अखिल भारतीय किसान सभा का संक्षिप्त इतिहास और कुछ उपलब्धियां
1936 का वर्ष भारत के किसान आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। जनवरी, 1936 में मेरठ (उ0प्र0) में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का अखिल भारतीय सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इसमें किसानों की स्थिति पर विशेष विचार हुआ। 15 जनवरी (1936) को किसान आंदोलन से संबंधित नेताओं एवं कार्यकर्ताओं की वहीं बैठक हुई। वहां किसान संगठन बनाने के लिए एक संगठन समिति का गठन किया गया। समिति का कार्य था एक अखिल भारतीय किसान कांग्रेस का आयोजन करना। समिति के संयोजक थे एन0जी0 रंगा और जय प्रकाश नारायण।
अखिल भारतीय किसान सम्मेलन 11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में आयोजित किया गया जब वहां भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अखिल भारतीय अधिवेशन चल रहा था। सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की स्थापना की गई। कुछ ने इसे अखिल भारतीय किसान संघ भी कहा। आगे चलकर इसका नाम अखिल भारतीय किसान सभा कर दिया गया।
पृष्ठभूमि
अ0भा0 किसान सभा की स्थापना कई दशकों के संघर्षों का परिणाम था। साथ ही वह कई वर्षों से संगठन बनाने के प्रयत्नों का परिणाम भी था। जैसा कि सभी जानते हैं भारत में किसान आंदोलन की लंबी पंरपरा और इतिहास रहा है।
1936 से पहले भारत के विभिन्न प्रदेशों और क्षेत्रों में कई किसान संगठनों का जन्म हो चुका था। मसलन, बिहार में 1920 और 30 के दशकों में कई किसान सम्मेलन तथा संगठन बने। बिहार प्रदेश किसान सभा का प्रथम सम्मेलन 18 जून, 1933 को बिहटा में हुआ और दूसरा सम्मेलन 1935 में हाजीपुर में सम्पन्न हुआ।
इसी प्रकार पंजाब, संयुक्त प्रांत (यू0पी0), बंगाल, आंध्र तथा अन्य कई प्रदेशों में किसान सभाएं गठित की गई तथा उनके सम्मेलन आयोजित किए गए। इतना ही नही,ं उनके नेतृत्व में कई आन्दोलन संगठित किए गए।
अ0भा0 किसान सभा की स्थापना (1936)
11 अप्रैल, 1936 को लखनऊ में आरंभ अ0भा0 किसान सभा की स्थापना सम्मेलन की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध किसान नेता स्वामी सहजानंद ने की। उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में भूमि सुधारों पर जोर दिया और कहा कि जमींदारी व्यवस्था किसानों की समस्या की जड़ है।
सम्मेलन को सम्बोधित करने वालों में सोहन सिंह जोश, राम मनोहर लोहिया तथा अन्य कई महत्वपूर्ण नेता भी थे। सम्मेलन में भाग लेने वालों में इन्दुलाल याज्ञनिक, के0एम0 अशरफ, एन0जी0 रंगा, जय प्रकाश नारायण तथा अन्य थे।
सम्मेलन में विभिन्न विषयों पर प्रस्ताव पास किए गए, जैसे किसानों की आर्थिक शोषण से मुक्ति, किसान सभा का गठन, राष्ट्रीय आजादी के आंदोलन में हिस्सा लेते हुए भविष्य में मेहनतकशों के राज्य के लिए संघर्ष करना, सामंती व्यवस्था के विभिन्न रूप (जमींदारी, मालगुजारी, जेनमी, इत्यादि) समाप्त किए जाएं, इत्यादि।
सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान कमेटी (ए.आई.के.सी.) तथा इसकी कार्यकारिणी के रूप में केन्द्रीय किसान काउंसिल (सी.के.सी.) का गठन किया गया। स्वामी सहजानंद सरस्वती अ0भा0 किसान सभा के अध्यक्ष तथा एन0जी0 रंगा महासचिव बनाए गए।
सम्मेलन में निम्नलिखित प्रदेशों से प्रतिनिधियों ने भाग लिया- बिहार, बंगाल, आंध्र, तमिलनाडु, मलाबार, मध्य प्रांत (सी.पी), पंजाब, गुजरात, दिल्ली, इत्यादि।
सम्मेलन में एक किसान मैनिफैस्टों (किसान घोषणापत्र) की रूपरेखा तैयार की गई जिसे ए.आई.के.सी. ने बाद में अगस्त 1936 में बंबई में स्वीकार किया। यह भी निर्णय लिया गया कि इंदुलाल याज्ञनिक के संपादकत्व में एक बुलेटिन प्रकाशित किया जाए।
1936 का वर्ष भारत के जन- आंदोलन में एक महत्वपूर्ण वर्ष साबित हुआ। अ.भा. किसान सभा के अलावा उस वर्ष ए.आई.एस.एफ. तथा प्रगतिशील लेखक संघ (पी.डब्ल्यू.ए.) जैसे जनसंगठनों की स्थापना भी की गई। ये तीनों ही मिले- जुले जनसंगठन थे जिनमें कम्युनिस्टों समेत कई अन्य वामपंथी, प्रगतिशील और राष्ट्रवादी तत्व भी शामिल थे।
यह देश में उभरते संयुक्त जनआंदोलनों और संयुक्त मोर्चे का प्रतीक था। साम्राज्यवाद तथा फासिज्म के बढ़ते खतरे के संदर्भ में व्यापक संयुक्त मोर्चे की रणनीति विशेष महत्व की हो उठी।
किसान दिवस
अ.भा. किसान सभा की स्थापना ने भारत के किसान आंदोलन को अधिक ठोस और संगठित रूप देते हुए उसे एक स्पष्ट दिशा प्रदान की। इस सिलसिले में एक महत्वपूर्ण घटना थी 17 अगस्त 1936 को अ.भा. किसान दिवस का मनाया जाना। स्वामी सहजानंद ने लखनऊ सम्मेलन के निर्णयानुसार उस दिन सारे देश में सभा, प्रदर्शनों इत्यादि के जरिए दिवस मनाने की अपील की।
अ.भा. किसान सभा का फैजपुर अधिवेशन
उसी वर्ष, 1936 में ही अ.भा. किसान का दूसरा अधिवेशन फैजपुर (महाराष्ट्र) में ”तिलकनगर“ में आयोजित किया गया। 25-26 दिसम्बर को यह अधिवेशन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विषय समिति के पंडाल में सम्पन्न हुआ।
इस सम्मेलन की खास बात यह भी है कि लगभग 500 किसान प्रदर्शनकारी एवं प्रतिनिधि वी.एम. भुस्कुटे और जे. बुखारी के नेतृत्व में 12 दिसम्बर को मनमाड से पैदल चल पड़े और 200 मील से भी अधिक की यात्रा करते हुए 25 दिसम्बर को फैजपुर पहुंॅचे। वे लाल झंडे लिए हुए थे। उनके स्वागत के लिए खड़े थे- नेहरू, बंकिम मुखर्जी, एम0एन0 रॉय, नरेन्द्र देव, युसूफ मेहर अली, एस0ए0 डांगे, जय प्रकाश नारायण, मीनू मसानी तथा अन्य।
26 दिसम्बर को 15000 लोगों की विशाल रैली आयोजित की गई।
अ0भा0 किसान सभा का झंडा
अ0भा0 किसान समिति ने नियामतपुर, गया (बिहार) की 14 जुलाई, 1937 की बैठक में अपना नाम अ0भा0 किसान कांग्रेस से बदलकर अ0भा0 किसान सभा कर दिया। बैठक में किसान सभा के झंडे के बारे में भी विचार किया गया। कई प्रादेशिक किसान सभाएं लाल रंग के झंडे का प्रयोग कर रही थी। आगे 27-28 अक्टूबर, 1937 की अपनी कलकत्ता बैठक में अखिल भारतीय किसान सभा ने औपचारिक रूप से लाल झंडा स्वीकार किया। उस समय इस पर हंसिया हथौड़ा हुआ करता था बाद में आजादी के बाद सिर्फ हंसिया ही रखा गया।
