इलाहाबाद के तरूण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता साथी सुभाष मुखर्जी लगभग 25 वर्ष की आयु में 26 जनवरी 1950 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ग्राम कुड़वा-मानिकपुर में खेत मजदूरों और किसानों के एक सम्मेलन में पुलिस की गोली के शिकार होकर शहीद हुए। उनके साथ शहीद होने वालों में महिला कम्युनिस्ट कार्यकर्ता सुबंशा भी थीं।
पार्टी में साथी सुभाष का जीवन बड़ा अल्पकालीन था परन्तु उस अल्प समय में भी जिस लगन से उन्होंने काम किया और कुर्बानी करने की जो क्षमता दिखलाई वह हम सबके लिए अनुकरणीय है। उस अल्प समय में ही जिस बहुमुखी प्रतिभा का उन्होंने परिचय दिया वह हम सबके लिए स्पर्धा का विषय है और यह विश्वास दिलाता है कि किसी भी क्रांतिकारी तरूण की प्रतिभा के विकसित होने और प्रस्फुटित होने का स्थान कम्युनिस्ट पार्टी ही है।
1942 के अगस्त आंदोलन के बाद विद्यार्थियों और तरूण कार्यकर्ताओं के जो ग्रुप इलाहाबाद की कम्युनिस्ट पार्टी में आये उनमें साथी सुभाष मुखर्जी का ग्रुप काफी बड़ा और महत्वूपर्ण था। पार्टी कार्यालय से लगे मुहल्ले मोहतशिमगंज में उनका घर था। उनके पिता केन्द्रीय सरकार में उच्च अधिकारी थे। प्रकाश चन्द्र मुखर्जी के वह अकेले पुत्र थे। उन दिनों सरकारी कर्मचारियों में परिवार वालों का कम्युनिस्ट पार्टी में आना हर एक की नजर में चढ़ जाता था। विशेष तौर से यदि वह परिवार उच्च मध्यवर्गीय हो। साथी सुभाष का घरेलू नाम रूसिया था। उनकी बहन (जो स्वयं कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थी) का नाम चाइना था। इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि साथी सुभाष के परिवार वाले किस निष्ठा से रूस और चीन की ओर इस शताब्दी के तीसरे दशक में देखते थे। उनके पिता तो दिल्ली में सरकारी नौकरी करते थे परन्तु इलाहाबाद में उनका घर था जिसमें साथी सुभाष अपनी बहन चाइना के साथ रहते, प्रायः पार्टी कम्यून या दूसरे पार्टी दफ्तर जैसा इस्तेमाल होता था।
भाई-बहन दोनों की दिलचस्पी नृत्य, संगीत और नाटकों में होने के कारण वह भारतीय जन नाट्य संघ इलाहाबाद शाखा के अभिन्न अंग बन गये। मुहल्लों और गांवों में नाट्य कार्यक्रम प्रस्तुत करना और जनसभाओं में गीत गाना साथी सुभाष की टुकड़ी का प्रस्तुत काम था। उनके कितने ही सहयोगी आज केन्द्रीय सरकार के संगीत नाटक विभाग और राष्ट्रीय नाट्य स्कूल, संगीत नाटक अकादमी आदि में उच्च पदों पर सुशोभित हैं।
परन्तु साथी को केवल इतने ही में संतोष न था। वह एकाउंटेंट जनरल आफिस में लिपिक थे। वहां उन्होंने अपने दफ्तर के कर्मचारियों की टेªड यूनियन संगठित की। शीघ्र ही वह शहर की अन्य टेªड यूनियनों के संपर्क में आ गये। उन्हीं दिनों 17 जून 1946 की रेलवे हड़ताल की तैयारियां हो रही थी। वारिस अली, हीरालाल, सीताराम सिंह, आर.के. चैबे आदि के साथ ही साथी सुभाष रेलवे मजदूरों को संगठित करने के लिए उनकी बस्ती में घूमने लगे। नाट्य संघ के प्रमुख कलाकार और गीतकार होने के कारण और मुख्य टेªड यूनियन कार्यकर्ताओं के घर जैसे व्यक्ति हो जाने के कारण साथी सुभाष बलईपुर, चैफटका, पुलिस लाइन, कमोरी महादेव, मलाका आदि रेलवे बस्तियों में घर-घर और बच्चे-बच्चे में जाने-मानें पार्टी कामरेड हो गये। मई दिवस पर बलईपुर में लाल झंडे को सलामी देने की शुरूआत उन्होंने ही करवाई। रेलवे बस्ती में उनकी इसी लोकप्रियता के कारण 1948-49 में जब पार्टी प्रायः गैरकानूनी हालत में थी, पार्टी प्रचार घड़ल्ले से होता था। गैर-कानूनी परचों का बटवाना, रातोंरात पूरी बस्ती में पोस्टर लगवा देना उनके लिए मामूली बात थी। 9 मार्च 1949 की रेलवे हड़ताल के नारे को सफल बनाने के लिए उन्होंने दिन में दस बजे रेलवे बस्ती और जंक्शन स्टेशन पर परचे बंटवाये थे।
