25 जनवरी को सैकड़ों हजारों लोग मिस्र की राजधानी कैरो के तहरीर चौक पर तथा अलैक्जेंडरिया सहित अन्य शहरों की सड़कों पर जमा हो गये। वे होसनी मुबारक के आतंक के खिलाफ विद्रोह की पहली वर्षगांठ मना रहे थे। होसनी मुबारक को केवल 18 दिन के जन विद्रोह के बाद सत्ता च्युत कर दिया गया था और अब उनके विरूद्ध अत्याचारों के कई मामलों पर और तीन दशकों के कुशासन के लिये कई मुकद्दमें चलाये जा रहे हैं।
तहरीर चौक पर जमा भीड़ मोटा-मोटी नागरिकों पर सेना के नियंत्रण की फौरी खात्मे की मांग करने वाले युवकों और संसद में व्यापक सफलता पाने वाले राजनीतिक रूपांतरण का जश्न मना रहे इस्लामवादियों के बीच विभाजित थी। मुस्लिम ब्रदरहुड (अखवानुल मुसलमीन) ने, जो लगभग पूरी 20वीं शताब्दी में गैरकानूनी करार रहे, फ्रीडम एंड जस्टिस पार्टी (एफजेपी) के नाम से एक नयी राजनीतिक पार्टी गठित की और हाल में हुए चुनावों में वह अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और अब वह इस्लाम के समर्थक एक अन्य धार्मिक संगठन सलाफिस्ट के साथ बहुमत में है। सलाफिस्ट इस्लाम ने भी उन लोगों का साथ देने की कोशिश की जो कहते हैं कि क्रांति अभी खत्म नहीं हुई हैं। लेकिन व्यापक जमावड़े के बहुमत ने उन्हें अलग-थलग कर दिया। जिस समय मुख्य तहरीर चौक पर उन नौजवानों का कब्जा था जिन्हें लगता था कि इसका जश्न मनाने वाले लोगों से क्रांति के साथ धोखा दिया, उस समय एफजेपी के समर्थकों को तहरीर चौक के बाहर एक कोने में धकेल दिया गया। मुबारक के सत्ता से बाहर होने के बाद से देश पर शासन कर रही सर्वोच्च सेना परिषद (एससीएएफ) पर तानाशाह हुकूमत की नीतियों को चलाने का आरोप लगाया जा रहा है। नौजवानों ने ट्रैफिक केंद्रो पर कई शिविर भी लगाये हैं और वे कह रहे हैं कि जब तक सशस्त्र सेनाएं सत्ता को संक्रमणकालीन नागरिक सरकार को नहीं सौंपती उनका धरना जारी रहेगा।
हालांकि एससीएएफ बार-बार यह आश्वासन देती है कि वह फरवरी के तीसरे हफ्ते में राष्ट्रपति के चुनाव संपन्न हो जाने पर सत्ता नागरिक सरकार के हाथों में सौंप देगी, लेकिन युवा पीढ़ी उन पर यकीन करने को तैयार नहीं। दरअसल, यह आम आशंका है कि अमरीकी विदेशी मंत्री हिलेरी क्लिंटन कठपुतली शासन को जारी रखने के लिये सेना और एफजेपी के बीच सौदा कराने में कामयाब हो गयी हैं।
लोगों को आशंका है कि अखवानुल मुसलमीन को जहां सरकार का गठन करने दिया जायेगा, वहीं असली ताकत राष्ट्रपति के हाथों में बनी रहेगी जिसे सशस्त्र सेना मनोनीत करेगी। स्वाभाविक है कि इस बात से मुबारक के आतंकवादी शासन के खिलाफ लड़ने वाली युवा पीढ़ी हताश है। मीडिया के मुख्य समाचारों में लोगों की यह भावना प्रतिबंबित हो रही है। अधिकांश समाचार पत्रों ने सड़कों पर जनतांत्रिक परिवर्तनों की मांग करते हुए