भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

Politics during Covid-19 in India




कोरोना काल की राजनीति

डा॰ गिरीश

जब सारा देश एकजुटता के साथ अभूतपूर्व कोरोना संकट से जूझ रहा है और संपूर्ण विपक्ष  पूरी तरह सरकार के प्रयासों का समर्थन कर रहा है, वहीं भारतीय जनता पार्टी, उसकी केन्द्र और राज्यों की सरकारें और समूचा संघ समूह आज भी अपनी तुच्छ और संकीर्ण राजनीति को आगे बढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे हैं।
भाजपा और संघ की दलीय हितों में संलिप्त रहने की कारगुजारियों का ही परिणाम था कि भारत में कोरोना के खिलाफ जंग लगभग एक माह लेट शुरू हुयी। जनवरी के प्रारंभ में ही जब पहले कोरोना ग्रसित की पहचान हुयी, केरल सरकार ने उसे अंकुश में रखने की जो फुलप्रूफ व्यवस्था की उसकी सर्वत्र प्रशंसा होरही है। लेकिन केन्द्र सरकार और भाजपा की  राज्य सरकारों ने फरबरी के अंत तक कोई नोटिस नहीं लिया।
इस पूरे दौर में वे सीएए, एनपीआर एवं एनआरसी के विरोध में चल रहे  आंदोलनों को सांप्रदायिक करार देने में जुटे रहे। दर्जनों की जान लेने वाले और अरबों- खरबों की संपत्ति को विनष्ट करने वाले सरकार संरक्षित दिल्ली के दंगे भी इसी दौर में हुये। मध्य प्रदेश की पूर्ण बहुमत वाली सरकार को षडयंत्रपूर्वक अपदस्थ करने का खेल भी इसी दरम्यान खेला गया। कोरोना की संभावित भयावहता पर फोकस करने के बजाय संपूर्ण सरकारी तंत्र और मीडिया चीन, पाकिस्तान और मुसलमान पर ही अरण्यरोदन करता रहा।
लोगों की आस्था के दोहन की गरज से सारा फोकस राम मंदिर निर्माण की तैयारियों पर केन्द्रित था। जब देश को कोरोना से जूझने के लिये तैयार करने की जरूरत थी, तब हमारी केन्द्र सरकार और कई राज्य सरकारें, सपरिवार निजी यात्रा पर भारत भ्रमण को आये अमेरिकी राष्ट्रपति के भव्य और बेहद खर्चीले स्वागत की तैयारियों में जुटी थीं। यूरोप और अमेरिका में भी जब कोरोना पूरी तरह फैल चुका था, श्री ट्रंप ने अमेरिकी नागरिकों की रक्षा से ज्यादा निजी यात्रा को प्राथमिकता दी। परिणाम सामने है।
जनवरी और फरबरी में ही कोरोना ने चीन, यूरोप, अमेरिका आदि अनेक देशों को बुरी तरह चपेट में ले लिया था, तब उच्च और उच्च मध्यम वर्ग के तमाम लोग धड़ाधड़ इन देशों से लौट रहे थे। इन वर्गों के लिये पलक- पांबड़े बिछाने वाली सरकार ने एयरपोर्ट पर मामूली जांच के बाद उन्हें घरों को जाने दिया। ये ही लोग भारत में कोरोना के प्रथम आयातक और विस्तारक बने। चिकित्सा और बचाव संबंधी तमाम सामग्री का निर्यात भी 19 मार्च तक जारी रहा।
सरकार को होश तब आया जब कोरोना भारत में फैलने लगा। अपनी लोकप्रियता और छवि निर्माण के लिये हर क्षण प्रयत्नशील रहने वाले प्रधान मंत्री श्री मोदी ने 22 मार्च को 14 घंटे के लाक डाउन और और शाम को थाली- ताली पीटने का आह्वान कर डाला। निशाना कोरोना से जूझ रहे उन स्वास्थ्यकर्मियों के कंधे पर रख कर साधा गया जिन्हें आज तक सुरक्षा किटें नहीं मिल सकी हैं और उसकी मांग करने पर उन्हें बर्खास्तगी जैसे दंडों को झेलना पड़ रहा है।
यह ध्रुव सत्य है कि कोरोना अथवा किसी भी महामारी और बीमारी का निदान विज्ञान के द्वारा ही संभव है, उन मंदिर, मस्जिद, चर्च से नहीं जिन पर आज ताले लटके हुये हैं। लेकिन शोषक वर्ग खास कर धर्म, पाखंड और टोने- टोटकों के बल पर वोट बटोरने वाली जमातों को वैज्ञानिक सोच से बहुत डर लगता है। सभी जानते हैं कि श्री दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं के पीछे इन्हीं विज्ञान विरोधी कट्टरपंथियों का हाथ रहा है।