पार्टी का काम करते समय साथी सुभाष एक सैनिक की भांति अनुशासन में काम करते थे और पार्टी नीति में पूर्ण विश्वास व्यक्त करते थे। परन्तु पार्टी मीटिंगों में अपने दृष्टिकोण को उतनी ही मजबूती से रखते थे। कार्यक्रम को कार्यान्वित करने के लिए वह सबसे आगे रहते थे और उनके लिए कोई भी कुर्बानी करने में तनिक भी नहीं हिचकते थे।
सांप्रदायिकतावाद-विरोधी भावना,
धर्म-निरपेक्षता और पार्टी भक्ति साथी सुभाष में कूट-कूट कर भरी थी। सांप्रदायिकता के विरूद्ध लड़ने में उनमें कितना साहस था यह उनके जीवन की केवल एक घटना से ही पता चल जाता है। जब 1947 में भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान बना तो प्रत्येक सरकारी कर्मचारी को भारत या पाकिस्तान में जा कर काम करने के लिए विकल्प चुनने का अवसर दिया गया। यह वे दिन थे जब पश्चिम पाकिस्तान के पंजाब और सिंध में हिन्दू मतावलंबी जनता के खून से होली खेली जा रही थी। कामरेड सुभाष मुखर्जी ने उस समय इलाहाबाद से कराची जा कर एजी आफिस में काम करने के लिए विकल्प दे दिया। मैंने सुभाष से ऐसा करने का कारण पूछा तो उनका उत्तर था कि जब सांप्रदायिक दंगों की भड़कती आग के कारण हिन्दू कम्युनिस्ट साथी भी पंजाब और सिंध से भारत चले आ रहे हैं तो वहां भी तो पार्टी चलाने के लिए कुछ काडर चाहिए। मैं कराची जा कर पाकिस्तान में पार्टी का काम करूंगा। कामरेड सुभाष मुखर्जी जैसी हिम्मत मुश्किल से लोगों में मिलेगी। हर तरह दबाव डालने के बाद और उनकी उपयोगिता और यही उनके बने रहने की जरूरत समझा कर ही उन्हें करांची (पाकिस्तान) जाने से रोका जा सका। उसके बाद लगभग एक वर्ष उन्हें यहां न डयूटी मिली न वेतन क्योंकि सरकार ने उन्हें करांची जाने के लिए मुक्त कर दिया था। साथी सुभाष के चेहरे पर इस आर्थिक कष्ट से कभी शिकन भी न आयी।
इस बीच साथी सुभाष का संपर्क मजदूर आंदोलन से बढ़ता ही गया। पार्टी संगठन में भी उनका दखल बढ़ गया। मार्च 1948 में स्थानीय पार्टी पर पुलिस का हमला हुआ। यह अखिल भारतीय पैमाने पर पार्टी के ऊपर सरकारी दमन नीति का ही हिस्सा था। पार्टी की अर्ध-गैरकानूनी या प्रायः गैर-कानूनी हालत में जिन साथियों ने पार्टी आंदोलन को जारी रखा उसमें साथी अग्रणी थे। भूमिगत (अंडरग्राउंड) साथियों से संपर्क रखना, उनकी पूरी व्यवस्था करना, कानूनी तौर से पार्टी और अलग-अलग मोर्चे की मीटिंगेें करवाना, पार्टी दफ्तर को नियमित और सुचारू रूप से चालू रखना और इस सबके साथ अपने को गिरफ्तार होने से बचाये रखना यह सब सुभाष के बूते ही संभव था। साथी सुभाष सरकारी नौकरी इसलिए करते रहे कि अर्जित वेतन को पार्टी की जरूरतों पर खर्च कर सकें।
अति वामपंथी और उग्रवादी नीति के कारण उन दिनों मध्यवर्गीय परिवारों से आने वाले साथियों को बहुधा कमजोर समझा जाता था और आये दिन उनके निम्नमध्यवर्गीय वर्ग चरित्र की निन्दा होती थी। इस हमले के कारण उन दिनों न मालूम कितने पार्टी साथी डगमगा गये। उस बचकानी नीति से मुक्ति पाने के बाद जब लेखा-जोखा किया गया तो पता लगा कि अखिल भारतीय पैमाने पर एक लाख सदस्यता की पार्टी केवल 25000 ही रह गयी। केवल दो वर्ष में 75000 पार्टी सदस्य तो निष्क्रिय हो गये थे या पार्टी से निकाल दिये गये थे। परन्तु साथी सुभाष उन सब हमलों को झेलते रहे और मृत्यु पर्यन्त पार्टी की अगली कतारों में खड़े रहे।
उन दिनों उत्तर प्रदेश में बलिया की पार्टी यूनिट बहुत मजबूत थी। पूर्वी उत्तर प्रदेश पार्टी का गढ़ था। पार्टी नेतृत्व ने प्रायः गैरकानूनी हालत में भी खेत मजदूरों का प्रांतीय सम्मेलन कुड़वा-मानिकपुर में करने का निर्णय किया। पुलिस की हर प्रकार की चैकसी और उसके घेरे को तोड़कर कुड़वा- मानिकपुर तक पहुंचना असंभव था। इलाहाबाद में किसानों और खेत मजदूरों में पार्टी का संपर्क नहीं के बराबर था। परन्तु कुछ साथियों ने सम्मेलन में जाने का निश्चय किया। कुड़वा-मानिकपुर गांव तक पहुंचने की योजना साथी सुभाष मुखर्जी ने बनाई। कुछ दूर रेलगाड़ी से, फिर साइकिल से और अंत में पैदल चल कर साथी सुभाष मुखर्जी और इलाहाबाद के अन्य साथी कुड़वा मानिकपुर पहुंचे। कमोवेश इसी प्रकार दूसरे जिलों में भी साथी पहुंचे थे। भूमिगत नेताओं के साथ सभा हुई। खेत मजूदरों के आंदोलन चलाने और संगठित करने की योजना थी। यह भी तय हुआ कि आमसभा में फैसलों का ऐलान किया जाये।
26 जनवरी का दिन था। दिल्ली में भारत के गणराज्य होने की घोषणा की जा रही थी और भारतीय संविधान लागू किया जा रहा था। स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद घोषणा कर रहे थे कि भारत में शासन व्यवस्था का आधार होगा सामाजिक, आर्थिक ओर राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता। इसी दिन उत्तर प्रदेश के कुड़वा-मानिकपुर ग्राम में खेत मजदूरों के सम्मेलन में साथी सुभार्ष मुखर्जी ऐलान करना चाहते थे कि सम्मेलन का निर्णय है कि खेत मजदूर हरिजन, पिछड़े वर्ग के लोग अपने को सामंती दासता से मुक्त करने के लिए जमींदारों के जुल्म से छुटकारा पाने के लिए देश को खुशहान बनाने के लिए संगठित होकर आंदोलन करें। दिल्ली में हुई घोषणा और साथी सुभाष द्वारा की जाने वाली घोषणा में कोई अंतर्विरोध न था। दोनों एक-दूसरे की पूरक थी। परन्तु एक शासक वर्ग की ओर से की गयी थी, दूसरी शोषित वर्ग की आवाज थी। शासक वर्ग को मंजूर न था कि शोषित वर्ग अपने का संगठित कर अपने वर्ग संगठनों द्वारा अपनी मुक्ति की कामना करे, उसकी घोषणा करे। शासन तंत्र ने हमला किया, पुलिस ने गोली चलाई और तरुण कम्युनिस्ट नेता साथी सुभाष मुखर्जी ने बलिया के कुड़वा मानिकपुर ग्राम के खेतों को अपने खून से सींचा।
जमीन पर सामंती शिकंजा खत्म हो, भूमिहीन किसानों को, हरिजन को, पिछड़े वर्ग के लोगों को जमीन मिले, ऐसे नारों को और आदशों को कार्यान्वित करने के लिए साथी सुभाष मुखर्जी 26 जनवरी 1950 को शहीद हुए। 26 जनवरी 1950 को जहां गणतंत्र राज्य की
आधरशिला रखी गयी वहीं खेत मजदूरों की मुक्ति के लिए साथी सुभाष का खून देकर आंदोलन की बुनियाद डाली गयी।
आज ये नारे देशें के बीस-सूत्रीय राष्ट्रीय कार्यक्रम का अंग हैं। इसी बीस सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रम को राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देने के लिए साथी सुभाष शहीद हुए। उनकी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी अनवरत इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए प्रयत्नशील है और जिस कम्युनिस्ट पार्टी को बनाने और चलाने के लिए साथी सुभाष ने 1947 में पाकिस्तान जाने का निश्चय कर लिया था और जिसके लिए 20 जनवरी, 1950 को उन्होंने हंसते-हंसते मृत्यु को अंगीकार किया, आज देश की मजबूत और प्रभावशाली राजनीतिक पार्टियांें में प्रमुख है।
पार्टी को बनाने में साथी सुभाष पांच वर्ष से कम ही समय दे पाये थे। पुलिस की गोली से शहीद होकर वह हमारे बीच नहीं रहे परन्तु इस अल्पकाल में ही उन्होंने अपने को पार्टी के किसी विशेष मोर्चे तक सीमित न रखकर जिस प्रकार मध्यमवर्गीय और सांस्कृतिक संस्थाओं से लेकर किसानों मजदूरों और खेत मजदूरों तक अपना कार्य क्षेत्र बढ़ा लिया था उसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यदि उन्हें पुलिस ने मार डाला नहीं होता तो आज वह पार्टी नेतृत्व में अग्रणी और इलाहाबाद के जन आंदोलन और संगठनों में श्रेष्ठ नेता होते।
कम्युनिस्ट पार्टी ही ऐसी पार्टी है जो साथी सुभाष जैसे तरुण, कर्मठ और यशस्वी नेताओं की कुर्बानी देकर सदैव आगे बढ़ती जाती है और इसका प्रत्येक कार्यकर्ता साथी सुभाष मुखर्जी बनने के लिए प्रयत्नशील रहता है।
कामेश्वर अग्रवाल
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें