परंतु प्रमुख राजनीतिक दल खासतौर पर कांग्रेस नीति यूपीए-2 और भापजा के नेतृत्व वाला राजग राष्ट्रपति चुनावों की जोड़तोड़ और अपनी आंतरिक समस्याओं में ही उलझा हुआ है। गोवा, उत्तर प्रदेश और अन्य राज्यों में नाकामयाब रहने एवं आंध्र प्रदेश उप चुनावों में करारी शिकस्त के बाद अब कांग्रेस का पूरा ध्यान राहुल गांधी पर ही केंद्रित है जो अपनी वास्तविक छवि से भी बड़ा पेश किए जाने के बावजूद कांग्रेसी तबकों तक में कोई जादू नहीं चला पाए।
यूपीए एनसीपी की ओर से एक समन्वय समिति बनाने को लेकर भीतरी दबाव झेल रही है, जिसके लिए एनसीपी ने केबिनेट की बैठक में आने से भी इंकार कर दिया है। त्रिणमूल और डीएमके भी अपने-अपने कारणों से नाखुश हैं।
जदयू और शिवसेना के पीए संगमा को राष्ट्रपति चुनावों में समर्थन नहीं देने के सदमें से भाजपा को अभी बाहर आना बाकी हैं। उसने कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदलकर साम्प्रदायिक जातिवादी शक्तियों के सामने बेशर्मी से समर्पण का उदाहरण पेश किया है। इसके अलावा कर्नाटक भाजपा में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर भी टूट थी। नरेन्द्र मोदी और अन्य 2014 की प्रधानमंत्री मृगतृष्णा के लिए आंतरिक लड़ाई को ढोह रहे हैं।
भारतीय कार्पोरेट घराने देश को डरा रहे हैं कि यदि उनकी इच्छाओं की पूर्ति वाले कठोर निर्णय नहीं लिए गए तो यह भारत को एक संकट की ओर धकेल देगा। ‘‘टाईम’’ पत्रिका ने डा. मनमोहन सिंह को एक ‘‘अंडर एचीवर’’ बताया तो ओबामा भी उन पर बहुराष्ट्रीय निगम समर्थक सुधारों को लागू करने का दबाव डाल रहे हैं ताकि उनके लिए दरवाजे खोलकर उन्हें देश की लूट की सुविधा दी जा सके। जबकि सच्चाई यह है कि पिछले चार सालों में भारतीय निगमों और सबसे बड़े अमीरों ने 5 लाख करोड़ रु. का अतिरिक्त मुनाफा कमाया है और उनकी दौलत दो गुनी हुई है तो वहीं आम आदमी की दरिद्रता बढ़ी है। डा. मनमोहन सिंह कार्पोरेट के लिए आधे परफार्म करने वाले सिद्ध हुए, तो वहीं आम आदमी के लिए कुछ भी परफार्म नहीं करने वाले सिद्ध हुए हैं।
यह केवल वामपंथ है जो जनता के सवालों की बात कर रहा है ओर एक जुझारू लड़ाई के लिए जनता को लामबद्ध कर रहा है।
खाद्य सुरक्षा के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाने के वामपंथ के आव्हान को कई राज्यों ने लागू किया है। बैठकों, रैलियों ओर कंवेशनों का दौर जारी है और पं. बंगाल, असम, मणिपुर, केरल और दूसरे अन्य राज्यों में व्यापक धरने और प्रदर्शनों की रूपरेखा तैयार हो रही है। इनमें से अधिकतर राज्य अपनी विधान सभाओं के सामने धरना देंगे और ठीक उसी तरह संसद के सामने भी 30 जुलाई से 3 अगस्त तक राष्ट्रव्यापी धरना अभियान चलेगा।
दिल्ली ओर उसके आसपास के राज्य हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, पश्चिम उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश दिल्ली के साथ मिलकर संसद पर
