सन् 1911 हमारे आधुनिक इतिहास में कई दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है। सन् 1905 में साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का बंटवारा अंग्रेजी सरकार ने किया था। इस फैसले के खिलाफ देश भर में आंदोलन छिड़ गया। ऐसा आंदोलन हुआ कि 1911 में सरकार ने बंग-भंग योजना वापस कर ली। यह हमारे राष्ट्रीय स्वाधीनता-संग्राम की पहली बड़ी विजय थी। लेकिन उसी समय बिहार को बंगाल से अलग राज्य बनाने का आंदोलन वल रहा था। 1911 में यह आंदोलन उफान पर था। फलतः 1912 में बिहार-उड़ीसा को बंगाल से अलग कर दिया गया। आगे चलकर 1911 देश के साहित्यिक- सांस्कृतिक इतिहास में इसलिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया कि सन् 1911 में जन्मे कई लोग इतने बड़े और महत्वपूर्ण रचनाकार हो गये कि साहित्य के इतिहास को नयी दिशा मिली, नयी ऊंचाई मिली। अब 2011 में हम उनकी जन्मशती मनाने की तैयारी में लग गये हैं।हम देश की अन्य भाषाओं के रचनाकारों के बारे में नहीं जानते, लेकिन हिन्दी के महान कविगण हैं- शमशेर बहादुर सिंह, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल और अज्ञेय। भाषा की और देश की सीमा को लांघकर पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की जनता में अत्यंत लोकप्रिय फैज अहमद फैज की भी जन्मशती इसी वर्ष आ गयी है। इन महान रचनाकारों की जन्मशती मनाने का दायित्व हम पर उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने की दृष्टि से नहीं, बल्कि इतिहास के द्वारा सौंपा गया है। एक विरासत के रूप में। क्या है यह विरासत? हम जो आज अपने जीवन में, लेखन में और समाज में लड़ाई लड़ रहे हैं, यह भी कह सकते हैं कि लड़ने को मजबूर हैं, उसे लड़ते हुए ही हम पीछे मुड़कर देखते हैं कि इस संबंध में हमारे पुरखों ने, हमारे पूर्व पुरुषों ने क्या किया है? हम देखते हैं कि जो लड़ाई हम लड़ रहे हैं, वही लड़ाई अपने समय में वे लड़ रहे थे। वे कुछ कर गये, कुछ बाकी रहा। इसे इतिहास की भाषा में यों कह सकते हैं कि ऐतिहासिक विकास के दौर में हमारे पुरखों ने कुछ उपलब्ध किया और कुछ बाकी रह गया। इतिहास ने जो प्राप्त किया, वह हमारी शक्ति है, जो नहीं उपलब्ध किया जा सका वह इतिहास का प्राप्य है, यानी उसे प्राप्त करना है। यह इतिहास का प्राप्य ही हमारी विरासत है। इसलिए विरासत कोई साधारण चीज नहीं है, वह बड़ी ऐतिहासिक जवाबदेही है। साहित्य में वह जवाबदेही इस रूप में आती है कि हमारे पूर्वज कवियों या लेखकों के बाद यथार्थ में जो नयापन आया, जीवन और समाज में विकास की गति से जो नये लक्षण प्रकट हुए, जो नयी समस्याएं आयीं, उन सबका मुकाबला करने, उन्हें प्रगति की दृष्टि से साहित्य में लाने का दायित्व बाद के कवियों-लेखकों पर आता है। हम पर वह उसी रूप में आया है। इस सबको चरितार्थ करने में हम कहां तक सफल हो पाये, यह देखना एक बात है, लेकिन आज जो लड़ाई हम लड़ रहे हैं, उसमें उनसे कितनी मदद मिलती है, यह भी हमें देखना है। इसी प्रक्रिया में विरासत तय होती है। इन कवियों ने अपने-अपने ढंग से छायावादोत्तर काल में युगांतरकारी भूमिका अदा की है। उन्होंने आमतौर से आगे की हिन्दी कविता के विकास का स्वरूप तय किया। इसीलिए हम उन्हें याद करते रहे हैं और अब उनकी जन्मशती मनाने की तैयारी कर रहे हैं। अतः इनकी जन्मशती मनाना कोई औपचारिक काम नहीं, एक दायित्व का निर्वाह करना है।शमशेर बहादुर सिंह तीन जनवरी 1911 को अपनी ननिहाल देहरादून में पैदा हुए। वे जन्मना जाट थे। 12 मई 93 को अहमदाबाद में उन्होंने अंतिम सांस ली जहां वे कई वर्षों से रंजना अरगड़े के साथ रह रहे थे। छायावादोत्त्तर काल के कवियों में, खासकर के शमशेर और नागार्जुन पर, निराला की लापरवाह जीवन पद्धति का असर दिखायी पड़ता है। नागार्जुन पर राहुल सांकृत्यायन का भी असर पड़ा, वे राहुल जी की संगति में रहे भी। सामाजिक दायित्व को ऐतिहासिक रूप से स्वीकार करते हुए, कविता के óोत के रूप में सामाजिक जीवन को मानते हुए भी छायावादी लापरवाही जीते देख कर हमें कुछ अचरज होता रहा है।शमशेर का जीवन बहुत उतार-चढ़ाव और ऊबाड़-खाबड़ भरा रहा है। यों उनके ननिहाल का वातावरण बहुत अच्छा था। वे कहते हैं - ‘ननिहाल का जो वातावरण था वह बड़ा शाइस्ता, बहुत ही सुसभ्य था, सभी अदब-कायदे सिखाए जाते थे और भाषण गलत नहीं बोलने दिया जाता था।’ इस वातावरण में शमशेर के बचपन में साहित्य और कला के संस्कारों का बीज पड़ा। शमशेर की मां उनके पिता की तीसरी पत्नी थी, वह भी 1920 में चल बसी, जब शमशेर मात्र नौ बरस के थे। पिता तारीफ सिंह अपने पुत्रों को कहानियां सुनाया करते थे। कहानियों में महाभारत, रामायण, अलिफ लैला, चन्द्रकांता संतति, भरतनाथ आदि जैसी कहानियां होती। शमशेर कबूल करते हैं इन कथाओं का रूमानी प्रभाव ही उन्हें कविता की तरफ ले आया। घर में सुधा, माधुरी, सरस्वती, मस्ताना जोगी आदि पत्रिकाएं मंगायी जाती थीं। बेशक इन पत्रिकाओं के पाठक थे शमशेर। इसका भी प्रभाव उनकी चेतना पर पड़ा। 