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सोमवार, 28 मई 2012

भाकपा राज्य कौंसिल बैठक - 13-14 मई 2012 - उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालात पर रिपोर्ट

भूमंडलीकरण के इस दौर में केन्द्र एवं राज्यों में सत्तारूढ़ पूंजीवादी राजनैतिक दल आर्थिक नवउदारवाद की राह पर चल रहे हैं। इससे जनता का संकट बढ़ रहा है। यही वजह है कि जिन दलों को जनता चुन कर सत्ता सौंपती है, वे जल्दी ही उसकी नजरों में गिरने लगते हैं।
वर्ष 2007 के विधान सभा चुनावों में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने समाजवादी पार्टी को सत्ता से हटा कर बसपा को पूर्ण बहुमत सौंपा था। लेकिन बसपा सरकार ने भी अपनी पूर्ववर्ती सरकार की नीतियों को ही और तीखे ढंग से लागू किया और उससे भी जनता का मोहभंग हो गया। परिणामस्वरूप गत विधान सभा चुनावों में बसपा को सत्ता से हटा कर सपा को संपूर्ण बहुमत के साथ जनता ने सत्ता सौंप दी। इस सत्ता परिवर्तन की व्यापक समीक्षा ‘चुनाव समीक्षा’ सम्बंधी रिपोर्ट में की जा चुकी है।
यद्यपि चुनाव परिणाम 6 मार्च 2012 को ही आ चुके थे लेकिन गृह-नक्षत्रों की अनुकूलता का ध्यान रखते हुये 15 मार्च को शपथ ग्रहण समारोह आयोजित किया गया। उत्साहित सपा नेतृत्व ने इसे ‘पॉप एंड शो’ के साथ आयोजित किया। भारी पैमाने पर जुटी भीड़ ने शपथ ग्रहण समारोह की सारी मर्यादायें तोड़ दीं। यहां तक कि समारोह के मंच पर चढ़ कर भारी हंगामा काटा। यह सत्ता मद में चूर सपा कार्यकर्ताओं की प्रदेश की जनता को पहली सलामी थी।
यद्यपि मात्र डेढ़ माह का समय किसी सरकार के कामकाज के मूल्यांकन के लिये काफी नहीं है पर कहावत है कि ‘पूत के पैर पालने में ही दिख जाते हैं’। सो इस डेढ़ माह के बीच मौजूदा सरकार के काम-काज को उदारतापूर्वक ‘फिफ्टी-फिफ्टी’ अंक ही प्रदान किये जा सकते हैं।
युवा मुख्यमंत्री काफी उत्साहित हैं; कुछ कर गुजरने की ललक भी उनमें है। हो भी क्यों नहीं देश के सबसे बड़े सूबे का मात्र 39 साल की उम्र में मुख्यमंत्री बनने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ है और वह भी सम्पूर्ण बहुमत के साथ। बेहद अनुभवी पिता, चाचा तथा अन्य वरिष्ठ नेताओं का संरक्षण और मार्गदर्शन उन्हें हासिल है वह अलग। लेकिन यह भी सच है कि वे पूंजीवादी पार्टी के मुख्यमंत्री हैं, जिसकी अपनी राजनैतिक तहजीब है और राजनैतिक निहित स्वार्थ हैं। अतएव यह सरकार भी उसी राह पर चल पड़ी है जिस पर 2007 से पूर्व की सपा सरकार चल रही थी।
कानून-व्यवस्था का मुद्दा इस दरम्यान सबसे पेचीदा मुद्दा बन कर उभरा है। चुनाव नतीजे आते ही बदले की भावना से कारगुजारियां शुरू हो गईं। दलितों और अन्य कमजोरों को खास तौर पर निशाना बनाया गया है। हत्या, लूट, उनकी सम्पत्तियों की आगजनी, उनको आबंटित प्लाटों से बेदखल करना, उनको दलित कोटे के तहत दी गई राशन की दुकानों को निरस्त कराना या अटैच कराना आदि वारदातें आम हो गई हैं। अन्य अपराधों की आई बाढ़ के परिणामस्वरूप मुख्यमंत्री को 18 मई को प्रदेश भर के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की लखनऊ में बैठक तलब करनी पड़ी है। देखना है कि उसका क्या परिणाम निकलता है। आम धारणा है कि सपा की सरकार बनते ही अपराधी, माफिया और दबंग शरारती तत्व बेखौफ हो जाते हैं और आम जन-जीवन पर ही नहीं शासन और प्रशासन पर भी भारी पड़ते हैं।
इस बीच स्वच्छ प्रशासन देने की गरज से बड़ी संख्या में आईएएस, पीसीएस, आईपीएस तथा पीपीएस अधिकारियों के तबादले किये जा चुके हैं। तबादलों का यह क्रम अब भी जारी है और जून अंत तक जारी रहने की संभावना है। लेकिन अभी भी लाभ के तमाम स्थानों पर बसपा सरकार के अफसर जमे बैठे हैं और मंत्रीगण तक इस पर खुला विरोध जताते रहे हैं। पूर्व सरकार में मजे लूटने वाले तमाम अफसरों को पहले कम महत्वपूर्ण जगहों पर भेजा गया और फिर चन्द दिनों के भीतर ही उनको अच्छे पदों पर पुनः बैठा दिया गया। अन्य विभागों में भी तबादलें की मारामारी मची है तथा निहित स्वार्थों के चलते मंत्रियों और संबंधित विभाग के प्रमुख सचिव के बीच रस्साकशी चल रही है। नीचे से ऊपर तक प्रशासन में कोई सुधार दिखाई नहीं देता। इसके पीछे जरूर ही कोई कारण है।
सपा के घोषणापत्र में तथा चुनाव अभियान के दौरान किसानों से तमाम लुभावने वायदे किये गये थे। लेकिन किसानों के सम्बंध में पहले इम्तिहान में सपा सरकार अनुत्तीर्ण हो गई। इस बार प्रदेश के किसानों ने गेहूं की बम्पर फसल पैदा की है और न्यूनतम निर्धारित मूल्य भी 1285 रूपये प्रति क्विंटल है। सरकार ने गेहूं खरीद की पर्याप्त व्यवस्थाओं की घोषणायें की थी लेकिन साथ-ही-साथ व्यापारियों के माध्यम से भी खरीद कराने का निर्णय भी ले डाला। सरकार के तमाम दावों और वायदों के बावजूद तमाम सरकारी खरीद केन्द्रों पर ताले लटके हैं। यदि खरीद केन्द्र खुल भी गया है तो उस पर बोरे नहीं हैं। यों तो बोरों की कमी राष्ट्रीय स्तर पर है परन्तु उत्तर प्रदेश में सरकारी मशीनरी ने तमाम बोरे निजी व्यापारियों को सौंप दिये हैं। निजी व्यापारी किसानों से 1100 रूपये से लेकर 1150 रूपये के बीच प्रति क्विंटल गेहूं खरीद रहे हैं और 1285 रूपये क्विंटल में सरकार को दे रहे हैं। बीच के धन का बंदरबांट व्यापारी और अफसरों के बीच हो रहा है। जो किसान खरीद केन्द्रों पर गेहूं लेकर पहुंचे उनका गेहूं तौल तो लिया गया लेकिन बोरों की अनुपलब्धता बताकर खुले में डाल दिया गया। किसान दिन रात उसकी चौकीदारी कर रहे हैं। उन्हें भुगतान भी नहीं किया जा रहा। सपा के तमाम कार्यकर्ताओं पर से मुकदमें हटाये जा रहे हैं पर पूर्ववर्ती सरकार के शासनकाल में जमीन बचाने के लिये आन्दोलन करने वाले तमाम किसानों पर से अभी मुकदमें वापस नहीं लिये गये। यहां तक कि भट्टा-पारसौल के किसान अभी तक जेल में बन्द हैं। अब मुख्यमंत्री ने उनकी रिहाई का वायदा किया है। खेती के लिये 18 घंटे बिजली देने का वायदा भी पूरा नहीं हो पा रहा। खराब पड़े नलकूपों की मरम्मत और नहर-बंबों की सफाई का काम भी अभी तक प्रारम्भ नहीं हुआ। 6 किसान तथा बुनकर इस बीच आत्महत्यायें कर चुके हैं।
हम और हमारे छात्र-युवा संगठन ‘समस्त बेरोजगारों को रोजगार या बेरोजगारी भत्ता दिलाने’ को आन्दोलन करते रहे हैं। सपा ने भी अपने घोषणापत्र में भत्ता देने का वायदा किया था। लेकिन अब इस वायदे को काट-छांट कर सीमित किया जा रहा है। पहले 35 वर्ष के ऊपर की उम्र वालों को भत्ता देने की बात कही तो इसका विरोध हुआ। अब तीस वर्ष तक के उन बेरोजगारों को भत्ता देने की बात की जा रही है जिनके नाम 15 मार्च 2012 तक रोजगार कार्यालय में दर्ज हो चुके थे। अन्य कई प्राविधानों के जरिये कम से कम बेरोजगारों को भत्ता देने की रणनीति पर सरकार चल रही है। यही हाल छात्रों को लैपटाप और टैबलेट देने के मामले में चल रहा है। सरकारी विभागों में हजारों स्थान रिक्त हैं जिन्हें भरे जाने को कदम उठाने चाहिये।
इस बीच प्रदेश में तमाम नये-पुराने घोटालों की परतें उघड़ रहीं हैं। खाद्यान्न घोटाला, जिसको हमारी पार्टी ने उजागर किया था, की सीबीआई जांच चल रही है और तमाम अफसर-कर्मचारी जेल जा रहे हैं। एनआरएचएम घोटाले की जांच में भी मंत्री और अफसर जेल जा चुके हैं और अन्य अनेकों के जाने की संभावना है। सपा सरकार के पूर्व खाद्य एवं रसद मंत्री और वर्तमान सरकार के जेल मंत्री पर भी खाद्यान्न घोटाले में लिप्त होने के आरोपों के बावजूद उन्हें मंत्री पद से नवाजा गया है। कई अन्य मौजूदा मंत्री खाद्यान्न घोटाले की जद में आ रहे हैं। आयुर्वेद घोटाले में भी एक मंत्री के लिप्त होने की खबर सभी को है। पुलिस भर्ती घोटाले में तो मुख्य मंत्री के परिवार के तमाम लोगों पर ही घोटाले के आरोप लगे थे।
अब बसपा शासन में हुये तमाम घपले-घोटालों और भ्रष्टाचार के खुलासे हो रहे हैं। 21 चीनी मिलों की बिक्री में हो रही धांधली का हमने खुद अक्टूबर 2010 में खुलासा किया था। अब सीएजी रिपोर्ट से इस महाघोटाले की पुष्टि हो चुकी है। मीडिया से लेकर राजनैतिक हलकों में इस मसले पर तूफान खड़ा हो गया है। यहां तक कि मामला उच्च न्यायालय में पहुंच गया है।हमने भी मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर इन चीनी मिलों की बिक्री निरस्त करने और घोटाले की सीबीआई जांच कराने की मांग की है लेकिन सरकार अभी तक कोरी बयानबाजी कर रही है। इसका एक खास कारण यह है कि ये सारी मिलें कई कंपनियों के नाम से उद्योगपति पोंटी चढ्ढा ने खरीदी हैं और पोंटी चढ्ढा सपा सुप्रीमो के खासमखास रहे हैं। बसपा के शासनकाल में वे बसपा सुप्रीमो के खासमखास हो गये थे। अब वे पुनः सपा सरकार के सबसे करीबी उद्योगपतियों में गिने जाते हैं। शराब का थोक और खुदरा कारोबार आज फिर से उन्हीं के हाथों पहुंच गया है। चीनी मिल बिक्री में धांधली पर त्वरित कार्यवाही में सरकार की ऊहापोह का यही कारण है।
सपा ने अपने घोषणापत्र और चुनाव अभियान के दरम्यान भ्रष्टाचार पर कारगर अंकुश लगाने और लोकायुक्त संस्था को मजबूत करने के तमाम वायदे किये थे और आज भी इसके मुख्यमंत्री एवं प्रमुख मंत्रीगण भ्रष्टाचारियों, यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री को दोषी पाये जाने पर जेल के सीखचों के पीछे पहुंचाने की बात कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में लोकायुक्त ने बसपा सरकार के पांच पूर्व मंत्रियों की आय से अधिक सम्पत्ति मामले की जांच की और उन्हें दोषी पाया। लोकायुक्त ने उनकी जांच सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय से कराने की अनुशंसा सरकार से की है। लेकिन उनकी इस अनुशंसा पर अभी तक निर्णय नहीं लिया गया है। पूर्व ऊर्जा मंत्री ने तो लोकायुक्त को ही सार्वजनिक तौर पर धमकी दे डाली और सरकार ने उनके खिलाफ कोई कानूनी कदम नहीं उठाया।
इसी तरह छात्रवृत्ति एवं शिक्षण शुल्क प्रतिपूर्ति घोटाला, नहरों के निर्माण का घोटाला, मनरेगा घोटाला, मिड डे मील, शौचालय निर्माण घोटाला, वाणसागर परियोजना घोटाला, सड़क और पुल निर्माण के घोटाले, नोएडा प्लाट आबंटन घोटाला और अब पूर्व मुख्यमंत्री के आवास की सजधज पर खर्च किये 86 करोड़ रूपये की बात उजागर हो चुकी है। अभी दर्जनों घोटाले हैं जिन्हें खोला जाना बाकी है। सरकार की सदाशयता की परीक्षा होने वाली है।
स्वास्थ्य सेवाओं को दुरूस्त करने को सरकार ने कई कदम उठाये हैं। लेकिन अभी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को और चुस्त-दुरूस्त तथा व्यापक बनाने की जरूरत है ताकि प्राईवेट स्वास्थ्य सेवाओं से मरीजों की लूट को बचाया जा सके और उन्हें बेहतर इलाज सुलभ कराया जा सके। इस बीच रायबरेली में एम्स खोले जाने की बहस ने काफी जोर पकड़ा और नई राज्य सरकार ने जमीन मुहैया कराने को कदम उठाये हैं। परन्तु भाकपा ने मांग की है कि उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य को चार एम्स और मिलने चाहिये। पूर्वांचल, बुन्देलखंड, मध्य तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। लगभग 20 करोड़ की आबादी वाले इस विशालकाय सूबे को चार एम्स मिलने की मांग सर्वथा न्यायोचित है।
नई सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिये कुछ घोषणायें की हैं, यह अच्छी बात है, लेकिन तमाम गरीबोंकी लड़कियों को भी आर्थिक सहायता तथा उनके श्मशानों की चहारदीवारी कराने का उचित निर्णय लेना ही होगा। गरीबों और असहायों के उत्थान के कार्यक्रमों में राजनीति नहीं हो तो बेहतर है।
धरनास्थल पुनः विधानसभा के समक्ष लाने के लिये सरकार साधुवाद की पात्र है। कालीदास मार्ग को आम जनता के लिये खोल देना भी उचित है। जनता दरबार की पुनर्वापसी की भी सराहना की जानी चाहिये। लेकिन इन दरबारों में उमड़ने वाली भीड़ जिनमें महिलाओं की तादाद भी अच्छी-खासी होती है, चौकाने वाली है। जिन समस्याओं से प्रदेशवासी जूझ रहे हैं और जनता दर्शन के माध्यम से जो खबरे बाहर आ रहीं हैं, वे काफी भयावह हैं। ये स्थितियां एक दो दिन में नहीं बनी हैं। गत कई सरकारों ने जनता के ज्वलंत सवालों पर घनघोर उदासीनता का रवैया अपनाया है। प्रशासनिक मशीनरी का जातिवादीकरण और राजनीतिकरण हो चुका है और प्रशासन में बैठे लोग बेहद संवेदनाहीन, स्वार्थी और भ्रष्ट हो चुके हैं। सरकार में परिवर्तन के साथ आस्था परिवर्तन भी हो जाता है। अतएव कार्य संस्कृति में कोई परिवर्तन नहीं होता। यदि स्थानीय तौर पर लोगों की समस्याओं का निदान हो जाता तो बेहद कष्ट और खर्च उठाकर निरीह जनता राजधानी का रूख शायद ही करती।
