(जंतर-मंतर पर हुये आन्दोलन को समाप्त हुये तीन सप्ताह बीत चुके हैं। जन लोकपाल बिल पर बनी समिति में शामिल लोगों के विषय में और आन्दोलन के तमाम पहलुओं पर व्यापक बहस इस बीच छिड़ चुकी है। बहस आगे भी जारी रहेगी।
प्रस्तुत आलेख जंतर-मंतर आन्दोलन की समाप्ति के बाद तत्काल प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया था जिसमें कई महत्वपूर्ण बिन्दु उठाये गये हैं। जरूरी नहीं कि आलेख के हर बिन्दु से हम सहमत हैं पर व्यापक बहस चले, इस दृष्टि से इस आलेख का प्रकाशन किया जा रहा है। - कार्यकारी सम्पादक)
अन्ना हजारे का अनशन खत्म हो चुका है। आजादी की तथाकथित दूसरी लड़ाई के दावों के बीच गांधीवादी हजारे और उनके साथी अब सरकार को लोकपाल विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए 15 अगस्त तक का अल्टिमेटम देकर जंतर मंतर से हट गए हैं और मीडिया, खासकर टीवी चैनलों के जरिए ही सही देश के उभरते मध्यमवर्ग का एक हिस्सा भ्रष्टाचार के खिलाफ इस ऐतिहासिक जीत की खुशी में होली और दीवाली एक साथ मनाने में तल्लीन है। पर भ्रष्टाचार के खिलाफ मोमबत्ती जलाने, सिर पर गांधी टोपी पहनकर चंद घंटों के लिए उपवास पर बैठ जाने के बाद क्या अब भ्रष्टाचार इस देश से खत्म हो जाएगा? या फिर लोकपाल गठित हो जाना ही भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बड़ी जीत होगी?
एक बड़े लोकतांत्रिक देश के जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हमें यह अवश्य देखना चाहिए कि आखिर हजारे के पीछे कौन सी ताकतें हैं? जिस आंदोलन को मीडिया ने जन आंदोलन का नाम दे डाला, यहां तक कि कुछ चैनलों के कुछ नामचीन संपादकों को दिल्ली के इंडिया गेट और जंतर मंतर पर जुटे लोग मिस्र के तहरीर चौक की याद दिलाने लगे, वो क्या सच में इस देश की जनता अथवा पूरे नागरिक समाज का वास्तविक प्रतिनिधित्व करता है?
मीडिया के जरिए ही सही हजारे और उनके साथी ऐसी पवित्र गाय सरीखे हो गए हैं, जिनकी आलोचना करना ही मानों पाप हो गया है। आंदोलन के औचित्य, तरीके, उसके पीछे के लोग और जन लोकपाल बिल के मसौदे पर प्रश्न उठना स्वाभाविक है। देश में एक मजबूत लोकपाल व्यवस्था की स्थापना हो, यह मांग पुरानी है। राजनेताओं और अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों की तुरंत जांच और प्रभावी कार्रवाई होना जरूरी है लेकिन क्या जन लोकपाल ही समस्याओं का जवाब है?
क्रिकेट वर्ल्ड कप के जुनून में डूबे देश और टीम इंडिया के करिश्माई प्रदर्शन के उल्लास से सराबोर आम भारतीयों के लिए चंद दिनों पहले तक न तो अन्ना हजारे कोई खबर थे और न लोकपाल व्यवस्था के होने या न होने का सवाल उन्हें झकझोर रहा था। क्रिकेट की दीवानगी के बीच बाजार देख रहे टीवी चैनलों, उनके मालिकों और संपादकों को भारत-पाकिस्तान के सेमीफाइनल मुकाबले को जंग के मैदान में बदलने से फुर्सत नहीं थी। हजारे के आंदोलन को एक नए युग की शुरुआत बता रही मीडिया की जमात के बीच भी अधिकतर को न तो अन्ना की सुध थी और न लोकपाल, जन लोकपाल की पेचीदगियों की समझ और न उसे समझने की फुर्सत।
