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शनिवार, 11 अक्तूबर 2014
at 10:04 am | 0 comments | नेहरू, प्रदीप तिवारी, मोदी
नेहरू और मोदी
भाजपाई प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी एक ओर बड़ी तेजी से अंतर्राष्ट्रीय पूंजी को रिझाने के लिए तमाम करतब लगातार कर रहे हैं तो दूसरी ओर वे कांग्रेस से गांधी-नेहरू-इंदिरा की विरासत को भी छीन लेने को व्यातुर हैं। गांधी जयंती के दिन उन्होंने अपना महत्वाकांक्षी अभियान ”स्वच्छ भारत“ बड़े प्रचार के साथ एक थाना परिसर में झाडू लगा कर शुरू किया जो इंदिरा जयंती (19 नवम्बर) तक चलेगा तो दूसरी ओर उन्होंने नेहरू जयंती (बाल दिवस 14 नवम्बर) बड़े पैमाने पर मनाने की घोषणा करके कांग्रेस को अजीबोगरीब स्थितियों में डाल दिया। उन्होंने संघ परिवार और भाजपा को भी वैचारिक संकट में डाल दिया है।
भगत सिंह, डा. बी. आर. आम्बेडकर, जवाहर लाल नेहरू, पूरन चन्द जोशी और अजय घोष आधुनिक भारत को नई राजनीतिक चेतना एवं दृष्टि से लैस करने वाले नेता रहे हैं। ये सभी वैचारिक जड़ता को तोड़ने का साहस, प्रचलित धारणाओं के खिलाफ बोलने और वक्त के आगे की सोचने वाले नेता रहे हैं। धार्मिक नेताओं में विवेकानन्द ने भी यही भूमिका अदा की थी। पूरन चन्द जोशी और अजय घोष के बारे में जानने वालों की संख्या लगातार सीमित होती गई जबकि डा. बी. आर. आम्बेडकर अभी भी दलित राजनीति का सबसे अधिक प्रचलित नाम है, बात दीगर है कि उनके विचारों और कार्यों को जानने वालों की संख्या भी सीमित हाती जा रही है। भाजपा आम्बेडकर को छू-छू कर उनसे हमेशा दूर होती रही। उसने एक बार विवेकानन्द और एक बार भगत सिंह को अपनाने की असफल कोशिशें जरूर कीं परन्तु उनके वैचारिक करन्ट को वह बर्दाश्त नहीं कर सकी। उस दौर में जनता राजनीति में अधिक जागरूक थी और जनता ने भाजपा पर प्रश्नों की बौछार तेज कर दी थी कि भाजपा उनसे छिटक कर दूर खड़ी हो गयी। भाजपा गांधीवादी समाजवाद के नाम गांधी को भी अपनाने की असफल कोशिश कर चुकी है।
नेहरू अब तक भाजपा एवं संघ परिवार के लिए सबसे अधिक अछूत रहे हैं। ये लोग इंदिरा गांधी और राजीव गांधी तक की प्रशंसा कर चुके हैं परन्तु नेहरू हमेशा उनके निशाने पर रहे हैं। पहली बार भाजपा के किसी नेता ने नेहरू को स्वीकार करने की बात की है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि पिछले लोक सभा चुनाव का माहौल अपने पक्ष में बनाने के लिए संघ-भाजपा एवं मोदी सभी ने नेहरू के बरक्स सरदार पटेल को खड़ा करने की कोशिश इस तरह की थी मानो सरदार पटेल न ही कांग्रेसी थे और न ही नेहरू के सहयोगी। जनता को याद होना चाहिए कि यहां तक कहा गया था कि ”अगर नेहरू की जगह पटेल प्रधानमंत्री बनते.......“ और पटेल की लौह प्रतिमा गुजरात में स्थापित करने के लिए गांव-गांव लोहा इकट्ठा किया गया था। अभी कुछ दिनों पहले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक काल्पनिक स्थिति देश के सामने रखने की कोशिश की थी कि कश्मीर मामले को अगर पटेल ने संभाला होता तो इसके एक हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा न होता। कुछ दिनों से फेसबुक आदि सोशल मीडिया पर भाजपा कार्यकर्ताओं द्वारा एक अभियान चल रहा था कि गांधी और नेहरू अगर चाहते तो भगत सिंह को फांसी नहीं होती।
