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शुक्रवार, 25 जून 2010
at 9:08 pm | 0 comments | शकील सिद्दीकी
पुस्तक समीक्षा - समय ने जिसे मुहाजिर बना दिया
मैं मुहाजिर नहीं हूं (उपन्यास)
बादशाह हुसैन रिजवी
प्रकाशक- सुनील साहित्य सदन, नई दिल्ली।
तेज होते औद्योगिकरण ने बाजार को विस्तार दिया है। फैलता हुआ बाजार उद्योगों के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। बाजार के साथ टेक्नालॉजी के विसमयकारी विकास ने जीवन में बहुत कुछ बदल दिया है। हमारे आस-पास की दुनिया में बहुत सारी चीजें गायब हो रही हैं कई नई चीजों का प्रवेश हो रहा है। गतिशील भूमंडलीकरण के कारण यह परिवर्तन इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि उसके प्रति सहज स्वीकार का भाव उसी अनुपात में नहीं बन पा रहा है। जबकि यह बहाव आमतौर पर जीवन की ऊपरी सतह पर ही घटित हो रहा है। बादशाह हुसैन रिजवी का पहला उपन्यास “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ परिवर्तन की इस प्रक्रिया और इसकी परिणितयों का एक बिल्कुल अलग स्तर पर घटित होने का अनुभव देता है। हालांकि इसके शीर्षक से तो यह अनुमान निकलता है कि पाकिस्तान में कुछ दशकों पूर्व तेज हुआ मुहाजिर-गैर-मुहाजिर विवाद इसकी विषय वस्तु का आधार होगा। इस बहाने उपन्सास में इस विवाद की कुछ जीवन्त उत्तेजक छवियां होगी और उस वेदना के गहरे बिम्ब, जो वहां मुहाजिर कहे जाने वाले लोग बर्दाश्त करते आये हैं। जबकि “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ एक ऐसे शख्स की त्रासद कथा है जो रहने वाला तो सिद्धार्थनगर के प्रसिद्ध कस्बा हल्लौर का है, परन्तु परिस्थितियों ने जिसे पाकिस्तानी बना दिया है। दरअसल शम्सुल हसन रिजवी रेलवे में मुलाजमत के कारण सन् 47 में उस इलाके में सेवारत थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान आने की रिस्क वह नहीं ले सके। फलस्वरूप हिजरत करके पाकिस्तान न जाने के बावजूद वह मुहाजिर बन गये। वक्त के मारे ऐसे व्यक्ति के जीवन में स्मृमियों का क्या महत्व होता है, बताने की जरूरत नहीं। अतः कथानक का ताना बाना स्मृति, स्वपन और यर्थाथ के साथ ही अवचेतन में पड़ी बहुत सी चीजों, विश्वास और शंकाओं के बीच दिलचस्प संघर्ष से बुना हुआ है। कारणवश तरल भावुकता, धनी संवेदनात्मक अनुभूतियां तथा वृतांत की जीवन्तता के कई-कई क्षणों से पाठक रूबरू होता है।मुहर्रम उपन्यास के केन्द्र में हैं। शम्सुल हसन लम्बे अन्तराल के बाद अपनी बीमार बहन को देखने हल्लौर आये हुए हैं। ऐसे में यादों का ताजा हो उठना तथा जिये हुए को एक बार फिर से जी लेने की इच्छा का किसी गहरी बेचैनी की तरह कुलबुलाना एक दम स्वाभाविक है। मुहर्रम की स्मृतियां उन्हें सम्मोहक अतीत की ओर ले जाती हैं, कस्बे की पुरानी पहचानों तक जाने की अकुलाहट देती हैं, वर्तमान की कड़वी सच्चाइयों से दो चार करती हैं तथा भविष्य की आशंकाओं से व्याकुल। इस प्रक्रिया में मुहर्रम तथा ग्रामीण जीवन के कई प्रसंग अपनी समूची धड़कनों के साथ सजीव हो उठते हैं। एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भाषा और साहित्य भी जिसके प्रभाव से बचे नहीं रह सके, जिसकी सीमाएं धर्मजाति भूगोल के पार जाती हैं, कैसे कई इलाको-व्यक्तियों के जीवन का संचालक तत्व बना हुआ है, कैसे एक समुचे क्षेत्र के अर्थशास्त्र की वह केन्द्रीय धुरी है, शत्रुताओं से लेकर मित्रताओं तक, वैवाहिक सम्बन्धों से लेकर शिथिल पड़ रहे पारिवारिक रिश्तों के पुनर्जीवन तक, पुराने मूल्यों से लेकर अपनी शिनाख्त को बचाये रखने के संघर्ष तक किस बारीकी से उसके तार जुड़े हुए हैं, ग़म मनाने के दस दिनों का प्रभावपूर्ण बयान इन सबको समेटते हुए हमारे समय के जरूरी विमर्शों से भी टकराता है। छोटे-छोटे विवरण बड़े यथार्थ के उद्घाटन में प्रामणिक साक्ष्य की भूमिका निबाहते हैं। बहुत से पाठकों के लिए वे क्षण गहरे कष्ट से गुजरने जैसे हो सकते हैं, जब वो मर्सिया नोहा जैसे शोक गीतों को टेप-डेक, वी.सी.डी. के तेज वाल्यूम की चपेट में आता देखते हैं और पाते हैं कि अरब के पैसे व आपसी प्रतिस्पर्द्धा ने आस्था और विश्वास का भी व्यवसायीकरण कर दिया है।इस क्रम में उपन्यासकार हल्लौर कस्बे एवम् मुहर्रम से जुड़े कई विस्मृत पक्षों को भी उद्घाटित करता चलता है। जैसे प्रेमचंद के “प्रेम पच्चीसी“ का प्रथम प्रकाशन इसी कस्बे के प्रेस से हुआ था, या शोक प्रकट करने की वो गायन शैलियां, जैसे दाहा-झर्रा इत्यादि अथवा कुछ खास रस्मे-रिवायतें जिनका प्रचलन कम होता जा रहा है या तो विलुप्त सी हो गई हैं। वह पुस्तकालय भी जो कभी कस्बे की शान हुआ करता था। हां जीवन का साझापन अब भी बचा हुआ है। बावजूद इसके यह उपन्यास की सीमा नहीं है, वह उन खतरों की ओर संकेत करता है कि कैसे विश्वास और आस्थाएं कर्मकाण्ड और आडम्बर का रूप ग्रहण कर रही हैं, परम्पराएं रूढ़ियां बन गई हैं जो अन्ततः कुण्ठित युवा पीढ़ी के लिए भटकाव का कारण बनती है। इस सजगता के चलते ही उपन्यासकार भारतीय मुसलमानों में व्याप्त खास तरह के आत्मघाती नस्ली जातिवादी काम्पलेक्स पर चोट करने का जोखिम उठाता है। स्मृतियों का समकालीन यथार्थ से टकराव उस ताप से विचलित करता है, कोपेनहेगन के विराट सम्मेलन के बाद भी जिसमें फिलहालन कमी आने की संभावना नहीं है। अमरीका का खलनायकी चेहरा यहां आकार लेता दिखता है। मजबूती से गठा हुआ कथ्य भाषा की सादगी के बावजूद पाठक को आरंभ से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है।
- शकील सिद्दीकी
बादशाह हुसैन रिजवी
प्रकाशक- सुनील साहित्य सदन, नई दिल्ली।
तेज होते औद्योगिकरण ने बाजार को विस्तार दिया है। फैलता हुआ बाजार उद्योगों के लिए संजीवनी साबित हो रहा है। बाजार के साथ टेक्नालॉजी के विसमयकारी विकास ने जीवन में बहुत कुछ बदल दिया है। हमारे आस-पास की दुनिया में बहुत सारी चीजें गायब हो रही हैं कई नई चीजों का प्रवेश हो रहा है। गतिशील भूमंडलीकरण के कारण यह परिवर्तन इतनी तेजी से घटित हो रहा है कि उसके प्रति सहज स्वीकार का भाव उसी अनुपात में नहीं बन पा रहा है। जबकि यह बहाव आमतौर पर जीवन की ऊपरी सतह पर ही घटित हो रहा है। बादशाह हुसैन रिजवी का पहला उपन्यास “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ परिवर्तन की इस प्रक्रिया और इसकी परिणितयों का एक बिल्कुल अलग स्तर पर घटित होने का अनुभव देता है। हालांकि इसके शीर्षक से तो यह अनुमान निकलता है कि पाकिस्तान में कुछ दशकों पूर्व तेज हुआ मुहाजिर-गैर-मुहाजिर विवाद इसकी विषय वस्तु का आधार होगा। इस बहाने उपन्सास में इस विवाद की कुछ जीवन्त उत्तेजक छवियां होगी और उस वेदना के गहरे बिम्ब, जो वहां मुहाजिर कहे जाने वाले लोग बर्दाश्त करते आये हैं। जबकि “मैं मुहाजिर नहीं हूं“ एक ऐसे शख्स की त्रासद कथा है जो रहने वाला तो सिद्धार्थनगर के प्रसिद्ध कस्बा हल्लौर का है, परन्तु परिस्थितियों ने जिसे पाकिस्तानी बना दिया है। दरअसल शम्सुल हसन रिजवी रेलवे में मुलाजमत के कारण सन् 47 में उस इलाके में सेवारत थे जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। नौकरी छोड़कर हिन्दुस्तान आने की रिस्क वह नहीं ले सके। फलस्वरूप हिजरत करके पाकिस्तान न जाने के बावजूद वह मुहाजिर बन गये। वक्त के मारे ऐसे व्यक्ति के जीवन में स्मृमियों का क्या महत्व होता है, बताने की जरूरत नहीं। अतः कथानक का ताना बाना स्मृति, स्वपन और यर्थाथ के साथ ही अवचेतन में पड़ी बहुत सी चीजों, विश्वास और शंकाओं के बीच दिलचस्प संघर्ष से बुना हुआ है। कारणवश तरल भावुकता, धनी संवेदनात्मक अनुभूतियां तथा वृतांत की जीवन्तता के कई-कई क्षणों से पाठक रूबरू होता है।मुहर्रम उपन्यास के केन्द्र में हैं। शम्सुल हसन लम्बे अन्तराल के बाद अपनी बीमार बहन को देखने हल्लौर आये हुए हैं। ऐसे में यादों का ताजा हो उठना तथा जिये हुए को एक बार फिर से जी लेने की इच्छा का किसी गहरी बेचैनी की तरह कुलबुलाना एक दम स्वाभाविक है। मुहर्रम की स्मृतियां उन्हें सम्मोहक अतीत की ओर ले जाती हैं, कस्बे की पुरानी पहचानों तक जाने की अकुलाहट देती हैं, वर्तमान की कड़वी सच्चाइयों से दो चार करती हैं तथा भविष्य की आशंकाओं से व्याकुल। इस प्रक्रिया में मुहर्रम तथा ग्रामीण जीवन के कई प्रसंग अपनी समूची धड़कनों के साथ सजीव हो उठते हैं। एक सांस्कृतिक प्रक्रिया भाषा और साहित्य भी जिसके प्रभाव से बचे नहीं रह सके, जिसकी सीमाएं धर्मजाति भूगोल के पार जाती हैं, कैसे कई इलाको-व्यक्तियों के जीवन का संचालक तत्व बना हुआ है, कैसे एक समुचे क्षेत्र के अर्थशास्त्र की वह केन्द्रीय धुरी है, शत्रुताओं से लेकर मित्रताओं तक, वैवाहिक सम्बन्धों से लेकर शिथिल पड़ रहे पारिवारिक रिश्तों के पुनर्जीवन तक, पुराने मूल्यों से लेकर अपनी शिनाख्त को बचाये रखने के संघर्ष तक किस बारीकी से उसके तार जुड़े हुए हैं, ग़म मनाने के दस दिनों का प्रभावपूर्ण बयान इन सबको समेटते हुए हमारे समय के जरूरी विमर्शों से भी टकराता है। छोटे-छोटे विवरण बड़े यथार्थ के उद्घाटन में प्रामणिक साक्ष्य की भूमिका निबाहते हैं। बहुत से पाठकों के लिए वे क्षण गहरे कष्ट से गुजरने जैसे हो सकते हैं, जब वो मर्सिया नोहा जैसे शोक गीतों को टेप-डेक, वी.सी.डी. के तेज वाल्यूम की चपेट में आता देखते हैं और पाते हैं कि अरब के पैसे व आपसी प्रतिस्पर्द्धा ने आस्था और विश्वास का भी व्यवसायीकरण कर दिया है।इस क्रम में उपन्यासकार हल्लौर कस्बे एवम् मुहर्रम से जुड़े कई विस्मृत पक्षों को भी उद्घाटित करता चलता है। जैसे प्रेमचंद के “प्रेम पच्चीसी“ का प्रथम प्रकाशन इसी कस्बे के प्रेस से हुआ था, या शोक प्रकट करने की वो गायन शैलियां, जैसे दाहा-झर्रा इत्यादि अथवा कुछ खास रस्मे-रिवायतें जिनका प्रचलन कम होता जा रहा है या तो विलुप्त सी हो गई हैं। वह पुस्तकालय भी जो कभी कस्बे की शान हुआ करता था। हां जीवन का साझापन अब भी बचा हुआ है। बावजूद इसके यह उपन्यास की सीमा नहीं है, वह उन खतरों की ओर संकेत करता है कि कैसे विश्वास और आस्थाएं कर्मकाण्ड और आडम्बर का रूप ग्रहण कर रही हैं, परम्पराएं रूढ़ियां बन गई हैं जो अन्ततः कुण्ठित युवा पीढ़ी के लिए भटकाव का कारण बनती है। इस सजगता के चलते ही उपन्यासकार भारतीय मुसलमानों में व्याप्त खास तरह के आत्मघाती नस्ली जातिवादी काम्पलेक्स पर चोट करने का जोखिम उठाता है। स्मृतियों का समकालीन यथार्थ से टकराव उस ताप से विचलित करता है, कोपेनहेगन के विराट सम्मेलन के बाद भी जिसमें फिलहालन कमी आने की संभावना नहीं है। अमरीका का खलनायकी चेहरा यहां आकार लेता दिखता है। मजबूती से गठा हुआ कथ्य भाषा की सादगी के बावजूद पाठक को आरंभ से अंत तक बांधे रखने में समर्थ है।
- शकील सिद्दीकी
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