लेकिन अचानक ही मानों नवक्रांति का बिगुल बज उठा। 23 साल बाद भारत के क्रिकेट विश्वकप जीतने पर स्पेशल बुलेटिनों में बहस कर रहे टीवी एंकर और उनके संपादक अचानक हजारेमय हो गए। ठंडे बस्ते में धूल खा रहा लोकपाल बिल का मसला जिंदा हो गया। अन्ना हजारे के पीछे-पीछे समाचार चैनलों की ओबी वैन और उनके नामचीन चेहरे जंतर मंतर दौड़ पड़े। और शुरू हो गया मीडिया के जरिए आजादी की दूसरी लड़ाई का माहौल बनना। टीवी की व्यापक पहुंच ने दो दिन बीतते बीतते अन्ना और उनके जनलोकपाल बिल की मांग को भारत के मध्यमवर्गीय घरों तक पहुंचा दिया। बड़े ही सुनियोजित तरीके से और समाचार पत्रों और चैनलों के जरिए आम जनता से आजादी की इस दूसरी लड़ाई में कूद पड़ने का आह्वान होने लगा। अपने अराजनैतिक सरोकारों और एक सिरे से राजनीतिज्ञों को चोर करार देने वाले मध्य और उच्च मध्यवर्ग के तमाम रहनुमा सुबह से लेकर रात तक टीवी चैनलों के स्टूडियों में बैठकर अन्ना के अनशन को आजाद भारत का सबसे बड़ा जनांदोलन बताने लगे। फिल्म और कला जगत के कथित बुद्विजीवियों की एक जमात तो जंतर मंतर पहुंचकर सीधे नेताओं और राजनीतिक दलों को अलविदा बोलने के लिए कहने लगी जोकि लोकतंत्र के लिए एक निहायत अवांछित कार्यवाही के अलावा कुछ नहीं था।
और मीडिया के जरिए निहायत ही एकतरफा और गैर जिम्मेदाराना तरीके से रचे गए अन्नामय उन्माद में किसी भी सवाल-जवाब और विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बची थी। समाचार चैनलों ने तो यह रुख अख्तियार कर लिया कि या तो आप अन्ना के साथ हैं, नहीं तो भ्रष्टाचारियों के साथ। यह नजरिया निश्चित तौर पर गलत था, क्योंकि अन्ना हजारे और उनका आंदोलन देश के संपूर्ण नागरिक समाज का प्रतिनिधित्व कतई नहीं कर रहा था। एकतरफा खबरों के जुनून में शामिल समाचार माध्यमों ने यह कभी नहीं बताया कि दरअसल अन्ना के आंदोलन के पीछे का सच क्या है? लोकपाल बिल की जायज मांग के पीछे दरअसल कौन से चेहरे हैं और उनकी अपनी छवि कैसी है।
जनता के समक्ष एक ऐसी तस्वीर पेश की गई कि हजारे मानों अकेले ही चले थे और उनके साथ कारवां जुड़ता चला गया जो सच्चाई से कोसों दूर है। असलियत यह है कि अन्ना एक चेहरा - एक पाक-साफ महात्मानुमा चेहरा भर ही हैं। खुद कभी अन्ना ने भी अपने पांच दिनों के अनशन के दौरान यह नहीं बताया कि अनाप शनाप दौलत इकट्ठा करने वाले योग गुरू तथा तमाम बड़े भ्रष्ट कारपोरेट घरानों के मालिकों के आध्यात्मिक रहनुमा उनके आंदोलन की रीढ़ की हड्डी थे, जिनके खुद का दामन पाक-साफ नहीं है।
विश्वास न हो तो इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट का इतिहास उठाकर देख लीजिए। जनलोकपाल बिल के समर्थन में अन्ना का अनशन भी दरअसल इसी अभियान का हिस्सा था। बाबाओं और आध्यात्मिक गुरुओं के अलावा अभियान के गठन में कुछ और नाम भी हैं। क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, राजनेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित करने और पारदर्शी शासन व्यवस्था के सूत्रधार इस तरह के लोग हो सकते हैं? क्या वजह थी कि योगगुरू और उनके लोग चार दिन तक परदे के पीछे से आंदोलन को हवा देने के लिए तमाम सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सक्रिय रहने से लेकर शहर-शहर आंदोलन करवाने में जुटे रहे और मीडिया मैनेजमेंट भी करते रहे, लेकिन खुद हजारे के मंच पर आने से बचते रहे। वह चौथे दिन कुछ इस अंदाज में जंतर मंतर पहुंचे मानों हजारे की मुहिम में एक हाथ लगाने आ गए हों। दूसरे अध्यात्मिक गुरू खुद इस दौरान विदेश में रहे, लेकिन उनके संगठन ने अपनी पूरी ताकत हजारे के पक्ष में झोंक दी। विदेशों में भी अन्ना के समर्थन में जिन जुलूसों को समाचार चैनलों ने खूब दिखाया वो भी दरअसल इसी संगठन के लोग थे।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन करना गलत नहीं है पर योग और अध्यात्मिक गुरूओं ने परदे के पीछे से भूमिका क्यों निभाई, यह प्रश्न उठता है। यह इनकी रणनीतिक तैयारी का हिस्सा था। इन जैसे लोगों के शुरु से ही खुलकर आ जाने पर एक आम भारतीय इसे गंभीरता से न लेता। यही नहीं अराजनैतिक करार दिए गए इस आंदोलन को शायद भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी गुपचुप समर्थन मिला और आज भी मिल रहा है। हजारे के अनशन के दौरान मैं खुद ऐसे समर्थन प्रदर्शनों और अनशनों का गवाह बना जिसमें तमाम लोग संघ या भाजपा के कार्यकर्ता थे। लखनऊ में ही भाजपा युवा मोर्चे के लोगों ने अपनी राजनीतिक पहचान छुपाते हुए अन्ना के समर्थन में तिरंगा यात्रा निकाली।
