भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का प्रकाशन पार्टी जीवन पाक्षिक वार्षिक मूल्य : 70 रुपये; त्रैवार्षिक : 200 रुपये; आजीवन 1200 रुपये पार्टी के सभी सदस्यों, शुभचिंतको से अनुरोध है कि पार्टी जीवन का सदस्य अवश्य बने संपादक: डॉक्टर गिरीश; कार्यकारी संपादक: प्रदीप तिवारी

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Communist Party of India, U.P. State Council

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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

कम्युनिस्ट एवं वर्कर्स पार्टियों के नई दिल्ली में २० से २२ नवम्बर २००९ को सम्पन्न ११ अंतर्राष्ट्रीय बैठक में पारित दिल्ली घोषणापत्र

नई दिल्ली में 20 से 22 नवम्बर 2009 को सम्पन्न कम्युनिस्ट एवं वर्कर्स पार्टियों की ग्यारहवीं बैठक ने "अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी संकट, मजदूरों और जनता का संघर्ष, विकल्प और कम्युनिस्ट एवं वर्कर्स पार्टियों एवं मजदूर वर्ग की भूमिका" पर विचार करने के बाद निम्न घोषणापत्र अंगीकृत किया।


  • सम्मलेन दोहराता है कि वर्तमान भूमंडलीय मंदी पूंजीवाद का अन्तर्निहित संकट है जो उसकी इतिहासिक सीमाओं तथा उसे आमूल उखार फेंकने की जरूरत को प्रदर्शित करता है। वह उत्पादन के सामाजिक स्वरुप और निजी पूंजीवादी संचय के बीच पूंजीवाद के मुख्य अंतर्विरोध के तीव्र होते जाने की स्थिति को भी प्रदर्शित करता है। संकट के केन्द्र में निहित पूंजी तथा श्रम के इस अनसुलझे अंतर्विरोध को छिपाने का प्रयास पूंजी के राजनीतिक प्रतिनिधि करते हैं। अन्तराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं - अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापर संगठन आदि के साथ इस संकट को सुलझाने के प्रयास कर रही साम्राज्यवादी शक्तिओं के मध्य प्रतिद्वंद्विता को यह संकट और तीव्र कर रहा है और संकट को सुलझाने के उनके प्रयास पूंजीवादी शोषण को और गहरा कर रहे हैं। साम्राज्यवाद विश्व पैमाने पर आक्रामक रूप से सैनिक एवं राजनितिक 'समाधान' लागू कर रहा है। नाटो एक नई आक्रामक रणनीति को आगे बढ़ा रहा है। राजनीतिक व्यवस्था अधिकाधिक प्रतिक्रियावादी होती जा रही है और लोकतांत्रिक एवं नागरिक स्वतंत्रताओं, ट्रेड यूनियन अधिकारों आदि में कटौती कर रही है। यह संकट पूंजीवाद के तहत ढांचागत भ्रष्टाचार को और अधिक बढ़ा रहा है जो संस्थागत रूप ले चुका है।
  • सम्मलेन इस बात की पुनः अभिपुष्टी करता है की संभवतः 1929 की महामंदी के बाद सबसे अधिक गंभीर एवं सर्वव्यापक वर्त्तमान संकट ने किसी भी क्षेत्र को अछूता नही छोड़ा है। लाखो फक्ट्रियां बंद हो गई है, कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्थाएँ गंभीर संकट में है जो विश्वव्यापी स्तर पर करोड़ों किसानो तथा खेत मजदूरों की मुसीबतों एवं गरीबी को बढ़ा रहा है। करोडो लोग बेरोजगार और बेघर हो गए हैं। बेरोजगारी अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ गई है और अधिकारिक रूप से 5 करोड़ के अंक को पार कर गई है। पूरे विश्व में असमानता बढ़ रही है। अमीर और अधिक अमीर हो रहे है एवं गरीब और अधिक गरीब। मानवजाति का छठवां हिस्सा भूखा है। नौजवान, महिलाऐं एवं अप्रवासी इसके प्रथम शिकार है।

इस संकट पर काबू पाने के लिए सम्बंधित पूंजीवादी सरकारों के प्रयास अपने वर्ग चरित्र के अनुरूप इन बुनियादी सरोकारों का समाधान निकलने में विफल रहे है। पूंजीवाद के सभी नव-उदारवाद समर्थक तथा सामाजिक लोकतान्त्रिक प्रबंधक जो अभी तक राज्य की निंदा करते रहे हैं, अब अपने को बचाने के लिए राज्य का उपयोग कर रहे हैं और इस प्रकार वे एक बुनियादी तथ्य को रेखांकित कर रहे हैं की पूंजीवादी राज्यों ने हमेशा सुपर मुनाफे से सभी साधनों की रक्षा की और उनका विस्तार किया। जबकि बचाव एवं बेलाउट पैकेज की लागत जनता की कीमत पर हैं। वहीं कुछ भर लोगों को ही उसका लाभ मिला है। जो बेलाउट पॅकेज घोषित किए गए हैं, वे मुनाफा कमाने वाले संसाधनों को पहले बचने और फिर उनका विस्तार करने के लिए हैं। अब बैंक तथा वित्तीय कारपोरेट पुनः अपने कारोबार में लग गए हैं एवं मुनाफा बटोरने लगे हैं। बढ़ती बेरोजगारी एवं वास्तिक वेतन में भरी कटौती मेहनतकश जनता के ऊपर भरी बोझ बन गए हैं, इसके विपरीत कारपोरेटों को विशाल बेलाउट पैकेज उपहार स्वरुप दिए जा रहे हैं।

