शिक्षा बुन्यादी शै जरूर है, लेकिन शिक्षा के साथ तबीयत और उस तबीयत को वक्त की मांग और जमाने के तकाजे के साथ मुल्क व मुआशरत और इन्सानियत के हवाले से एक विज़न और फिर मिशन का रूप दे देना बिलकुल अलग और गैरमा’मूली बात है। रशीद जहाँ के साथ और भी लड़कियाँ रही होंगी, खुद उनकी बहनें, लेकिन उनमें कोई रशीद जहाँ न बन सकी। यहीं से अकेलेपन, नाफर्मांनी और सोची-समझी सरकशी व बगावत के सिलसिले शुरू होते हैं। आखिर क्या कारण है कि अभी वह अलीगढ़ में ही थीं और उनकी उम्र चैदह साल की ही थी कि वह बकाइदा मुल्क व कौम से दिलचस्पी लेने लगी और कौमी तहरीक से आकर्षित हुईं। गाँधीजी के करीब हुईं और बाकाइदा खद्दर पहना। इन सब चीजों को उस समय और रौशनी मिली जब 1923 में अलीगढ़ छोड़कर लखनऊ आयीं जहाँ उन्होंने इज़बेला थाबर्न काॅलेज में एडमिशन लिया ताकि वह डाॅक्टरी पढ़ सकें। लखनऊ के लगभग खुले माहौल में उन्हें अलग-अलग किस्म की किताबों पढ़ने का शौक हुआ जिसमें साहित्यिकता खास विषय था। इसी उम्र और इसी जमाने में उन्होंने अंग्रेजी में एक कहानी ‘सलमा’ लिखी जो बाद में उर्दू में भी छपी। 1923 में महज अठारह साल की उम्र और प्रगतिशील आन्दोलन के लगभग तेरह साल पहले लिखी गई कहानी में केवल औरत की लाचारी ही नहीं, बल्कि जागृति का एक पैगाम था। लखनऊ से निकल कर वह देहली आ गयीं, जहाँ वह 1924 से लेकर 1929 तक लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज की छात्रा रहीं। वह केवल डाॅक्टरी की शिक्षा नहीं हासिल कर रहीं थीं, बल्कि समाज के दूसरे पहलूओं पर भी नजर रखती थीं। हमीदा सईदुज़्ज़फर कहती हैं:
”उनका रूज्हान फ़ितरी तौर पर तिब के अमली और समाजी पहलुओं की ओर ज़्यादा था। वह एक मिसाल से वाज़ेह हो जायेगा। वह मेडिकल काॅलेज के चैथे साल की तालबा थीं कि एक नौजवान लड़की अस्पताल के ‘शोबए-अमराजे़-चश्म’ में दाखिल हुई। दरअस्ल उसकी आँखों में कोई ख़राबी नहीं थी, लेकिन उसने अपनी आँखों में कुछ ऐसी चीज़ें डाल ली थीं कि जिनके सबब उसे अस्पताल में दाखिल कर लिया गया था। जल्द ही वह अच्छी हो गयी, लेकिन उसने अस्पताल छोड़ने से इन्कार कर दिया। जब उसे मज्बूर किया गया, तो वह रशीदा के पास आयी और उनसे बताया कि वह किसी तरह घर से भाग कर आयी है और बाप उसे परेशान करता रहता है। अतः उसने तै कर लिया है कि वह अब यहाँ से कहीं और चली जायेगी। उसकी दर्दनाक कहानी सुनकर रशीद इतना मुतस्सिर हुईं कि फ़ौरन ही शाम की गाड़ी में उसे लेकर अलीगढ़ चली आयीं। यहाँ आला बी ने उसे अपनी निगरानी में रखा, यहाँ तक कि वह अपने पैरों पर खड़ी होने के क़ाबिल हो गयी।“
एम.बी.बी.एस. करने के बाद उन्हें जल्द ही सरकारी नौकरी मिल गयी और वह कानपुर, बुलन्दशहर होते हुए लखनऊ में तैनात हुईं। सज्जाद ज़हीर उन दिनों शिक्षा प्राप्ति के लिए लन्दन में रहते थे और छुट्टियों में लखनऊ आये हुए थे, अतः यहीं रशीद जहाँ की मुलाकात सज्जाद ज़हीर, सईदुज़्ज़फ़र, अहमद अली आदि से हुई। यह मुलाकात ‘अंगारे’ के संस्करण और उसके बाद के हादिसात महज इत्तिफाकात न थे, बल्कि इन सब के पीछे नौजवानों के जेहन में परवरिश पाए हुए वे ख्यालात थे जो बचपन से ही उन्हें इन्सानियत के लिए बेचैन किये हुए थे। रशीद जहाँ का यूँ इतनी जल्दी और निडरपन के साथ ‘अंगारे’ के ग्रुप में शामिल हो जाना और दो अहम लेखन के जरिए उसकी छपाई में शामिल होना सब कुछ अपने आप न था, बल्कि इसके पीछे खुद रशीद जहाँ की अपनी व्यक्तिगत सोच व फ्रिक्र, रूज्हान व तबींयत काम कर रही थी। इन दोस्तों से मुलाकात ने उसे और ज्यादा बढ़ावा दिया और वह निडर होकर इस आग में कूद पड़ीं। ‘अंगारे’ के साथ जो हादिसा हुआ और उसकी जो प्रतिक्रिया हुई, उसकी भी अपनी एक तारीख है। लेकिन उसका एक दिलचस्प और अर्थपूर्ण पहलू यह भी है कि सज्जाद ज़हीर, अहमद अली की कहानियों के मुकाबले रशीद जहाँ की कहानियों की धार उतनी तेज न थी, जितनी कि उन्हें कठिनाई पहुँचाने की कोशिश की गई। रशीद जहाँ अँगारे-वाली के खिलाफ फतवे, फैसले और जान से मार डालने की धमकी आदि-आदि।
जाहिर है, इसके पीछे कमजोर व नासमझ लोगों की खराब भावना तो काम कर ही रही थी, सदियों के मर्दाना समाज की झूठी शान व शौकत काम कर रही थी और खोखली सामुदायिक संस्कृति का चुरमुराता हुआ निज़ाम भी हिचकियाँ ले रहा था। रशीद जहाँ शुरू से ही इन पहलुओं पर गौर करती आयी थीं। अच्छी शिक्षा, संस्कार और खुद उन की तबीयत ने उन्हें बेबाक और निडर बना दिया था। अतः वह इस हादिसे से बिल्कुल न डरीं। बेख़ौफ़ होकर घूमती रहीं। हाजरा बेगम लिखती हैं:
”‘अंगारे’ शाए करते समय खुद सज्जाद ज़हीर को अन्दाजा नहीं था कि वह एक नई अदबी राह का संगेमील बन जायेगा। वह ख़ुद तो लन्दन चले गये, लेकिन यहाँ तहलका मच गया। पढ़ने वालों की मुखालफत इस कदम बढ़ी कि मस्जिदों में रशीद जहाँ-अँगारे वाली के खिलाफ वाज़ होने लगे..... फतवे दिये जाने लगे और ‘अंगारे’ जब्त हो गयी। उस वक्त तो वाकिई ‘अंगारे’ ने आग सुलगा दी थी।“
‘अंगारे की छपाई और हँगामा महज़ एक समाजी हादिसा न था। हाजरा बेगम का कहना है:
”आज ‘अंगारे’ पढ़ कर इस तरह ताज्जुब होता है जैसे डी.एच.लाॅरेन्स की किताब ‘वेल आॅफ लवलीनेस’ को पढ़ कर कि किताब ने क़यामत बरपा कर दी थी।“
आखिर कोई बात तो थी कि एक तरफ ‘अंगारे’ के खिलाफ आग सुलग रही थी, तो दूसरी ओर बाबाए-उर्दू मौलवी अब्दुल ह़क उस पर प्रशंसनीय टिप्पणी कर रहे थे। मुंशी दयानारायण निगम ने भी ‘जमाना’ में प्रशंसनीय टिप्पणी की:
”चार नौजवान मुसन्निफों ने, जिनमें एक लेडी डाॅक्टर भी हैं, ‘अंगारे’ नाम से अपने दस किस्सों को किताबी सूरत में शाए किया। इनमें मौजूदा जमाने की रियाकारियों पर रौशनी डालने, मुरव्विजा रस्म व रिवाज की अन्दरूनी खराबियों को बेनकाब करने की कोशिश की गई थी। हमारे नाम-निहाद आला तबके की रोजमर्रा मआशरत के नकायस का मज़ह़का उड़ाया गया था। गो इस मज्मुए का तर्जेबयान अक्सर मकामात पर सूकयाना था, जो मजाक़े-सलीम को खटकता था, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि नौजवाने-आलम ने दुन्या में जो अलमे-बगावत बलन्द कर रखा है, उसी का एक अदना करिश्मा इस किताब की इशारा है।“
‘अंगारे के विरोध में जितना लिखा गया, इसके पक्ष में बहुत कम, लेकिन इसके बावजूद ये कहानियाँ बड़ा काम कर गयीं और उर्दू कहानी के इतिहास में मील का पत्थर बन गयीं।
‘अंगारे’ के पब्लिशर सज्जाद जहीर थे, जिन्होंने कहा था- ‘समाजी रज्अत परस्ती और दकियानूसियत के खिलाफ गुस्सा और हैजान का बेबाकाना इज़्हार था।’ अहमद अली ने भी अगस्त 1934 के ‘साकी’ में एक लेख लिखा था:
