भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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शुक्रवार, 29 नवंबर 2013

गन्ना किसानों की समस्या हल करो वरना होगा आन्दोलन : भाकपा

लखनऊ—३०नवंबर २०१३. आधा पेराई सत्र बीत गया, चीनी मिलें चालू नहीं हुईं, गन्ने का पिछला बकाया किसानों को मिला नहीं, गन्ने का नया समर्थन मूल्य घोषित नहीं हुआ, नतीजतन आशंकित किसानों ने आत्महत्या करना शुरू कर दिया है. लेकिन राज्य सरकार अभी कार्यवाही का झुनझुना ही थमा रही है. इससे किसानों में भारी गुस्सा है और वे सड़कों पर उतर रहे हैं. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उनके हितों की लड़ाई में मुस्तैदी से उनके साथ खड़ी है और उसने सड़कों पर उतरने का ऐलान कर दिया है. उपर्युक्त जानकारी देते हुए भाकपा के राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने बताया कि उत्तर प्रदेश में भाकपा गन्ना किसानों के समर्थन में ९दिसम्बर से आन्दोलन छेड़ने जा रही है. ९दिसम्बर को इसकी शुरुआत जिलों-जिलों में धरनों, प्रदर्शनों एवं आमसभाओं से होगी और उन जिलों में सघन कार्यवाहियां जारी रहेंगी जहाँ गन्ने का उत्पादन खासा पैमाने पर होता है. भाकपा की राय में गन्ना किसानों के इस अभूतपूर्व संकट के लिए मौजूदा राज्य सरकार तो जिम्मेदार है ही बसपा की गत राज्य सरकार भी जिम्मेदार है जिसने सहकारी और सरकारी २१ चीनीं मिलें कोडी के मोल बेच डालीं. यदि आज ये मिलें निजी क्षेत्र को बेचीं न गयीं होतीं और सार्वजनिक क्षेत्र में ही काम कर रहीं होती तो आज के हालात पैदा नहीं हुए होते. केंद्र सरकार ने भी कोई स्पष्ट गन्ना नीति नहीं बनाई और भाजपा तो गन्ना क्षेत्र में सांप्रदायिकता भड़का कर हिंसा और विभाजन के काम में जुटी रही. आज ये पार्टियाँ किसानों के लिए घडियाली आंसू बहा रहीं हैं जिससे किसानों का कोई भला होने वाला नहीं है. भाकपा की मांग है कि गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य रु.३५० प्रति कुंतल तत्काल घोषित किया जाये,चीनी मिलों को फौरन चलाया जाये, जो मिलें न चलें सरकार उनका अधिग्रहण करे,चीनी मिलों पर किसानों के बकाया रु.२४ हजार करोड़ का ब्याज समेत भुगतान किया जाये तथा नया भुगतान हाथ के हाथ कराया जाये. आन्दोलन के बाद भाकपा राज्यपाल के नाम ज्ञापन जिला अधिकारियों को सौंपेगी. डॉ. गिरीश,राज्य सचिव
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सोमवार, 25 नवंबर 2013

