फ़ॉलोअर
सोमवार, 4 अक्तूबर 2010
at 9:14 pm | 0 comments | डा. गिरीश
नेपाल के वर्तमान हालात
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य और उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल के सचिव डा0 गिरीश ने 17 से 21 सितंबर तक काठमांडू में संपन्न नेपाली कांग्रेस के कन्वेंशन में बतौर भाकपा प्रतिनिधि भाग लिया।
अपने पांच दिवसीय नेपाल प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाली कांग्रेस के खुले अधिवेशन को संबोधित किया। नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के अतिरिक्त उन्होंने नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री कामरेड माधव कुमार नेपाल, उप प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री सुजाता कोइराला, रक्षा मंत्री विद्या देवी भंडारी, पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं सीपीएन-यू.एम.एल के शीर्षस्थ नेता के.पी.एस.ओली के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकारों, अधिवक्ताओं, उद्यमियों तथा समाज के विभिन्न तबकों के लोगों से भेंट की और विचारों का आदान प्रदान किया। प्रस्तुत लेख इसी अंतर्संवाद पर आधारित है।
- संपादक
लोकतांत्रिक नव निर्माण की राह पर है नेपाल
नेपाल अपने अब तक के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। कुछ ही वर्ष पहले निरंकुश राजशाही के चंगुल से मुक्त हुये इस देश की जनता के समक्ष चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। चुनौती शांति स्थापित करने की है। चुनौती नेपाल को तरक्की और समता के रास्ते पर ले जाने वाले संविधान के निर्माण की है। चुनौती नेपाल के विकास और आत्मनिर्भरता की है। और बड़ी चुनौती है प्रधानमंत्री के चुनाव में पैदा हुये गतिरोध को तोड़ कर नये प्रधानमंत्री के चुनाव की।
लोकतंत्र की गहरी नींव पड़ चुकी है
गत वर्षों में नेपाल की जनता और वहां के राजनैतिक दलों ने अपने लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास व्यक्त किया है। इसकी जड़ में 23 नवंबर 2005 को सात संसदीय पार्टियों एवं माओवादियों के बीच हुआ समझौता है। 12 सूत्रीय यह समझौता नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें गैर हथियारी लोकतांत्रिक संघर्ष का संकल्प विहित है। यह जनता की सार्वभौमिकता एवं लोकतंत्र के लिये संघर्ष के संकल्प का वैध घोषणा पत्र है। इसी समझौते के परिणामस्वरूप अप्रैल 2006 में लाखों लोग सड़कों पर उतर आये और राजा को जी.पी. कोइराला को सत्ता सौंपनी पड़ी। नेपाल सदियों पुरानी राजशाही को अपदस्थ करने में कामयाब हुआ। 1 मई 10 को इस समझौते के विपरीत माओवादियों ने ‘सड़क विद्रोह’ की राह पकड़ी तो जनता ने विफल कर दिया।
यद्यपि 600 सदस्यीय संविधान सभा में आम जनता ने बहुदलीय लोकतंत्र के प्रति स्पष्ट जनादेश दिया लेकिन किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हुआ। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी (यूसीपीएन-एम) को सबसे ज्यादा 238 सीटें मिलीं। नेपाली कांगेेस को 114 सीटें हासिल हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-संयुक्त मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यू एमएल) को 109 सीटें, 82 सीटें मधेसी पार्टियों को तथा शेष कुछ अन्य दलों के खाते में र्गइं।
