चुनाव सुधारों के लिए आन्दोलन चलाने का जिक्र करते समय जिन दो सुधारों को बहुत उछाला गया, वे थे - ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ यानी सभी उम्मीदवारों को खारिज करने तथा निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार। प्रथम दृष्टि में ये नारे बहुत लुभावने लगते हैं। चुनावों में व्याप्त तमाम बुराईयों पर चर्चा के बिना ही इन दो अधिकारों की मांग करना उचित नहीं है।
चुनावों के दौरान जनता का बड़ा हिस्सा अभी भी वोट डालने से कतराता है। बहुदलीय लोकतंत्र में तकनीकी बहुमत पाने वाला उम्मीदवार जीत जाता है। चुनावों के दौरान बहुबल, धनबल, जातिबल, धर्मबल जैसे तमाम फैक्टर्स काम करते हैं। चुनाव अभी तक इन्हें रोकने की व्यवस्था नहीं कर सका है। बहुदलीय लोकतंत्र की रक्षा करना इस देश के तमाम शोषित, वंचित नागरिकों के साथ-साथ इस देश के मध्यमवर्ग के लिए भी बहुत जरूरी है। ‘राईट टू रिकाल’ और ‘राईट टू रिजेक्ट’ के अधिकारों के परिणाम बहुत खतरनाक भी साबित हो सकते हैं। वर्तमान व्यवस्था में ये लोकतंत्र को ही अस्थिर कर सकते हैं।
स्वयंभू सिविल सोसाइटी की हां में हां मिलाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने जय प्रकाश नारायण का नाम लेते हुए मतदाताओं को ‘राईट टू रिकाल’ यानी निर्वाचित प्रतिनिधि को वापस बुलाने के अधिकार की वकालत करना भी शुरू कर दिया है। क्षेत्र का विकास न होने के नाम पर जनता को भड़का कर विपक्षी दल के सांसद अथवा विधायक के खिलाफ इस अधिकार का उपयोग सत्ताधारी राजनीतिक दल किस प्रकार कर सकता है, इस पर विचार की जरूरत है। इन चर्चाओं के मध्य लाल कृष्ण आडवाणी ने दबे स्वर में दो दलीय लोकतंत्र की बात भी की है, जोकि भारतीय लोकतंत्र के लिए और भारतीय जनता के लिए अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है।
इन आवाजों के बीच हमारी पुराने मांग ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ का कहीं जिक्र तक नहीं आया जबकि ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ के जरिये हम चुनावों में व्याप्त वर्तमान तमाम बुराईयों को दूर कर सकते हैं। इस व्यवस्था में चुनाव छोटे-छोटे क्षेत्रों में न होकर राष्ट्रीय स्तर पर अथवा राज्य स्तर पर होता है। चुनाव उम्मीदवार नहीं बल्कि राजनैतिक दल लड़ते हैं। चुनावों में न्यूनतम मत पाने वाले राजनैतिक दलों को उनके द्वारा प्राप्त मतों के अनुपात में अपने-अपने प्रतिनिधि संसद और विधान मंडल में भेजने का अधिकार मिलता है।
इस प्रणाली के जरिये हम गुण्डों यानी बाहुबलियों और भ्रष्टों यानी धनबलियों के चुनावों पर प्रभाव को समाप्त कर सकते हैं। खर्चीले हो चुके चुनावों में प्रत्याशियों द्वारा निजी धन लगाने को इसके द्वारा रोका जा सकता है जो राजनीति में भ्रष्टाचार का एक बहुत बड़ा कारक है। राजनैतिक दलों को हर तीसरा नामांकन महिला से करने की बाध्यता के द्वारा हम संसद और विधायिकाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण सुनिश्चित कर सकते हैं। इससे निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त तथा दल-बदल से भी निपटा जा सकता है। इसके जरिये हम लोक सभा एवं विधान सभा को पांच सालों तक बनाये रख सकते हैं।
इस पद्धति में जनता राजनीतिक दलों से अपना हम बेहतर तरीके से मांग सकती है और खरे न उतरने वाले दलों को चुनावों में खारिज कर सकती है। इस पद्धति में चुनावों पर धार्मिक, जातीय, भाषाई और क्षेत्रीय संकीर्णताओं का प्रभाव भी काफी कम हो जायेगा।
चूंकि चुनाव सुधारों पर चर्चा चल ही चुकी है तो हमें जनता के मध्य अपनी पुरानी मांग - ”समानुपातिक प्रतिनिधित्व“ प्रणाली को लागू करने की बात को जोर-शोर से उठाना चाहिए और इसकी अच्छाईयों तथा बुराईयों पर चर्चा का माहौल बनाना चाहिए। चुनाव सुधारों के कोलाहल में हमें अपनी आवाज को दबने से बचाना होगा। चुनावी
सुधार के लिए आन्दोलन हमें खुद शुरू करना चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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