विगत सपा सरकार और गत बसपा सरकार की आर्थिक और औद्योगिक नीति समान थी जिसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र को बेचा जा रहा था और निजी क्षेत्र को पनपाया जा रहा था। इसके लिये पीपीपी मॉडल की ईजाद की गई थी। अब सरकार बड़े शहरों की बिजली आपूर्ति की व्यवस्था को निजी कंपनियों को सौंपने की तैयारी कर रही है। सड़कों और पुलों के निर्माण का काम भी पीपीपी मॉडल के तहत कराने का निर्णय लिया जा चुका है।
हम प्रदेश में उद्योग और कृषि के चौतरफा विकास के पक्षधर हैं। परन्तु हम मानते हैं कि प्रदेश का स्थाई विकास सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत ही हो सकता है। सरकार को औद्योगिक व कृषि विकास की योजनायें बनाते वक्त किसान, खेतिहर मजदूर, मजदूर और आम जनता के हितों को ध्यान में रखना चाहिये, चन्द उद्योगपति और औद्योगिक घरानों को लाभ पहुंचाने से समस्या का समाधान होने वाला नहीं है।
प्रदेश की राजनीति में हो रही इस उथल-पुथल के बीच सरकारी पक्ष की ओर से तमाम बयान आ रहे हैं कि सरकार को 6 माह का समय दिया जाये और सरकार के कामकाज की समीक्षा अथवा आलोचना न की जाये। हम भी ऐसा ही चाहते हैं। परन्तु स्थितियां हमें मौन तोड़ने को बाध्य कर रही हैं। अतः अपने को राम मनोहर लोहिया के अनुयायी कहने वालों को हम लोहिया जी के इस कथन की याद दिलाना चाहते हैं - ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं।’ अतएव जब किसान-कामगारों और आमजनों के तमाम सवालात उभर कर सतह पर आ गये हों तो परिस्थिति का तकाजा है कि हम जनता के सवालों पर जनता के बीच जायें।
  • किसानों से सरकारी रेट पर गेहूं तत्काल खरीदा जाये तथा उन्हें तत्काल पूरा भुगतान किया जाये। आढ़तियों के द्वारा खरीद पर रोक लगाई जाये।
  • युवा बेरोजगारों को रोजगार दिया जाये। सरकारी विभागों में रिक्त पड़े स्थानों पर तत्काल भर्ती शुरू की जाये। समस्त बेरोजगारों को रोजगार हासिल होने तक भत्ता दिया जाये।
  • कानून व्यवस्था को पटरी पर लाया जाये। दलितों, कमजोरों एवं महिलाओं पर की जा रही उत्पीड़नात्मक कारगुजारियों को रोका जाये।
  • भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े कदम उठाये जायें। लोकायुक्त द्वारा पूर्व मंत्रियों के खिलाफ सीबीआई तथा प्रवर्तन निदेशालय द्वारा जांच कराने की अनुशंसा को बिना विलम्ब किये लागू किया जाये। लोकायुक्त संस्था को और व्यापक और मजबूत बनाया जाये।
  • चीनी मिलों की बिक्री को रद्द किया जाये। बिक्री में हुये घोटाले की सीबीआई से जांच कराई जाये।
  • प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाये। प्रदेश में चार नये एम्स खोले जाने को राज्य और केन्द्र सरकार कार्यवाही करे।
  • गरीबों के उत्थान की भेदभावरहित योजनायें बनाई जायें तथा अमल में लाई जायें। समस्त गरीबों की शिक्षित लड़कियों को अनुग्रह राशि रू. 30,000/- दी जाये तथा गरीबों के श्मशानों को चहारदीवारी बनाकर सुरक्षित किया जाये।
  • बिजली वितरण के निजीकरण के किन्ही भी प्रयासों को बन्द किया जाये और आगरा की बिजली वितरण व्यवस्था को पुनः पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम को सौंपा जाये।
अन्य
  • जून माह में प्रस्तावित निकाय चुनावों में तैयारी के साथ अधिक से अधिक संख्या में भाग लिया जाये।
  • तीन दिवसीय धन एवं अनाज संग्रह अभियान प्रदेश भर में चलाया जाये।
  • जिलों में विस्तारित काउंसिल बैठकें आहूत कर राष्ट्रीय महाधिवेशन की रिपोर्टिंग और चुनाव समीक्षा का काम पूरा कर लिया जाये।
  • निकाय चुनाव के बाद जिलों-जिलों में पार्टी शिक्षा हेतु स्कूल लगाये जाये।
कृत कार्य
राज्य सम्मेलन के तत्काल बाद विधान सभा चुनावों की घोषणा हो गई और हम 51 सीटों पर चुनाव मैदान में उतरे। इसके तत्काल बाद राष्ट्रीय महाधिवेशन में नेतृत्व की टीम एवं अन्य प्रतिनिधियों को जाना था।
इस बीच हमने जिला कमेटियों को निर्देश दिया था कि वे राज्य नेतृत्व को आमंत्रित कर उनकी उपस्थिति में जिला काउंसिल बैठक कर चुनाव समीक्षा करें। साथ ही राष्ट्रीय महाधिवेशन की रिपोर्टिंग करायें। अब तक राज्य नेतृत्व के पास जिन जिलों में बैठक होने की सूचना है - वे हैं बुलन्दशहर, मऊ, पडरौना, अलीगढ़, हाथरस, आगरा, मथुरा, फैजाबाद, कानपुर नगर और कानपुर देहात।
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भाकपा राज्य कौंसिल बैठक 13-14 मई 2012 द्वारा पारित चुनाव समीक्षा (विधान सभा चुनाव 2012)

लम्बे अतंराल के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने उत्तर प्रदेश में इतनी बड़ी संख्या (51 सीटों पर) में विधान सभा का चुनाव लड़ा। 2007 के चुनाव में हम बहुत कोशिश के बाद 21 प्रत्याशी ही चुनाव मैदान में उतार पाये थे जबकि उस समय प्रगतिशील जनमोर्चा गठबंधन वजूद में था और हम उसके हिस्से के रूप में चुनाव लड़े थे। इससे पूर्व कई चुनावों में हम पूंजीवादी दलों के साथ तालमेल कर लड़ते रहे और इन तालमेलों के कारण घटते-घटते हम पांच सीटें लड़ने पर सिमट गये। अन्य तमाम कारणों के अतिरिक्त हमारे जनाधार के सिकुड़ने का एक कारण तालमेल के चलते अत्यंत कम सीटों पर चुनाव लड़ा जाना भी था। यह उल्लेख जरूरी है कि चन्द जिलों में ही चुनाव लड़ने के कारण अधिसंख्यक जिलों में पार्टी की सांगठनिक मशीनरी चुनाव लड़ने के लायक नहीं रह गयी जिसका प्रत्यक्ष अनुभव इन चुनावों में उतरने पर हम सबको हुआ। पार्टी को ठहराव की स्थिति से निकालने और इसको फिर पूर्व की स्थिति की ओर ले जाने के लिये जरूरी था कि हम समूचे प्रदेश में कुछ अधिक संख्या में चुनाव लड़ें। लोक सभा चुनावों में भी हमने यह प्रयास किया था और समय की मांग थी कि विधान सभा चुनावों में भी यह क्रम जारी रखा जाये।
51 सीटों पर चुनाव में उतरने की हिम्मत हम इसलिये भी जुटा सके कि गत वर्षों में पार्टी ने प्रदेश में एक के बाद एक अनगिनत आन्दोलन किये हैं। इस बीच पार्टी की तमाम सांगठनिक गतिविधियां बढ़ाईं गईं और पार्टी शिक्षा पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया। पार्टी का वाहन आदि साधन भी बढ़ाये। राज्य पार्टी कई अन्य सीटें भी लड़ना चाहती थी लेकिन पार्टी केन्द्र ने हमें इतनी ही सीटें लड़ने की अनुमति दी। ध्यान रहे कि हमारी पार्टी जनवादी केन्द्रीयता के सिद्धांत पर चलती है।
चुनावों से पहले ही यह लगने लगा था कि शासक पार्टी बसपा अपनी घोर किसान-मजदूर एवं जनविरोधी नीतियों तथा भारी भ्रष्टाचार के चलते पराजय हासिल करेगी लेकिन किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल सकेगा, इसका आभास शायद ही किसी को हो। लेकिन चुनाव नतीजे बेहद चौंकाने वाले थे और समाजवादी पार्टी स्पष्ट बहुमत (224 सीटें) पाकर सरकार बनाने में कामयाब रही। 80 सीटें पाकर बसपा दूसरे नम्बर पर, 47 सीटें पाकर भाजपा तीसरे स्थान पर तथा 28 सीटें पाकर कांग्रेस चौथे नम्बर पर रही। राष्ट्रीय लोकदल जो कांग्रेस के साथ गठबंधन में लड़ा था, को 9 सीटें हासिल हुईं। शेष 15 सीटें छोटे दलों और निर्दलियों के खाते में गयीं।
सपा को स्पष्ट बहुमत मिलने का सबसे प्रमुख कारण रहा कि लोग बसपा से बेहद नाराज थे और उसको हर कीमत पर हराना चाहते थे। मुख्य विपक्षी दल सपा ही बसपा के सामने सबसे ताकतवर था, अतएव लोग सपा की तरफ झुकते चले गये। 2007 के विधान सभा चुनाव में भी यही हुआ था जब सपा को हराने के लिये मतदाताओं ने बसपा को पूर्ण बहुमत दे दिया था।
किसी दल को स्पष्ट जनादेश न मिलने की चर्चायें जोरों पर थीं। लोग चिंतित थे कि चुनाव नतीजे आने के बाद सरकार बनाने को भारी खींचतान और खरीद-फरोख्त होगी। आम मतदाता ऐसा नहीं चाहता था और उसने स्पष्ट बहुमत देकर खरीद-फरोख्त की संभावनाओं पर विराम लगा दिया और सपा को पूर्ण बहुमत दे दिया।
स्पष्ट बहुमत न मिलने की चर्चाओं के बीच एक संभावना यह भी जताई जा रही थी बसपा और भाजपा की मिली-जुली सरकार वजूद में आ सकती है। इससे मुस्लिम मतदाता बहुत बड़े पैमाने पर सपा की ओर लामबंद हो गये।
कांग्रेस द्वारा पिछड़ों के कोटे से ही अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने की दोतरफा प्रतिक्रिया हुई। भाजपा ने इसके विरूद्ध साम्प्रदायिक विषवमन किया और इसका उसको थोड़ा लाभ भी मिला। लेकिन पिछड़ा वर्ग अपने कोटे में कटौती से नाराज होकर सपा की ओर लामबंद हो गया।
सपा, जोकि सरकार बनाने की प्रमुख दावेदार बनती जा रही थी, द्वारा अपने घोषणा पत्र और चुनावी आम सभाओं में किसानों, नौजवानों, छात्रों, अल्पसंख्यकों तथा अन्य वर्गों के लिये किये गये लुभावने वायदों तथा भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की घोषणाओं के कारण इन तबकों ने व्यापक पैमाने पर सपा के पक्ष में मतदान किया।
