भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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रविवार, 7 अगस्त 2011

लो क सं घ र्ष !: आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का इतिहास: महेश राठी भाग 2

इसी क्रम में आगे चलकर 26, मार्च 1931 को कराँची में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन का आयेजन किया गया। इस सम्मेलन में देशभर से 700 प्रतिनिधियों ने भाग लिया परन्तु किसी कारणवश यह एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का रूप धारण नहीं कर पाया।
0आई0एस0एफ0 की स्थापना की कहानी भी बेहद दिलचस्प है। संयुक्त प्रांत (यूपी) के उस समय के गवर्नर सर मालकाम हैली उस समय के युवा छात्र संगठन के उभार को लेकर काफी फिक्रमंद थे। उनकी कोशिश थी कि छात्रों के असंतोष से बनने वाले किसी प्रभावी छात्र संगठन से पहले सरकार की ओर से कोई आधिकारिक ढ़ाचा खड़ा किया जाए। इसके मद्देनजर इलाहाबाद, बनारस, आगरा, अलीगढ़ और लखनऊ के छात्रों की एक बैठक लखनऊ विश्वविद्यालय के उप कुलपति द्वारा बुलाई गई। परन्तु यह कोशिश ब्रिटिश अधिकारियों को भारी पड़ी। राष्ट्रवादी छात्रों ने बैठक और उसकी कार्यवाही को अपने कब्जे में ले लिया। एम0 बदयँूद्दीन, पी0एन0 भार्गव, शफी नकवी, जमाल अहमद किदवई और जगदीश रस्तोगी सरीखे छात्रों ने ब्रिटिश साम्राज्य की मंशाओं को ध्वस्त कर दिया। इस बैठक में जार्ज वी0 पर एक शोक प्रस्ताव लाया गया जिसके विरोध में उपर्युक्त छात्र ब्रिटिश कम्युनिस्ट नेता एवं सांसद सापुरजी सकतवाला की मृत्यु पर एक शोक प्रस्ताव लेकर गए। परन्तु उपकुलपति ने शोक प्रस्ताव में सकतवाला के नाम जोड़े जाने का मुखर विरोध किया। छात्रों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की धमकी भी दी गई यहाँ तक कि तीन छात्रों को विश्वविद्यालय से निलंबित भी कर दिया गया। बावजूद इस घटनाक्रम के बैठक का 50 छात्रों ने बहिष्कार कर दिया। इसके बाद छात्र नेताओं ने निर्णय किया कि यदि फौरन एक अखिल भारतीय छात्र संगठन का निर्माण नहीं किया गया तो ब्रिटिश प्रशासन अपना कठपुतली छात्र संगठन खड़ा लेगा। परिणाम स्वरूप यू0पी0 विश्वविद्यालय छात्र फैडरेशन ने तुरन्त अपनी कार्यकारिणी की एक बैठक 23 जनवरी 1936 को बुलाकर निर्णय किया कि उन्हें तत्काल प्रभाव से एक अखिल भारतीय छात्र सम्मेलन बुलाना चाहिए अन्यथा ब्रिटिश सरकार ऐसी पहल करके एक सरकारी छात्र संगठन खड़ा कर देगी। अन्ततोगत्वा अखिल भारतीय सम्मेलन बुलाने की तारीख 12-13 अगस्त 1936 तय की गई।
पी0 एन0 भार्गव की अध्यक्षता में प्रस्तावित सम्मेलन के लिए एक स्वागत समिति का गठन किया गया। इस स्वागत समिति की तर्ज पर यू0पी0 के सभी प्रमुख जिलो में भी तैयारी समितियों का गठन किया गया। इसके साथ ही देश के सभी छात्र संगठनो और कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सहित सभी राजनैतिक धड़ांे से संपर्क करने का काम विधिवत शुरू हुआ। सम्मेलन की घोषणा ने देश भर में उत्साह का संचार कर दिया और सभी छात्र नेता और संगठन उत्साह पूर्वक सम्मेलन की तैयारियों में लग गए। सम्मेलन में बेहद जनवादी तरीके से नेतृत्व का चुनाव हुआ। सम्मेलन की प्रतिनिधि फीस एक रूपया थी।