लोकतंत्र में दंगाईयों का महिमा मंडन

21 नवम्बर उत्तर प्रदेश के राजनैतिक पटल पर हलचल भरा दिन रहा। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने आगरा में एक रैली को सम्बोधित किया जिसमें मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपियों - संगीत सोम, सुरेश राणा और वीरेन्द्र गुर्जर का अभिनन्दन किया गया तो बरेली में समाजवादी पार्टी की रैली को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने सम्बोधित किया जिसमें इन नेताओं के बगलगीर थे मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी मौलाना तौकीर। कांग्रेस ने प्रदेश में खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने की मांग को लेकर लखनऊ में प्रदर्शन किया। प्रदर्शन पर प्रदेश सरकार ने लाठी चार्ज करवाया और कांग्रेसी नेतृत्व डरपोकों की तरह एक ही कार पर चढ़ कर अपने को बचाता हुआ नजर आया। इस दृश्य की फोटो तमाम अखबारों ने प्रकाशित की है। एक अन्य महत्वपूर्ण घटनाक्रम में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार को निर्देश दिया कि मुजफ्फरनगर दंगों के पीड़ितों में से केवल एक वर्ग को राहत देने की अधिसूचना वापस ले।
नरेन्द्र मोदी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं तो दूसरी ओर सपा सुप्रीमो बार-बार तीसरे मोर्चे के केन्द्र में सत्ता में आने और खुद के प्रधानमंत्री बनने की घोषणा करते रहते हैं। प्रधानमंत्री बनने के लिए व्याकुल दोनों नेताओं और उनकी पार्टियों ने मुजफ्फरनगर के दंगों के आरोपियों को जिस प्रकार महिमा मंडित किया वह संविधान में निर्दिष्ट धर्म निरपेक्षता की मूल भावना की हत्या तो है ही साथ ही अनैतिक और गैर कानूनी भी है। इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि जिन लोगों को दंगे जैसे सामाजिक और राष्ट्रीय अपराध के लिए जेल के अन्दर होना चाहिए, वे न केवल खुले घूम रहे हैं बल्कि चुनाव जीतने के लिए राजनीतिज्ञ उनका महिमा मंडन कर रहे हैं। लोकतंत्र के लिए यह बहुत ही खतरनाक प्रवृत्ति है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने दंगा पीड़ितों को भी धर्म के आधार पर विभाजित करने का प्रयास किया। उसने केवल दंगा पीड़ित मुस्लिम अल्पसंख्यकों को ही पांच-पांच लाख मुआवजा देने की घोषणा की। ध्यान देने योग्य बात है कि शरणार्थी शिविरों में रह रहे हिन्दू और मुस्लिम दंगा पीड़ित समाज के वंचित तबके से ही हैं। इनमें कोई भी बड़ा आदमी नहीं है। यह उनमें एकता का आधार था परन्तु सरकार ने इन वंचित तबकों में भेदभाव करने का संविधानविरोधी फैसला लिया। सपा सरकार ने अपनी विभाजनकारी नीतियों के चलते विभाजन पैदा करने की कोशिश की और निश्चित रूप से भाजपा को इसका फायदा उठाने को विभाजन की प्रक्रिया की तीव्र करने का एक मौका मुहैया कराया। इसकी घोर निन्दा की जानी चाहिए।
चुनावों में हार-जीत का फैसला अंतोगत्वा आम जनता के वोटों के होता है। फैसलों के बाद बनी सरकारों का खामियाजा भी इसी जनता को भुगतना होता है। इसलिए इस तरह महिमा मंडित होने वाले और ऐसे लोगों को महिमा मंडित करने वालों, दोनों के बारे में आम जनता को ही विचार करना चाहिए कि वे इनके साथ आसन्न चुनावों में किस तरह का व्यवहार करें। जनता अगर इससे चूकती है, तो चुनावों के बाद खामियाजा भी उसे ही भुगतना होगा।
शासक पुराने समय से समाज को विभाजित कर शासन करने की राज नीति का पालन करते आये हैं। लोकतंत्र में भी यह प्रवृत्ति जारी है। देश की अधिसंख्यक जनता मेहनतकश है। वह अपनी मेहनत के बल पर की गई कमाई के सहारे ही अपना जीवनयापन करती है। यह मेहनतकश जनता अगर चुनावों के दौरान विभाजनकारी राजनीति का शिकार होने से खुद को बचा सके तो वह अपना जीवन बदल सकती है, अपना जीवन स्तर बदल सकती है। परन्तु वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा है। विभाजनकारी शक्तियां उसे धर्मो, जातियों और क्षेत्रों में बांटने में लगातार सफल होती रही हैं। विभाजनकारी शक्तियों की सफलता के कारण ही जनता चुनावों के पहले ही ऐसे शक्तियों के हाथों हार चुकी होती है। जनता 1947 के बाद से अपनी विफलता का परिणाम लगातार भुगत रही है। विभाजनकारी शक्तियों और विभाजनकारी कारकों की संख्या में खतरनाक बढ़ोतरी लगातार जारी है।
यह प्रक्रिया लोकतंत्र के लिए बहुत ही खतरनाक है। इस प्रक्रिया को रोकने के लिए हमें लगातार प्रयास करते रहने होंगे। जनता में समझदारी विकसित करने के लगातार प्रयास किये जाने चाहिए।
- प्रदीप तिवारी
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गुरुवार, 21 नवंबर 2013

