि में उच्च पदों पर सुशोभित हैं।
परन्तु साथी को केवल इतने ही में संतोष न था। वह एकाउंटेंट जनरल आफिस में लिपिक थे। वहां उन्होंने अपने दफ्तर के कर्मचारियों की टेªड यूनियन संगठित की। शीघ्र ही वह शहर की अन्य टेªड यूनियनों के संपर्क में आ गये। उन्हीं दिनों 17 जून 1946 की रेलवे हड़ताल की तैयारियां हो रही थी। वारिस अली, हीरालाल, सीताराम सिंह, आर.के. चैबे आदि के साथ ही साथी सुभाष रेलवे मजदूरों को संगठित करने के लिए उनकी बस्ती में घूमने लगे। नाट्य संघ के प्रमुख कलाकार और गीतकार होने के कारण और मुख्य टेªड यूनियन कार्यकर्ताओं के घर जैसे व्यक्ति हो जाने के कारण साथी सुभाष बलईपुर, चैफटका, पुलिस लाइन, कमोरी महादेव, मलाका आदि रेलवे बस्तियों में घर-घर और बच्चे-बच्चे में जाने-मानें पार्टी कामरेड हो गये। मई दिवस पर बलईपुर में लाल झंडे को सलामी देने की शुरूआत उन्होंने ही करवाई। रेलवे बस्ती में उनकी इसी लोकप्रियता के कारण 1948-49 में जब पार्टी प्रायः गैरकानूनी हालत में थी, पार्टी प्रचार घड़ल्ले से होता था। गैर-कानूनी परचों का बटवाना, रातोंरात पूरी बस्ती में पोस्टर लगवा देना उनके लिए मामूली बात थी। 9 मार्च 1949 की रेलवे हड़ताल के नारे को सफल बनाने के लिए उन्होंने दिन में दस बजे रेलवे बस्ती और जंक्शन स्टेशन पर परचे बंटवाये थे।
पार्टी का काम करते समय साथी सुभाष एक सैनिक की भांति अनुशासन में काम करते थे और पार्टी नीति में पूर्ण विश्वास व्यक्त करते थे। परन्तु पार्टी मीटिंगों में अपने दृष्टिकोण को उतनी ही मजबूती से रखते थे। कार्यक्रम को कार्यान्वित करने के लिए वह सबसे आगे रहते थे और उनके लिए कोई भी कुर्बानी करने में तनिक भी नहीं हिचकते थे।
सांप्रदायिकतावाद-विरोधी भावना,
धर्म-निरपेक्षता और पार्टी भक्ति साथी सुभाष में कूट-कूट कर भरी थी। सांप्रदायिकता के विरूद्ध लड़ने में उनमें कितना साहस था यह उनके जीवन की केवल एक घटना से ही पता चल जाता है। जब 1947 में भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना तो प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को भारत या पाकिस्तान में जा कर काम करने के लिए विकल्प चुनने का अवसर दिया गया। यह वे दिन थे जब पश्चिम पाकिस्तान के पंजाब और सिंध में हिन्दू मतावलंबी जनता के खून से होली खेली जा रही थी। कामरेड सुभाष मुखर्जी ने उस समय इलाहाबाद से कराची जा कर एजी आफिस में काम करने के लिए विकल्प दे दिया। मैंने सुभाष से ऐसा करने का कारण पूछा तो उनका उत्तर था कि जब सांप्रदायिक दंगों की भड़कती आग के कारण हिन्दू कम्युनिस्ट साथी भी पंजाब और सिंध से भारत चले आ रहे हैं तो वहां भी तो पार्टी चलाने के लिए कुछ काडर चाहिए। मैं कराची जा कर पाकिस्तान में पार्टी का काम करूंगा। कामरेड सुभाष मुखर्जी जैसी हिम्मत मुश्किल से लोगों में मिलेगी। हर तरह दबाव डालने के बाद और उनकी उपयोगिता और यही उनके बने रहने की जरूरत समझा कर ही उन्हें करांची (पाकिस्तान) जाने से रोका जा सका। उसके बाद लगभग एक वर्ष उन्हें यहां न डयूटी मिली न वेतन क्योंकि सरकार ने उन्हें करांची जाने के लिए मुक्त कर दिया था। साथी सुभाष के चेहरे पर इस आर्थिक कष्ट से कभी शिकन भी न आयी।
इस बीच साथी सुभाष का संपर्क मजदूर आंदोलन से बढ़ता ही गया। पार्टी संगठन में भी उनका दखल बढ़ गया। मार्च 1948 में स्थानीय पार्टी पर पुलिस का हमला हुआ। यह अखिल भारतीय पैमाने पर पार्टी के ऊपर सरकारी दमन नीति का ही हिस्सा था। पार्टी की अर्ध-गैरकानूनी या प्रायः गैर-कानूनी हालत में जिन साथियों ने पार्टी आंदोलन को जारी रखा उसमें साथी अग्रणी थे। भूमिगत (अंडरग्राउंड) साथियों से संपर्क रखना, उनकी पूरी व्यवस्था करना, कानूनी तौर से पार्टी और अलग-अलग मोर्चे की मीटिंगेें करवाना, पार्टी दफ्तर को नियमित और सुचारू रूप से चालू रखना और इस सबके साथ अपने को गिरफ्तार होने से बचाये रखना यह सब सुभाष के बूते ही संभव था। साथी सुभाष सरकारी नौकरी इसलिए करते रहे कि अर्जित वेतन को पार्टी की जरूरतों पर खर्च कर सकें।
अति वामपंथी और उग्रवादी नीति के कारण उन दिनों मध्यवर्गीय परिवारों से आने वाले साथियों को बहुधा कमजोर समझा जाता था और आये दिन उनके निम्नमध्यवर्गीय वर्ग चरित्र की निन्दा होती थी। इस हमले के कारण उन दिनों न मालूम कितने पार्टी साथी डगमगा गये। उस बचकानी नीति से मुक्ति पाने के बाद जब लेखा-जोखा किया गया तो पता लगा कि अखिल भारतीय पैमाने पर एक लाख सदस्यता की पार्टी केवल 25000 ही रह गयी। केवल दो वर्ष में 75000 पार्टी सदस्य तो निष्क्रिय हो गये थे या पार्टी से निकाल दिये गये थे। परन्तु साथी सुभाष उन सब हमलों को झेलते रहे और मृत्यु पर्यन्त पार्टी की अगली कतारों में खड़े रहे।
उन दिनों उत्तर प्रदेश में बलिया की पार्टी यूनिट बहुत मजबूत थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश पार्टी का गढ़ था। पार्टी नेतृत्व ने प्रायः गैरकानूनी हालत में भी खेत मजदूरों का प्रांतीय सम्मेलन कुड़वा-मानिकपुर में करने का निर्णय किया। पुलिस की हर प्रकार की चैकसी और उसके घेरे को तोड़कर कुड़वा- मानिकपुर तक पहुंचना असंभव था। इलाहाबाद में किसानों और खेत मजदूरों में पार्टी का संपर्क नहीं के बराबर था। परन्तु कुछ साथियों ने सम्मेलन में जाने का निश्चय किया। कुड़वा-मानिकपुर गांव तक पहुंचने की योजना साथी सुभाष मुखर्जी ने बनाई। कुछ दूर रेलगाड़ी से, फिर साइकिल से और अंत में पैदल चल कर साथी सुभाष मुखर्जी और इलाहाबाद के अन्य साथी कुड़वा मानिकपुर पहुंचे। कमोवेश इसी प्रकार दूसरे जिलों में भी साथी पहुंचे थे। भूमिगत नेताओं के साथ सभा हुई। खेत मजूदरों के आंदोलन चलाने और संगठित करने की योजना थी। यह भी तय हुआ कि आमसभा में फैसलों का ऐलान किया जाये।
26 जनवरी का दिन था। दिल्ली में भारत के गणराज्य होने की घोषणा की जा रही थी और भारतीय संविधान लागू किया जा रहा था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद घोषणा कर रहे थे कि भारत में शासन व्यवस्था का आधार होगा सामाजिक, आर्थिक ओर राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता। इसी दिन उत्तर प्रदेश के कुड़वा-मानिकपुर ग्राम में खेत मजदूरों के सम्मेलन में साथी सुभार्ष मुखर्जी ऐलान करना चाहते थे कि सम्मेलन का निर्णय है कि खेत मजदूर हरिजन, पिछड़े वर्ग के लोग अपने को सामंती दासता से मुक्त करने के लिए जमींदारों के जुल्म से छुटकारा पाने के लिए देश को खुशहान बनाने के लिए संगठित होकर आंदोलन करें। दिल्ली में हुई घोषणा और साथी सुभाष द्वारा की जाने वाली घोषणा में कोई अंतर्विरोध न था। दोनों एक-दूसरे की पूरक थी। परन्तु एक शासक वर्ग की ओर से की गयी थी, दूसरी शोषित वर्ग की आवाज थी। शासक वर्ग को मंजूर न था कि शोषित वर्ग अपने का संगठित कर अपने वर्ग संगठनों द्वारा अपनी मुक्ति की कामना करे, उसकी घोषणा करे। शासन तंत्र ने हमला किया, पुलिस ने गोली चलाई और तरुण कम्युनिस्ट नेता साथी सुभाष मुखर्जी ने बलिया के कुड़वा मानिकपुर ग्राम के खेतों को अपने खून से सींचा।
जमीन पर सामंती शिकंजा खत्म हो, भूमिहीन किसानों को, हरिजन को, पिछड़े वर्ग के लोगों को जमीन मिले, ऐसे नारों को और आदशों को कार्यान्वित करने के लिए साथी सुभाष मुखर्जी 26 जनवरी 1950 को शहीद हुए। 26 जनवरी 1950 को जहां गणतंत्र राज्य की
आधरशिला रखी गयी वहीं खेत मजदूरों की मुक्ति के लिए साथी सुभाष का खून देकर आंदोलन की बुनियाद डाली गयी।
आज ये नारे देशें के बीस-सूत्रीय राष्ट्रीय कार्यक्रम का अंग हैं। इसी बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम को राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देने के लिए साथी सुभाष शहीद हुए। उनकी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी अनवरत इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है और जिस कम्युनिस्ट पार्टी को बनाने और चलाने के लिए साथी सुभाष ने 1947 में पाकिस्तान जाने का निश्चय कर लिया था और जिसके लिए 20 जनवरी, 1950 को उन्होंने हंसते-हंसते मृत्यु को अंगीकार किया, आज देश की मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक पार्टियांें में प्रमुख है।
पार्टी को बनाने में साथी सुभाष पांच वर्ष से कम ही समय दे पाये थे। पुलिस की गोली से शहीद होकर वह हमारे बीच नहीं रहे परन्तु इस अल्पकाल में ही उन्होंने अपने को पार्टी के किसी विशेष मोर्चे तक सीमित न रखकर जिस प्रकार मध्यमवर्गीय और सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर किसानों मजदूरों और खेत मजदूरों तक अपना कार्य क्षेत्र बढ़ा लिया था उसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि उन्हें पुलिस ने मार डाला नहीं होता तो आज वह पार्टी नेतृत्व में अग्रणी और इलाहाबाद के जन आंदोलन और संगठनों में श्रेष्ठ नेता होते।
कम्युनिस्ट पार्टी ही ऐसी पार्टी है जो साथी सुभाष जैसे तरुण, कर्मठ और यशस्वी नेताओं की कुर्बानी देकर सदैव आगे बढ़ती जाती है और इसका प्रत्येक कार्यकर्ता साथी सुभाष मुखर्जी बनने के लिए प्रयत्नशील रहता है।

कामेश्वर अग्रवाल
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मंत्रियों-विधायकों की वेतन वृद्धि से जनता हलकान


