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गुरुवार, 5 जुलाई 2018
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भाजपा ने किसानों को फिर दिखाया ठेंगा: समर्थन मूल्य वायदे से काफी कम- डा. गिरीश
खरीफ फसलों के न्यूनतम
समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) में कल की गयी ऐतिहासिक वृध्दि के दाबे की खबर का भांडा
किसानों तक पहुंचते पहुंचते फूट गया. स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा किसानों को दिया
भरोसा कि वे ऐतिहासिक फैसला लेने वाले हैं, छलावा ही साबित हुआ.
एमएसपी में वृध्दि की यह
घोषणा भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में किये गए वायदे के पूरे चार साल बाद ऐसे समय
में की गयी है जबकि एक साल के भीतर लोकसभा और कुछ ही माहों में कई महत्वपूर्ण
राज्यों के विधान सभा चुनाव होने वाले हैं. इसलिये इस वृध्दि के राजनैतिक
निहितार्थ भी निकाला जाना स्वाभाविक है.
यह परख की कसौटी पर इसलिये
भी हैं कि भाजपा ने 2014 के लोक सभा चुनावों के समय जारी घोषणापत्र में वायदा किया
था कि किसानों को फसल की लागत से पचास फीसदी अधिक कीमतें मुहैया करायी जायेंगी.
श्री मोदी ने बार बार चुनाव सभाओं में इसे न केवल दोहराया था बल्कि वे आज भी 2022
तक किसानों की आमद दो गुना करने का वायदा कर रहे हैं.
जिस स्वामी नाथन आयोग की
रिपोर्ट के आधार पर विपक्ष पर ताने कसते हुये ये वायदा किया गया था उसका कहना है
कि एमएसपी में इजाफा लागत के मुकाबले 50 फीसदी ज्यादा रिटर्न देने वाला होना
चाहिए. तब उपज का दाम डेढ़ गुना होगा. लेकिन सरकार द्वारा कल की गयी बढोत्तरी गत
एमएसपी पर आधारित है और उसकी तुलना में 4
से लेकर 50 प्रतिशत है न कि लागत से 50 प्रतिशत अधिक रिटर्न पर आधारित.
किसान और किसान संगठन मांग
करते रहे हैं कि स्वामीनाथन कमीशन की सिफारिश सी- 2 लागत यानीकि फसल की पैदाबार से
संबंधित हर जमा लागत के ऊपर 50 प्रतिशत जोड़ कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना
चाहिये, जैसाकि भाजपा ने वायदा किया है. इसका अर्थ है कि मूल लागत (ए-2 ) +
पारिवारिक श्रम ( एफएल ) + जमीन का किराया + ब्याज आदि समूची लागत में आते हैं. पर
सरकार द्वारा घोषित एमएसपी मात्र ए-2 और एफएल पर आधारित है.
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के
किसानों ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुये इन्हीं तथ्यों को अपने ढंग से उजागर किया
है. उनके अनुसार धान की एक एकड़ फसल तैयार करने पर जुताई पर रुपये 4800, रोपाई पर
2800, सिंचाई पर 6000, उर्बरक पर 3000, कीटनाशक पर 1000 और जमीन का किराया 15000
आता है. इसको देखते हुये धान के एमएसपी में कम से कम 600 रूपये प्रति कुंतल का
इजाफा होना चाहिये.
यहाँ एक और मजेदार तथ्य यह
भी है कि दो मुख्य फसलों- धान और गेहूँ को छोड़ कर सभी के समर्थन मूल्य बाजार दर से
कम रहते रहे हैं. घोषित मूल्य न मिल पाना एक और अहम समस्या रही है. किसान अब भी
सशंकित हैं कि उन्हें घोषित मूल्य मिल पायेगा.
वेतनभोगी लोगों की तरह
किसानों की आमद में निरंतरता नहीं होती. उसे लगभग छह माह के अंतराल पर फसल से आमद
होती है. इस दरम्यान उसे परिवार और अगली फसल दोनों पर खर्च करना होता है. पैदाबार
हाथ में आते ही उसे बेचने को मजबूर होना पड़ता है. जमाखोर उसे कम मूल्य पर खरीद
लेते हैं. घाटे का शिकार किसान निरंतर कर्जग्रस्त होता जाता है. सरकार इन चार
सालों में इस समस्या का निदान कर नहीं पायी और किसान आत्महत्याएं करते रहे. ताजा
घोषित मूल्य भी उसे इस संकट से उबार नहीं पायेंगे.
सरकार की अन्य नीतियाँ भी
किसानों की कमर तोड़ने वाली हैं. वह कीमतें नियंत्रित करने के नाम पर कृषि उत्पादों
के निर्यात पर पाबन्दी और आयात खोलती रही है. वैश्वीकरण और उदारीकरण के लाभों से
भी वह वंचित रहा है. कृषि उत्पादों के समुचित विपणन और उन्नत खेती से भी औसत किसान
दूर ही है. ऐसे में देर से और आँखों में धूल झोंकने की गरज से की गयी इस
मूल्यवृध्दि से किसानों के चिरकालिक संकट का निदान दिखाई नहीं देरहा है.
( डा. गिरीश )
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