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मंगलवार, 22 नवंबर 2011

फासीवाद की ओर बढ़ती मायावती

21 नवम्बर 2011 को देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विधान सभा में जो कुछ भी हुआ, वह निहायत निन्दनीय है, संविधान की शरेआम बेइज्जती है और लोकतंत्र पर विश्वास रखने वालों के लिए बेहद चिन्तनीय है। विधान सभा में अध्यक्ष ने बिना चर्चा, बिना तर्क 70 हजार करोड़ के लेखानुदान तथा प्रदेश को चार हिस्सों में बांटने के प्रस्ताव को 16 मिनटों के अन्दर ध्वनि मत से पारित घोषित कर दिया और सत्र को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया। देर रात कैबिनेट बाई सर्कुलेशन द्वारा सत्रावसान के प्रस्ताव को राज्यपाल की मंजूरी के लिए राजभवन भेज दिया। अगर यह कहा जाये कि विपक्ष ने भी सदन में सरकार को पूरा सहयोग दिया, तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। सपा और भाजपा के सदस्यों ने जिस प्रकार सदन शुरू होते ही वेल में जा कर हंगामा शुरू किया और जिस प्रकार उसे जारी रखा, उसे और कहा भी क्या जा सकता है। इसी अव्यवस्था ने विधान सभा अध्यक्ष को इस प्रकार संसदीय अव्यवस्था को अंजाम देने में मदद की।
संविधान निर्माताओं, जिसमें बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर भी शामिल थे, ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी कि उनके द्वारा बनाये जा रहे संविधान को लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गयी कोई राज्य सरकार इस प्रकार तार-तार कर देगी। अगर उन्हें जरा सा भी अंदाज रहा होता तो वे संविधान में इस प्रकार की अलोकतांत्रिक अव्यवस्था पर काबू पाने के प्राविधान संविधान में जरूर रखते।
लेखानुदान धन विधेयक होता है। उसे सदन से स्पष्ट बहुमत से पारित कराना अनिवार्य है। धन विधेयक पारित न कराने से सरकार गिर जाती है। विरोधी दल - सपा और भाजपा ने अलग-अलग अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा कर सरकार को स्पष्ट रूप से चुनौती दी थी कि वह विधान सभा में अपना बहुमत साबित करे। उनकी नजर बसपा के असंतुष्ट विधायकों पर थी। सदन में बसपा के 219 सदस्य हैं। सदन में इस समय 8 रिक्त स्थानों के साथ 395 सदस्य हैं। इस प्रकार सरकार को बहुमत साबित करने के लिए अथवा लेखानुदान को पारित कराने के लिए 198 सदस्यों के वोट की जरूरत थी। समाजवादी पार्टी ने राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन में टिकट कटने से 40 से अधिक विधायकों के बसपा के साथ न होने का दावा किया था।
संविधान में यह व्यवस्था रखी गयी थी कि विधान सभा की हर साल बैठक कम से कम 100 दिनां तक चलनी चाहिए। बाद में संविधान में परिवर्तन कर इसे 90 दिन कर दिया गया। 1962 में विधान सभा की बैठकें 103 दिनों तक चली थीं। उसके बाद से लोकतंत्र की धज्जियां सरकारों से बिखेरना शुरू कर दिया, शुरूआत में कांग्रेस ने, फिर जनता दल के शासन में, फिर भाजपा, सपा और बसपा के कार्यकालों में बैठकों की संख्या कम से कम होती चलीं गयीं। इस हमाम में प्रदेश के सभी विपक्षी दल नंगे खड़े हैं। बसपा ने तो इस बारे में अति कर दी। इस साल विधान सभा केवल 14 दिनों तक चली। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में 2008 में 27 दिन, 2009 में 13 दिन और 2010 में 21 दिन ही चली। इन बैठकों में सदन शायद ही कभी पूरे दिन चला हो। मुलायम सिंह और राज नाथ सिंह के कार्यकालों में भी विधान सभा कभी भी संविधान द्वारा नियत न्यूनतम बाध्यता 90 दिनों के एक तिहाई से ज्यादा नहीं चली। विधान मंडलों के सत्र छोटे से छोटे होते जाना संसदीय लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत हैं। इसके लिए कोई एक नहीं बल्कि प्रदेश के सभी बड़े राजनीतिक दल जिम्मेदार रहे हैं।
लेकिन 21 नवम्बर को जो कुछ भी हुआ, वह पराकाष्ठा है। यह संसदीय लोकतंत्र का गला घोटना है। इसमें तानाशाही ही नहीं वरन् फासीवाद की झलक दिखती है। चुनावों के ऐन बेला पर जनता को अवश्य सोचना चाहिए कि वह जिस पार्टी को मत देने जा रही है, कहीं वह उसके मत देने के अधिकार को ही जब्त करने की ओर तो नहीं बढ़ रही है। विधान मंडलों की घटती सत्र संख्या भी एक गम्भीर मुद्दा बन गया है।
- प्रदीप तिवारी

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