भारत में साँप के काटने पर लोग आज भी थाली बजाते हैं। आज भी पशुओं में बीमारी फैलने पर तंत ( तंत्र ) कर खप्पड़ निकालते हैं और थाली ढोल मंजीरा पीटते हैं। तमाम ओझा, फकीर और मौलवी- मुल्ले कथित भूत्त- प्रेत बाधा का निवारण और कई बीमारियों का इलाज भी झाड फूक और थाली लोटा बजा कर करते हैं। प्रधानमंत्री ने आम जन को इसी तंत्र मंत्र में उलझा कर विज्ञान की वरीयता को निगीर्ण करने की चेष्टा की। अति उत्साही उनके अनुयायियों ने उसमें आतिशबाज़ी का तड़का भी लगा दिया। वैज्ञानिक द्रष्टिकोण रखने वाले लोगों ने स्वास्थ्यकर्मियों को सैल्यूट कर उनके प्रति क्रतज्ञता का इजहार किया।
प्रधानमंत्री जी का रात आठ बजे टीवी पर प्रकट होना और आधी रात से लागू होने वाले उनके फैसले देश के लिये संकट का पर्याय बन चुके हैं। नोटबंदी और जीएसटी से मिले घाव अभी देश भुला नहीं पाया था कि अचानक प्रधानमंत्री टीवी पर पुनः प्रकट हुये और 25 मार्च से 3 सप्ताह के लिये लाक डाउन की घोषणा कर दी। अधिकतर ट्रेनें, बसें और एयर लाइंस पहले ही बंद किए जाचुके थे। अचानक और बिना तैयारी के उठाये इस कदम से सभी अवाक रह गये।
कल- कारखाने, व्यापार- दुकान बन्द होजाने से करोड़ों मजदूर सड़क पर आगये। रोज कमा कर खाने वाले और गरीबों के घर में तो अगले दिन चूल्हा जलाने को राशन तेल भी नहीं था। बदहवाश लोग बाज़ारों की ओर दौड़े। अधिकांश बाजार बंद हो चुके थे। जो दुकानें खुली थीं उन्होने भीड़ बढ़ती देख मनमानी कीमत बसूली। गंभीर बीमारियों से पीड़ितों के पास पर्याप्त दवा तक नहीं थी।
अनेकों सेवायोजकों ने मजदूरों को काम पर से हठा दिया। मकान मालिकों ने उन्हें घरों से निकाल दिया। धनाढ्य लोगों के कहने पर दिल्ली पुलिस ने उनकी झौंपड़ियों को उजाड़ दिया और उन्हें दिल्ली की सीमाओं के बाहर छोड़ दिया। सरकार की इस अदूरदर्शिता ने करोड़ों लोगों को सड़क पर ला दिया। बहु प्रचारित सोशल डिस्टेन्सिंग तार तार होगयी और विस्थापन को मजबूर मजदूर और अन्य गरीबों ने पहाड़ जैसी पीड़ा झेलते हुये जन्मभूमि का रुख किया। भूख- प्यास और थकान से तीन दर्जन लोगों ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया। सरकार की कड़ी आलोचना हुयी। तब भाजपा और उसकी सरकार हानि की भरपाई के रास्ते तलाशने में जुट गयी।
सीएए विरोधी आंदोलन और बाद में हुये दिल्ली के दंगों के चलते दिल्ली में धारा 144 लागू थी। सारे देश में राजनैतिक दलों के कार्यक्रमों के आयोजन की इजाजत दी नहीं जा रही थी। तमाम वामपंथी जनवादी दलों एवं संगठनों ने कोरोना की भयावहता को भाँप कर अपने अनेकों कार्यक्रम रद्द कर दिये थे। पर ये केन्द्र सरकार थी जो विपक्ष के आगाह करने के बावजूद संसद को चलाती रही। भाजपा के लिये राजनीतिक जमीन तैयार करने वाले धर्मध्वजधारी समूह अपने कार्यक्रमों को अंजाम देते रहे।
दफा 144 के बावज़ूद दिल्ली के निज़ामुद्दीन मरकज में जमात चलती रही। लाक डाउन लागू होने के बाद भी जमातियों को हटाने और गंतव्य तक पहुंचाने को कदम उठाए नहीं गये। जब जमाती बीमार पड़ने लगे तब भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। आखिर क्यों?