”कुछ अर्सा हुआ जब चन्द लोगों ने उर्दू की ज़िन्दगी में शायद पहली मर्तबा सही मज़्मून में ओरिजिनल अफ़साने लिखकर अपने मुल्क की मौजूदा दिमागी, रोेमानी, मुआशरती और अख़्लाक़ी जिन्दगी की असलियत को पेश किया, तो लोगों ने वो हाय-तौबा मचाई कि कुछ अर्सा तक कान पड़ी आवाज तक सुनाई न देती थी, क्योंकि लोगों के कान, आँखें और दिमाग झूठ के आदी हो चुके थे। वे हकीकत की इस इस तेज रौशनी को बरदाश्त न कर सके जो आँखों को चकाचैंध कर देती और दिमाग को हिला देती है।“
प्रोफेसर कमर रईस ने बड़े अच्छे अन्दाज में कहा है:
”यह नई नस्ल ज्यादा सरकश, बेबाक और खुद आगाह थी, मार्क्सिज्म या इश्तेराकियत ने इसे इन्सानी समाज और उसके मसाइल के इदराक व शुऊर की जो सलाहियत दी थी, उसकी बुन्याद साइंसी और अक़्ली तरीके़कार पर थी। हरचन्द कि यह बसीरत जो अभी अपने बिल्कुल इब्तिदाई मर्हले में थी, नौजवानों के जोश में दबी हुई थी। ताहम वे एक रौशन और वाज़ेह शुऊर की तरफ बढ़ रहे थे।“
इन तहरीरों की रौशनी में ‘अँगारे’ की इशाअत और उसकी ऐतिहासिक व साहित्यिक अहमियत का अन्दाजा हो जाता है। जैसा कि कहा गया कि इन तहरीरों की गाज सबसे ज्यादा रशीद जहाँ पर गिरी, लेकिन वह निडर औरत थीं। इन धमकियों और विरोध ने उनकी हिम्मत, फिक्र व नजर को और ज्यादा मजबूती व बढ़ावा दिया और वह अपनी तमाम मसरूफ़ियत के बावजूद अफ़साने लिखती रहीं और इस तरह उनका पहला संग्रह ‘औरत’ 1937 में लाहौर से निकला। लेकिन इससे पहले भी बहुत कुछ हो गया। ‘अंगारे’ के नफरत भरे हंगामों के बीच मुहब्बत का फूल खिला रशीद जहाँ और महमूदुज़्ज़फ़र एक दूसरे के करीब आये और 1934 में शादी कर ली।
‘औरत’ संग्रह में इनकी एक कहानी ‘सौदा’ है जो बेबाक और खतरनाक कहानी है। एक जगह पर इस तरह के वाक्य आते हैं:
”जान! यहाँ बुर्का उतार दो - यहाँ कौन बैठा है?“ उन मर्दों में से एक ने कहा, ”क्यूं प्यारी, एक बोसा दोगी?“ की सख्त आवाज एक अर्सा के बाद मेरे कानों में आयी, ”ए हे हम आये काहे को हैं - तुम लोगे तो हम देंगे।“ एक बुर्कापोश ने जिसकी आवाज बिल्कुल बेहिस और मुर्दा थी, जवाब दिया।
इन वाक्यों से उन औरतों को जिन्हें आज की ज़बान में सेक्स वर्कर कहा जाता है, की तस्वीर सामने आती है। यहां पर उनकी आवाज की बेहिसी और मुर्दनी बड़ी अर्थपूर्ण है और साथ ही बुर्का को लाकर पर्दा की जिस खास सभ्यता का मजाक उड़ाया गया है, उसकी तरफ नंगा इशारा है। और कहानी ज्यादा समझ में भी आती है। इस दौर तक रशीद जहाँ ने इश्तेराकियत को पढ़ जरूर लिया था, लेकिन अनुभव फिर भी सीमित था। हाजरा बेगम ने लिखा है कि वह मजदूर को एक मरीज की हैसियत से ज्यादा जानती थीं, साथ लड़ने वाले दोस्त की तरह नहीं। मार्क्सिज्म की थ्योरी को उन्होंने जरूर पढ़ा था, लेकिन उनको अमलीजामा पहनाने का उन्हें मौका नहीं मिला था। शायद इसीलिये उनकी शुरू की कहानियों में कुछ कमी का एहसास होता है। इस कहानी की नंगी वार्ता इसका उदाहरण है। लेकिन इनकी बाद की कहानियों में इस कमी का एहसास रूख्सत होता जाता है और एक खास किस्म की दार्शनिक मजबूती ही नहीं, फ़न्नी चाबुकदस्ती और दृढ़ किरदारसाजी नजर आने लगती है। ये सब यूं ही नहीं होता, जल्द ही फिक्र व अमल की वह मंजिल आती है, जब वह दोबारा सज्जाद जहीर और उनके दोस्तों से मिलती हैं और बाकाइदा प्रगतिशील आन्दोलन की बुन्याद रखने में बड़ा और अहम रोल अदा करती हैं।