सुप्रसिद्ध शायर साहिर लुधियानवी की एक प्रसिद्ध ग़ज़ल की पंक्तियां इस प्रकार हैं -
एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल
हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक।
लेकिन साहिर लुधियानवी की ये पंक्तियां उस शाहजहां के बारे में थी जो एक सामंती सम्राट था, जनता द्वारा चुना गया नेता नहीं। लेकिन सुश्री मायावती की सरकार तो एक जनता द्वारा निर्वाचित सरकार है। माननीय विधायकों, मंत्रियों आदि चुने गये जन प्रतिनिधियों के वेतन, भत्तों और अन्य सुविधाओं में सरकार द्वारा की गई विशाल वृद्धि ने सामंती शासक शाहजहां को भी पीछे छोड़ दिया है।
और यह उस समय किया गया है जब प्रदेश में हर पांच में से दो आदमी गरीबी की सीमा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, सार्वत्रिक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अभाव में प्रदेश की जनता महंगाई की मार से त्राहि-त्राहि कर उठी है, प्रदेश के नौजवान रोजगार के लिये दर-दर ठोकरें खा रहे हैं, घाटे वाली खेती करते-करते किसान आत्महत्यायें करने को मजबूर हैं, गरीबों के बच्चों को शिक्षा नहीं मिल रही, स्वास्थ्य सेवायें ठप पड़ी हैं, खेतिहर मजदूरों और फुटकर मजदूरों को गुजारे लायक वेतन नहीं मिल रहा, सड़के खस्ताहाल हैं तथा नई सिंचाई योजनायें बनाई नहीं जा रही। कुल मिलाकर विकास दर काफी पीछे है।
जो प्रदेश दो लाख करोड़ रुपये के कर्ज में डूबा हो उस प्रदेश में परजीवी ;च्ंतंेपजमेद्ध इन माननीयों के वेतन भत्तों में एक मुश्त 66 प्रतिशत की वृद्धि कर देना प्रदेश की जनता के साथ क्रूर मजाक नहीं तो और क्या है? इस वृद्धि से प्रदेश की गरीब जनता के ऊपर एक करोड़ बीस लाख रुपये प्रतिमाह का बोझ बढ़ गया।
ये माननीयगण जो अपने सत्कर्मों से पहले ही काफी मालामाल हैं और नोट से वोट खरीदने की ताकत का इस्तेमाल करते रहते हैं उनकी संपत्तियों की जांच कराके दंडित करने के बजाये सुश्री मायावती की सरकार ने उन्हें और भी मालामाल करने का रास्ता खोल दिया है। विधानसभा के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, विधान परिषद के सभापति, उपसभापति एवं मंत्रियों एवं विधायकों के वेतन भत्तों में करीब 20 हजार रुपये प्रतिमाह की वृद्धि कर दी गई है। अन्य कई को भी रेबड़ियां बांटी गई हैं।
मजे की बात है कि इस वृद्धि का विरोध सदन के पटल पर किसी दल ने नहीं किया। विपक्षी दलों के नेताओं ने बाहर आकर इसके विरूद्ध बढ़-चढ़ कर बयान दिये। किसी ने घोषणा नहीं की हम प्रदेश की जनता के गाढ़े पसीने की कमाई के बल पर की गई इस बढ़ी रकम को स्वीकार नहीं करेंगे। (वर्तमान में प्रदेश विधानसभा और परिषद में वामपंथी दलों का प्रतिनिधि नहीं है।) जाहिर है हमाम में सब नंगे हैं। क्या सत्ता पक्ष क्या विपक्ष।
सभी जानते हैं कि सुश्री मायावती किसी काम को बिना सोचे समझे नहीं करतीं। ऐसे में यह कयास लगाना कोई गलत न होगा कि अपने मंत्रियों, अपने विधायकों (विधानसभा एवं विधान परिषद सदस्यों) को वे 2012 के विधान सभा चुनावों के लिये आर्थिक तौर पर मजबूत कर रही हैं। वहीं विपक्षी विधायकों को बख्शीश देकर उन्होंने उनको भी जनता के बीच कठघरे में खड़ा कर दिया हैं।
राजनीति का पेंच जो भी हो प्रदेश की जनता इस वृद्धि से कराह उठी है और उसकी यह ख्वाहिश रहती है कि उसके प्रतिनिधि उसके लिये काम करें अपने लिये नहीं। अब बहरे-गूंगे लोकतंत्र की भूल भुलैया में जनता की आवाज तो गुम होकर रह गई है। इसे संगठित करने की जरूरत है।
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दुनिया आधी शताब्दी के बाद