फिर क्या था, सरकार और मीडिया को आखिर वह नायाब शैतान मिल ही गया जिस के ऊपर कोरोना के विस्तार की सारी ज़िम्मेदारी डाल कर वह सरकार की मुजरिमाना नाकामियों पर पर्दा डाल सकते थे। सरकार, उसके मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री, भाजपा और संघ के प्रवक्ता, भाजपा की मीडिया सेल और सारा गोदी मीडिया जनता के कोरोना विरोधी संघर्ष को सांप्रदायिक बनाने में जुट गये। स्वाष्थ्य मंत्रालय के मना करने के बावजूद भी यह आज तक उसी रफ्तार से जारी है।
दूसरे धर्मों के ठेकेदार भी उन दिनों वही सब कर रहे थे जो जमात कर रही थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री आदित्यनाथ जी सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां उड़ाते हुये अयोध्या में अगली कार सेवा का आगाज कर रहे थे। कोरोना की विभीषिका की फिक्र से कोसों दूर वे पूरे दो दिनों तक अयोध्या में थे। इससे पहले वे मथुरा में वे लठामार होली का आनंद ले रहे थे।
इस बीच कई बार भाजपा के जन प्रतिनिधियों के बयानों और कारगुजारियों से भाजपा का जन विरोधी, गरीब विरोधी, फासिस्ट चेहरा उजागर हुआ। एक विधायक लाक डाउन में पुलिस की मार खारहे लोगों को गोली से उड़ाने का आदेश देते दिखे तो एक अन्य विधायक तब्लीगियों को कोरोना जेहादी बता रहे थे। यूपी के बलरामपुर की भाजपा जिलाध्यक्ष ने खुलेआम पिस्तौल से फायरिंग कर कानून की धज्जियां बिखेरीं।
मोदीजी 3 अप्रेल को फिर टीवी पर नमूदार हुये। उन्होने एक बार फिर 5 अप्रेल को रात 9 बजे घर की बत्तियाँ बंद कर 9 मिनट तक घर के दरवाजे या बालकनी में रोशनी करने का आह्वान किया। किसी की समझ में नहीं आया कि इस नए टोने से कोरोना पर क्या असर पड़ेगा? प्रबुध्द जनों ने खोज निकाला कि 40 वर्ष पूर्व 5 अप्रेल को विगत जनसंघ के शूरमाओं ने नई पार्टी- भाजपा बनाने का निर्णय लिया था, जिसकी घोषणा 6 अप्रेल को की गयी थी। यह लाक डाउन में भी पार्टी के स्थापना दिवस को भव्य तरीके से मनाने की जुगत थी।
यूं तो कार्यक्रम को स्वैच्छिक बताया गया लेकिन केन्द्र और राज्यों की कई सरकारें इसकी  कामयाबी के लिये पसीना बहाती दिखीं। संगठन और मीडिया तो और भी आगे थे। ठीक 9 बजे सायरन भी बजाए गए। जागरूक लोगों को यह समझने में देर नहीं लगी कि कोरोना की आड़ में यह एक राजनीतिक कार्यक्रम है। अतएव वैज्ञानिक सोच के लोगों, तार्किक लोगों, पोंगा पंथ विरोधी लोगों और सामाजिक न्याय की ताकतों ने इससे दूरी बनाए रखी।
लेकिन 5 अप्रेल की रात को जो सामने आया वह केवल वह नहीं था जिसकी भावुक अपील श्री मोदी जी ने की थी। मोदी जी ने स्ट्रीट लाइट्स जलाये रखने को कहा था, पर अति उत्साही प्यादों ने अनेक जगह वह भी बुझा दी। गांवों में अनेक जगह ट्रांसफार्मर से ही बिजली उड़ा दी गयी। दीपक, मोमबत्तियाँ, टार्च जलीं यहाँ तक तो ठीक था। पर जय श्रीराम एवं मोदी जिंदाबाद के नारे लगे और सोशल डिस्टेन्सिंग की धज्जियां बिखेरते हुये कैंडिल मार्च निकाले गये।
