- कुल मतदाताओं का आधे से अधिक को बहुमत के रूप में परिभाषित किया जाय और सांसदों-विधायकों के निर्वाचन के लिये यह बहुमत प्राप्त करना अनिवार्य बनाया जाय।
- निकम्मे, भ्रष्ट सांसदों को वापस बुलाने का जन अधिकार सुरक्षित किया जाय।
- मतदाताओं को नापसंदगी व्यक्त करने का प्रावधान।
- चुनाव में उम्मीदवारों का चयन मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों द्वारा हो और बाकी स्वतंत्र उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिये मतदाताओं की पूर्व अनुमति आवश्यक बनायी जाय। जनता की पूर्वानुमति हासिल करने की प्रणाली विकसित की जा सकती है।
- समानुपातिक चुनाव प्रणाली।
- चुनाव खर्च और सरकारी कोष से पार्टियों को प्रचार खर्च का भुगतान।
- नीति निर्धारण और विकास योजनाओं के निर्माण में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करना।
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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013
at 5:41 pm | 0 comments | सत्य नारायण ठाकुर
भारतीय लोकतंत्र और ह्रासमान जनसत्ता
‘‘पांच गेंदों से एक साथ खेलने की कला को राजनीति कहते हैं, जिसमें दो गेंदे तो हमेशा हाथ में रहती हैं और तीन हवा में।’ महान राजनेता और जर्मन साम्राज्य के निर्माता बिस्मार्क ने राजनीति की ऐसी ही परिभाषा दी थी। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में बनी केन्द्रीय अल्पमत सरकार से लेकर एनडीए और संप्रग-1 तथा 2 की सरकारों के घटनाक्रम पर सरसरी निगाह डालने से कुछ ऐसा ही लगता है कि किस कलाबाजी से ऐसी पार्टी ने देश में राज किया, जिसका संसद में बहुमत नहीं था। इसी अवधि में हमने देखा कि नव उदार की आर्थिक नीति के चलते देश में भ्रष्टाचार और अपराधों की बाढ़ आ गयी और सरकारी खजाने एवं राष्ट्रीय संपदा की लूट, घूसखोरी आदि रोजमर्रा की बात हो गयी। हर्षद मेहता शेयर घोटाला से लेकर 2-जी स्पेक्ट्रम, कोयला आबंटन, हेलीकॉप्टर आदि कांड इसके प्रमाण है। सच ही पूंजीवाद, भ्रष्टाचार एवं अपराध की उर्वर भूमि पर फलता-फूलता है।
इस परिस्थिति के मद्देनजर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दागी सांसदों विधायकों को अयोग्य घोषित करने के फैसले से उत्पन्न चिंता, जो वर्तमान सरकार के मैनेजरों मे ंसमा गयी, को हम आसानी से समझ सकते हैं। सरकार ने इस फैसले पर पुनर्विचार करने की याचिका दाखिल की, जिसे भी कोर्ट ने खारिज कर दिया। इस न्यायिक फैसले को निष्प्रभावी बनाने के लिये सरकार ने जब प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन का विधेयक संसद में पेश किया। लोकसभा ने इसे पास कर दिया, किंतु राज्यसभा ने इसे विचार के लिये स्टैंडिंग कमेटी को प्रेषित कर दिया। तब सरकार ने आनन-फानन में अध्यादेश जारी करने का फैसला किया।
आम चुनाव सिर पर है। शासक पार्टी का गठबंधन दागी सांसदों के चालाक समूहों से है। सरकार चलाने के लिये इनका संरक्षण और समर्थन महत्वपूर्ण है। सरकार के प्रबंधक इनके अयोग्य हो जाने का जोखिम नहीं उठा सकते थे। सामान्य संसदीय प्रक्रिया में समाधान की अनिश्चितता से बेचैन दागी सांसदों का भारी दबाव था। इसलिये सरकार ने अध्यादेश का रास्ता अपनाया। इस तथ्य को कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रेस के सामने कबूल किया कि राजनीतिक दबाव में तैयार किये गये ऐसे अध्यादेश को फाड़कर फेंक देना चाहिये। यह अध्यादेश बकवास (नॉनसंेस) है।
इसी बीच चुनाव प्रणाली से संबंधित सर्वोच्च अदालत के कई निर्णय आये हैं। जैसे नकारात्मक मत डालने का अधिकार। इसके ऐसे परिणाम हो सकते हैं जिसका हल वर्तमान कानून में नहीं है। अगर 50 प्रतिशत से ज्यादा नकारात्मक मत किसी पक्ष में डाले गये तो क्या बाकी बचे अल्पमतों में जिसे ज्यादा मत प्राप्त होगा उसे ही विजयी घोषित किया जायेगा? यह तो अल्पमत का बहुमत पर राज थोपना होगा। इसलिये जरूरत है अपने देश की चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूल-चूल बदलाव की। संसद में पेश संशोधन विधेयक का अत्यंत सीमित उद्देश्य है जो जनता की आकांक्षाओं को पूरा नहीं करता है। कुछ दागी पर ईमानदार सांसदों को बचाना एक मुद्दा हो सकता है, किंतु ज्यादा महत्वपूर्ण बात है कि चुनाव प्रणाली में व्यापक सुधार की, जिससे इन अधिकारों की रक्षा की जा सके।
भारतीय संविधान लागू होने के 50 साल पूरा होने पर संविधान के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के एक उच्चस्तरीय आयोग का गठन किया गया। उस आयोग ने एक विस्तृत प्रतिवेदन प्रस्तुत किया है। प्रतिवेदन में एक सनसनी तथ्य उद्घाटित किया गया है कि देश के कुल सांसदों, विधायकों में से दो-तिहाई सांसद विधायक उनके क्षेत्रों में डाले गये कुल मतों के मात्र एक तिहाई मतों से निर्वाचित हुए हैं। दूसरा वर्तमान संसद व विधानसभाएं केवल 30 प्रतिशत के आसपास मतदाताओ का प्रतिनिधित्व करती है। ऐसा चुनाव का बरतानवी औपनिवेशक तरीका अपनाने के कारण हुआ है। चुनाव का बरतानवी मॉडल फर्स्ट पास्ट व पोस्ट (एफपीटीपी) में प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवारों में जिसे ज्यादा मत मिलते हैं, उसे विजयी घोषित किया जाता है। चुनाव की यह प्रणाली दोषपूर्ण है। सन 1952 से अब तक इस चुनाव प्रणाली के फलाफल निम्न प्रकार दर्ज किये जा सकते हैं -
द अल्पमत पर आधारित धनतंत्रीय संसद एवं राज्य विधान सभाओं का निर्माण।
द कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता।
द चुनाव में अपराध और धन का बढ़ता हस्तक्षेप।
द राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण।
जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन विधेयक पर संसद मेें बहस के दौरान बहुत से सांसदों ने न्यायपालिका के फैसले पर ऐतराज जताया तथा संसद की वरीयता बहाल करने पर जोर दिया। सुनने में अच्छा लगता है कि फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि शासक पार्टी ने बजाय बहुमत के बल के संसदीय मंच का बेजा इस्तेमाल किया है। सन 1974 में नागरिक स्वतंत्रता का हनन करने वाली आपातकाल घोषणा का अनुमोदन संसद द्वारा किया गया। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि स्पेन में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर ने पार्लियामेंट पर संसद की वरीयता कायम करने का मंतव्य भ्रामक है। संसदीय बहस में जब प्रतिनिधित्व कानून के कार्यान्वयन की समीक्षा नहीं की गयी। पूरी बहस सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को निष्प्रभावी बनाने तक सीमित थी। मीडिया की भी दिलचस्पी राजनेताओं की तुलना अपराधियों से करने की थी। संसदीय स्तर के निरंतर हो रहे क्षरण के मूल कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका संवैधानिक निकाय है इसकी वरीयता, प्राथमिकता और स्वतन्त्रता के प्रश्न का हल संविधान में ही दिया गया है। संविधान में जनता को सर्वोपरि माना गया है। भारतीय संविधान जनता को समर्पित है। संविधान में इन तीनों निकायों के कार्यक्षेत्र और इनके कर्तव्यों की स्पष्ट व्याख्या के साथ इनकी सीमाओं को भी रेखांकित किया गया है। संविधान में किसी को भी वरीय और कनिष्ठ नहीं बताया गया है। किसी की वरीयता किसी पर थोपी नहीं गयी है। इन तीनों निकायों को संविधान प्रदत्त अधिकारों और सीमाओं के अंदर जनता की की सेवा करनी है। इनमें किसी के भी सीमित अधिकार नहीं है। सभी की सीमाएं निर्धारित हैं। संविधान में जन अधिकार सर्वोपरि है। असीमित अधिकार केवल जनता को प्राप्त है। जनता सब कुछ कर सकती है और कुछ भी मिटा सकती है। यही सच्चा लोकतंत्र है।