सज्जाद जहीर शिक्षा पूरी करके इलाहाबाद वापस आ चुके थे, लेकिन इससे पहले लन्दन में ही प्रगतिशील लेखक संघ की बुन्याद डाल चुके थे और इसका मेनीफे़स्टो हिन्दुस्तान में अपने खास दोस्तों को भेज चुके थे। महमूदुज़्ज़फ़र और रशीद जहाँ उनके खास दोस्तों में थे। इलाहाबाद में वह फिराक गोरखपुरी और एजाज़ हुसैन से मिले, मेनीफेस्टो पर बात की और संघ का इरादा जाहिर किया। उन्हीं दिनों इलाहाबाद में हिन्दुस्तानी एकेडमी ने हिन्दी, उर्दू भाषाओं की एक कांग्रेस बुलाई जिसमें प्रेमचन्द, जोश, अब्दुल हक, दयानारायण निगम, रशीद जहाँ आदि इलाहाबाद आये, सज्जाद जहीर लिखते हैं:
”रशीद जहाँ अमृतसर से आयी थीं। हम चाहते थे कि इस इज्तिमा के मौके पर अदीबों से हमारी गुफ्तगू और बहसें हो और इनमें वह भी शरीक हों ताकि पंजाब जाकर वह वहाँ के अदीबों से हमारा राबिता काइम कर सकें। अब मुझे याद नहीं कि हम यानी रशीद जहाँ, अहमद अली, फिराक और मैं इस कान्फ्रेंस में आने वाले अदीबों में से किन-किन से मिले और उनसे क्या-क्या बातें हुईं? लेकिन मुंशी प्रेमचन्द से पहली मुलाकात मेरे दिल पर नक़्श है।
रशीद जहाँ जो सही तौर पर हिन्दुस्तानी एकेडमी की मेहमान थीं, इलाहाबाद पहुंच कर संघ के सम्बन्ध में मेज़बान बन गयीं। इस पूरे किस्से का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि अंग्रेजी साहित्य के मर्द उस्ताद अहमद अली ‘अँगारे’ के हंगामे से घबरा कर एकान्त की जिन्दगी बसर कर रहे थे और औरत रशीद जहाँ जो ‘अँगारे’ के हादिसे का सबसे ज्यादा शिकार हुईं, वह बेखौफ व निडर होकर आजादी से आन्दोलन व संघ के मुआमलात में पेश-पेश थीं। इलाहाबाद से ससज्जाद जहीर के घर पर मीटिंग में उनका अहम रोल था, खास तौर से मौलवी अब्दुल हक को बुलाने में उन्हीं का हाथ था। और मौलवी साहब मेनीफेस्टो पर हस्ताक्षर करने वाले पहले व्यक्ति थे और इन्होंने एक बड़े काम का उपदेश भी दिया था - ‘ऐलान शाए’ करने, अन्जुमन बनाने और जल्से करने से ज्यादा जरूरी है कि हम उस अदब की तख्लीक के लिये मेहनत करें जो हमारे नजदीक सही और जरूरी है।’ प्रेमचन्द, जोश और अब्दुल हक के हस्ताक्षर ने पूरे हिन्दुस्तान के अदीबों को संघ के बारे में सोचने को मजबूर कर दिया। हालात ही कुछ ऐसे थे। वक्त का मिजाज और तेवर भी संघ के हक और पक्ष में था।
जनवरी 1936 में सज्जाद जहीर पंजाब गये तो रशीद जहाँ और मजमूदुज़्ज़फ़र के मेहमान हुए और वहाँ के साहित्यकारों व शाइरों से मुलाकातें कीं। उन मुलाकातों में सब से दिलचस्प मुलाकात फै़ज़ से थी, अतः मुलाकात हुई। खामोश, शर्मीले फैज उन दिनों इस इश्क में मुब्तला थे और इश्किया शाइरी में शराबोर थे। एक दिन रशीद जहाँ ने डांटते हुए कहा, ‘यह क्या मामूली से इश्क में मुब्तला हो, इन्सानों से प्यार करो।’ यह कह कर उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी का मेनीफेस्टो और माक्र्स की किताब थमा दी। फैज ने जब उसे पढ़ा तो फैज का कहना है:
