कोपनहेगन जाने के पूर्व ही पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने घोषित किया था कि भारत स्वतः कार्बन उत्सर्जन में 20 प्रतिशत की कटौती करेगा तो संसद में आपत्ति प्रकट की गयी क्योंकि ऐसी एकतरफा घोषणा से भारत की स्थिति कमजोर पड़ती थी। तब जयराम रमेश ने कहा था कि यह आश्वासन भारतीय जनगण को संबोधित है और ऐसा वे कोपनहेगन में नहीं करने जा रहे हैं और यह भी कि पर्यावरण के क्योटो प्रोटोकाल से पीछे हटने का प्रशन नहीं उठता है। ऐसी दुमंुही बातों पर तब भी किसी ने विश्वास नहीं किया था, पर अब जब जयराम रमेश कोपनहेगन में अपने दोनों ही हाथों से ऐसा ही लिखित समझौते पर हस्ताक्षर कर लौटे हैं तो झेंपते से बोले कि उन्होंने क्योटो संधि पर लचीला रूख अपनाया। लाज छिपाने का यह अनोखा तरीका है। असल बात तो यह है कि उन्होंने क्योटो संधि को अलविदा कर दिया है।
राष्ट्र संघ के 187 देशों का सर्वसहमत और अत्यंत न्यायपूर्ण क्योटो संधि को तजने का कोई कारण नहीं था। क्योटो संधि के अंतर्गत विकसित देशों के ऊपर कानूनी प्रतिबंध था कि वह अपना कार्बन उत्सर्जन घटाकर 2.7 टन प्रतिव्यक्ति की सीमा के अंदर करे। वर्तमान में अमेरिका 23.5 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन करता है, जबकि भारत में महज 1.7 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन है। क्योटो संधि के अंतर्गत विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन की सीमा घटाकर 1.4 टन प्रतिव्यक्ति करने की है। ऐसी स्थिति में भारत को मात्र 0.3 टन प्रतिव्यक्ति कार्बन घटाना होता। अमेरिका ने इस संधि पर हस्ताक्षर करना यह कहकर इंकार किया कि इस संधि का बुरा असर उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। तो क्या भारत का अपना कार्बन उत्सर्जन 20 प्रतिशत कम करने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर अच्छा असर पडेगा?
जाहिर है, भारत फिर अमेरिकी फांस में फंस गया है। भारत को नये कोपनहेगन प्रस्ताव के मुताबिक उत्सर्जन कम करने संबंधी नियमित रपट देनी होगी और उसकी जांच, निरीक्षण माॅनिटरिंग, वेरिफिकेशन के नाम पर भारत में अमेरिकी दखलंदाजी बढ़ती जाएगी और तब अमेरिका पर कोई ऊंगली नहीं उठाएगा कि वह क्यों अपना कार्बन उत्सर्जन कम नहीं कर रहा है।
कार्बन उत्सर्जन का संबंध निःसंदेह अर्थव्यवस्थ के साथ जुड़ा है और इसलिए अमेरिका आर्थिक क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखने के लिए पर्यावरण संरक्षण के मामले में टांगे भिड़ा रहा है, उसी तरह जैसा उसने परमाणु अप्रसार संधि; एनपीटी के मामले में किया। सर्वविदित है माल उत्पादन के लिए कारखानों में मुख्यतः कोयला, बिजली और तेल का इंधन इस्तेमाल होता है। कोयला, तेल, बिजली जलाने और तैयार करने से कार्बन डाइआक्साइड गैस बनती है। इसे ही ‘ग्लोबल वार्मिंग’ कहते हैं। धरती पर तापमान बढ़ने से पहाड़ों पर जमे ग्लेशियर तेजी से पिघलते हैं। उत्तर ध्रवु आर्कटिक और दक्षिण ध्रुव अंटार्कटिका की बर्फ भारी मात्रा में पिघल रही है। इससे समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। प्रकटतः इससे दुनिया के समुद्र तटीय शहरों और आवासों का अस्तित्व खतरें में है। कार्बनडाइआक्साइड गैस पृथ्वी के वायुमंडल में लिपटा ओजोन गैर परत को भी कमजोर करता है। ओजोन गैस परत पृथ्वी का कवच है, जो सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावायलट किरणों से पृथ्वी को बचाता है। विकसित देशों में ज्यादा कल-कारखानें हैं। इसलिए ये प्रदूषण फैलाने वाले सबसे बडे़ देश हैं। अमेरिकी नीति का मर्म यह है कि वह प्रदूषण फैलाने के अर्थात् कार्बन उत्सर्जन के अपने अधिकार सुरक्षित रखना चाहता है, वहीं वह विकासमान देशों को कार्बन उत्सर्जन रोकने के लिए कानूनी तौर पर प्रतिबंधित करना चाहता है। परमाणु अप्रसार संधि; एनपीटी पर हस्ताक्षर कराकर उन्होंने ऐसा ही किया। वे स्वयं आणविक हथियार रखेंगे, किंतु दूसरों को इसकी इजाजत नहीं देंगे। इससे उनकी वरीयता बनी रहेगी। जाहिर है, औद्योगिक देश अपने कारखानों का माल उत्पादन जारी रखने के लिए पिछड़े देशों को कारखाना विस्तार रोकना चाहते हैं।
आर्थिक विकास की विश्व प्रतियोगिता में हर देश ऊर्जा की खपत में वृद्धि कर रहा है और इससे उसी अनुपात में दुनिया में कार्बन-उत्सर्जन बढ़ रहा है। इस तरह बेलगाम माल उत्पादन और मुक्त बाजारवाद से दुनिया में एक तरफ कुछ देश और कुछ व्यक्ति अपार संपदा समेटे हैं, तो दूसरी तरफ इस दौर में न केवल दुनिया में गरीबी और दारिद्रय का फैलाव हो रहा है, बल्कि संपूर्ण पृथ्वी का अस्तित्व ही गंभीर खतरे के आगोश में है। इस खतरे की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए मालद्वीप की सरकार ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक समुद्र की गहराई में पैैठकर की तो नेपाल सरकार का मंत्रिमंडल ने एवरेस्ट के तुंग शिखर पर जाकर बैठक रचायी। वैज्ञानिकों का आकलन है कि एशिया-अफ्रीका के समुद्र तटीय देशो का बड़ा भाग 2150 तक समुद्र के गर्भ में चला जाएगा। भारत के कलकत्ता, मुंबई जैसे शहर भी खतरे में होंगे। अनुमान है कि बंग्लादेश का एक तिहाई भाग समुद्र में डूबेगा और वहां से कई करोड़ आबादी का पलायन होगा। बंग्लादेशी भागकर कहां जायेंगे? भारत उनके लिए सबसे सुगम है। ग्लोबल वार्मिंग से दुनिया में बड़ा उलटफेर होने वाला है।
कोपनहेगन में फिर अमेरिकी कूटनीति की जीत हुई। वह 1992 के संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्बन्धी फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी), 1997 की क्योटो संधि और 2004 की बाली कार्ययोजना प्रावधानों को ठेंगा दिखाने में कामयाब हो गया, जिसके मुताबिक विकसित औद्योगिक देशों के लिए पहले अपना कार्बन उत्सर्जन घटाना लाजमी था। जयराम रमेश के ‘लचीलेपन’ के चलते अब ये दोनों ही दस्तावेज बेकार हो गए। संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन और क्योटो संधि विकासमान देशों के हित में अत्यंत महत्वपूर्ण थे।
अमेरिका स्वाभाविक ही कोपनहेगन में अपनी दोहरी जीत से प्रसन्न है। विश्व का 4.5 प्रतिशत आबादी वाला देश, जो 22 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का दोषी है, वह किसी प्रकार की बाध्यकारी वचनबद्धता से साफ बच गया और उलटा वह भारत जैसे विकासमान देशों को वचनबद्धता के दायरा में खींच लाने में कामयाब हो गया, जिसका विकसित औद्योगिक देशों के मुकाबले कार्बन उत्सर्जन ही अत्यल्प है। निश्चय ही, यह विकासशील देशों के आर्थिक विकास पर नया लगाम साबित होगा।
सत्य नारायण ठाकुर
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