धनतंत्रीय संसद
दिग्गज कम्युनिस्ट कामरेड ए.बी.बर्धन हाल के वर्षों में बराबर कहते रहे हैं कि संसद करोड़पतियों का क्लब बन गया है। भाकपा की पटना कांग्रेस के दस्तावेजों में भी यह तथ्य दर्ज किया गया है। चुनावों में जाति, संप्रदाय, धन और आम राय की भूमिका निर्णायक हो गयी है। इलेक्शन वॉच द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के मुताबिक वर्तमान लोकसभा के 543 सदस्यों में 306 सांसद करोड़पति है। इनमें 160 सांसदों पर गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले चुनाव में जीतने वाले उम्मीदवारों में 32 प्रतिशत सांसदों के पास 5 करोड़ रूपये से ज्यादा की संपत्ति है। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन उम्मीदवारों के पास 10 लाख रूपये से नीचे की सम्पत्ति है उनके चुनाव जीतने का चांस मात्र 2.6 प्रतिशत है। जिन उम्मीदवारों के पास 50 लाख से 5 करोड़ रूपये की संपत्ति है। उनके जीतने का चांस 18.5 प्रतिशत हैं। इससे पता चलता है कि धनबल चुनावों के नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता है।
देश के सांसदों और विधायकों की कुल संख्या 4835 है। इनमें 1448 अपराधी पृष्ठभूमि वाली दागी हैं और इनके विरूद्ध अदालतों में मुकदमें चल रहे हैं। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि दो-तिहाई से ज्यादा सांसद अपने क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का मात्र 30 प्रतिशत या इससे भी कम मतों से चुने गये हैं। इस तरह एफपीटीपी चुनाव प्रणाली का ब्रिटिश मॉडल बहुमत पर अल्पमत का प्रतिनिधित्व थोपता है। यह पूरी तरह अनैतिक है, किंतु मौजूदा कानून में यह पूरी तरह कानूनी है। चुनाव के इस बरतानवी मॉडल में धूर्तता, चालबाजी का पूरा मौका है जिससे मतदाता विभाजित होते हैं और अल्पमत का प्रतिनिधि चुन लिया जाता है। इसीलिये भारत में बहुमत के लोकतंत्र के बजाय अल्पमत का धनतंत्र मजबूत हो रहा है।
लोकसभा के पूर्व सेक्रेटरी जनरल और विख्यात विधि विशेषज्ञ डॉ. सुभाष कश्यप लिखते हैं: ‘‘भारतीय संविधान का लगभग 75 प्रतिशत गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 की प्रतिलिपि है।’ वे भी सांसदों और विधायकों की प्रतिनिधित्व हीनता पर सवाल उठाते हैं और चुनाव की बरतानबी पद्धति को दोषी ठहराते हैंः’ फस्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली के तहत विधायकों सांसदों का बहुमत उनके क्षेत्र में डाले गये कुल मतों का अल्पमत द्वारा निर्वाचित होता है।’
मैं एक कांग्रेसी उम्मीदवार को जानता हूं, जो बिहार विधानसभा के कांही क्षेत्र से चुनाव लड़े और उनकी जमानत जब्त हो गयी, फिर भी वे विजयी घोषित किये गये, क्योंकि लड़ रहे उम्मीदवारों में उन्हें ही ज्यादा मत मिले थे। वे बिहार सरकार के मंत्री भी बने। जमानत जब्त होने का मतलब है 6 प्रतिशत से कम मत मिलना। वर्तमान चुनाव प्रणाली में यह स्थिति आती है कि कंटेस्ट कर रहे सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो जाए। ऐसी स्थिति में उनमें जिसे ज्यादा मत प्राप्त होता हे, वह विजयी घोषित किया जाता है। इसका मतलब है कि डाले गये मतपत्रों में 6 प्रतिशत से कम मत प्राप्त करने वाला विधायक 96 प्रतिशत के विशाल मतदाताओं के ऊपर थोप दिया जाता है। यह लोकतंत्र का मजाक नहीं तो और क्या है?