”यह किताब मैंने पढ़ी, बल्कि दो, तीन बार पढ़ी। इन्सान और फितरत, मर्द और मुआशरा, मुआशरा और तबकात, तबके और जराए-पैदावार की किस्म, जराए-पैदावार और पैदावारी रिश्ते, पैदावारी रिश्ते और मुआशरे का इर्तिका, इन्सानों की दुन्या के पेच-दर-पेच और तह-दर-तह रिश्ते-नाते, कद्रें, अकीदे, फिक्र व अमल वगैरह-वगैरह के बारे में यूं महसूस हुआ कि किसी ने इस पुरे खज़ीनए-असरार की कुंजी थमा दी। यूं सोशलिज्म और मार्कसिज्म से अपनी दिलचस्पी की शुरूआत हुई। फिर लेनिन की किताबें पढ़ीं - ये सब कुछ पढ़ कर, सुन कर हमने उस दूसरी तस्वीर में रंग भरने शुरू किये। एक आजाद, गैर तबकाती मुआशरे की तस्वीर - जहाँ कोई सरमायादार नहीं, कोई जागीरदार नहीं और कोई जमींदार नहीं। न कोई आका है, न कोई बन्दा, न कोई तलासे-मआश में सरगर्दा, न फिक्रे-फर्दा में गिरिफ्तार, जहाँ मजदूर, किसान राज करते हैं और हर मुआमला उनकी मर्जी से तय पाता है।“
फैज जो बाद में प्रगतिशील आन्दोलन के सबसे बड़े और प्रसिद्ध शाइर बन कर उभरे, उनको प्रगतिशील फिक्र और आन्दोलन की ओर आकर्षित करने का सेहरा रशीद जहाँ के सर जाता है। बाद में फैज, सज्जाद जहीर, महमूदुज़्ज़फ़र और रशीद जहाँ लाहौर भी गये और वहां के अदीबों, शाइरों से मिले और देखते-देखते उन नौजवानों की गैर मामूली कोशिशों से पंजाब प्रगतिशील अदीबों व शाइरों का बहुत बड़ा केन्द्र बन गया। ‘रौशनाई’ में सज्जाद जहीर लिखते हैं:
”हम खुश और मुत्मईन थे, रशीद फैज को छेड़ रहीं थीं। अब यह हज़रत भी किसी कदर पिघले और बोलने-चालने पर रजामन्द से मालूम हो रहे थे। लेकिन हम में से किसी को यह वहम व गुमान भी नहीं था कि लाहौर की अदब-परवर जमीन पर यह वह पहला लगजीदा कदम है जो बाद को उर्दू अदब के सुनहरे खोशों का अम्बार लगा देगा। चन्द साल के अन्दर-अन्दर यहीं से कृष्णनदर, फैज, बेदी, नदीम कासिमी, मिर्जा अदीब, जहीर काश्मीरी, साहिर लुधियानवी, इब्ने-अन्शा, मख्मूर जालन्धरी, आरिफ अब्दुल मतीन, रहबर, अश्क वगैरह जैसे शाइरों और अदीबों ने तरक्कीपसन्द अदब के अलम को इतना ऊँचा किया कि उसकी दरखशाँ बुलन्दियाँ हमारे वतन के दूसरे हिस्सों के अदीबों के लिए काबिले-रश्क बन गयीं।“
यह सही है कि यह संघ उस समय बना, जब इसकी आवश्यकता थी, लेकिन यह भी सही है कि अगर इन कुछ नौजवानों ने, जिनमें रशीद जहाँ भी थीं, गैर मामूली मेहनत और कमिटमेंट का सुबूत न दिया होता, तो यह पौधा आसानी से बर्ग व बार नहीं ला सकता था। रशीद जहाँ और मजमूदुज़्ज़फ़र के लिये सज्जाद जहीर लिखते हैं:
इन दोनों ने अपनी जिन्दगी का मक़्सद जैसे अपनी ज़ात को भुला कर इन्सानियत को बना लिया था जिसे फारिगुलबाली या खानगी इत्मीनान कहते हैं। वे उनकी किस्मत में नहीं थे। आयंदा जो जमाना आने वाला था, वह महमूद के लिये कैद व बन्द, मेहनत व मशक्कत और कौमी कामों के सिलसिले में फिक्र व तदद्दुद का जमाना था। रशीदा के लिये तवील तनहाइयों, माली मुश्किलात और जिस्मानी कुल्फत का। मगर वह अमृतसर हो या देहरादून या लखनऊ जब भी उनके घर जाओ, तो महसूस होता था कि खुशी वहाँ तैर रही है। ऐसी खुशी जो दो दिलों के मेल और दो दिमागों की हम आहंगी से शफ़्फ़ाफ ठंडे पानी के चश्मे की तरह फूट निकलती है और जो दूसरे अफसुर्दा या गमगीन रूहों को भी सैराब करके उनमें तरन्नुम और बालीदगी पैदा कर देती है।