नेपाल के अंतरिम संविधान के अनुसार सरकार बनाने को आधे से अधिक बहुमत की जरूरत होती है। यानी कि 301 सदस्यों के बहुमत से ही प्रधानमंत्री चुना जा सकता है।
सरकार चुनने में खड़ा हुआ गतिरोध
संविधान सभा के चुनाव के बाद यू.सी.पी.एन-माओवादी पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। लेकिन हथियार बन्द माओवादियों को नेपाली सेना में शामिल करने के सवाल पर सेना प्रमुख को हटाने के उनके फैसले पर उत्पन्न हुये गतिरोध के कारण उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी। तब नेपाली कांग्रेस, सी.पी.एन.-यू.एम.एल. एवं अन्य दलों के लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी जिसके प्रधानमंत्री सीपीएन-यू.एम.एल. के नेता माधव कुमार नेपाल बने। किसी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह भी एक केयर टेकर सरकार 17 माह से चल रही है और अभी तक नये प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं हो पाया है तो उसकी वजह है प्रमुख राजनैतिक दलों का आम सहमति अथवा बहुमत की स्थिति में न पहुंच पाना।
इस दरम्यान प्रधानमंत्री पद के लिये आठ बार निर्वाचन हो चुका है। आठवीं बार के चुनाव से पहले जो अभी 26 सितम्बर को ही संपन्न हुआ है, यू.सी.पी.एन.-एम. के नेता प्रचण्ड ने अपने को चुनाव से अलग कर लिया था और नेपाल कांग्रेस का भी आह्वान किया था कि वह भी अपने प्रत्याशी रामचन्द्र पौडल को चुनाव मैदान से हटा ले ताकि आम सहमति से नये प्रधानमंत्री के चुनाव का रास्ता साफ हो। सी.पी.एन.-यू.एम.एल ने चुनावों में तटस्थ रहने का निर्णय पहले ही ले रखा है अतएव आठवीं बार के चुनाव में भी नेपाली कांग्रेस के प्रत्याशी को बहुमत नहीं मिल सका। राजनैतिक दलों की ध्रुव प्रतिज्ञाओं के चलते प्रधानमंत्री पद के चुनाव का गतिरोध आज भी कायम है। बेशक नेपाली जनमानस इससे बेहद चिन्तित है और नेताओं की हठवादिताओं के प्रति जनाक्रोश स्पष्ट देखा जा सका है।
समाधान की राह आसान नहीं
लेकिन गतिरोध को समाप्त करने के लिये कई समाधान हवा में उछल रहे हैं। सबसे प्रमुख है - आम सहमति से प्रधानमंत्री चुनने के रास्ते खोजे जायें और जरूरी हो तो संविधान में संशोधन किया जाये। दूसरा - सीपीएन यू.एम.एल. और यू.सी.पी.एन. (माओवादी) मिलकर इसके लिये सहमति बना लें। तीसरा - यू.सी.पी.एन.-एम., मधेसी तथा अन्य दलों साथ लेकर 301 सदस्यों का बहुमत जुटा ले। बाद के दोनों समाधानों में माओवादी पहले ही असफल हो चुके हैं।
शांति प्रक्रिया जारी है
माओवादियों को नेपाली कांग्रेस और सी.पी.एन.-यू.एम.एल. तथा अन्य दलों द्वारा समर्थन न देने के पीछे माओवादियों द्वारा हथियार बंद संघर्ष की नीति का परित्याग न करना है जो शंाति प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। लगभग 20 हजार माओवादी लड़ाके जनमुक्ति सेना (पी.एल.ए.) और यंग कम्युनिस्ट लीग (वाई.सी.एल) नामक संगठनों के अंतर्गत काम कर रहे हैं और वे हथियार बंद हैं। वर्तमान में ये दोनों दस्ते संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन की देख रेख में बैरकों में रह रहे हैं मगर ये जब तक अपनी पुलिसिया कार-गुजारियों का प्रदर्शन करते रहते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मासिक दस हजार नेपाली रुपए बतौर वेतन दिये जा रहे हैं। माओवादी इन्हें सेना में शामिल कराने का असफल प्रयास करते रहे हैं और आज भी दबाव बना रहे हैं। अन्य दल इसका विरोध करते आ रहे हैं और इन दलों के अनुसार शांति प्रक्रिया में यह सबसे बड़ी बाधा है।
