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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

केरल के वनमंत्री का सराहनीय कार्य

संभवतः लश्करे-तैयबा कार्यकर्ता तादियांतविदा नासिक की आतंकवादी गतिविधियों के संबंध में राजनैतिक रूप से संवेदनशील रिपोर्टों से जुड़ी खबरों और पाॅल जार्ज मुथूट एवं भास्कर करनवार की हत्याओं के मामले केरल में इलेक्ट्रानिक और प्रिंट मीडिया में छाये रहने के कारण वन विभाग द्वारा गत 25 नवम्बर को जारी एक अत्यंत महत्वपूर्ण अधिसूचना पर मीडिया द्वारा ध्यान नहीं दिया गया। यह आदेश राज्य के वनमंत्री विनय विश्वम द्वारा तीन साल पहले किये गये एक कठिन एंव चुनौतीपूर्ण मिशन के सफलतापूर्ण पूरा करने के रूप में था। इसे वनमंत्री की एक सबसे बड़ी प्रशासनिक उपलब्धि कहा जा सकता है क्योंकि वे इस आशय का सरकारी आदेश तैयार करने और उसे जारी करने में सफल रहे ताकि सरकार की वन एवं गैर-वन जमीन तथा उसे लीज पर देकर राजस्व बढ़ाया जा सके। यहां यह नोट किया जाना चाहिए कि सरकार जमीन का इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों एवं निजी संस्थाओं से सरकार बहुत ही कम शुल्क लेती रही है।
वास्तव में वनमंत्री ने एक काफी जटिल मुद्दे में हस्तक्षेप करने का साहस किया जबकि उनके पूर्ववर्ती मंत्रियों ने राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव होने के बावजूद या तो इसकी उपेक्षा कर दी या फिर कुछ कार्रवाई करने के बाद उसे आधा-अधूरा छोड़ दिया। वन मंत्री के हस्तक्षेप से संबंधित कानून में एक बड़ी त्रुटि दूर कर दी गयी जिसके कारण राज्य को लगभग डेढ़ शताब्दी से सालाना करोड़ों रु. का नुकसान हो रहा था।
केरल के इतिहास में इतनी महत्वपूर्ण एवं असामान्य उपलब्धि को तभी समझा जा सकता है जब इसकी पृष्ठभूमि मालूम हो। 19वीं सदी की पहली तिमाही में ट्रावनकोर में ब्रिटिश औपनिवेशक स्थापित हो जाने के बाद ब्रिटिश बागान मालिकों ने कीमती वन संसाधनों का दोहन करना शुरू कर दिया। इस लूट के पीछे शुरू में कर्नल मुनरो का दिमाग था जिन्होंने एक अत्यधिक साहसी एवं देशभक्त शासन वेलू थांपी डलावा की मृत्यु के बाद वाचिनाड की राजसत्ता छील ली थी। बाद में राज्य का दीवान बन जाने के बाद उन्होंने अपने स्वयं के देश के लिए लोगों को वन संसाधनों की लूटखसोट करने के लिए बुला लिया था, ठीक उसी तरह जैसे कि उसने लगभग उन पन्द्रह सौ मंदिरों पर कब्जा कर लिया था जो राज्य के सामाजिक जीवन की रीढ़ थे और जिन पर राज्य का कोई अधिकार भी नहीं था।
1870 के दशक में वन संसाधनों की लूट चरमसीमा पर पहुंच गयी। उन्होंने 10 जुलाई 1877 को पुंजार के राजा को केवल 3000 रु. लगान पर 1,37,424 एकड़ वन भूमि एक ब्रिटिश जमींदार जाॅन डेनियल मुनरों को टाइटिल डीड पर देने के लिए मजबूर कर लूट के इतिहास में एक नया
अध्याय ही जोड़ दिया और इसकी कोई समयसमीा भी नहीं रखी। सी. अच्युत मेनन के मुख्यमंत्रित्व काल में केरल सरकार 1971 में कन्नन देवन हिल्स कानून बनाने के बाद इनमें से करीब तीन चैथाई वन संसाधनों को वापस लेने में सफल रही। टाटा टी कंपनी अभी भी 57,192 एकड़ वन भूमि अपने पास रखे हुए है।
पिछले डेढ़ सौ साल से लीज की शर्तों के अनुसार जमीन के मालिक को चंदन को छोड़कर किसी भी पेड़ को काटने का अधिकार है। टीक और ब्लैक वुड आदि लकड़ियों के लिए सरकार को नाम मात्र की रायल्टी दी जाती है और शेष पेड़ों पर कोई शर्त नहीं है। यहां यह नोट किया जाना चाएि कि किसी भी पूर्व सरकार ने आय के इन स्रोतों को हाथ में लेने की कोशिश नहीं की, जबकि इस डेढ़ शताब्दी में आय कर एवं अन्य करों में वृद्धि की गयी। हाल के वर्षों में इन करों में वृद्धि करने के प्रयास की कहानी काफी दिलचस्प है।
मुख्यमंत्री ई.के. नयनार के प्रथम कार्यकाल में वन एवं श्रममंत्री आर्यदान मुहम्मद ने जून 1980 में लकड़ियों की कीमत तथा लीज की दर आदि बढ़ाने की दिशा में पहला कदम उठाया जो कि डेढ़ शताब्दी तक ज्यों की त्यों थी। उन्होंने इसके लिए एक अध्यादेश जारी किया और बाद में इसे बिना कोई देरी किये कानून का रूप दिया? लेकिन अक्टूबर, 1981 में नयनार सरकार ने इस्तीफा दे दिया। इसके बाद नया कानून बनाने में करीब दस साल लग गये। निहित स्वार्थी तत्वों ने इसको लेकर शोर मचाना शुरू कर दिया। एस्टेट मालिकों के एक प्रमुख संगठन ने सरकार को एक कड़ा ज्ञापन दिया जिसके बाद सात महीने पहले बनायी गयी नियमावली को स्टे कर दिया गया।
इसके बाद एक और दुर्घटना घटी। इतने महत्वपूर्ण मामले से जुड़ी फाइल सचिवालय से रहस्यपूर्ण ढंग से गायब हो गयी। इसके बाद इससे जुड़े
अध्यादेश को जारी करने में सरकार को पांच साल लग गये। नवंबर 1996 में जारी किये गये उस अध्यादेश का श्रेय अन्य किसी को नहीं बल्कि पी.आर. कुरूप को जाता है जो ई.के. नयनार के तीसरे मंत्रिमंडल में वन एवं परिवहन मंत्री थे। लेकिन राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह अध्यादेश जनवरी 1999 में दिल्ली से वापस भेजा गया यानी दो साल गुजरने के बाद। इस अभागे बिल को केरल विधानसभा ने अप्रैल 1999 में एक महत्वपूर्ण संशोधन कर पारित कर फिर से दिल्ली भेजा जिसे केन्द्र सरकार ने सात साल तक वापस नहीं किया। मई, 2006 में इसे यह कहकर वापस किया गया कि इन संशोधनों को कोई जरूरत नहीं है। विनय विश्वम को, जो वलतक्काड द्वीप के पर्यावरण संबंधी महत्व को अच्छी तरह समझते हैं। संबंधित कानून एवं नियमों की त्रुटियों को देर करने और अधिसूचना जारी करने में साढ़े तीन साल लग गये। इस प्रकार वन लाॅबी और सरकार में निहित लेटलतीफी के विभिन्न निहित स्वार्थों के विरोध के कारण इस कानून के बनने में कुल 29 वर्ष का समय लग गया। उन्होंने न केवल डेढ़ शताब्दी से चले आ रहे भ्रष्टाचार को दूर किया है बल्कि गैर-टैक्स संसाधनों से सालाना करीब सात करोड़ रु. वसूल करने का एक ठोस आधार भी तैयार कर दिया।
विनय विश्वम राज्य के संभवतः प्रथम वन मंत्री है जो किसी भी दबाव के आगे नहीं झुके और यह साहसिक घोषणा की कि इदुक्की जिले के कार्डमोम हिल (इलायची पर्वत) संरक्षित वनभूमि है, न कि ऐसी राजस्व भूमि जिस पर किसी को आक्रमण करने दिया जाये। यह दूसरी बात है कि उनके दृष्टिकोण को अन्ततः माना नहीं गया।
वन मंत्री ने एक बार फिर एर्नाकुलम जिले के मराड द्वीप में भूमि माफिया के चंगुल से 46 गरीब परिवारों को मुक्त कराया। राज्य में वन एवं भूमि माफियाओं की लाॅबी काफी मजबूत है जो अपने आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभावों से सरकारों को गिराते रहे है। लेकिन वे वनमंत्री विनय विश्वम को सही दिशा में कदम आगे बढ़ाने से रोक नहीं पाये। यह वन माफिया पुराने पेड़ो को काटने, अतिक्रमण करने और हजारों एकड़ वन भूमि और गैर वन भूमि पर कब्जा करने में लिप्त रहा है और पिछले कई दशकों से उसने सरकार को एक भी पैसे का भुगतान नहीं किया है।

सी.पी. नायर

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