0आई0एस0एफ0 का स्थापना सम्मेलन लखनऊ के सर गंगा राम मैमोरियल हाॅल में संपन्न हुआ। सम्मेलन में 936 प्रतिनिधियांे ने भाग लिया जिसमें 200 स्थानीय और शेष 11 प्रांतीय संगठनों के प्रतिनिधि थे। सम्मेलन में महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सर तेज बहादुर सप्रू और श्रीनिवास शास्त्री सरीखे गणमान्य व्यक्तियों के बधाई संदेश भी प्राप्त हुए। सभी विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधित्व के साथ यह विद्यार्थियों की सबसे बड़ी गोलबंदी थी।
स्वागत समिति के अध्यक्ष के तौर पर पी0एन0 भार्गव ने स्वागत भाषण दिया और पं0 जवाहर लाल नेहरू के भाषण से सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। अपने उद्घाटन भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियांे का विश्लेषण करते हुए छात्रों से आजादी का परचम उठाने का आह्वान किया। इसके अलावा अपने अध्यक्षीय भाषण में जिन्ना ने भी इस बात की खुशी जाहिर की कि देश के अलग-अलग जाति और समुदाय के लोग आज यहाँ पर एक साझे मकसद के लिए एकत्र हुए हैं। आजादी की लड़ाई में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने के अलावा कई सवालों पर सम्मेलन द्वारा प्रस्ताव भी पारित किए गए।
0आई0एस00 के इस स्थापना सम्मेलन में पी0एन0 भार्गव पहले महासचिव निर्वाचित हुए। इसी के साथ स्टूडेन्ट्स ट्रिब्यून भी 0आई0एस0एफ0 का पहला आधिकारिक मुखपत्र बना। 0आई0एस0एफ0 का गठन एक ऐसी ऐतिहासिक घटना थी जिसने पूरे छात्र समुदाय में एक जोश के साथ परिपक्वता का संचार किया। 0आई0एस0एफ0 का दूसरा सम्मेलन महज तीन महीने के अन्तराल पर ही 22 नवम्बर 1936 को लाहौर में संपन्न हुआ। इस सम्मेलन में 0आई0एस0एफ0 का संविधान तैयार करने पर सहमति हुई। शरत चन्द्र बोस की अध्यक्षता में हुए दूसरे सम्मेलन में 150 प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। शरत चन्द्र बोस ने अपने अध्यक्षीय भाषण में छात्रों को रूसी क्रान्ति से प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित किया। सम्मेलन ने स्पेन में नाजी जर्मन की अनुचित दखलंदाजी के खिलाफ भी एक प्रस्ताव पारित किया। देश भर में चल रहे छात्र आंदोलनों के आधार पर 0आई0एस0एफ0 ने छात्रांे का एक माँगपत्र भी लाहौर सम्मेलन में तैयार किया।
लाहौर सम्मेलन में एक ओर उल्लेखनीय घटना घटी। यहाँ पर कुछ मुस्लिम छात्रों द्वारा 1936 के अन्त में लखनऊ में एक आल इंडिया मुस्लिम छात्र सम्मेलन आयोजित किए जाने से संबंधित प्रस्ताव लाने की कोशिश की गई। परन्तु उन्हें मुस्लिम छात्रों का ही भारी विरोध झेलना पड़ा और उनकी योजना धराशायी हो गई। प्रतिनिधिया ने इस अलग संगठन के विचार के खिलाफ एक जनसभा का आयोजन किया। इस जनसभा में अलग मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का भारी विरोध हुआ। यहाँ तक कि अली सरदार जाफरी इस विचार के विरोध में एक प्रस्ताव भी ले आए। इसके अलावा मौलाना अब्दुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान के संदेश भी सम्मेलन में पढ़े गए। जिसमें उन्होनें किसी भी मुस्लिम छात्र संगठन के विचार का विरोध करते हुए छात्रों से अधिक से अधिक संख्या में 0आई0एस0एफ0 में शामिल होने का आह्वान किया। अलग मुस्लिम छात्र सम्मेलन के विचार को प्रतिपादित करने वाले इफि़्तख़ार हसन ने इसके पक्ष में कई तर्क दिए मगर उनकी बात को छात्रों ने एकदम खारिज कर दिया।

