सच पूछा जाये तो राज्य विभाजन जनता का मुद्दा है ही नहीं। यह राजनीतिज्ञों द्वारा पैदा किया हुआ एक शिगूफा है, जिसे वे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए उछालते रहते हैं। अब ताजा प्रयास बसपा सुप्रीमो मायावती ने किया है। सभी जानते हैं कि वे गत साढ़े चार सालों में हर मोर्चे पर पूरी तरह विफल साबित हुई हैं। मायावती इससे आम लोगों का ध्यान बांटना चाहती हैं। पहले धर्म, फिर जाति और अब क्षेत्रीय आधार पर जनता को विभाजित कर पूंजीवादी ताकतें अपने को सत्ता केन्द्र पर काबिज रखना चाहती हैं। इसके लिए उन्हें राज्य का विभाजन एक अच्छा हथकंडा लगता है।
जहां तक यह तर्क कि क्षेत्रीय विकास के लिए छोटे राज्यों का होना आवश्यक है, एक बेहद भौंडा तर्क है। विकास राज्य सत्ता की इच्छा शक्ति और संसाधनों के सही बंटवारे तथा उसके उपयोग से होता है। छोटे राज्य बना देने मात्र से नहीं। विभाजित राज्यों के अलग-अलग प्रशासनिक ढ़ांचों को खड़ा करने और उन्हें चलाने में भारी धन व्यय होता है, जिससे बुनियादी विकास की धनराशि में कटौती हो जाती है। विकास के लिए आबंटित धन का बड़ा भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।
विभाजित होने के बाद नया राज्य बना क्षेत्र यदि पिछड़ा है तो और भी पिछड़ जाता है। उसका अपना राजस्व पर्याप्त होता नहीं। वह अधिकाधिक केन्द्र की सहायता पर निर्भर रहता है। केन्द्र में एवं राज्य में यदि अलग-अलग दलों की सरकारें हों तो टकराव के चलते छोटे राज्य की उपेक्षा ही होती है।
यह कहना कि अलग राज्य बन जाने से औद्योगीकरण बढ़ जाएगा, कतई सच नहीं। आर्थिक नव उदारवाद की नीतियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की नीतियां चल रही हैं तो सार्वजनिक क्षेत्र में किसी राज्य में नए उद्योग तो खुलने से रहे। निजी क्षेत्र के उद्यमों को उद्यमी अपनी प्राथमिकता से लगाते हैं। क्षेत्र की जरूरतों के मुताबिक नहीं। उद्योगपतियों को आकर्षित करने को सरकारें किसानों की जमीनों का जबरिया अधिग्रहण करती हैं और उन्हें उद्योगपतियों को सौंप देती हैं। उद्योगपति कुछ दिन उस पर उद्योग चलाते हैं और बाद में जमीन की कीमत बढ़ जाने पर उसे बेच डालते हैं। किसान चंद पैसे पाकर जीवन भर को भूमिहीन हो जाता है।
सबसे बड़ी बात है हाल में बने छोटे राज्यों - उत्तराखंड, झारखंड और छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार चरम पर है। पूंजी ओर पूंजीपतियों, राजनेताओं और दलालों द्वारा संसाधनों की खुली लूट जारी है। आम जनता और शोषित तबकों की सामूहिक सौदेबाजी की ताकत बंटकर कमजोर हो गयी। पूंजीपतियों को छोटे राज्यों के सरकारों को मैनेज करना आसान होता है। दौलत के बल पर वे छोटी विधान सभा के बहुमत को काबू में कर लेते हैं और मनमाने फैसले करा लेते हैं। खनिज, भूमि, वन संपदा और विकास के धन को हड़प कर जाते हैं।
आज उत्तर प्रदेश, जोकि 17 करोड़ की आबादी वाला प्रदेश है, देश की राजनीति में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे उत्तर प्रदेश का हर नागरिक गौरव महसूस करता है। हिन्दू-मुसलिम साझी संस्कृति के तमाम प्रतीक उत्तर प्रदेश के आगोश में हैं। पश्चिम का वाशिंदा बनारस, सारनाथ, गोरखपुर, प्रयाग जाकर अपने को धन्य समझता है तो पूरब के वाशिंदे ताजमहल, मथुरा, झांसी का दीदार करते हैं। यह संयुक्त उत्तर प्रदेश की रंगत है।
उत्तर प्रदेश का बुन्देलखंड, पूर्वांचल एवं मध्य का भू-भाग पिछड़ा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश अपेक्षाकृत अधिक खुशहाल है। उसके द्वारा अदा किए गए राजस्व से इन पिछड़े क्षेत्रों के विकास का पहिया घूमता है। यह प्रदेश के अंदर एक स्वाभाविक समाजवाद है। इसे तोड़कर हम इन अपेक्षाकृत पिछड़े क्षेत्रों को क्यों केन्द्र का मोहताज बनायें? किसी दल या नेता की राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के औजार हम क्यों बनें? क्यों हम विभाजन की पीड़ा को अपने ऊपर थोपे? यह सब करने को हम तैयार नहीं हैं - यह उत्तर प्रदेश की जनता का संकल्प है।
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