निरंकुश कार्यपालिका
संपूर्ण परिदृश्य का दूसरा चिंताजनक पहलू है कार्यपालिका की बढ़ती स्वेच्छाचारिता और बेलगाम हो रही अफसरशाही। सरकार वह करती है, जो चाहती है और वह नहीं करती है, जो नहीं चाहती। पसंद और नापसंद के आधार पर काम होता है। इसके लिये संसद को दरकिनार कर दिया जाता है। लोकतांत्रिक निकायों, आयागों एवं विशेषज्ञ समितियों की अनुशंसाओं एवं निर्णयों की उपेक्षा चलती है। इसके चंद नमूने निम्न प्रकार देखे जा सकते हैं -
1. भारत सरकार खा़़द्य सुरक्षा योजनाएं ज्यादा उत्साहित देखी गयी। यह योजना राज्य स्तर पर लागू होनी है और राज्यों को भी इसके खर्च में हाथ बंटाना है। संसद का अधिवेशन होना तय था। इसलिये विपक्ष चाहता था कि संसद में इस योजना पर मांग विचार-विमर्श किया जाये। लेकिन सरकार ने पहले अध्यादेश जारी कर दिया। सरकार का मकसद जनमानस में मात्र भं्राति फैलाना था कि सरकार तो जनता की खाद्य सुरक्षा चाहती है, किंतु विपक्ष अड़चनें डाल रहा है। जाहिर है कि सरकार की निगाह आगामी चुनाव पर है।
2. नयी पेंशन योजना के बारे में कर्मचारियों के तीव्र विरोध को जानते हुए सरकार ने इसे संसद में नहीं पेश किया और कार्यकारी आदेश पारित कर दिया। कई वर्षों से सरकार बिना कानून बनाये कार्यकारी आदेश पारित कर कर्मचारियों से पैसे वसूलती रही है। यह गैर-कानूनी था। अब संसद के पिछले सत्र में यह कानून पास हुआ है।
3. बहुप्रचारित आधार कार्ड को लें, जिसे सरकार ने सभी तरह की वित्तीय सहायता राशि पाने के लिये अनिवार्य बना दिया था। यह आधारकार्ड यूआईडी का विधेयक साल 2010 से संसद की स्थायी समिति के समक्ष विचाराधीन है। समिति को कई आपत्तियां हैं और नये सुझाव हैं। किंतु संसद की उपेक्षा करके सरकार ने इसे कार्यकारी आदेश पारित करके लागू कर दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी अनिवार्यता पर रोक लगायी है।
4. आवश्यकता आधारित न्यूनतम मजदूरी तय करने की प्रणाली सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 1991 में निर्धारित की गयी, किंतु सरकार ने उस पर अमल अब तक नहीं किया है। इसीलिये देश की विभिन्न अदालतों द्वारा मजदूरों के पक्ष में दिये फैसले/एवार्ड/एवं अनुशंसाएं जिसकी संख्या लाखों में हैं, वे कार्यान्वयन के इंतजार में अफसरशाही की फाइलों के ढेरों में धूल चाट रहे हैं।
5. असंगठित मजदूर सामाजिक सुरक्षा कानून 2008 सबसे बदतर उदाहरण है। पहले तो कोई उस वर्षों तक सरकार ने ट्रेड यूनियनों की वार्ताओं के दौर में उलझाये रखा। जब विधेयक के प्रारूप पर सहमति हुइ तो उसकी उपेक्षा पर मामलों को असंगठित उपक्रम आयोग को सुपुर्द कर दिया। जब आयोग ने अपना प्रतिवेदन दाखिल किया तो उस पर अमल के बजाय सरकार ने फिर विचार के लिये संसदीय स्थायी समिति को प्रेषित किया। जब संसदीय स्थायी समिति ने अपने प्रतिवेदन के साथ विधेयक का सर्वसम्मत प्रारूप पेश किया तो सरकार ने उसे खारिज कर दिया और अपना एकतरफा तैयार किया विधेयक संसद में पेशकर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हितोें की रक्षा नहीं करता है। सभी केंद्रीय मजदूर संगठन इसका विरोध करते हैं। कोई दो दशकों से ज्यादा दिनों से सरकार श्रम संहिता का त्रिपक्ष वाद से लोक संसदीय समिति का सर्वसम्मत अनुशंसा की उपेक्षा करती रही और मनमाना एकतरफा विधेयक संसद में पेश कर पास कराया जो किसी प्रकार भी मजदूरों के हित में नहीं है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच से चलाये जा रहे वर्तमान मजदूर आंदोलन की यह प्रमुख मांग है।