दो दिन पहले क्रांति की विजय की 51वीं जयंती पर पहली जनवरी 1959 की बातें उमड़घुमड़कर फिर से याद आयी। हममें से किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि आधी शताब्दी के बाद एक ऐसे समय के बाद जो बहुत तेजी के साथ गुजर गया - हम उस तरह इसकी याद करेंगे मानो यह कल की ही घटना हो।
28 दिसंबर 1958 को शत्रु सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ जिसकी संभ्रांत इकाईयों को भय सता रहा था कि कर निकल जाने की कोई संभावना नहीं रह गयी है - के साथ ओरियंट चीनी में एक मीटिंग के दौरान उसने अपनी हार मान ली और हमसे अपील की हम उदारता का परिचय देते हुए उसकी बाकी सेनाओं को निकल जाने का कोई सम्मानजनक तरीका निकालने की कोशिश करें। उसे पता था कि हम शत्रु के कैदियों और जख्मी लोगों के साथ बिना किसी अपवाद किस तरह मानवीय बर्ताव करते थे। मैंने जो सुझाव दिया उसे उसने स्वीकार कर लिया यद्यपि उसे चेतावनी दी कि जो सैन्य आपरेशन चल रहा है वह बेरोकटोक जारी रहेगा। तथापि, वह राजधानी गया और अमरीकी दूतावास के उकसावे पर उसने एक सत्ता पलट की कोशिश की।
हम पहली जनवरी के उस दिन लड़ाई के लिए तैयारी कर रहे थे कि सुबह-सवेरे पता चला कि आततयी बच निकला है। विद्रोही सेना को तुरन्त ही आदेश दिये गये कि युद्ध विराम को स्वीकार न करें। और सभी मोर्चों पर लड़ाई जारी रखें। साथ ही, विद्रोही रेडियो (रेडियो रेबल) के जरिये मजदूरों का एक क्रांतिकारी आम हड़ताल पर जाने का आह्वान किया गया, जिसका तत्काल ही पूरे देश ने समर्थन किया। सत्ता पलट को नाकाम कर दिया गया और उसी दिन दोपहर बाद हमारा विजय सैन्य दल सेंटियागो डी क्यूबा में दाखिल हो गया।
इस बीच, चे और केमिलो को अपने बहादुर एवं अनुभवी सैन्य बलों को वाहनों के जरिये लाकाबाना और कोलम्बिया के मिलटरी कैम्प की तरफ तेजी से बढ़ने के लिए कहा गया। शत्रु की सेना हर मोर्चे पर पिट चुकी थी और उसमें प्रतिरोध की क्षमता नहीं रही। तब तक जनता विद्रोह कर चुकी थी और दमन केन्द्रों और पुलिस स्टेशनों पर कब्जा कर चुकी थी। दो जनवरी की शाम की, घटी हुई संख्या में अनुरक्षकों को साथ लेकर मैं बयामो स्टेडियम में टैंक, तोपखाने और यंत्रीकृत पैदल सेना के दो हजार के लगभग सैनिकों से मिला जिनसे हम पिछले दिन तक लड़ाई लड़ रहे थे। वे अभी भी अपने हथियार लिये हुए थे। अनियमित युद्ध लड़ने के हमारे निर्भीक पर मानवीय तौरतरीकों के कारण हमारी शत्रु सेना भी हमारा सम्मान करती थी। तो इस तरह, 25 महीनों तक एक ऐसे युद्ध को लड़ने के बाद जिसे हमने चंद राइफलों के साथ शुरू किया था, केवल चार ही दिन में लगभग एक लाख की संख्या में हवा, समुद्र और जमीन से मार करने वाले हथियार और सरकार की पूरी शक्ति क्रांति के हाथों में आ गयी। मैं 51 वर्ष पहले उन दिनों में जो कुछ हुआ चंद लाइनों में उसका वर्णन कर रहा हूं।
तब क्यूबा की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए मुख्य लड़ाई शुरू हुई और हमारा सामना विश्व के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य के साथ था; एक ऐसी लड़ाई जिसे हमारी जनता ने अत्यंत गरिमा के साथ चलाया है। मैं यह देखकर खुश हूं कि जिन लोगों ने अविश्सनीय रूकावटों, त्याग और खतरों के बावजूद अपनी मातृभूमि की रक्षा की, इन दिनों वे अपने बच्चों, अनेक माता-पिताओं और अपने प्रियजनों के साथ हर नये वर्ष के गौरव का बड़ी खुशी के साथ अन्य आनंद ले रहे हैं।
तथापि, आज के ये दिन किसी भी तरह अतीत के उन दिनों जैसे नहीं है। हम एक ऐसे नये युग में रह रहे हैं जो इतिहास के अन्य किसी युग जैसा नहीं है। अतीत में लोग एक ऐसी बेहतर दुनिया जिसमें अपेक्षाकृत अधिक न्याय मिले, के लिए संघर्ष करते थे और आज भी सम्मान के साथ इस मकसद के लिए संघर्ष करते हैं, पर आज भी उनको संघर्ष करना चाहिए क्योंकि मानव प्रजाति के अस्तित्व के लिए कोई अन्य विकल्प ही नहीं है। यदि हम इसे अनदेखा करते हैं तो हम कुछ नहीं जानते। क्यूबा निस्संदेह उच्चतम राजनीतिक शिक्षा वाले देशों में से है। उसने अत्यंत शर्मनाक निरक्षरता से शुरूआत की थी और उससे भी बदतर बात यह थी कि जमीन, चीनी मिलों, उपभोक्ता मालों का उत्पादन करने वाली फैक्टरियां, स्टोर सुविधाएं, दुकानें, बार, होटल, टेलीफोन तंत्र, बैंक, खान-खदान, प्रिटिंग प्रेस, पत्रिकाएं, समाचार पत्र, दफ्तर, रेडियो, उभरता हुआ टेलीविजन और हर वह चीज जिसका कोई महत्व होता है, हमारे अमरीकी आकाओं और विदेशी मालिकों से जुड़े पूंजीपतियों के कब्जे में थी।
मुक्ति के लिए हमारे युद्ध की लपटें जब थम गयी चांकी (अमरीका) ने अपने ऊपर उस जनता के लिए सोचने की जिम्मेदारी ले ली जिसने अपनी स्वतंत्रता, अपनी सम्पत्ति और अपनी नियति को हासिल करने के लिए इतनी कठिन लड़ाई लड़ी थी। उस समय हमारा कुछ भी न था। हममें से कितने पढ़-लिख सकते थे? कितने लोग ग्रामर स्कूल में छठी कक्षा तक की पढ़ाई पूरी कर सकते थे? मैं अन्य बातों का जिक्र नहीं करता क्योंकि मुझे अन्य अनेक बातों को शामिल करना पड़ेगा जैसे कि सर्वोत्तम स्कूल, सर्वोत्तम अस्पताल, सर्वोत्तम डाक्टर, सर्वोत्तम वकील। हममें से कितनों की उन तक पहुंच थी? चंद अपवादों को छोड़कर कितने लोगों को मैनेजर या नेता बनने का सहज एवं दिव्य अधिकार था?
बिना किसी अपवाद के, कोई भी ऐसा करोड़पति या अमीर आदमी नहीं था जो किसी पार्टी का नेता, सीनेटर, एक प्रतिनिधि या एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी न बना हो। वह हमारे देश में प्रतिनिधिक और शुद्ध लाकतंत्र था सिवाय इसके लिए अमरीकियों ने मनमौजी तरीके से निष्ठुर एवं निर्दयी अत्याचारी निरंकुश शासकों को थोप दिया था जब उन्हें भूमिहीन किसानों और रोजगार या बेरोजगार मजदूरों से अपनी सम्पत्तियों की बेहतर तौर पर रक्षा एवं अपने हितों के लिए सर्वाधिक उपयुक्त लगता था। क्योंकि व्यवहारतः कोई उसका जिक्र तक नहीं करता। में इस बात को याद करने की कोशिश कर रहा हूं। यदि मानवता वास्तविकता के और मनुष्य द्वारा पैदा किये जलवायु परिवर्तन के परिणाम के प्रति काफी तेजी के साथ कोई स्पष्ट एवं निश्चित विवेक विकसित नहीं करती तो हमारा देश तीसरे विश्व के उन 150 देशों में से एक होगा, जिन्हें अविश्सनीय परिणाम भुगतने पडेंगे, अलबत्ता इन परिणामों को भुगतने वाले अकेले ही देश नहीं होंगे।
हमारे संचार माध्यमों ने पर्यावरण परिवर्तन के प्रभावों को समझाया है जबकि बढ़ते घने तूफानों, सूखों और अन्य प्राकृतिक आपदाओं ने भी इस मुद्दे के बारे में हमारी जनता को शिक्षित करने के लिए उतना ही काम किया है। इसी प्रकार, एक असाधारण घटना ने, कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में चलने वाली लड़ाई ने आसन्न खतरे के
संबंध में जागरूकता पैदा करने में मदद की है। यह कोई दूर का खतरा नहीं है जो 22वीं शताब्दी तक इन्तजार करेगा बल्कि यह 21वीं शताब्दी का खतरा है और यह उसके बाद वाले 50 वर्षों के दौरान आने वाला खतरा नहीं है बल्कि अभी अगले दशकों में आने वाला खतरा है जब हम इसके भयंकर परिणामों की मुसीबतें झेलना शुरू करेंगे।
यह उस साम्राज्य के विरूद्ध एक साधारण कार्रवाई नहीं है जो जैसा कि वह हर अन्य बातों में करता है, अपने मूर्खता एवं स्वार्थपूर्ण हितों को थोपने की कोशिश करता है, इसके बजाय यह विश्व जनमत संघर्ष है जिसे स्वतः प्रवृत्ति (यानी जिस तरह भी अपने आप चले वैसे चलते रहने) के या संचार माध्यमों की सनकों एवं झक्कीपन के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। यह एक ऐसी स्थिति है जिसे सौभाग्य से विश्व के लाखों ईमानदार और बहादुर लोग समझते हैं, यह एक ऐसी लड़ाई है जिसे जनगण को साथ लेकर सामाजिक संगठनों और वैज्ञानिक, सांस्कृतिक एवं लोकोपकारी मानवतावादी संगठनों और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और खासतौर पर उस संयुक्त राष्ट्र संगठन में लड़ा जाना है जहां अमरीकी सरकार, उसके नाटों सहयोगी और सबसे अमीर देशों ने डेनमार्क में बाकी उभरते हुए देशों और तीसरी दुनिया के गरीब देशों के विरूद्ध एक छलपूर्ण एवं अलोकतांत्रिक प्रहार करने की कोशिश की।
कोपेनहेगन में उभरती अर्थव्यवस्थाओं और तीसरी दुनिया के देशों के साथ-साथ क्यूबा के
प्रतिनिधिमंडल ने हिस्सा लिया। वहां अमरीका के राष्ट्रपति बाराक ओबामा और इस पृथ्वी के सबसे अमीर देशों के समूह ने जो भाषण दिये उनसे पता चलता था कि वे क्योटो-जहां 12 वर्ष पहले इस जटिल मुद्दे पर विचार-विमर्श किया गया था- में हुए बाध्यकारी समझौते को खत्म करने पर और त्याग का बोझ उन विकासशील और अविकसित देशों पर डाालने पर तुले हुए था जो दुनिया के सबसे गरीब देश हैं और साथ ही सबसे अधिक अमीर एवं संपन्न देशों को इस पृथ्वी के कच्चे मालों और अ-नवीकरणीय संसाधनों की आपूर्ति करते हैं। उनके भाषण से जो विस्मयकारी घटनाएं घटी उनके चलते क्यूबा वहां मजबूती से संघर्ष करने के लिए बाध्य हुआ।
कोपेनहेगन में सम्मेलन 7 दिसम्बर को शुरू हुआ था, पर ओबामा अंतिम दिन वहां नजर आये। उनके आचरण की बदतरीन बात यह थी कि जब वह पहले ही अफगानिस्तान में एक ऐसे देश में जिसकी स्वतंत्रता की एक मजबूत परम्परा है जिसे अपने बेहतरीन एवं सर्वाधिक नृशंस समय में ही अंग्रेज लोग भी नहीं झुका सकते थे, तबाही और हत्याकांडों के लिए 30 हजार और सैनिक भेजने का फैसला कर चुके थे- वह किसी छोटी-छोटी बात के लिए नहीं बल्कि शंाति का नोबेल पुरस्कार लेने कोे ओस्लो पहुंचे। 10 दिसंबर को वह नारवे की राजधानी ओस्लो पहुंचे जहां उन्होंने अपनी कारगुजरी को सही ठहराने के लिए थोथा और लफ्फाजी भरा भाषण दिया। 18 दिसम्बर, शिखर सम्मेलन के अंतिम दिन वह कोपेनहेगन में प्रकट हुए जहां शुरू से उनका कार्यक्रम केवल 8 घटे ठहरने का था। उनके विदेश मंत्री और उनके सबसे अच्छे रणनीतिकार एक दिन पहले आ चुके थे।
ओबामा ने जो पहला काम किया वह यह कि जो शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए उनका साथ दें, पूछ हिलाते और चापलूसाना अंदाज में डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने जो शिखर सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे- मुश्किल से 15 व्यक्तियों को बोलने की इजाजत दी। शाही नेता खास सम्मान के हकदार थे। उनका भाषण चासनी लिए शब्दों और नाटकीय मुद्राओं का मेलजोल था जो उन लोगों के लिए उकता देने वाला था जो मेरी तरह उनके अनुभावों और राजनीतिक इरादों का यथार्थपरक मूल्यांकन करने की कोशिश करते हुए उन्हें सुनना चाहते थे। ओबामा ने अपने आज्ञापरायण मेजबान पर यह बात थोप दी थी कि बोलने के लिए उन्होंने जिन्हें चुना है वही वहां बोल सकते हैं, यद्यपि जैसे ही उन्होंने अपना स्वयं का भाषण समाप्त किया, ओबामा पिछले दरवाजे से वहां से अन्तर्धान हो गये मानो परीकथाओं का कोई जादुई बूढ़ा अपने उन श्रोताओं को छोड़कर भाग गया हो जो उसे बड़े ध्यान से सुनने को बैठे थे।
अधिकृत वक्ताओं की सूची में शामिल लोग जब बोल चुके तो एक व्यक्ति ने हर लिहाज से एक अयमारा (बोलीविया में तितिकाचा झील के पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले इंडियन) मूल निवासी हैं, इवा मोरालेस, बोलीविया के राष्ट्रपति ने मंच पर आकर बोलने के अपने अधिकार का दावा किया और वहां उपस्थित लोगों की जबर्दस्त करतल के मद्देनजर उन्हें यह अवसर दिया गया। मात्र नौ मिनट में उन्होंने वहां से पहले ही गैरहाजिर हो चुके अमरीकी राष्ट्रपति के शब्दों के जवाब में गंभीर एवं सम्मानजनक विचार प्रस्तुत किये। मोरालेस हाल ही में 65 प्रतिशत मत पाकर राष्ट्रपति चुने गये हैं। उनके तुरन्त बाद ह्यूगो शावेज वेनेजुएला के बोलिवेरियन गणतंत्र की तरफ से बोलने की मांग करते हुए खड़े हो गये। सत्र के
अध्यक्ष के सामने उन्हें भी बुलवाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। उनके बाद उन्होंने एक अत्यंत शानदार भाषण दिया। मैंने उनके जितने भाषण सुने हैं यह उनका सबसे शानदार भाषण था। उसके बाद सत्र के सभापति की घंटी बज गयी और यह असाधारण सत्र समाप्त हो गया। पर अत्यंत व्यस्त ओबामा और उनका दल-बल एक भी मिनट खोने को तैयार न था। उनके ग्रुप ने मसविदा प्रस्ताव तैयार कर लिया था जिसमें अस्पष्ट टिप्पणियां भरी थी और जिसमें क्योटो संधि से पीछे हटने की बातें थी। हड़बड़ी में पूर्णाधिवेशन के सभा भवन से निकलने के बाद प्राइवेट तरीके से और छोटे समूहों में समझौता वार्ता करने के लिए ओबामा मेहमानों के अन्य समूहों से जो 30 से अधिक लोग नहीं थे- मिले। उन्होंने कोई ठोस बात पेश किये बगैर जिद की और धमकी दी कि यदि उनकी बातें नहीं मानी गयी तो वह मीटिंग छोड़ कर चले जायेंगे। बदतरीन बात यह है कि अंतिसम्पन्न देशों की मीटिंग थी जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण उभरते देशों को दो या तीन गरीब देशों के साथ बुलाया गया था। “इसे मानो या जाओ“ के प्रस्ताव के साथ दस्तावेज को उनके सामने रखा गया।