फिर एक सवाल अन्ना से भी है कि एक लोकपाल बिल को भ्रष्टाचार के खिलाफ ब्रहमास्त्र की तरह प्रोजेक्ट कर रहे अन्ना की भ्रष्टाचार के कारणों की समझ क्या है? कटु सत्य है कि मौजूदा दौर में राजनीतिक भ्रष्टाचार चरम पर है। मंत्री से लेकर संतरी तक देश की लूट में लगे हैं। सरकारों के स्तर पर नेताओं और कारपोरेट जगत का एक ऐसा कार्टेल बन गया है कि पूंजीवाद की पोषक आर्थिक नीतियां कारपोरेट घरानों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे यानी पूंजी के मुनाफे के हिसाब से बनती बिगड़ती हैं। 1990 के दशक से शुरू हुए आर्थिक सुधारों और नई मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था के दौर में सरकारी तंत्र के भ्रष्टाचार के जितने मामले सामने आए हैं, उतने पहले नहीं सुनाई पड़ते थे। राजीव गांधी के शासन काल में 64 करोड़ का बोफोर्स घोटाला इतना बड़ा था कि केंद्र की सरकार तक चली गई।
पर आर्थिक सुधारों के युग में राजनेताओं और पूंजीपतियों, कारपोरेट घरानों का ऐसा गठजोड़ बना कि भ्रष्टाचार के आंकड़े चंद करोड़ से निकलकर सैकड़ों करोड़ से होते हुए अब लाखों करोड़ तक पहुंच गए हैं। पौने दो लाख करोड़ का 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला इस खतरनाक गठबंधन का एक बड़ा उदाहरण है। खाने और खिलाने के इस खेल में टाटा से लेकर अंबानी तक सब शामिल हैं। सवाल है कि ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से जुड़े लोगों ने कभी भी आर्थिक नीतियों के सवाल पर आवाज उठाई? क्या कभी भी इन लोगों ने कारपोरेट जगत की लूट के खिलाफ आवाज उठाई? सिविल सोसाइटी के स्वयंभू रहनुमा बताएं कि भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों पर उनका नजरिया क्या है? सवाल सिर्फ व्यक्तिगत ईमानदारी का नहीं होता। बेदी को अगर दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बना दिया गया होता तो वह शायद आज भी सरकारी सेवा में होती और रोजगार एवं शिक्षा के सवाल पर किसी प्रदर्शन को रोकने के लिए अपने मातहतों को जंग के निर्देश भी दे रही होतीं। सवाल आंदोलन के पीछे की समझ और इरादे पर है। क्या लोकपाल के आ जाने के बाद कारपोरेट जगत के द्वारा अपने फायदे के लिए नेताओं को भ्रष्टाचार के लिए उकसाने का खेल खत्म हो जाएगा? क्या वो परिस्थितियां खत्म हो जाएंगी जिनकी बुनियाद पर भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है? खैर इस सवाल पर इनसे जवाब की उम्मीद न रखें। योगगुरू के सहारा इंडिया जैसे उद्योग समूहों से संबंध जगजाहिर हैं और अध्यात्मिक गुरू के बड़े पूंजीपतियों और कारपोरेट हस्तियों से। इनमें कई तो मीडिया समूहों के मालिक हैं। यहां यह भी सवाल है कि क्या कुछ मीडिया समूहों के खुद ही अन्ना के अनशन का एक्टिविस्ट बन जाने के पीछे कहीं यही अध्यात्मिक प्रेरणा तो नहीं थी? भ्रष्ट पूंजीपतियों-राजनीतिज्ञों के साथ आन्दोलन के कर्णधारों की दुरभिसंधि की आशंका को भी प्रथमदृष्टि से नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इसके जरिये रोज खुल रहे घपलों-घोटालों के कारण भ्रष्टाचार के खिलाफ आम जनता में पैदा हो रहे आक्रोश में कमी तो आयी ही है।
खैर इन बातों से अलग हजारे समर्थित जनलोकपाल बिल, लोकपाल के रूप में देश के सीईओ की नियुक्ति करने जैसा होगा। संसदीय व्यवस्था वाले देश में, जहां प्रधानमंत्री का पद एक संवैधानिक संस्था है और हमारी संसद देश की सबसे बड़ी नीति निर्धारक, वहां प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री और संसद के सदस्य के साथ-साथ न्यायपालिका तक के खिलाफ जनता के किसी भी व्यक्ति द्वारा शिकायत किए जाने पर लोकपाल द्वारा उसे सीधे संज्ञान में लेकर जांच करने, मुकदमा चलाने और यहां तक की सजा भी सुना सकने का अधिकार क्या संवैधानिक संस्थाओं तथा संविधान द्वारा स्थापित व्यवस्था को छिन्न-भिन्न नहीं करेगा? राजनीतिक भ्रष्टाचार से निपटने का मतलब यह कतई नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र की नींव को ही कमजोर कर दें। सर्वाेच्च पदों और संसद की गरिमा भी बची रहे और संसद तथा सरकार में बैठे भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई भी हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए।
यही नहीं जनलोकपाल बिल जहां एक तरफ लोकपाल को असीमित अधिकार देने की वकालत करता है, वह लोकपाल के ही खिलाफ शिकायत होने पर जांच के तरीकों पर स्पष्ट नहीं है। या यह कहें कि जिस देश में न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच अधिकारों का बंटवारा चेक ऐंड बैलेंस की परंपरा के आधार पर है, वहां लोकपाल तीनों ही इकाइयों के वाचडाग के रूप में तो होगा पर उस संस्था के भीतर किसी संभावित भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाएगा?
यह साफ है कि लोकपाल बिल का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जिस कमेटी का गठन हुआ है, वह देश की जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती। जिन पांच लोगों को सिविल सोसाइटी के नुंमाइंदे के तौर पर कमेटी में रखा गया है, उनमें अन्ना हजारे के अलावा अन्य सभी अन्ना समर्थित हैं या यूं कहें कि अन्ना के लोग हैं, वो लोग हैं जो जनलोकपाल के पैरोकार हैं। यह इसलिए भी खतरनाक है क्योंकि देश के इतिहास में पहली बार बनी सरकार और स्वयंभू नागरिक समाज के मिले जुले प्रतिनिधियों वाली ड्राफ्टिंग समिति दरअसल कहीं न कहीं एक ऐसा भाव पैदा करती है कि मानों सरकार और एक व्यक्ति के बीच समानता का भाव है। आज अन्ना हजारे हैं, कल किसी और मांग को लेकर किसी और चेहरे के पीछे वैसा ही उभार खड़ा करने की कोशिश नहीं होगी, इसकी क्या गारंटी है?
जाहिर है हमें यह समझना होगा कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों में बहुत गुस्सा है और होना भी चाहिए लेकिन समस्या का स्थाई हल राजनीतिक सुधारों में है। देश की राजनीति की दशा और दिशा बदले जाने की जरूरत है, जनता से जुड़े आर्थिक सवालों, जमीन और रोजगार के सवालों पर राजनीतिक संघर्ष की जरूरत है। ऐसे में जनता के प्रति राजनीतिक दलों और नेताओं की जवाबदेही बढ़ेगी। जाति और मजहब के आधार पर चुनकर आने वाली सरकारों से आप यह उम्मीद नहीं कर सकते। इसलिए खाली एक लोकपाल विधेयक आ जाने से ही कोई बड़ा क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाएगा, ऐसा नहीं लगता। भ्रष्टाचार के खिलाफ अराजनैतिक नहीं राजनैतिक संघर्ष छेड़ना पड़ेगा। प्रगतिशील सोच रखने वाले राजनीतिक दलों के लिए अन्ना का यह अनशन अपने तमाम विरोधाभासों के बीच इसलिए आंख खोलने वाला होना चाहिए कि उन्हें जनता के गुस्से को समझना होगा। अगर सही राजनीतिक नेतृत्व नहीं मिलेगा तो अन्ना जैसे अराजनैतिक दिखने वाले आंदोलन फिर होंगे, और अच्छे नेतृत्व के अभाव में जनता फिर से भ्रमित होगी।
- प्रबोध
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