6. इसी तरह भारत के 12 करोड़ खेत मजदूरों के लिये केंद्रीय कानून आज तक नहीं बनाया गया। इस बारे में भी संसदीय समिति की अनुशंसा की उपेक्षा की गयी है।
अपराध और भ्रष्टाचार
नवउदारवाद आर्थिक व्यवस्था के प्रारंभ के बाद आर्थिक अपराध और भ्रष्टाचार मुक्त बाजार का अंग बन गया है। विकास और कल्याण योजना कोष सरकारी खजाने और राष्ट्रीय संपदा की लूट रोजमर्रा की बात हो गयी है। इस तथ्य की ओर उंगली उठाते हुए पूर्व सीएजी विनोद राय ने कहा कि सरकारी नीतियों से देश में चाहे तो पूंजीवाद (क्रोनी कैपिटलिज्म) का निर्माण हो रहा है।
2-जी स्पेक्ट्रम और कोयला ब्लॉक आबंटन में लाखों करोड़ के घोटालों के बारे में सरकार की ओर से कहा गया कि ये काम सरकारी नीति के तहत किया गया। इसलिये ये कारनामे भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार नीति से राष्ट्रीय संपदा का दोहन चंद व्यक्तियों के हित में नहीं तकया जा सकता। लेकिन प्रकट है कि लोकतंत्र के नाम पर देश मे अल्पमत का धनतंत्र कायम हो गया है जो अपने वर्गीय हित में राष्ट्रीय संपदा की लूट मचाये हैं।
समाज विकास का इतिहास गवाह है कि पूंजीवाद और लोकतंत्र सहयात्री नहीं बन सकते। लोकतंत्र बहुजन आम आदमी के हित में है, किंतु इसके उल्ट पूंजीवाद चंद धनिकों के स्वार्थों का पोषक है। पूंजीवाद सही मायने में लोकतंत्र का निषेध है। इसलिए आज मूल प्रश्न सरकार की स्वेच्छाचारिता पर काबू पाने का अर्थात् कार्यपालिका की बढ़ती निरंकुशता पर लोकतांत्रिक अंकुश लगाने का, क्योंकि यह सरकार है जो लोकतांत्रिक अंकुश के अभाव में तानाशाह बन जाती है।
जनसत्ता का क्षरण रोको
लोकतंत्र में सत्ता लोगों के हाथों में होती है। जनता सर्वशक्तिमान होती है। जनता अपनी शक्ति का इस्तेमाल अपने चुने प्रतिनिधियों द्वारा करती है पर अपने देश में प्रतिनिधि चुनने का जो तरीका अपनाया गया, वह दोषपूर्ण साबित हुआ। इस दोषपूर्ण तरीके से जनसत्ता के बजाय धनसत्ता कायम हुई, जिसमें कुछ लोग मालोमाल हुए और आम लोग का विशाल समुदाय भूख और अभाव की जिंदगी जीने को मजबूर हुआ। योजना आयोग के ताजा आंकलन के मुताबिक 54 प्रतिशत अर्थात 83.75 करोड़ जनता भूख और गरीबी की अवस्था में है। अर्जुन सेन गुप्ता कमीशन के मुताबिक देश की 77 प्रतिशत अर्थात 96.25 करोड़ जनता 20 रूपये रोजाना से कम पर गुजारा करती है। दूसरी ओर भारत दुनिया के दूसरे नंबर का देश है जहां सर्वाधिक करोड़पति हैं। यह स्थिति बदलनी होगी।
इसीलिये चुनाव प्रणाली में व्यापक आमूलचूल सुधार की जरूरत है। इसके लिये निम्नांकित बिंदुओं पर विचार किया जा सकता है-
- सत्यनारायण ठाकुर
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