शनिवार, 18 जून 2011
at 4:01 pm | 0 comments | आर.एस. यादव
प्रगतिशील कविता के शलाका पुरूषों की प्रतिनिधि रचनाओं का प्रकाशन
वर्ष 2011 अनेक प्रगतिशील शायरों और कवियों का जन्म शताब्दी वर्ष है जैसे शमशेर बहादुर सिंह (13 जनवरी), फ़ैज अहमद फैज (13 फरवरी), केदारनाथ अग्रवाल (1 अप्रैल), नागार्जुन (25 जून), असरारूल हक मजाज (19 अक्टूबर) आदि। इन महान कवियों और शायरों के जन्म शताब्दी के अवसर पर न केवल अनेक समारोह हो रहे हैं बल्कि उनके लेखन के संबंध में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकल रहे हैं, समाचार पत्रों में उनके जीवन एवं कृतित्व पर लेख प्रकाशित हो रहे हैं और प्रगतिशील आंदोलन में उनके योगदान का स्मरण किया जा रहा है।
इस सिलसिले में पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस ने कुछ प्रगतिशील कवियों और शायरों की प्रतिनिध रचनाओं का प्रकाशन कर एक सराहनीय कार्य किया है। पीपीएच ने इस क्रम में निम्न पुस्तकें प्रकाशित की हैंः
1. फै़ज़ अहमद फ़ैज़: प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक: अली जावेद
2. शमशेर बहादुर सिंह: प्रतिनिधि कविताएं, संपादकः लीलाधर मंडलोई
3. मजाजः प्रतिनिधि शायरी, संपादक: अर्जुमंद आरा
4. केदारनाथ अग्रवाल: प्रतिनिधि कविताएं संपादक: द्वारिका प्रसाद चारूमित्र, शाहाबुद्दीन
5. प्रगतिशील कविता के पांच प्रतिनिधि, संपादक: वरूण कमल, राजेन्द्र शर्मा (इस पुस्तक में शमशेर बहादुर सिंह, फै़ज़ अहमद फै़ज़, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन और असरारूल हक मजाज को शामिल किया गया है)।
6. नागार्जुनः प्रतिनिधि कविताएं, सम्पादक: वेद प्रकाश
7. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: प्रतिनिधि कविताएं, संपादक: शकील सिद्दीकी
25 मई को सायं 6 बजे अजय भवन नई दिल्ली में इन पुस्तकों का विमोचन किया गया। इस अवसर पर भारी संख्या में साहित्यकार और पत्रकार उपस्थित थे। पुस्तकों का विमोचन वरिष्ठ आलोचक डा. विश्वनाथ त्रिपाठी, जनवादी लेखक संघ के महासचिव प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उप महासचिव और पीपीएच के डायरेक्टर एस. सुधाकर रेड्डी और भाकपा के केन्द्रीय सचिवमंडल के सदस्य और पीपीएच के मैनेजिंग डायरेक्टर शमीम फैजी ने किया।
इस अवसर पर संबोधित करते हुए डा. विश्वनाथ त्रिपाठी ने याद दिलाया कि जिन कवियों और शायरों की हम जन्म शताब्दी मना रहे हैं और जिनके संबंध में पुस्तकों का हमने विमोचन किया है उनका जन्म 1911 में हुआ था और 1930 के दशक में उन्होंने अपना रचना कार्य शुरू किया था। उन्होंने याद दिलाया कि 1930 और 1940 के दशक भारत के राजनैतिक और साहित्यक जीवन में जबर्दस्त चेतना और क्रांति की अवधि रहे हैं। इस दौरान सभी भाषाओं के साहित्यकार प्रगतिशील विचारों को आगे बढ़ाने के लिए साहित्य सृजन कर रहे थे। इन प्रगतिशील कवियों और शायरों ने उस दशक में वाम चेतना और व्यापक जन चेतना को आगे बढ़ाने में जबर्दस्त योगदान दिया। प्रगतिशील कवियों और लेखकों ने देश के वैचारिक-सांस्कृतिक आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा की थी।
प्रो. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने भी उस दौर की राजनैतिक एवं साहित्यक चेतना पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्रगतिशील कवियों, लेखकों ने देश में व्यापक जनचेतना विकसित करने में और स्वतंत्रता आंदोलन में वामपंथी विचारों को आगे बढ़ाने में जबर्दस्त काम किया। उस दौर के सभी भाषाओं के साहित्यकार प्रगतिशील लेखन से जुड़े थे। उन्होंन जनचेतना को बढ़ाया। 1930 के दशक में ही प्रगतिशील लेखक संगठन का निर्माण हुआ। उन्होंने इन पुस्तकों के प्रकाशन के लिए पीपीएच की सराहना की। उन्होंने कहा कि पीपीएच पिछले कई दशकों से देश में वामपंथी और तर्क एवं विज्ञानसमत विचारों के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान देता रहा है। हममें से सभी लोगों ने वामपंथी विचारधारा का अध्ययन पीपीएच के प्रकाशनों के जरिये किया था। उन्होंने आग्रह किया कि पीपीएच आज के जमाने के संदर्भ में अपने इस काम में और तेजी लाये। भाकपा महासचिव ए.बी. बर्धन ने कहा कि प्रगतिशील लेखन ने हमारे देश के लोगों को जाग्रत करने का काम किया। उन्होंने बताया कि जिन महान कवियों और शायरों की हम इस वर्ष जन्म शताब्दियां मना रहे हैं उन्हें उनमें से कई को सुनने और उनसे बात करने का मौका मिला।
- आर.एस. यादव
at 9:35 am | 1 comments | शमशेर बहादुर सिंह
ग़ज़ल
राह तो एक थी हम दोनों की
आप किधर से आए-गए।
हम जो लूट गए पिट गए,
आप जो राजभवन में पाए गए!
किस लीलायुग में आ पहुंचे
अपनी सदी के अंत में हम
नेता, जैसे घास-फूंस के
रावन खड़े कराए गए।
जितना ही लाउडस्पीकर चीखा
उतना ही ईश्वर दूर हुआ
(-अल्ला-ईश्वर दूर हुए!)
उतने ही दंगे फैले, जितने
‘दीन-धरम’ फैलाए गए।
मूर्तिचोर मंदिर में बैठा
औ’ गाहक अमरीका में।
दान दच्छिना लाखों डालर
गुपुत दान करवाये गये।
दादा की गोद में पोता बैठा,
‘महबूबा! महबूबा...’ गाए।
दादी बैठी मूड़ हिलाए
‘हम किस जुग में आए गए।’
गीत ग़ज़ल है फिल्मी लय में
शुद्ध गलेबाजी, शमशेर
आज कहां वो गीत जो कल थे
गलियों-गलियों गाए गए!
- शमशेर बहादुर सिंह
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