क्रमश:
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Invitation of All India Students' Federation Platinum Jubilee Celebrations


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ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत च युद्धं करोति


हालांकि अमरीका में ओबामा प्रशासन ने विपक्षी दल के साथ मिलकर ऋण लिये जाने की सीमा को बढ़ा कर अमरीकी खजाने को ब्याज भुगतान में नादेहन्द होने से बचा लिया परन्तु अमरीकी शेयर बाजारों के 5 अगस्त को बन्द होने के बाद स्टैंडर्ड एंड पुअर्स रेटिंग एजेंसी ने अमरीका की रेटिंग को ‘ट्रिपल ए’ से घटा कर ‘डबल ए प्लस’ कर दिया। रेटिंग को घटाते समय स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने कहा है कि अमरीका का नीतिनिर्धारण अब कम टिकाऊ, कम प्रभावी और कम पूर्वानुमेय (प्रिडिक्टेबल) हो गया है। इसके पहले ही चीन की क्रेडिट रेटिंग एजेंसी ‘डागॉग’ तथा अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेन्सी ‘मूडी’ अमरीका की क्रेडिट रेटिंग को घटा चुके हैं। अमरीका की साख को इस प्रकार की चुनौती 1917 के बाद पहली बार मिली है।

हालांकि बराक ओबामा ने रेटिंग तय करने की प्रक्रिया पर ही सवालिया निशान लगा दिया है परन्तु यह सवालिया निशान तब क्यों नहीं लगाया गया जब इसी प्रक्रिया के तहत अमरीका को ट्रिपल ए रेटिंग मिली थी जिसके सहारे वह दुनियां भर के तमाम देशों से ऋण लेकर अमरीकी पूंजीपतियों को सहायता प्रदान कर रहा था और दुनियां के तमाम देशों के संसाधनों पर कब्जा करने के लिए सैनिक अभियान चला रहा था।

अनीश्वरवादी प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक चार्वाक के दर्शन को तत्कालीन राजव्यवस्था के सिपहसालार दार्शनिकों ने विकृत करते हुए जिन कल्पित उक्तियों को चार्वाक के विचार बता कर बहुत तेजी से भारतीय जनमानस के दिमागों में बैठाने की कोशिश की थी उनमें से एक प्रसिद्ध उक्ति थी - ‘ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’। चार्वाक की न होते हुए भी जिन उक्तियों को जनमानस के मध्य फैलाया गया, उसका प्रमुख उद्देश्य था चार्वाक और उनके अनुयाईयों की छवि को धूमिल करना। इस उक्ति के पीछे का मंतव्य था कि चार्वाक उद्यमितता को समाप्त कर ऋण लेकर ऐश करने की शिक्षा देते हैं। पहले विश्वयुद्ध के समय से ही अमरीकी प्रशासन ने इस उक्ति को अंगीकार ही नहीं बल्कि इसका विस्तार कर दिया था - ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत च युद्धं करोति। पता नहीं क्यों दुनिया भर की सरकारें अमरीकी सरकार के पास ट्रिलियन अमरीकी डालरों को ऋण एवं बांड निवेश के जरिये सौंपे हुए हैं और उसके बावजूद भी उसके वर्चस्व को स्वीकार करने के लिए व्याकुल रहती हैं? इन कर्जों के सहारे ही अमरीकी अर्थव्यवस्था फलती फूलती ही नहीं रही है बल्कि दूसरे देशों पर प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे की जंग भी लड़ती रही है।

