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शुक्रवार, 25 जून 2010
at 8:49 pm | 0 comments | डा. गिरीश मिश्र
यूनानी संकट का संदेश
यूनान से उपजे आर्थिक संकट ने एक बार फिर इस तथ्य को रेखांकित किया है कि विश्व जल्द राहत की सांस ले संवृद्धि पथ पर आगे बढ़ने वाला नहीं है। पहले अमरीका और अब यूनान में आर्थिक संकट का जो ज्वालामुखी फटा है उसकी चपेट में सारा विश्व है और सतही तौर पर तथा परंपरागत नुस्खों से उससे निजात मिलना कठिन है। यह मानना है प्रो. दानी रोद्रिक का, जिनकी गिनती संसार के स्पष्टवादी, ईमानदार अर्थशाóियों में होती है।रोद्रिक लेबनानी मूल के हैं। वे हारवर्ड विश्वविद्यालय में वर्षों से अर्थशाó के प्रोफेसर हैं। उन्हें अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हैं जैसे सोशल साईंस रिसर्च काउंसिल का अलबर्ट ओ हर्षमैन पुरस्कार। 1990 के दशक में जब नवउदारवादी रंग में सराबोर लोग भारत के लिए नेहरू के योगदान को विनाशकारी कह रहे थे तब रोद्रिक ने तर्कों और आंकड़ों के आधार पर नेहरू के योगदान को बहुमूल्य बतलाते हुए अनेक लेख लिखे थे जिनमें से एक मुंबई में प्रकाशित ‘इकानिक एंड पोलिटिकल वीकली’ में छपा था। उन्होंने रेखांकित किया था कि नेहरू के योगदान के बिना भारत में जनतंत्र नहीं पनपता, उसकी एकता और अखंडता समाप्त हो जाती और मजबूत आर्थिक आधारशिला नहीं रखी जाती। कहना न होगा कि उनकी स्पष्टवादिता ने नवउदारवादीविचारधारा के हिमायतियों को रूष्ट किया था। अभी-अभी उनका एक लेख ‘ग्रीक लेसंस फॉर वर्ल्ड इकानमी’ (विश्व अर्थव्यवस्था के लिए यूनानी सबक) ने तमाम नवउदारवादियों को अप्रसन्न कर दिया है। लेख प्रोजेक्ट सिंडिकेट द्वारा प्रसारित होकर सारे विश्व में अनेक भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं में छपा है। संभव है कि वर्तमान यूनान से उपजा संकट बहुत दिनों तक न चले और उसका कोई समाधान निकल आए मगर उससे समस्या पर अस्थायी रूप से काबू पाया जा सकता है, स्थायी रूप से नहीं क्योंकि दुनिया एक अजीब पेशोपेश में है। आर्थिक भूमंडलीकरण, राजनीतिक जनतंत्र और राष्ट्र राज्य को वह एक साथ रखना चाहती है मगर इन तीनों को एक साथ बनाए रखना असंभव है क्योंकि वे एक दूसरे के विरोधभासी हैं। उसे समझ में नहीं आ रहा कि किसको चुनें और किसको छोड़ें। इनमें कोई दो ही एक साथ रह सकते हैं। जनतंत्र राष्ट्र राज्य यानी राष्ट्रीय सार्वभौमिकता के साथ चल सकता है बशर्ते कि हम भूमंडलीकरण को नियंत्रित कर उसे काबू में रखंे। इसी तरह अगर हम जनतंत्र और भूमंडलीकरण को साथ-साथ रखना चाहते हैं तो हमें राष्ट्र-राज्य को दरकिनार करना होगा तथा अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानून को स्वीकार करना होगा।अपनी प्रस्थापना के समर्थन में रोद्रिक ने इतिहास का सहारा लिया है। भूमंडलीकरण का पहला दौर 1914 तक यानी प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने तक रहा। वह तब तक सफलतापूर्वक काम करता रहा जब तक आर्थिक और मौद्रिक नीतियां किसी भी देश के घरेलू राजनीति दबावों से मुक्त रहीं। वे नीतियां स्वर्णमान यानी गोल्ड स्टैंडर्ड से संबद्ध रहीं और उनका उद्देश्य पूंजी के एक देश से दूसरे देश में प्रवाह को उन्मुक्त करना