दो साल में दूनी हुई कीमतें
हो सकता है कि आपने पिछले डेढ़-दो साल में कड़ी मेहनत करके अपनी कमाई सवाई या डेढ़ा बढ़ा ली हो। लेकिन इसी डेढ़-दो साल में भोजन और दूसरी जरूरी चीजों के दाम दूने हो गये। इस तरह महंगाई ने आपकी बढ़ी हुई कमाई तो छीन ही ली, पहले वाली कमाई में भी सेंधमारी कर ली।
गेहूं का दाम 7-8 किलो से बढ़ 14-15 रु. किलो, चावल 8-10 से बढ़कर 18-20 रु. किलो, डालडा, सरसो तेल आदि खाद्य तेलों के दाम 35-40 रु. से 80-90 रु. किलो। सब्जियों के दाम तो मौसम के अनुसार घटते-बढ़ते हैं। उनके दाम में भी मोटा-मोटी दूने की बढ़ोत्तरी। मांस-मछली-अंडा, दूध, चाय, चीनी आदि सब का यही हाल है। दवाओं के दाम तो इसी डेढ़-दो साल में दूना से भी ज्यादा बढ़ गये। क्या खाये, कैसे जीये आम आदमी?
बिहार में 90 फीसदी भूखे पेट
100 में से 10-15 परिवारों की आमदनी दूनी, तिगुनी या चार-पांचगुनी बढ़ी है। उनको महंगाई से परेशानी नहीं है। योजना आयोग की सुरेश तेंदुलकर कमेटी ने सर्वे करके बताया है कि हमारे देश में करोड़ो को भरपेट खाना नहीं मिलता। यह 2005 की रिपोर्ट हैं। आज की भीषण महंगाई में तो भूखे पेट सोने वाले की संख्या और भी बढ़ गयी है और तेंदुलकर कमेटी का यह आंकड़ा पूरे देश का औसत है जिनमें पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, तमिलनाडु आदि जैसे अपेक्षाकृत संपन्न राज्य भी शामिल हैं। बिहार जैसे गरीब राज्य में तो 90 फीसद से ज्यादा लोग भूखे सोने या आधा पेट खाकर गुजर करने को मजबूर हैं।
तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 100 में से 55 परिवार गरीबी रेखा के नीचे हैं। केन्द्र सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता आयोग (असंगठित क्षेत्र प्रतिष्ठान आयोग) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में करीब 78 फीसद लोग रोजाना 20 रु. या उससे कम खर्च से गुजर करते हैं। यह भी 2007 रिपोर्ट है। आज तो उनकी वास्तविक खपत घटकर रोजाना 10 रु. रह गयी है क्योंकि कीमतें दूनी हो गयीहैं। यह भी पूरे देश के लिए है। इस दृष्टि से भी बिहार का बुरा हाल है। इतने कम पैसे में ये गरीब क्या खायेंगे, क्या बच्चों को खिलाएंगे-पढ़ायेंगे, क्या इलाज कराऐंगे?
सरकार द्वारा थोपी गयी महंगाई
यह महंगाई डायन आयी कहां से? यह जानना बहुत जरूरी है। यह प्रकृति या ऊपर वाले की देन नहीं है। यह केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा आम आदमी पर थोपी गयी महंगाई है। महंगाई भी एक तरह का टैक्स है जो दिखायी नहीं देता। सामान खरीदते वक्त महंगाई के कारण आप जो फाजिल दाम देते हैं, वह किसके पास जाता है? वह जाता है मुनाफाखोर खुदरा व्यापारी के पास और उन बड़े पूंजीपतियों के पास जो नये जमाखोर बने हैं। वे खाद्य पदार्थोें और अन्य अनिवार्य वस्तुओं का जखीरा जमा करके ‘कामोडिटी सट्टा बाजार’ में इन जखीरों की सट्टेबाजी करते हैं। ये तमाम व्यापारी कीमतें बढ़ाकर जो नाजायज मुनाफा लूटते हैं, उसका एक हिस्सा सरकारी खजाने में टैक्स के रूप में जाता है। हरेक बिक्री पर केन्द्र और राज्य सरकार उत्पाद कर, पेशा कर, बिक्री कर, ‘वैट’ आदि के रूप में टैक्स उगाहती है- सो अलग।
केन्द्र और राज्य सरकार का सबसे बड़ा अपराध यह है कि भारतीय खाद्य निगम के गोदामों में लाखों टन अनाज सड़ रहा है और गरीब लोग कुपोषण और भूखमरी के शिकार हो रहे हैं। 1970 के दशक में सरकार ने नीति बनायी थी कि खाद्य निगम किसानों से खाद्यान्न आदि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगा और जन वितरण प्रणाली (राशन की दुकान) के जरिये सस्ती दर पर बेचेगा। खाद्य निगम को जो घाटा होगा, उसकी भरपाई के लिए सरकार ‘खाद्य सब्सिडी’ देगी। यह आम आदमी को महंगाई की मार से बचाने की एक कारगर नीति थी।
लेकिन 1991 में कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने विदेशी महाजनों के दबाव में आकर उदारीकरण-निजीकरण -वैश्वीकरण की ‘नयी आर्थिक नीति’ अपनायी। डा. मनमोहन सिंह उस वक्त वित्तमंत्री थे। इस नीति के मुताबिक खाद्य सब्सिडी समेत तमाम सब्सिडियों में कटौती शुरू हुई। खाद्य सब्सिडी घटाने के लिए आम आदमी को ‘एपीएल’ और ‘बीपीएल’ में बांटा गया। सिर्फ बीपीएल को सस्ता राशन देने की नीति अपनायी गयी। गरीबी रेखा को नीचे गिराकर बीपीएल परिवारों की तादाद घटायी गयी। राज्यों को मिलने वाले अनाज का कोटा घटाया गया। बाद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की वाजपेयी सरकार आयी तो उसने इस नीति को और भी सख्ती से लागू किया।
नतीजा यह हुआ कि सरकारी गोदामों में अनाज का भारी जखीरा जमा हो गया। कानूनन 2.1 करोड़ टन जमा रखना था वहां 6 करोड़ टन जमा हो गया। रखने की जगह नहीं मिली तो आधे अनाज को खुले आसमान के नीचे तिरपाल से ढककर रखा गया। वाजपेयी सरकार के जमाने में दो लाख टन अनाज सड़ गया। यूपीए-2 की मौजूदा सरकार के शासन की ताजा खबर यह है कि 17,000 करोड़ रु. का अनाज सड़ गया, लेकिन इस सरकार ने 500 करोड़ रु. की खाद्य सब्सिडी बचाने के लिए यह अनाज राशन दुकानों के जरिये सस्ती दर पर बेचने के लिए राज्यों को जारी नहीं किया।
पेट्रोल-डीजल-किरासन की मूल्यवृद्धि
गत मई महीने में भोजन सामग्री की महंगाई 17 फीसद और आम चीजों की औसत महंगाई 10 फीसद की अभूतपूर्व तेजी से बढ़ रही थी। ऐसी हालत में केन्द्र सरकार ने 25 जून 2010 को पेट्रोन-डीजन-किरासन और रसोई गैस का दाम बढ़ाकर महंगाई की आग में घी डालने का काम किया। यह आम आदमी की जेब काटकर सरकारी और निजी तेल कंपनियों को खजाना भरने वाला कदम है। सरकार को मालूम है कि पेट्रोलियम पदार्थों का दाम बढ़ने से सभी चीजों के दाम बढ़ते हैं। तब भी यह कदम उठाकर केन्द्र सरकार ने महंगाई की मार से तड़पते आम आदमी के भूखे पेट पर लात मारी है।