रविवार 7 अगस्त के भारतीय अखबारों ने अति प्रमुखता के साथ इस समाचार को छापते हुए तमाम काल्पनिक संकटों का जिक्र किया है। सही है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी हमेशा की तरह इस अवसर को भी मुनाफा वसूली के लिए प्रयोग करेगी जिससे दुनिया भर के शेयर बाजारों में निवेशकों का लुटना तय है। संभव है कि शेयर बाजारों में भारी गिरावट देखने को मिले। हो सकता है कि सोने की दाम पहले बढ़ाये जायें और दुनिया के निवेशक जब उसमें निवेश करने लगें तो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी वहां भी मुनाफा वसूली कर सोने के भावों को भी औकात दिखा दे। हो सकता है कि अमरीकी डालर का अवमूल्यन भी आने वाले वक्त में हो जिससे तमाम देशों के पास अमरीकी डालरों के विदेशी मुद्रा भंडार की कीमत कम हो जाये। हो सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी जिंसो के वायदा बाजार यानी सट्टा बाजार में भी उठा-पटक करे। जिस तरह से अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को पूरे भूमंडल में स्वच्छंदता से तेज गति से भ्रमण करने का मौका मुहैया कराया गया है, उसमें बार-बार ऐसा होना कोई अप्रत्याशित घटना नहीं है। निर्यात पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। यह भी संभव है कि भारतीय जनमानस के पैसे पर शिक्षा प्राप्त कर अमरीकी पूंजीवाद की चाकरी कर रहे तमाम भारतीय बेरोजगार होकर अपने देश लौटने को विवश हों और यहां आकर वे यहां के बेरोजगारी के संकट को और तीव्र और गहरा कर दें।

इस घटना ने एक बार फिर पूंजीवाद के अंतर्निहित संकटों को उभार कर यह साबित कर दिया है कि पूंजीवाद का अंतिम विकल्प मार्क्सवाद के जरिये ही प्राप्त किया जा सकता है। इन संकटों का जिक्र पूंजीवाद के पैदा होते ही मार्क्स ने कर लिया था और उनका जिक्र अपनी तमाम रचनाओं में किया है। तमाम लातिन अमरीकी तथा एशियाई देश अगर चाहें तो इन परिस्थितियों का उपयोग कर भूमंडल पर अमरीका के वर्चस्व को समाप्त कर सकते हैं। वे केवल अमरीका के पास रखे अपने पैसे का भुगतान जितनी जल्दी संभव हो वापस लेने का निर्णय लें क्योंकि कर्ज के सहारे चल रही अमरीकी अर्थव्यवस्था और अमरीकी पूंजीवाद से निजात पाने का इस समय एक अच्छा मौका है। ऋणों के सहारे किसी अर्थव्यवस्था को दीर्घावधि तक नहीं चलाया जा सकता।

- प्रदीप तिवारी
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शनिवार, 6 अगस्त 2011

लो क सं घ र्ष !: आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन का इतिहास: महेश राठी


आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स फेडरेशन भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का बेहद गौरवमयी और प्रेरणाप्रद हिस्सा है। 0आई0एस0एफ0 भारतीय स्वाधीनता संग्राम का वह भाग है जिसके माध्यम से देश के छात्र समुदाय ने आज़ादी की लड़ाई में अपने संघर्षों और योगदान की अविस्मरणीय कथा लिखी। भारतीय इतिहास में छात्रांे के इस गौरवशाली संघर्ष गाथा का सफर 19वीं सदी से आरम्भ होकर आज़ाद भारत के तमाम उतार-चढ़ावांे से होते हुए 21वीं सदी के वर्तमान पड़ाव तक पहुँचता है।
भारतीय छात्र आन्दोलन का संगठित रूप 1828 में सबसे पहले कलकत्ता में एकेडमिक एसोसिएसन के नाम से दिखाई देता है, जिसकी स्थापना एक पुर्तगाली छात्र विवियन डेरोजियों द्वारा की गई। एकेडमिक एसोसिएसन देश का पहला छात्र संगठन था जिसने सामंतवाद विरोधी, स्वतंत्रता, प्रगति और आधुनिकता जैसे विचारों के प्रचार-प्रसार का काम किया। एकेडमिक एसोसिएसन के पश्चात दूसरा संगठित रूप 1840 से 1860 के मध्य यंग बंगाल मूवमेंट के रूप में दिखाई पड़ता है। यंग बंगाल मूवमेंट ने बंगाल के सामाजिक और राजनैतिक जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इसके बाद भी छात्र संगठनों के रूप में छोटी और लगातार कोशिशंे दिखाई पड़ती हैं। इन सबके अलावा छात्र संगठन के रूप में दूसरी महत्वपूर्ण कोशिश 1948 में दादा भाई नौरोजी की पहल पर मुम्बई में स्टूडेन्ट्स लिटरेरी और साइंटिफिक सोसायटी के रूप में जान पड़ती है। कलकत्ता के आनन्द मोहन बोस और सुरेन्द्र नाथ बनर्जी द्वारा 1876 में स्थापित स्टूडेन्ट्स एसोसिएसन संभवतः 19वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण संगठन था। इस संगठन के नेतृत्व ने संगठन बनाने के लिए पहली बार जनसभाओं एवं जनान्दोलनों का सहारा लिया इसके अलावा इस संगठन ने 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में विशेष एवं महती भूमिका अदा की। इन कुछ महत्वपूर्ण कोशिशांे के अलावा भी देश के कई अन्य भागों में युवा एवं छात्र संगठनों और छात्र आन्दोलनों की पहल अनेक छात्र नेताओं द्वारा की गई।
19वीं सदी का अन्तिम दशक और 20वीं सदी का शुरुआती दौर काफी घटना प्रधान समय था। विशेषतौर पर शिक्षा के प्रसार के लिए कई काम किए जा रहे थे, जहाँ बम्बई विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना हो चुकी थी तो वहीं कई काॅलेज और विद्यालयों की स्थापना भी इस दौर में हो रही थी। माध्यमिक और उच्चतर शिक्षा लेने वाले छात्रों की संख्या जहाँ दो लाख थी, स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर 14 हजार से भी अधिक छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। एक प्रकार से यह वह समय था जब छात्र आन्दोलन और संगठनों के लिए भौतिक परिस्थितियाँ धीरे -धीरे तैयार हो रही थीं। 20वीं सदी के शुरुआती दशक की परिस्थितियाँ छात्र आन्दोलनों और संगठनों के लिए बेहद उपयुक्त थीं। बंगाल विभाजन ने जहाँ देश की राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी तो वहीं छात्र एवं युवा भी इस घटना से उद्वेलित और आन्दोलित हुए बिना नहीं रह सके। 1902 में स्थापित डान सोसायटी इस दौर का बेहद प्रभावशाली संगठन था। इंडियन यूनिवर्सिटीज कमीशन की एक रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद छात्र और शिक्षाविदों ने मिलकर 1902 में इस संगठन की स्थापना की। शिक्षा के लिए सबसे पहले स्वदेशी संस्थानों की माँग करने वाले इस संगठन ने ही भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में स्वदेशी और बंग भंग विरोध का आधार तैयार किया। 