और इस सबसे ऊपर वह था जिसकी गम के इस माहौल में कल्पना नहीं की जा सकती। कोरोना प्रभावित कई दर्जन लोगों की मौतें होचुकी थीं। अपने घरों की राह पकड़े भूख प्यास से मरे लोगों की संख्या भी तीन दर्जन हो चुकी थी। पर 9 बजते ही बेशुमार पटाखों की आवाजों से आसमान गूंज उठा। आतिशबाज़ी का यह क्रम 20 से 25 मिनट तक जारी रहा। सोशल मीडिया के माध्यम से मिनटों में पता लग गया कि यह आतिशबाज़ी पूरे देश में की जारही थी। मध्यवर्ग का अट्टहास तो देखते ही बनता था। वे गरीब भी पीछे नहीं थे जिनके घरों में मुश्किल से चूल्हे जल पारहे थे। वे युवा भी थे जो अपनी नौकरियाँ गंवा बैठे थे। लाशों पर ऐसा उत्सव पहले कभी देखा सुना नहीं गया।
सवाल उठता है कि जब सारे देश में लाक डाउन था इतनी बारूद लोगों तक कैसे पहुंची? क्या लोगों के घरों में आतिशबाज़ी की इस विशाल सामग्री का जखीरा जमा था? दीवाली पर शहरों की सुरक्षित जगहों पर आतिशबाज़ी के बाज़ार सजते हैं, पर अब तो बाज़ार ही बंद थे।  छान बीन से नतीजा निकला कि आम लोगों तक दीपक और पटाखे पहुंचाये गये थे। संघ समूह का खुला एजेंडा रोशनी करना- कराना था, पर छुपा एजेंडा था बड़े पैमाने पर आतिशबाज़ी कराकर जनता पर मोदी जी के कथित प्रभाव का प्रदर्शन कराना। गणेश जी को दूध पिलाने जैसा यह जनता की विवेकशक्ति को परखने का एक और हथकंडा था।
लेकिन इसकी पहुँच में सरकारी अधिकारी और अर्ध सैनिक बल भी थे। तमाम पुलिस प्रशासनिक अधिकारियों ने ड्यूटी छोड़ घरों पर सपरिवार रोशनी करने की तस्वीरें सगर्व सार्वजनिक कीं।
एक जाने माने हिन्दी कवि श्री कुमार विश्वास ने इस पूरे कथानक पर अपनी गहन पीड़ा व्यक्त करते हुये इसे “विपदा का प्रहसन” करार दिया। पर जिन लोगों ने फासीवाद का इतिहास पड़ा है वे जानते हैं कि फासीवादी शक्तियाँ अपनी भावुक अपीलों से जनता को छलती रहीं हैं।
किसी मुद्दे पर विपक्ष के मुंह खोलते ही उस पर राजनीति का आरोप जड़ने वाली भाजपा आज भी अपनी परंपरागत राजनीति धड़ल्ले से चला रही है। सत्ता और मीडिया के बल पर झूठ और दुष्प्रचार की सारी सीमाएं लांघ रही है। पूरे देश में एक साथ लाइटें बंद करने से ग्रिड पर संकट मंडराने लगा था। ग्रिड के अधिकारियों ने इस स्थिति से निपटने को वाकायदा तैयारियां कीं और अधिकारी कर्मचारियों को मुस्तैद रहने के लिखित निर्देश जारी किये। विपक्ष ने जब आवाज उठायी तो सरकार सकपकाई। फ्रिज, एसी आदि चालू रखने की अपीलें की गईं। भले ही वो विपक्ष पर आरोप लगाये कि वह अफवाह फैला रहा है, पर इससे यह खुलासा तो हो ही गया कि अति उत्साह में मोदीजी ने ग्रिड को संकट में डाल दिया था।
कोरोना के विरूध्द इस जंग में विज्ञान की प्रभुता और धर्मों का खोखलापन उजागर होगया है। धीरे धीरे धर्मों के नाम पर समाज को बांटने की साज़िशों की कलई खुलती जारही है। भाजपा और संघ इससे परेशान हैं। वे कोरोना के विरूध्द जनता के संयुक्त संघर्ष को अकेले मोदी जी का संघर्ष बताने में जुटे हैं। विपक्ष की गतिविधियों को पिंजड़े में बंद कर अपने एजेंडे पर वे पूर्ववत कार्य कर रहे हैं।






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