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गुरुवार, 13 अप्रैल 2017
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Jaliyaanvaalaa baag
हमेशा प्रासंगिक रहेगा जलियांवाले बाग कांड में हुआ बलिदान
कई घटनायें कालजयी होती हैं. खास काल और खास परिस्थितियों में हुयी ये घटनायें हमें वर्तमान काल और खास परिस्थितियों का मूल्यांकन करने और नई राह तलाशने में मदद करती हैं. जलियांवाला बाग कांड भी ऐसी ही घटनाओं में से एक है. आजादी के आंदोलन में भी इसका विशिष्ट अर्थ था तो आज भी इसका खास मतलब है. यही वजह है कि दो वर्ष बाद सौ वर्ष पूरे करने जारहे इस जघन्य हत्याकांड की यादें आज भी आम हिंदुस्तानी के मन- मस्तिष्क को झकझोर देती हैं. इस घटना ने हमारे इतिहास की समूची धारा को पूरी तरह बदल दिया था. यही वजह है कि आज भी पूरे देश में इस घटना को याद किया जाता है.
13 अप्रेल 1919 को हुये इस जघन्य हत्या कांड का कारण ब्रिटिश हुकूमत द्वारा लाया जारहा वह काला कानून था जिसे रोलट एक्ट के नाम से जाना जाता है. यह कानून आजादी के लिये चल रहे आंदोलन को कुचलने की मंशा से लाया गया था. इस कानून के जरिये अंग्रेजी हुकूमत ने और अधिक अधिकार हड़प लिये थे जिनके तहत वह प्रेस पर सेंसरशिप लगा सकती थी, बिना मुकदमे के नेताओं को जेल में रख सकती थी, लोगों को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती थी तथा उन पर विशेष ट्रिब्यूनलों में और बंद कमरों में बिना जवाबदेही दिये मुकदमे चला सकती थी आदि.
आज न देश पर कोई विदेशी ताकत शासन कर रही है न कोई रोलट एक्ट सामने है. पर देश और समाज को झकझोरने वाले घटनाक्रम आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रहे. भारतीय प्रेस उस समय आजादी के आंदोलन की पक्षधर ताकतों के हाथ में था. वह उपनिवेशी शासन को उखाड़ फैंकने को तत्पर ताकतों की आवाज हुआ करता था. लुटेरी, जनविरोधी और तानाशाह ताकतें जितनी बंदूक की आवाज से नहीं डरतीं जितना कि मुट्ठी तान के खड़े होजाने वाले लुटे- पिटे लोगों की संगठित आवाज से डरती हैं. रोलट एक्ट उसी आवाज को दबाने के लिये प्रेस सेंसरशिप लादने व अन्य दूसरे कदम उठाने को लाया गया था.
पर आज हमारे प्रेस और मीडिया का बड़ा भाग लुटी पिटी ताकतों के साथ नही, लुटेरी, जनविरोधी और फासिस्ट इरादों वाली ताकतों के साथ खड़ा है. बिना रोलेट एक्ट के ही किसी को भी देशद्रोही करार देकर जेलों में ठूंसने, भीड़ बना कर किसी को भी झूठा अभियोग लगा कर मार डालने, शासन और संगठित निजी सेनाओं के जरिये युवाओं छात्रों दलितों अल्पसंख्यकों महिलाओं/ युवतियों और प्रतिरोध की आवाज बुलंद करने वाले नेताओं समाज सेवियों बुध्दिजीवियों और मीडियाकर्मियों को प्रताड़ित करने उनकी हत्या करने और उन्हें भयभीत करने का कारोबार बढ़े पैमाने पर चल रहा है.
जनविरोधी रोलट एक्ट के विरोधस्वरुप पूरा देश उठ खड़ा हुआ और लोगों ने जगह जगह गिरफ्तारियां दीं. हुकूमत ने आंदोलन को कुचलने के लिये दमन का रास्ता अपनाया. पंजाब के दो लोकप्रिय नेताओं डा. सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू को अमृतसर मे बिना किसी वजह के गिरफ्तार कर लिया गया. इसके विरोध में एक बड़ा जुलूस निकला. पुलिस ने शांतिपूर्ण जुलूस को रोका और अंतत: भीड़ पर गोलियां चला दीं. दो लोग मारे गये. इससे पूरे पंजाब में उबाल आजाना स्वाभाविक था. इतिहास एक नया मोड़ लेने की दहलीज पर था.
नेताओं की गिरफ्तारी और इस गोली कांड के विरोध में बैसाखी के दिन 13 अप्रेल 1919 की शाम को अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सभा का आयोजन किया गया. यद्यपि शहर में कर्फ्यू था फिर भी 10- 15 हजार के लगभग लोग बाग में जमा हुये. लोगों को सबक सिखाने के लिये बाग के एकमात्र दरबाजे पर पर पोजीशन लेकर ब्रिगेडियर जनरल रेजीनल्ड डायर ने बिना किसी चेतावनी के गोली चलवा दी. 1,650 राउंड गोलियां चलीं. जान बचाने के लिये तमाम लोग बाग में मौजूद कुयें में कूद गये. एक हजार से ज्यादा स्त्री पुरुष बच्चे बूढ़े जवान शहीद हुये और सैकड़ों की तादाद में घायल हुये.
कई बार दमनचक्र उलट परिणाम देता है और दमन के खिलाफ जंग के लिये उत्प्रेरक का काम करता है, यह शासक वर्ग और शासक तबके भूल जाते हैं. जलियांवाला बाग कांड ने देश के लोगों को झकझोर के रख दिया और वे आज़ादी की लड़ाई में और ताकत से जुटने लगे. पंजाब पूरी तरह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ा. गांधी जी ने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया जो 1922 आते आते एक ब्रिटिश विरोधी सशस्त्र संघर्ष में बदल गया था. इसी कांड में घायल एक युवक ऊधमसिंह ने अंग्रेजों से इसका बदला लेने की शपथ ली और इस घटना के इक्कीस साल बाद 13 मार्च 1940 को लंदन के कैक्सटन हाल में जनरल डायर को पिस्तौल की गोलियों से भून डाला. भगत सिंह और उन जैसे तमाम युवाओं ने इस घटना से उद्वेलित होकर देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिये अपने जीवन को बलिदान करने का सुदृढ- संकल्प लिया.
हम सब आज जलियांवाला बाग काण्ड के शहीदों को याद करते हुये मौजूदा शासक वर्ग और शासकों से सवाल करें कि इस इतिहास में उनके लिये कोई सबक छिपा है क्या?
डा. गिरीश
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