अब हाल ही में केयर टेकर सरकार और माओवादियों के बीच पी.एल.ए. और वाई.सी.एल. के लड़ाकों के पुनर्वास के लिये एक चार सूत्रीय समझौता हुआ है जिसके तहत 14 जनवरी 2011 तक पीएलए माओवादियों के नियंत्रण से अलग हो जायेगी और 19602 माओवादी लड़ाके यू.सी.पी.एन.-एम की कमांड से बाहर आ जायेंगे। समझौते के तहत पीएलए. के निरीक्षण, कमांड, नियंत्रण और बनी आचार संहिता को लागू कराने के लिये छह दलों (जिसमें माओवादी शामिल हैं) की एक विशेष समिति गठित की गई है जिसने एक 12 सदस्यीय सैक्रेटरियेट का गठन किया है। इस विशेष समिति द्वारा जारी निर्देशों के तहत पी.एल.ए. लड़ाके सरकार के नियंत्रण में आ गये हैं। इस समस्या के समाधान से शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।
बहुदलीय, धर्मनिरपेक्ष संविधान की ओर
बार-बार प्रधानमंत्री का चुनाव टलना और शांति प्रक्रिया में हो रहे विलंब के कारण संविधान निर्माण के काम में बाधा आ रही है और वह विलंबित हो रहा है। संविधान को 28 मई 2010 तक बन जाना चाहिये था। लेकिन अब यह समय सीमा बढ़ाकर मई 2011 कर दी गई है। विभिन्न दल इसके निर्माण में अवरोधों को लेकर भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों लेकिन संविधान के मूल ढांचे और उद्देश्यों को लेकर एक व्यापक आम सहमति है। यह सहमति बहुदलीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समतामूलक समाज और सामाजिक न्याय के पक्ष में है। दशकों तक एक हिन्दू राजा के शासन में रहे नेपाल में धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाने का पक्ष इतना प्रबल है कि वहां नेपाली कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को प्रेस वार्ता में कहना पड़ा कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष संविधान के निर्माण पर कोई एतराज नहीं है।
रोड़े भी हैं राह में
प्रधानमंत्री के चुनाव में लगातार चल रहे गतिरोध, शांति प्रक्रिया की धीमी गति और संविधान के निर्माण में हो रही देरी से जनता में पैदा हो रहे आक्रोश को भुनाने के प्रयास भी शुरू हो गये हैं। राजावादी शक्तियां आपस में एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं। राजावादी चार पूर्व प्रधानमंत्री, हिन्दू राष्ट्र एवं संवैधानिक राजतंत्र के गुणगान में लगे हैं। धर्मनिरपेक्ष एवं कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत से खींझा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी वहां गतिविधियां बढ़ा रहा है। माओवादी यद्यपि शंाति, नये संविधान एवं राष्ट्रीय संप्रभुता की बात कर रहे हैं लेकिन यह भी चेतावनी दे रहे हैं कि यदि ये लक्ष्य कानूनी तरीके से हासिल नहीं होंगे तो राष्ट्रयुद्ध होगा। आपसी फूट के चलते मधेसी पार्टियां भी संविधान निर्माण के लिये दबाव नहीं बना पा रही हैं। नेपाल की जनता वैधता, प्रासंगिकता एवं सकारात्मक परिणाम चाहती है। शांति ही लोगों के सम्मान की गारंटी करेगी और संविधान उनकी आकांक्षाओं की पूति करेगा।
रिश्ते गहरे हैं भारत-नेपाल के बीच