बाद में डेनिश प्रधानमंत्री ने भ्रमपूर्ण अस्पष्ट एवं अंतर्विरोधी घोषणा पेश करने का प्रयास किया जिसके विचार-विमर्श में संयुक्त राष्ट्र ने कहीं भी शिखर समझौते के में हिस्सा नहीं लिया। सम्मेलन समाप्त हो गया और प्रायः सभी राज्याध्यक्ष या शासनाध्यक्ष एवं विदेश मंत्री अपने अपने देश के लिए रवाना हो गये। जब सुबह तीन बजे डेनिश प्रधानमंत्री ने इसे
पूर्णाधिवेशन में पेश किया जहां सैकड़ों मुसीबतजदा अधिकारियों ने जो तीन दिनों से सोये नहीं थे, जटिल दस्तावेज को हस्तगत किया और जिनके पास उस पर विचार करने तथा उसके अनुमोदन पर निर्णय के लिए केवल एक घंटा का समय रह गया।
तब मीटिंग काफी अस्थिर हो गयी। प्रतिनिधियों को इसे पढ़ने का समय ही नहीं मिला। उनमें से अनेक ने अपनी बात रखने की मांग की। प्रथम थे तुवालू के प्रतिनिधि जिनका द्वीप पानी की तहत चला जायगा यदि दस्तावेत में शामिल प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाये। बोलीविया, वेनेजुएला, क्यूबा तथा निकारागुआ के
प्रतिनिधियों ने उसका अनुसरण किया। 19 दिसम्बर की सुबह 3ः30 बजे जो द्वंद्वात्मक टकराव हुआ, उसे इतिहास द्वारा दर्ज किया जाना चाहिएए, यदि जलवायु परिवर्तन के बाद लंबे समय तक इसे बना रहना है।
जो कुछ वहां हुआ, उसके बारे में क्यूबा में जानकारी मिल जायगा या इंटरर्नेट पर वह उपलब्ध हो जायेगा, मैं क्यूबा के विदेश मंत्री ब्रुनो रोड्रिगेज द्वारा दिये गये दो जवाबों को पेश करना चाहूंगा क्योंकि वे कोपेनहेगन सोप ओपेरा के अंतिम प्रकरण के बारे में जानने के लिए श्रेयस्कर हैं और अंतिम अध्याय के तत्वों के बारे में भी, जिसे अभी हमारे देश में प्रकाशित होना है।
“अध्यक्ष महोदय (डेनमार्क के
प्रधानमंत्री) आपने बार-बार जिस दस्तावेज का दावा किया जो हमें मिला ही नहीं, अब दिखायी पड़ रहा है हम सबों ने उस मसविदे को देखा जिसे चोरी-छिपकर प्रस्तावित किया गया और गुप्त मीटिंगें में उस पर विचार किया गया, कमरे के बाहर, जहां अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अपने
प्रतिनिधियों के माध्यम से पारदर्शी रूप से बातचीत कर रहे थे।“
“मैं तुवालु, वेनेजुएला, बोलीविया तथा क्यूबा के प्रतिनिधियों के साथ अपनी आवाज मिलाता हूं कि इस अप्रमाणिक मसविदे का मूलपाठ एकदम अपर्याप्त एवं अस्वीकार्य है।“
“वह दस्तावेज जो आप दुर्भाग्य से पेश कर रहे हैं, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी करने के संबंध में कोई वायदा नहीं करता है।”
“मैं पूर्व के मसविदे से अवगत हूं जिन पर फिर आपत्तिजनक एवं गोपनीय कार्यविधि के जरिये छोटे ग्रुप में बातचीत की जा रही थी और जिसने 2050 तक 50 प्रतिशत कमी करने का उल्लेख किया।”
“दस्तावेज जिसे आप पेश कर रहे हैं, उन मसविदों में शामिल उन अल्प एवं अपर्याप्त मुख्य बातों को भी छोड़ रहे हैं। यह दस्तावेज किसी भी रूप में इस भूमंडल तथा मानवजाति के लिए एक अत्यंत गंभीर न्यूनतम कदमों की भी गारंटी नहीं करता है।”
“यह शर्मनाक दस्तावेज जो आप हमारे सामने ला रहे हैं, अपार्यप्त तथा अस्पष्ट है जहां तक उत्सर्जन में कमी करने के लिए विकसित देशों की विशेष प्रतिबद्धता का संबंध है, जबकि वे अपने उत्सर्जन के ऐतिहासिक वर्तमान स्तर से उत्पन्न उल्लेख वार्मिंग के लिए जिम्मेवार हैं और यह उचित है कि वे अर्थपूर्ण कमी करने का कदम उठाये। यह दस्तावेज विकसित देशों द्वारा किसी ऐसी प्रतिबद्धता का कोई ग्लोबल नहीं करता है।”
“अध्यक्ष महादेय, आपका दस्तावेज क्योटो संधि का मृत्यु प्रमाण पत्र है जिसे हमारा प्रतिनिधिमंडल स्वीकार करने से इंकार करता है।”
“क्यूबाई प्रतिनिधिमंडल बातचीत की भावी प्रक्रिया में मुख्य अवधारणा के रूप में” सामान लेकिन विभेदीकृत (अलग- अलग) जिम्मेवारियों की प्रमुखता पर जोर देता है। आपका दस्तावेज उस संबंध में एक शब्द भी नहीं कहता है।
“क्यूबाई प्रतिनिधिमंडल कार्यविधि के गंभीर उल्लंघन का विरोध करता है जो अलोकतांत्रिक तरीके को ही उजागर करता है जिस आधार पर इस सम्मेलन को चलाया गया। खासकर बातचीत एवं बहस को स्वैच्छिक, एकांतिक तथा भेदभावपूर्ण रूप से चलाया गया।”
“अध्यक्ष महोदय, में औपचारिक रूप से आग्रह करता हूं कि इस व्क्तव्य को पार्टियां के इस शर्मनाम एवं दुखद 15वें सम्मेलन के कार्य की अंतिम रिापोर्ट में शामिल किया जाये।“
अकल्पनीय बात यह है कि लंबे मध्यावकाश के बाद और अब हर व्यक्ति ने यह समझा कि केवल
अधिकृत कार्यवाही ही शिखर सम्मेलन के समापन के लिए बाकी रह गयी है। मेजबान देश के प्रधानमंत्री ने, यांकी (अमरीका) से प्रेरित होकर, ऐसा प्रयास किया कि दस्तावेज शिखर सम्मेलन में आमसहमति से पास हो गया जबकि पूर्णाधिवेशन हाल में विदेश मंत्री भी मौजूद नहीं थे। वेनेजुएला, बोलीविया, निकारागुआ एवं क्यूबा के प्रतिनिधियों ने जो अंतिम क्षण तक चैकस एवं सतर्क बने रहे, कोपेनहेगन में अंतिम जोड़तोड़ को नाकाम कर दिया।
पर समस्या खत्म नहीं हुई। ताकतवर का प्रतिरोध नहीं हो रहा है और वे इस बात को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। 30 दिसम्बर को न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र स्थित डेनमार्क के स्थायी मिशन ने हमारे मिशन को बड़ी विनम्रता से सूचित किया कि उसने 18 दिसम्बर 2009 के कोपेनहेगन समझौते को नोट किया है और उस निर्णय की अग्रिम कापी अग्रपे्रषित कर रहा है। उसने वास्तविक रूप में कहा “डेनमार्क की सरकार कोपेनहेगन 15वें सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में सम्मेलन में शामिल पक्षों से आग्रह करती है कि वे यूएनएफसीसीसी सचिवालय को अपनी सुविधानुसार जल्द की कोपेनहेगन समझौते के साथ अपने को शामिल करने की तत्परता के बारे में लिखित रूप से सूचित करें।”
इस अनपेक्षित पत्र ने संयुक्त राष्ट्र में क्यूबा के स्थायी मिशन को जवाब देने को विवश किया कि “वह परोक्ष रूप से उस मूल पाठ का अनुमोदन करने के प्रयास को साफतौर से अस्वीकार करता है जिसका अनेक प्रतिनिधियों ने न केवल जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों की रोशनी में उसकी अपर्याप्तता के लिए उसे अस्वीकार कर दिया बल्कि इसीलिए भी क्योंकि उसने केवल राष्ट्रों के कुछ सीमित ग्रुप के हितों को ही पूरा किया।
उसी तरह क्यूबा के विज्ञान, टेक्नोलोजी और पर्यावरण मंत्रालय के प्रथम उपमंत्री डा. फर्नाडों गोजलेज बेर्मूदेज ने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन के एक्जीक्यूटिव सचिव यूवो डीर बोएर को एक पत्र दिया। जिसके कुछ पैराग्राफ मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूं:
“हमने आश्चर्य एवं चिन्ता के साथ न्ययार्क में संयुक्त राष्ट्र सदस्य देशों के स्थायी मिशन को डेनिश सरकार द्वारा जारी किया गया नोट प्राप्त किया जिससे आप निश्चित रूप से अवगत हैं जिसमें जलवायु परिपवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन में शामिल पक्षों से कहा गया कि वे एक्जीक्यूटिव सचिवालय को
सुविधानुसार जल्दी से लिखित रूप में तथाकथित कोपेनहेगन समझौते में शामिल होने को अपनी तत्परता के बारे में सूचित करें।”
“कोपेनहेगन में सहमति का स्पष्टतः अभाव था। सम्मेलन में शामिल पक्ष ने इस दस्तावेज के अस्तित्व का नोट मात्र लिया। अतः क्यूबा गणतंत्र इस आचरण को वहां किये गये निर्णय के अशिष्ट एवं निन्दनीय उल्लंघन के रूप में लेता है।” सम्मेलन की रिपोर्ट में सम्मेलन में शामिल उन पार्टियों के नाम शामिल करेगा। जिन्होंने इस समझौते के साथ शामिल होने की अपनी तत्परता व्यक्त की।
“क्यूबा गणतंत्र समझाता है कि वह व्यवहार क्रूर है और कोपेनहेगन में लिये गये निर्णय का निंदनीय उल्लंघन है जहां आम सहमति के स्पष्ट अभाव की रोशनी में ऐसे दस्तावेज के अस्तित्व के बारे में महज नोट लेता है।”
“कोपेनहेगन शिखर सम्मेलन में ऐसी कोई सहमति नहीं बनी जो डेनमार्क सरकार को इस तरह की कार्रवाई का रास्ता अपनाने के लिए अधिकृत करें और एक्जीक्यूटिव सचिवालय को कन्वेंशन में शामिल पक्षों की सूची को अंतिम रिपोर्ट में शामिल करने का अधिकार नहीं है।”
क्यूबा के विज्ञान टेक्नालोजी की एवं पर्यावरण के प्रथम उपमंत्री ने समापन करते हुए कहा कि “मैं कहना चाहता हूं कि क्यूबा गणतंत्र की सरकार एक अवैध एवं मिथ्या दस्तावेज को अप्रत्यक्ष रूप से वैध ठहराने की इस नयी कोशिश को दृढ़ता के साथ खारिज करता है और इस बात को दोहराता है कि यह आचरण सम्मेलन के कार्यों के लिए हानिकर मिसाल कायम करता है और प्रतिनिधियों को वार्ता प्रक्रिया को अगले वर्ष जिस अच्छी भावना के साथ चलाना चाहिए उस भावना को हानि पहुंचाता है।”
विश्व के अनेक लोग-खासकर सामाजिक आंदोलन और मानवीय, सांस्कृतिक एवं वैज्ञानिक संस्थानों के सर्वोत्कृष्ट जानकर लोग-जानते हैं कि अमरीका ने जिस दस्तावेज को आगे बढ़ाया है वह उन लोगों - जो मानव जाति को महाविनाश से बचाने के लिए प्रयत्नशील है - द्वारा ली गयी स्थिति से पीछे ले जाने वाला कदम है। यहां उन तथ्यों एवं आंकड़ों को दोहराने की जरूरत नहीं जो बात को अकाट्य तरीके से साबित करते हैं। यह तमाम सामग्री इंटर्नेट पर मिल सकती है; यह सामग्री इस विषय में रूचि लेने वालों की बढ़ती संख्या की पहुंच के अंदर है।
इस दस्तावेज के पालन की दुहाई में जो तर्क इस्तेमाल किया जा रहा है वह कमजोर है। और उसका तात्पर्य है एक कदम पीछे हटना। इस धूर्त विचार को काम में लाया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का सामना करने के लिए गरीब देशों को जो कीमत चुकानी पड़ेगी उसके लिए अमीर देश उन्हें तीन वर्ष के दौरान 3 करोड़ डालर की मामूली सी रकम देंगे। उसके काम 2020 तक इसमें प्रतिवर्ष 100 अरब की वृद्धि की जा सकती है। यह एक गंभीर मुद्दा है और उनकी यह बात ऐसी है मानो महाविनाश तक उनकी मदद का इंतजार करते रहे। विषेशज्ञ जानते हैं कि इस काम में जितना पैसा खर्च होगा, उसे देखते हुए ये आंकड़े हास्यास्पद एवं अस्वीकार्य हैं। इन आंकड़ों के स्रोत अस्पष्ट एवं भ्रमकारी है, अतः इसके लिए कोई भी वचनबद्धता नहीं है।
एक डालर का क्या मूल्य है? 30 अरब डालर का क्या मूल्य है? हम सब जानते हैं कि 1944 में ब्रेटनवुड्स के बाद से लेकर 1971 में निक्सन के एक्जीक्यूटिव आर्डर-वह आर्डर जिसका मकसद वियतनाम में किये गये नरसंहार पर हुए खर्च को विश्व की अर्थव्यवस्था पर डालना था- तक सोने के समय में डालर का मूल्य घट गयाहै और अब उस समय मूल्य से 32 गुना कम है। अर्थात 30 अरब का अर्थ है एक अरब से कम और 100 अरब को 32 से भाग करें तो आता है 3.1 अरब। आज के समय में इतना पैसा एक मध्यम आकार के
तेलशोधक कारखाना बनाने के लिए भी पूरा नहीं पड़ेगा। औद्योगिक देशों ने अपने सकल घरेलू उद्योग के 0.7 प्रतिशत हिस्से को विकासशील देशों को देने का वायदा किया था। यदि उन्होंने वह वायदा पूरा किया होता तो वह प्रतिवर्ष250 बिलियन डालर की मदद बैठती। पर चंद अपवदों को छोड़ उन्होंने अपने उस वायदे को कभी पूरा नहीं किया।
अमरीका की सरकार ने बैंकों को मुसीबत से बचाने के लिए 800 अरब डालर खर्च किये हैं। यदि ऐसा गंभीर सूखे न पड़े और ग्लेशियरों और ग्रीनलैंड एवं अन्टार्कटिका में जमे हुए पानी का विशाल मात्रा के पिघलने के फलस्वरूप संभावित बाढ़ें न आयें तो 2050 तक इस पृथ्वी पर जो 9 अरब होंगे उन्हें बचाने के लिए वह कितना पैसा खर्च करने को तैयार है?
हमें किसी धोखे में नहीं रहना चाहिए। कोपेनहेगन में अमरीका अपने दांवपेच से जो कुछ करना चाहता था वह था तीसरी दुनिया में फूट डालना, अर्थात 150 देशों को, सामाजिक, वैज्ञानिक एवं मानवतावादी संगठनों के साथ-साथ चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका आदि उन देशों से अलग करना जिनके साथ बोन में, मेक्सिकों में था किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ऐसा समझा करने में, जो होकर देश को फायदा पहुंचा सके और हमारी मानवजाति को नेस्तनाबूद करने वाली महाविभीषिका से मानवजाति को बचा सके।
विश्व के पास अधिकाधिक जानकारियों और सूचनाएं मिलती जा रही है पर राजनेताओं के पास सोचने-समझने का समय कम होता जा रहा है।
मालूम पड़ता है कि अमीर देश और अमरीकी कांग्रेस समेत अनेक नेता इस पर बहस कर रहे हैं कि सबसे अंत में कौन लुप्त होगा।
मैं इस लम्बे लेख के लिए क्षमा चाहता हूं मैं इसे दो हिस्सों में नहीं लिखना चाहता था। मैं चाहता हूं कि धैर्यवान पाठक इसे पढ़ने का अनुग्रह करेंगे।