था। कालक्रम में मजदूर आंदोलन के फैलने और शक्तिशाली होने तथा श्रमिकों को मताधिकार मिलने से राजनीति का दायरा बढ़ा। वह संभ्रांत लोगों के दायरे से निकली और जनराजनीति बन गई। घरेलू आर्थिक जरूरतों को तरजीह देने का दबाव बढ़ा और अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानूनों तथा प्रतिबंधों से टकराव होने लगा। उदाहरण के लिए स्वर्णमान से अलग होने के कुछ ही समय बाद ब्रिटेन ने अपने को दुबारा उससे जोड़ने की भरपूर कोशिश की मगर वह भूमंडलीकरण के 1914 से पहले का दौर वापस नहीं ला सका और अंततः उसे स्वर्णमान को 1931 में पूर्णतया छोड़ घरेलू परिस्थितियों के अनुकूल अपनी नीतियां बनानी पड़ी। लियाकत अहमद की बहुप्रशंसित रोचक पुस्तक ‘लार्ड्स ऑफ फाइनेंस’ में विस्तार से भूमंडलीकरण के प्रथम दौर के साथ स्वर्णमान की व्यवस्था के धराशायी होने तथा उससे उपजे गड्डमड्ड का विस्तृत वर्णन और विश्लेषण है।द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एक बार फिर भूमंडलीकरण को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई। निर्विवाद रूप से पूजीवादी जगत में शीर्ष पर पहुंचे अमरीका के नेतृत्व में ब्रेट्टन उड्स व्यवस्था लागू की गई। सब राष्ट्रीय मुद्राओं को डालर से जोड़ा गया है। अमरीका ने डालर के मूल्य को स्थिर रखने और परिवर्तनीयता बनाए रखने की गारंटी दी। अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक को नई व्यवस्था चलाने का भार दिया गया। कह सकते हैं कि भूमंडलीकरण की यह नई व्यवस्था काफी सतही थी। ब्रेट्टन उड्स व्यवस्था 1970 के दशक में धराशायी हो गई। अमरीका डालर के मूल्य को स्थिर रखने में अक्षम रहा और वह अन्य प्रमुख पूंजीवादी देशों के साथ मिलकर बढ़ते अंतर्राष्ट्रीय पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करने में विफल रहा।इसके बाद भूमंडलीकरण का तीसरा और वर्तमान दौर शुरू हुआ। सोवियत संघ के अवसान और गुट निरपेक्ष आंदोलन की समाप्ति के बाद उत्पन्न परिस्थितियों में कहा गया कि राष्ट्र-राज्य का जमाना लद चुका है। राष्ट्रीय सार्वभौमिकता को तिलांजलि देकर राज्यो को राजनैतिक संघ बनाना होगा जिससे आर्थिक एकीकरण की प्रक्रिया तेज हो। राष्ट्रीय सार्वभौमिकता से होने वाली क्षति को जनतांत्रिक राजनीति के ‘अतर्राष्ट्रीयकरण’ द्वारा पूरा किया जाएगा। इस प्रकार राष्ट्रों को भूमंडलीय संघ की ओर बढ़कर ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का सपना साकार किया जाएगा। याद दिलाया गया कि गृहयुद्ध के बाद संयुक्त राज्य अमरीका मजबूत संघ बना जिससे घरेलू बाजार का विस्तार हुआ।इसी भावना से प्रेरित होकर अंततः यूरोपीय संघ बना। उत्तर अमरीकी देशों ने नाफ्टा की नींव रखी। दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों ने अपना संघ बनाया, अपने बाजार के विस्तार की प्रक्रिया आरंभ की। हमारे अपने यहां सार्क की नींव पड़ी। मगर राष्ट्रीय सार्वभौमिकता समाप्त या काफी कमजोर होने के बदले रोड़ा बन गई और राष्ट्रों की एकीकरण की प्रक्रिया को पीछे पलटने लगी। इसे हम अपने यहां सार्क की नगण्य प्रगति को देखकर जान सकते हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच राजनैतिक मतभेद गहरा होता गया है। पाकिस्तान अपने यहां जमे हुए आतंकी संगठनों का सफाया करने में अक्षम है जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग असंभव है।यूरोपीय देशों का संघ बन गया, बाजार का विस्तार हुआ तथा ब्रिटेन को छोड़ उसके सब सदस्य राष्ट्रों में एक ही मुद्रा यूरो का चलन हो गया। इसके बावजूद राष्ट्र-राज्य बने रहे तथा यूरोपीय क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को अपना मजबूत राजनीतिक पाया नहीं मिल सका। परिणामस्वरूप यूनान को समान मुद्रा, एकीकृत पूंजी बाजार तथा संघ के अंदर मुक्त व्यापार के फायदे मिले। मगर मुसीबत की घड़ी में यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से अपने आप ऋण पाने की सुविधा नहीं मिली।उदाहरण के लिए अमरीका के कैलिफोर्निया राज्य में मंदी के दौर में बेरोजगार लोगों को वाशिंगटन स्थित संघीय संस्थानों से अपने आप सहायता मिलती है। ऐसा अधिकार यूनान को प्राप्त नहीं है। उसके बेरोजगारों को ब्रसेल्स स्थित केन्द्रीय बैंक से स्वतः भत्ते नहीं मिल सकते। वे रोजगार की खोज में यूरोपीय संघ के अन्य सदस्य देशों में बेरोकटोक नहीं जा सकते। भाषाई एवं सांस्कृतिकअवरोध आड़े आते हैं। सरकार के दिवालिया होने के साथ यूनानी बैंकों और फर्मों को भी दिवालिया मानकर ऋण मिलने में दिक्कत आती है। साथ ही यूनान की राष्ट्रीय सार्वभौमिकता बरकरार रहने के कारण संघ को जर्मनी और फ्रांसीसी सरकारें उसकी आर्थिक विशेषकर बजटीय नीतियों के संबंध में कुछ भी नहीं कह सकती। जब तक क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां यूनानी सरकार को दिवालिया नहीं घोषित करतीं तब तक उसे अप्रत्यक्ष रूप से यूरोपीय केन्द्रीय बैंक से उधार लेने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। अगर यूनान ऋण की अदायगी नहीं करने का इरादा बना लेता है तो ऋणदाता यूनानी परिसंपत्तियों पर कब्जा नहीं जमा सकते और न ही वे अपनी कोई दावेदारी कानूनी तौर पर ठोक सकते हैं। इतना ही नहीं, यूनान को यूरोपीय संघ से बाहर जाने से नहीं रोका जा सकता।परिणामस्वरूप यूनान से उपजा आर्थिक संकट अत्यंत गहरा होता जा रहा है और उस पर पार पाने के रास्ते उलझाव भरे हो रहे हैं। यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने यूनानी अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिए पैकेज तैयार किए हैं जिनके तहत यूनान को बजट घाटे, वेतन, मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा के मद में होने वाले खर्च में भारी कटौती करनी होगी। फलतः मजदूर वर्ग और आम जनता नाराज हैं तथा उनका प्रतिरोध बढ़ रहा है। इससे बचाव के पैकेज की सफलता संदेह के घेरे में है।स्पष्टतया राष्ट्रीय सार्वभौमिकता और भूमंडलीकरण के बीच भारी टकराव पैदा होने के संकेत मिल रहे हैं। कहना न होगा कि मजदूर वर्ग, आम जनता और यूनान की घरेलू राजनीति की जरूरतों से भूमंडलीकरण मात हो जाएगा। वयस्क मताधिकार पर आधारित कोई भी जनतांत्रिक सरकार अपने को संकट में डाल भूमंडलीकरण के आगे घुटने नहीं टेक सकती और इस तरह अगर भूमंडलीकरण के वर्तमान दौर के आगे विराम लग जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।
- डा. गिरीश मिश्र
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