  • सम्मलेन यह महसूस करता है की यह संकट कुछ व्यक्तियों की लोभ लिप्सा या कारगर नियामक कार्यविधि के आभाव पर आधारित विचलन नहीं है। अधिक से अधिक मुनाफा बढ़ाने की पूंजीवादी ललक ने भुमंदालिकरण के इन दशकों के भीतर आर्थिक असमानताओं को बढाया है। इसका स्वाभाविक परिणाम है विश्व की आबादी के विशाल बहुमत की क्रय शक्ति में भारी गिरावट। इस तरह बर्तमान संकट पूंजीवाद का एक संकट है। इसने एक बार फिर इस मार्क्सवादी विश्लेषण की पुष्टि कर दी है की पूंजीवादी व्यवस्था अपने जन्म से ही सर्वाधिक रूप से संकटग्रस्त है। पूंजी अपने मुनाफे की ललक में (देशो की) सीमायें लांघती है, हर चीज एवं की भी चीज को रौद देती है। इस प्रक्रिया में वह मजदूर वर्ग तथा मेहनतकश जनता के अन्य तबकों का शोषण बढ़ा देती है और जनता पर भरी कठिनाइयाँ थोप देती है। वास्तव में पूँजीवाद शाम की अतिरिक्त फौज चाहता है। पूंजीवादी बर्बरता से मुक्ति पूंजीवाद के विकल्प - समाजवाद की स्थापना के द्वारा ही हो सकती है। इसके लिए साम्राज्यवाद विरोधी, इजारेदारी विरोधी संघर्ष को सशक्त बनाने की जरूरत है। इस तरह एक विकल्प के लिए हमारा संघर्ष पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष है। एक विकल्प के लिए हमारा संघर्ष इक इसी व्यवस्था के लिए संघर्ष है जहाँ जनता द्वारा जनता का और अश्तर के द्वारा राष्ट्र का शोषण नहीं हो। यह एक अन्य विश्व, एक न्यायोचित विश्व, एक समाजवादी विश्व के लिए संघर्ष है।
  • सम्मलेन इस तथ्य से परिचित है की मेहनतकश जनता पर अधीर बोझ डाल कर, पूंजीवादी विकास के माध्यम एवं छोटे स्तर के देशों - जिन्हें सामान्यतः विकासशील देश कहा जाता है, के बाजारों में घुसपैठ करके एवं अपना प्रभुत्व कायम करके प्रभावशाली साम्राज्यवादी शक्तियां इस संकट से बहार निकलने का प्रयास करेंगी। इस तरह वे सर्वप्रथम व्यापर वार्ता के डब्लू टी ओ दोहा चक्र के जरिये जो इन देशों के जन-गण की कीमत पर असमान आर्थिक समझौते को प्रतिबिंबित करते हैं, खासकर कृषि मानक एवं गैर कृषि बाज़ार सुविधा (नामा) के मामले में, इसे हासिल करने का प्रयास कर रहे हैं।

दूसरा, पर्यावरण के विनाश के लिए जिम्मेदार पूंजीवाद जलवायु परिवर्तन, जिसका निर्माण पूंजीवाद ने ही किया, से भूमंडल की रक्षा करने का सारा बोझा मेहनतकश जनता एवं मजदूर वर्ग पर डालने का प्रयास कर रहा है। पूंजीवाद के जलवायु परिवर्तन के नाम पर पुनर्संरचना के प्रस्ताव का पर्यावरण की रक्षा से कुछ भी लेना-देना नहीं है। कार्पोरेट प्रेरित "हरित विकास" एवं " हरित अर्थव्यवस्था" का इस्तेमाल नए राज्य नियंत्रित एकाधिकारवादी नियम थोपने के लिए किया जा रहा है, जो अधिकतम मुनाफा हासिल करने एवं जनता पर नई कठिनाइयों को थोपने का समर्थन करता है। इस तरह पूंजीवाद के तहत अधिकतम मुनाफा पर्यावरण सुरक्षा तथा जनता के अधिकारों से प्रतिकूल एवं असंगत है।