यह सफेद झूठ है कि सरकारी तेल कंपनियों को घाटा हो रहा है अव्वल तो सरकार पेट्रोलियत पदार्थों पर भारी टैक्स लगाकर हर साल खरबों रुपये उगाहती है। दूसरे, ये कंपनियां हर साल सरकार को खरबों रु. लाभांश के रूप में देती हैं। इसके बावजूद इन कंपिनयों को हर साल मुनाफा हो रहा है।
दुष्टतापूर्ण दलीलें
केन्द्र सरकार की दुष्टतापूर्ण दलीलें उसके जन-विरोधी चरित्र को बेपर्दा कर रही हैं। दलील दी जा रही है कि तेजी से देश का विकास हो रहा है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है। दूसरी दलील यह दी जा रही है महंगाई अच्छी है, क्योंकि इससे किसानों को लाभ हो रहा है। दोनों दलीलें बकवास हैं।
यह कैसा विकास है कि जिसमें करोड़ो लोग भूख से तड़पते हैं और 90 फीसद लोगोें को भरपेट खाना नहीं मिलता? संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में जितने भूखे लोग हैं, उनका एक चौथाई अकेले भारत में हैं। भारत के बिहार समेत आठ राज्यों की जनता की हालत दुनिया के सबसे गरीब अफ्रीकी देशों से भी बदतर है। खाद्यान्नों की महंगाई का लाभ भी किसानों को नहीं मिल रहा। व्यापारी उनका माल सस्ता खरीद कर और उपभोक्ता को महंगा बेचकर मालामाल हो रहे हैं। कृषि और किसान तो 15 साल से संकट में है। दो लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं।
हकीकत यह है कि सरकार महंगाई बढ़ाकर किसानों-मजदूरों और आम आदमी की कमाई छीन कर बड़े पूंजीपतियों का खजाना भर रही है। नतीजा यह है कि विकास, पूंजीपतियों का हो रहा है। एक ओर गरीबी बढ़ रही है, दूसरी ओर खरबपतियों की संख्या छलांग लगा रही है। देश के 52 खरबपति परिवारों ने देश की एक चौथाई दौलत पर कब्जा कर रखा है।
ऊपर की बातों से जाहिर है कि सरकार की जन-विरोधी नीतियों और सटोरियों-जमाखोरों-मुनाफाखोरों ने देश में भीषण खाद्य संकट पैदा कर दिया है और 90 फीसद लोगों को भोजन का अधिकार छीना जा रहा है। इसके लिए बिहार सरकार भी समाज रूप से जिम्मेदार है।
वामपक्ष के सुझावों को नहीं माना
महंगाई का मौजूदा दौर दिसंबर 2008 में शुरू हुआ। तभी से वामपंथ इसके खिलाफ लड़ रहा है। जुलाई 2008 तक संसद में यूपीए-एक की सरकार वामपक्ष के समर्थन पर निर्भर थी। तब तक महंगाई अपेक्षाकृत नियंत्रण में थी। उसके बाद सरकार वामपक्ष की लगाम से मुक्त हो गयी और महंगाई बढ़ने लगी। जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष और एनडीए के संयोजक शरद यादव ने भी एक टीवी कार्यक्रम में कहा कि वामपक्ष पर निर्भरता से मुक्त होने के बाद मनमोहन सिंह सरकार बेलगाम हो गयी, जिसकी वजह से महंगाई तेजी से बढ़ने लगी।
महंगाई को काबू में लाने के लिए वामपक्ष ने सरकार को सुझाव दिया किः
1. खाद्य पदार्थो और अनिवार्य वस्तुओं की सट्टेबाजी पर रोक लगायी जाये।
2. पेट्रोलियम पदार्थों का दाम हरगिज नहीं बढ़ाया जाये और अगर पेट्रोलियम कंपनियेां को राहत देनी ही है तो सरकार इन पदार्थों पर अपना टैक्स घटाये,
3. एपीएल-बीपीएल का विभाजन खत्म किया जाये, जनवितरण प्रणाली द्वारा सस्ते राशन की सप्लाई सबके लिए हो और केन्द्र सरकार राज्यों का राशन का कोटा बढ़ाये, दालें, खाद्य तेल आदि भी राशन में शामिल हों।
4. जमाखोरों के गोदामों पर बड़े पैमाने पर छापामारी की जाये और जमाखोरों को गिरफ्तार कर जेल भेजा जाये।
5. जनवितरण प्रणाली में व्याप्त कालाबाजारी और भ्रष्टाचार को खत्म किया जाये और इस प्रणाली को महंगाई की मार से आम आदमी को बचाने का कारगर औजार बनाया जाये।
6. बीपीएल सूची में सुधार किया जाये ताकि कोई भी गरीब परिवार सूची के बाहर न रह जाये।
7. कृषि संकट का समाधान किया जाये ताकि कृषि पैदावार बढ़े और खाद्य संकट का समाधान हो।
लेकिन वामपक्ष के सुझावों को न केन्द्र सरकार ने माना, न राज्य सरकार ने। इसनिए महंगाई के खिलाफ, खाद्य संकट के समाधान के लिए और भोजन का अधिकार हासिल करने के लिए उपरोक्त मांगों केा लेकर आंदोलन चलाने के सिवा कोई चारा न था। वामपक्ष लगातार आंदोलन चलाता रहा है। मिसाल के लिए, पिछले चार महीनों में दो बार, वामपक्ष की पेशकदमी पर ‘भारत बंद’ हुए- 27 अप्रैल और 8 जुलाई को; और सभी टेªड यूनियनों के आह्वान पर 7 सितम्बर 2010 को देशव्यापी आम हड़ताल की गई।
नीतिश सरकार के काले कारनामे बाढ़-सुखाड़ की त्रासदी और लापरवाह सरकार
बिहार कृषि प्रधान राज्य है। लेकिन चिन्ता का विषय है कि यहां की कृषि अत्यंत पिछड़ी है। यहां के किसान हर साल बाढ़-सुखाड़ की त्रासदी झेलने के लिए अभिशप्त हैं।
पिछले साल सम्पूर्ण बिहार सुखाड़ से पीड़ित था। इस संबंध में वामपंथ ने राज्य सरकार को सुझाव दिए थे-
1. संपूर्ण बिहार को सूखा क्षेत्र घोषित किया जाये, लेकिन राज्य सरकार ने सिर्फ 26 जिलों को ही सूखाग्रस्त घोषित किया।
2. वामपंथ ने मांग की कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों की मालगुजारी माफ कर दी जाये। सभी किसानों के लिए संभव नहीं हो तो मध्यम, लघु और सीमांत किसानों की तो अवश्य ही। राज्य सरकार ने किसी भी किसान की मालगुजारी माफ नहीं की।
3. वामपंथ ने मांग की कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों के किसानों के सभी तरह के ऋणों की वसूली स्थगित कर दी जायें और मध्यम, लघु और सीमान्त किसानों के ऋण माफ किए जाये। राज्य सरकार ने ऋण वसूली तो तत्काल स्थगित की, किन्तु ब्याज किसी का माफ नहीं किया।
4. वामपंथ ने मांग की कि सभी किसानों को सस्ती ब्याज दर (चार प्रतिशत) पर कृषि ऋण दिया जाय। सरकार ने ऐसा नहीं किया।
5. वामपंथ ने कहा कि राज्य में बंद पड़े सभी लगभग 6 हजार सरकारी नलकूपों को चालू कराया जाय ताकि सुखाड़ का मुकाबला किया जा सके। लेकिन राज्य सरकार ने सिर्फ 1719 नलकूप चालू करने का दावा किया।
6. वामपंथ ने कहा था कि सभी अधूरी परियोजनाओं को ूपरा किया जाये ताकि सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी मिल सके। लेकिन सरकार एक भी परियोजना पूरी नहीं कर सकी।
7. वामपंथ ने सुझाव दिया कि सोन नहर और अन्य नहरों की मरम्मत और उनका आधुनिकीकरण किया जाये। सरकार यह काम भी नहीं कर सकी।
8. वामपंथ ने सुझाव दिया सुखाड़ के कारण ग्रामीण बेराजगारी को दूर करने के लिए नरेगा कानून को शिथिल करते हुए काम चाहने वाले सभी मजदूरों को काम दिया जाये। सरएकार ने यह काम नहीं किया।
9. वामपंथ ने सुझाव दिया, सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भुखमरी से राहत दिलाने के लिए सस्ती भोजन की दुकानें खोली जायें। सरकार ने इसे भी नहीं किया।
10. वामपंथ ने मांग की थी कि सूखा प्रभावित क्षेत्रों में मवेशियों के लिए सस्ती दर पर चारा उपलब्ध कराया जाये। सरकार इस काम में भी विफल रही।
वामपंथ के उपर्युक्त सुझावों को अमल में नहीं लाने का परिणाम है कि आज फिर समूचार बिहार सुखाड़ की लौ में झुलस रहा है। इस साल सुखाड़ के कारण अभी तक 1200 सौ करोड़ रुपये का नुकसान किसानों को हो चुका है। राज्य सरकार ने सिर्फ 28 जिलों को सूखा क्षेत्र घोषित किया है। पर इन 28 जिलों में सरकार की ओर से कोई राहत कार्य नहीं चलाया जा रहा है।
बाढ़ की स्थिति बिहार में और ज्यादा भयानक है। हर साल बाढ़ के कारण यहां के किसानों की हजारों करोड़ रुपये की फसल बर्बाद होती है। सैकड़ों जानें जाती हैं। हजारों पशु पानी में बह जाते हैं। लाखों परिवार बेघर हो जाते हैं। अरबों अरब रुपये की सरकारी और गैर-सरकारी सम्पत्तियों की बर्बादी होती है। लेकिन सरकार की ओर से बाढ़-सुखाड़ के स्थायी निदान के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जा रहा है।
अपने साढ़े चार साल की कार्य अवधि में नीतिश सरकार एक भी नयी चीनी मिल नहीं खोल सकी; और न ही किसी पुरानी चीनी मिल का जीर्णोद्वार करके फिर से चालू ही कर सकी। सरकार की इस कार्य अवधि में कृषि आधारित उद्योग बिल्कुल उपेक्षित पड़े रहे।
राज्य में बिजली की स्थिति अत्यंत ही खराब है। सरकार अब तक के कार्यकाल में बिजली की कोई नई इकाई खड़ी नहीं कर सकी और न ही बिजली का एक यूनिट भी अतिरिक्त पैदा कर सकी।
नीतिश सरकार अब तक के अपने कार्यकाल में अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए सारा दोष केन्द्र सरकार पर मढ़ती रही है। अभी सरकार ने 2 8 जिलों को सूखाग्रस्त घोषित किया है। पर यह सरकार जनता को कोई राहत देने वाली नहीं है। उसने आठ हजार करोड़ रुपये की मांग केन्द्र सरकार से की है। मदद नहीं मिलने पर केन्द्र पर दोष मढ़कर हमले करने की यह नीतिश सरकार की पूर्व की तैयारी है।
अपराध रोकने का भी ढिंढोरा नीतिश सरकार पीट रही है। पर अब तक के अपने कार्यकाल में पुलिस के बर्ताव में यह सरकार ऐसा कोई बदलाव नहीं ला सकी है जिसमें एक संगठित अपराधकर्मी के रूप में पुलिस की छवि में सुधार हो सके।
हजारों करोड़ रुपये का महाघोटाला
लोगों में प्रचार किया जा रहा है कि बिहार में अभी सुशासन वाली सरकार चल रही है। लेकिन सरकार के काले कारनामों से साबित होता है कि यहां सुशासन वाली नहीं दुशासन की सरकार चल रही है। भारत के महालेखाकार एवं नियंत्रक की रिपोर्ट से यह उजागर हुआ कि 2002-03 से लेकर 2007-08 तक सरकारी खजाने से विभिन्न कार्यों के लिए 11,412 करोड़ रुपये निकाले गए जिसके खर्च का कोई हिसाब नहीं दिखाया गया। मामला हाईकोर्ट में भी गया। हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए इस मामले की जांच सीबीआई से कराने का आदेश दिया। यह सरकर ‘चोर न सहे इंजोर’ वाली कहावत को चरितार्थ करने पर तुल गई। सरकार भी पटना हाईकोर्ट की जांच सीबीआई से न कराने की मांग हाईकोर्ट से की। अगर यह घोटाला नहीं है तो राज्य सरकार सीबीआई से जांच से क्यों घबरा रही है। ‘सांच को आंच क्या’ को चरितार्थ करने के लिए सरकार क्यों तैयारी नहीं हो रही? अनुमान किया जा रहा है कि 2010 तक लगभग 25 हजार करोड़ रुपये का हिसाब-किताब सरकार के पास नहीं है। सीबीआई की जांच के इस डर से फर्जी वाउचरों के आधार पर राज्य सरकार खर्चें का हिसाब-किताब महालेखाकार को देने का असफल प्रयास कर रही है।
इतना ही नहीं, ‘एक तो चोरी, दूसरे सीनाजोरी’ वाली कहावत को राज्य सरकार ने विधानमंडल के दोनों सदनों में बड़ी बेशर्मी से चरितार्थ कर दिखाया। इस घोटाले से
संबंधित मामले को जब विपक्ष ने सदन में उठाया तो सत्तापटल की ओर से उन पर जान-लेवा हमला हुआ। इन हमलों में राज्य सरकार के कई मंत्री भी शामिल हुए। दोनों सदनों में वह सब कुछ हुआ जो कभी देखा, सुना नहीं गया। सदन को यातनागृह बना दिया गया। विधानसभा में रातभर धरने पर बैठे विपक्षी सदस्यों को जो यातनाएं दी गई वह निन्दनीय तो हैं ही उसे संसदीय लोकतंत्र का कलयुगी चीरहरण भी कहा जा सकता है। यह सबकुछ मुख्यमंत्री नीतिश कुमार और उपमंख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी के इशारे पर और उनकी आंखों के सामने हुआ।
इसके पूर्व में भी एक घोटाला उजागर हुआ जिसे शराब घोटाला कहते हैं। तत्कालीन विभागीय मंत्री ने जब इस घोटाले की जांच निगरानी ब्यूरो से कराने की मांग की तो मुख्यमंत्री ने उन विभागीय मंत्री को ही मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया। स्पष्ट है कि नीतिश कुमार की सरकार घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों की सरकार है।
वामंपथ ने मांग की है कि-
1. टेªजेरी महाघोटाले की जांच पटना उच्च न्यायलय की निगरानी में सीबीआई से करायी जाये।
2. मुख्यमंत्री सहित घोटाले में संबंधित सभी विभागों के मंत्रियों को बर्खास्त किया जाये।
3. इस घोटाले में नामजद आरोपियों के खिलाफ आर्थिक अपराध का मुकदमा चलाया जाये।
4. नामजद आरोपियों की सम्पत्तियों को जब्त किया जाये।
भूमि सुधार की दुश्मन सरकार
भूमि सुधार के मामले में नीतिश सरकार राज्य की पूर्ववर्ती सरकारों के नक्शे कदम पर चल रही है। पूर्व की राज्य सरकारें और वर्तमान राज्य सरकार भूमि सुधार की दुश्मन है। बिहार में अब तक भूमि सुधार संबंधी जो भी कानून बनाये गये या
भूमिसुधार लागू किया गया है वह सब वामपंथ के कठिन संघर्षों, बलिदानों और आम गरीबों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना का परिणाम है।
नीतिश सरकार ने शहरी भूहदबंदी कानून को निरस्त करके शुरू में ही भूमि सुधार विरोधी अपने चरित्र को उजागर कर दिया। आम लोगों को भरमाने और ठगने के लिए एक भूमि सुधार आयोग का गठन किया। इस आयोग ने अपनी अनुशंसाओं के साथ अपनी एक रिपोर्ट सरकार को दी। यह रिपोर्ट नीतिश सरकार के लिए एक कठिन परीक्षा बन गई। रिपोर्ट को लागू करने से मना करके इस सरकार ने यह साबित कर दिया है कि वह भूमाफियाओं, पूर्व-सामंतों और बड़े भूस्वामियों की चाकरी करने वाली सरकार है। इसने यह भी साबित कर दिया है कि भूमिहीनों, बटाईदारों और बेघरों की कोई परवाह इसे नहीं है।
वामपंथ मांग करता रहा है किः-
1. भूमि सुधार कानूनों को सख्ती से पालन किया जाये, लेकिन सरकारी नौकरशाह इन कानूनों का भीतरघात करते रहे हैं। सत्ता में बैठे रालनीतिज्ञ भी इन कानूनों का मखौल उड़ाते हैं।
2. भूहदबंदी कानून, भूदान कानून, आवासीय भूमि कानून आदि रहने के बावजूद बिहार में 20,95,000 एकड़ भूमि भूमाफियाओं, पूर्व-जमींदारों और बड़े भूस्वामियों के अवैध कब्जे में है। न उन्हें कानून की परवाह है और न सरकार ही उन कानूनों को लागू करने की इच्छुक है। आज भी 22 लाख परिवार भूमिहीन हैं। 5 लाख भूमिहीन परिवार बेघर है। सरकार को उनकी कोई चिन्ता नहीं है। बिहार में 30-35 प्रतिशत खेती बटाईदारी पर होती है। बटाईदारी, व्यवस्था राज्य की कृषि में बहुत पुरानी है। लेकिन वर्तमान में इस व्यवस्था को संचालित करने के लिए कोई भी कानून व्यवहार में नहीं है, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले कानून से यह व्यवस्था चलायी जा रही है।
वामपंथी चाहते हैं कि:-
1. बिहार में सख्ती और ईमानदारी से भूमि सुधार किया जाये। भूमि
सुधार का भीतरघात करने वाले सरकारी अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की जाये।
2. बंद्योपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को शीघ्र लागू किया जाये।
3. प्रत्येक भूमिहीन परिवार को एक-एक एकड़ भूमि दी जाए।
4. प्रत्येक भूमिहीन बेघर परिवार को दस डिसमिल आवासीय भूमि दी जाये, भूदान की अवितरित जमीन को भूमिहीनों में बांटा जाये।
5. बेदखल पर्चाधारियों को उनकी जमीन पर कब्जा दिलाया जाये।
6. लम्बे काल से बसे हुए भूमिहीनों को उस जमीन का पर्चा दिया जाये।
7. अदालतों में लंबित भूमि सुधार संबंधी मामलों का शीघ्र निपटारा विशेष अदालत गठित कर किया जाए।
8. बटाई कृषि व्यवस्था में एक ऐसा कानून बनाया जाये जिसमें जमीन मालिकों और बटाईदारों के अधिकारों की सुरक्षा की गारंटी हो।
नीतिश सरकार इन सुझावों में एक भी सुझाव मानने के लिए तैयार नहीं है। तब ऐसी सरकार को भूमि सुधार की दुश्मन नहीं तो और क्या कहा जाए।
महंगाई के मोर्चे पर सरकार विफल
महंगाई के मोर्चे पर भी बिहार की जदयू-भाजपा सरकार के भी काले कारनामे कोई कम नहीं हैं।
1. सरकार ने राज्य कर घटाकर महंगाई से राहत देने को कोई कदम नहीं उठाया (सिर्फ डीजल के भाव में किसानों को थोड़ी राहत दी जो कुछ ही किसानों को मिल सकी)।
2. अनिवार्य वस्तु कानून को हथियार बनाकर न तो जमाखोरों के गोदामों पर छापेमारी की, और न ही किसी जमाखोर को पकड़कर जेल में डाला।
3. महंगाई से राहत दिलाने वाले एक कारगर औजार जनवितरण प्रणाली को काला बाजारी और लूट का अखाड़ा बना दिया। यहां तक कि लाल कार्डधारी अत्यंत गरीबों और पीला कार्डधारी-बेसहारा लोगों को राशन को काला बाजार में बिकने दिया।
4. बीपीएल सूची बनाने में धांधली की खुली छूट दे दी। नतीजा यह हुआ कि नयी सूची में करीब एक तिहाई पुराने लाल कार्डधारियों के नाम गायब हैं जिसको लेकर हंगामा मचा है।
16-22 अगस्त अभियान
वामपंथ की स्पष्ट समझ है कि सशक्त जन आंदोलन से ही केन्द्र और राज्य सरकार को महंगाई पर लगाम लगाने, खाद्य संकट हल करने और सबको भोजन का अधिकार देने के लिए मजबूर किया जा सकता है और महंगाई से पीड़ित जनता की शिरकत से ही जन आंदोलन सशक्त होगा।
इसलिए वामपंक्ष (भाकपा, भाकपा {मा}, फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी) ने पूरे अगस्त महीने में देशव्यापी सघन अभियान चलाने का फैसला किया। बिहार में यह सघन अभियान 16 से 22 अगस्त तक चलाया गया। जिसके दौरान पूरे राज्य में नुक्कड़ सभाएं तथा छोटी-बड़ी सभाएं की गयी।
- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, बिहार राज्य परिषद