व्यापक जनगण के सड़कों पर उतरने के बाद क्रांति के पुनः उठ खड़े होने की प्रशंसा की। दैनिक अल-शोरोक ने मुख्य शीर्षक ‘क्रांति जारी है’ के अंतर्गत कहा कि लाखों मिस्रवासी ‘‘सैन्य शासन का अंत’’ देखना चाहते हैं और सरकारी दैनिक अल-अहराम तक ने घोषणा की कि ‘‘लोग चाहते हैं कि क्रांति जारी रहे’’। तहरीर चौक पर व्यापक जमा होती भीड़ के एक बड़े चित्र के साथ उसने यह शीर्षक छापा।
तहरीर चौक के एक कोने में धकेल दिये गये इस्लामीवाद जहां जनवाद की प्रशंसा में नारे लगा रहे थे वहीं, मुख्य भीड़ एससीएएफ के खिलाफ नारे बुलंद कर रही थी और उस पर प्रति क्रांति को चलाने का आरोप लगा रही थी। दोनों ओर ही जनवादी अधिकारों की गूंज थी, वहीं नौजवान रोटी, रोजगार और आर्थिक न्याय की मांग पर ज्यादा जोर दे रहे थे। स्वाभाविक रूप से, दृष्टिकोण में इस अंतर का परिणाम दोनों पक्षों के बीच झड़प था। अगले दिन शुक्रवार (27 जनवरी) को यही देखा गया और वहां उनके बीच झड़प हो गयी।
शुक्रवार की नमाज के बाद विभिन्न मस्जिदों से हजारों लोग तहरीर चौक की ओर चल पड़े ताकि 25 जनवरी से वहां धरने पर बैठे लोगों के साथ शामिल हो सकें। नमाज के दौरान उनके मुल्लाओ ने अपनी तकरीर में कहा था कि ‘‘क्रांति ने अपने सभी लक्ष्य हासिल नहीं किये हैं’’ और सशस्त्र बल अरब वसंत का गला घोंट रहे हैं। जुम्मे की नमाज के बाद आने वालों में हजारों महिलाएं भी शामिल हो गयीं और वे चाहती थीं कि इस्लामवादी तहरीर चौक के आस-पास की जगह खाली कर दें जिससे टकराव भड़क उठा। यह कुछ हद तक तब शांत हुआ जब एफजेपी वालंटियरों ने अपने अनुयायियों से पीछे हट जाने को कहा क्योंकि लाखों प्रदर्शनकारी आम तौर पर सशस्त्र सेनाओं के खिलाफ थे और एफजेपी को उसी थैली का चट्टा-बट्टा माना जाता है।
हालांकि अभी तक ऐसी कोई भी संगठित राजनीतिक शक्ति नहीं उभरी है जो जनवादी शक्तियों के साथ असली वर्ग संघर्ष का नेतृत्व करने में सक्षम हों, फिर भी नौजवान ऐसी क्रांति करने पर आमादा लगते हैं जिसके मुख्य नारे रोजगार एवं भोजन जैसे आर्थिक मुद्दों से ज्यादा जुड़ते जा रहे हैं।
दूसरे देशों में भी स्थिति ऐसी ही लगती है। लीबिया में, जहां नाटों के क्रूर हमले के जरिये तानाशाह मोआमर गद्दाफी की सत्ता को पश्चिमी ताकतों ने उखाड़ फेंका था, पर त्रिपोली में सत्ता में बैठायी गई कठपुतली सरकार अब भी पूरे देश पर नियंत्रण की स्थिति में नहीं है। उसकी सत्ता राष्ट्रीय राजधानी और कुछ ऐसे स्थानों तक सीमित हैं जहां तेल के कुएं हैं। सबसे ज्यादा आबादी वाला खलीद शहर अब भी गद्दाफी के वफादारों के नियंत्रण में है।