  • सम्मलेन यह नोट करता है की मजदूर वर्ग तथा आम जनता के लिए इस पूंजीवादी संकट से बहार निकलने का एकमात्र रास्ता पूंजी के शासन के खिलाफ संघर्ष को तेज करना ही है। मजदूर वर्ग का यह अनुभव है कि जब वह अपनी ताकत को एकजुट करता है एवं इन प्रयासों का प्रतिरोध करता है तो वह अपने अधिकारों की रक्षा करने में सफल हो सकता है। उद्योगों में धरना, फक्टारियों पर कब्ज़ा और ऐसी ही जुझारू मजदूर वर्ग की कार्यवाइयों ने शासक वर्गों को मजदूरों की मांगों पर विचार करने के लिए मजबूर किया है। लोकप्रिय जन लामबंदी एवं मजदूर वर्ग की कार्यवाहिओं के वर्तमान थियेटर - लैटिन अमरीका ने यह दिखा दिया है कि कैसे संघर्ष के जरिये अधिकारों की रक्षा की जा सकती है। और उसे जीता जा सकता है। संकट के इस समय में एक बार फिर मजदूर वर्ग असंतोष से सुलग रहा है। अनेक देशों ने सुधार की मांग करते हुए व्यापक मजदूर वर्ग कर्वहियाँ देखी है और वे देख रहे है। समस्यायों के केवल तात्कालिक उन्मूलन के लिए बल्कि दुर्दशा एवं मुसीबतों के दीर्घकालिक समाधान के लिए मजदूर वर्ग की इन कार्यवाहिओं को मुसीबतजदा जनता को व्यापक रूप से लामबंद करके और अहिक मज़बूत किया जाना है।

सोवियत संघ के पतन तथा इस संकट के पहले सहसा तेजी (बूम) से प्रफुल्लित होकर साम्राज्यवाद ने मजदूर वर्ग एवं जनता के अधिकारों पर अभूतपूर्व हमला किया। इसके साथ ही न केवल किसी एक देश में बल्कि विश्व के पैमाने पर एवं अन्तर-राज्य फोरमों (इ यूं, ओ एस सी इ, कौंसिल ऑफ़ यूरोप) पर उन्माद पूर्ण कम्युनिस्ट विरोधी प्रचार अभियान चलाया गया। बहरहाल, जितना भी अधिक वे प्रयास करें, आधुनिक सभ्यता के स्वरुप को परिभाषित करने में समाजवाद की उपलब्धिओं एवं योगदान को कदापि मिटाया नही जा सकता है। इन अनवरत हमलों की स्थिति में हमारा संघर्ष हमारे द्वारा पहले हासिल किए गए अधिकारों की रक्षा का संघर्ष रहा है। आज की स्थिति का तकाजा है की हम न केवल अपने अधिकारों की रक्षा के लिए बल्कि नए अधिकार हासिल करने के लिए हमला शुरू करें। न केवल कुछ अधिकार हासिल करने के लिए बल्कि सम्पूर्ण पूजीवादी दुर्ग को ध्वस्त करने के लिए, राजनितिक विकल्प - समाजवाद के लिए।

  • इन परिस्थितियों में कम्युनिस्ट और वर्कर्स पार्टियाँ पूर्ण स्थाई रोजगार, सबों के लिए पूर्णतः मुफ्त स्वस्थ्य, शिक्षा, समाज-कल्याण के लिए, लैंगिक असमानता तथा नस्लवाद के खिलाफ, युवा, महिलाओं, प्रवासी मजदूरों तथा जातीय एवं राष्ट्रीय अल्पसंख्यको समेत मेह्नात्कास आबादी के सभी तबको के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष में जनता के व्यापकतम तबको को एकजुट तथा लामबंद करने के लिए सम्मलेन सक्रिय कार्य का संकल्प लेता है।
  • सम्मलेन कम्युनिस्ट एवं वर्कर पार्टियों से अपील करता है की वे अपने देशो में इस कर्तव्य को अपने हाथों में लें और पूंजीवादी त्यावस्था के खिलाफ और जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए व्यापक संघर्ष शुरू करें। हालाँकि पूंजीवादी व्यवस्था अपने जन्म से ही संकटग्रस्त है लेकिन वह स्वतः समाप्त नहीं होगी। कम्युनिस्ट नेतृत्व में जवाबी हमले के आभाव में प्रतिक्रियावादी ताकतों के उभरने का खतरा हो सकता है। शासक वर्ग अपनी यथास्थिति को बचने के लिए कम्युनिस्ट एवं वर्कर्स पार्टियों के विकास को रोकने के लिए व्यापक हमला करते हैं। सोशल डेमोक्रसी पूंजीवाद के वास्तविक चरित्र के बारे में भ्रम फैलाना जरी रखता है और "पूंजीवाद के मानवीकरण", "नियमन", "भुमंदालिया शासन व्यवस्था" आदि जैसे नारे देता है। यह वास्तव में वर्ग संघर्ष को नकारते हुए और जन विरोधी नीतिओं को आगे बढ़ाते हुए पूंजी की रणनीति का समर्थक ही है। किसी भी तरह का सुधार पूंजीवाद के तहत शोषण को ख़तम नहीं कर सकता है। पूंजीवाद को उखाड़ फेंकना है। मजदूर वर्ग के नेतृत्व में विचारधारात्मक एवं राजनैतिक संघर्षों को तेज किया जाना समय का तकाजा है। "साम्राज्यवादी" भूमंडलीकरण का कोई विकल्प नही है" जैसे तमाम सिद्धांता प्रकाशित किए जा रहे हैं। उनका प्रतिकार करते हुए हमारा जवाब है "समाजवाद विकल्प है"।
कम्युनिस्ट पार्टियों की अद्वितीय भूमिका को रेखांकित करते हुए विश्व के सभी हिस्सों से आने वाली कम्युनिस्ट एवं वर्कर्स पार्टियाँ, जो मजदूर वर्ग और समाज (विश्व की आबादी का विशाल बहुमत) के अन्य सभी मेहनतकश तबकों के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं, जनता से अपील करती हैं कि वे हमारे साथ आयें और संघर्षों को मजबूत करते हुए यह घोषणा करें की समाजवाद ही मानवजाति के भविष्य के लिए वास्तविक विकल्प है और भविष्य हमारा है।

