भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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गुरुवार, 20 मई 2010

सरकारी सेवाओं का निजीकरण जनविरोधी

निजीकरण की राह पर चल रही उत्तर प्रदेश सरकार संभवतः आम जनता के हितों को भूल चुकी है। आगरा में बिजली व्यवस्था के निजीकरण से उसने कोई सबक नहीं लिया और अब प्रदेश की गरीब जनता की जीवन रक्षा का सहारा बनी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण की ठान ली है। पहले चरण में 4 जिला अस्पतालों, 8 उपजिला स्तरीय अस्पतालों, 8 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों, 23 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों तथा 21 0 स्वास्थ्य केन्द्रों के निजीकरण की योजना बनाई गई है।इतना ही नहीं राज्य के स्वास्थ्य महानिदेशालय ने जिला अस्पतालों के मुख्य चिकित्साधिकारियों द्वारा दवाओं तथा पेथौलोजी के लिये जरूरी कैमिकल आदि की खरीद पर रोक लगायी हैंयह दोनों ही कदम प्रदेश की आम जनता खासकर गरीब लोगों पर बड़ा कुठाराघात हैं। प्रायवेट अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवायें बेहद महंगी हैं। पहले महंगी फीस, फिर महंगी जांच और उसके बाद महंगी दवायें गरीब आदमी का तो दिवाला ही निकाल देती हैं। यदि मरीज भर्ती कराया जाये तो बेड या कमरे का चार्ज इतना ज्यादा है कि उससे रक्षा केवल राम ही कर सकते हैं।यद्यपि भ्रष्टाचार के इस युग में सरकारी अस्पताल भी दूध के धुले नहीं हैं फिर भी वहां आज भी स्वास्थ्य परीक्षण, पेथोलोजी, भर्ती फीस बेहद सस्ती है और दवायें भी अधिकतर मुफ्त उपलब्ध हैं। लेेकिन राज्य सरकार को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। वह तो पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने में जुटी है और पी।पी.पी. माडल के बहाने निजीकरण करने पर आमादा है।सरकार यह भूल गई है कि उत्तर प्रदेश गरीबी के मामले में नीचे से चौथे पायदान पर है। यहां 60 फीसदी जनता दो जून रोटी के लिये तड़पती है। वहां इन अस्पतालों का निजीकरण उसके इलाज के सारे रास्ते बन्द कर देगा। अब तक उपलब्ध स्वास्थ्य सेवायें भी उसके लिये बन्द हो जायेंगी। केवल धनी लोग ही इलाज करा सकेंगे।सरकार के पी.पी.पी माडल की कलई तो पहले ही खुल चुकी है यह स्पष्ट हो चुका है कि यह जनता के अर्जित संसाधनों को निहित आर्थिक स्वार्थों के चलते पूंजीपतियों को मुहैय्या कराना है। इस मामले में भी इसकी कलई खुल गई है। जनता को स्वास्थ्य सेवायें प्रदान करने को बनाई कंपनी में निजी क्षेत्र की भागीदारी 89 प्रतिशत होगी जबकि 11 प्रतिशत बेहद मामूली स्वास्थ्य सेवायें ही राज्य सरकार के पास बची रह जायेंगी। जाहिर है यह सेवायें आम जनता के लिये कितनी कठिन हो जायेंगी। स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों की छंटनी का रास्ता भी प्रशस्त हो जायेगा सो अलग।एक अन्य फैसले के तहत प्रदेश के स्वास्थ्य महानिदेशक ने जिले के मुख्य चिकित्साधिकारी के दबा एवं कैमीकल आदि खरीदने के अधिकार को ही हड़प लिया है। इससे कुछ ही दिनों में जिले के अस्पतालों में दवाओं और पैथोलोजी के लिये जरूरी रसायनों का अभाव पैदा हो जायेगा। ऐसे समय में जब मौसम की बदमिजाजी के चलते हैजा, दस्त, पेचिस, वायरल बुखार और त्वचीय रोग भारी पैमाने पर फैल रहे हैं, दवाओं के न मिल पाने से मरीजों को कितनी कठिनाई होगी इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।लगता है सरकार ने आगरा की विद्युत व्यवस्था पूरी तरह निजीकृत करने से वहां पैदा हुई भयावह स्थिति से कोई सबक नहीं लिया है। वहां जनता को बिजली मिल नहीं पा रही, निजी कंपनी टोरंेट द्वारा भर्ती नौसिखिये काम नहीं कर पा रहे हैं, यहां तक कि एक मजदूर की तो मौत भी हो गई तथा भ्रष्टाचार भी सरकारी व्यवस्था की तरह ही बना हुआ है। जनता इसका पुरजोर विरोध कर रही है। लेकिन सरकार मदमस्त हाथी की तरह जनहितों को रौंदती चली जा रही है।सरकार ही नहीं उत्तर प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दलों को इस निजीकरण से कोई परहेज नहीं है। सपा ने चुप्पी साधी हुई है। भूमंडलीकरण व निजीकरण की पैरोकार कांग्रेस और भाजपा से विरोध की उम्मीद करना ही बेकार है। केवल भाकपा और वामपंथी दल ही विरोध जता रहे हैं। लेकिन इस सवाल को जनता के बीच लेजाकर निजीकरण विरोधी जनबल तैयार करना अभी बाकी है।
- डा. गिरीश

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