गन्ना मूल्य बढाओ! चीनी मिलें चलवाओ! भाकपा.

लखनऊ- २१ नवम्बर २०१३ –भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य मंत्रि परिषद् की बैठक आज राज्य सचिव डॉ.गिरीश की अध्यक्षता में संपन्न हुई. बैठक में राज्य सरकार द्वारा गन्ना मूल्य पिछले वर्ष के बराबर ही घोषित किये जाने के फैसले को पूरी तरह से किसान विरोधी और मिल मालिकों के हित में बताते हुए इसकी कड़े शब्दों में आलोचना की गई. पार्टी ने गन्ने का न्यूनतम खरीद मूल्य ३५०.०० रु. किये जाने की मांग की है. यहाँ जारी एक प्रेस बयान में राज्य सचिव डॉ.गिरीश ने कहाकि राज्य सरकार ने भी स्वीकार किया है कि पिछले वर्ष की तुलना में गन्ने की लागत में रु.२३ प्रति कुंतल की डॉ से वृध्दि हुई है, जबकि वास्तव में इससे अधिक ही लागत मूल्य बड़ा है. अतएव कोई भी मूल्य रु ३५०.०० से कम निर्धारित करना किसान हितो पर कुठारापात है. सच तो यह है यह फैसला चीनी मिल मालिकों को लाभ पहुँचाने वाला है. उन्हें अन्य रियायतें भी दे दी गईं हैं. फिर भी निजी मिलें चलाने में आना कानी की जा रही है और राज्य सरकार उनसे विनती कर रही है. इतना ही नहीं अभी तक पिछले सीजन का २३०० करोड़ रु. किसानों का मिलों पर बकाया है. किसान आन्दोलन कर रहे हैं मगर सरकार का ढुलमुल रवैय्या मिल मालिकों के हौसले बड़ा रहा है. भाकपा राज्य सचिव मंडल ने अपनी पार्टी की जिला इकाइयों का आह्वान किया है कि वे किसान हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करें. भाकपा ने राज्य सरकार से भी मांग की कि निजी मिल मालिक यदि हठ धर्मिता नहीं छोड़ते तो जनहित में चीनी मिलों का अधिग्रहण कर लिया जाये. डॉ.गिरीश, राज्य सचिव.
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बुधवार, 20 नवंबर 2013