भारत और नेपाल के बीच गहरे भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनयिक एवं आर्थिक रिश्ते हैं। यहां तक कि आज भी दोनों के बीच आवागमन के लिये पासपोर्ट एवं वीजा आवश्यक नहीं है। दोनों देशों में लगभग 3565 करोड़ रुपये का भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम चल रहा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में कार्यरत हैं। इसे और व्यापक बनाने की जरूरत है। वहां हाइड्रोपावर उत्पादन के क्षेत्र में सहयेाग का भारी स्केाप है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा को भी दोनों देश मिल कर काम कर सकते हैं। राजशाही नेपाली जनता को बरगलाने को भारत विरोधी दुष्प्रचार करती थी। आज भी कुछ अतिवादी ताकतें इसका सहारा लेती हैं। परन्तु नेपाली जनमानस भारतीय जनमानस के साथ प्रगाढ़ रिश्तों का हामी है। यहां तक कि हर नेपाली हिन्दी समझता है, पढ़ एवं बोल सकता है। भारत के टीवी चैनल घर-घर में देखे जाते हैं। परस्पर सहयोग और मैत्री की इस दास्तान को और आगे बढ़ाने की जरूरत है।
नौजवानों के सशक्तिकरण की जरूरत
नेपाल का नौजवान नये और समृद्ध नेपाल के लिये तत्पर है। वह रोजगार और शिक्षा जैसे सवालों पर काफी गंभीर है। नेपाली कांग्रेस के 12वें कन्वेंशन के समय आयोजित खुले अधिवेशन में नौजवानों का सागर उमड़ पड़ा था। 50 हजार से ऊपर उपस्थित जन समुदाय में 99 प्रतिशत उपस्थिति 18 से 40 साल के बीच उम्र के युवकों की थी। कन्वेंशन के लिये चुनकर आये 3100 प्रतिनिधियों में 38 प्रतिशत डेलीगेट नवयुवक थे। “नौजवान सकारात्मक बदलाव के वाहक हैं, इसलिये उन्हें ताकत दी जानी चाहिये” - एक नौजवान ने कहा। दूसरे ने कहा-“नेपाल को ब्रेन-ड्रेन से बचाने की नीति बनानी चाहिये। खाड़ी देशों और भारत तमाम नौजवान छोटे कामों के लिये जाते हैं। देश में ही रोजगार की योजना बनानी चाहिये।”
लंबे समय तक राजशाही और पंचायती सिस्टम के विरूद्ध जनांदोलनों के जरिये नेपाल की जनता ने आज यह मुकाम हासिल किया है। नेपाल के नेताओं और राजनैतिक पार्टियों को जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतराना होगा और अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों से उबरना होगा। जनता के हितों के विपरीत चलने वालों को भविष्य में वही स्थान होगा जो पूर्ववर्ती राजाओं का बन चुका है। अतएव भविष्य की सच्चाइयों को पढ़ने और अमल में लाने में ही सभी की भलाई है।
- डा. गिरीश
अपने पांच दिवसीय नेपाल प्रवास के दौरान उन्होंने नेपाली कांग्रेस के खुले अधिवेशन को संबोधित किया। नेपाली कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के अतिरिक्त उन्होंने नेपाल के कार्यवाहक प्रधानमंत्री कामरेड माधव कुमार नेपाल, उप प्रधानमंत्री एवं विदेश मंत्री सुजाता कोइराला, रक्षा मंत्री विद्या देवी भंडारी, पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं सीपीएन-यू.एम.एल के शीर्षस्थ नेता के.पी.एस.ओली के अतिरिक्त वरिष्ठ पत्रकारों, अधिवक्ताओं, उद्यमियों तथा समाज के विभिन्न तबकों के लोगों से भेंट की और विचारों का आदान प्रदान किया। प्रस्तुत लेख इसी अंतर्संवाद पर आधारित है।
- संपादक
लोकतांत्रिक नव निर्माण की राह पर है नेपाल
नेपाल अपने अब तक के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दौर से गुजर रहा है। कुछ ही वर्ष पहले निरंकुश राजशाही के चंगुल से मुक्त हुये इस देश की जनता के समक्ष चुनौतियां ही चुनौतियां हैं। चुनौती शांति स्थापित करने की है। चुनौती नेपाल को तरक्की और समता के रास्ते पर ले जाने वाले संविधान के निर्माण की है। चुनौती नेपाल के विकास और आत्मनिर्भरता की है। और बड़ी चुनौती है प्रधानमंत्री के चुनाव में पैदा हुये गतिरोध को तोड़ कर नये प्रधानमंत्री के चुनाव की।