इन तमाम दिक्कतों और कैफीयतों के बावजूद रशीद जहाँ ने लखनऊ की पहली और ऐतिहासिक कांफ्रेंस के एहतिमाम में बड़ा रोल अदा किया। कान्फ्रेंस का एहतिमाम अपने आप में मुश्किल और पेचीदा काम होता है। और उस समय जब मुल्क व समाज अलग-अलग धारों और गलतफहमियों में घिरे हों, तहरीके-आजादी जोर-शोर से आगे तो बढ़ रही थी, लेकिन नाॅन काॅपरेशन और खिलाफत की तहरीकें, दहशतपसन्द नौजवानों की इंकिलाबी तहरीक, हिन्दू व मुस्लिम फ़सादात ने फ़जा में जहर और अंग्रेजी हुकूमत को मजबूत कर रखा था। ऐसे में किसी नई तहरीक का काइम होना बेहद मुश्किल काम था। उर्दू अदब में यूं भी एक ख्याल आम था कि शाइर को तो बस शाइरी करना चाहिये, सियासत, जलसे, जुलूस आदि से दूर रहना चाहिये। सज्जाद जहीर ने लिखा है:
शुरू-शुरू में तो प्रेमचन्द का यही खयाल था और गालिबन मौलवी अब्दुल हक साहब भी यूँ ही सोचते थे, लेकिन हालात और वाकिआत ने हमें इन ख्यालात में तरमीम करने पर मजबूर किया। 1935 से ’36 के करीब का जमाना हमारे मुल्क के नौजवान दानिश्वरों के लिये बहुत बड़ी जेहनी छान-बीन, खोज, तब्दीलियों और जिन्दगी की नई राहों के दरयाफ्त करने का ज़माना था।
इन हालात में न सिर्फ कांफ्रेंस करना और प्रेमचन्द को अध्यक्षता के लिए तैयार करना, कई भाषाओं के बड़े-बड़े अदीबों का सम्मिलित होना अपने आप में गैर मामूली बात तो थी ही - एक इतिहास लिखा जा रहा था और इस इतिहास को लिखे जाने में रशीद जहाँ का कलम और कदम दोनों काम कर रहे थे। वह लखनऊ गयीं। हाजरा बेगम के साथ मिलकर टिकट बेचती रहीं। चैधरी मुहम्मद रूदौलवी को अध्यक्ष, स्वागत कमेटी बनने पर इन्होंने ही मजबूर किया। एक सेवक की तरह वह कांफ्रेंस के इंतिजाम देखती रहीं। कांफ्रेंस कामयाब हुई और खूब कामयाब हुई। प्रेमचन्द का खुलबा, प्रेमचन्द की नजदीकी, प्रेमचन्द का व्यक्तित्व - इन सबने नौजवानों और खासकर रशीद जहाँ को बेहद आकर्षित किया। कांफ्रेंस के बाद वह उनसे बहुत करीब और बेतकल्लुफ हो गयीं। प्रेमचन्द की मौत से उन पर गहरा असर हुआ। उन्होंने एक उम्दा लेख भी लिखा, जिसमें एक जगह लिखती हैं:
मुझे मुंशी प्रेमचन्द से मिलने का शौक था। बचपन से उनके नाम से वाकफियत थी। प्रेमचन्द इतना बड़ा मुसन्निफ, हमारी कांफ्रेंस का सद्र, हमारी खुशी की कोई इन्तिहा न थी। प्रेमचन्द के आर्ट में एक बेमिसाल चीज - जमाने की तब्दीलियों का असर था। बूढ़ी काकी, सुब्हे-अकबर, बाजारे-हुस्न लिखने का एक वक्त था। जमाना बदला। कांग्रेस आयी। पोलिटिकल जिद्दोजहद और कशमकश के जो नक्शे प्रेमचन्द के यहाँ मिलते हैं, वोह किसी के यहाँ नहीं। आजकल के जवानों में पिछले दस साल के जवानों से फर्क है। उसी तरह अगर आज प्रेमचन्द होते, तो उनके अफसाने भी जमाने के साथ बदलते रहते - हम लोग उनकी मौत से इतने गमगीन हैं, तो उनके देरीना इल्मी और शख्सी दोस्तों और अजीजों के गम का अन्दाजा लगाना मुश्किल है। एक बड़ा और अच्छा मुसन्निफ मर गया। ताजवाब और बेमिसाल शख्सियत भी मुसन्निफ के साथ चली गयी।
कांफ्रेंस के बाद वह देहरादून चली गयीं, जहां वह अदीब कम, सियासी कारकुन ज्यादा बन गयीं। उनकी जिन्दगी कई भागों में बंटी थी। अदीब, डाॅक्टर और सियासी कारकुन। समाजी और अमली काम तो किये ही। लखनऊ में रहने के दौरान उन्होंने अफसाने और ड्रामे भी लिखे। यह जमाना उनकी रचनाओं की ऊँचाई का जमाना था।