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मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

Pictorial views from 11th international meeting of communist & workers parties - New Delhi - 20-22 November 2009

























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गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

Participants of 11th International Meeting of Communist & Workers Parties held at New Delhi 20-22 November 2009

  1. Communist Party of Argentina
  2. Communist Party of Australia
  3. Communist Party of Bangladesh
  4. Workers' Party of Belgium
  5. Communist Party of Brazil
  6. Brazilian Communist Party (PCP)
  7. Communist Party of Britain
  8. Communist Party of Canada
  9. Communist Party of China
  10. Communist Party of Cuba
  11. AKEL
  12. Communist Party of Bohemia and Moravia
  13. Workers Party of Korea
  14. Communist Party of Denmark
  15. Communist Party in Denmark
  16. Communist Party of Finland
  17. French Communist Party
  18. German Communist Party
  19. Communist Party of Greece
  20. Peoples Progressive Party of Guyana
  21. Hungarian Communist Workers Party
  22. Communist Party of India
  23. Communist Party of India (Marxist)
  24. Tudeh Party of Iran
  25. Communist Party of Iraq
  26. Communist Party of Ireland
  27. Communist Party of Israel
  28. Party of the Italian Communists
  29. Communist Refoundation Party
  30. Party of the Communists of Kyrgyzia
  31. Lao People's Revolutionary Party
  32. Socialist Party of Latvia
  33. Lebanese Communist Party
  34. Communist Party of Luxembourg
  35. Communist Party of Mexico
  36. Communist Party of Nepal (United Marxist Leninist)
  37. New Communist Party of Netherlands
  38. Communist Party of Norway
  39. Communist Party of Pakistan
  40. Palestinian Communist Party
  41. Palestinian People's Party
  42. Communist Party of Peru
  43. Portuguese Communist Party
  44. Communist Party of Russian Federation
  45. Communist Party of Soviet Union
  46. Russian Communist Workers Party
  47. South African Communist Party
  48. PCPE (Partido Comunista de los Pueblos de España)
  49. Communist Party of Spain
  50. Communist Party of Sri Lanka
  51. Communist Party of Sweden
  52. Syrian Communist Party
  53. Communist Party of Turkey
  54. Communist Party of USA
  55. Communist Party of Vietnam
  56. Communist Party of Yugoslavia
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DELHI DECLARATION ADOPTED BY XI INTERNATIONAL MEETING OF COMMUNIST & WORKERS PARTIES HELD IN NEW DELHI, 20-22 NOVEMBER 2009

This 11th International Meeting of the Communist and Workers' Parties, held in New Delhi, 20-22 November 2009 to discuss on “The international capitalist crisis, the workers’ and peoples’ struggle, the alternatives and the role of the communist and working class movement”:


reiterates that the current global recession is a systemic crisis of capitalism demonstrating its historic limits and the need for its revolutionary overthrow. It demonstrates the sharpening of the main contradiction of capitalism between its social nature of production and individual capitalist appropriation. The political representatives of Capital try to conceal this unresolvable contradiction between capital and labour that lies at the heart of the crisis. This crisis intensifies rivalries between imperialist powers who along with the international institutions-the IMF World Bank WTO and others- are implementing their 'solutions' which essentially aim to intensify capitalist exploitation. Military and political 'solutions' are aggressively pursued globally by imperialism. The NATO is promoting a new aggressive strategy. The political systems are becoming more reactionary curtailing democratic and civil liberties, trade union rights etc. This crisis is further deepening the structural corruption under capitalism which is being institutionalised.

reaffirms that the current crisis, probably the most acute and all encompassing since the Great Depression of 1929, has left no field untouched. Hundreds of thousands of factories are closed. Agrarian and rural economies are under distress intensifying misery and poverty of millions of cultivators and farm workers globally. Millions of people are left jobless and homeless. Unemployment is growing to unprecedented levels and is officially expected to breach the 50 million mark. Inequalities are increasing across the globe – the rich are getting richer and the poor, poorer. More than one billion people, that is one-sixth of humanity go hungry. Youth, women and immigrants are the first victims.

True to their class nature, the response of the respective capitalist governments to overcome this crisis fails to address these basic concerns. All the neo-liberal votaries and social democratic managers of capitalism, who had so far decried the State are now utilising the state for rescuing them, thus underlining a basic fact that the capitalist state has always defended and enlarged avenues for super profits. While the costs of the rescue packages and bailouts are at public expense, the benefits accrue to few. The bailout packages announced are addressed first to rescue and then enlarge profit making avenues. Banks and financial corporates are now back in business and making profits. Growing unemployment and the depression of real wages is the burden for the working people as against the gift of huge bailout packages for the corporations.

realises that this crisis is no aberration based on the greed of a few or lack of effective regulatory mechanisms. Profit maximisation, the raison d' etre of capitalism, has sharply widened economic inequalities both between countries and within countries in these decades of 'globalisation'. The natural consequence was a decline in the purchasing power of the vast majority of world population. The present crisis is thus a systemic crisis. This once again vindicates the Marxist analysis that the capitalist system is inherently crisis ridden. Capital, in its quest for profits, traverses boundaries and tramples upon anything and everything. In the process it intensifies exploitation of the working class and other strata of working people, imposing greater hardships. Capitalism in fact requires to maintain a reserve army of labour. The liberation from such capitalist barbarity can come only with the establishment of the real alternative, socialism. This requires the strengthening of anti-imperialist and anti-monopoly struggles. Our struggle for an alternative is thus a struggle against the capitalist system. Our struggle for an alternative is for a system where there is no exploitation of people by people and nation by nation. It is a struggle for another world, a just world, a socialist world.

conscious of the fact that the dominant imperialist powers would seek their way out of the crisis by putting greater burdens on the working people, by seeking to penetrate and dominate the markets of countries with medium and lower level of capitalist development, commonly called developing countries. This they are trying to achieve firstly, through the WTO Doha round of trade talks, which reflect the unequal economic agreements at the expense of the peoples of these countries particularly with reference to agricultural standards and Non Agricultural Market Access (NAMA).

Secondly, capitalism, which in the first place is responsible for the destruction of the environment, is trying to transfer the entire burden of safeguarding the planet from climate change, which in the first place they had caused, onto the shoulders of the working class and working people. Capitalism's proposal for restructuring in the name of climate change has little relation to the protection of the environment. Corporate inspired 'Green development' and 'green economy' are sought to be used to impose new state monopoly regulations which support profit maximisation and impose new hardships on the people. Profit maximisation under capitalism is thus not compatible with environmental protection and peoples' rights.

notes that the only way out of this capitalist crisis for the working class and the common people is to intensify struggles against the rule of capital. It is the experience of the working class that when it mobilises its strength and resists these attempts it can be successful in protecting its rights. Industry sit-ins, factory occupations and such militant working class actions have forced the ruling classes to consider the demands of the workers. Latin America, the current theatre of popular mobilisations and working class actions, has shown how rights can be protected and won through struggle. In these times of crisis, once again the working class is seething with discontent. Many countries have witnessed and are witnessing huge working class actions, demanding amelioration. These working class actions need to be further strengthened by mobilising the vast mass of suffering people, not just for immediate alleviation but for a long-term solution to their plight.

Imperialism, buoyed by the demise of the Soviet Union and the periods of boom preceding this crisis had carried out unprecedented attacks on the rights of the working class and the people. This has been accompanied by frenzied anti-communist propaganda not only in individual countries but at global and inter-state forums (EU, OSCE, Council of Europe). However much they may try, the achievements and contributions of socialism in defining the contours of modern civilisation remain inerasable. Faced with these relentless attacks, our struggles thus far had been mainly, defensive struggles, struggles to protect the rights that we had won earlier. Today's conjuncture warrants the launch of an offensive, not just to protect our rights but win new rights. Not for winning few rights but for dismantling the entire capitalist edifice – for an onslaught on the rule of capital, for a political alternative – socialism.

resolves that under these conditions, the communist and workers parties shall actively work to rally and mobilise the widest possible sections of the popular forces in the struggle for full time stable employment, exclusively public and free for all health, education and social welfare, against gender inequality and racism, and for the protection of the rights of all sections of the working people including the youth, women, migrant workers and those from ethnic and national minorities.

Calls upon the communist and workers parties to undertake this task in their respective countries and launch broad struggles for the rights of the people and against the capitalist system. Though the capitalist system is inherently crisis ridden, it does not collapse automatically. The absence of a communist-led counterattack, engenders the danger of rise of reactionary forces. The ruling classes launch an all out attack to prevent the growth of the communists and the workers' parties to protect their status quo. Social democracy continues to spread illusions about the real character of capitalism, advancing slogans such as 'humanisation of capitalism', 'regulation', 'global governance' etc. These in fact support the strategy of capital by denying class struggle and buttressing the pursuit of anti-popular policies. No amount of reform can eliminate exploitation under capitalism. Capitalism has to be overthrown. This requires the intensification of ideological and political working class led popular struggles. All sorts of theories like 'there is no alternative' to imperialist globalisation are propagated. Countering them, our response is 'socialism is the alternative'.

We, the communist and workers' parties coming from all parts of the globe and representing the interests of the working class and all other toiling sections of society (the vast majority of global population) underlining the irreplaceable role of the communist parties call upon the people to join us in strengthening the struggles to declare that socialism is the only real alternative for the future of humankind and that the future is ours.
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बुधवार, 11 नवंबर 2009

bharat ke maovadi

(कामरेड अर्धेन्दु भूषण बर्धन) हाल के दिनों में भारत में माओवादी काफी चर्चा में रहें हैं। लालगढ़ और झारखंड की सीमा से लगे पश्चिमी बंगाल के मिदनापुर जिले में माओवादियों की सक्रियता पिछले कुछ महीनों से संचार माध्यमों की सुर्खियों में स्थान पाती रही है।


लालगढ़ के बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और लिखना जारी रहेगा। उन माओवादियों में हमारी गंभीर दिलचस्पी है जिन्होंने गहरे शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हुए और राज्य पुलिस के अत्याचारों के विरुद्ध आदिवासी जनों के आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर लालगढ़, छत्तीसगढ़ के दंडाकारण्य में और कुछ अन्य क्षेत्रों में अपनी जडंे़ जमा ली हैं।

लालगढ़ से पहले माओवादी गुरिल्लों ने गढ़चिरौली (महाराष्ट्र,) दांतेवाड़ा (छत्तीसगढ़), खुंटी (बिहार), कोरापुट (उड़ीसा), लतेहर, धामतारी (छत्तीसगढ़) आदि स्थानों पर पुलिस बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस (सी आरटीएफ) ,सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केन्द्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सी आरपीएफ) कर्मियों और कमांडों पर हमलों का एक सिलसिला चलाया, जिसमें इन बलों के 112 कर्मी मारे गए और अनेक जख्मी हुए। कोरापुट जिले के दामनजोडी़ में, जहाँ सीआईएसएफ के 8 कर्मी मारे गये थे, उनका हमला एक प्रतिष्ठित सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम- नालको की पंचपटमाली बाक्साइट-खदान और एनएमडीसी के खदान-पर हुआ था। हमले का उद्देश्य वहाँ बारूद खाने में जमा अच्छी किस्म के विस्फोटकों पर धावा बोलना था। उस धावे से इन सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कामकाज में बाधा पहुँची और वहाँ काम करने वाले हजारों मजदूरों में डर की भावना पैदा हो गई। सबसे गंभीर मामला था बीजापुर जिले (छत्तीसगढ़) में पुलिस के बेस कैम्प पर दहला देने वाला हमला, जिसमें 65 पुलिसकर्मी मारे गए। ये सारी कार्रवाइयाँ चुनाव से ठीक पहले या चुनाव के दौरान की गईं। ज़ाहिर है उनको चुनाव पर नजर रखते हुए अंजाम दिया गया था। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पदभार सँभालते ही यह घोषणा करनी पड़ी कि आतंकवाद और वामपंथी उग्रवाद से निपटना यूपीए-2के लिए एक सर्वप्रमुख प्राथमिकता का कार्य होगा। लालकिले की प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में भी प्रधानमंत्री माओवादियों को यह चेतावनी देना नहीं भूले कि ‘‘जो लोग सोचते हैं कि वे हथियारों का सहारा लेकर सत्ता पर कब्जा कर सकते हैं वे हमारे लोकतंत्र की ताकत को नहीं समझते। केन्द्र सरकार नक्सली गतिविधियों से निपटने की अपनी कोशिश को तेज करेगी।’’

17 अगस्त को आयोजित मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में वामपंथी उग्रवाद से लड़ने का मुद्दा एजेंडे में सबसे बड़े मुद्दों में से था और इसकी प्राथमिकता सूखे की आपदा के बराबर हो गई जिससे देश का आधा हिस्सा प्रभावित है। तमाम आवश्यक वस्तुओं की महंगाई, जिससे हमारे देश के लोगों को ज़बरदस्त चोट पहुँच रही है, उसका तो उसमें थोड़ा बहुत ही जिक्र हुआ।

प्रधानमंत्री ने पहले कहा था कि 160 जिले माओवादियों के नियंत्रण में हैं या इतने जिलों में वे घुसपैठ कर चुके हैं। जब एक इन्टरव्यू लेने वाले ने सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति से पूछा कि कितना भूक्षेत्र उनके वास्तविक निंयंत्रण में है तो उन्होंने शालीनता एवं संकोच प्रदर्शित करते हुए कहा कि वे इस तरह के आँकड़ों पर यकीन नहीं करते हैं। इससे यही पता चलता है कि ‘‘भारत के प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के लिए वे (माओवादी) कितना बड़ा दुःस्वप्न बन गए हैं।’’ उन्होंने कहा कि ‘‘ये अधिकांश आँकड़े’’ महज काल्पनिक हैं और इन्हें जानबूझकर बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है ताकि क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए और अधिक पुलिस बल तैनात किया जा सके और ज्यादा पैसा आवंटित किया जा सके। पर साथ ही गणपति यह बखान करना नहीं भूले कि ‘जहाँँ तक हमारे असर की बात है वह इससे भी ज्यादा हैं।’’

आजकल, माओवादी राजनैतिक और संचार माध्यमों, दोनों ही क्षेत्रों में चर्चा का विषय हैं। अतः किसी को भी उनके बारे में और अधिक जानना चाहिए। ऐसे मामलों में जानकारी का पहला साधन जिसमें क्रांति के लिए संघर्ष करने वाली एक पार्टी जैसा वे दावा करते हैं- के रूप में उन्होंने अपनी नीतियों, अपने उद्देश्यों एवं लक्ष्यों, अपनी कार्यनीति और रणनीति को पेश किया है। उनके वास्तविक व्यवहार से भी तुलना कर उसे देखा जाना चाहिए।

उनके सबसे अधिक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में से बहुत से हमारे पास हैं। यहाँ हम उनमें से तीन का हवाला दे रहे हैं:

(1) उनका पार्टी कार्यक्रम, जिसे अनुमानतः उनकी 9वीं कांग्रेस में पारित किया गया। यह सी0पी0आई0 (एम0एल0), पीपुल्स वार, एम0सी0सी0आई0 और सी0पी0आई (एम0एल0) पार्टी यूनिटी के परस्पर विलीनीकरण और स्वयं का सी0पी0आई0 (माओवादी) का नाम रखने के बाद आयोजित एकता कांग्रेस (यूनिटी कांग्रेस) थी। यह 9वीं कांग्रेस, सी0पी0आई0 (एम0एल0) पीपुल्स वार की आठवीं कांग्रेस के 37 वर्ष बाद, 2007 में गुप्त रूप से आयोजित की गई थी।

(2) सी0पी0आई0 (माओवादी) के महासचिव गणपति के साथ इन्टरव्यू। यह एक लम्बा और विशद इंटरव्यू है जिसमें उनके कार्यक्रम, उनकी वर्तमान गतिविधियों आदि के वस्तुतः तमाम पहलू शामिल हैं। इसे सी0पी0आई0 (माओवादी) के प्रवक्ता, किसी आजाद नाम के व्यक्ति ने अप्रैल 2007 में जारी किया था, और

(3) सी0पी0आई0 (माओवादी) पोलित ब्यूरो द्वारा 12 जून 2009 को जारी ‘‘चुनाव बाद की स्थिति पर एक रिपोर्ट-हमारे कार्य।’’

ये सब काफी विस्तृत एवं विशद दस्तावेज हैं। कुछ समय बाद एक राजनैतिक पेम्फलेट में उनके सम्बंध में विश्लेषण और चर्चा की जानी चाहिए। फिलहाल हम कुछ पहलुओं पर विचार करना चाहते हैं जो आंदोलन के तात्कालिक महत्व के हैं।

पार्टी कार्यक्रम इस बात पर जोर देते हुए शुरू होता है कि दो धाराएँ, जो सी0पी0आई (माओवादी) बनाने के लिए एक साथ मिलीं, ये ‘‘माक्र्सवाद-लेनिनवाद -माओवाद को भारत के मौजूदा वास्तविक हालात में लागू करने की प्रक्रिया में और सी0पी0आई0 और सी0पी0आई0 (एम) के पुराने चले आ रहे संशोधनवाद के विरूद्ध संघर्ष कर उसका पर्दाफाश कर सामने आईं।’’ वर्षों पहले सी0पी0आई0 से टूटकर अलग होते समय सी0पी0आई (एम) ने सी0पी0आई0 पर ‘‘संशोधनवादी’’ का आरोप लगाया था। अब वही आरोप लगने की बारी सी0पी0आई0 (एम) की है। इसके परिणाम स्वरूप सी0पी0आई0 (एम0एल0) बना। का0 गणपति सी0पी0आई0 (एम0एल0) को यह कहते हुए निपटाते हैं कि विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाले ‘लिबरेशन’ ग्रुप का 1970 के गौरवपूर्ण संघर्षों के इतिहास के बाद 1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में अधः पतन शुरू हो गया...’’।

अन्य कुछ ग्रुपों को भी इसी तरह निपटाते हुए वह कहते हैं कि ‘‘वे राज्य के विरूद्ध सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत को भविष्य में किसी शुभ मुहूर्त के लिए टालते रहे।’’ अब सी0पी0आई0 (माओवादी) ही एक ऐसी अकेली पार्टी है जो लम्बे जनयुद्ध को चलाएगी और जनवादी क्रांति एवं समाजवादी क्रांति दोनों ही चरणों के दौरान देश की तमाम ताकतों की अगुवाई एवं पथ प्रदर्शन करेगी। हर कोई जानने को उत्सुक होगा कि इस तरह भारतीय क्रांति का नेतृत्व पहले से मजबूत हो गया है या कमजोर।

अपने आप को, हर किस्म के दमन और सरकार की जनविरोधी नीतियों के विरूद्ध ‘‘संघर्षरत जनगण’’ का सच्चा एवं एकमात्र रक्षक के रूप में पेश करते हुए, सी0पी0आई0 (माओवादी) मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों और तमाम अन्य कम्युनिस्ट ग्रुपों की अवमानना करने की हद तक चली गई है। ऐसा नहीं है कि वह मनमोहन सिंह सरकार द्वारा अपने ऊपर लगाम लगाने की भूमिका से अनजान है। चुनाव बाद की स्थिति के सम्बंध में वह अपनी रिपोर्ट में कहते हैं:

‘‘इस तथ्य ने, कि कांग्रेस नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) फिर से निर्वाचित हो गया हैऔर कांग्रेस की लोकसभा में सीटें बढ़ गई हैं और वह पिछली बार के मुकाबले कहीं अधिक निर्णायक भूमिका अदा करने की स्थिति में है यूपीए को और इसके बड़े घटक कांग्रेस को हमारी पार्टी और आंदोलन के विरुद्ध पहले से कहीं अधिक नृशंस और पहले से कहीं अधिक बड़े सैन्य हमले शुरु करने के लिए कहीं अधिक संभावनाएँ प्रदान कर दी हैं। पिछली सरकार में, जहाँ इसके पास अपेक्षाकृत कम सीटें थीं, सत्ता में बने रहने के लिए कांग्रेस को अपने विभिन्न सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर रहना पड़ता था और वामपंथ ने भी लगभग चार वर्ष तक मनमोहन सिंह सरकार पर कुछ दबाव बनाए रखा। हमें ध्यान रखना होगा कि चुनाव परिणाम से यूपीए सरकार को कहीं अधिक क्रूर किस्म के कानून बनाने और कहीं अधिक फासिस्ट कदमों पर अमल करने और जन संघर्षों को कुचलने की अधिक गुंजाइश मिल गई है।‘‘