लोकतंत्र की गहरी नींव पड़ चुकी है
गत वर्षों में नेपाल की जनता और वहां के राजनैतिक दलों ने अपने लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास व्यक्त किया है। इसकी जड़ में 23 नवंबर 2005 को सात संसदीय पार्टियों एवं माओवादियों के बीच हुआ समझौता है। 12 सूत्रीय यह समझौता नेपाल के लोकतांत्रिक संघर्षों के बल पर राजशाही को समाप्त कर एक बहुलवादी लोकतांत्रिक संघर्ष का सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज है। इसमें गैर हथियारी लोकतांत्रिक संघर्ष का संकल्प विहित है। यह जनता की सार्वभौमिकता एवं लोकतंत्र के लिये संघर्ष के संकल्प का वैध घोषणा पत्र है। इसी समझौते के परिणामस्वरूप अप्रैल 2006 में लाखों लोग सड़कों पर उतर आये और राजा को जी.पी. कोइराला को सत्ता सौंपनी पड़ी। नेपाल सदियों पुरानी राजशाही को अपदस्थ करने में कामयाब हुआ। 1 मई 10 को इस समझौते के विपरीत माओवादियों ने ‘सड़क विद्रोह’ की राह पकड़ी तो जनता ने विफल कर दिया।
यद्यपि 600 सदस्यीय संविधान सभा में आम जनता ने बहुदलीय लोकतंत्र के प्रति स्पष्ट जनादेश दिया लेकिन किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त न हुआ। संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-माओवादी (यूसीपीएन-एम) को सबसे ज्यादा 238 सीटें मिलीं। नेपाली कांगेेस को 114 सीटें हासिल हुई। कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-संयुक्त मार्क्सवादी लेनिनवादी (सीपीएन-यू एमएल) को 109 सीटें, 82 सीटें मधेसी पार्टियों को तथा शेष कुछ अन्य दलों के खाते में र्गइं।
नेपाल के अंतरिम संविधान के अनुसार सरकार बनाने को आधे से अधिक बहुमत की जरूरत होती है। यानी कि 301 सदस्यों के बहुमत से ही प्रधानमंत्री चुना जा सकता है।
सरकार चुनने में खड़ा हुआ गतिरोध
संविधान सभा के चुनाव के बाद यू.सी.पी.एन-माओवादी पार्टी ने सत्ता संभाली और उसके नेता पुष्प कमल दहल ‘प्रचण्ड’ प्रधानमंत्री बने। लेकिन हथियार बन्द माओवादियों को नेपाली सेना में शामिल करने के सवाल पर सेना प्रमुख को हटाने के उनके फैसले पर उत्पन्न हुये गतिरोध के कारण उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी। तब नेपाली कांग्रेस, सी.पी.एन.-यू.एम.एल. एवं अन्य दलों के लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी जिसके प्रधानमंत्री सीपीएन-यू.एम.एल. के नेता माधव कुमार नेपाल बने। किसी कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री के नेतृत्व में वह भी एक केयर टेकर सरकार 17 माह से चल रही है और अभी तक नये प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं हो पाया है तो उसकी वजह है प्रमुख राजनैतिक दलों का आम सहमति अथवा बहुमत की स्थिति में न पहुंच पाना।
इस दरम्यान प्रधानमंत्री पद के लिये आठ बार निर्वाचन हो चुका है। आठवीं बार के चुनाव से पहले जो अभी 26 सितम्बर को ही संपन्न हुआ है, यू.सी.पी.एन.-एम. के नेता प्रचण्ड ने अपने को चुनाव से अलग कर लिया था और नेपाल कांग्रेस का भी आह्वान किया था कि वह भी अपने प्रत्याशी रामचन्द्र पौडल को चुनाव मैदान से हटा ले ताकि आम सहमति से नये प्रधानमंत्री के चुनाव का रास्ता साफ हो। सी.पी.एन.-यू.एम.एल ने चुनावों में तटस्थ रहने का निर्णय पहले ही ले रखा है अतएव आठवीं बार के चुनाव में भी नेपाली कांग्रेस के प्रत्याशी को बहुमत नहीं मिल सका। राजनैतिक दलों की ध्रुव प्रतिज्ञाओं के चलते प्रधानमंत्री पद के चुनाव का गतिरोध आज भी कायम है। बेशक नेपाली जनमानस इससे बेहद चिन्तित है और नेताओं की हठवादिताओं के प्रति जनाक्रोश स्पष्ट देखा जा सका है।
