( यह कविता इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि कल तृणमूल की अध्यक्षा ममता बनर्जी ने अपने एक भाषण में कॉमरेड़ों को 1972-77 जैसे सबक सिखा देने की सरेआम धमकी है, वे मंच पर घूम घूमकर भाषण दे रही हैं, उल्लेखनीय है यह दौर पश्चिम बंगाल में अर्द्धफासीवादी आतंक के नाम से जाना जाता है, इस दौर में 1200 से ज्यादा सदस्य कांग्रेस की गुण्डावाहिनी के हाथों मारे गए थे और 50 हजार से ज्यादा को राज्य छोड़कर बाहर जाना पड़ा था, उस समय बाबा नागार्जुन ने यह कविता लिखी थी ,जो ऐतिहासिक दस्तावेज है,यह कविता आज भी प्रासंगिक है, इसके कुछ अंश यहां दे रहे हैं)
लाभ-लोभ के नागपाश में
जकड़ गए हैं अंग तुम्हारे
घनी धुंध है भीतर -बाहर
दिन में भी गिनती हो तारे।
नाच रही हो ठुमक रही हो
बीच-बीच में मुस्काती हो
बीच-बीच में भवें तान कर
आग दृगों से बरसाती हो।
रंग लेपकर ,फूँक मारकर
उड़ा रहीं सौ -सौ गुब्बारे
महाशक्ति के मद में डूबीं
भूल गई हो पिछले नारे।
चुकने वाली है अब तो
डायन की बहुरूपी माया
ठगिनी तू ने बहुत दिनों तक
जन-जन को यों ही भरमाया।
(ममता बनर्जी ने जमकर पैसा खर्च किया है और इसमें काले धन की बड़ी भूमिका भी है, ढ़ेर सारे वाम और दाएँ बाजू के बुद्धिजीवी भी उसकी सेवा में हैं, अपराधियों से लेकर बुद्धिजीवियों तक का ऐसा भयानक गठबंधन बेमिसाल है, ममता बनर्जी पर बाबा की कविता का यह अंश काफी घटता है)
जैसी प्रतिमा, जैसी देवी
वैसे ही नटगोत्र पुजारी
नए सिंह, महिषासुर अभिनव
नए भगत श्रद्धा-संचारी
ग्रह-उपग्रह सब थकित -चकित हैं
सभी हो रहे चन्दामामा
चन्दारानी की सेवा में
लिखा सभी ने राजीनामा
(ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के चुनाव भाषणों में एक बार भी मँहगाई का जिक्र नहीं किया है। भ्रष्टाचार पर कुछ नहीं बोला है। कल से सरेआम धमका रही हैं । बार बार पश्चिम बंगाल के पिछड़ेपन का रोना रो रही हैं ,और मीडिया महिमामंडन में लगा है, इस पर बाबा की पंक्तियां पढ़ें)
मँहगाई का तुझे पता क्या !
जाने क्या तू पीर पराई !
इर्द-गिर्द बस तीस-हजारी
साहबान की मुस्की छाई !
तुझ को बहुत-बहुत खलता है
'अपनी जनता ' का पिछड़ापन
महामूल्य रेशम में लिपटी
यों ही करतीं जीवन-यापन
ठगों-उचक्कों की मलकाइन
प्रजातंत्र की ओ हत्यारी
अबके हमको पता चल गया
है तू किन वर्गों की प्यारी
(ममता बनर्जी ने अंध कम्युनिस्ट विरोध के आधार पर पापुलिज्म की राजनीति का जो सिक्का चला है वह भविष्य में पश्चिम बंगाल की राजनीति के लिए अशुभ संकेत है। बाबा ने ऐसी ही परिस्थितियों पर लिखा था, पढ़ें -)
जन-मन भरम रहा है नकली
मत-पत्रों की मृग-माय़ा में
विचर रही तू महाकाल के
काले पंखों की छाया में
सौ कंसों की खीझ भरी है
इस सुरसा के दिल के अंदर
कंधों पर बैठे हैं इस के
धन-पिशाच के मस्त-कलंदर
गोली-गोले,पुलिस -मिलिटरी
इर्द-गिर्द हैं घेरे चलते
इसकी छलिया मुस्कानों पर
धन-कुबेर के दीपक जलते
- लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी, कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं .....
Courtsey : Mr Jagdishwar Chaturvedi & http://suchanroshan.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html