16 अक्टूबर 1905 में बंगाल का विभाजन हो गया। विभाजन के विरोध स्वरूप देश भर में बंग भंग विरोधी एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। प्रतिरोध की इस आग के कारण छात्र समुदाय में भी एक जबरदस्त विरोध का उभार दिखाई दिया। इसी विरोध के परिणाम स्वरूप विदेशी वस्तुओं और वस्त्रों के बहिष्कार और स्वदेशी के इस्तेमाल और स्वदेशी शिक्षा की माँग को लेकर देश भर में स्वदेशी आन्दोलन की शुरुआत हुई। बंग भंग विरोध एवं स्वदेशी आन्दोलन भारत का पहला बड़ा छात्र-युवा आन्दोलन था, जिसमें कुछ दूसरे तबकों ने भी भाग लिया। इस आन्दोलन ने भारत के इतिहास में गहरा प्रभाव छोड़ा जिस कारण बाद के वर्षों में कई संगठनो और आन्दोलनांे ने जन्म लिया और इस आन्दोलन का फैलाव भी देश के अन्य भागों में होना शुरू हुआ। यह दौर छात्र समुदाय की संख्या में उतारोतर बढ़ोत्तरी के साथ ही छात्रांे की राजनैतिक गतिविधियों में भी गुणात्मक और मात्रात्मक उभार का था। छात्रों के संगठित होने की इसी कड़ी में 1906 में पटना में बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन की स्थापना राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर हुई। राजेन्द्र प्रसाद आगे चलकर आज़ाद भारत के पहले राष्ट्रपति बने। बिहारी स्टूडेन्ट्स सेन्ट्रल एसोसिएशन ने बिहार के सभी जिलों में अपनी शाखाएँ स्थापित करने के साथ ही कलकत्ता और बनारस तक भी संगठन का फैलाव किया। इस संगठन की स्थापना कोई अस्थायी घटना नहीं थी, यह संगठन 1921 के बाद तक भी संगठन के सम्मेलन नियमित रूप से आयोजित करता रहा और इसके अलावा 1908 में बिहार में कांग्रेस की स्थापना में भी इस छात्र संगठन की महती भूमिका रही।
एनी बेसेंट ने 1908 में बनारस से सेन्ट्रल हिन्दू कॉलेज नामक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। जिसमें उन्होंने कई बार एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की आवश्यकता पर बल दिया। एनी बेसेंट की इन्हीं कोशिशों के कारण देश के शिक्षित हिस्से, छात्र, अध्यापक और राजनेताओं में अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरूरत पर चर्चा होना शुरू हो गई। इन्हीं चर्चाओं के चलते 1917 में रूसी क्रान्ति हो गई जिसके कारण दुनिया में माक्र्सवादी विचारों का तेजी से प्रचार-प्रसार होना शुरू हो गया। समाजवाद के इस प्रचार ने दुनिया के स्वतंत्रता आन्दोलनांे पर गहरा प्रभाव छोड़ा तो वहीं दूसरी तरफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के संकटों को भी बढ़ाया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में भी इन बदली हुई परिस्थितियों के कारण तेजी देखने में आई। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के क्षितिज पर कई क्रान्तिकारी और जनाधार वाले नेताओं का उदय हुआ इनमें तिलक, महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस प्रमुख नाम थे। इसके साथ ही समाजवादी और वामपंथी विचारांे के फैलाव में भी तेजी आई। इसी के साथ 1919-20 में कई शहरों और प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन किया गया। यह असहयोग-आन्दोलन की तैयारियों का समय था। अन्त में दिसम्बर 1920 में कांग्रेस अधिवेशन के मौके पर एक अखिल