समाधान की राह आसान नहीं
लेकिन गतिरोध को समाप्त करने के लिये कई समाधान हवा में उछल रहे हैं। सबसे प्रमुख है - आम सहमति से प्रधानमंत्री चुनने के रास्ते खोजे जायें और जरूरी हो तो संविधान में संशोधन किया जाये। दूसरा - सीपीएन यू.एम.एल. और यू.सी.पी.एन. (माओवादी) मिलकर इसके लिये सहमति बना लें। तीसरा - यू.सी.पी.एन.-एम., मधेसी तथा अन्य दलों साथ लेकर 301 सदस्यों का बहुमत जुटा ले। बाद के दोनों समाधानों में माओवादी पहले ही असफल हो चुके हैं।
शांति प्रक्रिया जारी है
माओवादियों को नेपाली कांग्रेस और सी.पी.एन.-यू.एम.एल. तथा अन्य दलों द्वारा समर्थन न देने के पीछे माओवादियों द्वारा हथियार बंद संघर्ष की नीति का परित्याग न करना है जो शंाति प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा बना हुआ है। लगभग 20 हजार माओवादी लड़ाके जनमुक्ति सेना (पी.एल.ए.) और यंग कम्युनिस्ट लीग (वाई.सी.एल) नामक संगठनों के अंतर्गत काम कर रहे हैं और वे हथियार बंद हैं। वर्तमान में ये दोनों दस्ते संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति मिशन की देख रेख में बैरकों में रह रहे हैं मगर ये जब तक अपनी पुलिसिया कार-गुजारियों का प्रदर्शन करते रहते हैं। सरकार की ओर से उन्हें मासिक दस हजार नेपाली रुपए बतौर वेतन दिये जा रहे हैं। माओवादी इन्हें सेना में शामिल कराने का असफल प्रयास करते रहे हैं और आज भी दबाव बना रहे हैं। अन्य दल इसका विरोध करते आ रहे हैं और इन दलों के अनुसार शांति प्रक्रिया में यह सबसे बड़ी बाधा है।
अब हाल ही में केयर टेकर सरकार और माओवादियों के बीच पी.एल.ए. और वाई.सी.एल. के लड़ाकों के पुनर्वास के लिये एक चार सूत्रीय समझौता हुआ है जिसके तहत 14 जनवरी 2011 तक पीएलए माओवादियों के नियंत्रण से अलग हो जायेगी और 19602 माओवादी लड़ाके यू.सी.पी.एन.-एम की कमांड से बाहर आ जायेंगे। समझौते के तहत पीएलए. के निरीक्षण, कमांड, नियंत्रण और बनी आचार संहिता को लागू कराने के लिये छह दलों (जिसमें माओवादी शामिल हैं) की एक विशेष समिति गठित की गई है जिसने एक 12 सदस्यीय सैक्रेटरियेट का गठन किया है। इस विशेष समिति द्वारा जारी निर्देशों के तहत पी.एल.ए. लड़ाके सरकार के नियंत्रण में आ गये हैं। इस समस्या के समाधान से शांति प्रक्रिया आगे बढ़ेगी।
बहुदलीय, धर्मनिरपेक्ष संविधान की ओर
बार-बार प्रधानमंत्री का चुनाव टलना और शांति प्रक्रिया में हो रहे विलंब के कारण संविधान निर्माण के काम में बाधा आ रही है और वह विलंबित हो रहा है। संविधान को 28 मई 2010 तक बन जाना चाहिये था। लेकिन अब यह समय सीमा बढ़ाकर मई 2011 कर दी गई है। विभिन्न दल इसके निर्माण में अवरोधों को लेकर भले ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगा रहे हों लेकिन संविधान के मूल ढांचे और उद्देश्यों को लेकर एक व्यापक आम सहमति है। यह सहमति बहुदलीय लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, समतामूलक समाज और सामाजिक न्याय के पक्ष में है। दशकों तक एक हिन्दू राजा के शासन में रहे नेपाल में धर्मनिरपेक्ष संविधान बनाने का पक्ष इतना प्रबल है कि वहां नेपाली कांग्रेस के अधिवेशन में भाग लेने पहुंचे भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष को प्रेस वार्ता में कहना पड़ा कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष संविधान के निर्माण पर कोई एतराज नहीं है।