फिडेल कास्ट्रो
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खेत मजदूर यूनियनों की कार्यप्रणाली में परिवर्तन जरूरी

ग्लोबलाइजेशन में जब यह देखा गया है कि एक तरफ बहुराष्ट्रीय, एकाधिकारी अपार मुनाफा कमा रहे हैं और दूसरी ओर गरीबों की तादात बहुत ज्यादा बढ़ रही है तो सारे विश्व में सार्वजनिक
(एकध्रुवीय) विकास की चर्चा हो रही है। राष्ट्र संघ ने भी इसके लिए एक कमेटी बनायी है। भारत में भी ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजनाय मेें गरीबों की मदद के लिए कुछ कार्यक्रम बने हैं लेकिन अगर इसका कार्यान्वयन सिर्फ अधिकारियों पर छोड़ दिया गया तो यह भी असफल हो जायगा। इसलिए मेरा ख्याल है कि खेत मजदूर यूनियन (किसान सभा को भी) की कार्यप्रणाली में ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि वे सार्वजनिक विकास के कार्यान्वन में हिस्सा लें। इसके लिए ख्ेात मजदूर यूनियन को गांव-गांव में औद्योगिक मजदूर यूनियनों की तरह दफ्तर खोलकर नित्य काम करना होगा। मैं ऐसे कुछ सरकारी कार्यक्रमों की चर्चा नीचे कर रहा हूं।
इसके पहले पूर्वी योरप में कम्युनिस्ट शासन को उखाड़ फेंकने वाले आन्दोलन के नेता और अब चेक राष्ट्रपति श्री वेकलन पामेल के विचार की चर्चा करता हूं जो उन्होंने अमरीकी अखबार न्यूज वीक (गत 7 सितम्बर) के संवाददाता के इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्यों पूवीं यूरोप फिर कम्युनिस्टों के प्रति उभार में आ रहा है? उन्होंने कहा कि यह स्वाभाविक है। कम्युनिस्ट शासन में हरेक नागरिक को गर्भ से लेकर कब्र तक मदद की जाती थी जो अब संभव नहीं है।
इस संदेश को आम जनता में पहुंचाने के लिए यह जरूररी है कि सार्वजनिक विकास (इनक्लूसिव) के भारतीय कार्यक्रमों में हम हिस्सा लें। जरूरत तो यह है कि वामपंथ सार्वजनिक विकास का अपना कार्यक्रम तैयार राष्ट्र के सामने पेश करे जो प्रथम चरण का हो और द्वितीय-तृतीय चरणों के संकेत हों। इसमें खर्च की, सघन की भी व्याख्या रहे। पूरे देश में शहरों-गांवों में इस पर विशेष अभियान चलाकर संघर्ष का रूप देना चाहिए।
गरीबों के लिए कार्यक्रम
1. जननी सुरक्षा योजना- इसके लिए यूनियन की महिला नेताओं को गांव के सभी गर्भवती महिलाओं की समय -समय पर सूची तैयार कर संबंधित पदाधिकारों से परामर्श कर सारा इन्तजाम करवाने, समय-समय पर डाक्टरी जांच, गर्भावस्था में पौष्टिक भोजन, बच्चों के दवा आदि का इन्तजाम करवाना।
2. अनुसूचित जाति, जनजाति बालिकाओं का कस्तूरबा गांधी योजना में इन्तजाम करवाना।
3. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के जरिये मलेरिया, कालाबाजार, अंधता फाइलेरिया आदि के रोगियों की सहायता।
4. लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए निर्धन-निर्धनतम की सही सूची और नियमित आपूर्ति।
5. इन्दिरा आवास योजना के कामों भी जांच करते रहना।
6. अपंग लोगों की सूची तैयार करना।
7. वृद्धाश्रम खुलवाना- उसमें असहाय वृद्धों की भर्ती। ग्रामस्तर पर पहले जैसे हर खेत की फसल तैयार होने पर उसका अंशं ब्राह्मणों केा दिया जाता था वैसा अब गरीब वृद्धों के परिवारों के लिए करवाना।
8. अल्पसंख्यक (मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सिक्ख) विकास योजना में सहयोग।
9. राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारन्टी योजना में बेरोजगारों को दर्ज कराना, उन्हें काम और पूरा भुगतान दिलाना।
10. कौशल विकास योजना के लिए शिक्षित नौजवानों की सूची बनाना और संभव हो तो उन्हें कम्प्यूटर टेªनिंग दिलाकर भविष्य में इलेक्ट्रानिक, डिजिटल कामों में भर्ती के लिए तैयार करना।
11. इसी तरह स्वर्ण जयंती रोजगार योजना के लिए करना।
12. सर्वशिक्षा अभियान में बालिकायों की भर्ती करवाना और मध्यान्ह भोजन की जांच।
13. आम आदमी बीमा योजना- भूमिहीन परिवारों के मुखिया की मौत, आंशिक विकलांगता में मदद दिलवाना।
14. असंगठित मजदूरों के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा करवाना।
15. ख्ेाती के बाद सबसे ज्यादा लोग पशु पालन, बकरी, भेड़, सुअर के पालन पर गुजर करते हैं मगर इसके लिए 2009-10 के बजट में 1000 करोड़ का प्रावधान था जो भी खर्च नहीं हो सका। इसी तरह सिंचाई, बाढ़ नियंत्रण में मात्र 41 करोड़ का प्रावधान था जो खर्च नहीं हो सका।
सीमान्त और लघु किसानों के खेत की उपज बढ़ाने, लाभदायक फसल लगाने, मिट्टी जांच आदि के लिए नजदीक काॅलेज या विश्वविद्यालयों से मदद लेना, समय-समय पर जनसभा में उन्हें बुलाना। कृषि पदाधिकारियों से मदद लेना। फसल तैयारी से गोदामों में बेचने के लिए जाने तक भारी बरबादी होती है जिसे बचाने के लिए सहायता देना।
मजदूर यूनियनों, किसान सभाओं का जब तक ग्रामस्तर पर बड़े पैमाने पर हस्तक्षेप नहीं होगा इन मदों के धन भ्रष्ट्राचार में लग जायेंगे या जाते हैं। और पार्टी का विकास भी बाधित रहेगा।
एक अत्यंत जरूरी काम यह है कि गांव-गांव में सूची तैयार करें कि किसकों कितना महाजनी कर्ज-सूद का क्या देय है, इसके अलावा बैंक, कोआपरेटिव आदि कर्ज। जिनकी हालत अत्यधिक खराब हो इनकी सूची जिला मेजिस्ट्रेट को देना कि बैंकों से किसान क्रेडिट कार्ड बनवाकर या बैंक कर्ज दिलवाकर महाजनी कर्ज से छुटकारा दिलायें। इस प्रश्न पर सूची तैयार होने पर कर्ज न मिलने पर जनान्दोलन खड़ा करना चाहिए।

चतुरानन मिश्रा

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कृषि में संकट: किसानों द्वारा आत्महत्या

पी. सांईनाथ ने हिंदू में प्रकाशित अपने दो लेखों में अपने सामान्य भावावेश एवं सवेदना के साथ भारत में किसानों की आत्महत्या के सिलसिले के जारी रहने के दारूण चित्र पर ध्यान आकर्षित किया है। 1997 के बाद से (जबकि किसानों की आत्महत्या के आंकड़े रखने का काम शुरू हुआ) लेकर 2004 तक लगभग दो लाख (सही-सही कहें तो 199,132) किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 2008 के एक अकेले वर्ष में ही कम से कम 16196 किसानों ने (यानी 2007 के मुकाबले केवल 436 कम संख्या में) आत्महत्याएं की। यह राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो से जारी आंकड़े हैं।

सबसे अधिक प्रभावित राज्य हैंः महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़। 66 प्रतिशत से अधिक आत्महताएं इन राज्यों में हुई। कह सकते हैं ये पांच राज्य मिलकर भारत का आत्महत्या बेल्ट यानी भारत के आत्महत्या क्षेत्र बन गये हैं

पी. सांईनाथ ने अर्थशास्त्री प्रो. के. नागराज, जिन्होंने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों के आंकड़ों का अध्ययन किया है, को उद्धृत किया है जिसमें उन्होंने कहा है कि ”आत्महत्या बेल्ट में आत्महत्याओं में कमी नहीं आयी है... यदि 2008 के उस वर्ष में जो 70,000 करोड़ रुपये कर्जो की माफी और विभिन्न कृषि पैकेजों का वर्ष था- यह हाल है तो किसी सूखे के वर्ष में तो आंकड़े बहुत भयानक हो सकते हैं। जो कृषि संकट लम्बे अरसे से चल रहा है वह पहले की तरह ही गंभीर चल रहा है।“ भारत जैसे कृषि प्रधान देश में यह एक राष्ट्रीय शर्म की बात है और गंभीर चिंता एंव अंतर्निरीक्षण का विषय है।

इस कटु एवं निराशाजनक तथ्य को नोट करना आश्यक है कि ख्ेाती करने वालों की संख्या तेजी से घट रही है पर उनकी आत्महत्याए अत्यधिक बढ़ती जा रही हैं। जनगणना के अनुसार 1991 से लेकर 2001 तक की अवधि में लगभग 80 लाख किसानों ने खेती करना छोड़ दिया।

2008 में 70,000 करोड़ रुपयों के किसानों के कर्जों की माफी निश्चय ही एक स्वागतयोग्य कदम था। हमने उसका स्वागत किया। पर साथ ही हमने कहा था कि उसकी अनेक सीमाएं हैं। हमने नोट किया था कि इस कर्जमाफी के दायरे में किसानों के केवल वही कर्ज आते थे जो उन्होंने बैंकों से लिये थे, साहूकारों से लिये गये कर्जे उसके दायरे में नहीं थे। किसानों की एक बड़ी भारी तादाद की बैंकों तक पहुंच ही नहीं है। वे साहूकारों से लिये गये कर्ज में दबे हैं। इसके अलावा जो किसान दो हेक्टेयर से कम जमीन पर और वर्षा सिंचित सूखी जमीन पर खेती करते हैं जैसे कि वे किसान जो गरीब और छोटे किसानों की श्रेणी में आ रहे हैं- वे भी कर्जमाफी के दायरे में नहीं आते थे। वह कर्जमाफी केवल एक बार राहत मिलने का कदम था, वह किसानों की चिरकालिक कर्जग्रस्तता का समाधान नहीं था।

हमने कहा था कि किसानों को बैंकों के कर्जों के अलावा साहूकारों-सूदखोरों के “धृतराष्ट्र आलिंगन“ से मुक्त करना होगा। इसके अलावा किसानों को उनके कृषि कार्यों के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज मिलना चाहिए और आसानी से उपलब्ध होना चाहिए। किसानों के लिए ब्याज दर को घटाकर 4 प्रतिश्ता किया जाना चाहिए। इसके लिए ग्रामीण इलाकों में बैंकों का जाल बिछाना होगा। पर नव-उदार मुक्त बाजार की नीति के तहत इसका बिल्कुल उलटा हो रहा है। गांवों में बैंकों को मुनाफा कम होता है, इस आधार पर और विलय करने एवं मजबूत बनाने के नाम पर बड़े और अपेक्षाकृत अधिक बड़े बनाने के लक्ष्य के चलते गांवों में बैंकों की शाखाएं कम की जा रही हैं। विशाल जनगण को बैंकिंग सुविधाएं देने के बजाय सम्पन्न लोगों को बेहतर बंैकिंग सुविधाएं देने की नीति चल रही है। बैंकों के सामाजिक दायित्व की बातें भुला दी गयी हैं। कार्पोरेटों और बड़े कारोबारियों को अरबों-खरबों रुपये की विशाल धनराशि मामूली सी ब्याज दर पर मिल जाती है। बड़े कारोबारी घराने बैंकों से पैसा लेकर वापस भुगतान भी नहीं करते। बैंकों की ये गैर-निष्पादन परिसम्पत्तियां साल-दर-साल बढ़ती जा रही हैं। और फिर चुपके से उनकी इन देनदारियों को बट्टेखाते में डाल दिया जाता है। उन्हें सरकारी खजाने से बेल-आउट पैकेज दिये जाते हैं। पर जब किसानों को सहायता देने की बात उठती है तो सरकार कह देती है कि उसके पास पैसा ही नहीं है, कह दिया जाता है कि देश इस तरह का खर्च नहीं उठा सकता। किसानों को पैसा उधार लेने की जरूरत पड़ती है तो उन्हें सूदखोरों के रहमोकरम पर छोड़ दिया जाता है जिन्हें आजकल “अधिकृत रूप से प्रभावित ऋण प्रदाता“ का नाम दे दिया गया है।

कांग्रेस और संप्रग घटकों ने जबर्दस्त प्रचार करके दावा किया था कि कर्जमाफी से किसानों को “मुक्ति“ मिल गयी है। 2008 का वर्ष चुनाव से पहले का वर्ष था और इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उस कर्जमाफी के पीछे एक बड़ा मकसद था। उससे कांग्रेस को चुनाच जीतने में मदद मिली पर उससे कृषि संकट का समाधान नहीं हुआ। कृषि पर सतही तौर पर निगाह डालने से पता चलता है कि कृषि में एक गंभीर एंव गहन संकट जारी है।

कृषि देश की 60 प्रतिशत से
अधिक आबादी को रोजी-रोटी देती है। पर जैसा कि ग्रामीण विकास मंत्रालय विभाग ने अपनी 15 नवम्बर 2008 की एक रिपोर्ट में कहा है कि “1980 के दशक के वर्षों में कृषि वृद्धि की दर 3.5 प्रतिशत थी जो 1990 के दशक वर्षों में घटकर 2.4 पर आ गयी और फिर 2004 में और भी घटकर 1.5 प्रतिशत पर आ यगी। 10वीं पंचवर्षीय योजना की अवधि में कृषि वृद्धि दर औसतन 1.8 प्रतिशत रहीं। 1970 में कृषि का सकल घरेलू उत्पाद में 46 प्रतिशत का बड़ा योगदान था, 1980 में वह 38 प्रतिशत और 2006 में वह 18 प्रतिशत रह गया। पर इस अवधि मे कृषि पर निर्भर रहने वाली आबादी 75 प्रतिशत से घटकर केवल 60 प्रतिशत पर ही आयी। इससे पता चलता है कि कृषि क्षेत्र पर आवश्यकता से अधिक लोग निर्भर हैं, कृषि में बेरोजगारी और अल्प रोजगारी है और कृषि से होने वाली प्रति व्यक्ति आमदनी बेहद कम है।“

राष्ट्रीय सेम्पल सर्वें संगठन (59वें दौर) द्वारा किये गये “किसानों की स्थिति का सर्वेक्षण 2003“ के अनुमानों के अनुसार लगभग भूमिहीन (0-.099 हेक्टयर जमीन वाले) परिवारों, सीमांत किसान (0.1-1.0 हेक्टयर जमीन वाले), परिवारों, छोटे किसान (1.0-2.0 हेक्टयर जमीन वाले) परिवारों को जमीन से रबी और खरीफ की फसलों से होने वाली वार्षिक आमदनी क्रमशः 829 रुपये, 5910 रुपये और 14020 रुपये होती हैं। उनके परिवार का आकार क्रमशः 5.0, 5.2 और 5.7 व्यक्तियारों का है तथा वे कुल किसान परिवारों का क्रमशः 5.9 प्रतिशत, 55.6 प्रतिशत और 18.1 प्रतिशत हिस्सा है। मजदूरी, पशुपालन और गैर कृषि कामकाज जैसे कुछ अन्य स्रोतों से भी वे कुछ और आमदनी कमा लेते हैं।

ग्रामीण इलाकों में 2004-05 की कीमतों पर राष्ट्रीय गरीबी रेखा 22000 रुपये प्रति परिवार प्रतिवर्ष है। इस प्रकार हम लगभग भूमिहीन, सीमांत और यहां तक कि छोटे किसानों की गरीबी के स्तर को देख सकते हैं। किसी प्राकृतिक आपदा के शिकार हो जाने पर वे घनघोर गरीबी की हालत में पड़ जाते हैं।

देश में कृषि उत्पादन, खासकर खाद्यान्न उत्पादन का रूझान काफी चिन्ताजनक है। यह कृषि संकट का एक खतरनाक संलक्षण है जिसका भारत सामना कर रहा है। आजादी के बाद 50 वर्षों के दौरान प्रति व्यक्ति वार्षिक खाद्यान्न की उपलब्धता कम हुई है और वह 199 किलो से घटकर 148 किलो हो गया। 1989-91 तक वह बढ़कर 177 किलो हो गया जिसकी वजह थी हरित क्रांति और नयी कृषि रणनीति जो अनेक खामियों के बावजूद 1950-51 के बाद व्यवहार में लागू थी। लेकिन पिछले दशक के दौरान आर्थिक सुधार की नव-उदार नीति ने इस रूझान को भारी नुकसान पहुंचाया।

हाल में वंदना शिवा और के. जलीस द्वारा लिखित प्रामाणिक पुस्तक में कहा गया है कि 1990 के दशक के मध्य से सभी फसलों के तहत कुल क्षेत्र करीब 142 मिलियन हेक्टर पर स्थिर रहा है। लेकिन 1991 और 2001 के बीच इनमें खाद्यान्न पैदा करने वाली 8 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर निर्यात करने वाली फसलें उगायी जाने लगी।

कृषि के वाणिज्यीकरण के इस रूझान, भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था के विश्व अर्थव्यवस्था में शामिल किये जाने के इस रूझान ने, जिसने भले ही किसानों के कुछ तबकों को लाभ पहुंचाया हो, खाद्य उपलब्धता तथा भारतीय जनता की खाद्य सुरक्षा पर नकारात्मक प्रभाव डाला। विश्व व्यापार संगठन तथा अमरीका के दबाव पर भारत की खाद्य अर्थव्यवस्था को भूमंडलीय वस्तु व्यापार के साथ जोड़ दिया गया।

उद्योग और तेजी से औद्योगीकरण करने वाले विश्व की जरूरतों को पूरा करने के नाम पर लाखों हेक्टेयर कृषि तथा चरागाह भूमि का इस्तेमाल जैव ईंधन-जैव डीजल एवं इथानोल पैदा करने के लिए किया जा रहा है। इतना ही नहीं। विशेष आर्थिक जोन की स्थापना के लिए, शहरी विकास के लिए तथा सभी तरह की परियोजनाओं के लिए किसानों से जीमन ली जा रही है। यह सही है कि इसके लिए जमीन की जरूरत है। पर कितना? इसका यह कदापि अर्थ नहीं है कि उर्वर कृषि भूमि का भी अधिग्रहण कर लिया जाये या सैकड़ों एवं यहां तक कि हजारों हेक्टर जमीन ले ली जाये। स्पष्ट है कि रीयल एस्टेट के लिए, न कि परियोजनाओं के लिए इतनी अधिक जमीन ली जा रही है। ब्रिटिश के समय से चले आ रहे भूमि अधिग्रहण कानून को अभी रद्द नहीं किया गया है या समय के अनुरूप उसमें मूलगामी परिवर्तन नहीं किया गया है।

अक्सरहां आर्थिक मुआवजा किसानों एवं उनके परिवारों को मकान एवं सुनिश्चित आजीविका की दीर्घकालीन व्यवस्था का आश्वासन नहीं दे सका है। न ही वह समुदाय के दूसरे तबके को ही आश्वासन दे सकता है जो परोक्ष रूप से जमीन से अपनी आजीविका प्राप्त करते हैं- जैसे खेत मजदूर, ग्रामीण दस्तकार या खुदरा व्यापारी एवं अन्य। यह अनुमान है कि करीब 2.1 करोड़ विस्थापित लोग हैं जो मुख्यतौर से आदिवासी, दलित एवं ग्रामीण गरीबों के अन्य तबके हैं जो विकास के ‘शिकार’ हो रहे हैं और उससे लाभ पाने की आशा नहीं कर सकते हैं। वे बेघरबार एवं आजीविका से वंचित छोड़ दिये जाते हैं।

इस या उस दलील पर कृषि भूमि से वंचित कर दिये जाने और सस्ते एवं आसान कर्ज की उपलब्धता की समस्याओं के अतिरिक्त किसानों को कृषि सामानों की बढ़ती कीमतों (उनमें से कुछ भूमंडलीय की प्रक्रिया से थोप दिये जाते हैं) के दंश तथा अपने उत्पादोें की लाभकारी कीमत के अभाव को भी झेलना पड़ता है।

आज भारत में गेहूं का उत्पादन (7.6 करोड़ टन) घरेलू मांग को पूरा करता है। पर फिर भी भारत-अमरीका समझौतो की शर्तों के तहत तथा डब्लूटीओ द्वारा थोपी गयी उदारीकृत व्यापार नीति (वह भी अमरीका के दबाव पर) के चलते भारत को गेहूं का आयात करने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। जबकि सरकार ने विदेशी व्यापारियों को 2007 में प्रति टन 16000 रु. दिये, वहीं गेहूं के लिए न्यूनतम कीमत केवल 8500 रु. प्रति टन ही थी। सरकार भारतीय किसानों को जितना देने के लिए तैयार थी, उसने उससे प्रायः दूनी रकम प्रतिटन के हिसाब से उन्हें दी।

चावल के उत्पादन मे गिरावट आयी है। दालों का उत्पादन भी कम हुआ है जो भारतीय जनता के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है। सरकार पहले 15 लाख टन दालों तथा दस लाख टन खाद्य तेल के आयात की घोषणा कर चुकी है। हाल में सरकार ने कच्चे तथा रिफाइंड चीनी के ड्यूटी मुक्त आयात की घोषण की है। जैसा कि हम जानते हैं, खाद्यान्न, दालों, खाद्य तेल, चीनी आदि के दाम आसमान तक पहुंच गये हैं। हम बड़ी ही प्रसन्नता से इन सभी खाद्य वस्तुओं का आयात करते जा रहे हैं।

खाद्य का आयात उस देश के हाथों में एक बड़ा राजनीतिक हथियार है जहां से उसका आयात किया जाता है और इसके अलावा यह भारतीय खजाने पर भारी बोझ डालता है तथा सौदेबाजी में उसकी कृषि अर्थव्यवस्था विकृत होती है। अमरीका ने हमेशा अपने प्रभुत्व एवं ब्लैकमेल के लिए एक राजनीतिक हथियार के रूप में खाद्य का इस्तेमाल किया है।

भारत जैसा एक बड़ा देश जिसकी आबादी 110 करोड़ है, बड़े पैमाने पर खाद्य के आयात पर निर्भर नहीं कर सकता है। बढ़ती आबादी के साथ आगामी दिनों चुनौती और अधिक गंभीर होगी। उसकी खाद्य सुरक्षा गंभीर खतरे में पड़ जायगी। कृषि में संकट का समाधान किये बिना और ऊपर उल्लिखित कुछ समस्याओं का हल निकाले बिना आम जनता के लिए सस्ती कीमतों पर समुचित पोषणयुक्त मानक को कायम रखते हुए खाद्य सुरक्षा-पर्याप्त मात्रा में उपलब्धता संभव नहीं हो सकती है। इस कवायद में भारतीय किसान मुख्य खिलाड़ी हैं। भारत को 2020 तक 10 करोड़ टन गेहूं एवं 12 करोड़ टन चावल का उत्पादन करना होगा। इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए सरकार को कृषि में, सिंचाई एवं अन्य उद्देश्यों के लिए निवेश में तेजी लानी होगी। वास्तव में इस क्षेत्र में निवेश में कमी आयी हैं। बड़े पैमाने पर प्रौद्योगिकी को समुन्नत करना होगा, अनुसंधान आदि करने होंगे।

पूंजीपतियों तथा पूंजीपतियों की सरकार ने बहुत पहले ही भूमि सुधार को अलविदा कर दिया। हदबंदी कानून को लागू नहीं किया जा रहा है। भूमि वितरण का वस्तुतः परित्याग कर दिया गयज्ञ। केवल दस लाख हेक्टेयर जमीन का बंटवारा किया गया।, 80 लाख हेक्टेयर जमीन का बंटवारा किया जाना है। वास्तव में इसके उलट प्रक्रिय चल रही है। अब अधिक से अधिक कार्पोरेट एवं ठेका फार्मिंग का सहारा लेने की योजना बनायी जा रही है। किसानों से जमीन लेकर थैलीशाहों को देना, यह है नया चिन्तन। इसके अनुरूप, बड़े उद्योगपतियों को खड़ी फसल खरीदने दें। वायदा कारोबार को हरगिज बंद नहीं किया जाना चाहिए या उस पर पाबंदी नहीं लगायी जानी चाहिए। आवश्यक वस्तु कानून में संशोधन नहीं किया जायगा और कोई भी जखीरा खाली कराने का अभियान नहीं चलाया जायगा। यदि इस बीच कीमतें आसमान छूने लगे और आम आदमी मरता रहे एंव किसानों को कोई लाभ न मिले तो भी कुछ भी नहीं किया जा सकता है?

एक सरकार जो केवल कार्पोरेटों एंव बड़े उद्योगपतियों के मुनाफों की ही देखभाल करती हो और भूस्वामियों एवं भूमिपतियों के निहित स्वार्थों को हाथ लगाने से भी डरती हो, उससे किसी अन्य तरह से समस्या को देखने की अपेक्षा की ही नहीं जा सकती।

इसलिए इस बात की बेहद जरूरत है कि स्वयं संगठित किसानों द्वारा उन प्रत्येक मसले पर जिससे उनका सरोकार है,एक जन आंदोलन एंव जुझारू संघर्ष शुरू किया जाये। उसे अवश्य ही महंगाई के खिलाफ और खाद्य सुरक्षा के लिए मजदूरों एवं आम जनता के संघर्ष के साथ-साथ विकसित किया जान चाहिए। आज इसे कम्युनिस्टों और वामपंथ का एजेंडा होना चाहिए।

ए.बी. बर्धन
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भारतीय गणतंत्र - वर्तमान और भविष्य

