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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

हमारा लोकतंत्र: कितना लोक, कितना तंत्र है

60वें गणतंत्र दिवस के मौके पर यह देखना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हमारे लोकतंत्र में कितना लोक और कितना तंत्र है। लोकतंत्र की जनकांक्षा पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांगलादेश और नेपाल में हिलोरे मारती रही है। छोटा देश भूटान भी इससे प्रभावित हुए बगैर नहीं रहा। यहां भी जनता ने चुनकर संसद का निर्माण किया है। लातिन अमरीकी देशों में हालिया इतिहास लोकतंत्र की जय, पराजय और फिर विजय की उथल-पुथल की घटनाओं से भरा है। इस जय, पराजय और विजय में निःसंदेह जनता की निर्णायक भूमिका होती है, किंतु पूंजी की दखलंदाजी से इंकार नहीं किया जा सकता है। पूंजी लोकतंत्र का क्षरण करती है। फलस्वरूप लोकतंत्र का हरण होता है। जहां कहीं भी लोकतंत्र का हरण हुआ है, उसके पीछे झुकने पर पूंजी की काली करतूत उजागर होती है।
भारत के गुजरे दो दशकों पर दृष्टिपात करें तो साफ प्रतीत होता है कि भारतीय लोकतंत्र का वास्तविक क्षरण 14 जुलाई 1991 को प्रारंभ हुआ, जब तत्कालील प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने देश के लिए नयी आर्थिक नीति की घोषणा की। नयी आर्थिक नीति अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के दबाव में की गयी सरकारी घोषणा थी, जो लोकसभा की पीठ पीछे की गयी थी। यह नयी आर्थिक नीति लोकसभा में बहस कराये बगैर घोषित की गयी। सन् 1991 में घोषित यह नयी आर्थिक नीति 1956 के उस औद्योगिक प्रस्ताव का निषेध करती है, जिसे देश की निर्वाचित प्रथम संसद ने सर्वसहमति से पास किया था। विडंबना है कि देश की संसद द्वारा पारित सर्वसहमत प्रस्ताव को एक अल्पमत सरकार ने खारिज कर दिया। सर्वविदित है कि जब आर्थिक नीति की घोषणा की गयी थी तो तत्कालीन नरसिंह राव सरकार को लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था।
इस नयी आर्थिक नीति ने भारत की परम्परागत साम्राज्यवाद - विरोधी लोकहितकारी कल्याणकारी आत्मनिर्भर स्वावलंबी राष्ट्रीय अर्थतंत्र निर्मित करने के सपने को खंडित कर दिया, जो सपना आजादी की लड़ाई के दौर में देखा गया था और जिसकी अभिव्यक्ति संविधान में की गयी। नरसिंह राव की अल्पमत सरकार ने तमाम लोकतंात्रिक संवैधानिक संस्थाओं की अवहेलना करके एकतरफा भारतीय अर्थतंत्र को साम्राज्यवाद निर्यातमुखी मुक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर कर दिया। सबकों मालूम है कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार व्यवस्था न तो मुक्त है और न ही न्यायपूर्ण। अंतर्राष्ट्रीय बाजार व्यवस्था मगरमच्छ बहुराष्ट्रीय कंपनियों का क्रीड़ास्थल है, जहां बड़ी मछली छोटी मछली को खाती हैं। नयी आर्थिक नीति के मध्य में पूंजी खड़ी है। आम आदमी के बारे में कहा गया कि उसे उसका लाभ “बूंद-बूंद टपकेगा“। जाहिर है, पूंजीवाद में आम आदमी भिखारी बन रहा है।
इस तरह पहली बार भारतीय राष्ट्रीय अर्थतंत्र में लोक के स्थान पर ‘लाभ’ का प्रतिष्ठित किया गया। यह लोकतंत्र का निषेध और पूंजीतंत्र (कार्पोरेट गवर्नेस) का श्रीगणेश था, जहां मुनाफा,
अधिकाधिक मुनाफा और अधिक मुनाफा (सुपर प्राॅफिट) सरकारी मंत्र बन गया।
भारतीय लोकतंत्र को दूसरा जबर्दस्त धक्का लगा सन् 1995 में जब भारत सरकार ने विश्व व्यापार संघ (डब्लूटीओ) के डंकल प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया। भारतीय संविधान में कृषि राज्य सरकारों के मामलों की सूची में दर्ज है, किन्तु भारत को राज्य विधानसभाओं की अनुमति के बगैर भारत सरकार ने डब्लूटीओ प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किया, जो मुख्यतया कृषि संपदा के भाग्य का निर्णय करते थे।
