मशाल की लौ
प्रगतिशील लेखक संघ को अंग्रेजी में पीडब्ल्यूए और उर्दू में तरक्कीपसंद मुसन्निफीन के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना 10 अप्रैल 1936 के दिन आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक अधिवेशन में हुई थी। यह अधिवेशन 9 अप्रैल से शुरू होकर लखनऊ के रफा-ए-आम हॉल में दो दिनांे तक चला। उसके अगले दिन ही अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना भी की गई थी। प्रलेस के स्थापना सम्मेलन में सज्जाद जहीर महामंत्री चुने गए थे। बहुत तेजी से यह संगठन पूरे हिंदुस्तान में सभी भारतीय भाषाओं के नए-पुराने लेखकों का विश्वसनीय साथी और मंच बन गया। इस संगठन की भावना ने एक चिनगारी का काम किया। चारांे तरफ लेखकों की एक जुटता की लहर फैल गई। अभिव्यक्ति की आजादी के तहत अंग्रेजीराज के आंदोलन के हिस्से के तौर पर और सामाजिक रूढ़िवाद के विरूद्ध सतत संघर्ष के अंतर्गत यह एक व्यापक संगठन बन गया। इस के संगठन के पीछे कुछ ऐतिहासिक स्थितियां थी।
विश्वमंदी, अंग्रेजी राज की नृशंसता, जागीरदारों-जमींदारों का शोषण उत्पीड़न जैसे हालात ने इस दिशा में बहम भूमिका निभाई। अंग्रेजी हुकूमत ने बर्बर प्रेस एक्ट के जरिए स्वाधीनता आंदोलन का समर्थन करने वाली पत्र-पत्रिकाओं को चुप कराने की कोशिश की। राजद्रोह कानून के तहत 1930 से 1934 के बीच 384 पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन पररोक लगाई गई। यहां तक कि विदेशों से आने वाले साहित्य पर पाबंदी और बाजार में मौजूद जन-साहित्य की जब्ती की गई। रूस यात्रा के संस्मरण के रूप में लिखित रवींद्रनाथ टैगोर की पुस्तिका ‘रूस से चिट्ठी’ पर 1934 में ऐसी पाबंदी लगी कि उसका वितरण बंद हो गया। ऐसे दमघोंटू माहौल में अभिव्यक्ति की आजादी के लिए छटपटाहट बढ़ती चली गई। इस पृष्ठभूमि में सत्य जीवन वर्मा ने हिंदी लेखक संघ बनाया और सितंबर 1934 में लेखकों से उस संगठन की सदस्यता के लिए अपील कीः संगठन का यह युग है। सारा संसार संगठन की ओर दौड़ रहा है। समाज में प्रत्येक श्रेणी के लोग अपना-अपना संगठन कर रहे है। यह अत्यंत वांछनीय है।
इसके अलावा प्रेमचंद और रामचंद्र टंडन के बीच बातचीत शुरू हुई क्योंकि ये दोनों लेखक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा और लेखकों के परस्पर सहयोग से सहकारी प्रकाशन संस्थान के लिए प्रयत्नशील थे। इसी क्रम में भारतीय साहित्य परिषद की स्थापना हुई और हिंदुस्तानी एकडेमी की गतिविधियों का नया संदर्भ सामने आया।
भारत के युवा लेखक समुदाय की नई यथार्थवादी रचना प्रवृत्तियों के उभार और लेखक संगठन बनाने की आवश्यकताओं के इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों को भी देखना जरूरी है। स्पेन में सार्वजनिक मताधिकार के तहत लोकतांत्रिक प्रणाली से चुने गए गणतंत्रवादियों को सत्ता नहीं सौंपी गई और जनरल फ्रैंको के नेतृत्व में फासीवादियों ने बर्बर नरसंहार का तंडाव रचा। जर्मनी और इटली में हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व में सारी दुनिया के लिए फासिज्म का खतरा मंडराने लगा। इन समस्याओं को ध्यान रखकर 1935 में पेरिस का वह सम्मेलन जो ‘संस्कृति की रक्षा क लिए विश्व लेखक अधिवेशन के नाम से प्रसिद्ध हुआ, उसके प्रमुख आह्वान कर्ता रोम्या रोंला, ईइम फार्स्टर, आंद्रे मालरो, टामस मान, वाल्डे फ्रैंक, मैक्सिम गोर्की और हेनरी बारबूज थे।
वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए एक घोषणापत्र पारित किया गया। इसी सिलसिले की एक कड़ी के रूप में लंदन के युवा भारतीय संस्कृति कर्मियों द्वारा 1935 में प्रगतिशील लेखक संघ स्थापित करने के उद्देश्य से एक मसौदा तैयार हुआ। इस अभियान के प्रमुख लोगों में सज्जाद जहीर, मुल्कराज आनंद, प्रमोद सेनगुप्त, अहमद अली, हीरेन मुखर्जी, ज्योति घोष, महमूदुज्जफर, डा. मोहम्मद दीन तासीर वैगरह के नाम उल्लेखनीय है। लंदन से भेजे गए उस मसौदे के संबंध में प्रेमचंद ने ‘हंस’ की ओर से समर्थन का इजहार किया और प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के प्रयासांे का स्वागत किया।
प्रलेस की स्थापना के सिलसिले में प्रेमचंद से अध्यक्षता के लिए स्वीकृति ली गई थी। लंदन में बनाए गए कच्चे मसौदे की प्रतियां अलीगढ़ में डा. मोहम्मद अशरफ, हैदाराबाद के डा. युसूफ हुसैन खान, मुंबई में डा. हत्थी सिंह, अमृतसर में डा. रशीद जहां, फ़ैज़ अहमद फै़ज़ को भेज दिया गया था। इनके अलावा पंडित नेहरू, सरोजिनी नायडू, मामा वरेरकर, वल्लतोल, फ़िराक़, जैनेंद्र कुमार, मौलवी अब्दुल हक़, जोश मलीहाबादी, मुशी दयानारायण निगम से भी संपक्र कियागया। सज्जाद जहीर ने स्वयं सारे हिंदुस्तान के संस्कृतिकर्मियों से खतो-किताबत किया और सबकी सहमति से सम्मेलन आयोजित किया।
उसमें विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्र के नए-पुराने करीब ढाई सौ लेखक उपस्थित थे। सुमित्रानंदन पंत, यशपाल, भीष्म साहनी, केदारनाथ अग्रवाल, उप्रंद्रनाथ अशक, रामवृक्ष बेलीपुरी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, शमशेर बाहदुर सिंह, नागार्जुन, दिनकर, राहुल सांस्कृत्यायन, रामप्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी, प्रकाशचंद्र गुप्त, अमृतराय, भैरव प्रसाद गुप्त, कृशन चादर, राजेन्द्र सिंह बेदी, कुर्रतुल ऐन हैदर, इस्मत चुगताई, देवेंद्र सत्यार्थी, मखदूम, वामिक जौनपुरी, गोपाल सिंह नेपाली, सुदर्शन, शील, विजन भषचार्य, कैफी आजमी, सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी, बलराज साहनी, मंटो, राम विलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान, ख्वाजा अहमद अब्बास, साहिर, हसरत मोहानी वगैरह सब के सब शुरूआती दौर में उत्साहपूर्वक इस आंदोलन से जुड़ गए। स्थापना सम्मेलन में उपस्थित लोगों की सूची तो कहीं भी उपलब्ध नहीं ह ैपर बाद में अलग-अलग प्रांतों में स्थापित शाखाओं में भाग लेने वालों की सूची बड़ी लंबी है। जब जनगीतकारों को प्रलेस में शामिल किया गया तो लेखकों की तादाद और भी बढ़ गई। सज्जाद जहीर की किताब रौशनाई तकक्कीपसंद तहरीक की यादें ही एक प्रामाणिक दस्तावेज है, जिससे प्रलेस के इतिहास की अहम बातें और तथ्यों की जानकारी मिलती है। इसके साथ ही रेखा अवस्थी की पुस्तक ‘प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य’ सारे दस्तावेजों के साथ 1930 और 1953 तक का पूरा विवेचन प्रस्तुत करती है।
घोषणा पत्र
‘भारतीय समाज में बड़े-बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। पुराने विचारों और विश्वासों की जड़े हिलती जा रही हैं और एक नए समाज का जन्म हो रहा है। भारतीय लेखकों का धर्म है कि वे भारतीय जीवन में पैदा होने वाली क्रांति को शब्द और रूप दें और राष्ट्र को उन्नति के र्मा पर चलाने में सहायक हों।
भारतीय साहित्य की विशेषता यह है वह जीवन की यथार्थताओं से भागता है और वह वास्तविकता से मुंह मोड़कर भक्ति और उपासना की शरण में जा छिपा है। नतीजा यह हुआ के वह निस्वेज और निष्प्राण हो गया है। रूप में भी अर्थ में भी और आज हमारे साहित्य ने विचार और बुद्धि का एक प्रकार से बहिष्कार कर दिया है।