भारतीय स्तर के छात्र सम्मेलन के आयोजन पर सहमति बनी। जिसके कारण 25 दिसम्बर 1920 को नागपुर में आॅल इंडिया काॅलेज स्टूडेन्ट्स काॅन्फ्रेंस का आरम्भ हुआ। इस सम्मेलन की स्वागत समिति के अध्यक्ष आर0 जे0 गोखले थे और इसका उद्घाटन लाला लाजपत राय ने किया। इस सम्मेलन में निर्णय लिया गया कि सभी छात्र असहयोग-आन्दोलन और स्वदेशी आन्दोलन में बढ़ चढ़कर भाग लेंगे। यह देश का पहला अखिल भारतीय स्तर का छात्र सम्मेलन था। इस पहल की खबर पूरे देश में तेजी से फैली और इसने छात्रांे के अन्दर एक नई तरह की राजनैतिक समझदारी और उत्साह का संचार किया। इस संगठन के कम से कम पंच सम्मेलन आयोजित किए गए और संगठन के तौर पर इस पहल ने कुछ वर्षांे तक सक्रियता के साथ काम किया।
1920 से 1935 के बीच का समय काफी घटना प्रधान था। इस दौरान देश में बड़े स्तर पर विद्याालयों और महाविद्यालयों की भी स्थापना हुई। छात्र समुदाय की संख्या में लगभग तीन गुना बढ़ोत्तरी 20वीं सदी की शुरुआत से अब तक हो चुकी थी। यह देश में एक मजबूत छात्र आन्दोलन के लिए भौतिक परिस्थितियाँ और आधार तैयार होने की प्रक्रिया थी। बड़ी संख्या के साथ ही देश की आजादी के संघर्षो में भी अब छात्रांे की एक महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई दे रही थी। छात्र समुदाय अब राष्ट्र के सार्वजनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था। इसी के साथ नए-नए छात्र संगठनों के बनने की प्रक्रिया तेज हो रही थी। इसी दौर में 1928-30 के मध्य देश में यूथ लीग मूवमेंट नामक एक संगठन का निर्माण कुछ छात्र युवाआंे ने मिलकर किया। इस संगठन ने छात्रों और युवाओं के मध्य क्रान्तिकारी विचारांे का तेजी से प्रचार किया। यह संगठन छात्र, युवाओं के मध्य वामपंथी और माक्र्सवादी विचारों को ले जाने का वाहक बनकर उभरा। सोवियत रूसी क्रान्ति के प्रभाव से देश में छात्रों और युवाओं ने एक नई क्रान्तिकारी विचारधारा की राह प्रशस्त की। देश में समाजवादी क्रान्ति का शुरुआती सपना बुनने वालों में जवाहर लाल नेहरू, यूसुफ मैहर अली, सुभाष चन्द्र बोस और पूरन चन्द्र जोशी प्रमुख नाम थे। इस संगठन ने काॅलेज, स्कूल, गली मोहल्लों और बस्तियों के स्तर पर देशभर में संगठन की स्थापना की तथा लगातार पत्र पत्रिकाएँ प्रकाशित करके भी एक देशव्यापी छात्र संगठन के भविष्य की नींव रखी। छात्र आन्दोलनों की इसी कड़ी में पूरे देश में लगातार अलग-अलग प्रांतों में छात्र सम्मेलनों का आयोजन होता रहा। 1928 में कलकत्ता में पं0 जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में एक आॅल इण्डिया सोशलिस्ट यूथ कांफ्रेंस का आयोजन किया गया तो वहीं 1929 में लाहौर में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में आल इण्डिया स्टूडेन्ट्स कंवेंशन का भी आयोजन किया गया, 1920-30 के मध्य पूरे देश के सभी प्रांतो में मानो छात्र संगठनो, सम्मेलनों और छात्र संघों की बाढ़ सी आ गई थी। लगातार छात्र संगठनों के बनने की ये घटनाएँ दरअसल एक अखिल भारतीय छात्र संगठन की जरुरतांे और उसके बनने की प्रक्रिया को रेखांकित कर रही थीं। पंजाब, बिहार, यूपी, मद्रास, कलकत्ता, इलाहाबाद, आसाम, बंगाल, लाहौर और सिंन्ध सभी जगह छात्र संगठन बन रहे थे जिनमें से अधिकतर का विलय आगे चलकर ए0आई0एस0एफ0 में हो गया। इनमें से कई संगठनों का किसी राजनैतिक धारा से जुड़ाव था तो कई बिल्कुल अराजनैतिक एवं स्वतंत्र संगठन थे।