1929 में एंटेªस पास करने के बाद शमशेर की शादी कर दी गयी। लेकिन कुछ साल बाद ही वे चल बसीं। पिता ने दूसरी शादी की बात चलायी, लेकिन शमशेर ने यह कह कर इन्कार कर दिया कि यदि मैं गुजर जाता, तो वह बेचारी जीवन भर वैधष्य झेलती रहती, फिर मैं क्यों उसे भूल कर शादी कर लूं। दूसरी शादी नहीं की। पिता ने गुस्से में घर से निकल जाने को कहा और वे निकल गये। निकल गये तो निकल गये। अपने प्रयत्न से बीए किया, एमए किया अंग्रेजी में। चित्र कला की शिक्षा भी ली। यहां पूरी जीवनी नहीं लिखी जा सकती।शमशेर कम्युनिस्ट आंदोलन के सम्पर्क में आये, मार्क्सवाद को पढ़ा और स्वीकार भी किया। उन्हीं दिनों उन्होंने मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय कम्यून में रह कर ‘जनयुग’ में सम्पादकीय विभाग में काम किया। कुछ साल वहां रहे, फिर निकल गये।शमशेर हिन्दी के अपने ढंग के कवि थे। कह सकते हैं शमशेर जैसा दूसरा कवि नहीं। “दूसरा सप्तक” के कवियों में वे शामिल किए गए, लेकिन उम्र और रचना कर्म की दृष्टि से वे “तारसप्तक” में लिये जा सकते थे, पता नहीं क्यों नहीं लिया गया। एक किंवदंती है कि अज्ञेय ने नागार्जुन से तारसप्तक के लिए कविता मांगी थी, लेकिन उन्होंने कविताएं नहीं दीं। तारसप्तक की योजना, संकलन और प्रकाशन के बारे में काफी बातें हिन्दी आलोचना में हो चुकी हैं और यह स्पष्ट हो चुका है कि इसकी योजना मुक्तिबोध ने बनायी थी, लेकिन प्रकाशन की सुविधा के लिए अज्ञेय जी को तारसप्तक सौंप दिया गया। उसमें शामिल अधिकतर कवि उस प्रयोगवाद के विरोधी थे, जिसकी चर्चा ‘तारसप्तक’ के साथ होती रही। हालत यह है कि छायावादोत्तर कविता के इतिहास को समग्रता में देखने पर उसका महत्व क्षीण होता हुआ लगता है, क्योंकि तारसप्तक वास्तव में किसी प्रवृति का प्रवर्तक अब नहीं महसूस होता।हिन्दी कविता में शमशेर की स्थिति एक अर्थ में निराला की तरह दिखती है और वह अर्थ यह है कि वे लगभग सर्वमान्य कवि हैं, यानि उनकी कविताओं के प्रशंसक प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, नयी कवितावादी, अकवितावादी आदि सभी हैं और उसके यानी बीसवीें सदी के आठवें दशक में और उसके बाद आये कवि भी उनके सामने नतमस्तक हैं। डा. रामविलास शर्मा ने उनकी ऐसी आलोचना जरूर की है, जो उनके अनुकूल नहीं। मैंने देखा कि प्रगतिशील लेखक संघ के जबलपुर अधिवेशन, 1980 में एक विचारगोष्ठी में, जिसके अध्यक्ष अमृत राय थे और संचालन मैं कर रहा था, विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने कह दिया कि शमशेर रेडियो पर अमुक का संगीत सुनकर कविता लिखने को प्रेरित होते हैं, तो शमशेर जी बोले तो कुछ नहीं, लेकिन उनका चेहरा तमतमा जरुर गया था। मुझे याद आता है कि एक बार दिल्ली में प्रलेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक ऐवाने गालिब में हो रही थी, उस समय महासचिव भीष्म साहनी थे। गोष्ठी के अंतराल में नागार्जुन, शमशेर और असमिया के प्रसिद्ध कवि मेरे साथ समय बिताने के लिए अजय भवन चले आये। मेरे कमरे में यह अंतराल गोष्ठी हो गयी। मैंने शमशेर जी से कहा कि जनशक्ति के लिए कविताएं दीजिए न! इस पर उन्होंने कहा- “यहीं मैं संकट में पड़ जाता हूं। मैं जो लिख रहा हूं, वह जनशक्ति के पाठकों के पल्ले तो पड़ेगा नहीं। क्या करूं, मैं शर्मिन्दा हूं।” एक प्रसंग और याद आता है। मैं एक बार भोपाल गया हुआ था। एक कवि मित्र ने डा. कमला प्रसाद से पीएचडी की उपधि के लिए काम करने के संबंध पूछा- किसी आधुनिक कवि पर काम करना चाहता हूं, सुझाव दीजिए। कमला जी ने कहा- ‘शमशेर पर कीजिए’। कवि मित्र ने कहा- नहीं भाई, शमशेर पर काम नहीं कर पाऊंगा, उनको तो समझना ही मुश्किल है। शमशेर के जो प्रशंसक, आलोचक और पाठक हैं, वे दो बाते कहते हैं- एक तो यह कि वे घोषणा करते हैं कि शमशेर प्रगतिशीलता से प्रतिबद्ध हैं लेकिन उनकी कविताएं प्रगतिशील या मार्क्सवादी विचारों से प्रभाव के मुक्त है।शमशेर के प्रिय कवि छायावादियों में निराला थे, प्रयोगवादियों में अज्ञेय और प्रगतिशीलों में नागार्जुन। लेकिन स्वयं शमशेर तीनों से अलग ढंग से कवि हैं, किसी ने शमशेर को मुक्त मन का कहा है, तो किसी ने युद्ध कवि। मैं पूछना चाहता हूं कि कोई आदमी मुक्त मन का हो सकता हैं? यदि कोई समाज से मुक्त होगा, तो भी क्या परिवार से, बच्चों से, उनकी समस्याओं से मुक्त हो सकता है? इनसे मुक्त होगा तो गैर-जवाबदेह होगा या फिर अदृश्य शक्ति को समर्पित हो कर मनुष्यत्व से ही मुक्त हो जाएगा। और युद्ध मनुष्य अथवा युद्ध कवि कैसे होगा? सामाजिक यथार्थ, राजनीतिक यथार्थ या मानवीय चिंतन से अलग मनुष्य अथवा कवि को कुछ लोग शुद्ध कवि कहते हैं। लेकिन क्या शमशेर ऐसे कवि