भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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गुरुवार, 1 अक्टूबर 2015

उत्तर प्रदेश को दंगों की आग में झौंकने की संघ परिवार की साजिश. दादरी वारणसी और गोंडा की घट्नायें इसी उद्देश्य से.. भाकपा

लखनऊ- 1 अक्तूबर, 2015- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव मंडल ने भारतीय जनता पार्टी और आर.एस.एस. पर आरोप लगाया है कि वे अपने दीर्घकालीन और तात्कालिक उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति के लिये उत्तर प्रदेश और समूचे देश को सांप्रदयिक्ता और सांप्रदायिक दंगों की आग में झौंकने की साजिश में जुटे हैं. क्षुद्र राजनैतिक उद्देश्यों की खातिर की जारही हिंसा, विभाजन की इन कार्यवाहियों की भाकपा ने कड़े शब्दों में निंदा की है. यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि हाल ही में उत्तर प्रदेश के किसी न किसी हिस्से में अलग अलग बहानों से भाजपा और संघ परिवार ने सांप्रदायिक विद्वेष फैला कर प्रदेश को दंगों की आग में झौंकने का काम किया है. सबसे ताजा घटना दिल्ली से सटे जनपद- गौतम बुध्द नगर (नोएडा ) की है जहां औद्योगिक क्षेत्र- दादरी के थाना- जारचा के गांव- विसाहड़ा में सोमवार की रात्रि लगभग एक हजार लोगों की उन्मादी भीड़ ने गांव के एक मुस्लिम परिवार के घर पर धाबा बोल दिया और घर के मुखिया इखलाक को पीट- पीट कर मार डाला तथा उसके बेटे दानिश को भी बुरी तरह पीटा जो अस्पताल में जीवन के लिये संघर्ष कर रहा है. उपद्रवियों ने घर की महिलाओं को भी नहीं बख्शा और घर का सारा सामान भी नष्ट- भ्रष्ट कर दिया. घटना को अंजाम देने के लिये इन उपद्रवियों ने एक मंदिर पर लगे माइक से सोची समझी साजिश के तहत यह प्रसारित किया कि इखलाक ने गोकशी की है और वहां पड़ा मांस का टुकड़ा गाय का है. यह संघ परिवार द्वारा समाज में घोले जारहे जहर का ही परिणाम है कि इस बे सिर पैर की अफवाह पर हजार एक लोग एकत्रित होगये और वर्षों पुराने अपने पडौसी के खून के प्यासे बन गये. भीड़ हिंसा करती रही और कोई भी पडौसी वचाव के लिये नहीं आया. पुलिस भी सूचना के काफी देर बाद पहुंची. पुलिस और प्रशासन की ढिलाई का ही परिणाम है कि पुलिस द्वारा पकड़े लोगों को छुडाने को भीड़ ने पुलिस पर हमला तक बोला. इतना ही नहीं अगले दिन आसपास के गांवों में अफ्वाहें फैला कर तनाव पैदा किया गया और विसाहड़ा से लगभग 5 कि.मी. दूरी पर स्थित गांव- ऊंचा अमीरपुर में कथित गोहत्या के दोषियों को फांसी पर लट्काने की मांग के बहाने बड़े पैमाने पर तोड़्फोड़ की गयी. इन घटनाओं से संपूर्ण क्षेत्र में तनाव व्याप्त है और विसाहड़ा सहित तमाम गांवों के अल्पसंख्यक पलायन कर रहे हैं. अभी पिछले ही सप्ताह प्रधानमंत्री मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में एक साधु गिरोह ने जो कि संघ परिवार का ही आउट्फिट है गंगा में गणेश प्रतिमायें विसर्जित करने के लिये हंगामा खड़ा कर दिया, जबकि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार गंगा में प्रतिमायें विसर्जित नहीं की जासकतीं. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अपने राजनैतिक उद्देश्यों की प्रतिपूर्ति के लिये संघ परिवार गंगा को पवित्र बनाने के नाम पर तमाम नाटक नौटंकी करता रहता है. पुलिस प्रशासन यहाँ भी दो दिनों तक नाटक करता रहा और कठोर कार्यवाही को अंजाम नहीं दिया. अब साधुओं की पिटाई के नाम पर भाजपा और संघ परिवार वहां तनाव बढाने को हर हथकंडा अपना रहे हैं. ठीक इसी तर्ज पर गत सप्ताह गोंडा शहर में मूर्ति विसर्जन को जारहे जलूस में पाबंदी के बावजूद डीजे लगाया गया जिसे पुलिस ने नहीं रोका. जब ये जुलूस अल्पसंख्यक बहुल आबादी में पहुंचा तो वहां तनाव व्याप्त होगया. मौके का लाभ उठा कर उपद्रवियों ने आगजनी और लूट्पाट की. समूचे उत्तर प्रदेश की इन दिनों ऐसी ही तस्वीर है जब त्योहारों के कर्मकाण्डों को बहाना बना कर दंगे फैलाने की साजिश रची जारही है. इसका तात्कालिक उद्देश्य उत्तर प्रदेश में चल रहे पंचायत चुनावों और बिहार विधान सभा के चुनावों में लाभ उठाना है. धर्मपरायणता और सांप्रदायिकता क्योंकि शासक वर्ग और उसकी सरकारों के जनविरोधी कार्यों को जनता में स्वीकार्य बनाती है, अतएव केंद्र और राज्य सरकार का रवैय्या दंगे फसाद रोकने का नहीं; उनके होजाने के बाद राजनैतिक रोटियां सैंकने का है. भाजपा जहां हर जगह खुल कर दंगाइयों के साथ खड़ी है वहीं मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने अपने को दरोगा की तरह धमकी देने और मुआबजा जारी करने तक सीमित कर रखा है. ऐसे में भाकपा समाज के सभी धर्मनिरपेक्षजनों से अपील करती है कि वे उत्तर प्रदेश की शांति और सहिष्णुता को बचाने के लिये आगे आयें. भाकपा राज्य सरकार से भी मांग करती है कि वह सांप्रदायिकता से निपटने को द्रढ इच्छाशक्ति का परिचय दे और तदनुसार अपनी पुलिस और प्रशासन की चूलें कसे. डा. गिरीश
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जनवादी क्रांतियों का इतिहास और उनसे सबक

सामाजिक क्रांति समाज के ढांचे में मूलभूत बदलाव या परिवर्तन होता है। कार्ल मार्क्स ने क्रांति की समझ को वैज्ञानिक आधार पर खड़ा किया। उन्होंने अपने युग के काल्पनिक (यूटोपियन) सामाजिवादियों का विरोध करते हुए वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांत का विकास किया। मार्क्स के अनुसार क्रांतिकारियों को समाज में सक्रिय वस्तुगत नियमों का वैज्ञानिक अध्ययन करना चाहिए। तभी हम समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर बढ़ सकते हैं।
साम्राज्यवाद के युग में जनवादी क्रांति
लेनिन ने पूंजीवाद की साम्राज्यवादी मंजिल का सबसे पहले अध्ययन किया। उन्होंने क्रांति-संबंधी मार्क्स के सिद्धांत में कई नई बातें जोड़ीं। साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अगली और उच्चतर मंजिल होती है। इसमें कुछ मुट्ठीभर सबसे बड़े पूंजीपति (इजारेदार) बाकी सारे समाज का शोषण करते हैं। बड़े पूंजीपति न सिर्फ मेहनतकशों, मजदूरों, किसानों, मध्यम तबकों, बुद्धिजीवियों का बल्कि गैर-इजारेदार पूंजीपतियों का भी शोषण करते हैं, उनके विकास में बाधा पहुंचाते हैं। इन गैर-इजारेदार पूंजीपतियों छोटे, मझोले और निम्न पूंजीपति शामिल होते हैं।
लेनिन ने ‘जनवादी क्रांति’ का सिद्धांत विकसित किया। समाजवादी क्रांति एक मंजिल या एक छलांग में नहीं होगी।
समाजवाद की ओर बढ़ने के लिए बीच की एक या कई मंजिलों से गुजरना होगा। इन्हें ही लेनिन ने ‘पूंजीवादी जनवादी क्रांति’ या जनवादी क्रांति कहा। इसके लिए सामंतों, बड़े पूंजीपतियों और साम्राज्यवाद के विरोध में एक व्यापक जनवादी मोर्चे की जरूरत है।
पंूजीवाद की इस मंजिल को ‘साम्राज्यवाद’ कहा जाता है। अमरीका जैसे देश सारी दुनिया में बड़ी पूंजी का प्रभुत्व कायम करते हैं। अमरीका-विरोधी मोर्चे में छोटे पूंजीपति और छोटे पूंजीवादी देश भी पिसते हैं।
आज के युग में क्रांति
जैसा कि हमने कहा, सारी जनता बड़े-बड़े इजारेदारों और साम्राज्यवादियों के खिलाफ संघर्ष कर रही है। इस संघर्ष में न सिर्फ समाजवाद को मानने वाले लोग शामिल हैं बल्कि वे भी जो समाजवाद से सहमत नहीं हैं। अमरीका का विरोध करने वालों में न सिर्फ मजदूर और किसान शामिल हैं बल्कि मध्यम तबके, बुद्धिजीवी, छोटे और मझोले मालिक (पूंजीपति) भी उसमें हिस्सा ले रहे हैं।