धरने के लिए जनता को लामबद्ध करेगें, हैंडबिल और पोस्टर पहले ही छप चुके हैं। विस्तार से व्याख्या करने वाली एक पुस्तिका ंिहंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हो चुकी है। समाज के प्रत्येक हिस्से से अच्छी प्रतिक्रिया प्राप्त हो रही है।
कुछ लोगों को आश्चर्य हो रहा है कि जब विधेयक संसद के समक्ष लंबित है तो खाद्य सुरक्षा पर आंदोलन क्यो। वर्तमान लंबित पड़ा विधेयक बेहद कमजोर और जनता के हितों के एकदम खिलाफ है।
वित्त मंत्री का कहना है कि सब्सिडी की चिंता में उनकी रातों की नींद गायब है। पिछले चार वर्षों में कार्पोरेट घरानों को 24 लाख करोड़ की सब्सिडी और छूट दी जा चुकी है। योजना आयोग के एक शौचालय में 35 लाख रुपये खर्च करने वाले मोंटेक सिंह अहलूवालिया कहते हैं कि 26 रु. खर्च करने वाला ग्रामीण गरीबी रेखा से ऊपर है। गृहमंत्री चिदंबरम भी हैरान हैं कि 15 रु. पानी की बोतल और 20 रु.आइसक्रीम पर खर्च करने वाला आदमी चावल में 1 रु. की बढ़ोत्तरी का विरोध क्यों करता है। 20 रु. या 200 रु. की आइसक्रीम खाने वाले और 50,000 रु0 की विदेशी शराब खरीदने वाले आदमी वह नहंी हैं जो चावल और गेहूं की दाम बढ़ोतरी का विरोध करते हैं। यह नेता जो इस अंतर को नहीं समझते हैं वही देश के नीति निर्माता हैं।
वामपंथ सार्वभौमिक जन वितरण प्रणाली की मांग करता है। सरकार हरेक साल लगभग 6 से 8 करोड़ टन गेहूं चावल खरीदती है। लगभग 30 से 50 लाख टन खाद्यान्न भंडारण की उचित व्यवस्ष्था के अभाव में सड़ जाते हैं। लोग भूखों मर रहे हैं और सरकार उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देशों के बावजूद जरूरत मंदों और गरीबों को मुफ्त अनाज बांटने से इंकार कर रही है।
भाजपा के नेतृत्व वाले राजग ने पहले जनता की जरूरतों को नजर अंदाज करके खाद्यान्न का निर्यात किया था। अब मनमोहन सिंह की सरकार भी पैसा बनाने के लिए खाद्यान्न निर्यात करने की योजना बना रही है बावजूद इसके कि देश के कई राज्य अभूतपूर्व सूखे से प्रभावित हैं।
जबकि कांग्रेस और उसका समर्थक मीडिया ऐसा पेश करने की कोशिश कर रहा है इस खाद्य सुरक्षा विधेयक से देश की 70 प्रतिशत आबादी को 3 रु. किलो की दर पर खाद्यान्न प्राप्त होंगे।
दूसरी तरफ मोंटेक सिंह अहलुवालिया और डा. रंगा राजन और उनके साथी 26 रु. और 32 रु. की हास्यास्पद गरीेबी रेखा निर्धारित करके यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि गरीबी घट गई है। योजना आयोग की इसी कोशिश को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उच्चतम न्यायालय के सामने पेश किया। इस स्थिति में अधिकारिक गरीबी की रेखा से महज 23 प्रतिशत आबादी ही रह जायेगी। खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए गरीबी रेखा का यह मापदंड एक अजूबा ही होगा।
कई राज्यों में राज्य सरकारें 2 रु. किलो ही राशन दे रही हैं जबकि तमिलनाडु में प्रत्येक परिवार को 20 किलो ग्राम चावल का एक बैग बिल्कुल मुफ्त दिया जा रहा है। यदि सीमित साधनों के साथ एक राज्य ऐसा कर सकता है तो कं्रेद्र सरकार क्यों नहीं कर सकती है?
यहां तक कि राष्ट्रीय सेंपल सर्वे के सबसे वैज्ञानिक आंकड़ों में भी इसे समाहित किया गया है जिसके आधार पर अर्जुन सेन गुप्ता ने अपनी असंगठित क्षेत्र की शानदार रिपोर्ट कंेद्रित की हैं कि देश की 77 प्रतिशत आबादी 20 रु. रोज से भी कम अपने भोजन पर खर्च करती है। यह आंकड़े कुछ वर्षों पहले के हैं। परंतु अब रुपये का मूल्य घट चुका है। रुपये की क्रयशक्ति पिछले दो दशक में गिरकर 22 पैसे तक पहुंच चुकी है।
जब सरकार गरीबी कम नहीं कर सकती है उसे खाद्य सुरक्षा मुहैया कराना चाहिए जिससे आम जनता जी सके। यह कल्याणकारी उपाय अथवा दया नहीं बल्कि एक जनवादी सरकार की राजनीतिक जवाबदेही है।
गरीबी के विभिन्न आँकड़े हो सकते हैं जो कि वास्तविक संख्या से अलग भी हो सकते हैं अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान इसे 30 करोड़ आंकता है तो वहीं ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय का मानना है कि यह संख्या 41 करोड़ है। गरीबी रेखा से ऊपर भी एक बड़ी संख्या बाजार दामों पर भोजन खरीद पाने में सक्षम नहीं है। इसीलिए खाद्य सुरक्षा की तुरंत आवश्यकता है।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर आम आदमी के जीवन को सुधारने में कोई सहायाता नहीं करती है। उदारवादी नीतियां लोगों के जीवन को और दूभर कर रही हैं। कार्पोरेट घरानों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही आर्थिक नीतियां गलत दिशा में जा रही हैं। इसीलिए जीडीपी की विकास दर जो भी हो 10 प्रतिशत अथवा 12 प्रतिशत उससे गरीबी की समस्या हल होने नहीं जा रही है। यह उस ट्रेन की गति बढ़ाये जाने की तरह है जो कभी भी अपनी मंजिल गरीबों और जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाती है।
यह महंगा नहीं जैसा कि कई अर्थशास्त्रियों द्वारा इसे बताया जाता है। आइये गणना करें।
1008 लाख टन खाद्यान्न उपलब्ध कराना संभव है। एफसीआई 2010 में 5000 टन खाद्यान्न ही उपलब्ध कराना संभव है। एफसीआई 2010 में 500 टन खाद्यान्न ही उपलब्ध करा सका जो कुल खाद्य उत्पादन का 23 प्रतिशत था। एकदम अभी सरकार के पास 6 से 8 करोड़ टन खाद्यान्न का भंडार है। अभी 300 से 400 लाख टन खाद्यान्न की आवश्यकता है पूरे देश को खिलाने के लिए। परंतु इसके लिए एक नीति की आवश्यकता है। जिसके लिए ईमानदारी की जरूरत हैं। इसके लिए इच्छाशक्ति चाहिए। यह सब वर्तमान सरकार के पास नहीं है। इसीलिए यह संघर्ष है।
यह उपलब्ध आंकड़े दर्शाते हैं कि सबके लिए पीडीएस का नतीजा कोई असामान्य लागत नहीं है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति हो तो वह थोड़े से प्रयास से ही देश के हर दरवाजों पर खाद्यान्न मुहैया कराया जा सकता ह।ै।
यह सरकार को चुनना होगा कि वह जनता के साथ है अथवा कार्पोरेट घरानों के साथ है।
यदि सरकार कुछ बड़े कार्पोरेट घरानों को संतुष्ट करने के लिए इतना खर्च कर सकती है तो क्यों नहीं 24 करोड़ परिवारों को खाना देने के लिए 2 लाख करोड़ खर्च करती हैं।
कुछ लोग बेशर्मी से यह तर्क दे रहे हैं कि मुफ्त या सब्सिडी वाला खाना देना जनता को आलसी बना देगा, जैसे कि देश की दौलत का उत्पादन बगैर परिश्रमी जनता के खून पसीना बहाए हो रहा है।
सरकार को समझ दी जानी चाहिए। उन्हें उनकी नीतियां बदलने के लिए मजबूर किया जाना चाहिए। शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा भोजन, पेयजल और आवास भी जनता का अधिकार है।
वामपंथ की खाद्य सुरक्षा की लड़ाई एक बड़ी लड़ाई की शुरुआत भर है। यह संघर्ष आगे बढ़ेगा। जनवादी, धर्म निरपेक्ष और एक समान सोच रखने वाले लोगों को बड़ी संख्या में इस लड़ाई को सफल बनाने में लामबद्ध किया जाएगा। आओ सबके लिए खाद्य सुरक्षा के इस संघर्ष को सफल बनाएं।
- एस. सुधाकर रेड्डी