लेकिन अरब जगत के संबंध में सबसे ज्यादा चिढ़ पैदा करने वाला मुद्दा यह है कि सत्ताच्युत और निर्मम तरीके से मार डाले गये तानाशाह के कथित समर्थक स्त्री-पुरूषों को यातनाएं देना जारी है। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव-अधिकार से जुडे़ अधिकारियों ने भी नागरिकों के विरूद्ध बढ़ती हिंसा पर चिंता व्यक्त की है। वहां 60 नजरबंदी केंद्र हैं जिनमें 8000 से अधिक नागरिकों को लगातार यातनाएं दी जा रही हैं। संयुक्त राष्ट्र के मानव अधिकार उच्च आयुक्त नयी पिलये ने कहा है कि गद्दाफी शासन से लड़ने के लिये यूरोप के विभिन्न देशों से मंगाये गये अलग-अलग भूतपूर्व विद्रोही ग्रुपों ने देश भर के सैकड़ों से अधिक नजरबंद कैंपो में हजारों नागरिकों को कैद कर रखा है। उन्होंने प्रेस को बताया कि वहां यातनाएं जारी हैं, अदालतों के फैसलों के बिना ही लोग फांसी पर लटकाये जा रहे हैं, स्त्री-पुरूष दोनों से बलात्कार हो रहा है।’’ पिलये ने कहा कि उन्हें उप-सहारा अफ्रीकी कैदियों की विशेष चिंता है जिन्हें ब्रिगेड अपने आप ही भूतपूर्व तानाशाह गद्दाफी के लिये लड़ने वाला मान लेते हैं।
अरब टाइम्स के अनुसार, ऐड गु्रप डाक्टर्स विदाउट बोर्डर्स ने लीबिया की मिस्रेट सिटी की जेल में 26 जनवरी को अपना काम बंद कर दिया क्योंकि उन्होने कहा कि वहां इतनी अधिक यंत्रणाएं दी जाती हैं कि कुछ कैदियों को इलाज के लिये केवल इसलिय लाया जाता है ताकि उन्हें आगे की पूछताछ के लायक बनाया जा सकें। लीबिया में फौजी अराजकता का एक और नतीजा है नाइजीरिया व चाड जैसे उन अन्य अफ्रीकी देशो में हथियारों की तस्करी जहाँ अल-कायदा से जुडे़ धार्मिक कट्टरपंथी मौजूदा शासकों को सत्ता से हटाने में लगे हैं। संयोगवश, यह अमरीका और उसके नाटो सहयोगियों के लिये किसी चिंता का कारण नहीं है क्योंकि उनकी दिलचस्पी तो केवल समूचे क्षेत्र में अपने लिये तेल संसाधनों को बचाने में है।
एक और ज्वलत बिंदु है यमन जहां का तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह अपने परिवार के साथ न्यू-यार्क भाग गया है। लेकिन देश में आज भी उथल-पुथल मची है। हालांकि आधिकारिक रूप से, यह दावा किया जाता है कि सालेह इलाज के लिये बाहर गया है, लेकिन यह निश्चित है कि वह सऊदी अरब की अगुवाई वाले खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) में नहीं लौटेगा। लेकिन उनके हाथ की दूसरी कठपुतली, सालेह का डिप्टी आवेद राब्वो मंसूर हदी का 24 फरवरी को होने वाले राष्ट्रपति चुनाव के नाटक में सरकार का मुखिया बनना तय है। लेकिन सत्तारूढ़ गुट की सत्ता राजधानी सेना तक सीमित है। सेना के अधिकांश कर्मी और कबीलाई मुखिया उन विद्रोही बलों का हिस्सा बन गये हैं जिनका दक्षिण के ज्यादातर क्षेत्रों पर नियंत्रण है। निश्चय ही सऊदी अरब वालों के लिये यही मुख्य चिंता का विषय होगा क्योंकि इसकी सीमा उनके तेल वाले समृद्ध इलाकों पर पड़ती है। प्रसंगवश, सऊदी अरब का यह तेल समृद्ध इलाका भी पिछले दस महीनों से विरोध प्रदर्शनों का केंद्र रहा है। सऊदी अरब के शासक इस विरोध के लिये ईरान को दोषी ठहराते हैं क्योंकि इस इलाके में शिया मुसलमान बसते हैं।