इसी जमाने में उन्होंने चोर, वह, आसिफजहाँ की बहू, छिद्दा की माँ, इफ्तारी, मुजरिम कौन, मर्द औरत, सिफर जैसी उम्दा कहानियां लिखीं और कुछ बहुत अच्छे ड्रामे। अब इन कहानियों में पहले वाली जज्बातियत व जानिबदारियत न थी, बल्कि मजबूती व ताजगी थी और हकीकत भी। ‘सौदा’ जैसी शुरू की कहानियों में नकाब पहने मर्दो के बीच घिरी औरत अब गहरे समाजी शुऊर के हवाले से ‘वह’ का रूप ले चुकी थी। और ड्रामा ‘औरत’ की हिरोइन तो अपने मौलवी शौहर से तेवर के साथ कहती है - ”जरा संभल कर मैं कहती हूं, बैठ जाओ, अगर अपनी इज्जत की खैर चाहते हो, अगर इस बार तुमने हाथ उठाया तो मैं जिम्मेदार नहीं।“ इन कहानियों और ड्रामों को पढ़िये, तो एकतरफा गम व गुस्सा या एहतिजाज नहीं उभरता, बल्कि पूरे समाजी निज़ाम के हवाले से मर्द और औरत के रिश्ते, अमीर और गरीब के बीच की दीवार, भूख-प्यास और जिन्दगी की वह कद्रें जहाँ इंसानियत दम तोड़ रही थी, तभी तो कहानी ‘इफतारी’ में नसीमा का नन्हा बच्चा असलम उससे पूछता है:
”माँ दोज़ख़ क्या होती है?“
”दोजख-! दोजख, वह तुम्हारे सामने ही तो है।“
”कहाँ-?“
”वह नीचे, जहां अन्धा फकीर खड़ा है। जहां वह जुलाहे रहते हैं और जहां वह अंग्रेज रहता है और लोहार भी“
दोजख की आग दरअस्ल भूख की आग है।
ड्रामा ‘काँटे वाला’ के यह डायलाॅग देखिये:
”सांस लेना बगावत है, तो मैं पूछता हूँ, फिर मौत क्या है? यह सब भूख को दबाने के बहाने हैं, लेकिन भूख दबती नहीं, गला दबाने से चीख बन्द नहीं हो जाती, बल्कि और दुगुनी हो जाती है। भूखे की चीख, मरते हुए की चीख - जिंदा आदमियों से ज्यादा भयानक है।“
अब उनकी कहानियों और ड्रामें मेें खराबिये-निज़ाम को बदलने और एक नये अवामी निजाम को बनाने की इच्छा दिखाई देती है। कहानी ‘सिफर’ (जिसके केन्द्रीय पात्र के बारे में यह ख्याल आम है कि वह सज्जाद जहीर का किरदार है) में इस फल्सफे को बड़े सलीके से कहानी की सूरत में पेश किया है। बेचैनी, संघर्ष, भूख-प्यास, खराबी, नाबराबरी, गम व गुस्सा, इश्क व मुहब्बत, किन्तु जीवन का कोई भी तरीका व फल्सफा रशीद जहाँ की कहानियों में बड़ी सादगी और आम बोलचाल की जबान से उभर कर आकर्षक और अर्थपूर्ण अन्दाज में पढ़ने वाले के दिल में जगह बना लेना है। ‘चोर’, ‘वह’ ऐसी कहानियां हैं, जिनके केन्द्रीय पात्र मुद्दतों दिमाग से सवार रहते हैं।
रशीद जहाँ ने कहानियां कम ही लिखीं, लेकिन इन कम कहानियों में भी विषय, पात्र, भाषा की रंगारंगी, फैलाव, संजीदगी और गहराई के खूब-खूब नमूने देखने को मिलते हैं। फिक्र व खयाल, कल्पना व ध्यान के दिलचस्प करिश्मे, समझने और समझाने के अर्थपूर्ण तज्रबे, इंसानी जिन्दगी के बिगड़े हुए और गन्दे चेहरे, बदलते रिश्ते, बदलते हुए मर्द और औरत दिखाई देते हुए मिलेंगे। और जहाँ ऐसा नहीं है, वहाँ किसी किस्म की सड़ांध काम कर रही है, इस हकीकत से भरी तस्वीरें दिखाई देती नजर आयेंगी। जिन पर रशीद जहाँ का साइंसी ज्ञान, दृष्टिकोण और उनके व्यक्तित्व की खास जुर्रत का एक दिलकश रंग व रोगन चढ़ा हुआ नजर आयेगा।
यह एक सच्चाई है कि रशीद जहाँ औरत थीं और इनकी कहानियों का केन्द्र बिन्दु भी औरत ही है, लेकिन इस सिलसिले में उनका बड़ा कारनामा यह है कि उन्होंने सबसे पहले अपने आप को पुराने किस्म की औरतों की लाइन से अपने आप को अलग किया, हद यह है कि अपने से सीनियर औरत-कहानीकारों की लाइन में खड़ा रहना भी पसन्द नहीं किया, क्योंकि उनकी तान अधिकतर औरत की जायज और नाजायज हिमायत और उनकी गैर मामूली बेगुनाही और बेबसी पर टूटती है, जहां औरत सिर्फ बेगुनाह और बेकुसूर है। लेकिन रशीद जहाँ ने सबसे पहले अपनी आँखों से बेकार की हिमायत का पर्दा हटाया और हकीकत की ऐनक लगाई और पूरी ईमानदारी और सच्चाई से उनको देखा, परखा और पूरे इंसाफ और एतिदाल के साथ उन पर कदम उठाया। सिर्फ उनके पक्ष में ही नहीं, बल्कि उनके विरोध में भी। प्रोफेसर कमर रईसा का ख्याल है कि -
तरक्कीपसंद अदीबों में प्रेमचन्द के बाद रशीद जहाँ तन्हा थी, जिन्होंने उर्दू अफसानों में समाजी और इंकिलाबी हकीकत निगारी की रवायत को मुस्तहकम बनाने की सई की।
उर्दू में पहली बार एक इंकिलाबी और साइंसी जेहन रखने वाली खातून ने जिन्दगी को उस तारीखी और मादूदी अवामिल के तनाजुर में देखा, इसलिये उनकी नजर उन पहलुओं पर गई जिन पर न सिर्फ मर्द, बल्कि खातून अफसानानिगारों की रसाई भी नहीं हो सकती थी।
इतनी कम मुद्दत में रशीद जहाँ का यह जेहनी व फितरी विकास मार्कसिज्म के पढ़ने और प्रगतिशील आन्दोलन से जुड़ाव से ही मुमकिन था। उन्होंने कम लिखा, लेकिन ऐसा लिखा कि आने वाली नस्ल या खासकर औरतों की नस्ल गैर मामूली तौर पर आकर्षित हुई। ऐसे निडर और यादगार कारनामों के कारण वह औरतों की शिक्षा और आजादी का चिन्ह बन गयीं। हाजरा बेगम लिखती हैं:
रशीद जहाँ का कारनामा यह है कि उन्होंने अपनी चन्द कहानियों से अपने बाद लिखने वाली बीसियों लड़कियों और औरतों के दिमागों को मुतास्सिर किया। इस्मत चुग़ताई, रज़िया सज्जाद जहीर, सिद्दीका बेगम और न जाने कितनी मुसन्निफा थीं, जिन्होंने रशीद जहाँ के अफसानों, रशीद जहाँ की जिन्दगी और मसहूरकुन शख्सियत को मशाले-राह समझा और अपनी तहरीर से उर्दू अदब को नई बुलन्दियों पर पहुँचाया।
इस्मत चुगताई के वाक्यों को भी पढ़िये:
गौर से अपनी कहानियों के बारे में सोचती हूँ, तो मालूम होता है कि मैंने सिर्फ उनकी (रशीद जहाँ) बेबाकी और साफगोई को गिरिफ्त में लिया है। उनकी भरपूर समाजी शख्सियत मेरे काबू न आयी, मुझे रेाती-बिसूरती, हराम के बच्चे जनती, मातम करती हुई निस्वानियत से हमेशा नफरत थी। खामखाह की वफा और जुमला खूबियाँ जो मशरिकी औरत का जेवर समझी जाती थीं, मुझे लानत मालूम होती हैं। जज्बातियत से मुझे हमेशा कोफ्त रही है। इश्क में महबूब की जान को लागू हो जाना, खुदकुशी करना और बावेला करना मेरे मजहब में जायज नहीं, यह सब मैंने रशीदा आपा सिखा है। और मुझे यकीन है कि रशीदा आपा जैसी लड़कियाँ सौ लड़कियों पर भारी पड़ सकती हैं।
सच यह है कि अगर रशीद जहाँ न होती, तो प्रगतिशील आन्दोलन की आधी दुन्या अधूरी रह जाती और एक बड़ा इंसानी गोशा अंधेरे में रह जाता। रशीद जहाँ ने अपने छोटे-से कारनामों से सही, उस अंधेरे गोशों को रौशन किया। आज अफसानवी अदब के आस्मान पर ज़किया मुशहदी, निगार अजीम, तरन्नुम रियाज, सर्वत खान, गजाल जैगम जैसी कहानीकार औरतें जगमगा रही हैं। कहीं न कहीं इन सब पर रशीद जहाँ का एहसास और एहसान है। आज जो निसाइयत अर्थात औरतपन और स्त्री संघर्ष का जो आन्दोलन सर उठा रहा है, उसमें भी रशीद जहाँ का खून-पसीना काम कर रहा है।
(प्रो. अली अहमद फ़ातमी)
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