इसलिए समाजवाद की ओर जाने का रास्ता कई मंजिलों से होकर गुजरता है। इस रास्ते में आजादी हासिल करनी होती है, बड़ी विशाल कम्पनियों पर रोक लगानी होती है, बड़ी वित्त पूंजी, विदेशी पूंजी की घुसपैठ और साम्राज्यवादी देशों की कार्रवाईयों पर अंकुश लगाना होता है।
इन बाधाओं को दूर करते हुए देश और समाज के ज्यादा से ज्यादा तबकों और वर्गों को एक मंच पर लाना होता है। इनमें से कई जनवादी होते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि वामपंथी और समाजवादी ही हों।
इसे ही जनवादी एकता (मोर्चा) कहते हैं। ऐसी एकता जो काम पूरे करती है उसे जनवादी परिवर्तन कहते हैं।
जनवादी क्रांतियों का इतिहास
सबसे पहले सफल रूसी क्रांति (1917) में हुई जिसके नेता लेनिन थे। इसमें प्रमुख शक्तियां मजदूर और किसान थे। उन्होंने सोवियतें बनाई। इसलिए उस देश को सोवियत संघ कहा गया।
रूसी क्रांति के तीन मुख्य नारे थे - शंाति, रोटी और जमीन। ये तीनों जनवादी नारे हैं। शांति का मतलब साम्राज्यवादी युद्ध (1914-18) बंद करो। शांति और निःशस्त्रीकरण का नारा सबसे पहली बार दिया गया। यह समूची मानवता के लिए था, केवल कुछ मुट्ठी भर साम्राज्यवादियों को छोड़।
दूसरा नारा था सबकों का रोटी। यह सभी मेहनतकशों, मध्यमवर्गों और कामकाजी लोगों तथा किसानों के लिए था - वास्तव में सभी मानवों के लिए था।
तीसरा था जमीन का नारा। यह मुख्य रूप से किसानों के लिए था। लेकिन किसानों में भी भूमिहीनों और गरीब किसानों के लिए था। यह मुख्यतः बड़े सामंतों के खिलाफ और जमीन के बंटवारे (भूमि सुधारों) के लिए था।
इन तीनों को हम जनवादी कदमों का उद्देश्य कहते हैं। वे जनतांत्रिक बदलाव लाते हैं, समाजवाद के लिए आधार तैयार करते हैं लेकिन अभी समाजवाद नहीं हैं।
अन्य देशों में जनवादी आंदोलन
रूसी क्रांति ने दूसरे देशों में जनता का आंदोलन तेज कर दिया। कहीं आजादी की मांग उठने लगी, कहीं जनतंत्र की, तो कही समाजवाद की। भारत, चीन, वियतनाम, एशिया, अफ्रीका में आजादी की लड़ाई तेज हो गई। भारत आजाद हो गया। वियतनाम तथा चीन में क्रांतियां हो गईं। आगे चलकर पूर्वी यूरोप, क्यूबा और लैटिन अमरीका में भी जनवादी एवं समाजवादी क्रांतियां हो गईं।
पूर्वी योरप (यूरोप)
9 मई 1945 को हिटलर के जर्मन फासिस्टों ने आत्म-समर्पण कर दिया। हिटलर ने उससे पहले ही आत्महत्या कर ली। रूस की लाल सेना की मदद से पूर्वी योरप के देश आजाद हो गए - पोलैंड, बल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया, रोमानिया, आदि। इन देशों में जनता की मिली-जुली जनवादी सरकारें बनीं (1944-45 में)।
वियतनाम
उसने पहले फ्रांसीसियों, फिर जापानियों, फिर फ्रांसीसियों और अमरीका के खिलाफ आाजदी की लड़ाई लड़ी। वियतनाम सबसे पहले 2 सितंबर 1945 को आजाद हुआ। वियतनाम ने पहले देश की आजादी की लड़ाई लड़ी, फिर उसने जनवादी क्रांति का काम शुरू किया। लम्बे संघर्षों के बाद 1975 में पूरी तरह आजाद हुआ। लाओस और कम्पूचिया (कम्बोडिया) भी आजाद हुए। वियतनाम की क्रांति में कम्युनिस्टों के साथ बौद्ध धर्म वाले तथा छोटे मझोले मालिक भी शामिल हैं।
चीन
चीन में कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में किसानों, और मालिकों और मजदूरों की लम्बी लड़ाई चली। जनतांत्रिक अधिकार, पार्टी बनाने के अधिकार तथा संसदीय प्रणाली न होने के कारण चीन में ज्यादातर हथियारबंद संघर्ष हुआ।
चीनी क्रांति की मांग सामंतवाद समाप्त करने, किसानों के बीच जमीन का बंटवारा करने और बड़े तथा विदेशी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने संबंधित था। इसलिए चीनी क्रांति को वहां की पार्टी ने जनवादी क्रांति बतलाया है। आज भी चीन में अर्थव्यवस्था ‘समाजवाद की ओर’ जा रही है, अभी समाजवादी नहीं है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की योजना के अनुसार चीन 21वीं सदी के मध्य तक ‘बाजार समाजवाद’ की ‘प्राथमिक मंजिल’ में रहेगा।
चीन में 1 अक्टूबर 1949 को क्रांति सम्पन्न हुई। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में चार वर्गों के संयुक्त मोर्चा ने सत्ता संभाली। सरकार ने पहले जनवादी मंजिल के काम पूरा करने का फैसला लिया।
आज चीन उत्पादन बढ़ाने की शक्तियों, उसकी टेक्नालोजी के विकास तथा विकास दर बढ़ाने पर ध्यान केन्द्रित कर रहा है।
क्यूबा
क्यूबा में 21 जुलाई 1959 को क्रांतिकारियों ने सत्ता अपने हाथों में ले ली। वे आरम्भ में कम्युनिस्ट नहीं थे। उन्होंने कदम-ब-कदम जनतांत्रिक कदम उठाए और देश की अर्थव्यवस्था विकसित की। आज क्यूबा मध्यम दर्जे का देश है जहां आम जनता को कई प्रकार की सुविधाएं और अधिकार मिले हुए हैं।
भारत
अंग्रेजों के खिलाफ लम्बे साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के बाद भारत ने 1947 में आजादी हासिल की। यह भी जनवादी क्रांति का ही एक रूप है, उसकी ही एक मंजिल। इसके लिए व्यापक शक्तियों ने मिल-जुल कर संघर्ष किया।
अब जनवादी क्रांति की अगली मंजिलें तय करने के लिए जनतांत्रिक शक्तियों को मिल-जुल कर मुख्य विरोधियों के संघर्ष करना होगा, जैसे साम्राज्यवाद, बड़े इजारेदार, वित्त पूंती।
इस संघर्ष में संसदीय प्रणाली की प्रमुख भूमिका होगी और जनसंघर्ष महत्वपूर्ण होाग।
अन्य देश
आज के समय में लैटिन अमरीका के दर्जन-भर देशों में महत्वपूर्ण जनवादी परिवर्तन हो रहे हैं। ब्राजील, बेनेजुएला, इक्वाडोर, बोलीविया तथा अन्य देशों में संसदीय प्रणाली के जरिए तथा विशाल जन समर्थन की सहायता से वाम एवं जनवादी ताकतें चुनाव जीतकर सरकारें बना रही हैं। वे लगातार पिछले लगभग दो दशकों (20 वर्षों) से जीतती आ रही है।
यह नई किस्म की जनवादी क्रांति है जो संसदीय चुनावी मार्ग से सफल हो रही हैं। उनका समर्थन फौज कर रही है। इनमें व्यापक ताकतें शामिल हैं जिनमें छोटे मालिकों और उत्पादकों तथा साम्राज्यवाद-विरोधी पूंजीपति वर्ग के हिस्से भी शामिल हैं
लैटिन अमरीका के परिवर्तन पिछली सभी क्रांतियों से अलग हैं। आज जनता के हक में बड़े पंूजीवादी हितों के खिलाफ तथा गरीबी कम करने के लिए ये जनवादी सरकारें संघर्षरत हैं।
इनके अलावा नेपाल, योरप, दक्षिण अफ्रीका, इत्यादि में भी परिवर्तन चल रहे हैं।
आज की और भविष्य की क्रांतियां
आज हमारे देश और दुनिया भर में जनतांत्रिक अधिकारों और प्रजातांत्रिक तरीकों का महत्व बढ़ गया है। आज विश्व भर में सामाजिक परिवर्तन में चुनाव प्रणाली का महत्व पहले से ज्यादा हो गया है, जैसा कि लैटिन अमरीका की घटनाएं साबित करती हैं। चुनावों, वोट डालने और प्रेस-मीडिया के तथा अन्य अधिकार हमने लम्बे संघर्षों के जरिए जीते हैं। उनका प्रयोग करके वाम एवं प्रगतिशील शक्तियां सत्ता में आ सकती हैं और जनता के हक में कुछ करके दिख सकती हैं, यह अमल में साबित हो चुका है।
क्रांति कोई भविष्य में चीज नहीं रह गई है, वह इस समय जारी है। कुछ महत्वपूर्ण आर्थिक-सामाजिक कदम उठाना भी जनतांत्रिक क्रांति का ही अंग है। आज हम जनतांत्रिक तरीकों का इस्तेमाल करके जनवादी क्रांति पूरा कर सकते हैं। पुराने ढंग की क्रांतियों का युग चला गया।
आज नए किस्म की व्यापक जनतंत्रिक परिवर्तनों का युग है जो प्रजातांत्रिक तरीकों का प्रयोग कर रहे हैं।
- अनिल राजिमवाले
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