राज्य कर्मचारियों के दमन के खिलाफ सड़कों पर उतरेगी भाकपा

लखनऊ 20 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव मंडल ने उत्तर प्रदेश सरकार पर आरोप लगाया है कि वह राज्य कर्मचारियों की मांगों पर संजीदगी से विचार कर उनकी हड़ताल को समाप्त कराने की दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही है। उल्टे राज्य सरकार हड़ताल को तोड़ने के तमाम के हथकंड़े अपना रही है और उन पर एस्मा जैसा दमनात्मक कानून लागू कराने का फैसला ले चुकी है।
भाकपा सरकार के इस कदम की घोर निन्दा करती है।
यहां जारी एक प्रेस बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने कहा कि राज्य कर्मचारियों की कई मांगें हैं जिनको सरकार को बहुत पहले ही पूरा कर देना चाहिए था लेकिन राज्य सरकार टाल मटोल की नीति अपनाती रही है। ऐसा नहीं है कि राज्य कर्मचारी एक दम हड़ताल पर चले गये। हड़ताल पर जाने के पहले उन्होंने कई अन्य जनवादी तरीकों से अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की पूरी कोशिश की परन्तु यह राज्य सरकार लगातार हठधर्मिता अपनाये रही। यहां तक कि वह कुछ कर्मचारी संगठनों को बरगला करके हड़ताल से दूर रखने की कोशिशों में भी लगी रही। राज्य सरकार की ओर से ऐसी कार्यवाहियां अवांछित हैं।
भाकपा मांग करती है कि राज्य सरकार कर्मचारियों की हड़ताल के प्रति सकारात्मक रूख अपनाये और मुख्यमंत्री को हड़ताली कर्मियों के नेताओं से तत्काल वार्ता करना चाहिए और उनकी वाजिब मांगों को पूरा करके गतिरोध को तोड़ना चाहिए। यही उत्तर प्रदेश की जनता के भी हित में है।
भाकपा राज्य सचिव ने अपनी समस्त जिला इकाईयों को निर्देशित किया है कि वे कर्मचारियों की हड़ताल को सक्रिय समर्थन प्रदान करें ताकि उनकी मांगें पूरी हों और जनता को हो रही परेशानियों को भी दूर किया जा सके।



कार्यालय सचिव 
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मंगलवार, 12 नवंबर 2013

सफल हड़ताल पर राज्य कर्मचारियों को भाकपा की बधाई

लखनऊ 12 नवम्बर। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कार्यालय से जारी एक बयान में भाकपा के राज्य सचिव डा. गिरीश ने राज्य कर्मचारियों को सफल राज्यव्यापी हड़ताल पर बधाई दी है। उन्होंने सरकार से मांग की कि कर्मचारियों की मांगों का समाधान सरकार तुरन्त निकाले।
भाकपा द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियों की तर्ज पर ही प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार भी अपनी आर्थिक नीतियां बनाती है जिसके कारण वर्षों से लम्बित प्रदेश कर्मचारियों की समस्यायें हल नहीं हो रही हैं और वे संघर्ष को मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों की पुरानी पेंशन की बहाली, वेतन एवं फिटमेंट सम्बंधी मांगें सर्वथा उचित हैं। उन्होंने सरकार को किसी भी प्रकार के उत्पीड़न या दमनात्मक कार्यवाही के विरूद्ध चेतावनी देते हुए कहा है कि ऐसा करने से गम्भीर परिणाम हो सकते हैं।
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शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