दरअसल, जीसीसी के अधिकांश कठपुतली शासनों के लिये ईरान की सच्चाई इतनी खतरनाक है कि वे अपनी आम जनता की साम्प्रदायिक सम्बद्धता के परे कुछ भी देखने को तैयार नहीं। बहरीन जीसीसी देशों में से एक ऐसा देश है जहां ट्यूनीशिया और मिस्र के जनवादी उभार के साथ व्यापक विद्रोह देखने को मिला। आबादी का व्यापक बहुमत शिया है और शासक अल-खलीफा, सुन्नी सम्प्रदाय से हैं। वहां की जनता विद्रोह में उठ खड़ी हुई और दो से अधिक सप्ताह तक पूरे देश को ठप्प कर दिया। जन-उभार का समर्थन करने की बजाय, अमरीका की सरपरस्ती में जीसीसी ने जन-विद्रोह को कुचलने के लिये सशस्त्र सेना भेज दी। सशस्त्र हस्तक्षेप की इस दलील को उचित ठहराया गया कि जन-विद्रोह ईरान का खेल था। कतर और यू ए ई में भी यही चाल अपनायी गयी। वहां भी जनता ने विद्रोह कर दिया था। जीसीसी का सैनिक हस्तक्षेप बहरीन में भी जारी है और वहां लोगों को फांसी पर लटकाया जा रहा है और उन्हें उत्पीड़ित किया जा रहा है। 25 जनवरी को भी 18 वर्षीय एक युवक को विद्रोह में शामिल होने के कारण फांसी पर लटका दिया गया।
जबकि यमन और बहरीन पर अरब लीग, बल्कि सही कहें तो जीसीसी की नजर है-वहीं सऊदी शासक अब अमरीका और नाटो ताकतों को बुलाने को तैयार है। ताकि असद हुकूमत के खिलाफ उपयुक्त विद्रोह खड़ा करने के अपने सभी प्रयासों के तहत सीरिया में सीधे हस्तक्षेप कर सकें। हालांकि बढ़ते विद्रोह और नागरिकों पर अत्याचारों की खबरें मीडिया में लगातार दी जा रही है, तथ्य यह है कि असद हुकूमत ने अपने राजनीतिक विरोधियों के साथ मसलों को कमोवेश सुलझा लिया है। इससे अरब लीग इतना कुढ़ गया है कि उसने एक महीने के भीतर 165 संसदीय आब्जर्वर मिशन को वापस बुलाने की घोषण कर दी है। सऊदी शासकों ने सीरियाई राष्ट्रीय परिषद, जो विद्रोहियों का संगठन है, को मान्यता देने की अपनी मंशा की घोषणा कर दी है हालांकि यह संगठन ज्यादातर कागजों पर ही है। कारण यह है कि सीरिया के वास्तविक प्रतिनिधि हस्तक्षेप के लिये संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) के पास पहुंच गये हैं। यह स्मरण किया जा सकता है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के एक प्रस्ताव द्वारा अमरीका और नाटो को लीबिया में हस्तक्षेप की इजाजत दी गयी थी ‘ताकि नागरिकों की रक्षा की जा सके’। इसकी आड़ में लीबिया पर पूर्ण हमला बोल दिया गया। हजारों लोग मारे गये। सीरिया पर भी ऐसे हमले की योजना बनायी जा रही हैं। सऊदी अरब को डर हैं कि असद हुकूमत अरब शासकों की बजाय ईरान के ज्यादा करीब हैं। (शमीम फ़ैज़ी द्वारा मध्य पूर्व से)