रोड़े भी हैं राह में
प्रधानमंत्री के चुनाव में लगातार चल रहे गतिरोध, शांति प्रक्रिया की धीमी गति और संविधान के निर्माण में हो रही देरी से जनता में पैदा हो रहे आक्रोश को भुनाने के प्रयास भी शुरू हो गये हैं। राजावादी शक्तियां आपस में एकजुट होने का प्रयास कर रही हैं। राजावादी चार पूर्व प्रधानमंत्री, हिन्दू राष्ट्र एवं संवैधानिक राजतंत्र के गुणगान में लगे हैं। धर्मनिरपेक्ष एवं कम्युनिस्ट पार्टियों की ताकत से खींझा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी वहां गतिविधियां बढ़ा रहा है। माओवादी यद्यपि शंाति, नये संविधान एवं राष्ट्रीय संप्रभुता की बात कर रहे हैं लेकिन यह भी चेतावनी दे रहे हैं कि यदि ये लक्ष्य कानूनी तरीके से हासिल नहीं होंगे तो राष्ट्रयुद्ध होगा। आपसी फूट के चलते मधेसी पार्टियां भी संविधान निर्माण के लिये दबाव नहीं बना पा रही हैं। नेपाल की जनता वैधता, प्रासंगिकता एवं सकारात्मक परिणाम चाहती है। शांति ही लोगों के सम्मान की गारंटी करेगी और संविधान उनकी आकांक्षाओं की पूति करेगा।
रिश्ते गहरे हैं भारत-नेपाल के बीच
भारत और नेपाल के बीच गहरे भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनयिक एवं आर्थिक रिश्ते हैं। यहां तक कि आज भी दोनों के बीच आवागमन के लिये पासपोर्ट एवं वीजा आवश्यक नहीं है। दोनों देशों में लगभग 3565 करोड़ रुपये का भारत-नेपाल आर्थिक सहयोग कार्यक्रम चल रहा है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में कार्यरत हैं। इसे और व्यापक बनाने की जरूरत है। वहां हाइड्रोपावर उत्पादन के क्षेत्र में सहयेाग का भारी स्केाप है। प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा को भी दोनों देश मिल कर काम कर सकते हैं। राजशाही नेपाली जनता को बरगलाने को भारत विरोधी दुष्प्रचार करती थी। आज भी कुछ अतिवादी ताकतें इसका सहारा लेती हैं। परन्तु नेपाली जनमानस भारतीय जनमानस के साथ प्रगाढ़ रिश्तों का हामी है। यहां तक कि हर नेपाली हिन्दी समझता है, पढ़ एवं बोल सकता है। भारत के टीवी चैनल घर-घर में देखे जाते हैं। परस्पर सहयोग और मैत्री की इस दास्तान को और आगे बढ़ाने की जरूरत है।
नौजवानों के सशक्तिकरण की जरूरत
नेपाल का नौजवान नये और समृद्ध नेपाल के लिये तत्पर है। वह रोजगार और शिक्षा जैसे सवालों पर काफी गंभीर है। नेपाली कांग्रेस के 12वें कन्वेंशन के समय आयोजित खुले अधिवेशन में नौजवानों का सागर उमड़ पड़ा था। 50 हजार से ऊपर उपस्थित जन समुदाय में 99 प्रतिशत उपस्थिति 18 से 40 साल के बीच उम्र के युवकों की थी। कन्वेंशन के लिये चुनकर आये 3100 प्रतिनिधियों में 38 प्रतिशत डेलीगेट नवयुवक थे। “नौजवान सकारात्मक बदलाव के वाहक हैं, इसलिये उन्हें ताकत दी जानी चाहिये” - एक नौजवान ने कहा। दूसरे ने कहा-“नेपाल को ब्रेन-ड्रेन से बचाने की नीति बनानी चाहिये। खाड़ी देशों और भारत तमाम नौजवान छोटे कामों के लिये जाते हैं। देश में ही रोजगार की योजना बनानी चाहिये।”
