वर्ष 2011 के मई दिवस के मौके पर हम अरब और उत्तर अफ्रीकी देशों में लोकतंत्र की नई लहर का स्वागत करेंगे, वहीं जापान के त्रासद भूकंप में हजारों लोगों के जान-माल के नुकसान पर शोक प्रकट करेंगे। भूकंप से क्षतिग्रस्त फुकुशिमा डायची आणविक संयंत्र से फैले विनाशक विकिरण ने द्वितीय विश्वयुद्ध में हिरोशिमा-नागासाकी पर एटम बम गिराये जाने की हृदय विदारक खौफनाक याद को फिर से ताजा कर दिया है।
इस वर्ष का मई दिवस दुनिया की पांच सबसे बड़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं - ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ्रीका (ब्रिक्स) के ऐतिहासिक सान्या सम्मेलन के महत्वाकांक्षी घोषणापत्र और उसके दूरगामी संदेशों को भी याद करेगा, जो मानवता के इतिहास में पहली मर्तबा साम्राज्यवादी विश्व शक्ति संतुलन की गंभीर चुनौती को स्वर देता है और आने वाले दिनों में अंतर्राष्ट्रीय सम्बंधों को नई दिशा और गति प्रदान करने का भरोसा उत्पन्न करता है। सोवियत यूनियन के टूटने के बाद साम्राज्यवादियों ने ‘इतिहास का अंत’ कहकर उत्सव मनाया था तथा पूंजीवाद को ‘मानवता की नियति’ घोषित किया था। लेकिन दुनियां ने जल्दी ही देखा कि किस तरह तथाकथित शीतयुद्ध का अंत करने वालों ने ही झूठे बहाने बनाकर इराक में और फिर अफगानिस्तान में क्रूर वास्तविक युद्ध छेड़ दिया। इन दो देशों में युद्ध की विभीषका की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि साम्राज्यवादी सैन्य संगठन नाटो ने लीबिया पर बमबारी शुरू कर दी है। इसलिए ब्रिक्स देशों के सान्या सम्मेलन ने उचित ही लीबिया पर बल प्रयोग की आलोचना की है। ब्रिक्स घोषणापत्र में कहा गया है कि लीबिया में तटस्थ पर्यवेक्षक भेजने के बजाय नाटो फौज द्वारा की जा रही अबाध बमबारी और विद्रोही गुटों को हथियारों की आपूर्ति सुरक्षा परिषद प्रस्ताव की सीमा का अतिक्रमण करता है और यह भी कि किसी देश के घरेलू मामलों में विदेशी हस्तक्षेप अनुचित है। लोकतंत्र में देश की जनता अपनी सरकार स्वयं चुनती है। सर्वविदित है कि साम्राज्यवादी घरेलू झगड़ों का फायदा उठाकर हमेशा अपनी युद्ध पिपाशा शांत करते हैं। इराक, अफगानिस्तान और अब लीबिया के अकूत तेल भंडारों पर कब्जा करने की साम्राज्यवादी मंसूबों को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
इस साल के मई दिवस को बहुचर्चित वैश्वीकृत मुक्त बाजार व्यवस्था की विफलता, उसका प्रकट दिवालियापन और लूट-खसोट मचाने वाले पूंजीपतियों-कारपोरेटियों को मुंह तोड़ जवाब देने के लिए मजदूरों-कर्मचारियों के विश्वव्यापी अनवरत एकताबद्ध संघर्षों के लिए सर्वदा याद किया जाएगा। भारत समेत यूरोप और अमरीका में भी मजदूरों, कर्मचारियों एवं श्रमजीवियों ने लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर अपने हकों की हिफाजत में आवाज बुलंद की है।
‘कोई विकल्प नहीं’ (टिना - देयर इज नो आल्टरनेटिव) के बहुप्रचारित गुब्बारे की हवा निकल गयी, जब अमेरिका और यूरोप के दैत्याकार बैंकों का विशाल वित्तीय साम्राज्य ताश के पत्ते की तरह बिखर गया। अभेद्य समझे जाने वाले उनके वित्तीय ताने-बाने बालू की दीवार साबित हुए। ‘सरकार का सरोकार व्यापार करना नहीं’ का राग अलापने वाले मगरमच्छों ने सरकारों के सामने हाथ फैलाकर याचनाएं कीं। सरकारों ने भी उन्हें उपकृत किया और अपने खजाने खोल दिए। आम जनता के कंधों पर वित्तीय संकट का समाधान किया जाने लगा। बजट घाटा कम करने और प्रशासकीय सादगी बरतने के नाम पर वेतन कटौती, छंटनी, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सुविधाओं की वापसी और कटौतियां आम हो गयीं। इसके विरोध में लाखों मजदूर, कर्मचारी, छात्र, नौजवान और आम नागरिक सड़कों पर उतर आये। विश्वव्यापी स्वतःस्फूर्त प्रतिरोध जाग उठा।
भारतीय शासकों ने जनता से वायदा किया कि उदारीकरण और निजीकरण की नई आर्थिक नीतियों के अवलंबन से रोजगार बढ़ेगा और लोगों की आमदनी भी बढ़ेगी, लेकिन व्यवहार में उल्टा हुआ। रोजगार घट गया और लोगों की आय भी घट गयी। मजदूरों के काम के घंटे बढ़ा दिये गये और उनका पारिश्रमिक घटा दिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र कमजोर हुआ और देश की निर्भरता विदेशों पर बढ़ गयी, यह सब उद्योग की प्रतियोगिता क्षमता बढ़ाने के नाम पर किया गया। फलतः पूंजीपतियों का मुनाफा बेशुमार बढ़ गया। देश में करोड़पतियों की संख्या बढ़ने लगी, किंतु दूसरी तरफ बेरोजगारी, भूख, गरीबी, बीमारी, कुपोषण और विपन्नता बढ़ गयी। जीवनोपयोगी चीजों के दाम आकाश छूने लगे, रोजगारविहीन विकास के पूंजीवादी पथ का यही लाजिमी नतीजा है। नयी वैज्ञानिक तकनीकी की उपलब्धियों को पूंजीपतियों ने हथिया लिया।
स्वाभाविक ही इसके विरोध में आपसी मतभेदों को भुलाकर श्रमिक वर्ग इकट्ठा हुए। ट्रेड यूनियनों की एकता बनी, लगातार एक के बाद एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाये गये। 7 सितम्बर 2009 की राष्ट्रव्यापी आम हड़ताल और 23 फरवरी 2011 की दिल्ली महारैली को मजदूर आंदोलन के इतिहास में हमेशा याद किया जाएगा।
सत्तासीन शासक वर्ग मदांध है। वह जन भावनाओं की उपेक्षा करता है। राजनेता और नौकरशाही अपराधकर्मियों की सांठगांठ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं। भ्रष्टाचार का नंगा नाच हो रहा है। सरकार लोकतांत्रिक आंदोलनों के प्रति संवेदनाविहीन है। देश में हताशा और निराशा व्याप्त है।
फिर भी सब कुछ खो नहीं गया है। जनता जाग रही है। मेहनतकश आवाम हथियार नहीं डालने वाले हैं। वे फिर से कमर कस रहे हैं। नयी चेतना और उमंग के साथ श्रमिक वर्ग और उनकी ट्रेड यूनियनें शासक-शोषकों पर करारी चोट के लिए लामबंद हो रहे हैं। शासक वर्ग को उनके कुकर्मों का खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा।
मजदूर वर्ग के इस अंतर्राष्ट्रीय पर्व के मौके पर हम दुनियां में सुख, समृद्धि और शांति के निरंतर संघर्ष का संकल्प लें। यह मौका है, हम संगठित होकर मानवता के दुश्मन शासक-शोषकों के प्रपंचपूर्ण पूंजीवादी निजाम को शिकस्त देने के लिए करारी चोट करें।
लड़ने के दिन हैं, जीतने के दिन हैं,
आने वाले दिन, हमारे ही दिन हैं!!
- सत्य नारायण ठाकुर
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें