शहर में अगर कहीं वफा है...
वेद प्रकाश
एक बार जुआ खेलने के आरोप में मिर्जा गालिब को कैद हो गई। उन्होंने कैद में कविता लिखी। उस कविता का अभिप्राय है -
‘कैदियों ने मुझे सर-आंखों पर बिठाया है। मैं इनकी मुहब्बत पर कितना नाज करूं? शहर में अगर कहीं वफा है तो उन चोरों में है, जो पकड़े जा चुके हैं। मैं उनके साथ रिश्ता जोड़ना चाहता हूं।’
इस पर डाॅ. विश्वनाथ त्रिपाठी की टिप्पणी है, ‘हिन्दी-उर्दू के मध्यकालीन कवियों में सिर्फ गालिब हैं जो कैदियों से रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। गिजाज की आजादी, मानवीय संवेदना और जीवन-परिस्थितियों ने गालिब को उनकी असल रिश्तेदारी समझा दी थी। नवाब अमीउमरा, सेठ-साहूकार, मुगल साम्राज्य, ब्रिटिश साम्राज्य उन्हें पेंशन, रसद दे सकता था, आत्मीयता नहीं दे सकता था। ये सब न पकड़े गए चोर हैं।’
सोचते हुए कभी-कभी यह लगता है कि साथ जो होना चाहिए, जैसा व्यवहार होना चाहिए, वह नहीं होता। व्यवस्था की तरफ से भी और प्रकृति की तरफ से भी। जिस पर व्यवस्था की मार पड़ती है, उस पर प्रकृति की भी मार अधिक पड़ती है। कई बार हम जिसे भाग्य अथवा प्रकृति की मार समझते हैं, उसके मूल में व्यवस्था का भी दोष रहता है। उसके पक्ष में व्यवस्था होती है, वह प्रकृति से भी काफी दूर तक लड़ सकता है। इस बात को आज की परिस्थितियों में समझना बहुत मुश्किल नहीं है। श्रेष्ठ रचनाकार प्रकृति और व्यवस्था के इस संबंध की अभिव्यक्ति करता है। इनके टूटू हुए संबंध-सूत्रों को जोड़ता है। पे्रमचंद की रचनाओं में यह अभिव्यक्ति सर्वाधिक है। उन्हें अपना साहित्यिक पुरखा कहने वाले परसाई के यहां भी। परसाई की रचनाएं समकालीन मनुष्य के किसी प्रसंग में फंसे रहने का चित्रण करती है, लेकिन इसके माध्यम से वे समकालीन जीवन की अनेक स्तरीय परिस्थितियों के कारण रूप को प्रकाशित करती हैं।
नयी कहानी और नयी कविता में मृत्यु-बोध तथा हत्या-आत्महत्या का दर्शन खूब फला-फूला। यह अधिकतर उधार लिया गया दर्शन था। यदि उसमें वास्तविकता होती तो उसका रूप कुछ और होता। परसाई ने एक कहानी लिखी ‘जिन्दगी और मौत।’ इस कहानी को जवाब के तौर पर मृत्युबोध का जाप करने वाली कहानियों के समक्ष रखा जा सकता है। यह कहानी ‘वसुधा’ के जून 1957 अंक में प्रकाशित हुई थी।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है, ‘मरण से बढ़कर करुणा का विषय और क्या हो सकता है? लेकिन मरण भी करुणा का विषय तभी बनेगा जब वह अपनी विश्वसनीय परिस्थितियों या देश-काल को साथ लेकर आए। अनेक कहानियों का आरंभ नाटकीयतापूर्ण ढंग से करने वाले परसाई, यह कहानी ऐसे शुरू करते हैं, ‘सेनेटोरियम’ लगभग दो मील दूर है। 7 घण्टे एम्बुलेन्स कार में बैठे हो गये। भीतर कवि हैं। रह-रहकर उन्हें खांसी आती है और मैं कांप-कांप उठता हूं। बगल में बैठा ड्राइवर भी, जो ऐसे अनगिनती मनुष्यों को मौत से मिलने आधे रास्ते तक पहुंचा आया है, ‘हे राम!’ कहकर गहरी सांस छोड़ता है।
परसाई मौत के सन्नाटे का भी वर्णन कर सकते हैं। मृत्यु-भय से कैसे अनुभव प्रकट होते हैं, इसका भी। मौत अगर पड़ोस में हो तो प्रकृति कैसी-कैसी लग सकती है, इसका वर्णन देखिए-
‘ऐम्बुलेन्स चल पड़ी है। सांझ उतरने लगी है। वृक्ष पक्षियों के कलरव से गूंज उठे हैं- यह जीवन का मुक्त कल्लोल है। और इधर निर्बल फेफड़ों से निकली यह मजबूर खांसी-मृत्यु का क्रन्दन। दोनों ओर के वृक्षों से उठते इस कलरव के बीच से यह खांसी बढ़ रही है- जैसे मरण के स्वागत में दोनों ओर गीत गाती जिन्दगी खड़ी है।
रचनाकार बाहरी दृश्यों को जिन रूपों में लेता है, वह उह्नसका यथार्थ होता है यानी रचनाकार को जो लगता है वही उसकी यथार्थ दृष्टि है। परसाई जीवन और मृत्यु का संश्लिष्ट चित्रण करते हैं। एक तरफ प्रकृति का मुक्त कल्लोल यानी उसका स्वतंत्र आलंबनत्व और दूसरी तरफ मृत्यु का क्रन्दन। प्रकृति सबको अपने भीतर समेटे हैं। बाहरी दृश्यों को मनोभावों या स्थिति विशेष रंग में रंगकर प्रस्तुत करने की रूढ़ि रही है। कहीं-कहीं यह पद्धति बहुत आवश्यक भी होती है। वहां विशेष रूप से जहां यातना की तीव्रता या भाव-सघनता है की अनुभूति करानी हो। कहानी में एक और चित्र इस तरह है-
‘सामने लम्बा-चैड़ा मैदान, सर्वत्र हरियाली-लेकिन इस हरियाली में जिन्दगी का हरापन कहीं नहीं दिख्ता। सम्पूर्ण प्रकृति जैसे किसी आशंका से हर क्षण सहमी रहती है। इतने मनुष्य हैं- मरीज, डाॅक्टर, नर्स लेकिन जीवन का स्पन्दन कहीं अनुभव नहीं होता। ठण्डी हवा हल्की-सी सिहरन पैदा कर रही है। जहां-तहां हट्स हैं- एक दूसरी से दूर, अपने-आप में एक भिन्न संसार। हरियाली में बल्बों से जगमगाती वे झोपड़ियां आकाश में झिलमिल करते नक्षणों-सी मालूम होती हैं।’
परसाई अपनी रचनात्मक प्रभाव-क्षमता को समृद्ध करने के लिए अनुभाव, संवाद आलंबन, उद्दीपन-सबका उपयोग कर सकते हैं, करते हैं।
कुल छह पृष्ठों की इस कहानी के आरंभिक ढाई पृष्ठों में वातावरण बनाया गया है। परसाई कहीं-कहीं वाचकीय टिप्पणियों के माध्यम से कहानी का वातावरण बनाते हैं। इस संदर्भ में ‘किताब का एक पन्ना’ कहानी का उल्लेख हो चुका है। परसाई क्ल्लहीं-कहीं कुछ पात्रों के माध्यम से भी कथ्य की भूमिका बनाते हैं। ‘जिन्दगी और मौत’ के इन आरंभिक पृष्ठों में किन्हीं कवि का चित्रण हैं, जो फेफड़े के रोग से ग्रस्त हैं और वाचक उन्हें सेनेटोरियम में भर्ती करने के लिए ले जाता है। ध्यान रहे कि यह कहानी सन् 1957 की है। उन दिनों अधिकतर कवि सामान्य जन ही होते थे और सामान्य आदमी के लिए उस समय टी.बी. रोग का क्या अर्थ होता था, हम कुछ-कुछ समझ सकते हैं। केवल कवि और उनकी बीमारी का वर्णन, इस कहानी का उद्देश्य नहीं है। लेकिन कवि का रोग तथ संत्रास वाचक का नजदीकी अनुभव है। कवि से वाचक का संबंध है, कवि के रोग के कारण को वाचक जानता है। हम अपनी या अपने किसी आत्मीय, संबंधी, मित्र की यातना के द्वारा दूसरों की यातना का अनुमान करके दुःखी होते हैं, परसाई इन पृष्ठों में यह भी बताते हैं कि उन्हें कैसे-कैसे अनुभव किन कारणों से हुए। वे कवि को लेकर सेेनेटोरियम गए तो उन्हें एक नया अनुभव हुआ। यही अनुभव कहानी बन गया है। यह अनुभव गालिब के उस अनुभव के समान है, जो उन्हें कैद में रहते हुआ।
कहानी का वास्तविक आरंभ होता है इन पंक्तियों से, जहां से एक-एक वाक्य,एक-एक शब्द बहुत‘कुछ कहता नजर जाता है-
-जनरल वार्ड के सामने हम आ गए हैं। नया मरीज आता देख 50-60 रोगी एकदम बरामदे में आ गये हैं। ये मनुष्य लगते ही नहीं हैं- ये केवल अस्तित्व हैं- बिल्कुल वायवी! शून्य आंखों में केवल उत्सुकता! मरीज की मायूसी, पीड़ा, चिन्ता भी इनकी आंखों में नहीं है, केवल कुतूहल, केवल उत्सुकता-बच्चों की तरह! नये रोगी के माध्यम से ये दुनिया से सम्बन्ध जोड़ना चाहते हैं।’
यह दृश्य अधिकतर लोगों का देखा हुआ दृश्य हैं लेकिन देखकर अनदेखा कर देना या भूल जाना सामान्य बात है। परसाई देखे हुए को परिभाषित करते हैं। सबसे कठिन काम है मूक भावों, मनोविकारो को पकड़ना और उन्हें दिखाना। परसाई के पास एक दृष्टि है, अनुभव है और दूसरों को भी वे अनुभव कराते है। उनकी भाषा, कहने का ढंग अनुभव की दूरी को पलटाता है। मरीज मनुष्य हैं, लेकिन लगते नहीं क्योंकि शारीरिक-मानसिक स्वस्थता मनुष्य होने के लिए आवश्यक है। रोग, मानसिक रूप से भी रिक्त करता है। रोगियों का केवल ढांचा मनुष्य का है, इसलिए वे मनुष्य नहीं लगते, अस्तित्व-मात्र लगते हैं। यह संसार उनके हाथों से छूट रहा है, वे हमसे दूर जा रहे हैं। उनका ढांचा-शरीर हमारे पास खड़ा है, लेकिन वे वस्तुतः हमसे दूर हैं। उनके देखने का ढंग ऐसा है जिससे लगता है कि बहुत दूर से देख रहे हो। सांसारिक अनुभव को आंखे प्रमुखता से ग्रहण करती हैं। आंखे कहने के लिए शब्द की मांग नहीं करतीं। आंखें ही सबसे ज्यादा, सबसे सच्चे, विश्वसनीय को शब्द देते हैं। मूक को शब्द देना, अर्थ और शब्द की दूरी को कम करना है। रोगियों की आंखों में उन्होंने किस अभाव और किस भाव को देख लिया है। एक स्थिति ऐसी आती है जब प्राणी मात्र सम पर आ जाते हैं। इन रोगियों की आंखों के माध्यम से परसाई ने प्राणी मात्र की आदिम निरीहता को देखा। यह निरीहता हमारे आदिम संस्कारों से भी जुड़ी है। इसलिए इसका अबूझ प्रभाव पड़ता है। उनकी आंखों में बच्चों की तरह केवल कुतूहल और उत्सुकता है। वह भी इसलिए कि एक नया मरीज आ गया है। नया रोगी छूटी हुई दुनिया से उनका संबंध स्थापित करता है। उनके परिवार में बढ़ोत्तरी करता है। इसलिए वे उसे देखते एकदम बरामदे में आ गए। ऐसा विश्सनीय, अनुभूत लेकिन सघन, दुसाध्य चित्रण निराला और परसाई जैसे रचनााकर ही कर सकते हैं। नये रोगी के जरिए वे दुनिया से संबंध इन प्रश्नों के माध्यम से जोड़ते है-
‘कहां से आये हैं?’
‘कौन सी स्टेज?’
‘एक लंग?’
‘दोनों लंग?’
‘कलेप्स करना पड़ेगा’
ये सब टी.बी. के विशेषज्ञ हो गये हैं। जरा देर हलचल रुक गयी है। मैं जवाब दे रहा हूं, वे कान खोले सुन रहे हैं। फिर हलचल हुई- -अरे राम राम! बड़ी देर कर दी।’
शुक्लजी ने लिखा है कि ‘दूसरों के दुःख से दुःखी होने का नियम बहुत व्यापक है और दूसरों के सुख से सुखी होने का नियम उसकी अपेक्षा परिमित है।’
यह नियम हमारे देश के सरकारी अस्पतालों ने विशेष रूप से घटित होते हुए देखा जा सकता है। संकट के समय दूर-दूर से आए लोग परिजन हो जाते हैं। वे एक-दूसरे के दुःख को बांटकर उसे कम करने की चेष्टा करते हैं। ऐसा नहीं है कि वहां पर केवल ऐसा ही सात्विक वातावरण होता है। वहां भी चालाकियां और काईयांपन होता है। लेकिन परसाई उन व्यंग्यकारों की तरह नहीं हैं जो हर स्थिति में, हर पात्र पर व्यंग्य करें, उसे हास्यास्पद बना दें। उनकी व्यंग्य दृष्टि यह बखूबी पहचानती है कि किस पर हंसना है, किस पर रोना है, किसे आत्मीयता और करुणा देनी है। उनके साहित्य में अनेक स्थलों पर मानवीय पात्र मिलते हैं, उनमें ‘जिन्दगी और मौत’ के ये संकटग्रस्त रोगी पात्र भी शामिल हैं। ये नये रोगी का स्वागत इस प्रकार करते हैं- ‘और अब इनमें एक विचित्र व्यवस्तता आ गयी है। उनके भटके हुए सामथ्र्य को सहारा मिल गया है। उनके अस्तित्व को सार्थकता मिल गयी है। वे नये मरीज के प्रबंध में लग गये हैं-
‘कौन-सा बैड है?’
‘सिस्टर को बुलाओ?’
‘चादर बदलने को बोलो।’
सब बच्चों की तरह दौड़ रहे हैं। एक क्षण को उन्हें लगा कि वे स्वस्थ हैं और नए मरीज की परिचर्चा कर रहे हैं। मेरा काम कुछ नहीं रह गया। उनके अन्दर की मानवी करुणा, संवेदना उमड़ पड़ रही है। वे कुछ कर सकने को आतुर हैं। वे इस घर के वासी हैं और मेहमान की सेवा चाकरी में लग गये हैं। सामान जमा रहे हैं, बिस्तर ठीक कर रहे हैं, पानी ला रहे हैं। 2-4 कवि के पास खड़े हैं और उन्हें धीरज दे रहे हैं- ‘चिंता नहीं है। जल्दी ठीक हो जायेंगे। मैं भी ऐसा ही आया था पर अब देखिये।’
जो मनुष्य नहीं है, अस्तित्व मात्र हैं, भावरिक्त हैं, जिनके सामथ्र्य को सहारा नहीं है, जो दिन-रात एक जैसा, जितना जीवन बचा है, उसे व्यतीत कर रहे हैं, वे ही अचानक व्यस्त, सार्थक हो गए हैं, उनके सामथ्र्य को केन्द्र मिल गया है। उनकी संवेदना, मानवीयता और करुणा उभर आयी है। वे अब रोगी नहीं रहे, घर-बासी हो गये हैं और मेहमान की खातिरदारी में लगे हैं। अपने आपको भूलकर विशुद्ध अनुभूति मात्र हो गए हैं, मुक्त हृदय हो गए हैं। कहानी में इन रोगियों के लिए कई बार आता है- ‘बच्चों की तरह’। वे बच्चों की तरह देखते हैं, बच्चों की तरह दौड़ते हैं, बच्चों की तरह सिसकते हैं, आदि। रोगी बच्चे नहीं हो गए हैं, बच्चों की तरह हो गए हैं। बच्चे से हो ही नहीं सकते क्योंकि अब तक इन्होंने जो जीवन जिया है, उसमें अनेक भाव कमाए होंगे। क्रोध, ईष्र्या, घृणा भी उन भावों में निश्चित ही रहे होंगे। पर अब ये इन ज्यादातर भावों से रिक्त हो चुके हैं। अब इनके पास केवल वही भाव रह गया है जिससे मनुष्य का जीवनारंग होता हैं वह भाव है करुणा और हिंदी में करुणा से संबंधित कोई बात आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का उल्लेख किए बिना नहीं की जा सकती। उन्होंने लिखा-
‘जब बच्चे को सम्बन्ध ज्ञान कुछ-कुछ होने लगता है, तभी दुःख के उस भेद की नींव पड़ जाती है जिसे करुणा कहते हैं। बच्चा पहले परखता है कि जैसे हम हैं वैसे ही ये और प्राणी भी हंै और बिना किसी विवेचना-क्रम के स्वाभाविक प्रवृत्ति द्वारा वह अपने अनुभवों का आरोप दूसरे प्राणियों पर करता है। फिर कार्य-करण सम्बन्ध से अभ्यस्त होने पर दूसरों के दुःख के कारण या कार्य को देखकर उनके दुःख का अनुमान करता है और स्वयं एक प्रकार का दुःख अनुभव करता हैं। प्रायः देखा जाता है जब मां झूठ-मूठ ‘ऊँ-ऊँ’ करके रोने लगती है तब कोई बच्चे भी रोे पड़ते हैं। इसी प्रकार जब उनके किसी भी भाई या बहिन को कोई मारने उठता है तब वे कुछ चंचल हो उठते हैं।’
‘जिन्दगी और मौत’ के रोगी बच्चों की तरह हो गए हैं- इसका आशय स्पष्ट हो गया होगा। बच्चों का भाव-संसार सीमित होता है। करुणा या दुःख उसमें प्राथमिक है। उनके सीमित भावों और तत्सम्बन्धी कार्यों के बीच व्यवधान बहुत कम बन पाता है। जिसके प्रति करुणा उत्पन्न होती है, उसकी भलाई का उद्योग किया जाता है। इन रोगियों में नए रोगी के प्रति करुणा, संवेदना उमड़ती है तो ये कुछ करने को आतुर हो उठते हैं और बच्चों की तरह दौड़ते हैं। जो कुछ करने का सामथ्र्य रखते हैं, करते हैं। जो स्वयं करुणा के पात्र हैं, वे दूसरे पर करुणा कर रहे हैं। शुक्ल जी ने करुणा का सैद्धांतिक विवेचन सर्वाधिक किया उसका महत्व समझाया लेकिन इस स्थिति का संकेत संभवतः नहीं किया। परसाई इस स्थिति पर भी लिखते हैं इससे शुक्ल जी की मान्यता का विकास होता है। इससे रोगियों के प्रति पाठक की करुणा द्विगुणित होती है, रोगी श्रद्धा के पात्र भी बनते हैं। परसाई के पास करुणा की मार्मिकता को बढ़ाने का एक और तरीका है। वह है भावना, संवेदना तथा बढ़े हुए भाव का यथार्थ की चोट। उनका वाचन रचना के बीच में अक्सर एक टिप्पणी करता है तो बड़ी कठोर होती है, जहां किसी ज्ञात-अज्ञात के प्रति आक्रोश, अमर्ष, नाराजगी, क्रोध, झुंझलाहट, क्षोत्र आदि न जाने कितने भाव होते हैं, रोगियों पर वह टिप्पणी इस तरह है -
‘वही र्धर्य, जो उन्हें मिला था, वे नये मरीज को दे रहे हैं। वे जान गये हैं कि कोई उम्मीद नहीं है, मगर मरीज मरीज को धोखा दे रहे हैं। उनकी आत्मीयता उमड़ रही है, उन्होंने नये मरीज को स्वीकार कर लिया है, परिवार में शािमल कर लिया है। मुझसे बोले, ‘आप चिन्ता न करना। हम सब ठीक कर लेंगे। समझ लो कि घर में आ गये हैं।’
कैसा यह घर? और कैसे उसके ये वासी? इनमें अनेक उस लोक की यात्रा निकल पड़े हैं- यह सेनेटोरियम एक पड़ाव पर है- दो घड़ी रुके हैं और एक क्षीण आशा है कि शायद घर से वापिस लौटने की खबर आ जाय, नहीं तो आगे तो बढ़ना ही है,
कबीर तो पूरे जीवन को ही क्षण मानकर भक्ति में, दुःख में उसकी सार्थकता ढूंढते हैं। इन मरीजों का जीवन सचमुच ‘दो घड़ी’ का है, ये इस बात को जानते हैं। जानकर भी चीखते-चिल्लाते नहीं। उन्होंने इस बात में सार्थकता ढूंढ ली है कि दूसरों को इस थोड़े समय के जीवन की आत्मीयता दी जाए। ये हर नए रोगी को इस घर-परिवार में शामिल करते हैं। वाचक की झुंझलाहट इस बात को लेकर भी होगी कि इतने संवेदनशील, करुणा-आत्मीयता देने वाले ये मनुष्य ऐसे रोगी क्यों हैं? मानवीयता को इनकी आवश्यकता है। लेकिन शायद ये दुःख के मांजे हुए पात्र हैं। स्थितियों से गुजर कर ऐसे बने हैं। परसाई ने लिखा है कि दुःख सबको मांजता ही नहीं, वह मनुष्य को कमीना भी बनाता हैं लेकिन इस कहानी में परसाई ने वास्तविक दुःख में पड़े हुए मनुष्य की बढ़ी हुई मानवीयता तथा दुःख कातरता का चित्रण किया है।
एक अध्यापक के जीवन का बहुत बड़ा सुख यह है कि उसे जगह-जगह ‘सर नमस्ते’ कहकर पुकारने वाले विद्यार्थी मिल जाते हैं। यह अध्यापक का आत्म विस्तार है। लेकिन यह विस्तार जितना ही अधिक होगा दुःख के कारण भी उतने ही अधिक होंगे। जिसकों चाहने-जानने वाले जितने अधिक होते हैं, उसे सुख-संदेश भी उतने ही अधिक मिलते हैं और दुःखद खबरें भी। शर्मिंदगी का सामना करने की आशंका भी ज्यादा होती है। वाचक ऐसा ही अध्यापक है। वह इस समय सेनेटोरियम में है। अचानक एक नाटकीय स्थिति उत्पन्न हो जाती है-
‘सर नमस्ते! मैंने चैंककर देखा। एक नव-तरुण है। बोला, ‘आपने मुझे नहीं पहचाना? मैं आपका विद्यार्थी रहा हूं। मेरा नाम नगेन्द्र नाथ है।’
‘सर नमस्ते’ से मेरा पिण्ड नहीं छूटता। शहर के किसी भी मुहल्ले में जाऊं, चाहे वीराने में जाऊं कोई ‘सर नमस्ते’ कह ही देता हैं अगर शहर में कहीं से चोरी करके भागूं, तो जगह-जगह ‘सर नमस्ते’ होगी और पकड़ लिया जाऊंगा। एक बार मित्रों के साथ सिनेमा में बैठा खूब हल्का फिल्म देख रहा था। हंसी-मजाक-चुहल! इण्टरवल हुई तो पीछे से आवाज आयी, ‘सर नमस्ते’ दो विद्यार्थी ठीक पीछे बैठे थे। डटा रहा- सोचा, ‘प्राप्तेषु षोडषे वर्षे।’
यह नगेन्द्र यहां! 3 साल पहले इसे पढ़ाया था। अच्छा खूबसूरत, स्वस्थ लड़का, हाकी बढ़िया खेलता था। और आज यह यहां?’
‘सर नमस्ते’ का स्वर अक्सर सुख देता है। लेकिन कभी-कभी वही ‘सर नमस्ते’ अनुभव कराता है। वाचक के माध्यम से यह परसाई की रचनात्मक झंुझलाहट है। यह हास्य नहीं व्यंग्य है, आत्म व्यंग्य भी और अबूझ लगने वाली परिस्थितियों पर भी। जहां इस स्वर की कोई आवश्यकता-अपेक्षा नहीं, वहां पर भी यह सुनने को मिल जाए तो झुंझलाहट होती है। जिस खूबसूरत, स्वस्थ, बढ़िया हाकी खेलने वाले लड़के को तीन वर्ष पहले पढ़ाया। जिसे कहीं अच्छी जगह देखकर संतोष होता- वह नगेन्द्र नाथ भी यहां सेनेटोरियम में। परसाई जैसे रचनाकारों का दुःख बहुत व्यापक होता है। जो ज्यादा जीवन को जानता है, उसे न जाने क्या-क्या देखना पड़ता है। उसकी यातना ‘काह न देखै नैन भरि जो जीवहु बहु काल’ की तरह होती है। समाज में एक वर्ग ऐसा है जो रोगों के ईलाज के लिए कहीं भी जाकर रह सकता है। जिसके पास फुर्सत और साधक दोनों होते हैं। लेकिन यह रोग उन्हें भी होता है जिनके पास एक दिन की भी फुर्सत नहीं होती। नगेन्द्रनाथ गरीब घर का है। उसकी मां है, छोटा भाई है जो उसी पर निर्भर हैं। वह नौकरी पर जा ही रहा था कि यहां आना पड़ा। छह महीने से यहां हैं और अभी छह महीने और रहना पड़ेगा। उसकी मां और भाई का क्या होगा? यह चिंता उसे है। बीमारी में भी अपनी चिंता की फुर्सत नहीं।
‘मैं उसकी पीठ पर हाथ फेर रहा हूं। उसे धीरज बंधा रहा हूं। बुजुर्ग कहते थे, यह राज-रोग कहलाता है, राजाओं को हुआ करता था- उन्हें फुर्सत थी। पर जो जीवन की कशमश में उलझे हैं, जो पसीने की एक-एक बूंद से एक-एक दाना कमाते हैं, जिन्हें बीमार पड़ने की फुर्सत नहीं है, उन्हें यह क्यों होता है? इसने कब से वर्ग-भेद छोड़ दिया?
जिस कवि के चित्रण से कहानी का आरंभ हुआ है केवल उसकी यातना का चित्रण कहानी का उद्देश्य नहीं है। साथ ही नगेन्द्रनाथ का दुःख भी इस कहानी का उद्देश्य नहीं है। लेकिन ये दोनों ऐसे पात्र हैं जिनके आसपास का वर्णन कहानी में है। इनके माध्यम से हम विशिष्ट से सामान्य पात्रों की यातना का अनुभव करते हैं। कहानी के वे सामान्य पात्र 50-60 रोगी हैं। कवि के रोग के कारण का उल्लेख कहानी में है। कवि कहता है- श्च्वअमतजल ेनििमतपदहश् नगेन्द्रनाथ की कहानी भी कवि से अलग नहीं है। कहीं न कहीं कहानी में भी मुख्य है- श्च्वअमतजल ेनििमतपदहश् ‘गरीबी और दुख ऐसे लोगों को बीमार पड़ने की फुर्सत नहीं है जो गरीब हैं, जिनके दुःख और हैं, जो जीवन की कशमश में उलझे हैंः जो पसीने की एक-एक बूंद से एक-एक दाना कमाते हैं। लेकिन जो रोग किसी समय राज-रोग कहलाता था, आज वहीं आक्रमण करता है जहां गरीबी और दुःख देखता है। और ये गरीबी और दुःख कहां से आए- क्या किसी और लोक से आए हैं? क्या ये मनुष्य द्वारा बनाई गई व्यवस्था की ही देन नहीं हैं? इसलिए कहा गया था कि रचनाकार टूटे हुए सम्बन्ध-सूत्रों को जोड़ता हैं धनंजय वर्मा के अनुसार परसाई ने अनेक तरह की अमानवीयता और पाखंडों में छले जाते समकालीन आदमी को रोजमर्रा तकलीफ को जवान दी। यह तकलीफ मनुष्य रचित ही नहीं, मनुष्य रचित भी है। अनेक रोगों का कारण गरीबी तथा दुख है, और गरीबी तथा दुख के कारण हम स्वयं हैं।
सेनेटोरियम के रोगियों में न जाने कितने नगेन्द्रनाथ जैसे रहे होंगे। जो कुछ वे बोलते हैं, उससे वे मूर्त होते हैं, नगेन्द्रनाथ के चित्रण से वे और अधिक मूर्त होते हैं। रोगियों में नर्स को चिड़चिड़ी कहने वाला भी है और ‘कुछ नहीं - त्मचतमेेपवदश् (मौनदमन) है।’ कहने वाला भी। यह दक्षिण का है और पूछने पर बताता है कि ‘मैं टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशलाजी में था। कोर्स का एक साल रह गया था, सो यहां काटना पड़ रहा है। यानी गरीब, दुखी, प्रतिज्ञाशाली सब यहां सेनेटोरियम में रोगी बनकर जीवन बिता रहे हैं। गिंसबर्ग ने अपनी एक कविता में लिखा, ‘मैंने देखा है अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ दिमागों को पागलपन से तहस-नहस होते-भूखे विक्षिप्त नंगे।’
सेनेटोरियम के रोगी मनुष्य नहीं लगते, अस्तित्व मात्र लगते हैं, लेकिन हैं तो मनुष्य ही। जब कोई बाहर से आता है तो उसके सहारे ये बाहर की उस दुनिया से जुड़ना चाहते हैं जो इनसे छूट गई है। नर्स इन्हें बच्चा समझकर डांटती है। बाहर से आए व्यक्ति के सामने ये अपने को बच्चा मानने को तैयार नहीं। नर्स की बातें इन्हीं रोग और अस्पताल की याद दिलाती हैं और बाहर से आया व्यक्ति जीवन से जोड़ता है। परसाई ने रोगियों का मनोविज्ञान ऐसे चित्रित किया है -
‘वे सब डांटे हुए बच्चे की तरह दुबककर रह गये हैं, निर्बल क्रोध और विवशता से एक-दो गले भर आये। इन्हें मीठी बात चाहिए,, स्नेह की वाणी चाहिए। घर से दूर, परिवार से दूर, मित्रों, सम्बन्धियों से दूर इस घेरे में बन्द ये आत्माएं जीवन का संस्पर्श चाहती हैं। उन्हें स्नेह की चाह है, माधुर्य की चाह है- उन्हें वह सब चाहिए जो जीवन को अर्थ देता है। नर्स के कड़वे बोल जैसे उन्हें जीवन से दूर ढकेलते हैं।
परसाई की अनेक रचनाओं में, संकट में पड़कर किसी अज्ञात सत्ता को पुकारते पात्रों का मार्मिक वर्णन मिलता है, अज्ञात को सम्बोधित यह पुकार उन पात्रों की यातना को कई गुणा बढ़ा देती है। साथ ही विडंबना की भी व्यंजना करती है। कस्बे में प्लेग पड़ने पर परसाई जी की मां मर रही थीं और परसाई-परिवार गा रहा था- ‘जय जगदीश हरे...।’ ‘किताब का एक पन्ना’ कहानी में भिखारिन युवती गाती है- ‘भगवान किनारे लगा दे मेरी नैया’ और ‘जिन्दगी और मौत’ के रोगी रोजाना गाई जाने वाली आरती आज फिर बड़े करूणा कंठ से गा रहे हैं- ‘जय जगदीश हरे...।’