भारतीय गणतंत्र 60 वर्ष का हो गया है। साठ वर्ष सही में एक लंबी अवधि है - हमारी उपलब्धियों एवं विफलताओं का पक्का चिट्ठा तैयार करने के लिए पर्याप्त लंबी अवधि।
भारत एक बड़ा देश है जिसकी एक पुरानी परंपरा और राष्ट्रीय मुक्ति के लिए साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की एक गौरवपूर्ण विरासत है।
आजादी के बाद उसकी गुट- निरपेक्षता की सर्वमान्य नीति तथा अपनी स्ववतंत्रता एवं प्रगति के लिए संघर्षरत जनगण को दिये गये समर्थन ने उसे उन सभी देशों के शीर्ष पर प्रतिष्ठित कर दिया जिन्होंने उपनिवेशी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ दिया था और नव-स्वतंत्र देशों के रूप में उभर रहे थे। उसने विश्व का सम्मान एवं प्रशंसा पायी।
भारत के पास प्रचुर प्राकृतिक संसाधान एवं प्रगतिशील लोग हैं। उसके पास विशाल वैज्ञानिक तथा तकनीकी कर्मी हैं जो उद्यमों के विभिन्न क्षेत्रों में देश का गौरव बढ़ा रहे हैं। अतीत से थोपे गये सभी अवरोधों एवं दबावों को झेलते हुए उसने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में एक स्थान हासिल किया। देश ने जो प्रगति की है, उसकी गति को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत 1947 या 1950 का भारत नहीं है। विकास के गलत रास्ते तथा खोये हुए अवसरों के बावजूद यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारत जैसे एक विशाल देश तथा सभी संभावनाओं के साथ एक बड़ी अर्थव्यवस्था के साथ विश्व में उसकी एक वजनदार आवाज है। आज विश्व को प्रभावित करने वाला कोई मसला नहीं है जो दो महान देशों-भारत और चीन की भागीदारी के बिना निपटाया जा सकता है या जिसका समाधान किया जा सकता है।
इस संदर्भ को लक्षित करने के बाद हमारी जनता के विशाल बहुमत की जीवन दशा कैसी है? कैसे भारत द्वारा की गयी प्रगति उसकी जनता के जीवन में प्रतिबंबित होती है?
उसके द्वारा अपनाये गये विकास के पूंजीवादी पथ ने समाज में गहरा ध्रवीकरण ला दिया है। उसने अमीर और गरीब के बीच और विभिन्न क्षेत्रों के बीच भारी असमानताएं ला दी हैं। देश इंडिया और भारत के बीच गंभीर रूप से बंटा है। यह कठोर वास्तविकता सामने आ जाती है जब हम देखते हैं कि जब भारत विश्व के कम्प्यूटर साफ्टवेयर इंजीनियरों के एक-तिहाई को पैदा करता है। पर वहीं विश्व के एक चैथाई गरीब कुपोषित एवं अल्पपोषित तथा निरक्षर लोग भी यहीं हैं।
सोवियत संघ के पतन के बाद जिसने स्वतंत्र भारत को अपनी अर्थव्यवस्था की बुनियाद के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र का निर्माण करने तथा उसे सुदृढ़ बनाने में मदद दी थी, सरकार खुलेआम नव-उदार पूंजीवादी माॅडेल को स्वीकार कर लिया। अमरीका और उसके प्रभुत्ववाले अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक एवं विश्व व्यापार संगठन के दबाव के तहत ऐसा किया गया। इसे ‘वाशिंगटन आमराय’ समझा गया जिसे भारत ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। सभी पूंजीवादी प्रचारक मुक्तकंठ से दावा करने लगे कि ”कोई विकल्प नहीं है (टिना)। उदारीकरण, निजीकरण तथा भूमंडलीकरण और मुक्त बाजार व्यवस्था को तथाकथित “आर्थिक सुधार“ के रूप में निर्बाध आगे बढ़ाया गया। यह दावा किया गया है कि इससे तेज ‘आर्थिक सुधार’ के रूप में निर्बाध आगे बढ़ाया गया। यह दावा किया गया है कि इससे तेज आर्थिक वृद्धि हुई है जहां जीडीपी प्रति वर्ष 9 प्रतिशत की दर से बढ़ा।
इसने समाज में ध्रुवीकरण को और अधिक बढ़ाया जो अकथनीय है। समाज के उच्च तबके के लोग खूब समृद्ध हुए। उनमें से अनेक तो अरबपति एवं खरबपति तक हो गये। भारत यह गौरव प्राप्त है कि विश्व में दस सबसे धनी व्यक्तियों में चार भारत में हैं। हाल ही में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर तथा राज्यसभा सदस्य श्री विमल जालान ने कहा कि “देश के उच्च पांच खबरपतियों (अमरीकी डालर) की परिसंपत्ति का कुल मूल्य नीचे के 30 करोड़ लोगों के बराबर है।“
यह ‘भ्रष्ट’ वेतन में प्रतिबिंबित होता है जिसे अनेक कार्पोरेट एक्जीक्यूटिवों ने अपने लिए मंजूर करवा लिया है। यह अनुमान लगाया गया है कि ऐसे एक्जीक्यूटिवों की संख्या जो इस ‘भ्रष्ट’ वेतन श्रेणी में आते हैं, यानी जो प्रति वर्ष 5 करेाड़ रु. 40 करोड़ रु. के बीच पाते हैं, 3000 है। उनका कुल वेतन 20000 करोड़ रु. बैठता है।
दूसरी ओर 77 प्रतिशत लोग (यानी 84 करोड़) 20 रु. रोज से भी कम पर गुजारा करते हैं। ये मुख्यतः दलित, आदिवासी तथा दूसरे समुदायों के शहरी एवं ग्रामीण मेहनतकश लोगों के सर्वाधिक शोषित तबके से आते हैं। ये तबके विकास की किसी भी प्रक्रिया से वंचित रखे गये हैं।
कार्पोरेट कंपनियां विदेशों में विशाल प्रतिष्ठानों के अधिग्रहण तथा विलय के साथ ही बहुराष्ट्रीय हो गयी हैं।
इल गलत आर्थिक नीतियों की सबसे बदतर अभिव्यक्ति है खाद्यान्न और अन्य सभी उपभोक्ता वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें। तीन महीनों में चावल की खुदरा कीमत 51 प्रतिशत बढ़ गयी। दाल की कीमतें जो भारतीय गरीबो के लिए प्रोटीन का मुख्य स्रोत है, 70 रु. और 100 रु. प्रतिकिलों तक बढ़ गयी है। यहां तक कि भारतीय गरीबों की ‘दाल-रोटी‘, ‘दाल-भात’ का निवाला भी उनके मुंह सेे छीना जा रहा है। सब्जियां, दूध, अंडे तो बहुत पहले ही उनकी पहुंच से बाहर हो गये हैं। चीनी की कीमत 50 रु. किलों के चकरा देने वाले स्तर तक पहुंच गयी है। चीनी कभी इतनी कड़वी नहीं हुई थी। यहां तक कि नमक का दाम भी पहले से काफी अधिक बढ़ गया है। जबकि गरीब मुसीबतों में डूबे हैं, वहीं मध्यम वर्ग के लिए भी परिवार के बजट की व्यवस्था करना काफी कठिन हो रहा है।
सप्ताह-दर-सप्ताह कीमतें बढ़ रही हैं और कुछ मामलों में तो दिन-ब-दिन। कमोबेश उसी मांग और आपूर्ति के संबंध के साथ जो पहले के वर्ष में विद्यमान था (सूखे के कारण कुछ फसलों के उत्पादन में गिरावट को छोड़कर), यह साफ है कि यह अभूतपूर्व महंगाई वस्तु बाजार में सट्टेबाजी के कार्यकलाप, खासकर वायदा कारोबार का परिणाम है। यह दावा करना गलत है कि मूल्यवृद्धि से सीधे उत्पादकों को लाभ होता है। यह वायदा कारोबार के व्यापारियों तथा बिचैलियों को ही भारी मुनाफा पहुंचाता है।
सरकार को इस बात को स्वीकार करने में अनेक महीनों लग गये कि महंगाई की समस्या गंभीर है। वे अब मुख्य तौर से बड़े पैमाने पर आयात के जरिये महंगाई को रोकने के लिए कुछ कदमों की घोषणा कर रहे हैं। भारत जैसा एक विशाल देश जिसकी आबादी 110 करोड़ है, खाद्य आयात पर निर्भर नहीं कर सकता है। यह अवश्य ही याद किया जाना चाहिए कि बड़े पैमाने पर खाद्य का आयात एक देश को गुलाम बनाने तथा उसकी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिए सबसे बड़ा राजनीतिक हथियार है।
दीर्घकाालीन तथा घोर गरीबी एवं भूख के चलते माताएं गंभीर रूप से कुपोषण की शिकार हो जाती है और उनके बच्चे भी जिनका वे जन्म देती हैं। 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में 46 प्रतिशत का वजन कम होता है और वे कुपोषित होते हैं। भारत शिशु मृत्यु दर 2005 में प्रति 1000 बच्चों में 55 थी। इसकी तुलना में वह श्रीलंका में केवल 2 तथा क्यूबा में केवल 5 हैं। भारत में जीवन-क्षमता केवल 64 है जो दूसरे देशों से कम है। यह अनुमान लगाया गया है कि हमारी आबादी का कम से कम 35 प्रतिशत खाद्य के मामले में असुरक्षित है। दुनिया का 50 प्रतिशत भूखा भारत में रहता है।
यदि खाद्य, स्वच्छ पेयजल, मानव विकास का मानक है तो भारत का रिकार्ड आजादी के छह दशकों बाद भी निंदनीय है।
इसी तरह रोशनी के लिए बिजली तथा खाना पकाने के लिए एलपीजी जैसी आधुनिक ऊर्जा की सुविधा एक देश तथा उसकी जनता के विकास के चरण को दिखलाती है। इस मामले में केवल 44 प्रतिशत भारतीय घर-परिवार को बिजली की सेवा उपलब्ध है और उसकी आपूर्ति भी सर्वथा अनियमित होती हैं। विश्व भर में जिन लोगों को बिजली की
सुविधा उपलब्ध नहीं है, उनमें 35 प्रतिशत केवल भारत में रहते हैं, यानी करीब 57.6 करोड़।
ये निराशाजनक तथ्य एवं आंकड़े हैं। यह समय यम पूछने का हैः ओह मेरा देश, मेरा भारत महान! तुम आज राष्ट्रों के विश्व समुदाय में कहा खड़े हो?
भारत का स्थान मानव विकास सूचकांक में 132वां है।
प्रति व्यक्ति जीडीपी में उसका स्थान 126वां है।
जन्म पर जीवन क्षमता (बचे रहना) में उसका स्थान 127वां है।
वयस्क निरक्षरता में उसका स्थान 148वां है।
शासक हलके इन आंख खोल देने वाले आंकड़ों की उपेक्षा करते हैं। लेकिन आप उन्हें रद्दी कहकर इन्कार नहीं कर सकते हैं या उनकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं।
यह सब इस बात के बावजूद है कि भारत के पास वह हर चीज मौजूद है जो उसकी जनता के लिए एक बेहतर जीवन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है। सबों के लिए भोजन, रोजगार, शिक्षा तथा स्वास्थ्य देखभाल की सुविधा और घर की न्यूनतम सुविधा।
इसे कौन रोकता है। इसे रोकता है शोषक वर्गों का वर्गीय हित जो देश पर शासन करते हैं और उनकी वे नीतियां जिन्हें वह वे लागू करते हैं जो जनता की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के बजाय वे अधिकतम मुनाफे की व्यवस्था करते हैं।
सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी यह है कि भारत सरकार ने देश में गरीबी की वास्तविक गहराई एवं फैलाव पर ईमानदारी से विचार नहीं किया है, उस पर ध्यान नहीं दिया है। हमेशा उसे कम करके आंकने का प्रयास किया जाता है और उसे कम कर देने की आत्मतुष्ट बात की जाती है। गरीबी की परिभाषा और देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या के बारे में एक विवाद चलता रहता है।
योजना आयोग ने गरीबी की परिभाषा इस रूप में की है: प्रति व्यक्ति खर्च, जिस पर प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन ग्रामीण क्षेत्रों में 2400 कैलोरी लेता है और शहरी क्षेत्रों में 2100 कैलोरी। स्पष्ट रूप से इस परिभाषा में गरीबों के प्रति एक प्रणालीगत अन्याय है। यह मान लिया जाता है कि गरीबों के लिए अस्तित्व को बनाये रखने एवं कैलोरी इनटैक के अलावा और किसी चीज की जरूरत नहीं होती है। उसके लिए शिक्षा या स्वास्थ्य देखभाल की कोई जरूरत नहीं है।
प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के पूर्व प्रधानमंत्री सुरेश तेंदुलकर ने अनुमान लगाया है कि मोटे तौर से देश की शहरी आबादी एक-चैथाई हिस्सा 19 रु. प्रतिदिन पर गुजारा करता है जबकि ग्रामीण आबादी का 42 प्रतिशत मोटे तौर पर 15 रु. प्रतिदिन पर।
ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा गठित समिति का अपना ही अनुमान है जो ऊपर लिखित से भी अधिक है।
विश्व बैंक का अनुमान है कि भारत में 42 प्रतिशत भूमंडलीय गरीबी रेखा से नीचे रहता है। अर्जुन सेनगुप्त समिति का कहना कि 2004-05 में भारत की आबादी का 77 प्रतिशत 16 रु. प्रतिदिन के औसतन प्रति व्यक्ति खर्च पर गुजारा करता है।
करीब 28 प्रतिशत लोगों के गरीबी रेखा के नीचे रहने के मनमाने आंकड़े के आधार पर भारत सरकार अपनी गरीबी उन्मूलन स्कीम का निर्धारण करती है जिसमें इस लक्षित तबके को सहायता प्राप्त खाद्य पदार्थों की आपूर्ति भी शामिल है। यहां तक कि वह राज्य स्तर पर आंकड़े में अंतर के बारे में राज्य सरकारों से परामर्श करने से इन्कार करती है। सरकार कीमतों को क्यों नहीं नियंत्रित कर पाती है। उसका एक कारण है लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली का यह कारक जो गरबी रेखा से थोड़ा भी ऊपर है (एपीएल), उन्हें छोड़ दिया गया है, हालांकि बीपीएल श्रेणी से कम गरीब एवं नाजुक नहीं है।