भाजपा एवं संघ के साथ समस्या यह रही है कि जब तक भारतीय राजनीति में नेहरू और अजय घोष (भाकपा के महासचिव एवं शहीद भगत सिंह के साथी) के जीवन काल में जनसंघ (भाजपा का पूर्व संस्करण) संसद में दूसरे दल के रूप में स्थापित नहीं हो पाई थी। जनसंघ अमरीका और विकसित यूरोपीय देशों के पक्ष में अपनी राजनीतिक-आर्थिक नीतियों को निरूपित करता रहा था जबकि नेहरू ने भारत के विकास के लिए और उसे स्वयं पर निर्भर अर्थव्यवस्था बनाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था का वैकल्पिक मॉडल पेश किया था और वे उसी रास्ते पर आगे बढ़े। नेहरू अमरीका और विकसित यूरोपीय देशों की आर्थिक दासता स्वीकार करने के बजाय उसे चुनौती पेश कर रहे थे और सोवियत संघ के सहयोग से जहां एक ओर भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे थे वहीं वैश्विक राजनीति में वे अमरीकी साम्राज्यवाद के सामने झुकने से इंकार करते हुए नासिर और टीटो के साथ मिलकर गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की आधार शिला रखने में व्यस्त थे। नेहरू का मानना था कि अगर प्रचलित धारणाओं के खिलाफ नए तथ्य सामने आने पर हमें अपनी सोच को बदल लेना चाहिए और उन्होंने भारतीय जनता में वैज्ञानिक मिजाज यानी साइंटिफिक टेम्पर विकसित करने पर जोर दिया था। नेहरू का यही काम आस्था को मुद्दा बनाकर अपनी राजनीति करने वाली जनसंघ के साथ-साथ संघ के लिए सबसे ज्यादा कष्टकर और असहज परिस्थितियां पैदा करने वाला था। नेहरू का ही कथन था कि अफवाहें देश की सबसे बड़ी दुश्मन हैं और दक्षिणपंथी एवं कट्टरपंथी ताकते अफवाहों को अपना सबसे कारगर हथियार समझते हैं। हिटलर झूठ को कला के स्तर तक ले ही गया था और इसी रणनीति के सहारे भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में विजयी हुई है।
नेहरू और इंदिरा गांधी की विरासत पर राजनीति करने वाली कांग्रेस उनके आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा भटक चुकी है। नेहरू की आर्थिक एवं वैश्विक राजनीतिक समझ से वह बहुत ज्यादा दूर जा चुकी है। आज की उसकी नीतियां वही हैं जो भाजपा की हैं। कांग्रेस के एक पूर्व मंत्री शशि थरूर ने तो उस दौर की आर्थिक एवं राजनीतिक नीतियों को मूर्खतापूर्ण तक कह डाला था। कांग्रेस नेहरू पर अपना दावा एक तरह से छोड़ चुकी है।
आने वाले वक्त में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रधानमंत्री मोदी नेहरू के साथ कितनी दूर तक चल पाते हैं और संघ परिवार की इस पर क्या प्रतिक्रिया होती है? यह देखना और दिलचस्प होगा कि इस दौर में जनता नेहरू को लेकर भाजपा के सामने किस तरह के प्रश्न खड़ी करती है और क्या भाजपा और संघ को असहजता की उसी स्थिति तक धकेल पाती है अथवा नहीं जिस असहजता में वह विवेकानन्द और भगत सिंह को अंगीकार करने के दौर में भाजपा को खड़ी कर चुकी है।
- प्रदीप तिवारी
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