चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) ने इसी 1 जुलाई को
अपनी स्थापना के सौ साल पूरे किये हैं। दुनियाँ और हमारे देश के समाचार पत्रों में
इसकी व्यापक चर्चा हुयी है। परन्तु उतनी नहीं जितनी कि होनी चाहिये। कल्पना कीजिये
कि अमेरिका या योरोप की किसी पार्टी ने अपने अक्षुण्ण कार्यकाल के सौ साल पूरे
किये होते तो शायद विश्व मीडिया झूम उठता। पर सीपीसी के नेत्रत्व में चीन द्वारा
आर्थिक, सामरिक और सामाजिक क्षेत्रों में लगायी महा छलांग को देख अमेरिकी प्रभुत्व वाला दबंग संसार
हतप्रभ है; विचलित है। अतएव उनका समर्थक विश्व मीडिया भी इस जयन्ती
के प्रति उत्साहित तो नहीं ही था।
सीपीसी की स्थापना भी जुलाई 1921 में लगभग उसी समय
हुयी थी जब रूस की 1917 की समाजवादी क्रान्ति के बाद पूर्वी योरोप सहित दुनियां के
विभिन्न हिस्सों में कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना होरही थी। बाद में उसकी
स्थापना की तिथि 1 जुलाई सुनिश्चित कर दी गयी।
इस सौ साल के इतिहास में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी
की झोली में जितनी उपलब्धियां संकलित हैं विश्व की किसी भी दूसरी पार्टी, चाहे वह कम्युनिस्ट पार्टी हो अथवा गैर कम्युनिस्ट,
के पास नहीं हैं। यदि सोवियत संघ का बिखराव न हुआ होता तो निश्चय ही यह गौरव आज
तत्कालीन कम्युनिस्ट पार्टी आफ सोवियत यूनियन को हासिल होता।
यही चीन की कम्युनिस्ट पार्टी है जिसने लंबे, कुर्बानीपूर्ण सशस्त्र संघर्ष के बाद 1949 में पूर्ववर्ती शासकों से चीन
को मुक्त करा कर प्यूपिल्स रिपब्लिक आफ चाइना की स्थापना की। आज चीनी राज्य और सीपीसी
एक दूसरे के पर्याय बने हुये हैं। सीपीसी न केवल अपने जीवन के सौ साल पूरे कर चुकी
है अपितु आज वह विश्व की सबसे संगठित और बड़ी पार्टी है। इसीके नेत्रत्व में आज चीन
एक उल्लेखनीय आर्थिक शक्ति बन चुका है और आज महाशक्ति बनने की दहलीज पर खड़ा है।
माना जाता है कि सीपीसी समर्पित सदस्यों वाली जन
पार्टी है, जिसकी समाज में गहरी जड़ें हैं। आज सीपीसी की सदस्यता
9 करोड़ 20 लाख बतायी जाती है। इस तरह वह भारतीय जनता पार्टी के बाद दुनियां की
दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है। लेकिन इसकी सांगठानिक सुद्रड़ता और चीनी नागरिकों में इसकी
सदस्यता हासिल करने की ललक का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि 2014 में इसकी
सदस्यता पाने के इच्छुक 2 करोड़ 20 लाख लोगों में से केवल 20 लाख को ही सदस्यता मिल
सकी। समाज में सर्वाधिक गहराई से पैठ रखने वाली पार्टी है सीपीसी।
अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में चीन द्वारा लगायी
छलांग के बारे में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रकोश का कथन है कि 1980 से 2020 के बीच में
चीन की जीडीपी 80 गुना बड़ी है। आज अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर वह अमेरिका को पीछे
छोड़ने में लगा है। सीमा पर तमाम तनावों के बावजूद वह भारत का बड़ा व्यापारिक
साझेदार है। अर्थव्यवस्था के विकास को अवाम के विकास से जोड़ते हुये चीन ने 80 करोड़
लोगों को गरीबी की सीमा से उबारा है। यह संख्या मामूली नहीं है। यह कई बड़े देशों
की जनसंख्या के योग के बराबर है।
सीपीसी शताब्दी समारोह में चीन के राष्ट्रपति शी
जिनपिंग ने इस उपलबद्धि को देश के लोगों द्वारा बानयी गयी नयी दुनियां बताते हुये
उसकी सराहना की। “चीन के लोग न सिर्फ पुरानी दुनियां को बदलना जानते हैं बल्कि
उन्होने एक नयी दुनियां बनाई है,” जिनपिंग ने कहा।
चीन और वहां की शासक पार्टी का सोच है कि आपके पास
शक्ति तभी है जब आप आर्थिक रूप से सक्षम हैं। आज चीन एक बहुध्रुवीय दुनियां में
विकास कर रहा है, तदनुसार वह अपनी आंतरिक और बाह्य
नीतियों का निर्धारण करता रहा है। अतएव उसने सामरिक रूप से भी अपने को बेपनाह
मजबूत किया है। कहने को तो आज पूरे विश्व में अमेरिका एक सुपर पावर है, लेकिन चीन ने एक हद तक इस समीकरण को बदल दिया है।
अपनी वैश्विक आर्थिक और सामरिक घेराबंदी से सशंकित चीन
के राष्ट्रपति ने सीपीसी शताब्दी समारोह में कहा “हम किसी भी विदेशी ताकत को
अनुमति नहीं देंगे कि वह हमें आँख दिखाये, दबाये या हमें
अपने अधीन करने का प्रयास करे।“
इस अवधि में चीन के समाजवादी माडल को लेकर भी
प्रश्न खड़े होते रहे हैं। पर सीपीसी शताब्दी समारोह में शी जिनपिन ने द्रड़ता से
कहाकि सिर्फ समाजवाद ही देश को बचा सकता है। किसी सार्वजनिक मंच से समाजवाद के
प्रति स्पाष्ट द्रड़ता किसी शीर्षस्थ चीनी नेता ने अर्से बाद दिखायी है। 1921 में मार्क्सवादी
दर्शन को आदर्श मान कर गठित हुयी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी से ऐसी ही अपेक्षा की भी
जाती है।
चीन और सीपीसी की उपलब्धियों के इस विशाल भंडार के
बीच उसके सिर पर अंतर्विरोधों का गट्ठर भी कम नहीं हैं। अंतर्विरोध यदि अमेरिका और
उसके खीमे के देशों तक ही सीमित होते तो एक अलग बात होती। भारत जैसे पड़ोसी से सीमा
विवाद और सीमा पर तनाव पूरे महाद्वीप को निरन्तर झकझोरता रहता है। समाजवादी देश
वियतनाम के साथ भी कई अंतर्विरोध मुंह बायें खड़े हैं। हांगकांग में स्थापित व्यवस्था
को बदलने के उस पर आरोप हैं। उसने खुद ही स्पष्ट कर दिया है कि वह ताइवान, हांगकांग और मकाऊ को वापस मिलाना चाहता है। अन्य कई छोटे और पड़ोसी देशों
से उसके विश्वसनीय संबंध नहीं हैं। इस सब पर तो चीन को ही विचार करना है।
सोवियत संघ के विघटन के बाद लगा था कि चीन भी अब अपने
को शायद ही बचा पाये। लेकिन चीन इस धारणा के सामने अपवाद बन कर खड़ा होगया। आज वह विश्व
की एक आर्थिक और सामरिक ताकत है। किसी भी पड़ोसी से उसके अच्छे संबंध पारस्परिक लाभ
के हो सकते हैं। समय के साथ रिश्ते बदलते भी रहते हैं। अभी ज्यादा दिन नहीं हुये चीन
के राष्ट्रपति का हमने भव्य स्वागत किया। चीन और भारत दोनों को सीमा पर शांति के अनथक
प्रयास जारी रखने चाहिये। एक शांतिपूर्ण सह अस्तित्व कायम रखने के लिये दोनों ओर से
उच्च स्तरीय प्रयास किए जाने चाहिए। यही दोनों देशों और उसकी जनता के हित में है।
डा॰ गिरीश