यहां यह भी ध्यातव्य है कि खेत मजदूरों के लिए व्यापक केन्द्रीय कानून बनाने की मांग को इस आधार पर इंकर किया जाता रहा है कि कृषि राज्य सरकारों का मामला है। सरकार के इस तर्क में कोई दम नहीं है, क्योंकि श्रम संविधान की समवर्ती सूची में दर्ज है और खेत मजदूरों का मामला बुनियादी तौर पर श्रम का मामला बनता है। घोषित नयी आर्थिक नीति में श्रम और श्रम अधिकार गौण है और इसमें श्रमिक और टेªड यूनियनों को पूंजी की सेवा में पालतू बनाने का प्रावधान है।
इसी तरह डब्लूटीओ समझौते में कृषि, खेत मजदूर और उनके हित गायब हैं। यह समझौता अंतर्राष्ट्रीय पूंजी के सामने साष्टांग दंडवत है। सन् 1991 में संसद की उपेक्षा कर नयी आर्थिक नीति की घोषणा की गयी। फिर 1995 में राज्य के विधानमंडलों की उपेक्षा कर डब्लूटीओ पर हस्ताक्षर किया गया।
भारतीय लोकतंत्र को तीसरा झटका 2008 के प्रारंभ में लगा, जब सरकार ने अमरीका के साथ बेजरूरत परमाणु संधि पर हस्ताक्षर किया। इस समझौते में भारत के आणविक संयंत्रों के अंतर्राष्ट्रीय निरीक्षण को स्वीकार किया गया। यह भारतीय लोकतंत्र की सार्वभौमिकता पर अंकुश लगाने का प्रयास है। सबको पता है कि भारत में थोरियम का अपार भंडार है, जिससे अकूत बिजली प्राप्त की जा सकती है, इसके अलावा नदियों का अजस्र जल प्रवाह है, जिसे विद्युत सर्जन का अक्षय स्त्रोत में तब्दील किया जा सकता है। ऐसा नहीं करके सरकार ने साम्राज्यवादी खेमा ज्वायन करना बेहतर समझा। ऐसा करना भारत की जनभावना का निरादर करना है।
2009 के अंत में पर्यावरण सम्बंधी कोपेनहेगन समझौता भारतीय लोकतंत्र पर चैथा और ताजा हमला है। कोपेनहेगन में सरकार ने भारत के आर्थिक विकास के मार्ग में नया साम्राज्यवादी लगाम स्वीकार किया है। पर्यावरण संबंधी कोपेनहेगन समझौता भारत को विकासमान देशों से अलग- थलग करता है और साम्राज्यवादी विकसित देशों के सामने घुटना टेकता है। इस समझौते से विकसित देशों को कार्बन डाई आॅक्साड कम करने की बाध्यता से छुट्टी मिल गयी है और उसने विकासमान देशों के कार्बन उत्सर्जन की मानेटरिंग और निरीक्षण करने का अतिरिक्त अधिकार हासिल कर लिया है। कोपेनहेगन समझौता पूर्व के परमाणु अप्रसार संधि जैसा बेमेल समझौता है जिसके मुताबिक विकसित औद्योगिक देश स्वयं तो परमाणु हथियार का जखीरा रखते हैं किन्तु दूसरे देशों को ऐसा नहीं करने देते हैं।
ये सभी अंतर्राष्ट्रीय समझौते विश्वजनमत के विरूद्ध लोकतांत्रिक संस्थानों की उपेक्षा करके किये गये हैं। इन समझौतों पर हस्ताक्षर करने के पहले संसद और विधानसभाओं से अनुमति नहीं ली गयी। अमरीका और अन्य देशों में सरकार द्वारा किये गये अंतर्राष्ट्रीय समझौते तभी वैध और कार्यान्वित किये जाते हैं, जब उस देश की संसद उसे संपुष्ट करती हैं। किंतु भारत में इसके विपरित सरकार ने संसद की बिना अनुमति के अंतर्राष्ट्रीय समझौते किये और उसे देश की जनता पर लाद दिया। यह भारतीय जनगण की अवमानना नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र में लोक अपनी किस्मत तय करता है, किन्तु भारत में लोकहित के हर महत्वपूर्ण बिंदु पर केवल तंत्र ने ही ताने कसे हैं। यही नहीं, भारतीय अर्थव्यवस्थ में विश्व पूंजीवाद का हस्तक्षेप खतरनाक सीमा तक बढ़ गया है। इसके चलते संसद और विधानमंडलों की भूमिका का अवमूल्यन हुआ है। केन्द्रीय बजट के प्रावधानों पर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष-विश्व बैंक में परामर्श किया जाता है। केन्द्रीय बजट को विश्वपूंजी की आवश्यकताओं के अनुरूप ढाला जाता है।
शासनतंत्र के इन्हीं-लोक विरोधी तांत्रिक फैसलों का लाजिमी नतीजा है कि आज सवा अरब की आबादी वाले देश में 85 करोड़ लोग (77 प्रतिशत) 20 रुपये रोजाना से कम पर गुजारा करते हैं, वहीं सैकड़ें पांच आदमी के पास इतना अफरात पैसा जमा हो गया है कि वह दुनिया को कोई भी माल किसी भी कीमत पर खरीदने को उतावला है। भारत के तीस परिवार के पास देश की एक तिहाई संपदा संचित हो गयी है। सरकार की इसी तांत्रिक करतूतों ने उन संवैधानिक प्रावधानों को निकम्मा कर दिया है, जिसके तहत कुछ व्यक्तियों के हाथों में धन के संकेन्द्रण की मनाही है। प्रो. अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बने असंगठित क्षेत्र आयोग के प्रतिवेदन के मुताबिक देश के 77 प्रतिशत लोगों की आय 20 रुपये के नीचे है। इस बीस रुपये की आय से एक किलोग्राम चावल नहीं खरीदा जा सकता और न एक किलो दाल अथवा आटा। तो गरीब किस प्रकार गुजारा करते हैं। इस स्थिति से रोंगेटे खड़े होते हैं। प्रकटतः सरकार अपने संवैधानिक दायित्व का पालन नहीं करती है, जिसके तहत उसे नागरिकों की आजीविका, स्वास्थ्य एवं सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गयी है।
सरकार भूमिहीनों को आवास और विस्थापितों केा पुनर्वास तथा भूमि
सुधार कानूनों के कार्यान्वयन में विफल है, किन्तु पूंजीपतियों को हजारों हजार एकड़ जमीन का आवंटन करने को बेताब है। भूमि हदबंदी कानून के अंतर्गत भूस्वामियों के कब्जे से जमीन निकालने और उसका भूमिहीनों में वितरित करने के काम में सरकार निकम्मा है, किन्तु पूंजीपतियों को भूमि औने-पौने दामों पर आवंटन, करने में सक्रिय है। सरकार की इन कारगुजारियों में सरकार का पूंजी पक्षी और लोक-विरोधी चरित्र का दर्शन होता है। इसमें आम आदमी की तस्वीर कहीं दिखाई नहीं पड़ती है। लोक गायब हो रहा है। तंत्र हावी हो रहा है। आखिर यह लोकतंत्र किसके लिए है?
गणतंत्र के इस मौके पर इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढना निश्चय ही अर्थपूर्ण होगा।
गुजरे दिनों में अनार्थिक प्रश्नों का अनर्थ खूब ढाया जाता रहा है। अनार्थिक भावानात्मक मुद्दों का जनता की खुशहाली से कुछ भी लेना-देना नहीं होता है। लेाकतंत्र केवल शाही नहीं है। लोकतंत्र के साथ आम आदमी की खुशहाली जुड़ने से लोकतंत्र सुसंगत और अर्थपूर्ण बनता है। लेाकतंत्र को धनतंत्र बनने से रोकने और इसे सुसंगत और अर्थपूर्ण बनाने के लोक संघर्ष को जाहिर है, और भी तेज करना होगा। क्योंकि पूंजी सबको लीलता है, लोकतंत्र को भी। पूंजी और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चलते। ये दोनों कभी सहयात्री नहीं बन सकते। इसलिए पूंजी पर लगाम जरूरी है। अन्यथा, आम आदमी को ये कुचल डालेंगे। कहते हैं, पूंजी खून से लथपथ पैदा हुई थी। कार्ल माक्र्स लिखते हैं कि जब पूंजी पैदा हुई तो इसके अंग-अंग और प्रत्येक अंग का प्रत्येक पोर रक्त रंजित था।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि पिछले दो दशकों के आर्थिक प्रयोग काल में तीन करोड़ लोग सामाजिक सुरक्षा कवच से बाहर धकेल दिये गये हैं। इसी अवधि में बेरोजगारी और बदहाली बेशुमार बढ़ी है। यह लोकतंत्र को धनतंत्र में ढालने का नतीजा है। इसी खतरे का अहसास कर देश के प्रमुख नौ केन्द्रीय मजदूर संगठन इकट्ठे होकर श्रमजीवी जनगण के हितों की रक्षा के लिए आगे बढ़ रहे हैं। इनके आह्वान पर आगामी 5 मार्च को 10 लाख लोग देशव्यापी सत्याग्रह करके जेलयात्रा करेंगे। निश्चय ही श्रमिक, पूंजी के समक्ष हथियार नहीं डालेंगे। हमें विश्वास है पूंजी और श्रम के बीच के टकराव का समाधान निश्चय ही आमजनों के पक्ष में होगा।

सत्यनारायण ठाकुर

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