क्रमश:
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शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम: नयी घोषणाओं से क्या होगा जब सार्वजनिक चिकित्सा सेवा है ठप्प


सरकारी आंकडों के ही अनुसार देश में हर साल लगभग अड़सठ हजार महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है और जन्म के एक महीने के भीतर ही नौ लाख से ज्यादा बच्चे मर जाते हैं और सरकार का दावा है देश तरक्की कर रहा है और आर्थिक वृद्धि 9 प्रतिशत के लगभग चल रही है।

महंगाई भ्रष्टाचार, घोटालों और काले धन के मुद्दों से बुरी तरह घिरी सरकार को अब जनता के मुद्दे याद आने लगे हैं, जो उसने ”जननी शिशु सुरक्षा“ कार्यक्रम की घोषणा कर दी और दावा कर रही है कि सभी राज्यों को निर्देश दिया गया है कि वे गर्भवती महिलाओं को अस्पताल में रहने के दौरान मुफ्त दवा और भोजन की व्यवस्था करायें और उन्हें सभी तरह की जांॅच और अस्पताल आने-जाने का खर्च या साधन उपलब्ध करायें।

कोई भी समझ सकता है कि सरकार के इस तरह के दावे का कोई मतलब नहीं रह जाता जब सरकार ने स्वयं ही सरकारी डिस्पेंसरियों, जिला अस्पतालों और अन्य बड़े अस्पतालों को पहले ही पंगु बना दिया है। स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में सरकार की सारी कोशिश प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा देने की और सरकारी अस्पतालों को कमजोर करने की तरफ है। इसी नीति के तहत किसी भी सरकारी अस्पताल में न पूरे डाक्टर है, न नर्स, न फार्मासिस्ट, न एक्सरे स्टाफ, न लेब्रोरेटरी स्टाफ, न अस्पतालों में दवाईयां है, न सरकारी अस्पतालों की एक्सरे मशीन चालू हैं, न अल्ट्रा साउंड मशीनें, न लेबोरेटरियां, कहीं एक्सरे मशीन है तो स्टाफ नहीं। कहीं स्टाफ है तो एक्सरे मशीन नहीं। यदि एक्सरे स्टाफ और मशीनें दोनों हैं तो भी मरीजों का एक्सरे नहीं होता क्योंकि अस्पताल के बाहर कई प्राइवेट निदान केन्द्र एक्सरे मशीनें लिए बैठे हैं जो सरकारी अस्पताल के सुपरिन्टेन्डेन्ट को कमीशन देते हैं। अतः मरीजों को बाहर ही एक्सरे कराने पर मजबूर किया जाता है। खून की जांच और अन्य सभी जांचों के मामले में भी यही होता है।

इस सबके लिए केवल अस्पताल सुपरिडेंन्ट ही जिम्मेदार नहीं। सरकार की ऊपर से नीचे तक यही नीति है कि सभी काम प्राइवेट में ही कराये जायें। सुपरिटेंडेंट भी उसी नीति को अमल में ला रहे हैं।

अब तो सरकारी अस्पतालों में फीस भी ली जाने लगी है। देश की राजधानी दिल्ली में भी सरकार के विभिन्न अस्पतालों में अलग-अलग काम के लिए फीसें तय हैं। फीस दिये बगैर कोई काम नहीं होता और साल-दर-साल अस्पताल की एक बाद दूसरी सेवा पर फीस की व्यवस्था लागू की जा रही है।

जब सरकारी डिस्पेंसरियों और अस्पतालों का सरकार ने यह हाल कर रखा है तो ”जननी-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम“ की घोषणा से क्या होगा जबकि सरकार का सारा जोर सरकारी अस्पतालों को ठप्प करने का और प्राइवेट क्लीनिकों, प्राइवेट नर्सिंग होमों और प्राइवेट अस्पतालों को बढ़ावा देने का है।

पिछले सप्ताह दिल्ली के अखबार में खबर छपी कि एक व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर एम्स गया, एम्स जो दिल्ली का सबसे बड़ा अस्पताल है। यह सरकारी अस्पताल है। बच्चे को हृदय की कोई समस्या थी उसे कहा गया कि इस इलाज के लिए 21000 रूपये पहले जमा कराओ तब इलाज शुरू होगा। इतने पैसे उसके पास थे नहीं, बच्चे को लेकर वापस अपने घर चला गया। किसी तरह वह इस मामले को हाईकोर्ट ले गया। जाहिर है किसी भले और तेज दिमाग वकील ने इसमें उसकी मदद की होगी। हाईकोर्ट ने आदेश दिया कि पैसे नहीं है इस कारण बच्चे का इलाज नहीं हो सकता यह गलत बात है। हाईकोर्ट ने दिल्ली के जीबी पंत अस्पताल को, जो दिल्ली का एक अन्य बड़ा सरकारी अस्पताल है और जहां हृदय चिकित्सा के विशेष प्रबंध हैं, आदेश दिया कि इस बच्चे का इलाज किया जाए। अब मामला इतना उछल गया है और हाईकोर्ट का आदेश हो गया है तो उसका इलाज अवश्य ही हो जायेगा। पर देश का हर आदमी तो इस तरह अदालत के जरिये राहत नहीं पा सकता।

स्वयं विश्व बैंक की रिपोर्ट है कि एक तिहाई भारतीय तो पैसे न होने के कारण इलाज के लिए जाते ही नहीं हैं। अन्य रिपोर्टों के अनुसार, सरकारी अस्पतालों में इलाज की समुचित व्यवस्था न होने के कारण जो लोग निजी अस्पतालों में इलाज कराने की हिम्मत करते हैं उनमें से बड़ी तादाद में लोग घर की परिसम्पत्तियां बेचकर ही इलाज का खर्च चुकाते हैं। इस हालत के लिए नवउदारवाद की आर्थिक नीतियां जिम्मेदार है। इन नीतियों को बदले बिना जननी सुरक्षा कार्यक्रम महज घोषणा बन कर रह जाते हैं।

- आर.एस. यादव
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