एक प्रतीक की तलाश में भाजपा

आरएसएस, भाजपा (और भाजपा के पूर्व संस्करण जनसंघ) हमेशा एक प्रतीक की तलाश में रहे हैं। उनका अपना कोई ऐसा नेता पैदा नहीं हुआ जो खुद प्रतीक के रूप में याद किया जा सकता। ऐसे अकाल में निश्चय ही उन्हें एक प्रतीक के लिए भटकना पड़ रहा है। सत्तर के दशक में जनसंघ ने स्वामी विवेकानन्द को अपना प्रतीक गढ़ने का नापाक असफल प्रयास किया परन्तु विवेकानन्द के ऐतिहासिक शिकागो वक्तव्य ने जनसंघ की राह में रोड़े अटकाये जिसमें उन्होंने बड़ी शिद्दत से कहा था कि ”भूखों को धर्म की आवश्यकता नहीं होती है“। विवेकानन्द ने भूखों के लिए पहले रोटी की बात की जबकि जनसंघ और आरएसएस उस समय भारतीय पूंजीपतियों के एकमात्र राजनीतिक प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राजनीति में कुख्यात थे।
उसी दशक में जनसंघ का अवसान हुआ और उसके नये संस्करण भाजपा का जन्म। भाजपा ने अपने जन्मकाल से सत्ता प्राप्ति के साधन के रूप में दो रास्ते निर्धारित किये - एक तो समाज के अंध धार्मिक विभाजन के जरिये मतों का ध्रुवीकरण और दूसरा एक प्रतीक को अंगीकार कर उसके आभामंडल के जरिये कुछ लाभ प्राप्त करना। पहले मंतव्य में तो भाजपा कुछ हद तक एक दौर में सफल रही परन्तु दूसरे मोर्चे पर उसके लगातार पराजय मिली है।
उन्होंने भगत सिंह को अपना प्रतीक बनाने की कोशिश इसलिए की क्योंकि शहीदे आजम भगत सिंह निर्विवाद रूप से भारतीय जन मानस में, और विशेष रूप से नवयुवकों में, एक नायक के रूप में जाने और पहचाने जाते हैं। भाजपा की यह बहुत बड़ी गलती थी क्योंकि भारतीय क्रान्तिकारियों में भगत सिंह उन नायकों में शामिल थे जिनके विचारों को पहले से ही बहुत प्रचार मिल चुका था। भगत सिंह के आदर्शों को भाजपा स्वीकार नहीं सकती क्योंकि वह ‘मार्क्सवादी’ दर्शन था। उन्होंने साम्प्रदायिकता के खिलाफ भी बोला और लिखा था जो पहले ही प्रकाशित हो चुका था। भाजपा एक बार फिर बुरी तरह असफल रही।
तत्पश्चात् भाजपा ने महात्मा गांधी को अपना प्रतीक बनाने की एक कोशिश की। अस्सी के दशक में ‘गांधीवादी समाजवाद’ लागू करने का नारा दिया गया। यह पहले की गल्तियों से कहीं बड़ी गलती थी। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि गांधी एक महापुरूष थे और दुनियां के तमाम देशों में स्वतंत्रता और दमन के खिलाफ संघर्ष करने वालों ने उनके ‘सत्याग्रह’ के विचारों को लागू करने के सफल प्रयास किये परन्तु गांधी जी कभी समाजवादी नहीं रहे थे। इसलिए आम जनता कथित ‘गांधीवादी समाजवाद’ को स्वीकार भी नहीं कर सकती थी। दूसरे भाजपा की नाभि आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप उस समय लग चुका था जब न तो जनसंघ वजूद में था और न ही भाजपा।
कांग्रेस नीत संप्रग अपने दो कार्यकाल पूरे कर रही है। निश्चित रूप से उसे पिछले 10 सालों के अपने काम-काज के कारण जनता में व्याप्त असंतोष का सामना आसन्न लोक सभा चुनावों में करना होगा। भाजपा इस अवसर का लाभ उठाने के लिए बहुत व्याकुल है। एक ओर वह अपने एक साम्प्रदायिक प्रतीक नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी घोषित कर ध्रुवीकरण का प्रयास कर रही है तो दूसरी ओर ‘लौह पुरूष’ के नाम से विख्यात कांग्रेसी नेता सरदार पटेल को अपना प्रतीक बना लेने की कोशिशें कर रही हैं।
भाजपा द्वारा मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित किये जाने के पहले ही मोदी यह घोषणा कर चुके थे कि वे नर्मदा जिले में सरदार सरोवर बांध के पास सरदार पटेल की लोहे की एक 182 मीटर ऊंची विशालकाय प्रतिमा बनवायेंगे जो दुनियां की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। इस प्रतिमा के निर्माण के लिए गांव-गांव से खेती में प्रयुक्त होने वाले लोहे के पुराने बेकार पड़े सामानों को इकट्ठा किया जायेगा। अभी हाल में उन्होंने इस प्रतिमा का शिलान्यास समारोह भी सम्पन्न करवा दिया। समारोह के पहले मोदी ने पटेल के प्रधानमंत्री न बनने पर अफसोस जताकर गुजराती अस्मिता को उभारने की कोशिश की। उन्होंने यहां तक कह दिया कि सरदार पटेल की अंतेष्टि में जवाहर लाल नेहरू उपस्थित नहीं थे। एक तरह से मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू पर आक्रमण के जरिये ‘सोनिया-राहुल’ को भी निशाने पर लेना चाह रहे थे। कांग्रेस का मोदी पर पलट वार स्वाभाविक था।
भाजपा के किसी जमाने के कद्दावर नेता लाल कृष्ण आणवानी आज कल आरएसएस की बौद्धिकी का काम संभाल चुके हैं। सोशल मीडिया पर ब्लॉग लेखन वे काफी समय से कर रहे हैं। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी के नाम की घोषणा पर उन्होंने कुछ नाक-भौ जरूर सिकोड़ी थी परन्तु आज कल वे अपने ब्लॉग के जरिये मोदी के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। आरएसएस की यह पुरानी रणनीति रही है कि वह अपने सभी अस्त्र-शस्त्र एक साथ प्रयोग नहीं करती बल्कि किश्तों में करती है जिससे मुद्दा अधिक से अधिक समय तक समाचार माध्यमों में छाया रहे।
आणवानी जी ने पहला शिगूफा छोड़ा कि नेहरू ने कैबिनेट बैठक में 1947 में सरदार पटेल को साम्प्रदायिक कहा था। इसका श्रोत उन्होंने एक पूर्व आईएएस अधिकारी को बताया। इस बात पर भी प्रश्न चिन्ह है कि जिस अधिकारी का हवाला दिया गया है वह उस समय सेवा में था अथवा नहीं और अगर सेवा में था तो भी वह कैबिनेट बैठक में कैसे पहुंचा। ध्यान देने योग्य बात यह है कि आजादी के पहले आईएएस नहीं आईसीएस होते थे। दो दिन बाद ही उन्होंने पूर्व फील्ड मार्शल मानेकशॉ के हवाले से अपने ब्लॉग में लिखा कि नेहरू 1947 में पाकिस्तान की मदद से कबाईलियों द्वारा कश्मीर पर हमले के समय फौज ही भेजना नहीं चाहते थे और फौज भेजने का फैसला सरदार पटेल के दवाब में लिया गया था। यह मामला भी कैबिनेट बैठक का बताया जाता है। इस पर भी प्रश्नचिन्ह है कि 1947 में मॉनेकशा फौज के एक कनिष्ठ अधिकारी थे और वे कैबिनेट बैठक में मौजूद भी हो सकते थेे अथवा नहीं। आने वाले दिनों में इसी तरह के न जाने कितने रहस्योद्घाटन आरएसएस की फौज करेगी जिससे मामला बहस और मीडिया में लगातार बना रह सके।
उत्सुकता स्वाभाविक है कि आखिर सरदार पटेल को इस गंदे खेल के मोहरे के रूप में क्यों चुना गया है? बात है साफ, दलीलों की जरूरत क्या है। एक तो भाजपा सरदार पटेल के नाम पर गुजराती वोटों का ध्रुवीकरण करना चाहती है। दूसरे पटेल गुजरात की एक ताकतवर जाति है और उत्तर भारत की एक ताकतवर पिछड़ी जाति ‘कुर्मी’ भी अपने को सरदार पटेल से जोड़ती रही है। इस तरह उत्तर भारत में ‘कुर्मी’ वोटरों का ध्रुवीकरण भी उसका मकसद है।
मकसद कुछ भी हो, एक बात साफ है कि जब स्वामी विवेकानन्द भाजपा के न हो सके, न ही भगत सिंह और महात्मा गांधी तो फिर सरदार पटेल भी भाजपा के प्रतीक नहीं बन पायेंगे। सम्भव है कि चुनावों के पहले इसका भी रहस्योद्घाटन हो ही जाये कि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध भी सरदार पटेल ने ही लगाया था और तत्कालीन संघ प्रमुख गोलवलकर से माफी नामा भी उन्होंने ही लिखाया था क्योंकि वे उस समय अंतरिम कैबिनेट में गृह मंत्री थे।
- प्रदीप तिवारी
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