अ0भा0 किसान सभा ने स्पष्ट किया कि तिरंगा झंडा हमारी आजादी के संघर्ष का झंडा है जिसके नेतृत्व में किसान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ रहे थे। उसमें और लाल झंडे में कोई टकराव नहीं था। लाल झंडा संगठन का प्रतीक था।
अविस्मरणीय संघर्ष
अखिल भारतीय किसान सभा का इतिहास अविस्मरणीय और असाधारण संघर्षांे का इतिहास है, चाहे वह आजादी से पहले हो या बाद में। यहांॅ हम कुछ के उल्लेख भर ही कर पाएंगे।
1937 से आरंभ होकर किसान सभा ने हर वर्ष 1 सितम्बर अ0भा0 किसान दिवस के रूप में मनाया। 27 मार्च, 1938 को ”अखिल भारतीय कर्जा माफी दिवस“ मनाया गया। किसान सभा की ओर से मई दिवस पहली बार 1938 में मनाया गया। किसान सभा के महासचिव स्वामी सहजानंद ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सी0एस0पी0) के महासचिव जय प्रकाश नारायण और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पी0सी0 जोशी द्वारा 20 मार्च, 1938 को भाकपा को कानूनी घोषित करने संबंधी दिवस मनाने की अपील का पूर्ण समर्थन किया।
अ0भा0 किसान सभा के गठन के बाद विभिन्न प्रांतों में आन्दोलन फूट पड़े और किसान सभाओं का गठन तेज हो गया। बंगाल में 16-17 अगस्त, 1936 को प्रादेशिक संगठन समिति बनाई गई। 24 परगना जिले में खास भूमि संबंधी और बर्दवान में नहर टैक्स कम करने के लिए संघर्ष चले।
बिहार में सुप्रसिद्ध बकाश्त आंदोलन मुंगेर जिले से आरंभ हुआ। 26 नवम्बर, 1937 का दिन अविस्मरणीय था। सारे प्रांत से एक लाख किसान पटना में लेजिस्लेटिव असेंबली (विधान सभा) के सामने इकटठा हो गए। उन्होंने विभिन्न टैक्सों में कमी तथा बिहार काश्तकारी कानून में सुधार की मांगे बुलंद की।
पंजाब के मांटगोमरी जिले में 40 हजार किसानों (काश्तकारों) का जमीन के ठेके के खिलाफ संघर्ष फूट पड़ा। काश्तकार फसल के आधे हिस्से की मांग कर रहे थे।
उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रदेश में घल्ला घीर के नवाब के विरोध में संघर्ष चल पड़ा।
1936 के दिसम्बर महीने में मध्यप्रांत या सी0पी0 (मराठी) में किसान सभा गठित की गई। 28 नवम्बर, 1937 को नागपुर में विधायिका के सामने हजारों किसानों का मार्च आयोजित किया गया। प्रादेशिक किसान सम्मेलन 1938 में नागपुर में आयोजित किया गया। मध्यप्रांत (हिंदुस्तानी) में महाकोशल किसान सम्मेलन दिसम्बर, 1937 में संपन्न हुआ।
सूरमा घाटी में ”टैक्स मत दो“ आंदोलन हुआ जिसमें 1937-38 में हजारों किसानों ने भाग लिया।
उत्कल प्रादेशिक किसान सभा 1935 में ही गठित हो चुकी थी। 1937 के किसान दिवस के अवसर पर 15 हजार किसानों ने कटक में मार्च किया।
बिहार में रेओरा (गया), बड़हिया टाल (मुंगेर), राघवपुर (दरभंगा), अन्नवारी (सारण), मुरियार (शाहाबाद) इत्यादि स्थानों में ऐतिहासिक किसान आंदोलन हुए जिन्हें आमतौर पर ”बकाश्त आंदोलन“ कहा जाता है। सुप्रसिद्ध लेखक, इतिहासकार, दार्शनिक और बौद्ध दर्शन के विद्वान राहुल सांकृत्यायन इन्हीं आंदोलनों से किसान नेता के रूप में उभरे। कार्यानंद शर्मा अन्य प्रसिद्ध नेता थे।
मलाबार और आंध्र में ऐतिहासिक किसान संघर्ष हुए। मलाबार में ऑल मालाबार पेजंट्स यूनियन का गठन हुआ।
किसान स्कूल और संस्थान
किसान सभा के इतिहास का एक अनजाना-सा पृष्ठ है इंडियन सेंट्रल किसान स्कूल (भारतीय कंेद्रीय किसान स्कूल) और पेजंट इंस्टीट्यूट (किसान संस्थान) का निर्माण। इनकी स्थापना काफी पहले दिसम्बर, 1933 में आंध्र प्रदेश के नीटुब्रोले में की गई और 1938 आते-आते यह काफी मजबूत संस्था बन गई। यहांॅ नियमित राजनैतिक स्कूल लगा करते और शोध कार्य, प्रकाशन तथा पुस्तकालय निर्माण का कार्य चला करता।
1937 के आम चुनाव और किसान सभा
1937 में सीमित मताधिकार के आधार पर ब्रिटिश भारतीय प्रांतों में आम चुनाव हुए। इनमें कांग्रेस की भारी जीत हुई। किसान सभा ने चुनावों में काम करने का फैसला किया। उसने तय किया कि सामंती विचारों और बड़े सामंतों के समर्थक उम्मीदवारों को हराया जाए और किसान परस्त उम्मीदवारों को जिताया जाए। इस उद्देश्य में उसे काफी सफलता मिली और सामंती तत्वों को पीछे धकेला जा सका।
इसके अलावा 1937-39 के कांग्रेस मंत्रिमंडलों के अधीन मिले कई जनतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग किसान सभा और आम किसानों ने उठाया। बड़े पैमाने पर किसान आंदोलन फूट पड़ने का यह भी एक बड़ा कारण रहा।
किसान आंदोलन
1940 के दशक में किसान सभा की भागीदारी से या उसके नेतृत्व में कई ऐतिहासिक आंदोलन हुए- कय्यूर (1943), पुन्नप्रा- वायालार (1946), तेभागा (1946), तेलगांना (1946), बकाश्त (1940 का दशक- यू0पी0 बिहार), इत्यादि। इनमें से कुछ सशस्त्र संघर्ष थे, जैसे तेलगांना। इतिहास में इनके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है।
आंध्र तथा अन्य कुछ क्षेत्रों में किसान- मार्च
यह अनोखा और अनूठा आंदोलन 1937-38 में हुआ था। आंध्र के इच्छापुर से 3 जुलाई 1937 को हजारों किसानों ने एक हजार मील लंबा पैदल मार्च आरंभ किया। अ0भा0 किसान सभा के अध्यक्ष प्रो0 एन0जी0 रंगा ने इसका शुभारंभ किया। यह अनूठा और ऐतिहासिक मार्च 27 मार्च, 1938 को मद्रास में समाप्त हुआ। इसके अलावा कुछ और दूरी उन्होंने बसों में भी तय की। उन्होंन ‘प्रधानमंत्री’ (मुख्यमंत्री) और राजस्व मंत्री को अपनी मांगे पेश कीं।
इससे मिलते-जुलते पैदल मार्च दिसम्बर, 1938 में मलाबार और कोयम्बतूर में, दक्षिण कनारा जिले में, तमिलनाडू और आंध्र में दर्जनों की संख्या में, महाराष्ट्र के विदर्भ में 1938-39 में अकाल और भुखमरी के खिलाफ, खरगोन में 1937 में, तथा अन्य जगहों पर निकाले गए।
गुजरात में भी किसान सभा का शक्तिशाली आंदोलन था।
बंगाल के अकाल (1943) ने बंगाल और भारत के किसान आंदोलन को एक अलग मोड़ दिया। लाखों किसान भूख से मर गए। फलस्वरूप जनता सामाजिक आर्थिक पक्ष पर सोचने पर मजबूर हो गई। अकाल ने बंगाल और उत्तर-पूर्वी भारत में कृषि और कृषि संबंधों की तस्वीर बद दी।
भारत की आजादी के संघर्ष में किसानों का तथा विशेष तौर पर अखिल भारतीय किसान सभा का विशेष योगदान रहा। 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति पर भारत में जो साम्राज्यवाद विरोधी उभार आया उसमें किसानों की विशेष भूमिका रही।
आजादी के बाद किसान सभा की कुछ विशेषताएं
अ0भा0 किसान सभा आजादी के समय एक अत्यंत शक्तिशाली संगठन बन चुका था। उसने 1947 में आजादी का स्वागत किया और उसके जश्न में हिस्सा लिया।
1947-48 में किसान सभा पर वामपंथी संकीर्णतावादी दुस्साहसिक समझ हावी हो गई। जो बी.टी. आर-लाइन के रूप में सुविख्यात है। हम उसके विस्तार में यहां नहीं जा रहे हैं। लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि किसानों का सबसे मजबूत संगठन और हथियार 1950 आते- आते पूरी तरह बिखर गया।
अ0भा0 किसान सभा को पुनः उभरने में वर्षाे लग गए। जब तक वह उभरकर लीक पर आ रहा था तो उसे फिर साठ के दशक में माओवादी तोड़फोड का सामना करना पड़ा।
फिर भी आजाद भारत में किसान सभा ने कई महत्वपूर्ण और यादगार योगदान दिए। इनमें से दो-तीन का ही हम जिक्र भर ही कर पाएंगे।
पहला, पचास के दशक में अ0भा0 किसान सभा ने जमींदारी उन्मूलन के लिए तथा किसानों में जमीन के बंटवारे के प्रश्न को लेकर असाधारण संघर्ष किए। फलस्वरूप, पचास के दशक के मध्य तक हमारे देश में सामंती उत्पादन- पद्धति लगभग समाप्त हो गई।
दूसरा, संघर्ष समाप्त नहीं हुआ; व्यापक भूमि- सुधारों का संघर्ष आगे जारी रहा। विशेष तौर पर ‘60, ‘70 और ‘80 के दशकों में बड़े भूस्वामियों के विरूद्ध आंदोलन चलाए गये, उनकी भूमि के अधिग्रहण और सीलिंग से अधिक भूिम को भूमिहीनों तथा गरीब किसानों के बीच बांटने की मांग की। स्वयं किसान सभा ने कई जगहों पर हजारों एकड़ फालतू भूमि पर कब्जा करके उसे भूमिहीनों में बांटा। भूमि पर पट्टे दिलवाने का संघर्ष इसका महत्वपूर्ण अंग था।
तीसरा, काफी समय से किसान सभा में महसूस किया जा था कि खेत मजदूरों का अलग अ0भा0 संगठन बने। जमींदारी उन्मूलन और कृषि में पंूजीवादी संबंधों के प्रवेश से खेत मजदूर और ग्रामीण सर्वहारा महत्वपूर्ण तबके के रूप में सामने आये इन सारे कारणों से अ0भा0 किसान सभा और भाकपा की पहल पर 1968 में खेत मजदूरों का अलग संगठन, भारतीय खेत मजदूर संघ (बी.के.एम.यू.) 1968 में गठित किया गया। इससे पहले किसान और खेत मजदूर एक ही संगठन में थे।
आज अखिल भारतीय किसान सभा देश और दुनिया के बदलते परिवेश में किसानों की मांगों और नई समस्याओं को सुलझाने के लिए सतत संघर्षशील है।
- अनिल राजिमवाले
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