कमज़ोर तलवार की धार से मरते नहीं है दुश्मन
कमज़ोर कलाई के बूते उठता नहीं है कोई बोझ
भयानक हैं जीवन के युद्ध
भयानक है जीवन के शत्रु
भयानक हैं जीवन के बोझ
तुमने कहाँ लड़ा है कोई यद्ध ?
कहाँ उठाई है तलवार अभी तुमनें?
कहाँ संभाला है तुमने कोई बोझ ?
यथार्थ के पत्थर
कल्पना की क्यारियों को
तहस-नहस कर देते हैं।
कद्दावर घोड़ों
मजबूत तलवारों
दमदार कलाईयों के बिना
मैदान मारने की बात बे-मानी है।
आत्महत्या का रास्ता उधर से भी है
जिधर से गुजरने की नासमझ तैयारी में
रात को दिन कहने की जिद कर रही हो तुम।
युद्ध
कमज़ोर घोड़ों पर चढ़कर
कभी नहीं जीते गए
- शलभ श्रीराम सिंह
blogger's note :
मैं नहीं जानता कि रचनाकार कवि ने इस कविता को किस सन्दर्भ में लिखा था परन्तु जिस कमजोर वैचारिकी के साथ हिन्दुस्तान और नेपाल के माओवादी खुद को समाजवादी क्रान्ति के संघर्ष का इकलौता खेवनहार बताते हुए वर्ग-शत्रुओं के बजाय निहत्थी जनता पर हमला कर रहे हैं, उन्हें उनकी इस वैचारिक कमजोरी को उन्हें समझाने के लिए मैं इस कविता को उन्हें पेश करना चाहता हूं - प्रदीप तिवारी