यद्यपि सपा और बसपा भी आर्थिक नवउदारवाद के रास्ते पर ही चल रही हैं लेकिन कांग्रेस एवं भाजपा दोनों राष्ट्रीय पार्टियों द्वारा आर्थिक नवउदारवाद की नीतियों का खुला अनुसरण करने के चलते महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे सवालों पर जनता ने इन्हें तरजीह नहीं दी। चुनाव के दौरान कांग्रेस के कई मंत्रियों के ऊट-पटांग बयान तथा भाजपा द्वारा बसपा के एक भ्रष्टतम मंत्री को पार्टी में शामिल करने और जातिवादी समीकरण के तहत उमा भारती को उत्तर प्रदेश से चुनाव लड़ाने का सन्देश इनके विरोध में गया। इन दलों की संख्या यदि और बढ़ती तो सपा, बसपा की संख्या घटती, यह स्वाभाविक ही है।
निर्वाचन आयोग के प्रयासों के चलते मतदान प्रतिशत बढ़ा और मध्यम वर्ग और युवाओं ने बड़े पैमाने पर मतदान किया। बसपा के कुशासन के विरोध में और सपा से सुशासन पाने की उम्मीद में इन तबकों ने सपा के पक्ष में मतदान किया।
जिन नकारात्मक चीजों ने इस चुनाव में भूमिका अदा की, वे हैं -
  • उत्तर प्रदेश की राजनीति आज भी जातिगत जकड़बन्दी में फंसी हुई है। सपा का जाति आधार और बसपा का जाति आधार पूरी तरह इन दलों के पीछे लामबंद रहे। अन्य छोटी पार्टियों की मुख्य शक्ति भी उन दलों का जाति आधार ही था।
  • इन चुनावों में धनबल, बाहुबल और शराब का बड़े पैमाने पर प्रयोग हुआ। निर्वाचन आयोग की सख्ती और कड़े कानूनों के चलते चुनाव संसाधनों का खुले तौर पर अतिरेक प्रयोग संभव नहीं था। पूंजीवादी और माफिया प्रत्याशियों ने उस धन को नकदी के तौर पर तथा शराब बांटने में प्रयोग किया। खेद की बात है कि मतदान से 2-3 दिन पहले निर्वाचन आयोग भी इसकी अनदेखी करने लगता है।
  • प्रचार वाहनों की सीमित संख्या का कोई अर्थ नहीं रहा जबकि राजनैतिक दलों की रैलियों में बिना अनुमति के असंख्य वाहनों से पैसे के बल पर भीड़ जुटाई गई। अनेक वाहन बिना झंड़े बैनरों के प्रचार कार्य में लगे रहे।
  • सभी दलों के कई-कई नेता हेलीकाप्टरों से चुनाव प्रचार कर रहे थे। यह धन किस खाते से खर्च हो रहा था और कहां से आ रहा था, आज तक पता नहीं।
  • मीडिया की भूमिका बेहद नकारात्मक रही। पेड न्यूज की पाबंदियों की धज्जियां बिखेर बड़े अखबारों एवं खबरिया चैनलों ने पूंजीवादी दलों और माफिया नेताओं से बड़ी-बड़ी सौदेबाजियां कीं और उनकी खबरें दिन-रात प्रसारित कीं। यहां तक टीवी चैनलों पर इन दलों के नेताओं के लम्बे-लम्बे भाषणों का सीधा प्रसारण किया गया। स्थानीय स्तर पर भी प्रत्याशियों से नकद पैकेज लेकर खबरें बनाई और चलाई गईं।
  • वामपंथी दलों और भाकपा का चुनाव चिन्ह इस बार अखबारों के चुनावी पृष्ठों पर नहीं छापा गया जबकि हम प्रदेश के हर कोने में चुनाव लड़ रहे थे। हमने दो बार निर्वाचन आयोग से लिखित शिकायत की मगर कोई कार्यवाही सामने नहीं आई। मीडिया ने भाकपा और वामपंथ को पूरी तरह से दबाया।
इन्हीं कठिन परिस्थितियों के बीच भाकपा चुनाव मैदान में उतरी। हमने एक वर्ष पहले ही पूंजीवादी दलों से तालमेल न करने का निर्णय ले लिया था ताकि हमारी लड़ाई चन्द सीटों तक ही सीमित न रह जाये। बाद में माकपा भी हमारे साथ आ जुड़ी। फारवर्ड ब्लॉक और आरएसपी तो पहले ही साथ आ चुके थे। अंत में जनता दल (से.) भी हमारे साथ आ जुड़ा। माकपा ने परम्परागत अवसरवादी रूख अपनाते हुये उलेमा काउंसिल जैसे साम्प्रदायिक ग्रुप से भी घालमेल कर लिया जिसका संदेश अच्छा नहीं गया। हमने भाकपा (माले) से भी बातचीत की, लेकिन वे पहले तालमेल की घोषणा चाहते थे बाद में सीटों पर समझौता। पूर्व के अनुभवों से हम सावधान थे और हमारी शर्त यह थी कि पहले सीटों पर तालमेल कर लिया जाये और उसके बाद घोषणा की जाये। वे न केवल बातचीत से बचते रहे अपितु उन्होंने पूर्व की भांति इस बार भी तमाम जगहों पर हमारे सामने प्रत्याशी उतार दिये। भाकपा और माकपा यद्यपि किसी सीट पर आमने-सामने नहीं थीं पर हमारे सामने कई सीटों पर माकपा ने उलेमा काउंसिल आदि के प्रत्याशियों का समर्थन किया। कई अन्य जगहों पर भी उन्होंने हमारे प्रत्याशियों की मदद नहीं की। उनके इस अवसरवादी रूझान पर हम समय-समय पर आपत्ति दर्ज कराते रहे।
कई छोटे दलों से प्रारंभिक वार्ता की गई लेकिन वे बड़े पूंजीवादी दलों से तालमेल की फिराक में थे। नीति, सिद्धांत, कार्यक्रमों से उन्हें कुछ भी लेना-देना नहीं था। हमारा कमजोर जनाधार भी उनकी उदासीतनता का एक कारण था।
पार्टी की छवि, प्रतिष्ठा एवं भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुये हमने अपराधी सरगनाओं अथवा माफियाओं द्वारा संचालित पार्टियों के साथ तालमेल की संभावनाओं को निर्ममता से ठुकराना उचित समझा।
हमें जो वोट मिले, वे संतोषजनक नहीं कहे जा सकते लेकिन जो राजनैतिक एवं सांगठनिक परिस्थितियां थीं, उनमें यही नतीजे संभव थे। कारण -
  • जीत के लिये एक ठोस जनाधार की जरूरत होती है। हम जातिवादी राजनीति से कोसों दूर हैं अतएव हमारा कोई जाति आधार तो है नहीं और हो भी नहीं सकता। फिलहाल हमारे पास वर्गीय आधार भी नहीं है। मौजूदा समय में मजदूर वर्ग, किसान, मध्यम वर्ग सभी जाति के खांचों में बंटे हैं और जातिवादी पार्टियों के पीछे लामबंद हैं।
  • आम चुनावों में लोग सरकार बनाने को वोट डालते हैं। सच्चाई, ईमानदारी और संघर्ष जैसे मुद्दे गौण हो जाते हैं। 51 सीटों पर भाकपा और लगभग कुल सौ सीटों पर लड़कर वामपंथ सरकार बनाने का न तो दावा कर सकता है और न उसको सत्ता की दौड़ में माना जा सकता है। अतएव स्वतंत्र वोट उसको मिल नहीं पाता। केवल पार्टी कार्यकर्ताओं और पक्के समर्थकों का वोट ही हमें मिला।
  • विगत 25 वर्षों में हम तालमेलों के चलते बहुत ही कम सीटों पर लड़े। इससे जनता के बीच हमारी पहचान खत्म हो गई। तमाम जगह लोगों ने कहा कि बहुत दिनों बाद आये हैं? अथवा क्या यह कोई नई पार्टी है? हमारे तमाम कार्यकर्ता और प्रत्याशी चुनाव लड़ने के तौर-तरीकों को भी भूल चुके हैं।
  • जहां एक ओर बेतहाशा धन और शराब बांटी जा रही थी, वहीं हमारे पास पर्याप्त प्रचार सामग्री व अन्य साधन भी नहीं थे। गिनी-चुनी सीटों को छोड़ कर हमारे अधिकतर प्रत्याशियों ने 30 हजार से 1 लाख रूपये के बीच खर्च किया।
  • धनबल, जातिवाद, बाहुबल का मुकाबला मजबूत, सक्रिय और व्यापक आधार वाले संगठन से ही किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में चुनाव योग्य सांगठनिक मशीनरी हमारे पास नहीं थी। हर बूथ पर हमारा संगठन होना चाहिये लेकिन यह कुछ ही बूथों पर सिमटा था।
  • पार्टी की छवि जनता के बीच बेहद अच्छी है जिसे संगठन और साधनों के अभाव में हम भुना नहीं सके। हमारी पार्टी संसाधन भी संगठन के जरिये ही जुटा सकती है। संगठन कमजोर होने के कारण साधन भी सीमित थे। यहां तक कि हम अधिक जनसभायें भी नहीं कर पाये और यदि की भी तो उनमें अधिक लोग नहीं जुटा पाये।
  • जमीनी स्तर पर जन संगठनों का भी अभाव था। हमारी पार्टी सदस्यता का भी बड़ा भाग सक्रिय नहीं हो सका। पूंजीवादी दलों की तमाम विकृतियां इस बीच हमारे संगठन में प्रवेश कर गई हैं।
  • कई जगह स्थानीय पार्टी कमेटी एवं प्रत्याशियों के बीच तालमेल नहीं था। कहीं पार्टी प्रत्याशी के भरोसे पूरा चुनाव छोड़े बैठी रही तो कहीं प्रत्याशी अपने ढंग से चुनाव लड़ रहे थे और पार्टी को नजरंदाज कर रहे थे।
  • ऊपर से नीचे तक चुनाव से पूर्व आवश्यक चुनावी तैयारी नहीं की जा सकी थी। पहले राज्य पार्टी एआईएसएफ की प्लेटिनम जुबली समारोह में व्यस्त रही। उसके तत्काल बाद जिला सम्मेलन व राज्य सम्मेलन में जुटी रही। राज्य सम्मेलन के तत्काल बाद ही चुनाव की घोषणा हो गई और हमें तैयारी के लिये कोई मौका नहीं मिला। जिन 30 प्रत्याशियों की सूची राज्य सम्मेलन से पूर्व जारी कर दी गई थी, वे भी चुनावी तैयारी में नहीं जुटे। कईयों को तो ऐसा लग रहा था कि अंततः किसी से तालमेल हो जायेगा और उन्हें लड़ने का मौका नहीं मिलेगा। पूर्व के अनुभव कुछ ऐसे ही हैं। चुनावों से पूर्व यदि तैयारी हुई होती तो नतीजे थोड़े बेहतर होते।
हमारी पार्टी संसदीय लोकतंत्र के तहत लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेती है। चुनाव इस व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं। अतएव हमें चुनावों को भी इतना ही महत्व देना होगा जितना कि आन्दोलन, संगठन निर्माण तथा पार्टी की विचारधारा के फैलाव को। संघर्ष, संगठन निर्माण एवं विचारधारा के प्रसार के बिना चुनावों में सफलता पाना संभव नहीं है तो बिना चुनावों में भागीदारी के संघर्ष, संगठन और विचारधारा का प्रसार संभव नहीं है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। अतएव हमें निम्न बातों पर फोकस करना होगा:
  • हमें पार्टी का एक वोट आधार निर्मित करना होगा। जाहिर है हम जातिवादी तौर तरीकों से यह काम नहीं कर सकते। हमारा वोट आधार ग्रामीण मजदूर, किसान, शहरी गरीब व निम्न मध्य वर्ग, दलितों एवं पिछड़ों के वे तबके जो अभावग्रस्त हैं, अल्पसंख्यकों के दस्तकार तबके, गरीबी की सीमा के नीचे रहने वाले लोग, बुद्धिजीवी, आम छात्र तथा नौजवान हो सकते हैं, हमें उनको अपने साथ जोड़ना होगा। सम्पन्न और विपन्न के बीच विभाजन रेखा खींच कर हमें विपन्नों को अपने साथ लामबंद करना होगा।
  • हमें इन सभी के बीच जन संगठन एवं पार्टी बनाकर उनके ज्वलंत सवालों पर अलग-अलग और संयुक्त आन्दोलन खड़े करने होंगे। साथ ही साथ उन्हें पार्टी के सिद्धांतों, कार्यक्रमों और उद्देश्यों से परिचित कराना होगा।
  • 6    हमें पंचायत, नगर निकाय, सहकारी समितियों, विधानसभा और लोकसभा के चुनावों में लगातार भागीदारी करनी होगी ताकि आन्दोलनों के जरिये जुड़े लोग चुनाव में भी हमारे साथ जुड़े रहें। चुनाव इस ढंग से लड़े जायें कि एक चुनाव का फायदा दूसरे में मिले।
  • 6    चुनावों से पहले और चुनावों के दरम्यान हमें सभाओं, नुक्कड़ सभाओं, मुद्दों व विचारधारापरक पर्चों का ज्यादा इस्तेमाल करना होगा। जनसम्पर्क अथवा वैयक्तिक एप्रोच से पार्टी को ज्यादा लाभ नहीं मिलता।
  • 6    गत वर्षों में राज्य केन्द्र की ओर से एक के बाद एक आन्दोलनों के कार्यक्रम दिये जाते रहे और जिला कमेटियां उन पर अमल भी करती रहीं। लेकिन स्थानीय सवालों पर बहुत कम आन्दोलन हुये हैं। स्थानीय सवालों पर अधिक आन्दोलन छेड़े जायें और उन्हें निर्णायक स्थिति तक पहुंचाया जाये।
  • भाकपा अपने ठोस जनाधार और पार्टी संगठन के बलबूते पर ही चुनावों में सफलता अर्जित कर सकती है। अतएव हमें बूथ स्तर पर पार्टी संगठन और जनसंगठनों का निर्माण करना होगा। इस तरह साथ जोड़े गये लोगों को पार्टी शिक्षा आदि के जरिये वैचारिक रूप से जोड़ना होगा। जन सम्बंधों को मजबूत बनाने के लिये सामाजिक, सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयोजनों में ज्यादा से ज्यादा भागीदारी करनी होगी।
  • पार्टी को आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा। इसके लिये नियमित रूप से फण्ड/अन्न संग्रह अभियान चलाते रहने होंगे।
  • भाकपा का लक्ष्य समाजवादी व्यवस्था का निर्माण है। हमें चुनावों को इस लक्ष्य को प्राप्त करने का साधन समझना चाहिये। अतएव पार्टी स्तर से चुनाव की तैयारी होनी चाहिये। प्रत्याशी के ऊपर चुनाव थोप देना घातक होगा। प्रत्याशी की हैसियत के मुताबिक उसका भी योगदान लेना चाहिये।
  • पार्टी संगठन के भीतर पनपी पूंजीवादी विजातीय विकृतियों से हमें निर्ममता से लड़ना होगा।
  • आसन्न निकाय चुनावों में हमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिये। लड़ी जाने वाली सीटों को जीतने का पूरा प्रयास करना चाहिये। चुनाव के दौरान पर्चों, पोस्टरों तथा सभाओं के जरिये पार्टी की राजनीति जनता के बीच ले जानी चाहिये। पार्टी तथा जन संगठनों के विस्तार को ध्यान में रखते हुये जनसम्पर्क बढ़ाना चाहिये।
  • आगामी लोकसभा चुनावों की तैयारी अभी से की जानी चाहिये। सीटों को चिन्हित कर वहां आन्दोलन, जनसंघर्ष, पार्टी एवं जन संगठनों का बूथ स्तर तक निर्माण शुरू कर देना होगा।
हमको पूरा भरोसा है कि अपने जनाधारों को विस्तृत करने, विकृतियों को दूर करने और विभिन्न स्तरों के चुनावों में भागीदारी करने की अपनी सतत योजना से तथा समसामयिक राजनैतिक परिस्थितियों में कारगर दखल से हम विपरीत परिस्थितियों को जरूर ही बदल पायेंगे। दृढ़ विश्वास है कि विभिन्न निकायों में अपना प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर पायेंगे।
मंजिल मुश्किल हो सकती है पर असंभव नहीं है।
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