लंबे समय तक राजशाही और पंचायती सिस्टम के विरूद्ध जनांदोलनों के जरिये नेपाल की जनता ने आज यह मुकाम हासिल किया है। नेपाल के नेताओं और राजनैतिक पार्टियों को जनता की आकांक्षाओं पर खरा उतराना होगा और अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों से उबरना होगा। जनता के हितों के विपरीत चलने वालों को भविष्य में वही स्थान होगा जो पूर्ववर्ती राजाओं का बन चुका है। अतएव भविष्य की सच्चाइयों को पढ़ने और अमल में लाने में ही सभी की भलाई है।
- डा. गिरीश
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
मेरी ब्लॉग सूची
-
CUT IN PETROL-DIESEL PRICES TOO LATE, TOO LITTLE: CPI - *The National Secretariat of the Communist Party of India condemns the negligibly small cut in the price of petrol and diesel:* The National Secretariat of...6 वर्ष पहले
-
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र - विधान सभा चुनाव 2017 - *भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव घोषणा पत्र* *- विधान सभा चुनाव 2017* देश के सबसे बड़े राज्य - उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार के गठन के लिए 17वीं विधान सभा क...7 वर्ष पहले
-
No to NEP, Employment for All By C. Adhikesavan - *NEW DELHI:* The students and youth March to Parliament on November 22 has broken the myth of some of the critiques that the Left Parties and their mass or...7 वर्ष पहले
Side Feed
Hindi Font Converter
Are you searching for a tool to convert Kruti Font to Mangal Unicode?
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
Go to the link :
https://sites.google.com/site/technicalhindi/home/converters
लोकप्रिय पोस्ट
-
The question of food security is being hotly discussed among wide circles of people. A series of national and international conferences, sem...
-
HUNDRED YEARS OF INTERNATIONAL WOMEN'S DAY (8TH MARCH) A.B. Bardhan Eighth March, 2010 marks the centenary of the International Women...
-
Something akin to that has indeed occurred in the last few days. Sensex figure has plunged precipitately shedding more than a couple of ...
-
Political horse-trading continued in anticipation of the special session of parliament to consider the confidence vote on July 21 followed b...
-
(कामरेड अर्धेन्दु भूषण बर्धन) हाल के दिनों में भारत में माओवादी काफी चर्चा में रहें हैं। लालगढ़ और झारखंड की सीमा से लगे पश्चिमी बंगाल के मिद...
-
We have received a number of inquiries about the CPI's position on bringing parties under the Right to Information (RTI) Act. Th...
-
लखनऊ- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तर प्रदेश राज्य सचिव मंडल ने केन्द्र सरकार को चेतावनी दी कि वह छात्रों और राज्यों पर अपना तुगलकी एजे...
-
इंकलाब जिन्दाबाद! वामपंथी एकता - जिन्दाबाद! मंहगाई, भ्रष्टाचार, उपज...
-
लखनऊ 1 अक्टूबर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कौंसिल की दो द्विवसीय बैठक यहां सुरेन्द्र राम की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। बैठक में र...
-
लखनऊ 12 मई। केन्द्र सरकार द्वारा थोपे जा रहे भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द कराने और मौसम की मार से बरवाद हुए किसान और ग्रामीण मजदूरों क...
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें