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शुक्रवार, 27 मई 2011

....... मेरे मरने के बाद - लोहिया



डा. राम मनोहर लोहिया की जन्मशती के मौके पर अखबारों में प्रकाशित एक लेख का शीर्षक है - ”मुझे याद करेंगे लोग मेरे मरने के बाद“। मरने के बाद मनुष्य की अच्छाइयों को याद करने की प्राचीन भारतीय परम्परा है। इसलिये स्वाभाविक ही लोहिया ने ऐसी आशा की होगी। महाभारत युद्ध की विनाश लीला का सेनापति भीष्म ने भी मरने के ठीक पहले शरशैया पर लेटे अपनी ‘प्रतिज्ञा’ के दुष्परिणामों और यहां तक कि उस प्रतिज्ञा को न तोड़ पाने की अपनी विवशता पर अफसोस जाहिर किया था। लोहिया आज जिन्दा होते तो यह मानने के अनेक कारण हैं कि वे भीष्म की तरह विवेकहीन प्रतिज्ञा से बंधे रहने की गलती नहीं दोहराते और वे खुलकर अपने शिष्यों के कारनामों के विरूद्ध खड़े हो जाते। उन्होंने केरल में अपनी सोशलिस्ट पार्टी की सरकार द्वारा गोली चलाये जाने का विरोध किया और सरकार से इस्तीफा की मांग की थी।

 
लोहिया अपने को ‘कुजात गांधीवादी’ कहते थे और गांधी जी के शिष्यों को ‘मठवादी’ कह कर निंदा करते थे। पर लोहिया की विडंबना यह रही कि उन्होंने व्यावहारिक राजनीति में गांधी जी के साधन और साध्य की शुद्धता के सिद्धान्त से हमेशा परहेज किया। लोहिया ने आजादी के बाद फैल रही आर्थिक विषमता के प्रश्न को लेकर बहुत ही जोरदार तर्कपूर्ण तरीके से आम आदमी की वास्तविक आमदनी ‘तीन आने’ का कठोर सत्य उजागर किया, किन्तु आर्थिक विषमता को पाटने के जिस कार्यक्रम पर अमल किया, उसका समाजवाद से दूर-दूर का भी रिश्ता नहीं था। कहते हैं, नरक जाने का रास्ता नेक इरादे से खोदे गये थे। एक जमाने में कांग्रेस का विकल्प बनने का सशक्त दावेदार समाजवादी आन्दोलन का आज कहीं अता-पता नहीं है। नाम के समाजवादी भी आज कोई समाजवादी नहीं रह गये। लोहिया जन्मशती के मौके पर मूल्यांकन जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ?

 
राजनीति में विचार और आचार का मेल कठिन होता है। लेकिन राजनीति के मदारी कठिन से कठिन बेमेल कामों को सहज भाव से अंजाम देते हैं। लोहिया भारतीय संस्कृति और सभ्यता के पक्के समर्थक थे, किन्तु वे कट्टर रूढ़िविरोधी प्रतिमाभंजक भी थे। वे राजनीति के चमकते सितारों का प्रतिमाभंजन कठोरता से करते थे। उनके तर्कों के तीक्ष्ण वाण राजनीति के बड़े से बड़े स्थापित सूरमाओं को विचलित करते थे। लोहिया ने एक तरफ जाति तोड़ो अभियान चलाया तो दूसरी तरफ ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ के नारे के साथ जातियों की संख्या के आधार पर आरक्षण और सत्ता में भागीदारी का राजनीतिक दावा प्रस्तुत किया। इस नारे का व्यावहारिक परिणाम, या यों कहें कि लाजिमी नतीजा यह हुआ कि गरीबी-अमीरी का संघर्ष पृष्ठभूमि में ओझल हो गया और जातीय एवं साम्प्रदायिक अस्मिता का टकराव भारतीय राजनीति का मुख्य एजेंडा बन गया।

 
यद्यपि जाति, धर्म और लिंग का भेदभाव संविधान विरूद्ध है, किन्तु लोहिया ने जाति आधारित पिछड़ावाद को क्रान्तिकारी घोषित किया। बाद के दिनों में जातिवाद और सम्प्रदायवाद लोकतांत्रिक चुनाव के अचूक हथकंडे बने। एक ने कहा: ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’ तो दूसरे ने कहा: ‘गर्व से कहो हम चमार हैं’। ‘जाति तोड़ो’ का सामाजिक आन्दोलन ‘जाति समीकरण’ के राजनीतिक प्रपंच में तब्दील हो गया। समाजवादी आंदोलन के जिन नेताओं ने अपने नामों से जाति सूचक पदवी हटा ली थी, उनके शिष्यों ने मतदाताओं के मध्य अपनी जातीय पहचान बनाने के लिये फिर से जाति सूचक पदवी (टाइटल) धारण कर ली। मुलायम सिंह ‘मुलायम सिंह यादव’ हो गये। उसी प्रकार लालू प्रसाद ‘लालू प्रसाद यादव’ हो गये। अपने विचारों और आचारों के परस्पर विरोधी मिश्रण के ऐसे ही अद्भूत प्रतिनिधि थे लोहिया। यहां यह निष्कर्ष निकालना अनुचित होगा कि ऐसी ही उनकी मंशा थी, प्रत्युत ऐसे नारों का यही हस्र होना था। बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से खायें?

 
राजनीति की तात्कालिक आवश्यकताएं अनेक अवसरवाद को जन्म देती हैं और फिर उस अवसरवाद का औचित्य ठहराने के लिए सिद्धांत और तर्क ढूंढ़ लिये जाते हैं। ऐसा ही एक नारा था ‘गैर-कांग्रेसवाद’। सत्ता में कांग्रेसी एकाधिकार तोड़ने के लिए लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद का मोर्चा खोला। उन्होंने सरकार को बराबर उलटने-पलटने की प्रक्रिया को ‘जिन्दा लोकतंत्र’ बताया और सत्ता पर कब्जा करने के लिए टूटो, जुड़ो और ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की व्यूह-रचना विकसित की। पर उनके जीते जी उन्हीं की देखरेख में इस सिद्धान्त पर बिहार में बनी पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की हवा निकाल दी उनके ही परम शिष्य बी.पी.मंडल ने। ताबे की रोटी को उलटने-पलटने की लोहियावादी तकनीक अजमाते हुए बी. पी. मंडल बिहार के मुख्यमंत्री बन गये। बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार को तोड़ दिया लोहिया के ही शिष्यों ने, और वह भी कांग्रेस की सहायता से। ऐसा कर लोहिया के शिष्यों ने बिहार में फिर से कांग्रेस राज की वापसी का मार्ग प्रशस्त किया।

 
सर्वविदित है कि यही बी. पी. मंडल बाद में पिछड़ावाद के पुरोधा बने। इनके नाम पर मंडलवाद का झंडा लहराया जो लोहियावाद से भी ज्यादा तेजी से लोकप्रिय हुआ। फिर भी मंडलवादियों के प्रेरणाश्रोत लोहिया ही बने रहे।

 
गैर-कांग्रेसवाद के लोहियावादी पुरोधाओं में मंडल अकेले नहीं रहे, जिन्होंने सत्ता के लिये कांग्रेसी बैशाखी को थामने में कभी संकोच नहीं किया और कांग्रेस को स्थायित्व प्रदान किया। ख्यात लोहियावादी मुलायम सिंह और चर्चित जेपी आन्दोलन के वीर बांकुड़ा लालू प्रसाद ने भी कांग्रेस की बैशाखी से कभी संकोच नहीं किया। परमाणु के मुद्दे पर जब वामपक्ष ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व की कांग्रेस नीत संप्रग-एक सरकार से समर्थन वापस लिया तो समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह ने कांग्रेस सरकार को संजीवनी बूटी प्रदान किया। यही नहीं 1.76 लाख करोड़ के 2-जी घोटाले की जांच कर रही लोक लेखा समिति में मतदान के समय सपा और बसपा कांग्रेस सरकार के संकटमोचक की भूमिका में सामने आये।

 
लोहिया समानता और सादगी के प्रतीक और भ्रष्टाचार के प्रखड़ विरोधी थे, किन्तु उनके आधुनिक शिष्य चारा घोटाला और आय से अधिक अप्रत्याशित धन-सम्पदा रखने के अभियुक्त हैं। अपने शिष्यों के कारनामों को देखकर लोहिया की आत्मा निश्चय ही विचलित होती होगी।

 
देश में आज भी अनेक व्यक्ति और व्यक्तियों के समूह हैं, जो दूसरों को अशुद्ध और अपने को विशुद्ध लोहियावादी होने का दावा करते हैं। उन सबों को वैसा करने का बराबर का हक है। पर प्रश्न यह है कि यदि आज लोहिया जिन्दा होते तो क्या वे अपने आधुनिक शिष्यों की पंक्ति में खड़ा होना पसन्द करते?

 
गतिशील उत्पादक शक्तियां

 
लोहिया ने अनेक पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं। उनमें एक है ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ (मार्क्स से आगे का अर्थशास्त्र)। मार्क्सवादी वर्ग दृष्टिकोण की चर्चा करते हुए लोहिया कहते हैं: ‘गतिहीन वर्ग जाति है और गतिशील जाति वर्ग है।’ उनका यह जुमला भी उनके गंभीर अंतर्द्वन्द्व को प्रकट करता है। यह जुमला मुर्गी से अंडा कि अंडा से मुर्गी जैसी पहेली है। यद्यपि लोहिया अपने इस कथन में गति कि सत्यता स्वीकारते हैं, किन्तु साथ ही गति के स्वाभाविक फलाफल को नकारते हैं। इस जुमले के दोनों विशेषण ‘गतिहीन’ और ‘गतिशील’ आकर्षक किन्त अर्थहीन और मिसफिट आभूषण मात्र हैं।

 
समाजशास्त्री हमें बताते हैं कि गति के अभाव में विकास प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ती है। विकास प्रक्रिया में गति अंतर्निहित होती है और उसी प्रकार उसका प्रतिफल परिवर्तन भी। वर्ग और वर्ग दृष्टिकोण औद्योगिक क्रान्ति के बाद पैदा हुआ कारक है। उसके पहले जातियां जन्म ले चुकी थीं। सामंती युग में जातियां अस्तित्व में आयीं। सामंती युग के पहले वर्गों का उदय ही नहीं हुआ था तो उसका जाति में संक्रमण कैसे संभव हुआ होगा? अगर यह मान भी लिया जाये कि लोहिया का यहां मतलब आदिम श्रम विभाजन से है, जिसका जातीय रूपांतरण सामंती समाज में हुआ तो यह मानना और भी ज्यादा तार्किक होगा कि सामंती युग की ‘गतिशील जातियां’ ही औद्योगिक युग का आधुनिक मजदूर है। जाहिर है, ऐसी अवधारण हमें अंधगली में धकेलती है।

 
मानव विकास की प्रक्रिया किसी भी अवस्था में गतिहीन नहीं होती है। समाज विकास निरंतर गतिशील प्रक्रिया है, जो हमेशा इतिहास के एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु की तरफ बढ़कर परिवर्तन और फिर परिवर्तन को जन्म देती है। समाज विकास में कभी भी गतिहीन अवस्था नहीं आती। इसलिये ‘गतिहीन वर्ग’ और ‘गतिशील जाति’ की अवधारणा गुमराह करने वाली भ्रामक मुहावरेबाजी से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

 
मार्क्स ने मजदूर वर्ग को सामाजिक प्रगति का वाहक बताया और वर्ग विहीन, शोषण विहीन और शासन विहीन समाज का खाका तैयार किया, जबकि लोहिया मजदूर वर्ग को ‘गतिहीन’ वर्ग बता कर उसे जाति की जड़ता में डूबने का दोषी मानते हैं और जातियों को गतिशील बनाकर जातिविहीन समाज निर्माण का खाका बुनते हैं। 1980 के बाद के तीन दशकों में हमने देश की ‘गतिशील जातियों’ का जलवा देखा है। क्या इससे लोहिया का सपना पूरा होता दिखता है? लोहिया की जन्मशती के मौके पर इसका मूल्यांकन जरूरी है।

 
इन वर्षों के व्यावहारिक जीवन में हमने देशा है कि यथास्थितिवाद की शासक पार्टियां - कांग्रेस और भाजपा ने जातीय राजनीति का प्रबंधन (उनके शब्दों में सोशल इंजीनियरिंग) ज्यादा सक्षम तरीके से किया और इसी अवधि में बिहार, उत्तर प्रदेश, हिमाचल, मध्य प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान समेत केन्द्र में भी भाजपा सरकार बनाने में कामयाब हुई। इस कवायद में लोहियावादी सोशलिस्ट भी जहां-तहां तांक-झांक करते और कभी इधर तो कभी उधर कंधा लगाते देखे गये। गरीबों की खुशहाली का संघर्ष संप्रदायवाद और जातिवाद की मधांधता में डूब गया। गतिशील जाति और संप्रदाय ने पूंजीवादी सत्ता को स्थायित्व प्रदान किया। पूंजीवाद सामंती पारंपरिक सामाजिक विभाजन को सहलाकर अपना आधार मजबूत करता है और बदले में कुछ रियायतें भी पेश करता है। देश में जब मंडल-कमंडल युद्ध चल रहा था तो उसी अवधि में वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीतियों का घोड़ा सरपट दौड़ रहा था।

 
यहां नस्लभेद का जातिभेद के साथ घालमेल करना गलत होगा। नस्ल का सम्बंध रक्त से होता है, जबकि जाति का सम्बंध आदिम श्रम विभाजन अर्थात कर्म से जो कालक्रम में जन्मजात हो गया। एक रक्त का जन समूह एक जगह पला-बढ़ा और इससे रक्त आधारित नस्लीय जनसमूह का निर्माण हुआ। कालक्रम में पलायन और प्रव्रजन से नस्लों का भी मिश्रण और समन्वय हुआ। खलीफा, सरदार, राजा, बादशाह, किंग, सम्राट आदि रक्त आधारित कबीलाई प्रभुत्व व्यवस्था की प्रारंभिक अभिव्यक्तियां हैं।

 
औद्यौगिक क्रान्ति के बाद जो नया पूंजीवादी बाजार बना, उसमें रक्त सम्बंधों पर आधारित पुराना नस्लीय विभाजन और जन्मजात जातियों के अस्तित्व अर्थहीन होते चले गये। पूंजीवादी अर्थतंत्र में जाति आधारित कार्यकलाप सिकुड़े और उनकी सामाजिक भूमिका शादी-विवाह और पर्व-त्यौहारों तक सीमित हो गयी।

 
पूंजीवाद माल उत्पादन और व्यापार का मकसद मुनाफा कमाना होता है। लाभ लिप्ता की पूर्ति के लिये इंसानी शोषण प्रणाली का दूसरा नाम पूंजीवादी निजाम है। लोगों ने प्रत्यक्ष देखा कि एक ही रक्त समूह का शोषक अपने ही रक्त समूह के लोगों का शोषण बेहिचक कर रहा है। इसलिये पूंजीवाद में स्वार्थ का सीधा टकराव शोषितों और शोषकों के बीच हो गया। एक तरफ सभी नस्लों व जातियों का विशाल शोषित जनसमूह का नया वर्ग मजदूरों और किसानों के रूप में प्रकट हुआ, वहीं दूसरी तरफ जमींदार और पूंजीपति के रूप में नया अत्यंत अल्पमत शोषक वर्ग चिन्हित हुआ।

 
क्रान्ति का अर्थ होता है व्यवस्था परिवर्तन इसलिये औद्योगिक क्रान्ति के बाद जो नई पूंजीवादी व्यवस्था उभरी उसने पुराने सामंती सम्बंधों को उलट-पुलट कर रख दिया। कार्ल मार्क्स बताते हैं आर्थिक परिवर्तन की गति तेज होती है, किन्तु आर्थिक प्रगति के मुकाबले सामाजिक रिश्तों में परिवर्तन की गति मंद होती है। फिर परिवर्तन के बाद भी नये समाज में पुराने सामाजिक सम्बंधों के अवशेष विद्यमान होते हैं।

 
उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में निरन्तर हो रहे बदलाव का विशद विश्लेषण करते हुए मार्क्स इस नतीजे पर पहुंचे कि वैज्ञानिक तकनीकी अनुसंधान के चलते उत्पादन शक्तियों का विकास तेज गति से होता है, किन्तु इसके मुकाबले उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की विकास गति धीमी होती है। इसके चलते उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों में स्वाभाविक विरोधाभाष होता है। इस तरह उत्पादन शक्तियों में परिवर्तन की गति तीव्रतम होती है, वहीं उत्पादन सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतर और सामाजिक सम्बंधों में परिवर्तन की गति मंदतम होती है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन का सम्बंध इंसान की आदतों, रीति-रिवाजों और स्वभाव के साथ जुड़ा होता है जो आसानी से पीछा नहीं छोड़ते। उत्पादन शक्तियों और उत्पादन सम्बंधों का विरोधाभाष तथा उनका सामाजिक सम्बंधों में टकराव सामाजिक विकास के इतिहास के हर मंजिल पर भली प्रकार से देखा जा सकता है। ये टकराव अनेक सामाजिक विरोधाभाषों को जन्म देते हैं। नये आर्थिक टकरावों के परिणाम तीक्ष्ण, निर्णायक और अग्रगामी होते हैं, जबकि पुराने सामंती सामाजिक विरोधाभाषों के परिणाम शिथिल, गौण और प्रतिगामी होते हैं। इसलिये मार्क्स मानव इतिहास को वर्ग संघर्षों का इतिहास बताते हैं और वे मानवता की नियति पूंजीवाद में नहीं, बल्कि पूंजीवाद के विनाश में देखते हैं। मार्क्स पूंजीवाद से आगे बढ़कर समानता पर आधारित शोषणविहीन, शासन रहित समाज का नया नक्शा पेश करते हैं।

 
इसके विपरीत लोहिया मानव इतिहास को जातियों की लड़ाइयों की संज्ञा देते हैं। लोहिया यहीं नहीं रूकते, वे पूंजीवाद और साम्यवाद को पश्चिमी औद्योगिक सभ्यता की जुड़वां संतान बताकर निंदा तो करते हैं किन्तु पूंजीवाद के विकल्प के रूप में जो कुछ उन्होंने परोसा, वह उनका ख्याली पुलाव साबित हुआ। लोहिया आजीवन फ्रांस और जर्मनी के मध्ययुगीन कल्पनावादी समाजवादियों की पांत में ही भटकते रहे और अपने समाजवादी कार्यक्रम को गांधी जी की विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के साथ घालमेल करते रहे।

 
मार्क्स ने अपने पूर्ववर्ती और समकालीन कल्पनावादी समाजवादियों की अवधारणाओं के खोखलेपन की आलोचना की और उससे अलग हटकर वैज्ञानिक समाजवाद की स्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की। उन्होंने सभी तरह के विरोधाभाषों पर काबू पाने के लिए पूंजीवादी उत्पादन शक्तियों पर सामाजिक स्वामित्व कायम करने का सुझाव दिया। किन्तु इस प्रश्न से लोहिया हमेशा बचते रहे और आजीवन गोल-मटोल बातें करते रहे।

 
अलबत्ता यह विवाद का विषय बना रहा कि उत्पादन के साधनों पर सामाजिक स्वामित्व का क्या रूप होगा। अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत यूनियन में उत्पादन के तमाम साधनों का राष्ट्रीयकरण किया गया। यह समझा गया कि राष्ट्रीयकरण अर्थात सरकारी स्वामित्व उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व की दिशा में उठाया गया पहला कदम है। चूंकि राज्य सत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में है, इसलिये सरकारी स्वामित्व को विकासक्रम में सामाजिक स्वामित्व में परिवर्तित किया जा सकेगा। समाजवादी विकास प्रक्रिया की उच्च अवस्था में धीरे-धीरे राज्य का अस्तित्व सूखता जायेगा और अंततः सरकारी स्वामित्व भी सामाजिक स्वामित्व में रूपांतरित हो जायेगा। समाजवाद के सोवियत प्रयोग में यह अपेक्षा पूरी नहीं हुई। समाजवाद एक व्यवस्था है, एक प्रणाली है, जिस पर चल कर साम्यवादी अवस्था हासिल की जाती है। समाजवाद के सोवियत मॉडल टूटने का यह अर्थ नहीं है कि समाजवाद असफल हो गया। पूंजीवाद संकट पैदा करता है, समाधान नहीं। समाधान समाजवाद में है, नये सिरे से दुनियां में समाजवादी प्रयोग का चिंतन चल रहा है।

 
लोहिया के आधुनिक शिष्य अपने कृत्यों को महिमामंडित करने के लिये लोहिया का नाम जपते हैं, किन्तु वास्तविकता में अपने कर्मो से वे लोहिया के उत्तराधिकारी नहीं रह गये हैं। वे लोहिया के विचारों और आदर्शों से काफी दूर विपरीत दिशा में भटक गये हैं, जहां से उनकी वापसी अब मुमकिन नहीं दिखती है। जिस प्रकार हाल के दिनों में श्रमिक वर्ग और उनके ट्रेड यूनियन इकट्ठे होकर संयुक्त कार्रवाई कर रहे हैं, उसी प्रकार कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट के बीच ईमानदान सह-चिंतन की आवश्यकता है।

 
दलित चेतना से वर्ग चेतना

 
दलित चेतना की चर्चा किये बगैर यह परिचर्चा पूरी नहीं होगी। डा. अम्बेडकर का राजनीतिक चिंतन भी जाति व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रभावित था। 1920 के दशक में ही वे दलितों के लिये पृथक मतदान की मांग करने लगे थे, जिसे उन्होंने 1932 में पूना पैक्ट के बाद वापस ले लिया। जेएनयू के प्राध्यापक और दलित चिंतक डा. तुलसी राम लिखते हैं: ”डा. अम्बेडकर 1920 और 30 के दशक में जाति व्यवस्था के विरूद्ध उग्ररूप धारण किये हुए थे। वाद में उन्होंने ‘सत्ता में भागीदारी’ के माध्यम से दलित मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। कांसीराम ने सत्ता में भागीदारी को ‘सत्ता पर कब्जा’ में बदल दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने नारा दिया - ‘अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो’।“

 
इस नारे के तहत विभिन्न दलित एंव पिछड़ी जातियों के अलग-अलग सम्मेलन होने लगे। इस प्रकार सत्ता पर कब्जा करने के लिये जातीय समीकरण का नया दौर आरंभ हुआ। मंडल कमीशन लागू होने के बाद इस जातीय ध्रुवीकरण का बेहद उग्र रूप सामने आया। इससे उत्तर प्रदेश में बसपा को और बिहार में लालू प्रसाद की पार्टी को बहुत फायदा हुआ। मायावती ने 1993 में पिछड़ा-दलित गठबंधन और 2007 में दलित-ब्राम्हण एकता समीकरण के सहारे उत्तर प्रदेश विधान सभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया। इसी तरह बिहार में लालू ने मुस्लिम-यादव समीकरण के सहारे वर्षों राज किया।

 
इन परिघटनाओं पर दलित चिंतक डा. तुलसी राम सवाल उठाते हैं: ”जातीय ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव जीतकर सत्ताधारी तो बना जा सकता है, किन्तु जाति उन्मूलन की विचारधारा को मूर्तरूप नहीं दिया जा सकता है।“ डा. तुलसी राम यहीं नहीं रूकते हैं। वे और आगे बढ़कर लिखते हैं कि ”बुद्ध से लेकर अम्बेडकर तक ने जातिविहीन समाज में ही दलित मुक्ति की कल्पना की थी, किन्तु आज का भारतीय जनतंण पूर्णरूपेण जातीय, क्षेत्रीय और साम्प्रदायिक जनतंत्र में बदल चुका है। ऐसा जनतंत्र राष्ट्रीय एकता के लिए वास्तविक खतरा है।“ डा. तुलसी राम अपने आलेख का समापन डा. अम्बेडकर की प्रसिद्ध उक्ति से करते हैं: ”जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं है।“

 
पर जातिविहीन समाज की स्थापना कैसे हो? इस प्रश्न का उत्तर चर्चित दलित लेखक चन्द्रभान प्रसाद निम्न प्रकार से देते हैं: ”भारत को अगर जाति विहीन समाज बनाना है तो लाखों दलितों को पूंजीपति बनकर गैरदलितों को नौकरी पर रखना होगा। लाखों दलितों को प्रतिवर्ष गैर दलित साले-सालियां, सढुआइन एंव गैर दलित सास-ससुर बनाने चाहिये। इसी प्रक्रिया से जाति व्यवस्था टूटेगी, दलित-गैर दलित का भेद समाप्त होगा, समाज में भाईचारा बढ़ेगा तथा भारत एक सुपर पावर के रूप में दुनियां में अपनी पहचान बनायेगा। यही होगा डा. अम्बेडकर के सपनों का भारत।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
कैसे लाखों दलित पूंजीपति बनेंगे और किस प्रकार लाखों दलित प्रतिवर्ष गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे? डा. अम्बेडकर के जन्मदिन के मौके पर लिखे अपने आलेख में चन्द्र भान प्रसाद इस प्रश्न के उत्तर में अमरीका का उदाहरण देते हैं, जहां उनकी राय में ”अश्वेत पूंजीवाद का उदय“ हुआ है। प्रसाद सूचित करते हैं कि ”ओबामा को राष्ट्रपति बनने के समय अमरीका में अश्वेतों के पास करीब दस लाख श्वेत साले, पांच लाख श्वेत सालियां एवं सरहज घूम रहीं थीं।“ (राष्ट्रीय सहारा, 14 अप्रैल 2011)

 
अमरीका के अश्वेतों के पास कितने श्वेत साले-सालियां हैं, इससे भारत को कोई लेना देना नहीं है। हां, अमरीका में सफेद पूंजीवाद है या काला, इस पर बहस हो सकती है, किन्तु यह निर्विवाद है कि अमरीका में जो कुछ है वह निःसंदेह नंगा पूंजीवाद है। प्रसाद अपने आलेख में इसका कोई संकेत नहीं देते हैं कि भारत में ‘दलित पूंजीवाद’ कायम करने की उनकी क्या योजना है? और यह भी वे कैसे गैर दलितों को साले-सालियां, सढुआइन और सास-ससुर बनायेंगे?

 
इस संदर्भ में अपने देश में घटित हाल की कतिपय घटनाओं पर विहंगम दृष्टि डालना प्रासंगिक होगा।

 
  • दक्षिण का ब्राम्हण-विरोधी आन्दोलन किस प्रकार दलित बनाम थेवर-बनियार में बदल गया? और यह भी कि यहां ब्राम्हण उद्योगपति बने तथा दलित-पिछड़े उनके कर्मचारी?
  • पश्चिम भारत का गैर-ब्राम्हण आन्दोलन क्यों दलित बनाम मराठा का रूप ले चुका है? इधर शिवसेना और आरपीआई के चुनावी तालमेल का ताजा समाचार भी प्राप्त हुआ है।
  • बिहार अगड़ा-पिछड़ा झगड़ा अब क्यों पिछड़ा बनाम अति पिछड़ा और दलित बनाम महा दलित के झगड़े में बदल चुका है। यद्यपि लालू और राम विलास पासवान ने दलितों और पिछड़ों का पुराना समीकरण बनाने में अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंक दी फिर भी वे इस नये समीकरण के सामने बुरी तरह पिट गये।
  • उत्तर प्रदेश में 1993 की सम्पूर्ण शूद्र एकता (दलित पिछड़ा मिलन) आज क्यों शूद्र बनाम अतिशूद्र शत्रुता (मुलायम बनाम मायावती) में परिणत हो गयी? और यह भी कि मनुवाद विरोधी दलित नेताओं का मनुवादी ब्राम्हणों से कैसी भली दोस्ती चल रही है। क्या यहां मगध शूद्र सम्राट महानंद द्वारा नियुक्त ब्राम्हण मंत्री कात्यायन और वररूचि का इतिहास दोहराया जा रहा है?
  • क्यों राजस्थान में लड़ाकू गुर्जर आदिवासी बनना चाहते हैं और क्यों गैरद्विज बलशाली भूस्वामी जाट पिछड़ा वर्ग में नाम लिखाने को बेताब हैं?

 
इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढने का समय चन्द्रभान प्रसाद को नहीं है क्योंकि पूंजीवाद की विविधता का गुणगान करने के लिये उन्हें अक्सरहां अमरीका में व्यस्त रहना पड़ता है। वे क्यों भारत की विविधताओं में माथा खपायें? उनकी राय में पूंजीवाद का अमरीकी मॉडल ही भारत के लिये आदर्श है। उनके लिये यह समझना कठिन है कि पूंजीवाद किसी का भला नहीं करता। न तो दलितों का, न ही पिछड़ों का, न ही अगड़ों का और न आम आदमी का भला पूंजीवाद में है, चाहे वह ‘दलित पूंजीवाद’ ही क्यों न हो। पूंजीवाद का मकसद मुनाफा कमाना होता, जिसका श्रोत इंसान द्वारा इंसान का शोषण है। दलित पूंजीपति दलितों को भी नहीं बख्सता। दलित मुक्ति का मुद्दा आम आदमी की मुक्ति के साथ जुड़ा है। पूंजीवादी फ्रेमवर्क में दलित मुक्ति तलाशना मरूभूमि में पानी तलाशने का भ्रम पालना है। जातीय ध्रुवीकरण और उसके बनते-बिगड़ते समीकरणों से जो बात साफ तौर पर परिलक्षित होती है, वह यह कि रोजी-रोटी का प्रश्न हल करने में मौकापरस्त तात्कालिक गठबंधन पूरी तरह नाकाम है। इसलिये आगे आने वाले दिनों में भारतीय लोकतंत्र का निर्णायक एजेंडा रोटी-कपड़ा-मकान होगा। जाहिर है, उपर्युक्त घटनाओं में जाति बोध से वर्ग बोध की ओर जनचेतना अभिमुख हो रही है।

 
लोकतंत्र का प्रश्न

 
भारतीय संविधान में राज्य के तीन स्तम्भ हैं - लोकतंत्र, समाजवाद और संप्रदाय निरपेक्षता। अर्थात देश को चलाने के लिये एक ऐसी सरकार हो, जिसे देश की जनता चुने, वह सरकार समाजवादी हो जो समाज में सुख-चैन स्थापित करे और वह सरकार संप्रदाय निरपेक्ष हो अर्थात किसी संप्रदाय विशेष की तरफदारी किये बगैर सभी जन सम्प्रदायों के प्रति समभाव का बर्ताव करे।

 
देश की जनता ने पूंजीवादी, उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी शोषण एवं दमन के खिलाफ लड़कर आजादी हासिल की थी। इसलिये यह स्वाभाविक ही था कि भारतीय संविधान का मूल चरित्र गैर-पूंजीवादी बनाया गया। देश की संपदा कुछेक व्यक्तियों के हाथों में सिमटने पर पाबंदी लगाने का प्रावधान संविधान के एक अनुच्छेद में किया गया। इस प्रावधान को मजबूती और स्पष्टता प्रदान करने के लिये बयालिसवें संशोधन के माध्यम से समाजवाद को संविधान का महत्वपूर्ण स्तम्भ घोषित किया गया।

 
भारतीय संविधान की विशेषता है कि सरकार को जनहित में क्या करना है, उसकी सूची राज्य के लिये निदेशक सिद्धान्तों के अध्याय में दी गयी है। इस अध्याय में राज्य के लिये स्पष्ट संवैधानिक निदेश है कि वह जनता की खुशहाली मुकम्मिल करने के लिए सबको रोजगार, जीने लायक आमदनी, आवास, स्वास्थ्य, चिकित्सा, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा आदि प्रदान करेगा और बेरोजगार, अपंग, वृद्ध एंव अशक्त होने की स्थिति में सामाजिक सहायता का उपाय करे।

 
पर संविधान का कमजोर पक्ष यह है कि अनुच्छेद 37 में निदेशक सिद्धान्तों में वर्णित बातों का नागरिक अधिकार के रूप में न्यायालय में कानूनी दावा करने से मना कर दिया गया है। इसी अनुच्छेद का फायदा उठा कर शासक वर्ग ने जनता को संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर रखा है। अब समय आ गया है कि अनुच्छेद 37 को विलोपित किया जाये और संविधान के निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन सरकार के लिए बाध्यकारी बनाया जाये।

 
आजाद भारत में विकास की जो योजना बनायी गयी वह गैर-पूंजीवादी योजना नहीं थी। उसे मिश्रित अर्थव्यवस्था का नाम दिया गया। देश के पूंजीपतियों के दवाब में निजी पूंजी की भूमिका निर्धारित कर दी गयी। शुरू में मूल उद्योगों में पूंजीपति निजी पूंजी लगाने को उत्सुक नहीं थे, क्योंकि गेस्टेशन पीरियड लम्बा होने के कमारण रिटर्न देर से मिलता था। इसलिए सरकार ने मूल उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में रखकर पूंजीवादी विकास पथ का इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया और उपभोक्ता वस्तुओं को निजी पूंजीपतियों के हवाले कर दिया।

 
आजादी के दूसरे और तीसरे दशक तक आते-आते पूंजीवाद की विफलता उजागर हुई। सरकार जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में नाकाम रही। जनता का आक्रोश उबल पड़ा। साठ के दशक में आठ राज्यों से कांग्रेसी राज का खात्मा, सत्तर के दशक में आपातकाल की घोषणा, केन्द्र में जनता पार्टी की सरकार और 1980 में कांग्रेस की वापसी आदि इतिहास की बातें हैं।

 
पूंजीवाद और लोकतंत्र एक राह के सहयात्री नहीं हो सकते। पूंजीवाद जमींदार और पूंजीपतियों का अत्यंत अल्पमत लोगों का शासन होता है। पूंजीवाद में शोषितों-पीड़ितों का विशाल बहुमत शासित होता है।

 
इसके विपरीत लोकतंत्र बहुमत लोगों का शासन होता है। इसलिए सच्चा लोकतंत्र का भय हमेशा पूंजीपतियों को सताता है। भयातुर पूंजीपति छल, बल और धन का इस्तेमाल करके शोषितों-पीड़ितों के समुदाय को एक वर्ग के रूप में संगठित होने से रोकता है और उन्हें अपने पीछे चलने को विवश करता है। देश की वर्तमान संसद में साढ़े तीन सौ करोड़पति चुने गये, जबकि देश में 77 प्रतिशत गरीब लोग बसते हैं। ऐसा धनवानों के अजमाये तिकड़मों के चलने संभव होता है।

 
1980 और 90 के दशक में जातियों एवं सम्प्रदायों की उग्र गोलबंदी देखी जाती है। इस अवधि में जातियों और संप्रदायों की अस्मिता के हिंसक टकराव होते हैं, जनता की आर्थिक खुशहाली का एजेन्डा पृष्ठभूमि में ओझल हो जाता है और मंदिर-मस्जिद और मंडल-कमंडल के छलावरण में नग्न पूंजीवाद की नव उदारवादी नीति बेधड़क आगे बढ़ती है। जातियों, सम्प्रदायों और क्षेत्रों में विभाजित मतदाताओं ने मतदान करते समय अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि जाति सरदारों, धर्माधिकारियों और क्षेत्र के फैसलों का अनुशरण किया। यह सच्चा लोकतंत्र नहीं है। पूंजीवादी शक्तियां जातीयता, सम्प्रदायिकता और क्षेत्रीयता को हवा देकर संसद पर हावी हैं। इसी तरह संविधान को समाजवादी आदर्शों की बलि देकर प्रारम्भ हुआ है नग्न पूंजीवाद का वैश्वीकृत युग। नग्न पूंजीवाद भारतीय लोकतंत्र और संविधान में स्थापित मूल्यों का निषेध है। अगर इस प्रक्रिया को रोका नहीं गया तो दलित चिंतक डा. तुलसी राम की चेतावनी बिल्कुल सामयिक है कि इससे देश की राष्ट्रीय एकता को वास्तविक खतरा है।

 
- सत्य नारायण ठाकुर
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बुधवार, 25 मई 2011

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में चल रहे आन्दोलन पर भाकपा महासचिव का. ए. बी. बर्धन के प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र का हिन्दी अनुवाद

23 मई 2011

प्रिय श्री मनमोहन सिंह जी,

मुझे मालुम है कि आप आवश्यक मसलों में व्यस्त हैं। लेकिन मेरा कर्तव्य है कि आपका ध्यान उस संकट की ओर आकर्षित करूं जिसने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो हमारे देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों में एक है, को अपनी चपेट में ले रखा है।

विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. पी. के. अब्दुल अजीज के खिलाफ आन्दोलन चल रहा है। वे आर्थिक हेराफेरी एवं अनियमितताओं के अभियुक्त हैं। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उपकुलपति नियुक्त किये जाने के पहले केरल के कोचीन विश्वविद्यालय के उपकुलपति के रूप में नियुक्ति के दौरान भी उन पर इसी तरह के आरोप लगे थे। विभिन्न अनियमितताओं की जांच के लिए जांच समितियों ने उन्हें इसका दोषी पाया। मैं नही जानता कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गयी।

उपकुलपति के रूप में वे अक्षम रहे हैं। विगत 3-4 वर्षों में विश्वविद्यालय 3-4 बार अनिश्चितकालीन बन्द घोषित किया गया। ताजा उदाहरण 29 अप्रैल 2011 को विश्वविद्यालय का बंद किया जाना है। कारण छात्रों के दो दलों का आपसी विवाद था जिसे आसानी से सूझबूझ का परिचय देकर नियंत्रित किया जा सकता था। यह अनिश्चितकालीन बन्द तब घोषित किया गया जब परीक्षाएं चल रहीं थीं तथा नए छात्रों का प्रवेश होना था। इससे हजारों छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया गया है। उपकुलपति ने प्रेस को सम्बोधित करते हुए कहा कि छात्रावासों में हथियार मौजूद हैं, यहां तक कि महिला छात्रावास में भी। लड़के-लड़कियों से 24 घंटे के अन्दर छात्रावास खाली कराया गया। अन्ततः यह आरोप झूठा निकला और छात्रावासों के किसी भी कमरे से कोई हथियार बरामद नहीं हुआ। लेकिन उपकुलपति जनता की नजरों में विश्वविद्यालय की छवि धूमिल करने में सफल रहे।

शिक्षक, छात्र, पूर्व छात्र और जागरूक जनता ने उपकुलपति को हटाने तथा जांच की मांग की है। दो शिक्षक विगत कुछ दिनों से आमरण अनशन पर बैठे हैं तथा अन्य भी अनशन में भागीदारी कर रहे हैं।

एक गौरवशाली विश्वविद्यालय संकट में है। इस पर सरकार की चुप्पी मेरी समझ में नहीं आ रही है।

अतएव मैं निवेदन करता हूं कि आप क्रुध जन आन्दोलन फैलने के पहले इसमें हस्तक्षेप करें। उपकुलपति को तुरन्ट हटाया जाये। एक उच्च स्तरीय जांच कमेटी का गठन किया जाये। ऐसे कदम उठाये जाएं जिससे दो शिक्षकों का आमरण अनशन तथा शिक्षकों, छात्रों तथा अन्य द्वारा किये जा रहे अनशन को समाप्त किया जा सके। यह सब देश के गौरवशाली विश्वविद्यालय की साख बचाने के लिए आवश्यक है।

मुझे आशा है कि अन्य व्यस्तताओं के रहते हुए आप इस मसले पर तुरन्त ध्यान देंगे।

सादर,

भ व दी य

हस्ताक्षर -

(ए.बी.बर्धन)

श्री मनमोहन सिंह

प्रधानमंत्री

भारत सरकार

नई दिल्ली

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सोमवार, 23 मई 2011

पांच विधान सभाओं के चुनाव परिणाम


संचार माध्यम और वामपंथ के जाने-पहचाने विरोधी इस बेबुनियाद बिंदु पर जोर देने के लिए हर किस्म के सिद्धान्त और आक्षेप फैलाने में जुटे हैं कि वामपंथ की चुनाव में पराजय, खासकर पश्चिम बंगाल में पराजय का अर्थ है देश में वामपंथ का खात्मका। यह महज अनर्गल प्रलाप है।

यह सही है कि पश्चिम बंगाल में वामपंथ को एक बड़ा धक्का लगा है। विधान सभा चुनावों में लगातार सात बार की सफलताओं और लगभग साढ़े तीन दशक तक सत्ता में रहने के बाद वामपंथ सत्ता से बाहर हो गया है। पर यह ध्यान में रखना चाहिये कि वामपंथ साढ़े तीन दशक तक लगातार सत्ता में बना रहा जबकि जिस कांग्रेस को स्वाधीनता के बाद से सत्ता पर इजारेदारी थी, उसे दो दशकों से भी पहले जनता का कोप भाजन बनना पड़ा था और 1967 में नौ राज्यों में सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। वाम मोर्चा का लगभग साढ़े तीन दशक तक सत्ता पर बने रहना स्वयं में बहुपार्टी लोकतंत्र के इतिहास का रिकार्ड बन गया है और यह उस समय तक एक रिकार्ड बना रहेगा जब तक वाममोर्चा भविष्य के चुनावी संघर्ष के लिए फिर से अपनी कमर कसता है और नया रिकार्ड स्थापित करता है।

कांग्रेसजन तथ्यों के खंडन-मंडन का मजाक बनाने में हदों को पार कर रहे हैं। सबसे अधिक उपहासास्पद बात तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रणव मुखर्जी ने कही। उन्होंने चटखारे लेते हुए कहा कि प. बंगाल में वाममोर्चा को पटक कर दो अंकीय आंकड़े पर ला दिया गया है। वह बड़े मजे से भूल गये कि इसी चुनाव में तमिलनाडु विधानसभा में उनकी पार्टी एक ही अंक में सिमट कर रह गयी है जहां कांग्रेस को 294 स्थानों में से मात्र पांच स्थान ही मिले हैं। इसके अलावा केरल में कांग्रेस सत्ता में तो जरूर आ गयी है पर वह नई विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में नहीं आ सकी। यह सम्मान तो वामपंथ की ही पार्टी ने अपने पास बनाये रखा। इसी प्रकार, उन्होंने इस तथ्य को भी नजरंदाज करने की कोशिश की कि उनकी पार्टी से पुडूचेरी में सत्ता छिन गयी है, आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लोकसभा के लिए दो उपचुनावों में उन्हें अपमानजनक तरीके से शिकस्त का मुंह देखना पड़ा; और कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में विधानसभा के लिए सभी उपचुनावों में कांग्रेस के हाथ विफलता ही लगी।

पर इस खंडन-मंडन को यही छोड़ते हैं। दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों और उनके दूसरे वामपंथी सहयोगियों ने सही ही कहा है कि प. बंगाल में वामपंथ को मिली जबर्दस्त हार के लिए गहन आत्म विश्लेषण, और राजनैतिक, सरकारी और संगठनात्मक - सभी क्षेत्रों में अपने कामकाज की समीक्षा की जरूरत है। स्वाभाविक ही है कि एक सांगोपांग समीक्षा के लिए वामपंथी पार्टियों के नेतृत्वकारी निकायों को कुछ समय की जरूरत होगी क्योंकि संबंधित राज्यों की पार्टी इकाईयों द्वारा समीक्षा इस दिशा में पहला कदम होगा।

इस बीच कुछ बातें सुस्पष्ट हैं। वामपंथ को कुछ बुनियादी मुद्दों - जैसे कि आधारभूत जनता के साथ हमारे संबंधों और जुड़ाव, प्रशासन में पारदिर्शता, सत्ता का अहंकार और कुछ हद तक भ्रष्टाचार जो विभिन्न स्तरों पर हमारे संगठनों में घर कर गया है - पर आत्म निरीक्षण की जरूरत है। जनता के जो तबके इन तमाम तीस वर्षों में हमारा समर्थन करते रहे हैं, इन तमाम बातों के बीच परिवर्तन की भावना को पैदा किया जिसका इस बात अप्रत्याशित रूप में कहीं अधिक एकताबद्ध वाम विरोधी ताकतों ने पूरा दोहन किया है। यदि आंकड़ों को देखें तो यह काफी सुस्पष्ट है कि हर किस्म की वाम विरोधी ताकतों की एकता ने वाम मोर्चा की हार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। यह चुनाव वाम मोर्चा और बाकी के मध्य एक दो-धु्रवीय लड़ाई में बदल गया। वाम मोर्चा यद्यपि 62 ही स्थानों पर जीत पाया पर उसे 41 प्रतिशत से थोड़ा अधिक मत प्राप्त हुए।

पर इससे हमें इस गलत नतीजे पर नहीं पहुंचना चाहिए कि मतदाताओं के कुछ तबकों ने पक्ष नहीं बदला है। सबसे अधिक सुस्पष्ट शिफ्ट है मुस्लिम समुदाय की जो राज्य के कुल मतदाताओं का 27 प्रतिशत हैं। हालांकि वाममोर्चा के विरूद्ध मतदान करने के बाद भी, एक आम मुसलमान यही कहेगा कि केवल कम्युनिस्ट ही हैं जिनकी धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्धता पर उंगली नहीं उठायी जा सकती, पर वाम मोर्चा सरकार ने अपने शासन के इन तमाम वर्षों में उनके जीवन और उनकी सम्पत्ति को जो सुरक्षा प्रदान की है, वही पर्याप्त नहीं है। अन्य लोगों की तरह उन्हें भी विकास के लाभ में हिस्सा मिलने की जरूरत है। दुर्भाग्य से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा बार-बार याद दिलाये जाने के बावजूद वाम मोर्चा ने शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा और रोजगार जैसी उनकी बुनियादी ललक और आकांक्षाओं की अनदेखी की।

यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसके मामले में सही तरह से जुटने की जरूरत है न केवल उस समय जब हम सत्ता में वाप आते हैं बल्कि अल्पसंख्यकों के बीच हमारे कामकाज के कुल दृष्टिकोण में इस पर ध्यान रखने की और इस दिशा में जुटने की जरूरत है।

इसी प्रकार, उद्योगीकरण के प्रश्न पर पूर्ण, सम्यक एवं गहन सोच-विचार की जरूरत है। नंदीग्राम के समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक कोलकाता में चल रही थी। राष्ट्रीय परिषद ने कृषि योग्य भूमि को बचाने और बेदखल हुए किसानों के पुनर्वास के प्रश्न पर एक विस्तृत प्रस्ताव पारित किया था। हमें उस प्रस्ताव में प्रतिपादित दो बुनियादी बातों पर दृढ़ता से जमे रहना चाहिये। पहली बात - सरकारों के पास बुनियादी ढांचों और जनोपयोगी सेवाओं को खड़ा करने के अलावा अन्य किसी उद्देश्य के लिए जमीन अधिग्रहण का अधिकार नहीं होना चाहिए। अन्य सभी उद्देश्यों के लिए बाजार का नियम लागू होना चाहिये। दूसरी बात - उसमें भी, बहुफसली जमीन के अधिग्रहण या खरीदारी से यथासंभव बचा जाना चाहिए। इस प्रश्न पर व्यापक गलतफहमी के कारण यद्यपि हम सत्ता खो चुके हैं, तो भी इस मुद्दे पर तत्काल ध्यान देना जरूरी है क्योंकि देश के विभिन्न हिस्सों में अन्य अनेक नंदीग्राम और सिंगूर सामने उभर कर आ रहे हैं।

प. बंगाल में वाम मोर्चा का केवल एक ही विकल्प है और वह है एक ऐसा वाम मोर्चा जो अपने कामकाज में कहीं अधिक पारदर्शी और लोकतांत्रिक हो, जिसमें छोटे बड़े सभी भागीदारों की राय को वाजिब महत्व दिया जाये। वाम मोर्चा के घटकों की हिस्सेदारी में उनके प्रभाव की जमीनी वास्तविकता झलकनी चाहिये। वाम मोर्चा की कोई पार्टी अपने को दूसरों से बड़ा समझे इस तरह के रूख से वाम मोर्चा को और कुल मिला कर प. बंगाल की जनता को नुकसान पहुंचेगा। वामपंथ ने घोषित किया है कि वह रचनात्मक और उत्तरदायी विपक्ष की भूमिका अदा करेगा। वह जनता की उपलब्धियों की मजबूती एवं दृढ़ता से रक्षा करेगा पर तृणमूल कांग्रेस की तरह अवरोध और टकराव का रूख नहीं रखेगा। दुर्भाग्य से नये शासक गठबंधन ने इसे सही तरीके से नहीं समझा है। वाम कार्यकर्ताओं और पार्टी दफ्तरों पर हमलों की खबरें लगातार आ रही हैं।

केरल में एक बार एलडीएफ तो दूसरी बार यूडीएफ के सत्ता में आने की प्रवृत्ति रही है। इस बार केरल इस प्रवृत्ति को बदल कर इतिहास रचने के कगार पर ही पहुंच गया था। एलडीएफ केवल तीन स्थान कम मिलने के कारण सत्ता से दूर रह गया। दोनों मोर्चों को मिलके मतों का अंतर एक प्रतिशत से भी कम रहा। दोनों के बीच केवल 0.89 प्रतिशत का अंतर रहा। एलडीएफ को श्रेय जाता है कि अपनी सत्ता के पिछले पांच वषों में उसने न केवल पहले से कहीं अधिक पारदर्शी तरीके से शासन किया बल्कि आर्थिक नवउदारवाद की बुराईयों जैसे कि महंगाई, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ध्वंस और भ्रष्टाचार आदि के विरूद्ध भी उसने दृढ़तापूर्वक संघर्ष किया। एलडीएफ ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत किया, उसके दायरे को बढ़ाया जिससे जनता को महंगाई से बड़ी राहत मिली। हमारे विरोधियों को भी इसकी प्रशंसा करनी पड़ी। इसी प्रकार, पिछले पांच वर्षों में एलडीएफ ने घाटे में चल रहे 38 सार्वजनिक क्षेत्र प्रतिष्ठानों से 33 की जीर्णोद्धार किया और वे मुनाफा कमाने लगे। इससे हजारों लोगों के रोजगार का बचाव हुआ। यूडीएफ के एक पूर्वमंत्री को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सजा सुनायी जाने और यूडीएफ के एक अन्य पूर्वमंत्री के यौन एवं भ्रष्टाचार घोटाले के पर्दाफाश से न केवल मुख्यमंत्री को निजी तौर पर बल्कि समूचे एलडीएफ को जनता से सराहना मिली। इन बातों के अलावा, एलडीएफ की प्रमुख पार्टियों के बीच (और पार्टियों के स्वयं के अंदर भी) यदि उद्देश्ययुक्त एकता एवं जुड़ाव कुछ और अधिक रहा होता तो उससे वाम मोर्चा को राज्य में दो मोर्चों के एक के बाद दूसरे के सत्ता में आने की आम प्रवृत्ति को रोकने में निश्चय ही कामयाबी मिल सकती थी।

इसी प्रकार तमिलनाडु का जनादेश अत्यंत स्पष्ट है। यह डीएमके के भ्रष्ट पारिवारिक शासन और कांग्रेस जैसे उसके समथर्कों-रक्षकों के विरूद्ध जनादेश है। इसी प्रकार पुडुचेरी की जनता ने एक अपेक्षाकृत ईमानदार एवं सरल व्यक्ति, जिसे कांग्रेस से निकाल दिया गया था, का वरण किया है।

असम में, कांग्रेस को विप्ख की फूट का फायदा मिला। इसके अलावा उल्फा के एक घड़े के साथ वार्ता शुरू कर टिकाऊ शांति एंव स्थिरता का जो भ्रम उसने पैदा किया, उसका भी कांग्रेस ने फायदा उठाया। असम के लोग शांति चाहते हैं। यह केन्द्र सरकार और नई राज्य सरकार की जिम्मेदारी होगी कि वे असंतुष्ट तत्वों के साथ वार्ता की प्रक्रिया तो आगे बढ़ायें, राज्य में शांति को सुनिश्चित करें और सभी जातीय एवं अन्य समस्याओं का समाधान करें।

चुनाव की जीत की वास्तविक एवं काल्पनिक खुशियों और कुछ ताकतों की हार के हल्ले-गुल्ले के बीच इन चुनावों के एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम की अनदेखी नहीं करनी चाहिये। केरल में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग ने 24 स्थानों पर चुनाव लड़ा और 20 स्थान जीते। असम में मुस्लिम संगठन एआईयूडीएफ ने अपने स्थानों को 11 से बढ़ाकर 18 कर लिया। इसी प्रकार भाजपा के साथ गठजोड़ के ममता बनर्जी के संदिग्ध रिकार्ड के बावजूद बड़ी संख्या में मुसलमानों ने उनका पक्ष लिया। इन प्रवृत्तियों पर सम्यक एवं पूर्ण अध्ययन की जरूरत है।

एक अन्य कारक है निरंतर बढ़ते मध्यम वर्ग के चरित्र और आकांक्षाओं में बदलाव। मध्यम वर्ग यद्यपि अधिकाधिक ‘उपभोक्तवादी’ और ‘कैरियर उन्मुख’ हो रहा है, सब मिला कर वह जनमत निर्माण की एक बड़ी भूमिका का निर्वाह भी कर रहा है। वामपंथ को इन रूझानों एवं कारकों पर और नई पीढ़ी पर ध्यान देना होगा।
- शमीम फैजी




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शनिवार, 21 मई 2011

FAST UNTO DEATH AT ALIGARH MUSLIM UNIVERSITY - AN APPEAL

THIS IS VERY URGENT PLEASE ATTEND.




Dear Sir/Madam,



The Vice Chancellor of Aligarh Muslim University is as corrupt as Raja or kalmandi. Due to agitation of AMU students, teachers & non-teaching staff, the Government of India appointed a committee for enquiry into his misdeeds. This committee found numerous financial irregularities during his tenure.



Since 16th May, two senior teachers of AMU Prof. M.R.Shervani and Prof. A.A. Usmani are on fast unto death whereas numerous students, ex-students, other teachers and non-teaching staff are on indefinite fast. They are demanding CBI enquiry on the financial irregularities committed by the Vice Chancellor and his immediate removal for independent and prompt completion of investigation by CBI.



Due to hot weather conditions, Prof. Shervani and Prof. Usmani both developed renal problems but still they are continuing their fast unto death. Their deteriorating condition compelled me to address you this mail.



I personally request you :



Please forward this message to as many as possible promptly.

Please send the following message to the HRD Minister through his e-mail id : hrm@sb.nic.in and also endorse a copy to me on my e-mail ID : laxmipradeep.tewari@gmail.com.



Subject : FAST UNTO DEATH AT ALIGARH MUSLIM UNIVERSITY - AN APPEAL



“The Minister for Human Resource Development

Government of India

New Delhi

Dear Sir,



I invite your immediate attention towards the deteriorating health of both the senior teachers of AMU who are on the fast unto death.



I request you to please immediately visit AMU campus for dialogue with fasting teachers, students, ex-students and non-teaching staff.



Prompt intervention is solicited.



With regards/greetings.



Yours sincerely



Your Name”



I trust to get your prompt response in this matter.

- Pradeep Tewari

Treasurer,

Communist Party of India

Uttar Pradesh
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शुक्रवार, 20 मई 2011

रिश्वत को वैध बनाने की बेहूदगी को रोको - भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी


भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उपमहासचिव एवं पूर्व संसद सदस्य एस0 सुधाकर रेड्डी ने केंद्रीय वित मंत्रालय के पोर्टल पर ”एक किस्म की रिश्वतों के मामले में रिश्वत देने के काम को वैध क्यों न मान लिया जाये“ शीर्षक पेपर के होने के संबंध में केंद्रीय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी को एक पत्र लिखकर आपत्ति व्यक्त की है। इस पेपर के लेखक वित्तमंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु हैं। उन्होंने लिखा है:



21 अप्रैल 2011 के ”हिंदु“ दैनिक में पी0 साईनाथ द्वारा लिखे एक लेख ”रिश्वतः एक छोटा पर रेडिकल विचार“ पढ़कर आश्चर्यचकित हो गया हूँ। साईनाथ ने अपने इस लेख में वित्तमंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु द्वारा लिखित पेपर- ”व्हाई, फॉर ए क्लास ऑफ ब्राइब्स, दि एक्ट ऑफ गिविंग ब्राइब शुड बी ट्रीटिड एज लीगल“ (एक किस्म की रिश्वतों के मामले में रिश्वत देने के काम को वैध क्यों न मान लिया जाये) को विस्तार से उद्घृत किया है। बसु के इस पेपर को वित्तमंत्रालय के पोर्टल पर भी डाल दिया गया है।



मेरी समझ नहीं आता कि एक संविधान विरोधी और जन-



विरोधी विचार और वह भी एक ऐसे सरकारी अधिकारी द्वारा जो राष्ट्र और भारत सरकार की अपनी तमाम सेवाओं में भारत के संविधान की शपथ लेता है, प्रचार के लिए भारत सरकार के पोर्टल का इस्तेमाल क्योंकर किया जा सकता है। यदि यह उनका निजी सुझाव है तो इसके लिए उन्हें अपने निजी वेबसाईट पर, सरकार से इतर अन्य किसी साईट का इस्तेमाल करना चाहिये था। मैं पक्के तौर पर विश्वास करता हूॅ कि प्रणव दा और पूर्व वित्तमंत्री एवं वर्तमान प्रधानमंत्री इस तरह के भड़काने वाले, राष्ट्रविरोधी और भ्रष्टाचार को प्रोत्साहन देने वाले विचारों का समर्थन नहीं करेंगे।



मुझे पक्का विश्वास है कि आप भ्रष्टाचार को वैध बनाने के बसु के विचारों से सहमत नहीं होंगे। बहरहाल, कौशिक बसु के लेख ने वित्तमंत्रालय के पोर्टल को काफी नुकसान पहुंचा दिया है। मेरा आपसे अनुरोध है कि इन विचारों को पूरी तरह से खारिज कर दें और कौशिक बसु के पेपर को सरकारी पोर्टल से तत्काल हटा दिया जाये। उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में, मैं आपसे अनुरोध करता हूॅ कि आप अपने आपको इसकी अंतवस्तु से अलग करें और सरकारी पोर्टल के इस तरह के दुरूपयोग के पीछे के असली इरादे की विस्तृत जांच करें।



आपको इस तरह की बातों की भर्त्सना करनी चाहिये क्योंकि ऐसी बातें लोकतांत्रिक व्यवस्था को बरबाद करने में ही मदद कर सकती है। इस तरह के असंवैधानिक कामों को लिए जिम्मेदार लोगों को सजा दी जानी चाहिये। मुझे पक्का विश्वास है कि आप हमारी चिंता से सहमत होंगे और कन्फयूजन को आगे बढ़ने से रोकने के लिए तुरंत कदम उठायेंगे।

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भाकपा द्वारा एएमयू कम्यूनिटी के आन्दोलन का समर्थन


अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति को तुरन्त हटाने की मांग

लखनऊ, 19 मई। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने केन्द्र सरकार से मांग की है कि वह आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति को तुरन्त बर्खास्त करे ताकि उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ घोषित सीबीआई जांच निष्पक्ष और अबाध रूप से पूरी की जा सके। भाकपा ने कुलपति को हटाने की मांग को लेकर एएमयू में चल रहे आन्दोलन को पुरजोर समर्थन भी प्रदान किया है।

यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने आरोप लगाया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति पर गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं और केन्द्र सरकार द्वारा एक कमेटी से कराई गयी जांच में वे दोषी पाये गये हैं लेकिन सरकार न तो उनके विरूद्ध कोई कार्रवाई कर रही है औरन न ही जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया गया है। इससे अमुवि के छात्रों, शिक्षकों, शिक्षणेतर कर्मचारियों एवं एमएमयू ओल्ड ब्याज में भी भारी आक्रोश व्याप्त हो गया है।

इस गहरे आक्रोश के चलते समूची एएमयू कम्यूनिटी आन्दोलन की राह पर है। एएमयू एंटी करप्शन फोरम के संयोजक प्रो.मदीउर्रहमान ‘सुहेब’ शेरवानी (जोकि भाकपा राज्य कार्यकारिणी के भी सदस्य हैं।) एवं प्रो. ए.ए. उस्मानी 16 मई से अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठे हैं। एएमयू स्टाफ एसोसिएशन के बैनर तले क्रमिक भूख हड़ताल जारी है। एएमयू स्टूडेन्ट्स यूनियन भी भूख हड़ताल पर है और छात्रों का एक स्वतंत्र ग्रुप अलग से भूख हड़ताल पर बैठा है। सच कहा जाये तो एएमयू कुलपति आवास के सामने वाला मार्ग जंतर-मंतर बन चुका है।

डा. गिरीश ने इस बात पर गहरा रोष जताया कि इन व्यापक जनान्दोलनों के बावजूद केन्द्र सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। केन्द्रसरकार ने सीबीआई जांच की घोषणा तो की है मगर उसका नोटीफिकेशन अभी तक नहीं किया। फिर सीबीआई जांच के पहले कुलपति को हटाने की बेहद जायज मांग को भी अभी तक नहीं माना। यह भ्रष्ट आचरण की परवरिश करने की साजिश है। भाकपा राज्य सचिव ने चेतावनी दी कि यदि केन्द्र सरकार एएमयू कम्यूनिटी की जायज मांगों पर अमल नहीं करेगी तो भाकपा को भी अपरिहार्य कदम उठाने को बाध्य होना पड़ेगा।
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गुरुवार, 19 मई 2011

उड़ीसा सरकार की पोस्को एवं वेदान्तपरस्त नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध जारी रहेगा


भुवनेश्वर: “भाजपा नेतृत्व वाला राजग और कांगेस नेतृत्व वाला संप्रग दोनों ही विनाशकारी आर्थिक नीतियों पर अनुसरण करने के लिए जिम्मेदार हैं जिसके कारण पिछले 12 वर्ष में देश में 12000 पूंजीपति पैदा हो गये हैं और 20 लाख करोड़ से अधिक रुपये चोरी से स्विस बैंकों एवं अन्य विदेशी बैंकों में चले गये है।” भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव ए.बी. बर्धन ने पार्टी की उड़ीसा इकाई द्वारा आयोजित एक विराट रैली मंे यह बात कही। उन्होंने उड़ीसा में बदतर होते हालत पर चिन्ता व्यक्त की।

बर्धन ने कहा: पिछला चुनाव हुए दो वर्ष से अधिक का समय बीत गया है। पर हमारी जनता के लिए क्या उपलब्धि है? देश की 100 करोड़ से अधिक की गरीबों एवं माध्यम वर्ग की आबादी को न केन्द्र की सरकार से कुछ मिला न राज्य की। केन्द्र एवं राज्य की न तो इन सरकारों ने जनता के भले के लिए कुछ किया और न उन पूर्ववर्ती सरकारों ने जिनकी शासक पार्टी अब फिर से सत्ता में आने के लिए मुंह बाये हुए है। देश में हर कहीं भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार है। 2जी स्पेक्ट्रम में दो करोड़ रुपये से भी अधिक का घोटाला हुआ है। बर्धन ने कहा कि गरीब लोगों के रहन-सहन के हालात बदतर हो रहे हैं। हाल यह हो गया है कि देश की लगभग 78 प्रतिशत आबादी 20 रुपये से भी कम के खर्च पर अपनी गुजर-बसर करने को मजबूर है; अभूतपूर्व महंगाई ने आम आदमी की दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी को मुश्किल कर दिया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की तमाम सरकारों ने महंगाई को बढ़ावा दिया है इसका कुछ अपवाद रही तो केवल देवगाड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व वाली वे सरकारें जिनमें कम्युनिस्ट मंत्री थे।

तथाकथित वेदांत विश्विविद्यालय को उड़ीसर सरकार द्वारा 8000 एकड़ जमीन के आवंटन की भर्त्सना करते हुए बर्धन ने कहा कि वेदंात कम्पनी का मालिक अनिल अग्रवाल एक कुख्यात कबाड़ीवाला है पर उड़ीसा सरकार ने उसे न केवल वेदांत विश्वविद्यालय के नाम पर जमीन आवंटित की बल्कि उसके स्टरलाईट अल्युमिना प्रोजेक्ट के लिए के केप्टिव लौह-अयस्क के लिए विशाल खान क्षेत्र भी उसे दे दिये हैं। इन परियोजनाओं के विरुद्ध हम कम्युनिस्ट ही अकेले उंगली नहीं उठा रहे हैं, लोकपाल, उच्च न्यायालय और देश के विभिन्न पर्यावरणविदों ने भी उड़ीसा सरकार द्वारा इस बहुराष्ट्रीय निगम को फायदा पहुंचाने के लिए किये गये पक्षपात पर आपत्ति की है। सरकार, लोकपाल और उड़ीसा के उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त सभी समितियों ने भी सरकार के कम्पनीपरस्त रूख और देश के कानूनों के उल्लंघन की भर्त्सना की है। राज्य सरकार किसानों द्वारा आत्महत्या, खान-खदानों के घोटालों और डायरिया की महामारी को रोकने में सर्वथा विफल रही है। बर्धन ने कहा है कि राज्य के किसानों एवं कृषि अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा कर नवीन पटनायक सरकार पिछले छह वर्ष से पारादीप में एक इस्पात परियोजना स्थापित करने की अपनी जनविरोधी नीतियों पर आगे बढ़ने पर उतारू है। सरकार ने निजी कम्पनी को केप्टिव लौह अयस्क खानें लीज पर दे दी हैं; उसे पारादीव बंदरगाह के पास केप्टिव पोर्ट बनाने की इजाजत दे दी है और कम्पनी को देने के लिए उस उपजाऊ कृषि जमीन और वनभूमि का अधिग्रहण करना चाहती है जिस पर वनवासी अपनी पीढ़ियों से खेती करते आये हैं और रहते आये हैं।

ए.बी. बर्धन ने राज्य सरकार को चेतावनी दी कि “आप पोस्को और वेदान्त जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए जमीन का जबरन अधिग्रहण नहीं कर सकते, देश के स्थापित कानूनों का उल्लंघन नहीं कर सकते।” उन्होंने पोस्को परियोजना और वेदान्त के विरूद्ध संघर्षरत लोगों के प्रति अपना पूर्ण समर्थन व्यक्त किया। उन्होंने राज्य के शासकों से कहा कि इतिहास से सबक लें; याद करें एक कम्पनी देश में आयी थी और उस कम्पनी के साथ शासकों के रिश्तों के कारण देश अपनी आजादी खो बैठा था। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार आंदोलन करती संघर्षरत जनता की आवाज पर ध्यान देने के बजाय बहुराष्ट्रीय निगमों के हित साधने में लगी है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो राज्य और इसके लोगों का भविष्य अंधकार में पड़ जायेगा। उन्हांेने आशा व्यक्त की कि यद्यपि बहुत देर हो चुकी है फिर भी अच्छा होगा सरकार अपनी गलती का अहसास करे और अपनी हानिकर

जनविरोधी नीतियों का परित्याग करें

बर्धन ने कहा कि सरकार ने यदि जनता के संघर्षों को कुचलना जारी रखा तो उड़ीसा के शांतिप्रिय लोग सरकार को इसके लिए माफ नहीं करेंगे

उन्होंने जनता से अपील की कि बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य सेवा और बेहतर जीवन स्तर हासिल करने के लिए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा छेड़े गये संघर्ष में अधिकाधिक संख्या में हिस्सा लें। उन्होंने कहा, “हम संघर्ष कर रहे हैं और संघर्ष को आगे भी जारी रखेंगे। शहीदों का बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा, भविष्य हमारा है, जनता अपने एतिहासिक मिशन में कामयाबी हासिल करेगी।”

इस राज्य स्तरीय रेली की अध्यक्षता वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता प्रो. अबनि बोराल ने की। इस विराट रैली में लाल झंडे हाथों में उठाये 15000 से भी अधिक लोग शामिल थे। रैली में शामिल होने वालों में कोरा पुट, कालाहांडी और मलकानगिरी से आयी हुई आदिवासी महिलाएं थी तो गंधमर्दन हिल्स और केओंझार के खान खदानों के मजदूर भी थे; मयूरभंज, गजपति और गंजम जिलों के सैकड़ों हजारों गरीब आदिवासी भी रैली में शामिल थे। चिलचिलाती धूप, बेमौसम की बारिश और बादलों के गर्जन-तर्जन के बावजूद भारी संख्या में राज्य के गरीब लोग रैली में हिस्सा लेने के लिए पहुंचे।

विशाल रैली को संबोधित करते हुए पार्टी के राज्य सचिव दिवाकर नायक ने कहा कि दुनिया के सबसे गरीब लोग किसी काल्पनिक लोक में नहीं बल्कि उड़ीसा के सबसे कम विकसित आठ जिलों (केबीके जिलों) में रहते हैं, यह यूएनडीपी (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) का कथन है। उन्होंने कहा कि तीसरी बार भारी बहुमत हासिल करने के बाद नवीन पटनायक जनविरोधी नीतियों पर चलना जारी रखे हुए हैं, पोस्को और वेदान्त जैसी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को फायदा पहुंचाने के लिए उन्होंने सभी कायदे-कानूनों को ताक पर रख दिया है। सरकार वनभूमि के बारे में फर्जी रिपोर्टे बना रही है। हम मुख्यमंत्री से मिले और उनसे अनुरोध किया कि संबंधित गांवों में जाकर वह प्रस्तावित पोस्को क्षेत्र के बारे में वहां के लोगों की बात सुनें, उनकी राय जानें। पर मुख्यमंत्री उन गांवों का दौरा कर असलियत को समझने के बजाय वनभूमि के संबंध में अफसरों द्वारा तैयार फर्जी रिपोर्टों पर यकीन कर आगे सिफारिश कर रहे हैं। ऐसी हालत में जब सरकार आंदोलकारी संघर्षरत जनता को सुनना ही नहीं चाहती तो हमारे पास लोकतांत्रिक आंदोलनों और समूची मानवता का समर्थन लेकर संघर्ष और प्रतिरोध को जारी रखने के अलावा क्या रास्ता रह जाता है।

आदिकंद सेठी विधायक, खिरोद प्रसाद सिंह देव, नारायण रेड्डी, पूर्व विधायक और वयोवृद्ध नेता डीके पंडा ने भी रैली को संबोधित किया और जनता का आह्वान किया कि वे शोषण, दमन, उत्पीड़न और सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के झंडे तले आगामी दिनों में और भी तीव्र संघर्ष के लिए तैयार हो जायें।

आम सभा से पहले हजारों कार्यकर्ताओं ने लाल झंडे हाथों में उठाये हुए रेलवे स्टेशन से एक जुलूस शुरू किया जिसका नेतृत्व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिवमंडल के सदस्य गौरहरि नायक, अशोक बीसी, बनलता जेना, पर्वत मिश्र, प्रशांत पट्टजोशी और राष्ट्रीय परिषद सदस्य रामकृष्ण पंडा, बसन्त पैकरे, प्रकाश पात्रा, सूरा जेना और विजय जेना आदि कर रहे थे।

- रमेश पाढी
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बुधवार, 18 मई 2011

मध्य पूर्व से कदम वापस लेने की फिराक में ओबामा प्रशासन

राष्ट्रपति पद के लिए अपने दूसरे कार्यकाल के अपने इरादे की घोषणा करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति बाराक ओबामा ने अपने प्रशासन से मध्य पूर्व की भूल भुलैया से बाहर निकलने के तौर तरीकों के तलाश करने के लिए भी कहा है अन्यथा ईराक के कारण उनके पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बुश का जो हाल हुआ वैसा ही कुछ उनके साथ भी होने वाला है। अमरीका लीबिया के मामले में जिम्मेदारी को अपने सहयोगियों, खासकर फ्रांस के राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी पर डालने की कोशिश तो कर ही रहा है साथ ही वह लम्बे समय से घोषित अपने शत्रु अलकायदा समेत अपने लिए किन्हीं नयी कठपुतलियों की तलाश में व्यग्र है क्योंकि उसे आशंका है कि उसके कठपुतली राष्ट्रपति अली अबदुल्ला सालेह के पतन में देरी से वहां उसके और मध्य पूर्व में अमरीका के सबसे मूल्यवान सहयोगी सऊदी अरब, दोनों के प्रति वैरभाव रखने वाली ताकतें वहां आ सकती हैं।

जहां तक लीबिया की बात है सभी संकेत ऐसे हैं कि अत्यधिक नृशंस बमबारी, यहां तक कि अस्पतालों एवं अनाथालयों जैसे स्थानों पर भी बमबारी, जिनमें सैकड़ों निर्दोष असैन्य लोग मारे गये हैं, गद्दाफी परिवार और उसके कबीले के लोगों के बीच कोई खाई नहीं पैदा कर सकी है। पिछले इतवार को फ्रांस और ब्रिटेन के लड़ाकू जहाजों ने पूर्वी तेल क्षेत्रों के निकट बम बरसाये जिसमें दर्जनों वे लोग मारे गये जो आंदोलनकारी समझे जाते हैं। इससे विद्रोही इस हद तक ‘नाराज‘ हुए हैं कि वे हमलावर फौजों के विरूद्ध नारे लगाने लगे। पहले अमरीका और उसके सहयोगी दावा कर रहे थे कि यही लोग कह रहे थे कि अमरीका लीबिया में ‘नो फ्लाई जोन‘ (हवाई उड़ान वर्जित क्षेत्र) लागू करने से कुछ अधिक कार्रवाई करे। यह सच है कि जब ‘नो फ्लाई जोन‘ के फैसले की घोषणा हुई थी तो विद्रोहियों के मजबूत प्रभाव वाले बेन गाजी और उसके आसपास इलाकों में सरकोजी को हीरो के रूप में माना गया था। अब वही लोग हमलावरों के खिलाफ नारे बुलंद कर रहे हैं क्योंकि लड़ाकू हवाई जहाज आंदोलनकारियों और उनके समर्थकों समेत लोगों को बमबारी कर अधंाधंुध मार रहे हैं।

सरकोजी, जिन्हें अगले वर्ष राष्ट्रपति पद के लिए बड़े मुश्किल चुनाव का सामना करना है, की अपनी स्वयं की मजबूरियां हैं। अपने देश में वह तेजी से समर्थन खो रहे हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव में उनकी शासक पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। सोशलिस्टों के नेतृत्व में वामपंथियों ने और ग्रीन पार्टी ने अनेक नगर पालिकाओं पर कब्जा कर लिया है। नस्लवादी नेशनलिस्ट पार्टी ने सरकोजी की शासक पार्टी की कीमत पर चुनाव में फायदा उठाया। इसके अलावा, शासक पार्टी के अंदर भी सरकोजी का विरोध बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री फ्रांसोइस फिल्लॉन राष्ट्रपति पद के लिए वैकल्पिक उम्मीदवार के रूप में उभर रहे हैं। इस एवं अन्य कुछ कारणों ने सरकोजी को लीबिया में जुआ खेलने को मजबूर किया।

असल में, टयूनीशिया और मिस्र में अपनी भयंकर गलतियों के कारण सरकोजी बदहवास हो गये थे। जब इन दो देशों में विद्रोह चरम शिखर पर था फ्रांस के विदेश मंत्री माइकेल एल्लियट-मैरी अपने परिवार के साथ ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति जिने-अल आबेदिन बेन अली की मेहमानवाजी के मजे ले रही थी और ट्यूनीशिया के राष्ट्रपति के सऊदी अरब को भागने के चंद दिन पहले उन्होंने वहां रहते हुए ही ट्यूनीशिया की दमनकारी सरकार के लिए खुला समर्थन व्यक्त किया। इसी प्रकार बड़े दिन से अपनी छुट्टी के दौरान फ्रांस के प्रधानमंत्री भी होस्नी मुबारक के मेहमान थे। दोनों ही देशों में फ्रांस सरकार इतिहास के गलत पलड़े में पायी गयी।

जन विद्रोह के विरोध की भयंकर गलती ने सरकोजी को जबर्दस्त नुकसान पहुंचाया। इससे पार पाने के लिए सरकोजी को अरब जगत में किसी साहसिक कार्य की जरूरत थी। ब्रिटिश प्रशानमंत्री के साथ मिलकर उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव में घालमेल की। मूल प्रस्ताव में सशस्त्र बलों के इस्तेमाल की बात थी, दो स्थायी सदस्यों-रूस और चीन के भारी विरोध के बाद उसे ‘नो फ्लाई जोन‘ में बदल दिया गया। ‘नो फ्लाई जोन‘ प्रस्ताव का समर्थन पांच सदस्यों-रूस, चीन, भारत, ब्राजील और जर्मनी ने नहीं किया। वे मतदान से अनुपस्थित हो गये। जर्मनी द्वारा साथ छोड़ना अमरीका फ्रांस और ब्रिटेन की तिकड़ी के लिए सबसे बड़ा धक्का है।

असैन्य क्षेत्रों पर अपनी बमबारी को सही ठहराने के लिए हमलावर फौजों ने 22 सदस्यीय अरब लीग द्वारा निर्विरोध समर्थन का दावा किया पर स्वयं अरब लीग के महासचिव ने इस दावे से असहमति व्यक्त की। उन्होंने इसे सुरक्षा परिषद के कार्यक्षेत्र से परे बताया। अभी तक कतर और ओमन-ये दो खाड़ी देश ही लीबिया पर हमला करने वाली फौजों में शामिल हुए हैं। सऊदी और संयुक्त अरब अमीरात ने शासक पार्टी के विरूद्ध जनता की बगावत को कुचलने के लिए अशांत देश-बहरीन में अपनी फौजों को भेजा है। बहरीन गयी सऊदी फौज में पाकिस्तानी मिलटरी कर्मचारी शामिल हैं। बहरीन के अधिकांश लोग बगावत में शामिल हो गये हैं, उन्होंने सरकार को ठप्प कर दिया है। यमन ओर जोर्डन में भी विद्रोह हो रहा है। सीरिया ने लीबिया पर हमले का विरोध किया था, अब उसे अमरीका का कोपभाजन बनना पड़ रहा है, राजधानी दमिश्क के दक्षिण में सरकार विरोधी आंदोलन की पुश्त पर अमरीका है। कुवैत में अमीर-अल-सबाह के तहत थोड़ी बहुत लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वह भी राजनैतिक उथल-पुथल की चपेट में है, उसके परिणामस्वरूप मंत्रीमंडल ने त्यागपत्र दे दिया है।

अमरीका फ्रांस-ब्रिटेन की तिकड़ी को उम्मीद थी कि एक सप्ताह में लीबिया को ‘जीत‘ लेंगे। फ्रांस ने साफ कर दिया था कि गद्दाफी के बाद वह कब्जावर फौजों का नेतृत्व करेगा, पर अमरीका नाटो मुख्यालय को थोपना चाहता था। इससे पश्चिम के सहयोगियों में दरार पैदा हो गयी है।

फ्रांस, जो परमाणु ऊर्जा पर निर्भर है और उसके पास ‘न कोयला है, न तेल है, अतः कोई विकल्प नहीं‘ उसकी निगाह लीबिया के तेल क्षेत्रों पर थी। लीबिया के जिस क्षेत्र में 64.4 बिलियन बैरल तेल का रिजर्व है, वहां उस कबीले के लोग रहते हैं जिससे गद्दाफी हैं। इसके अलावा, लीबिया में 55 ट्रिलियन घन फिट प्राकृतिक गैस का रिजर्व है। लीबिया प्रतिदिन 1.8 मिलियन बैरल तेल का उत्पादन करता है जो विश्व के कुल उत्पादन का दो प्रतिशत है। लीबिया प्रति वर्ष एक हजार बिलियन घन फिट से

अधिक गैस का उत्पादन करता है। लीबिया के तेल रिजर्व का 80 प्रतिशत हिस्सा सिरते नदी घाटी के उस इलाके में है जो गद्दाफी कबीले का गढ़ है और शासक परिवार के साथ मजबूती से टिका है।

लीबिया में युद्ध लम्बा खिंचने और ईराक के रास्ते पर जाने की संभावना के चलते अमरीका को इस जोखिम में अपनी हिस्सेदारी को जारी रखना मुश्किल पड़ रहा है। अमरीका शुरू में चाहता था कि गद्दाफी के हटने के बाद की सरकार नाटो की देखरेख में चले पर अब वह उस विचार को छोड़ कर इसे यूरोपीय संघ के हवाले करने के लिए सोच रहा है। मालूम नहीं अमरीका की योजना अंत में कामयाब होती है या कोई अन्य समझौते जैसी कोई बात होगी। लगता है गद्दाफी के दो बेटों के साथ किसी समझौते पर पहुंचने जैसी बातें हो रही हैं। गद्दाफी के दो छोटे बेटे किसी भी तरह के समझौते के विरूद्ध हैं। आगामी सप्ताहों में चित्र साफ तरह से सामने आयेगा। बहरहाल, गद्दाफी से पार पाना बहुत कठिन हो रहा है।

अमरीका का असली सिरदर्द यमन है जहां उसके कठपुतली शासक सालेह का उसकी भरोसेमंद सेना और अपने कबीले ने भी साथ छोड़ दिया है। अभी तक अमरीकी सरकार इस घृणापात्र राष्ट्रपति को बचाती रही है जो पिछले 32 वर्ष से अपने कठोर तरीकों से ‘एकताबद्ध‘ यमन पर शासन करता आया है। अमरीका उसे अलकायदा के विरूद्ध अपने संघर्ष में अपने सबसे विश्वसनीय सहयोगी के रूप में मानता आया है। यमन में जनवरी से जनविद्रोह चल रहा है और वहां के घटनाक्रम पर अमरीका अभी तक चुप्पी रखे हुए था। यमन के मामले में अमरीका उलझन में है।

यमन के एकीकरण से पहले दक्षिण यमन के रेडिकल शासकों ने, जिनका मुख्यालय अदन में और सऊदी अरब की सीमा के पास था, सऊदी भूक्षेत्र पर अपना दावा किया था। 30 वर्ष पहले तथाकथित रक्तरंजित ‘एकीकरण के बाद अली अब्दुल्ला सालेह को एक अमरीकी कठपुतली की तरह वहां शासक बनाया गया। सालेह को खुश रखने के लिए सऊदी अरब हर वर्ष उसको पैसा देता रहा। यमन में वर्तमान विद्रोह के दो विकल्प है, जो रेडिकल नेतृत्व विद्रोह की अगुवाई कर रहा है उसके हाथ में सत्ता को आने दिया जाये या फिर देश को उत्तर और दक्षिण में बांट दिया जाये। दोनों ही हालतों में सऊदी अरब के लिए खतरा पैदा होगा जिसके लिए अमरीका तैयार नहीं हो सकता। दुनिया के इस क्षेत्र में अमरीकी ताकत का मुख्य ठिकाना सऊदी अरब है। अतः अमरीका के सामने दुविधा है। अन्य खतरा है समूचे अरब जगत में बढ़ती अमरीका विरोधी भावनाएं। यदि रक्तरंजित विद्रोह में अली अब्दुल्ला सालेह सत्ता से उखाड़ फेंका जाता है तो उससे बहरीन-कतर, ओमन और सऊदी अरब समेत खाड़ी के सभी देशों में अमरीका विरोधी भावनाएं मजबूत होंगी। बहरीन अमरीका के 5वें बेडे का मेजबान है तो अमरीका की सेंट्रल कमान्ड ओमन में स्थित है। दोनों ही उथल-पुथल के शिकार हैं। यमन के जनविद्रोह की सफलता से न केवल खाड़ी के अन्य देशों में ऐसे आंदोलन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि वे आंदोलन वास्तविक रूप में अमरीका विरोधी आंदोलनों में बदल जायेंगे।

यही कारण है कि ओबामा सरकार इस नतीजे पर पहुंच चुकी है कि अब्दुला सालेह को हटना पड़ेगा। पर उसकी जगह कौन लेगा? अमरीका ने इसके लिए दमन के गवर्नर को, जो विद्रोही कतारों में शामिल हो चुके हैं, खींचना चाहा पर सऊदी अरब उन पर भरोसा करने को तैयार नहीं। एक अन्य चिन्ता यह है कि कई कबीलाई चीफों के बीच झगड़े हो सकते हैं।

पश्चिम की कुछ गुप्तचर एजेंसियों के अनुसार अब अमरीकी सरकार अपने लम्बे अरसे से दुश्मन अलकायदा, जिसको कबीला-चीफों का काफी समर्थन हासिल है, के साथ कुछ समझौते की संभावनाओं पर गौर कर रहा है। इस समय वह यमन में सबसे अधिक संगठित ताकत है।

मिस्र में 1952 में जब नासिर ने राजा फारूक और नेशनलिस्ट पार्टी (होस्नी मुबारक की पार्टी) का तख्ता पलट कर सत्ता हासिल की थी तब ही से मुस्लिम ब्रदर हुड पर प्रतिबंध रहा है। उल्लेखनीय है कि अमरीका की विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने अपनी हाल की काहिरा यात्रा के दौरान धार्मिक कट्टरपंथी मुस्लिम ब्रदर हुड से कुछ सौदा किया। रिपोर्ट है कि दो पूर्व-शत्रु सितम्बर 2011 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को आपस में मिलकर लड़ेंगे। इसी तरह का कोई सौदा यमन में भी हो जाये इसकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।

अमरीका इस तरह की कलाबाजियों से बहरीन, ओमन और कतर में जहां पहले ही भारी उथल-पुथल चल रही है- अपने कठपुतली शासकों को बचाना चाहता है। यमन के घटनाक्रम से सऊदी अरब को भारी नुकसान पहुंचेगा।

लगभग सभी अरब देशों में राजनैतिक सुधारों के लिए बड़े-बड़े प्रदर्शन हो रहे हैं। बहरीन में अस्तव्यस्त राजधानी शहर समेत शिया बहुल शहरों और कस्बों में प्रदर्शन हुए हैं। बहरीन की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी-वेफाक के प्रवक्ता मत्तर इब्राहिम मत्तर के अनुसार सैकड़ों प्रदर्शनकारी गिरतार किये गये हैं, दर्जनों गायब हैं। देश में तैनात सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात की सेनाओं ने अस्पतालों और उन सभी सरकारी संस्थानों को निशाना बनाया है जिन पर आंदोलनकारियों ने कब्जा कर रखा है।

पहली अप्रैल को मस्कट के उत्तर में बदंरगाह शहर सोहर में राजनैतिक कैदियों की रिहाई और राजनैतिक सुधारों की मांग करते आंदोलनकारियों को तितर-बितर करने के लिए ओमन की पुलिस ने गोलियां चलायी, जिसमें एक प्रदर्शनकारी मारा गया। सोहर में कई सप्ताह से धरने-प्रदर्शन हो रहे थे। प्रदर्शनकारी सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों को हड़ताल के लिए और धरने पर बैठने के लिए मनाने में कामयाब रहे। 5 अप्रैल को सोहर में एक महीने से चल रहे प्रदर्शन और धरने पर ओमन की सेना ने हमला किया और प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर कर दिया। शासकों ने लोगों के बीच कुछ अफवाहे फैला कर और शिया और सुन्नी का नाम लेकर फूट डालने की कोशिश की पर उनकी कोशिश कामयाब नहीं हो सकी।

जोर्डन में भी पहली अप्रैल जुम्मे के दिन को व्यापक प्रदर्शन हुए। जोर्डन के लोग जुम्मे के दिन राजनीतिक सुधारों की मांग के लिए प्रदर्शन करते हैं। यह इस तरह के प्रदर्शनों के सिलसिले में 15वां जुम्मा था। राजधानी अम्मान में छात्र-युवा, फेसबुक कार्यकर्ता और इस्लामिस्ट-सब मिलकर नारा लगा रहे थे, ‘सुधार करो, हम नया प्रधानमंत्री चुनना चाहते हैं।‘ पुलिस ने गोली चलाई, एक प्रदर्शनकारी मारा गया, लगभग 120 जख्मी हुए। लोग चाहते हैं राजा अब्दुल्ला-2 अपनी निरंकुश शक्तियों को छोड़े और नये चुनाव किये जायें।

संयोग से पहली अप्रैल को काहिरा के तहरीर चौक में भी हजारों लोग भ्रष्ट अधिकारियों को हटाने की मांग करते हुए फिर जमा हुए। उनका मत था कि मुबारक के रक्षामंत्री की अध्यक्षता में सुप्रीम आर्म्ड कौंसिल उनकी क्रांति को बरबाद कर रही है, वह भ्रष्ट अधिकारियों का न केवल बचाव कर रही है बल्कि मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी ताकतों और अन्य कट्टर धार्मिकपंथी संगठनों को संरक्षण दे रही है। तहरीर चौक पर एक बैनर था, वैधता तहरीक चौक से मिलती है। परिवर्तन का अर्थ है परिवर्तन‘ एक अन्य बैनर था- ”उफ! कौंसिल संदेश अभी नहीं आया है, हम ऐसा संविधान चाहते है जिस पर हमें भरोसा हो।“ भूमध्य सागर के तट पर मिस्र के दूसरे सबसे बड़े शहर एलेक्जेंडरिया में भी हजारों लोग मुख्य चौक पर जमा हुए। इसी तरह के नारे लगाते हुए हजारों लोग स्वेज और महल्ला-अल-कुबरा शहरों में भी सड़कों पर उतर पड़े।

पहली अप्रैल को सबसे

अधिक उल्लेखनीय विरोध-प्रदर्शन सऊदी अरब में हुआ। संघर्षरत बहरीन के अपने भाईयों के समर्थन में और स्वयं सऊदी अरब में निरंकुश शासन के खात्मे की मांग करते हुए सैंकड़ों शांतिपूर्ण शियाओं ने राजशाही के पूर्व तेल क्षेत्र में प्रदर्शन किया। जुम्मे की नमाज के तुरन्त बाद प्रदर्शनकारी कातिफ के पास एक गांव अवामिया में जमा हुए। आंदोलनकारियों ने निरंकुश सुन्नी बादशाहत द्वारा शियाओं के विरूद्ध भेदभाव को खत्म करने की मांग की। उन्होंने नारे लगाये जिनमें ”तेल एवं बेरोजगारी, इंसाफ क्या है?“ ”बहरीन से फौज वापस बुलाओ“, ”बहरीन के लोगों को अपनी नियति तय करने दो“ जैसे नारे लगाये गये। संयोग से साझा मांगों में एक है महिलाओं का सशक्तीकरण। संभवतः कुवैत के अलावा, जहांॅ पांॅच वर्ष पहले महिलाओं को मताधिकार दिया गया और जहांॅ अब उनका संसद और कैबिनेट में प्रतिनिधित्व है, अधिकांश अरब देशों में महिलाएं इन अधिकारों से वंचित है। सऊदी अरब में जून में स्थानीय निकायों में आंशिक चुनाव होने वाले हैं। आधे सदस्य चुने जायेंगे और आधों के लिए राजा मनोनयन करेगा। इन चुनावों में भी महिलाओं को मताधिकार नहीं दिया गया है।

कुवैत में शासक परिवार के विरूद्ध यद्यपि अभी तक खुले प्रदर्शन तो नहीं हुए हैं पर असंतोष की आग सुलग रही है। जब संसद सदस्यों ने प्रधानमंत्री समेत मंत्रियों पर सवाल दागे तो केबिनेट ने त्यागपत्र दे दिया। इनमें से

अधिकांश मंत्री शासक अल-सबहा परिवार के हैं। भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोपों के अलावा सरकार पर पड़ोसी देश बहरीन में लोकप्रिय विद्रोह के मुद्दे पर हिचकिचाहट के आरोप लगे हैं। कुवैत गल्फ कोआपरेशन कौसिल का सदस्य है। इस कौंसिल के दो सदस्य देशों-सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने बहरीन में अपनी फौजें भेजी हैं पर कुवैत ने नहीं। इसके बजाय उसने वहां एक मेडिकल मिशन भेजा जिसे वहां प्रवेश नहीं दिया गया क्योंकि उस मिशन के कुछ सदस्य उस शिया सम्प्रदाय के थे जिसका सुन्नी शाही परिवार द्वारा शासित बहरीन में बहुमत है।

अरब संचार माध्यम में इन जनविद्रोहों को शिया शासित ईरान द्वारा उकसाये गये विद्रोहों के रूप में पेश करने की एक कोशिश चल रही है। कुवैत में एक अदालत ने ईरान के लिए जासूसी के आरोप में सेना के तीन कर्मचारियों को मौत की सजा दे दी है हालांकि ईरान की सरकार ने जासूनी की बात से मजबूती के साथ इंकार किया है। अदालत के इस फैसले के आधार पर कुवैत के संचार

माध्यमों के एक हिस्से ने एक जबर्दस्त शिया विरोधी अभियान छेड़ दिया है। उनके मुख्य निशाने पर हैं लेबनान का हजबोल्ला और हमास जिसका गाजा पट्टी पर शासन है। संयोग से ये दोनों इस्राइल के सबसे पक्के विरोधी है। उन पर खाड़ी के लगभग सभी देशों में सरकार विरोधी आंदोलन भड़काने के आरोप लगाये जा रहे हैं। वही संचार माध्यम सीरिया में बशर अल असद सरकार के विरूद्ध विरोध प्रदर्शनों को जनता के विद्रोह के रूप में पेश कर रहे हैं। यद्यपि वह आंदोलन दमिश्क के दक्षिण में केवल एक शहर तक सीमित है।

अरब संचार माध्यमों पर विश्वास करें तो खाड़ी क्षेत्र और उत्तरी अफ्रीका समेत समूचे अरब जगत में जबर्दस्त कन्फयूजन चल रहा है, हर कोई घटनाक्रम की अपने तरीके से व्याख्या कर रहा है।

- शमीम फै़जी

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मंगलवार, 17 मई 2011

अ0भा0 किसान सभा की 75 की वर्षगांठ के अवसर पर


अखिल भारतीय किसान सभा का संक्षिप्त इतिहास और कुछ उपलब्धियां
1936 का वर्ष भारत के किसान आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। जनवरी, 1936 में मेरठ (उ0प्र0) में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अखिल भारतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इसमें किसानों की स्थिति पर विशेष विचार हुआ। 15 जनवरी (1936) को किसान आंदोलन से संबंधित नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की वहीं बैठक हुई। वहां किसान संगठन बनाने के लिए एक संगठन समिति का गठन किया गया। समिति का कार्य था एक अखिल भारतीय किसान कांग्रेस का आयोजन करना। समिति के संयोजक थे एन0जी0 रंगा और जय प्रकाश नारायण।

अखिल भारतीय किसान सम्मेलन 11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में आयोजित किया गया जब वहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अखिल भारतीय अधिवेशन चल रहा था। सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की स्थापना की गई। कुछ ने इसे अखिल भारतीय किसान संघ भी कहा। आगे चलकर इसका नाम अखिल भारतीय किसान सभा कर दिया गया।

पृष्ठभूमि

अ0भा0 किसान सभा की स्थापना कई दशकों के संघर्षों का परिणाम था। साथ ही वह कई वर्षों से संगठन बनाने के प्रयत्नों का परिणाम भी था। जैसा कि सभी जानते हैं भारत में किसान आंदोलन की लंबी पंरपरा और इतिहास रहा है।

1936 से पहले भारत के विभिन्न प्रदेशों और क्षेत्रों में कई किसान संगठनों का जन्म हो चुका था। मसलन, बिहार में 1920 और 30 के दशकों में कई किसान सम्मेलन तथा संगठन बने। बिहार प्रदेश किसान सभा का प्रथम सम्मेलन 18 जून, 1933 को बिहटा में हुआ और दूसरा सम्मेलन 1935 में हाजीपुर में सम्पन्न हुआ।

इसी प्रकार पंजाब, संयुक्त प्रांत (यू0पी0), बंगाल, आंध्र तथा अन्य कई प्रदेशों में किसान सभाएं गठित की गई तथा उनके सम्मेलन आयोजित किए गए। इतना ही नही,ं उनके नेतृत्व में कई आन्दोलन संगठित किए गए।

अ0भा0 किसान सभा की स्थापना (1936)

11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में आरंभ अ0भा0 किसान सभा की स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध किसान नेता स्वामी सहजानंद ने की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में भूमि सुधारों पर जोर दिया और कहा कि जमींदारी व्यवस्था किसानों की समस्या की जड़ है।

सम्मेलन को सम्बोधित करने वालों में सोहन सिंह जोश, राम मनोहर लोहिया तथा अन्य कई महत्वपूर्ण नेता भी थे। सम्मेलन में भाग लेने वालों में इन्दुलाल याज्ञनिक, के0एम0 अशरफ, एन0जी0 रंगा, जय प्रकाश नारायण तथा अन्य थे।

सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर प्रस्ताव पास किए गए, जैसे किसानों की आर्थिक शोषण से मुक्ति, किसान सभा का गठन, राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेते हुए भविष्य में मेहनतकशों के राज्य के लिए संघर्ष करना, सामंती व्यवस्था के विभिन्न रूप (जमींदारी, मालगुजारी, जेनमी, इत्यादि) समाप्त किए जाएं, इत्यादि।

सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान कमेटी (ए.आई.के.सी.) तथा इसकी कार्यकारिणी के रूप में केन्द्रीय किसान काउंसिल (सी.के.सी.) का गठन किया गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती अ0भा0 किसान सभा के अध्यक्ष तथा एन0जी0 रंगा महासचिव बनाए गए।

सम्मेलन में निम्नलिखित प्रदेशों से प्रतिनिधियों ने भाग लिया- बिहार, बंगाल, आंध्र, तमिलनाडु, मलाबार, मध्य प्रांत (सी.पी), पंजाब, गुजरात, दिल्ली, इत्यादि।

सम्मेलन में एक किसान मैनिफैस्टों (किसान घोषणापत्र) की रूपरेखा तैयार की गई जिसे ए.आई.के.सी. ने बाद में अगस्त 1936 में बंबई में स्वीकार किया। यह भी निर्णय लिया गया कि इंदुलाल याज्ञनिक के संपादकत्व में एक बुलेटिन प्रकाशित किया जाए।

1936 का वर्ष भारत के जन- आंदोलन में एक महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ। अ.भा. किसान सभा के अलावा उस वर्ष ए.आई.एस.एफ. तथा प्रगतिशील लेखक संघ (पी.डब्ल्यू.ए.) जैसे जनसंगठनों की स्थापना भी की गई। ये तीनों ही मिले- जुले जनसंगठन थे जिनमें कम्युनिस्टों समेत कई अन्य वामपंथी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी तत्व भी शामिल थे।

यह देश में उभरते संयुक्त जनआंदोलनों और संयुक्त मोर्चे का प्रतीक था। साम्राज्यवाद तथा फासिज्म के बढ़ते खतरे के संदर्भ में व्यापक संयुक्त मोर्चे की रणनीति विशेष महत्व की हो उठी।

किसान दिवस

अ.भा. किसान सभा की स्थापना ने भारत के किसान आंदोलन को अधिक ठोस और संगठित रूप देते हुए उसे एक स्पष्ट दिशा प्रदान की। इस सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना थी 17 अगस्त 1936 को अ.भा. किसान दिवस का मनाया जाना। स्वामी सहजानंद ने लखनऊ सम्मेलन के निर्णयानुसार उस दिन सारे देश में सभा, प्रदर्शनों इत्यादि के जरिए दिवस मनाने की अपील की।

अ.भा. किसान सभा का फैजपुर अधिवेशन

उसी वर्ष, 1936 में ही अ.भा. किसान का दूसरा अधिवेशन फैजपुर (महाराष्ट्र) में ”तिलकनगर“ में आयोजित किया गया। 25-26 दिसम्बर को यह अधिवेशन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विषय समिति के पंडाल में सम्पन्न हुआ।

इस सम्मेलन की खास बात यह भी है कि लगभग 500 किसान प्रदर्शनकारी एवं प्रतिनिधि वी.एम. भुस्कुटे और जे. बुखारी के नेतृत्व में 12 दिसम्बर को मनमाड से पैदल चल पड़े और 200 मील से भी अधिक की यात्रा करते हुए 25 दिसम्बर को फैजपुर पहुंॅचे। वे लाल झंडे लिए हुए थे। उनके स्वागत के लिए खड़े थे- नेहरू, बंकिम मुखर्जी, एम0एन0 रॉय, नरेन्द्र देव, युसूफ मेहर अली, एस0ए0 डांगे, जय प्रकाश नारायण, मीनू मसानी तथा अन्य।

26 दिसम्बर को 15000 लोगों की विशाल रैली आयोजित की गई।

अ0भा0 किसान सभा का झंडा

अ0भा0 किसान समिति ने नियामतपुर, गया (बिहार) की 14 जुलाई, 1937 की बैठक में अपना नाम अ0भा0 किसान कांग्रेस से बदलकर अ0भा0 किसान सभा कर दिया। बैठक में किसान सभा के झंडे के बारे में भी विचार किया गया। कई प्रादेशिक किसान सभाएं लाल रंग के झंडे का प्रयोग कर रही थी। आगे 27-28 अक्टूबर, 1937 की अपनी कलकत्ता बैठक में अखिल भारतीय किसान सभा ने औपचारिक रूप से लाल झंडा स्वीकार किया। उस समय इस पर हंसिया हथौड़ा हुआ करता था बाद में आजादी के बाद सिर्फ हंसिया ही रखा गया।

अ0भा0 किसान सभा ने स्पष्ट किया कि तिरंगा झंडा हमारी आजादी के संघर्ष का झंडा है जिसके नेतृत्व में किसान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे। उसमें और लाल झंडे में कोई टकराव नहीं था। लाल झंडा संगठन का प्रतीक था।

अविस्मरणीय संघर्ष

अखिल भारतीय किसान सभा का इतिहास अविस्मरणीय और असाधारण संघर्षांे का इतिहास है, चाहे वह आजादी से पहले हो या बाद में। यहांॅ हम कुछ के उल्लेख भर ही कर पाएंगे।

1937 से आरंभ होकर किसान सभा ने हर वर्ष 1 सितम्बर अ0भा0 किसान दिवस के रूप में मनाया। 27 मार्च, 1938 को ”अखिल भारतीय कर्जा माफी दिवस“ मनाया गया। किसान सभा की ओर से मई दिवस पहली बार 1938 में मनाया गया। किसान सभा के महासचिव स्वामी सहजानंद ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सी0एस0पी0) के महासचिव जय प्रकाश नारायण और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी0सी0 जोशी द्वारा 20 मार्च, 1938 को भाकपा को कानूनी घोषित करने संबंधी दिवस मनाने की अपील का पूर्ण समर्थन किया।

अ0भा0 किसान सभा के गठन के बाद विभिन्न प्रांतों में आन्दोलन फूट पड़े और किसान सभाओं का गठन तेज हो गया। बंगाल में 16-17 अगस्त, 1936 को प्रादेशिक संगठन समिति बनाई गई। 24 परगना जिले में खास भूमि संबंधी और बर्दवान में नहर टैक्स कम करने के लिए संघर्ष चले।

बिहार में सुप्रसिद्ध बकाश्त आंदोलन मुंगेर जिले से आरंभ हुआ। 26 नवम्बर, 1937 का दिन अविस्मरणीय था। सारे प्रांत से एक लाख किसान पटना में लेजिस्लेटिव असेंबली (विधान सभा) के सामने इकटठा हो गए। उन्होंने विभिन्न टैक्सों में कमी तथा बिहार काश्तकारी कानून में सुधार की मांगे बुलंद की।

पंजाब के मांटगोमरी जिले में 40 हजार किसानों (काश्तकारों) का जमीन के ठेके के खिलाफ संघर्ष फूट पड़ा। काश्तकार फसल के आधे हिस्से की मांग कर रहे थे।

उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में घल्ला घीर के नवाब के विरोध में संघर्ष चल पड़ा।

1936 के दिसम्बर महीने में मध्यप्रांत या सी0पी0 (मराठी) में किसान सभा गठित की गई। 28 नवम्बर, 1937 को नागपुर में विधायिका के सामने हजारों किसानों का मार्च आयोजित किया गया। प्रादेशिक किसान सम्मेलन 1938 में नागपुर में आयोजित किया गया। मध्यप्रांत (हिंदुस्तानी) में महाकोशल किसान सम्मेलन दिसम्बर, 1937 में संपन्न हुआ।

सूरमा घाटी में ”टैक्स मत दो“ आंदोलन हुआ जिसमें 1937-38 में हजारों किसानों ने भाग लिया।

उत्कल प्रादेशिक किसान सभा 1935 में ही गठित हो चुकी थी। 1937 के किसान दिवस के अवसर पर 15 हजार किसानों ने कटक में मार्च किया।

बिहार में रेओरा (गया), बड़हिया टाल (मुंगेर), राघवपुर (दरभंगा), अन्नवारी (सारण), मुरियार (शाहाबाद) इत्यादि स्थानों में ऐतिहासिक किसान आंदोलन हुए जिन्हें आमतौर पर ”बकाश्त आंदोलन“ कहा जाता है। सुप्रसिद्ध लेखक, इतिहासकार, दार्शनिक और बौद्ध दर्शन के विद्वान राहुल सांकृत्यायन इन्हीं आंदोलनों से किसान नेता के रूप में उभरे। कार्यानंद शर्मा अन्य प्रसिद्ध नेता थे।

मलाबार और आंध्र में ऐतिहासिक किसान संघर्ष हुए। मलाबार में ऑल मालाबार पेजंट्स यूनियन का गठन हुआ।

किसान स्कूल और संस्थान

किसान सभा के इतिहास का एक अनजाना-सा पृष्ठ है इंडियन सेंट्रल किसान स्कूल (भारतीय कंेद्रीय किसान स्कूल) और पेजंट इंस्टीट्यूट (किसान संस्थान) का निर्माण। इनकी स्थापना काफी पहले दिसम्बर, 1933 में आंध्र प्रदेश के नीटुब्रोले में की गई और 1938 आते-आते यह काफी मजबूत संस्था बन गई। यहांॅ नियमित राजनैतिक स्कूल लगा करते और शोध कार्य, प्रकाशन तथा पुस्तकालय निर्माण का कार्य चला करता।

1937 के आम चुनाव और किसान सभा

1937 में सीमित मताधिकार के आधार पर ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में आम चुनाव हुए। इनमें कांग्रेस की भारी जीत हुई। किसान सभा ने चुनावों में काम करने का फैसला किया। उसने तय किया कि सामंती विचारों और बड़े सामंतों के समर्थक उम्मीदवारों को हराया जाए और किसान परस्त उम्मीदवारों को जिताया जाए। इस उद्देश्य में उसे काफी सफलता मिली और सामंती तत्वों को पीछे धकेला जा सका।

इसके अलावा 1937-39 के कांग्रेस मंत्रिमंडलों के अधीन मिले कई जनतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग किसान सभा और आम किसानों ने उठाया। बड़े पैमाने पर किसान आंदोलन फूट पड़ने का यह भी एक बड़ा कारण रहा।

किसान आंदोलन

1940 के दशक में किसान सभा की भागीदारी से या उसके नेतृत्व में कई ऐतिहासिक आंदोलन हुए- कय्यूर (1943), पुन्नप्रा- वायालार (1946), तेभागा (1946), तेलगांना (1946), बकाश्त (1940 का दशक- यू0पी0 बिहार), इत्यादि। इनमें से कुछ सशस्त्र संघर्ष थे, जैसे तेलगांना। इतिहास में इनके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है।

आंध्र तथा अन्य कुछ क्षेत्रों में किसान- मार्च

यह अनोखा और अनूठा आंदोलन 1937-38 में हुआ था। आंध्र के इच्छापुर से 3 जुलाई 1937 को हजारों किसानों ने एक हजार मील लंबा पैदल मार्च आरंभ किया। अ0भा0 किसान सभा के अध्यक्ष प्रो0 एन0जी0 रंगा ने इसका शुभारंभ किया। यह अनूठा और ऐतिहासिक मार्च 27 मार्च, 1938 को मद्रास में समाप्त हुआ। इसके अलावा कुछ और दूरी उन्होंने बसों में भी तय की। उन्होंन ‘प्रधानमंत्री’ (मुख्यमंत्री) और राजस्व मंत्री को अपनी मांगे पेश कीं।

इससे मिलते-जुलते पैदल मार्च दिसम्बर, 1938 में मलाबार और कोयम्बतूर में, दक्षिण कनारा जिले में, तमिलनाडू और आंध्र में दर्जनों की संख्या में, महाराष्ट्र के विदर्भ में 1938-39 में अकाल और भुखमरी के खिलाफ, खरगोन में 1937 में, तथा अन्य जगहों पर निकाले गए।

गुजरात में भी किसान सभा का शक्तिशाली आंदोलन था।

बंगाल के अकाल (1943) ने बंगाल और भारत के किसान आंदोलन को एक अलग मोड़ दिया। लाखों किसान भूख से मर गए। फलस्वरूप जनता सामाजिक आर्थिक पक्ष पर सोचने पर मजबूर हो गई। अकाल ने बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत में कृषि और कृषि संबंधों की तस्वीर बद दी।

भारत की आजादी के संघर्ष में किसानों का तथा विशेष तौर पर अखिल भारतीय किसान सभा का विशेष योगदान रहा। 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारत में जो साम्राज्यवाद विरोधी उभार आया उसमें किसानों की विशेष भूमिका रही।

आजादी के बाद किसान सभा की कुछ विशेषताएं

अ0भा0 किसान सभा आजादी के समय एक अत्यंत शक्तिशाली संगठन बन चुका था। उसने 1947 में आजादी का स्वागत किया और उसके जश्न में हिस्सा लिया।

1947-48 में किसान सभा पर वामपंथी संकीर्णतावादी दुस्साहसिक समझ हावी हो गई। जो बी.टी. आर-लाइन के रूप में सुविख्यात है। हम उसके विस्तार में यहां नहीं जा रहे हैं। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों का सबसे मजबूत संगठन और हथियार 1950 आते- आते पूरी तरह बिखर गया।

अ0भा0 किसान सभा को पुनः उभरने में वर्षाे लग गए। जब तक वह उभरकर लीक पर आ रहा था तो उसे फिर साठ के दशक में माओवादी तोड़फोड का सामना करना पड़ा।

फिर भी आजाद भारत में किसान सभा ने कई महत्वपूर्ण और यादगार योगदान दिए। इनमें से दो-तीन का ही हम जिक्र भर ही कर पाएंगे।

पहला, पचास के दशक में अ0भा0 किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन के लिए तथा किसानों में जमीन के बंटवारे के प्रश्न को लेकर असाधारण संघर्ष किए। फलस्वरूप, पचास के दशक के मध्य तक हमारे देश में सामंती उत्पादन- पद्धति लगभग समाप्त हो गई।

दूसरा, संघर्ष समाप्त नहीं हुआ; व्यापक भूमि- सुधारों का संघर्ष आगे जारी रहा। विशेष तौर पर ‘60, ‘70 और ‘80 के दशकों में बड़े भूस्वामियों के विरूद्ध आंदोलन चलाए गये, उनकी भूमि के अधिग्रहण और सीलिंग से अधिक भूिम को भूमिहीनों तथा गरीब किसानों के बीच बांटने की मांग की। स्वयं किसान सभा ने कई जगहों पर हजारों एकड़ फालतू भूमि पर कब्जा करके उसे भूमिहीनों में बांटा। भूमि पर पट्टे दिलवाने का संघर्ष इसका महत्वपूर्ण अंग था।

तीसरा, काफी समय से किसान सभा में महसूस किया जा था कि खेत मजदूरों का अलग अ0भा0 संगठन बने। जमींदारी उन्मूलन और कृषि में पंूजीवादी संबंधों के प्रवेश से खेत मजदूर और ग्रामीण सर्वहारा महत्वपूर्ण तबके के रूप में सामने आये इन सारे कारणों से अ0भा0 किसान सभा और भाकपा की पहल पर 1968 में खेत मजदूरों का अलग संगठन, भारतीय खेत मजदूर संघ (बी.के.एम.यू.) 1968 में गठित किया गया। इससे पहले किसान और खेत मजदूर एक ही संगठन में थे।

आज अखिल भारतीय किसान सभा देश और दुनिया के बदलते परिवेश में किसानों की मांगों और नई समस्याओं को सुलझाने के लिए सतत संघर्षशील है।

- अनिल राजिमवाले
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गुरुवार, 12 मई 2011

भाकपा कार्यकर्ताओं सहित भाकपा राज्य सचिव गिरफ्तार


लखनऊ 12 मई। भट्ठा पारसौल गांव में पीड़ित किसानों से मिलने जाते हुए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव डा. गिरीश को पचास अन्य पार्टी कार्यकर्ताओं एवं नेताओं के साथ ग्रेटर नोएडा में दोपहर बाद गिरफ्तार कर कासना कोतवाली ले जाकर निरूध किया गया है।

भाकपा के राज्य सचिव मंडल ने बसपा सरकार की कड़े शब्दों में आलोचना करते हुए कहा है कि भट्ठा पारसौल में जिस तरह का घृणित तांडव रचा गया है उसको छिपाने के लिए आज फिर पुलिस ने क्षेत्र की नाकेबंदी कर दी और भाकपा के प्रतिनिधि मंडल को रास्ते में ही रोक कर गिरफ्तार कर लिया। भाकपा राज्य सचिव मंडल ने इस गिरफ्तारी की कटु निन्दा की है।

अपनी गिरफ्तारी के समय भाकपा राज्य सचिव डा. गिरीश ने पत्रकारों को सम्बोधित करते हुए कहा कि कल राज्य सरकार और केन्द्र सरकार के मध्य दुरभि संधि के तहत कांग्रेस के एक नेता को भट्ठा और पारसौल गांवों में नाटक रचने की खुली छूट दी गयी और पूरे दिन कल एक राजनैतिक प्रहचन चलता रहा। आज भाकपा जैसे भूमि अधिग्रहण के खिलाफ अनवरत संघर्ष चलाने वाले विपक्षी दल को किसानों-मजदूरों की पीड़ा को सुनने से रोका गया। डा. गिरीश ने कहा कि भाकपा इस अन्याय को चुपचाप सहन नहीं कर सकती। किसानों के उत्पीड़न, जबरिया भू-अधिग्रहण, मंहगाई और भ्रष्टाचार आदि सवालों को लेकर भाकपा पूरे राज्य में 16 मई से ”गांव चलो-मोहल्ला घूमो“ अभियान चलायेगी और 30 मई को प्रत्येक जिला केन्द्र पर धरने-प्रदर्शन आयोजित किये जायेंगे।

भाकपा के गिरफ्तार नेताओं में भाकपा राज्य कार्यकारिणी सदस्य अरविन्द राज स्वरूप, शरीफ अहमद एवं अजय सिंह, राज्य कौंसिल सदस्य भारतेन्दु शर्मा एवं नत्थी राम शर्मा, वरिष्ठ नेता जितेन्द्र शर्मा आदि 50 से अधिक पार्टी कार्यकर्ता शामिल हैं।
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स्मरण : सआदत हसन मंटो



भारतीय उपमहाद्वीप के ही नहीं, सारी दुनिया के महानतम आधुनिक कथाकारों में से एक सआदत हसन मंटो का जन्मशती वर्ष शुरू हो रहा है। मंटो 11 मई 1912 को पैदा हुए थे और 1 8 जनवरी 1955 को उनका असामयिक निधन हो गया था। मंटो का लेखन चर्चित होने के साथ-साथ विवादों मंे भी घिरा रहा। अविभाजित भारत और पाकिस्तान में उन पर अश्लीलता के लिए कई मुकदमे हुए, लेकिन आज मंटो को उनकी गहरी मानवीय दृष्टि और मार्मिकता के लिए जाना जाता है। प्रस्तुत है विभाजन की त्रासदी पर उनके स्याह हाशिए से दो कहानियां।

तआवुन

चालीस-पचास लठबंद आदमियों का एक गिरोह लूट-मार के लिए एक मकान की तरफ बढ़ रहा था। दफ्अतन उस भीड़ को चीर कर एक दुबला-पतला अधेड़ उम्र का आदमी बाहर निकला। पलट कर वह बलवाइयों से लीडराना अंदाज में मुखातिब हुआ: “भाइयो, इस मकान में बेअंदाजा दौलत है, बेशुमार किमती सामान है... आओ हम सब मिल कर इस पर काबिज हो जाएं और माले-गुनीमत आपस में बांट लें।”

हवा में कई लाठियां लहराईं, कई मुक्के भिंचे और बुलंद वाँग-नारों का एक फव्वारा सा छूट पड़ा।

चालीस-पचास लठबंद आदमियों का गिरोह दुबले-पतले अधेड़ उम्र के आदमी की कयादत में उस मकान की तरफ तेजी से बढ़ने लगा, जिसमें बेअंदाजा दौलत और बेशुमार कीमती सामान था।

मकान के सदर दरवाजे के पास रूक कर दुबला-पतला आदमी फिर बलवाइयों से मुखातिब हुआ: “भाइयों, इस मकान में जितना भी माल है, सब तुम्हारा है... देखो, छीना-झपटी नहीं करना, आपस में नहीं लड़ना, आओ!“

एक चिल्लाया: “दरवाजे में ताला है।“

दूसरे ने बआवजे बुलंद कहा: “तोड़ दो।“

“तोड़ दो, तोड़ दो।“ हवा में कई लाठियां लहराई, कई मुक्के भिंचे और बुलंद बांग-नारो का एक फव्वारा-सा छूट पड़ा।

दुबले-पतले आदमी ने हाथ के इशारे से दरवाजा तोड़ने वालों को रोका और मुसकराकर कहाः “भाइयों, ठहरो... मैं इसे चाबी से खोलता हूं।“

यह कहकर उसने जेब से चाबियों का गुच्छा निकाला और एक चाबी मुंतखब करके ताले में डाली और इसे खोल दिया- शीशम का भारी दरवाजा एक चीख के साथ वो हुआ तो हुजूम दीवानावार अंदर दाखिल होने के लिए आगे बढ़ा। दुबले-पतले आदमी ने माथे का पसीना अपनी आस्तीन से पोंछते हुए कहा: “भाइयांे, आराम से जो कुछ इस मकान में है, सब तुम्हारा है, फिर इस अफरा-तफरी की क्या जरूरत है?“

फौरन ही हुजूम में जब्त पैदा हो गया एक-एक करके बलवाई मकान के अंदर दाखिल होने लगे, लेकिन जूं ही चीजों की लूटमार शुरू हुई, फिर धांधली मच गई। बड़ी बेरहमी से बलवाई कीमती चीजों पर हाथ साफ करने लगे।

दुबले-पतले आदमी ने जब यह मंजर देखा तो बड़ी दुख भरी आवाज में लुटेरों से कहा: “भाइयों, आहिस्ता-आहिस्ता... आपस में लड़ने-झगड़ने की कोई जरूरत नहीं... नोच-खसोट की भी कोई जरूरत नहीं... तआवुन से काम लो। अगर किसी के हाथ ज्यादा कीमती चीज आ गई है तो हासिद मत बनो... इतना बड़ा मकान है, अपने लिए कोई और चीज ढूंढ़ लो... मगर वहशी न बनो... मार- धाड़ करोगे तो चीजें टूट जाएंगी... इसमें नुकसान तुम्हारा ही है...“ लुटेरों में एक बार फिर नज्म पैदा होग या, और भरा हुआ मकान आहिस्ता-आहिस्ता खाली होने लगा।

दुबला-पतला आदमी वक्तन- फक्वतन हिदायते देता रहा: “देखो भैया, वह रेडियो है... जरा आराम से उठाओ, ऐसा न हो कि टूट जाए... इसके तार भी साथ लेते जाओ...“

“तह कर लो भाई, इसे तह कर लो... अखरोट की लकड़ी की निपाई है, हाथीदांत की पच्चीकारी है, बड़ी नाजुक चीज है है... हां अब ठीक है...““

“नहीं-नहीं, यहां मत पियो, बहक जाओगे... इसे घर ले जाओ ...“

“ठहरो-ठहरो, मुझे मेन स्विच बंद कर लेने दो... कहीं करंट से धक्का न लग जाए...“

इतने में एक कोने से शोर बुलंद हुआ- चार बलवाई रेशमी कपड़े के एक थान पर छीना-झपटी कर रहे थे।

दुबला-पतला आदमी तेजी से उसकी तरफ बढ़ा और मलामत भरे लह्जे में उनसे कहने लगा: “तुम लोग कितने बेसमझ हो... चिंदी-चिंदी हो जाएगी ऐसे कीमती कपड़े की... घर में सब चीजें मौजूद हैं गज भी होगा... तलाश करो और नाप कर कपड़ा आपस में तकसीम कर लो...“

दफ्अतन एक कुत्ते के भौंकने की आवाज आई: अफ़-अफ़-अफ़... और चश्मे-जदन में एक बहुत बड़ा गद्दी कुत्ता एक जस्त के साथ अंदर लपका, और लपकते ही उसने दो-तीन लुटेरों को भंभोड़ दिया।

दुबला-पतला आदमी चिल्लाया: “टाइगर-टाइगर...“

टाइगर, जिसके मुुंह में एक लुटेरे का नुचा हुए गिरेबान था, दुम हिलाता हुआ दुबले-पतले आदमी की तरफ निगाहें नीची किए कदम उठाने लगा।

टाइगर के आते ही सब लुटेरे भाग गए थे, सिर्फ एक लुटेरा बाकी रह गया था, जिसके गिरेबान का टुकड़ा टाइगर के मुंह में था।

उसने दुबले-पतले आदमी की तरफ देखा और पूछा: “कौन हो तुम?

दुबला-पतला आदमी मुसकराया: “इस घर का मालिक, देखो-देखो, तुम्हारे हाथ से कांच का मर्तबान गिर रहा है।“

तकसीम

एक आदमी ने अपने लिए लकड़ी का एक बड़ा संदूक मुंतखब किया, जब उसे उठाने लगा तो संदूक अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। एक शख्स ने जिसे शायद अपने मतलब की कोई चीज मिल ही नहीं रही थी, संदूक उठाने की कोशिश करने वाले से कहा: ”मैं तुम्हारी मदद करूँ।“

संदूक उठाने की कोशिश करने वाला इम्दाद लेने पर राजी हो गया।

उस शख्स ने जिसे अपने मतलब की कोई चीज मिल नहीं रही थी, अपने मजबूत हाथों से संदूक को जुंबिश दी और संदूक को उठाकर अपनी पीठ पर धर लिया - दूसरे ने सहारा दिया, और दोनों बाहर निकले।

संदूक बहुत बोझिल था। उसके वजन के नीचे उठाने वाले की पीठ चटख रही थी और टाँगें दोहरी हुई जा रहीं थीं, मगर इनाम की तवक्को ने उस जिस्मानी मशक्कत का एहसास नीम मुर्दा कर दिया था।

संदूक उठाने वाले के मुकाबले में संदूक मुंतखब करने वाला बहुत कमजोर था - सारा रास्ता वह सिर्फ एक हाथ से संदूक को सहारा देकर अपना हक कायम रखता रहा।

जब दोनों महफूज मुकाम पर पहुंच गए तो संदूक को एक तरफ रख कर सारी मशक्कत बर्दाश्त करने वाले ने कहा: ”बोलो, इस संदूक के माल में से मुझे कितना मिलेगा?“

संदूक पर पहली नजर डालने वाले ने जवाब दिया: ”एक चौथाई।“

”यह तो बहुत कम है।“

”कम बिलकुल नहीं, ज्यादा है.... इसलिए कि सबसे पहले मैंने ही इस माल पर हाथ डाला था।“

”ठीक है, लेकिन यहां तक इस कमरतोड़ बोझ को उठा के लाया कौन है?“

”अच्छा, आधे-आधे पर राजी होते हो?“

”ठीक है...... खोलो संदूक।“

संदूक खोला गया तो उसमें से एक आदमी बाहर निकला। उसके हाथ में तलवार थी - उसने दोनों हिस्सेदारों को चार हिस्सों में तकसीम कर दिया।
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बुधवार, 11 मई 2011

पूंजीवादी हमले का मुंहतोड़ जवाब दो


आज खाद्य पदार्थों के बेइंतिहा दाम बढ़ना और अबाध भ्रष्टाचार ये दो मुख्य मुद्दे हैं।

केन्द्र की सरकार घोटालों और राष्ट्रीय संपदा को लूटने में मगन है। सत्ता में बैठे लोगों का कार्पोरेट जगत की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ भयंकर सांठगांठ उजागर हुई है। इसका पूरा पर्दाफाश हुआ है कि यह सरकार पूंजीपतियों व्यापारियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों का खिलौना है। संपूर्ण राजकीय तंत्र आम आदमी की कीमत पर पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए काम करता है।

कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वन में सरकारी भूमिका संदिग्ध है। नरेगा के लिये आवंटित राशि को पूरापूरी खर्च नहीं किया गया। सौ दिनों के बदले औसत 38 दिन प्रतिव्यक्ति ही काम मुहैया किया गया।

उदारीकरण के नये दौर में मुनाफे के विदेशी शिकारियों के लिये दरवाजे खोल दिये गये हैं, जो राष्ट्रीय हितों की अवमानना करते हैं। वित्तीय क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रोत्साहन देने के लिए कई कानूनों के प्रारूप सरकार के विचारधीन हैं। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश 8 करोड़ लोगों को कुप्रभावित करेगा। 20 कामगारों से नीचे नियोजित करने वाले कारखानों को सरकारी निरीक्षण से बाहर करने का प्रस्ताव लाया गया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पूरी आजादी है कि वह जो चाहे करें। सार्वजनिक क्षेत्र के अंधाधुंध निजीकरण और विनिवेश से आत्मनिर्भर राष्ट्रीय चरित्र तेजी से खत्म हो रहा है।

असंगठित मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ है। सरकारी महकमे और सार्वजनिक क्षेत्र उद्योगों में भी नियमित कामों को ठेके पर लगाये जा रहे हैं।

देश में कुल श्रम बल 46 करोड़ है। बेरोजगारों की संख्या 10 प्रतिशत है। नौकरी की तलाश में 4 करोड़ लोगों की भीड़ श्रमबाजार में मौजूद है। 43.5 करोड़ लोग असंगठित क्षेत्र में हैं। कुछ राज्य सरकारों द्वारा न्यूनतम पारिश्रमिक 65/- प्रतिदिन निर्धारित किया गया है। ऊँचा दैनिक पारिश्रमिक पाने वालों के बीच 600/- रुपये का फर्क है।

भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना है कि यहां 65/- न्यूनतम दैनिक पारिश्रमिक पर मजदूर काम करने को विवश हैं, वहीं देश के उद्योगपतियों का वेतन 83,000/- रुपये प्रतिदिन की ऊंचाई पर है। इस तथाकथित कल्याणकारी राज्य में आय का इतना बड़ा शर्मनाक अंतर है।

नियमित रोजगार का क्षरण हो रहा है। ठेका मजदूरों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। पूंजीपति सरकारी मदद से मजदूरों के श्रम से अधिकतम निचोड़ते हैं और बदले में उन्हें न्यूनतम वेतन भुगतान करते हैं। पारिश्रमिक बहुत कम है, जबकि उनका कार्यदिन अत्यधिक लंबा है। इस मायने में श्रम कानूनों का उल्लंघन होता है। ठेका मजदूरों में 32 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे हैं। यह प्रताड़नापूर्ण श्रम है। श्रम बाजार मंे बेरोजगारी का आलम है। सामाजिक सुरक्षा, रोजगार सुरक्षा आदि का पूर्णतः अभाव है।

देश में कोई 140 श्रम कानून हैं, किंतु इसका लगातार उल्लंघन बढ़ रहा है। उल्लंघन सार्वजनिक क्षेत्र में और निजी क्षेत्र में भी समान रूप से हो रहा है। टेªड यूनियन का निबंधन मुश्किल हो गया है। अधिकतर श्रम विभाग कार्पोरेट सेक्टर के साथ कदम से कदम मिलाकर चलता है।

सामाजिक सुरक्षा लाभ असंगठित और ठेका श्रमिकों को नहीं मिलता है। उन्हें नियोजकों की दया पर छोड़ दिया गया है। देश में कुल श्रमिकों की संख्या 46 करोड़ हैं, किंतु केवल पांच करोड़ श्रमिकों को ही इपीएफ और इएसआई की सुविधा प्राप्त है।

उत्पीड़ित असंगठित मजदूर

असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को, जो देश की जनसंख्या का 40 प्रतिशत हैं, शोषण एवं प्रताड़न का शिकार बनाया जा रहा है। उनमें सामूहिक सौदा करने की क्षमता नही है। इससे उनकी स्थिति बद से बदतर है। बीड़ी मजदूरों की कल्याण योजनाएं केवल कागज पर हैं। भवन एवं निर्माण मजदूरों के लिये अनेक राज्यों में अब तक बोर्ड का निर्माण भी नहीं हुआ है। कृषि मजदूरों का शोषण बेदर्दी से हो रहा है। इस तरह हथकरघा बुनकरों की दशा दयनीय हैं।

नयी संभावनाएं

ऐसी परिस्थिति में अच्छी मजदूरी के लिये, श्रम कानूनों के कार्यान्वन के लिये, ठेका मजदूरों की सेवा के नियमन, असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, मातृत्व लाभ, न्यूनतम मजदूरी आदि मांगों के लिये अनवरत संघर्ष अनिवार्य हो गया है। इन मांगों के लिये संघर्ष पूंजीवादी अमानवीय शोषण के विरूद्ध बेहतर दशा के लिये श्रमिकों की राजनीतिक लड़ाई का आधार प्रदान करता है। यह पूंजीवादी हमले का मुकाबला करने का युद्ध है। यह सही माने में पूंजीवादी पद्धति के विरूद्ध विद्रोह है। यह अपने आप में एक राजनीतिक लड़ाई है। यह पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का अभिन्न अंग है। यह साम्राज्यवादी नवउदारतावाद के विरूद्ध धर्मयुद्ध है।

मजदूरों का रूझान संघर्ष के प्रति तेज हुआ है। विभिन्न स्तरों पर टेªड यूनियनों की एकता आगे बढ़ी है। संगठन में विभिन्न स्तरों पर संघर्ष के प्रति विश्वास दृढ़ हुआ है। देश में टेªड यूनियन आंदोलन आगे बढ़ा है। टेªड यूनियन आंदोलन में नयी संभावनाओं का उदय हुआ है। सरकारी दमन के खिलाफ मजदूरों की प्रत्याक्रमण क्षमता बढ़ी है। इसलिये आगे बढ़ो और नग्न पूंजीवाद और उसकी रक्षक सरकार के दमन का मुकाबला करो। यह मौका चोट करने का है।

इस विषम परिस्थिति में मजदूर वर्ग का विश्वसनीय दोस्त वामपंथ बंगाल, केरल, असम एवं अन्य राज्यों में चुनाव का सामना कर रहा है। पूंजीवादी नवउदारतावादी सत्तारूढ़ कांग्रेस और सत्ता की दावेदार भाजपा दोनों ही पार्टियां सत्ता का द्विपक्षीय ध्रुव बनाने पर तुली हैं। इन दोनों ही पार्टियों का सहयोग अमेरिकी साम्राज्यवाद से है। यह दोनों पार्टियां सार्वजनिक संपत्ति की लूट और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देकर तथा पूंजीवादी शोषण एवं सम्प्रदायवाद की नीति चलाकर जनता को बांटती हैं और दूसरी तरफ जन समस्याओं का प्रवक्ता बनने का भी दम भरती हैं।

यद्यपि छिटपुट कुछ संघर्ष हुए हैं, किंतु राष्ट्रीय स्तर पर पूंजीवाद का विरोध करनेवाली ताकतों द्वारा कुछ भी उल्लेखनीय आंदोलन नहीं उभरा है। ऐसी स्थिति में टेªड यूनियनों की व्यापक एकता हासिल की गयी और सितम्बर की विगत हड़ताल, जेल भरो आंदोलन, 23 फरवरी 2011 को दिल्ली में विशालतम रैली के आयोजन जैसे कार्यक्रमों ने नई आशाओं का संचार किया है। इस नये सामाजिक सकारात्मक विकास क्रम के रचनाकार का सहज श्रेय एटक को जाता है।

पूंजीपक्षी बजट

संसद में प्रस्तुत बजट तत्वतः पूंजीपति पक्षी है। कृषि क्षेत्र में तथाकथित हरित क्रांति के नाम पर मात्र 400 करोड़ रुपये का नामलेवा आबंटन बढ़ाया गया है। दाल उत्पादन के लिए महज 300 करोड़ की अल्प धनराशि का आबंटन शर्मनाक है, जबकि दाल का अभाव सर्वत्र महसूस किया जाता है। सब्जी उत्पादन के लिये 300 करोड़ का आबंटन किया गया है, जबकि सब्जी का दाम सब जगह ऊंचा है। इस तरह के दिखावे की प्रतीकात्मक वृद्धि के अनेक नमूने बजट में देखे जा सकते हैं। ये अल्प आबंटन देश की जरूरत के मद्देनजर नगण्य हैं।

जीडीपी ऊंचा बढ़ रहा है, किंतु स्वास्थ्य पर खर्च की राशि नीचे घट रही है। स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास और कृषि जैसे चार महत्वपूर्ण क्षेत्रों में पिछले साल के आबंटन की तुलना में मात्र 6.5 की वृद्धि की गयी है। नरेगा का आबंटन तो सही मायने में घटा दिया गया है। वित्त मंत्री ने मुद्रास्फीति घटाने का कुछ भी उपाय नहीं किया जिसके चलते खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ रहे हैं।

संरचनात्मक गतिविधियों में विदेशी निवेश की अनुमति सट्टेबाजार को बढ़ावा देती है और इससे मुद्रास्फीति कम करने के बैंकों द्वारा किये जा रहे प्रयासों को धक्का लगेगा। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश (एफडीआई) को न्योते का खतरा इस संदर्भ में और भी ज्यादा भयावह है।

इस पूंजीपतिपक्षी बजट की विशेषता है कि इसमें कार्पोरेट टैक्स की माफी दी गयी है। जो पूंजीपति अधिक मुनाफा कमाते हैं, उनके कर प्रावधानों में कमी की गयी है। यह संघीय बजट कार्पोरेट सेक्टर का आयकर 240 करोड़ रुपये रोजाना अपलेखित करता है। पिछले सालों में 3,74,937 करोड़ रुपये टैक्स अपलिखित किये गये हैं, जो 2जी घोटाले की रकम का दुगुना है। यह एक्साइड ड्यूटी और कस्टम ड्यूटी में दी गयी छूट के अलावा कार्पोरेट को वित्त मंत्री द्वारा दिया गया स्पेशल तोहफा है।

टैक्स माफी

कुल मिलाकर पूंजीपतियों को भारी इनाम दिया गया है। इस वर्ष भी वित्त मंत्री ने 88,263 करोड़ रुपये टैक्स अपलिखित करने का प्रस्ताव किया है, जो पिछले साल में 1,800 करोड़ से कहीं ज्यादा है। राजस्व की हानि काफी हो रही है। व्यक्तिगत करदाताओं के मामले में प्रस्तुत बजट में 45,222 करोेड़ रुपये की छूट प्रस्तावित है, जो गत वर्ष के 5,000 करोड़ रुपये के मुकाबले कहीं ज्यादा है। धनी और ज्यादा धनाढ्य लोगों को लाभ दिये गये हैं। वर्ष 2009-10 में कर उगाही में दी गयी छूट की कुल रकम 2.22 लाख करोड़ है। राजस्व की जो रकम प्रदर्शित की गयी है, उसमें टैक्सचोरी की भारी रकम छुपायी गयी है। फिर भी कार्पोरेट टैक्सों का बकाया अभी भी 1.45 लाख करोड़ रुपये है। ये कुछ उदाहरण हैं कि धनी लोगों को कैसे लाभान्वित किया गया है और गरीबों को लूटा गया है। धन का अभाव बताकर आम आदमी को उनके अधिकारों से वंचित किया गया है, किंतु अमीरों के टैक्स माफ किये जाते हैं।

सरकार में इस इच्छाशक्ति का पूर्ण अभाव है कि वह उन लोगों से टैक्स की रकम वसलू करे जो भुगतान करने की अपार क्षमता रखते हैं। अत्यधिक लाभ कमानेवाली कंपनियों से टैक्स वसूल न करना सरकार की प्रतिगामी टैक्स नीति है। 500 करोड़ से ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों की संख्या 22.55 प्रतिशत है।, वहीं 100 करोड़ रुपये तक मुनाफा कमानेवाली कंपनियों की संख्या 26 प्रतिशत है। इनसे समुचित मात्रा में कर वसूलना ज्यादा मुश्किल नहीं है। सरकार पूंजीपतियों पर मेहरबान है। इससे आम आदमी के प्रति न्याय और समानता के सरकारी दावे का पाखंड उजागर होता है। बेरोजगारी, भूख, गरीबी और बीमारी दूर करने के लिये कार्पोरेट पर टैक्स लगाने की सरकारी अक्षमता पूरी तरह बेपर्द हुई है।

सार्वजनिक क्षेत्र की विनिवेश के रास्ते से 40,000 करोड़ रुपये उगाहने की मंशा प्रकट की गयी है। यह घर के जेवर बेचने जैसा कृत्य है। इस बजट का चरित्र पूर्णतः अन्यायपूर्ण, असमान, नैतिकताविहीन, जनविरोधी और पूंजीपतिपक्षी है। यह आम जनता के किसी तबके की समस्या का समाधान करने में विफल है।

आंगनबाड़ी कर्मचारियों और सहायिकाओं के मानदेय में मामूली बढ़ोत्तरी की गयी है। देश में कुल आंगनबाड़ी कर्मचारियों की संख्या 22 लाख है। बिहार एवं अनेक स्थानों में अनेक प्रदर्शन हुए। यह वृद्धि एटक द्वारा अनवरत किये गये प्रयासों का फल है। आंगनबाड़ी कर्मचारियों के संगठन मजबूत करना जरूरी है।

डब्ल्यूएफटीयू

लोकतंत्र के पक्ष में और पंूजीवाद के खिलाफ पूरी दुनिया में श्रमजीवियों का संघर्ष तेज हो रहा है। अरब दुनिया में और यूरोप में व्यापक जन उभार हुए हैं। इस पृष्ठभूमि में डब्ल्यूएफटीयू का विश्व सम्मेलन 6 अप्रैल से एथेंस में होने जा रहा है। इसमें 140 देशों से प्रतिनिधि भाग लेनेवाले हैं। एटक का एक शक्तिशाली प्रतिनिधिमंडल इस सम्मेलन में भाग ले रहा है।

चोट करो

मौजूदा हालात ने हमारे सामने हमारा सबक निर्धारित कर दिया है। मजदूर वर्ग का संघर्ष और भी ज्यादा ऊंचाई प्राप्त करेगा। सरकारी निकम्मापन और देशी विदेशी कंपनियों की सांठगांठ से की जा रही लूट-खसोट के खिलाफ लड़ाकू संघर्ष करना है। एटक इसके लिये एक राष्ट्रीय कनवेंशन करने का इरादा रखता है, जहां से आंदोलनों का आगे विस्तार किया जायगा। राज्य स्तर पर और जिला एवं क्षेत्रीय स्तर पर सघन कार्रवाइयों के बाद फिर एक बड़ी राष्ट्रीय हड़ताल होगी।

कोयला, बैंक बीमा, ट्रांसपोर्ट, बिजली आदि के मजदूर एवं कर्मचारी अपने आंदोलन के कार्यक्रम तय कर रहे हैं। एटक सभी क्षेत्रों के कर्मचारियों का आह्वान करता है कि वे आंदोलन की तैयारी करें। यह आराम का समय नहीं है। हमें अनवरत समझौताविहीन संघर्ष की ओर आगे बढ़ना है।

(उपर्युक्त आलेख 2-3 अप्रैल 2011 की एटक वर्किंग कमेटी में प्रस्तुत महासचिव प्रतिवेदन का सारांश है।)

- गुरूदास दास गुप्ता
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