गरीबों की संख्या का अनुमान लगाने में विफलता तथा दूसरा, उन लोगों की पहचान करने में विफलता जो गरीब हैं, भारत में सभी लक्षित कार्यक्रमों में ‘गलत बहिष्कारण (अलग रखना)’ की त्रुष्टियों के लिए जिम्मेवार है। भारत जैसे देश में जहां इतनी अधिक गरीबी है, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाना आजीविका की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए सर्वाधिक सही एवं कारगर तरीका है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सर्वव्यापक बनाने के लिए वामपंथ की मांग का वैज्ञानिक आधार हैं
कीमतों की बेतहाशा वृद्धि पर रोक लगातर सस्ती दर (कीमतों पर) हमारे लोगों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए हम, वामपंथ के लोग यह प्रस्ताव करते रहे हैं कि सर्वव्यापक सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ सरकार अवश्य ही वायदा कारोबार पर रोक लगाये जो कार्पोरेट घरानों, बड़े व्यापारियों, थोक विक्रेताओं को खड़ी फसल को खरीदने और फिर उत्पाद को जमा करने की सहूलियतें प्रदान करता है। वह जमाखोरी को बढ़ावा देता है तथा बड़े पूंजीपतियों को खाद्य पदार्थों की सट्टेबाजी करने, बाजार की जोड़तोड़ करने तथा कीमतें बढ़ाने के लिए सहूलियतें प्रदान करता है।
इसका यह भी अर्थ है कि सरकार अवश्य ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा करे जो लाभकारी मूल्य के बराबर हो और सीधे किसानों तथा नियमित बाजारों से उत्पाद खरीदने के लिए अपनी एजेंसी गठित करे। जब सरकार के पास स्टाक रहेगा तो वह बाजार को नियंत्रित करेगा एवं कीमतें बढ़ाने के लिए किसी भी कृत्रिम अभाव को रोकेगा।
आवश्यक वस्तु कानून को लागू किया जाये और यदि आवश्यक हो तो उसमें समुचित सुधार किया जाये ताकि जखीरा खाली किया जा सके एवं छिपाये गये स्टाकों को बाहर निकाला जा सके। लेकिन सरकार ने इन सभी प्रस्तावों को अनसुना कर दिया है।
हमने विस्तार से यह बात कही क्योंकि हमारे गणतंत्र की सबसे बड़ी विफलता अपने नागरिकों को खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में विफलता रही है। यह जन-विरोधी एवं दोषपूर्ण आर्थिक नीति, उसके वर्गीय पक्षपात तथा आम जनता की भारी मुसीबतों के प्रति उसके असंवेदनशील रूख को ही दर्शाता है।
खाद्य सुरक्षा बिल जो विचारधीन है, स्थिति की वास्तविक चुनौती को पूरा नहीं करता है। अनेक राज्यों में यह बिल यदि पास किया गया और लागू किया गया, तो जो कुछ भी खाद्य की उपलब्धता है, उसे वास्तव में बुरी तरह प्रभावित करेगा। खाद्य सुरक्षा की बजाय वह खाद्य असुरक्षा का ही सूत्रपात करेगा। भविष्य के लिए केवल वायदा भूखे पेटों को नहीं भर सकता है।
इसके अतिरिक्त वह किसान ही है जो उत्पादकता तथा खाद्य उत्पादन बढ़ाने के मुख्य लोग हैं, जो सबों को खाद्य उपलब्ध करा सकता है। वर्तमान शासन व्यवस्था में किसान तथा खेत मजदूर सरकार के एजेंडे में अंतिम पायदान पर है। यह सरकार पूंजीपतियों को बचाने के लिए सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च कर सकती है या सैकड़ों रुपये छोड़ सकती है, लेकिन वह किसानों के लिए संसाधन देने में किफायत करती है, चाहे वह कृषि में निवेश हो, किसानों को कर्ज के जाल से मुक्त करने की बात हो, उसे सस्ती दर पर कर्ज उपलब्ध कराना हो, सूखे, बाढ़ एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के समय राजस्व अन्य भुगतान में माफी की बात हो या उनके उत्पादों को लाभकारी कीमत आदि देने की बात हो।
इसके विपरित सरकार इस या उस बहाने पर उसकी जमीन लेने के लिए तत्पर रहती है और उसका पुनर्वास करने उसकी आजीविका की तनिक भी परवाह नहीं करती।
स्वास्थ्य देखभाल के मामले में देश का उद्देश्य है सार्वभौम स्वास्थ्य देखभाल। यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली तथा पर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च के जरिये ही संभव हो सकता है। जब वामपंथ बाहर से यूपीए का समर्थन कर रहा था तो न्यूनतम साझा कार्यक्रम ने स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च जीडीपी का 2-3 प्रतिशत तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया था। दुर्भाग्य से 2008-09 में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च जीडीपी केवल 1.01 प्रतिशत ही रहा। यह एक ऐसे देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य की घोर उपेक्षा को ही दर्शाता है जो अनेक महामारियों तथा देशांतर गामी बीमारियों से ग्रस्त है। भारत में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों तथा उनकी सहायक कंपनियों ने दवाओं की कीमतें काफी बढ़ा दी है। भारत की स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली अमरीका की तरह निजी उच्च लागत वाली प्रणाली की ओर बढ़ रही है। जहां बीमाकृत/ जिसमें गरीब शामिल नहीं है। बीमा कंपनी तथा स्वास्थ्य देखभाल प्रबंधकों के बीच पूरी धुरी बनी हुई है। वहां हाल के एक स्वास्थ्य देखभाल बिल के जरिये जिसे बराक ओबामा ने पेश किया है, इसमें परिवर्तन लाने का सशक्त कदम उठाया गया है। ब्रिटेन में एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्रणाली है।
इसलिए भारत के सामने लक्ष्य स्पष्ट है। उसे सार्वभौम राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल की तरफ बढ़ना है। उसे कम लागत की दवाओं के उत्पादन को विकसित करना है।
जब वामपंथ समर्थन दे रहा था तो यूपीए द्वारा स्वीकृत न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शिक्षा पर जीडीपी का कम से कम 6 प्रतिशत खर्च करने की बात की गयी थी। वह 1950 के दशक की ही एक पुरानी सिफारिश है। लेकिन आज शिक्षा पर खर्च केवल 3 प्रतिशत ही है। शिक्षा का
अधिकाधिक व्यवसायीकरण तथा निजीकरण की दिशा में कदम उठाये जा रहे हैं। समान पड़ोस स्कूल और 6-14 वर्ष की उम्र से अनिवार्य सार्वभौम शिक्षा के लक्ष्य गरीब लोगों की पहुंच के बाहर हो रही है। आज शिक्षाा के क्षेत्र में विकृत प्राथमिकताओं के साथ घोर अराजकता का माहौल है।
भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गर्व करता है। यह सही है हमारे यहां संसद से पंचायतों तक प्रतिनिधित्वपूर्ण निकायों के चुनावों की एक नियमित प्रणाली है।
लेकिन हमें उन विकृतियों तथा कमियों से भी अवगत और चैकस रहना चाहिए जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में घुस रही है एवं यहां तक कि उसे पुरी तहर प्रभावित कर रही है। उदाहरण के लिए 10वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित 543 सदस्यों में 306 करोड़पति हैं। उनमें 141 कांग्रेस तथा 58 भाजपा के हैं। कैबिनेट में 64 मंत्रियों का एकाउंट 500 करोड़ रु. का है। उनमें 23 मंत्री 50 करोड़ रु. तथा उससे अधिक संपत्ति रखने वाले की श्रेणी में आते हैं। ये तथ्य हैं जो उन्हीं के शपथ पत्र एवं नेशनल इलेक्शन वाच के अध्ययन से सामने आये हैं। क्या इतने करोड़पतियों के साथ एक संसद और उनके ही प्रभाव वाला एक कैबिनेट आम लोगों की समस्याओं तथा गरीबों की मुसीबतों के प्रति संवेदनशील हो सकता है। ‘इकानोमिक एंड पालिटिकल वीकली’ में एक लेख में कहा गया है “सभी विकृतियों में जो भारत के औपचारिक लोकतंत्र में व्याप्त हैं, धनशक्ति, किराये कमाने वाली पूंजी तथा संसाधन का अभिशाप सर्वाधिक क्षति कारक है।“ उसने आगे कहा है, “क्रोनी (चहेता) पूंजीवाद और राजनीति के बीच धुरी दो के बीच एक विवाह में रूपांतरित हो गया है।“ इसमें संदेह नहीं कि यह हमारे लोकतंत्र पर एक बड़ा खतरा है।
यह रिपोर्ट आ रही है कि चुनावों के दौरान बड़ी रकम का सीेधे भुगतान करके वोट खरीदे जाते हैं। मतदाता स्लिप के साथ एक पांच सौ रुपये या एक हजार रुपये के नोट को नत्थी करने का शर्मनाक रिवाज एक आम बात हो गयी है। चुनाव आयोग असहाय है और चुनाव की निष्पक्षता अधिकाधिक संदेहास्पद हो गयी हैं। ये ऐसे व्यक्ति की टिप्पणी नहीं है जो इस प्रणाली का छिद्रान्वेशण करते हैं बल्कि उनकी चेतवानी है जोे देश में चुनाव की स्वतंत्र तथा निष्पक्ष प्रक्रिया की रक्षा करना चाहते हैं। इसका तकाजा है कि चुनावी सुधार हो, एक अधिक चैकस तथा प्रभावी आयोग हो, वर्तमान ‘फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ (जो प्रथम आये या जिसको सबसे अधिक वोट आये वह जीत जाये) से समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली में परिवर्तन की लोकतांत्रिक चेतना को बढ़ाया जाये।
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सरकार भारत को अमरीका के साथ वर्तमान समय का सबसे ताकतवर साम्राज्यवादी आक्रामक है, एक रणनीतिक भागीदारी में शामिल करने का प्रयास कर रही है। यहां तक कि वह इस्राइल के साथ कतारबंद हो रही है। उसके साथ ही विकासशील विश्व में भारत एक श्रेष्ठ स्थान उसे चीन, रूस ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका आदि के साथ संबंध विकसित करने के लिए बाध्य कर रहा है। हम, वामपंथ को इस द्विविधा को समाप्त करने का प्रयास करना है और हम कर रहे हैं, और भारत को साम्राज्यवादी अमरीका तथा उसके प्रतिनिधि इस्राइल के साथ किसी भी तरह की रणनीतिक भागीदारी से अलग करना है।
चाहे वह दोहा चक्र की विश्व व्यापार संगठन की वार्ता हो या जलवायु परिवर्तन पर वार्ता, सरकार लगातार अमरीका को खुश करने तथा भारत के राष्ट्रीय हितों की कीमत पर उसके दबाव के सामने झुक जाने का ही प्रयास करती है। कोपेनहेगन में ऐसा करते हुए उसने विकासशील देशों के ग्रुप से नाता तोड़ लिया है। हमें इसका प्रतिरोध करना है।
यहां-वहां सरकार की जन-विरोधी नीतियों के खिलाफ, लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले के खिलाफ तथा अमरीकी साम्राज्यवाद के साथ उसके समझौताकारी रूख के खिलाफ विरोध -प्रदर्शन हो रहे हैं। लेकिन वे छिटपुट रक्षात्मक लड़ाई ही है। अब जरूरत इस बात की है कि वर्तमान वर्गीय शासन में परिवर्तन लाने तथा अन्य प्रगतिशील और साम्राज्यवाद -
विरोधी तबकों के साथ मिलकर मजदूरों एवं किसानों का शासन स्थापित करने के लिए व्यापक हमला शुरू किया जाये। इसके लिए यह जरूरी है कि जनता खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को प्रभावित करने वाले मसलों पर व्यापक जन आंदोलन और संघर्ष चलाया जाये। ऐसे संघर्षों के बिना कोई रूपांतकरण नहीं हो सकता है।
यह साफ हो गया है कि पूंजीवाद, के पास गरीबी, भूख, बेरोजगारी, निरक्षरता तथा बीमारी की समस्याओं का कोई समाधान नहीं है। वह विश्व के पर्यावरण के लिए भी एक खतरा है। उसके नव-उदार अवतार ने उसे और अधिक बिगाड़ा है। हाल के आर्थिक संकट ने जो अमरीका में पैदा हुआ और पूरे विश्व को प्रभावित किया, पूंजीवाद में अंतर्निहित अंतर्विरोधों को उजागर कर दिया है।
वर्तमान संकट वास्तव में पूंजीवाद का एक संकट है जो उसकी ऐतिहासिक सीमाओं को प्रदर्शित करता है। उसके तहत कोई सामाजिक न्याय नहीं हो सकता है और आम लोग एक बेहतर जीवन की आकांक्षा नहीं कर सकते हैं। जन संघर्ष उन्हें इस व्यवस्था को रूपांतरित करने और समाजवाद लाने की दिशा में ले जा रहा है। 21वीं सदी समाजवाद की सदी होगी।
लंबा रास्ता तय करना है। लेकिन हमें अवश्य ही आगे बढ़ने की दिशा तथा गंतव्य के बारे में स्पष्ट होना चाहिए जिस ओर भारतीय गणतंत्र को भविष्य में अवश्य ही आगे बढ़ना चाहिए।

ए.बी. बर्धन
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