हमारे इस संघ का उद्देश्य यह है कि साहित्य और दूसरी कलाओं को अप्रगतिशील वर्गों के आधिपत्य से निकाल कर उन्हें जनता के निकटतम संपर्क में लाया जाए, उनमें जीवन अज्ञैर वास्तविकता लाई जाए और वे उसे उज्जवल भविष्य का मार्ग दिखाए जिसके लिए मानवता इस युग में संघर्षशील है।
हम भारतीय संस्कृति की परंपराओं की रक्षा करते हुए देश की पतनोन्मुख प्रवृत्तियों की बड़ी निर्दयता से आलोचना करेंगे। हम इस संघ के द्वारा हर उस भावना को व्यक्त करेंगे जो हमारे देश को क नए और बेहतर जीवन का मार्ग दिखाए। इस काम में हम अपनी और विदेशों की सभ्यता तथा संस्कृति से लाभ उठाएंगे। हम चाहते हैं कि भारत का नया साहित्य जीवन की बुनियादी समस्याओं को अपना विषय बनाएं वे हैं हमारी रोटी, हमारी दरिद्रता, हमारी सामाजिक अवनति की और हमारी राजनीतिक पराधीनता की समस्याएं। वह सब कुछ जो हमें निष्क्रियता, अकर्मण्यता और अंधविश्वास की ओर ले जाता है, हेय है। हम उसका विरोध करते हैं।
वह सब कुछ जो हमसे समीक्षा की प्रवृत्ति लाता है और हमंे प्रियतम रूढ़ियों को बुद्धि की कसौटी पर कसने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो हमें कर्मठ बनाता है और इसमें संगठन की शक्ति लाता है, उसी को हम प्रगतिशील मानते हैं। संघ के उद्देश्य होंगेः (1) भारत में तमाम प्रगतिशील लेखकों को जोड़कर संगठन की शाखाएं कायम करना और साहित्य छापकर उद्देश्यों को जन-जन तक पहुंचाना। (2) प्रगतिशील लेखकों और अनुवादकों को प्रोत्साहित करना और प्रतिक्रियावादी प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करके देशवासियों के स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाना। (3) प्रगतिशील लेखकों की सहायता करना। (4) स्वतंत्रता और स्वतंत्र विचार की रक्षा करना।
इस घोषणा पत्र को आम सहमति से पारित करने के साथ-साथ 10 अप्रैल 1936 के उक्त अधिवेशन में 4 प्रस्ताव भी स्वीकृत किए गए जो विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, युद्ध, छात्रों के अधिकार और शांति सम्मेलन की आवश्यकताओं से संबंधित थे।
प्रेमचंद ने उक्त अधिवेशन में जो अध्यक्षीय भाषण दिया था, उसमें विस्तार से सभी प्रमुख प्रश्नों पर विचार किए गए थे। अपने भाषण के अंत में प्रेमचंद ने कहा थाः ‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयांे का प्रकाश हो- जो हम में गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं क्यों अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’ प्रेमचंद के इस आह्वान के अनुसार रंचना कर्म को स्थानीय अंचल की बोली बानी और खेतिहर आबादी की भावनाओं से जोड़ा गया। छायावायिों से भिन्न ढंग की यह रचनाशीलता स्थानीय रंगत लेकर चली और लोकप्रिय हुई।
1953 तक प्रगतिशील लेखक संघ संपूर्ण भारत के साहित्यिक परिदृश्य पर न केवल छाया रहा बल्कि संगठन के विस्तार और लोकप्रिय सृजनशीलता का प्रेरक बिंदु बना रहा। प्रारंभ में तो इप्टा (जननाट्य संघ) को प्रलेस की एक शाखा के रूप में स्थापित किया गया था। पर बाद में वह एक स्वतंत्र संगठन बन गया। इप्टा की गतिविधियों की वजह से भी प्रलेस को देश-व्यापी प्रयसा मिला। पर 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ के आंदोलन के दौर में फासिज्म के खतरे के सवाल पर और 1947 के 15 अगस्त के दिन अंग्रेजी राज द्वारा कांग्रेस पार्टी को सत्ता सौंपने के संदर्भ मंे नीतिगत मामलों पर लेखकों के बीच मतभेद बढ़ते गए। 1942 और 1947 के उन मतभेदों की वजह से आजादी के बाद संगठन के तौर पर प्रगतिशील लेखक संघ में बिखराव शुरू हो गया। दरअसल ये मतभेद नई परिस्थ्तिियों के कारण पैदा हुए थे।
- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह
(साभार: जनसत्ता)
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