हैं? शमशेर क्या कोई भी कवि शुद्ध होगा तो वह कवि ही नहीं होगा। शमशेर इन सबको पढ़ते तो शायद यही कहते- हमारे भी हैं ये मेहरबान कैसे-कैसे? यह सही है कि शमशेर दुरुह कवि हैं, लेकिन दुरुहता भाषागत नहीं, अंतर्वस्तुगत है। उनकी अभिव्यक्ति में जो पेचीदगी दिखायी पड़ती है, वह उनकी काव्य चेतना से बनती है। उनके प्रशंसकों ने उनकी दुरुहता को स्वीकार किया है और ऐसे विद्वानों ने उन पर जो लिखा है, वह प्रायः प्रभववादी आलोचना हो गयी है। यहां इतना कह कर उनका प्रसंग समाप्त करता हूं कि उनकी अंतर्वस्तु का भेद खुल जाने पर हम पाते हैं कि वे प्रगतिशील चेतना से अलग नहीं है। उनकी काव्य चेतना समष्टिवादी है, व्यक्तिवादी नहीं। यों एक बात और शमशेर पर लिखने वालों को पढ़कर मुझे कहने का मन करता हैं कि शमशेर के कवि व्यक्तित्व को ऐसा आतंक या दबदबा उनके पाठकों और आलोचकों पर है कि कोई सही ढंग से सही समझ नहीं पाता। शायद जन्मशती से संबंधित आयोजन के जरिये उनको समझने का नया प्रयत्न हो। शमशेर ने जिस राजनीति को स्वीकार किया उससे उन्हें तब निराशा भी हुई, जब उसमें उन्हें असंगति दिखयी पडी। वे एक शेर में कहते हैं -“राह तो एक ही थी हम दोनों कीआप किधर से आये-गयेहम यहां लुट गए पिट गयेआप राजभवन में पाये गये।”नागार्जुन का जन्म दरभंगा जिले के तरौनी गांव में हुआ। वर्ष 1911 में ही। वे कहते थे- ज्येष्ठ पूर्णिमा को। तारीख नहीं बताते थे। कबीर का भी जन्म ज्येष्ठ पूर्णिमा को ही हुआ था। इस बार ज्येष्ठ पूर्णिमा चौबीस जून को पड़ेगी। आधुनिक कबीर की जन्मशती का प्रारम्भिक दिन। नागार्जुन को लम्मीकांत वर्मा ने अपने एक लेख में ‘फौजी कवि’ कहा। इसके दो अर्थ हो सकते हैं- एक तो लड़ाकू और हर समय लड़ने को तत्पर रहना, दूसरे किसी के कमान पर लड़ने जाना। कहने का तात्पर्य यह कि नागार्जुन स्वाभाविक कवि नहंी हैं। मुक्त कवि नहीं हैं, नागार्जुन स्वयं अपने को ‘जन कवि’ और प्रतिबद्ध कहते हैं। एकाध अपवाद को छोड़कर प्रायः सभी मानते हैं कि नागार्जुन हिन्दी के अकेले कवि हैं, जो श्रेष्ठता और जनप्रियता में संतुलन बिठा सके हैं। यह गुण उस दौर के किसी और कवि में नहीं है। यहरं फिर शमशेर याद आ गये। अरुण कमल ने स्त्री-देह के प्रति उनकी उत्कंठा को जो उदाहरण दिया है, वह किसी सामान्य नहीं सम्भ्रांत स्त्री का शारीरिक सौन्दर्य है। मैं कहना चाहता हूं कि जिसके मन में स्त्री-देह के प्रति आकर्षण होता है, वह किसी एक दो नहीं सामान्यतः तमाम स्त्रियों की देह के प्रति होता है। दूसरी बात यह कि जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में ऐसे ठोस सौन्दर्य का बिम्ब कई जगह खींचा है और वह शालीन सौन्दर्य से भरा है। नागार्जुन के यहां ऐसे सौन्दर्य बिम्ब का अभाव है। उनकी दृष्टि जीवन की विभिन्न अवस्थाओं पर ज्यादा रहती है। होठ और सीने के उभार तथा जांघों की नदी के बदले पेट और सीने की हड्डियों को देखते हैं, ऐसे लोगों के जीवन के भवितव्य पर वे नजर डालते हैं और उसमें हस्तक्षेप करते हैं। महात्मा गांधी ने प्रेमचंद के बारे में एक बार कहा कि यदि इस दौर का इतिहास खो जाए, तो प्रेमचंद के कथा-साहित्य के आधार पर इतिहास फिर से लिखा जा सकता है। यह बात जरा सी बदल कर नागार्जुन की कविताओं के बारे में कही जा सकती है कि यदि स्वातंत्रयोत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास लिखना हो तो नागार्जुन की कविताओं के आधार पर लिखा जा सकता है। उनके उपन्यास इसमें मददगार साबित होंगे। यों यह कहा जा सकता है कि नागार्जुन के उपन्यासों में मिथिला की परम्परागत संस्कृति तो व्यक्त हुई ही है, इस संस्कृति की सदियों के खिलाफ संघर्ष के माध्यम से एक नयी संस्कृति के निर्माण की रूपरेखा भी उसमें मिलती है। नागार्जुन अथवा यात्री की वैकल्पिक संस्कृति का स्वरूप सामन्तवादी और पूंजीवादी समाज को बदल कर समाजवादी संस्कृति के रूप में बताता हैं। नागार्जुन का बलचनबा प्रेमचंद के गोबर का अगला विकास दिखाई पड़ता है। ‘यात्री’ नाम से वह मैथिली में कविताएं लिखते रहे हैं। उनकी पहली मैथिली कविता 1929 में छपी थी। बौद्ध बन जाने पर उनका नाम नागार्जुन रखा गया। प्रायः दो हजार साल पहले बौद्ध परम्परा में नागार्जुन नाम का एक दार्शनिक हुआ था। वही धारण करके वैद्यनाथ मिश्र नागार्जुन हो गये और हिन्दी, संस्कृत, बंगला और सिंहाली में कविताएं तथा अन्य विधाओं में रचनाएं करते रहे। यह बेशक कहा जा सकता है कि यात्री ने मैथिली साहित्य की विकास धारा को नया मोड़ दिया, यानी नयी मानसिकता, नयी अंतर्वस्तु दी। उसे पूरी तरह से नया मिजाज दिया और मैथिली में नये युग का सूत्रपात किया। एक तरफ वे मिथिला की चेतना को मिथिला से बाहर ले गये, दूसरी तरफ बाहर के जीवनानुभवों को ठेठ मैथिली में चित्रित करते हैं। नागार्जुन की रचनाओं में राजनीति और व्यंग्य संस्कार की तरह घुले हुए हैं। यहां यह कह देना जरूरी है कि संस्कार का संबंध किसी पूर्वजन्म से नहीं होता, क्यांेकि कोई पूर्व जन्म या पुनर्जन्म होता ही नहीं है। गीता में भी कहा गया है -जन्मया जायते शुद्रःसंस्कारद्विजुच्येते।जन्म से सभी शुद्र होते हैं, संस्कार से कुछ लोग द्विज कहे जाते हैं। अतः संस्कार अर्जित किये जाते हैं, और उससे व्यक्तित्व में परिष्कार होता चलता है। इसी तरह राजनीतिक चेतना और व्यंग्य दोनों ही नागार्जुन ने अपने संघर्ष और साहस से अर्जित किये। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि जैसे मध्यकाल में मनुष्य के जीवन का असंतोष और विद्रोह-भाव धर्म के जरिये व्यक्त होते थे, उसी तरह आधुनिक युग में जनता की ऐतिहासिक कार्रवाइयों के द्वारा, जनता के सड़कों पर संघर्ष के लिए उतर जाने के कारण राजनीतिक चेतना, संघर्ष-चेतना और व्यंग्य की भाषा में कविता बोलने लगी। यह कविता के इतिहास में नयी कविता के रूप में सामने आयी, वह नयी कविता नहीं जो छठे दशक में प्रयेागवादियों के द्वारा लिखी गयी। नागार्जुन ने छायावादी कविता को निशाना बना कर कहा- “कुहासे सी भाषा,न सांझ की न भोर की।”यह कविता के रहस्य बन जाने पर चोट है, उसे रहस्यात्मकता से मुक्त करने का आह्वान उसमें है। इसी तरह प्रयोगवादियों को लक्ष्य करके नागार्जुन ने कहा-‘भिंचा-भिंचा है हृदय तुम्हारा,आओ उस पर लोहा कर दें।’अतः नागार्जुन को याद करने का मतलब है, सामाजिक बदलाव के लिए जन-कारवाई में शामिल होना और मनुष्य की रचनाशीलता को नया तेवर देना। भारतेंदु को नागार्जुन ने ‘जनभाषा लिखवैया’ कहा है। स्वयं नागार्जुन ने भी वही किया है। आधुनिकीकरण और जनतंत्रीकरण की प्रक्रिया में जन चेतना और जन कार्रवाई का कोई पहलू उनसे नहीं छूटा है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाजिम हिकमत, पाबलो नेरुदा, लोर्का, ब्रेख्त आदि से उनकी संगति बैठती है। जन कविता की एक नयी कोटि अस्तित्व में नागार्जुन के जरिये हिन्दी में और यात्री के जरिए मैथिली में आयी। नागार्जुन और यात्री को याद करने का अर्थ है इतिहास की इस महान परम्परा का नया अध्याय लिखना। मुझे यह कहते हुए अफसोस हो रहा है कि नागार्जुन को धीरे-धीरे भुलाने की कोशिश की जा रही है। आज के यानी पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के बीच आये कवि रघुवीर सहाय और धूमिल की जितनी चर्चा करते रहे हैं, उतनी नागार्जुन की नहीं। मैं बेहिचक कहना चाहता हूं कि रघुवीर सहाय और धूमिल की कविताओं ने जो हलचल मचायी, वह देश में मध्यवर्ग के द्वारा लोहियावाद की नकारात्मक राजनीति की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इस पर नये सिरे से विचार करने की जरूरत है। मुक्तिबोध और नागार्जुन की काव्य चेतना का भी तुलनात्मक अध्ययन करना जरुरी है। मुक्तिबोध की कविताओं में पूंजीवादी व्यवस्था और शासन का जो आतंक चित्रित है, वह नागार्जुन में नहीं हैं, क्योंकि उनकी कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कवि की अपनी कार्रवाई के अनुभवों से कविता बनी है। पूंजीवादी व्यवस्था और शासन समाज में आतंक तो फैलाते हैं, लेकिन उस आतंक के खिलाफ संघर्ष में शामिल होने से आतंक टूटता है। इसके प्रमाण में नागार्जुन की ये दो पंक्तियां काफी हैं-”जली ठूंठ पर बैठ करगयी कोकिला कूकबाल न बांका कर सकीशासन की बन्दूक।“नागार्जुन के यहां तो कभी-कभी शासन को ही भयभीत होते देखते हैं-”वह अकाल वाला थाना पड़ता है काफी दूर“ को पढ़कर देखें। नागार्जुन ने अपनी जीवन यात्रा का अंत पांच नवम्बर 1998 को किया।केदारनाथ अग्रवाल एक अप्रैल 1911 को पैदा हुए। वे बांदा में रहते थे और वहां वकालत करते थे। वे वहां प्रतिष्ठित वकील थे और कहते थे कि अदालत के आईने में ही उन्होंने समाज का चरित्र देखा, यह देखा कि हमारा समाज कितना अन्यायपूर्ण है। केदार बाबू युवावस्था में ही प्रगतिशील लेखक संघ के सम्पर्क में आये। फिर डा. रामविलास शर्मा से भी सम्पर्क हुआ। वे स्वीकार करते हैं कि इन परिचयों ने उनकी मानसिक बनावट और रचनाशीलता को प्रभावित किया, उसे नयी दिशा में प्रवाहित करने में योगदान किया। इसी प्रक्रिया में वे मार्क्सवाद के समीप पहुंचे, उसे पढ़ा और स्वीकार किया। यहां उल्लेखनीय है कि मार्क्सवाद को तो प्रायः सभी प्रगतिशील कवियों और लेखकों ने अपनाया, लेकिन सबने उसे एक ही तरह से नहीं बरता। शमशेर ने भी मार्क्सवाद को स्वीकार किया, कुछ दिन पार्टी कम्यून में रह कर काम भी किया, कई कविताएं कम्युनिस्ट आंदोलन की घटनाओं और व्यक्तियों पर लिखीं, फिर भी जीवन-अनुभूतियों एवं संवेदनाओं को ऐसी संश्लिष्ट और जटिल अभिव्यक्ति दी कि वहां मार्क्सवाद से कोई सम्पर्क दिखायी नहीं पड़ता। नागार्जुन ने भी मार्क्सवाद को अपनाया, अनेक किसान आंदोलनों में भाग लिया, जेल गये, फिर भी कविताओं की अन्तर्वस्तु वे दृश्य जगत के सम्पर्क से प्राप्त करते हैं, यहां तक कि राजनीतिक व्यक्तियों पर लिखित कविताओं की भी। लेकिन वे कम्युनिस्ट पार्टी और नेताओं की गतिविधियों को क्रांतिकारी परिवर्तन की दृष्टि से शंका की नजर से देखते हैं। केदारनाथ अग्रवाल समाज के क्रांतिकारी परिवर्तन के बारे में मार्क्सवाद के ऐतिहासिक निर्णय को स्वीकार करके चलते हैं। इस सरलीकरण का प्रभाव उनकी अनेक कविताओं पर है। इसके अलावा मनुष्य की समाजिक पीड़ा और उसके दूर करने की दृष्टि से मनुष्य के पुरुषार्थ पर उनको विश्वास एवं भरोसा है। ‘घर में एक हथौड़े वाला और हुआ’ शीर्षक कविता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है। इसी कविता में आगे चलकर वे कहते हैंः “हाथी सा बलवाल जहाजी हाथों वाला और हुआ।इसके अलावा उन्हें मनुष्य की सामाजिक पीड़ा और उसको दूर करने की दृष्टि से मनुष्य के पुरुषार्थ पर विश्वास एवं भरोसा है। “घर में एक हथौड़े वाला और हुआ” शीर्षक कविता इस लिहाज से महत्वपूर्ण है। इस कविता में आगे चल कर वे कहते हैं:”हाथी सा बलवान जहाजी हाथों वाला हुआसुन लेगी सरकार कयामत ढाने वाला और हुआ।“वे कविता को भी एक शक्ति मानते है, मानवीय शक्ति। वे कहते हैं कि-“जीवन ने मुझको जब-जब तोड़ा,हमने कविता से नाता जोड़ा।”यह ऐतिहासिक रूप से सही है कि कविता जीवन को शक्ति देती है। हां, सभी तरह की कविताएं नहीं, देखने की बात यह है कि कविता में कैसा मनुष्य चित्रित है। एक कविता में वे कहते हैं-वह जन मारे नहीं मरेगाजीवल की धूल चाट कर जो बड़ा हुआ है।इसका प्रतिलोम सोचें तो पता चलेगा, कि जो आरामतलब है और अकेला है, वह टूट जाता है। एक और कविता में केदार कहते हैं-हम बड़े नहींफिर भी बड़े हैंइसलिए कि लोग जहां गिर पड़े हैंहम वहां तने खड़े हैं.................................काल की मार मेंजहां दूसरे झरे हैंहम वहां अब भीहरे के हरे हैं।केदार की कविताओं में एक नया आदमी दिखायी पड़ता है, जो कवि की चेतना और संघर्षशीलता के प्रभाव से रूप लेता है। एक छोटी सी कविता में केदार कहते हैं-तेज धार का कर्मठ पानीमार रहा है घूंसे कस करतोड़ रहा है तट चट्टानीकेदार की कविताओं का मूल व्यक्तित्व यही है-तेज धार का कर्मठ पानी।केदार के बारे में नागार्जुन ने उन पर लिखी कविता में कहा है-कालिंजर का चौड़ा सीना वह भी तुम हो,केन कूल की कानी मिट्टी, वह भी तुम हो,काल रात्रि में लाठी लेकर खेतों कीकरता जो रखवाली वह भी तुम होइसी तरह की पंक्तियों से नागार्जुन ने केदार के कवि व्यक्तित्व को बड़े सही रूप में व्यंजित किया है। एक कविता में वे कहते हैंःरनिया मेरी देश बहन है।रनिया एक मेहनतकश परिवार की युवती, उससे कवि बहनापा जोड़ता है, इस आधार पर कि वह इसी देश की मिट्टी पर पली-बढ़ी है कवि की तरह ही। रिश्ते का इससे ठोस आधार और क्या हो सकता है? केदार की कविताओं का फलक बहुत व्यापक है, विविधतापूर्ण है। नये-नये बिम्बांे और नये-नये प्रसंगों से हिन्दी कविता को कवि ने समृद्ध किया है। मानव प्रकृति से लेकर मानेवतर प्रकृति तक केदार की कविता फैली हुई है। अपनी जमीन से, अपनी जनता से, और अपनी मिट्टी से कवि का स्वाभाविक और घनिष्ठ संबंध है। न्याय के लिए संघर्ष और प्रेम के लिए ललक उनकी कविताओं का सार तत्व है। जीवन के आखिरी वर्षों में उन्होंने दिवंगता पत्नी को ध्यान में रख कर अनेक गीत लिखे, जो ‘हे मेरी तुम’ के नाम से संग्रहित हैं। लेकिन केदार पाठकों के द्वारा और कविता के इतिहास में अपने रचना काल के पूर्वार्द्ध में लिखित कविताओं के कारण ही जाने जाते हैं। केदार की विरासत हम तक और आगे की पीढ़ियों तक उन्हीं कवितओं के माध्यम से पहुंचेगी। इसके साथ ही शिल्प-शैली और भाषा के निजत्व के कारण भी वे याद किये जाएंगे। नामवर जी ने बहुत पहले कहीं लिखा था कि केदार की कविताओं को पढ़ कर कलेजा ऊंचा हो जाता है। आज जब नयी पीढ़ी में व्यावसायत्मिका प्रवृत्ति विकसित की जा रही है, तब हमारा दायित्व और कर्तव्य होता है कि प्रगतिशीलता और मानवता के लिए संघर्ष करते हुए इन परवर्ती साहित्यकारों ने जो नया सौन्दर्यबोध हमें दिया है, उसे नयी पीढ़ी की चेतना में प्रविष्ट कराने का अभियान चलाएं। यदि जन्मशती मनाते हुए हम इस दिशा में कुछ कर सके, तो यह संस्कृति के क्षेत्र में ऐतिहासिक काम होगा।प्रगतिशील आंदोलन और कविता के विकास में फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ का योगदान और महत्व सबसे अलग है। जब सज्जाद जहीर इंग्लैंड से लौटे और हिन्दुस्तान में प्रगतिशील लेखक संघ के गठन की कोशिश में लग गये, तो इसी क्रम में अमृतसर डॉ. महमूदद़ जफ़र के यहां पहुंचे तो वहीं अंग्रेजी के युवा अध्यापक फै़ज़ अहमद ‘फै़ज़’ से उनकी मुलाकाल हुई और बातचीत के क्रम में मालूम हुआ कि फ़ैज़ तो पहले ही से वहां प्रगतिशील लेखक संघ या ‘अंजुमन तरक़्क़ीपसंद मुसन्नफ़ीन’ बनाने की तैयारी कर रहे थे। उन्होंने कुछ लेखकों की सूची भी बना रखी थी। सज्जाद जहीर मन में सोचने लगे- अरे, यहां मेरे बिना ही और मुझ से पहले से अंजुमन बनाने की तैयारी है। वे चकित भी हुए और प्रसन्न भी। यही फै़ज़ आगे चलकर भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े शायरों में शुमार किये गये, आज भी किये जा रहे हैं। उन्होंने उन्हीं दिनों वह नज़्म लिखी थी, जिसकी ये पंक्तियां तब से अब तक समाज और जिन्दगी के ही नहीं इतिहास के नये तकाजे का इजहार करती हुई उद्धत की जाती रही हैं-मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।मैंने समझा था कि तू है तो दरख्शां है हयात,तेरा गम है तो गम-ए-दहर का झगड़ा क्या हैइन पंक्तियों में यह बात कही गयी है कि प्रेमिका की मुहब्बत के बारे में पुरानी समझ गलत साबित हो गयी। समझ यह थी कि तेरा गम है, तो सांसारिक दुख का क्या मतलब? लेकिन आज की असलियत यह है कि-और भी दुख हैं जमाने में मुहब्बत के सिवाराहते हैं और भी वस्ल की राहत के सिवा।मुहब्बत करने से जो गम मिलता है, वह तो है ही, लेकिन गम और तरह के भी हैं। गम की नहीं मिलन के सुख के अलावा सुख भी और तरह के हैं।ं व्यापक नजरिया अनुभव से तो आता ही है, तरक्की पसंद तहरीक से भी आता है। हिन्दी के श्रेष्ठ कवि दिनकर (जिनकी जन्मशती हम हाल में मना चुके हैं) ने एक गीत में लिखा है-माया के मोहक वन की क्या कहूं परदेशीभय है हंस दोगे सुन कर मेरी नादानी परदेसी।जब देश गुलाम हो और गुलामी के खिलाफ आर-पार की लड़ाई चल रही हो तो माया के मोहक वन की कहानी नादानी ही कही जाएगी।“सोच” शीर्षक एक नज़्म में फ़ैज़ कहते हैं कि‘तेरा दिल गमगीं है तो क्यागमगीं ये दुनिया सारी है।’लेकिन वे यह भी कहते हैं कि गम तो हर हालत में घातक है, उसे खत्म होना चाहिए। गम के खिलाफ जंग छेड़ते हैं फैज। दुनिया में जो दौलत वाले सुखी लोग हैं, उनका सुख बांटना चाहिए। इसी नज्म के अन्तिम बंद में वे कहते हैं-हमने माना जंग कड़ी हैसर फूटेगा, खून बहेगाखून में हम भी बह जाएंगेहम न रहेंगे, गम न रहेगा।गम जितना कठिन है, उसके खिलाफ लड़ना जितना कठिन है, उतना ही कठिन है गम को नष्ट करने का फैज का संकल्प।भारत बंट गया, बंटने से एक नया देश पाकिस्तान बना। आगे चल कर पाकिस्तान भी बंट गया और पूर्वी पाकिस्तान हो गया बांगलादेश, फैज ने यह सब देखा।फैज 1911 में अविभाजित पंजाब के स्यालकोट में पैदा हुए थे। बंटवारे के बाद उनकी जन्मभूमि पाकिस्तान में चली गयी। देशभक्त फैज पाकिस्तान में रहे। लेकिन फैज पर भोपाल में आयोजित बहुत बड़े समारोह को संबोधित करते हुए शिव मंगल सिंह सुमन ने कहा-‘फैज को बांट दो तो समझे।’ जाहिर है कि फैज का व्यक्तित्व आज भी भारत के जनगण को प्रिय है। आज भी यहां की जनसभाओं में मेहनतकशों के पक्षधर फैज का गीत गाते हैं-हम मेहनतकश जगवालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे।एक ख्ेात नहीं एक देश नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगेऔर इस देश के अदीबों के लिए तो वे जितने ही अपने हैं, उतने निराला, नागार्जुन या और कोई और जितने रवीन्द्रनाथ, विष्णु दे, सुभाष मुखोपाध्याय या कोई और जितने वल्लातोल, सुब्रहमण्य भारती और श्री श्री या जितने विन्दा करन्दीकर या कोई और। फैज देशभक्त होने के साथ ही जनतंत्र के लिए भी कुर्बान होने को तत्पर रहते थे। जनतांत्रिक व्यवस्था के बिना देश के साथ क्या अपनापन। लेकिन फैज को अपने देश में जनतंत्र नहीं मिला। तानाशाही का प्रहार वे लगातार देखते रहे। वे एक नज्म में किस दर्द के साथ लिखते हैं यह देखिए-निसार मैं तेरी गलियों के ऐ वतनके जहां चली है रस्म के कोई न सर उठा के चलेजो कोई चाहने वाला तवाफ को निकलेनजर चुरा के चले जिस्मों जां बचा के चले।लेकिन फैज यह जानते-समझते हैं कि जनता तानाशाही को बर्दाश्त नहीं कर सकती, वह तो जनतंत्र के लिए न्यौछावर होती है। उसी नज्म में फैज कहते हैं-यूं ही हमेशा उलझती रही है जुल्म से खल्कन उनकी रस्म नयी है न अपनी रीत नयी,यूं ही हमेशा खिलाये हैं हमने आग में फूलन उनकी हार नयी है न अपनी जीत नई।फैज जनतंत्र के साथ मनुष्यता की खोज करते हैं और मनुष्यता उनकी नजर में है दूसरों के दर्द को अमानत के रूप में कबूल करना। यह ऐसी चीज है, ऐसी इंसानियत है, जो नाबराबरी वाले समाज में नहीं मिलती। वे एक रूबाई में कहते हैं -मकतल में न मस्जिद न खराबात में कोईहम किसकी अमानत में गम-ए बार--ए जहां देंशायद कोई उनमें से कफन फाड़ के निकलेअब जायें शहीदों के मजारों पे अजां देंकैसा भयानक समाज है यह, कैसा दर्दनाक अनुभव है; यहां कोई धर्मस्थलों में भी दूसरों के दर्द को बांटने वाला नहीं मिलता। लेकिन कोई फैज हर हालत को झेलने के लिए तैयार रहे हैं।वे प्रेम के भी कवि हैं, लेकिन प्रेम भाव को वे कहां तक ले जाते हैं, यह देखिए-गम-ए-जहां हो, रुख-ए-यार हो के दस्ते अदूसलूक जिससे किया हमने आशिकाना किया।यहां आशिकाना का उदात्तीकरण किया है फैज ने। यह आशिकाना केवल प्रेमिका या प्रेम के लिए नहीं, दुनिया में मिलने वाले गम और दुश्मन के हाथ के लिए भी है। ऐसे ‘आशिकाना’ का इजहार करने वाला फैज ही कह सकता है -मुकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहींजो कूए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।ऐसे फैज को याद करना भी कोई मामूली बात नहीं है। लेकिन हम उन्हें याद कर रहे हैं। फैज की शायरी मनुष्य को ताकत देती है, रास्ता दिखाती है।अज्ञेय यानी सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन। जैनेन्द्र ने एक कहानी प्रेमचंद के पास ‘हंस’ में छपने के लिए भेज दी, लेकिन उसमें लेखक का नाम नहीं था। प्रेमचंद ने पूछा- कहानी का लेखक कौन है? जैनेन्द्र ने शायद यह कहा कि वह अपना नाम नहीं देना चाहता। तो फिर प्रेमचंद ने ही अज्ञेय नाम देकर कहानी छाप दी और स.ही. वात्स्यायन का नाम साहित्य में अज्ञेय हो गया। अज्ञेय का जन्म 1911 में ही हुआ। उनका जीवन विविधता पूर्ण कामों से भरा हुआ है। फौज में काम किया, फिर वहां से मुक्त होकर साहित्य में आये। अपने फौजी जीवन का संस्मरण भी उन्होंने लिखा है। साहित्य में आने के बाद कुछ दिनों तक प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़े रहे थे। लेकिन प्रगतिशील उन्हें रास नहीं आयी। जो हो, उन्होंने साहित्य के इतिहास में अपनी पहचान अपने लेखन के जरिये बनायी। अज्ञेय से मतभेद होना सहज और स्वाभाविक है, उसी तरह जैसे स्वयं अज्ञेय का प्रगतिवादी साहित्य और प्रगतिशील आंदोलन से मतभेद होना सहज और स्वाभाविक है। मतभेद हो सकता है, लेकिन कोई भी उनकी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे कई बार अज्ञेय से मिलने, बातें करने और उनका व्याख्यान सुनने का सुअवसर मिला। इसके बावजूद मैं यह नहीं कह सकता कि मेरा उनसे परिचय था। वे बहुत कम बोलते थे। वे अच्छे वक्ता थे, वक्तृत्व कला की दृष्टि से , यह भी कहा जा सकता है कि वे अच्छे श्रोता भी थे। उन्होंने उपन्यास, कहानी और कविता तीनों क्षेत्रों में महत्वपूर्ण लेखन किया। ‘शेखर एक जीवनी’ ऐसा उपन्यास है जो हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि यह उपन्यास तब लिखा और प्रकाशित किया गया, जब अपना देश स्वाधीनता के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था। गांधी जी ने ‘करो या मरो’ का नारा देश को दिया। दिनकर उन्हीं दिनों लिख रहे थे-लहू में तैर-तैर के नहा रही जवानियांनये सुरों में भिंजिनी बजा रही जवानियांउसी समय अज्ञेय जी का शेखर इस पूरे माहौल से अलग रहता है, छात्रावास के अपने कमरे में बैठा रहता है, निकलता है तो नदी किनारे या किसी पार्क के कोने में जा कर बैठा रहता है, या फिर डी.एच. लारेंस की कविताएं पढ़ता है, जिनमें जीवन की अग्रगति के लिए कोई प्रेरणा नहीं है। उनका एक उपन्यास ‘अपने-अपने अजनबी’ का पात्र चारों तरफ बर्फ गिरते हुए देखकर दरवाजें बंद कर घर में बैठ जाता है और बर्फ पिघलने की प्रतीक्षा करता है। स्वयं इस विषय स्थिति का सामना करने का उपक्रम नहीं करता। अज्ञेय की समग्र रचनात्मक चेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली यह कविता है -हम नदी के द्वीप हैं.................................हम धारा नहीं है।स्थिर समर्पण है हमाराहम सदा के द्वीप हैं óोतस्विनी के।किन्तु हम बहते नहीं हैं।क्यों कि बहना रेत होना हैहम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।यह अस्तित्ववादी दर्शन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। कवि मनुष्य को बताता है कि अपने अस्तित्व की रक्षा पहले करनी चाहिए, सामाजिक जीवन की धारा में बहना ठीक नहीं है। अज्ञेय आधुनिक कवि हैं, लेकिन उनकी आधुनिकता अस्तित्वाद और पूंजीवाद की लक्ष्मण रेखा को नहीं लांघती।अज्ञेय का एक निबंध संग्रह 1945 में ही छपा था ‘त्रिशंकु’ नाम से। उसमें प्रकाशित एक लेख में कहते हैं- “साहित्य में प्रगतिशीलता की मांग करने वाले प्रायः एक मौलिक सत्य को भूल जाते हैं। प्रगतिशीलता कहां से उत्पन्न होती है, इसकी परीक्षा करने से पहले एक और बात जानना जरूरी है कि साहित्य-कोई भी कला कहां से उत्पन्न होती है। कला के मूलोदभव की जांच करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि प्रगतिवाद का सिद्धांत राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में भले ही स्वीकार हो सके, साहित्य, साहित्य सृष्टि के क्षेत्र में अस्वीकार्य ही रहेगा।” (त्रिशंकु. पृ. 76)। असल में अज्ञेय जी यह बात भूलते रहे कि स्वयं उनका शेखर, शशि, भुवन, रेखा आदि समाज से ही उठाये गये हैं। हमारा समजा बहुढांचीय है, बहुस्तरीय है, इसलिए उसमें होरी, गोबर और बलचनामा है, तो शेखर और भुवन और रेखा भी हैं। प्रेमचंद, यशपाल, नागार्जुन आदि के साहित्य का यथार्थ एक तरह का है, तो अज्ञेय और जैनेन्द्र के साहित्य का यथार्थ दूसरी तरह का। लेकिन यथार्थ तो दोनों में है। अज्ञेय ने साहित्य और सामान्य जन-जीवन के संबंध का, साधनहीनों के पक्ष की राजनीति का, विषम और अन्यायपूर्ण मानव-संबंध को बदलकर न्यायपूर्ण बनाने का संघर्ष का साहित्य में विरोध करने का दायित्व अपने ऊपर ले लिया था, अतः इस रूप में उनको अवश्य याद करना चाहिए और नये सिरे से समझने की कोशिश करनी चाहिए।अज्ञेय ने साहित्य को राजनीति से अलग रखने की बात कही, लेकिन वत्सलनिधि की ओर से “जय जानकी जीवन यात्रा” का आयोजन अपने नेतृत्व में करके उन्होंने देश के दायें बाजू की राजनीति को राम जानकी रथयात्रा निकालने की मशाल दिखायी। सम्पूर्ण क्रांति के पक्ष में उन्होंने कविता लिखी जो “महावृक्ष के नीचे” में संकलित है। यों उनकी अनेक कहानियां और अनेक कविताएं ऐसी तो है ही, जो मानव मूल्य को व्यक्त करती हैं। उनकी ‘शरणदाता’ कहानी और ‘इतिहास की हवा’ जैसी कविता मानव-मूल्य के लिए मशहूर हैं। इन बड़े रचनाकारेां ने जिस सदी में अपना साहित्य रचा, वह स्वतंत्रता, समानता, जनतंत्र, वैज्ञानिक बुद्धि आदि के विकास के लिए भीषण संघर्षों, महायुद्धों और भ्रांति के लिए तड़प की सदी रही है।पिछले बीस पच्चीस वर्षों में हिन्दी कविता का विकास हुआ है और जिन कवियों के माध्यम से विकास हुआ है, उन पर जब हम गौर करते हैं, हमें थोड़ी निराशा होती है यह देखकर कि उनमें यह विचार कर रहा है कि किसी आंदोलन और विचारधारा से प्रभावित कविता श्रेष्ठ नहीं होती। मैं यह नहीं कहना चाहता कि कवियों को उसी तरह आंदोलन में उतर जाना चाहिए जैसे राहुल जी उतरे थे, नागार्जुन उतरे थे। केदारनाथ अग्रवाल प्रतिबद्ध कविताएं जरूर लिखते रहे, उनसे प्रेरणा भी मिलती रही है, लेकिन वे जीवन में राजनीति कर्मी नहीं थे। शमशेर कुछ वर्षो तक राजनीतिकर्मी थे, बाद में नहीं। मैं लिख चुका हूं कि उनकी कविताओं से संगति बैठाना कितना कठिन है। फैज तो प्रायः जीवन भर कवि और राजनीतिकर्मी भी रहे, वह भी तानाशाही का मुबाकला करते हुए। आज के युवा कवियों में समाज के प्रति सद्भावना तो है, मानव चेतना तो है। कविता हो या मनुष्यता, संवेदना हो या केवल वेदना उन सबकों कविता में स्थान देते हुए वे अच्छी चीजों और बातों के बचे रहने की आशा और आकांक्षा व्यक्त करते हैं। वे कहते या लिखते हैं कि कविता बची रहेगी, संवेदना बची रहेगी, बचा रहेगा प्रेम। वे इन सबके खरीदारों की पहचान करते हैं, लेकिन यह सब कैसे बचा रहेगा, कौन बचाएगा उन्हें, स्वयं कवियों की कोई भूमिका इसमें होगी या नहीं, इन सबके बारे में आज के युवा कवि प्रायः मौन रहते हैं, या कतरा जाते हैं। जनता किसी न किसी रूप में संघर्ष में है, लेकिन जन कार्रवाई का चित्रण आज भी कविताओं में प्रायः नहीं दिखायी पड़ता है। यह युग ऐसा है, जिसमें चमत्कारों और चमत्कारी लोगों को समाज में बहुत मान मिलता है। यही कारण है कि आज के युवा ‘शार्ट-कर्ट’ से सिद्धि और प्रसिद्धि के चमत्कारी शिखर पर पहुंचना चाहते हैं। आज सुविधा ऐसी है कि सिद्धि के बारे में तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन प्रसिद्धि के लिए बहुत जद्दोजहद नहीं करनी पड़ती। आज पत्रिकाएं बहुत हैं, कुछ रचनाएं छपा कर ही समस्त हिन्दी क्षेत्र में प्रसिद्धि तो मिल ही जाती है। लेकिन जनता और जन आंदोलन से उनका लगाव कमजोर पड़ा है। साहिर लुधियानी ने कभी कहा था कि ‘वह सुबह हमीं से आएगी।’ आज का कवि इतना कहता है कि वह सुबह कभी न कभी तो आएगी। आज की पीढ़ी के रचनाकार पुरस्कारों को आलोचनात्मक मूल्यांकन या यथार्थ समझते हैं। इससे रचना और रचनाकार पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे साहित्य का तो कल्याण नहीं होता। मैं यह कहते हुए आज के युवा कवियों की प्रतिभा को नजरअंदाज नहीं करता, हां जीवनगत कमजोरी से प्रभावित रचना की ओर संकेत जरूर कर रहा हूं। मैं मानता हूं कि कोई अच्छा कवि दूसरे की तरह नहीं लिखता। मैं यह नहीं कहता कि नागार्जुन या केदार की तरह लिखें, लेकिन इतना जरूर कहना चाहता हूं कि कवि या लेखक जिन जनतांत्रिक मूल्यों को बचाना चाहते हैं, उनको जनता की मदद के बिना नहीं बचाया जा सकता। अतः आज के कवियों के लिए इतना तो जरूरी है ही कि उनकी कविताओं की तरफ जनता आकृष्ट हो, जनता से उनका संबंध कायम हो। साहित्य और जनता के संबंध को तोड़ना पूंजीवाद की पुरानी साजिश है। कभी डा. नामवर सिंह ने कहा था कि पूंजीवादी प्रगतिशीलों को पहले उपेक्षा के द्वारा मारना चाहता है, वे उपेक्षा को झेल जाते हैं, और जिन्दादिली के साथ रहते हैं; तो पूंजीवाद उनका विरोध करके उन्हें खत्म करना चाहता है, विरोध से भी काम नहीं बनता, तो पूंजीवाद प्रगतिशीलों को आदर देने लगता है और यह आदर उनकी धार को अवश्य कुंद कर देता है। इस पर गौर करने की जरूरत है।
- खगेन्द्र ठाकुर
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