‘गले उनके रुंधे हैं। पीड़ित आत्मा का आर्तनाद-सा लगता है। टी.बी. के मरीज को इस युग में भी लगता है कि उसका अन्त आ गया। ये सब अपने को गया हुआ मान बैठे हैं, जीवन इनका खो गया है। इनका विश्वास गया, आशा गयी, निष्ठा गयी! ये किसी अलक्ष्य, पर सर्वोपरि शक्ति से आसरा चाहते हैं। नदी में गिरे उस आदमी जैसे हैं, जो आसपास किसी तैरती लकड़ी को न पाकर चीखता है कि किनारे पर कोई कहीं सुन ले और बचा ले। कण्ठ से धनीभूत पीड़ा प्रवाहित हो रही है।
गाते-गाते, दो-तीन आदमी फूट-फूटकर रोने लगे। बच्चों की तरह सिसक रहे हैं।’
फिर वहीं ‘जय जगदीश हरेे।’ इस प्रार्थना की वास्तविकता परसाई व्यक्तिगत अनुभव से जानते हैं। यह प्रार्थना उनमें आतंक, त्रास और भय उत्पन्न करती है, ‘मैं इससे नफरत करता हूं। जवानी से ही मैं सब प्रार्थनाओं और भजनों से नफरत करने लगा।’
व्यक्तिगत अनुभव, रचनाकार का अनुभव बनकर अपने पात्रों द्वारा भगवान को पुकारते देख उनके दुख का अनुभव करता-कराता है। परसाई के ये पात्र उनके आत्मीय हैं। लेकिन ये जिसे रक्षा के लिए पुकारते हैं, वह भ्रम या धोखा है। परसाई की तटस्थ दृष्टि इस विडंबना को देखती है। विक्षोभ उत्पन्न करती है। जो करूणा पुकार जड़ पत्थर चाहे जड़ हो, कठोर हो - सत्य है, उसका अस्तित्व है। लेकिन जिसे पुकारा जाता है, वह है - इस पर परसाई का पूरा सन्देह है। इस सत्य को केवल परसाई का रचनाकार जानता है, इसलिए उसकी यातना और अधिक बढ़ जाती है, वह कबीर के दुःख के आसपास की है।
कहानी के अंत में वाचक कवि को सेनेटोरियम में छोड़कर, उसके उपचार का प्रबंध करके लौटने लगता है। वाचक चलने लगा तो वही करूण स्थिति वाले रोगी उसे विदा करते हैं, जो दूसरों को संभालने की क्षमता रखते हैं - ‘बाहर चलने लगा, तो उन 40-50 मरीजों ने ‘नमस्कार, जै रामजी की’ की झड़ी लगा दी। कैसी आत्मीयता और दो घण्टे के इस परिचित के जाने का कैसा दुख। जैसे जन्म का साथी जा रहा हो।’
बाबा नागार्जुन ने रास्ते में ही रह जाने वाले असफल, अनाम लोगों पर एक कविता लिखी ‘उनको प्रणाम’, परसाई ने अपने कुछ सात्विक वृत्तियों के पात्रों को अपनी रचनाएं समर्पित की हैं। उनमें से एक है ‘जिन्दगी और मौत’, इस कहानी के रोगियों से उन्होंने रिश्ता जोड़ा, जन्म का साथी माना। इनके आचरण, संवेदनशीलता, सीमित सकर्मकता को देखते हुए क्या ये सचमुच रोगी लगते हैं? डा. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा निराला पर लिखी कविता ‘पागल’ की याद आती हैं -
ओ, नजरूल इस्लाम, रूसो, वान गाग के साथी
हमें तुम्हें पागल कहते हैं
किंतु हमें तुम क्या कहते हो?
परसाई ने समाज रक्षक होने का दंभ करने वालों, करूणा का प्रदर्शन करने वालों, करूणा चुराने वालों और करूणावान होने में समर्थ लेकिन उससे विमुख लोगों पर सीधा व्यंग्य भी किया है। लेकिन उनके रास्ते और भी हैं। इस कहानी के माध्यम से वे ऐसे लोगों पर सार्थक टिप्पणी करते हैं, व्यंग्य का एक रूप यह भी है। गालिब की वे पंक्तियां फिर याद आती हैं -
कैदियों ने मुझे सर आँखों पर बिठाया है। मैं इनकी मुहब्बत पर कितना नाज करूँ? शहर में अगर कहीं वफ़ा है तो वह उन चोरों में है, जो पकड़े जा चुके हैं। मैं उनके साथ रिश्ता जोड़ना चाहता हूँ।’
काश! कोई ऐसा भी सेनेटोरियम बने जिसमें उन वास्तविक मनोरोगियों की चिकित्सा हो जो बाहर घूम रहे हैं। परसाई साहित्य भी ऐसा ही एक सेनेटोरियम है।