माओवादी और बहिष्कार का

उनका आह्वान

चुनाव के संबंध मेें माओवादियों की रिपोर्ट, चुनाव के बहिष्कार के अपने अभियान पर विस्तार से चर्चा करती है। वह कहती है कि अपने शासन के लिए वैधता प्राप्त करने के लिए और संसदीय व्यवस्था की छवि को फिर से चमकाने के लिए शासक वर्गाें ने अपने पास उपलब्ध सभी तौर तरीकों का इस्तेमाल किया। यहाँ तक कि बंदूक की छाँह में मतदान कराया (शंातिपूर्ण मतदान सुनिश्चित करने के लिए बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बल इस काम में जुटाए गए)। उद्देश्य था मतदान का और अधिक प्रतिशत और भारत में लोकतंत्र के लिए और अधिक अंक सुनिश्चित किया जाए।

माओवादी कहते हैं कि ’’हमारी पार्टी द्वारा चुनाव के बहिष्कार को विफल करने के लिए प्रतिक्रियावादी शासकों ने अपने पास उपलब्ध तमाम तौर तरीकों का इस्तेमाल किया था और वह आगे दावा करते हैं कि ’’कुल मिलाकर, चुनाव से दूर रहकर मतदाताओं के बहुमत ने अपेक्षाकृत अधिक जागरुकता का परिचय दिया। हमारा प्रचार अभियान इतना प्रभावी था कि दंडकारण्य (दांतेवाड़ा, बीजापुर, नारायणपुर, बस्तर और कांकेर जिले और राजनांदगांव के कुछ हिस्से) के अधिकांश देहाती इलाकों में, बिहार और झारखण्ड के अनेक जिलों में जहाँ मतदान प्रतिशत 2004 के मुकाबले अत्यधिक कम हो गया, पश्चिम बंगाल में पश्चिम मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरूलिया में राजनैतिक पार्टियों का चुनाव मुश्किल से ही कहीं था और पश्चिम बंगाल के लालगढ़ क्षेत्र में पूरी तरह बहिष्कार हुआ।

सर्वप्रथम, तथ्य क्या हैं?

पिछले तीन दशकों से मतदान प्रतिशत में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं आया है। 1977 में मतदान 60.5 प्रतिशत था और इस बार मतदान 58.2 प्रतिशत था। थोड़ा सा ही कम। यह सोचना कि माओवादियों के बहिष्कार अभियान का कोई महत्वपूर्ण असर पड़ा महज अपने आप को भुलावे में रखना होगा।

जहाँ तक बंदूक उठाए उन सुरक्षा बलों की बात है जिन्हें और अधिक प्रतिशत के लिए जुटाया गया था तो यह भी उतना ही सही है कि माओवादियों ने जिन कुछ इलाकों का नाम लिया है वहाँ बहिष्कार भी बंदूक की छाँह में ही लागू किया गया था। जो कोई भी मतदान करने जाएगा उसे बुरा नतीजा भुगतने की धमकियाँ दी गईं थीं। अपने अनुभव से हम कह सकते हैं कि बहिष्कार को लागू करने से भाजपा/कांग्रेस को ही विधानसभा और संसदीय चुनाव जीतने में मदद मिली और सीपीआई के उम्मीदवारों को, जो शुरु से ही ‘‘सलवा जुडुम‘‘ की लूटपाट और विध्वंस के विरुद्ध संघर्ष की कतारों में खुलेआम सबसे आगे थे, नुकसान पहँुचा।

यह याद किया जा सकता है कि जैसे ही कांगे्रस एवं विपक्ष के नेता महेन्द्र कर्मा ने ‘सलवा जुडुम‘ नाम से समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने की कोशिश में स्वयं-नियुक्त समूह का गठन किया तो सीपीआई ने रायपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस की, और यह कहते हुए इसकी निंदा की कि यह माओवादियों को आदिवासियों के विरूद्ध लड़ाने की और उनके बीच गृहयुद्ध पैदा करने की कोशिश है। उसके बाद सलवा जुडुम के विरूद्ध होने वाली सबसे बड़ी रैली भी सीपीआई ने जगदलपुर में, लोहांडीगुडा और दांतेवाडा में आयोजित की थी और सीपीआई के सर्वोच्च नेताओं ने उन रैलियों को सम्बोधित किया था। इस घृणित मुद्दे के मामले में कांग्रेस और भाजपा हाथ मेें हाथ मिलाकर काम कर रहे थे। ये सब सुपरिचित तथ्य हैं।

मुम्बई का उदाहरण, जहाँ केवल 43.52 प्रतिशत लोग मतदान के लिए आए और जिसका जिक्र माओवादियों ने बड़ी खुशी जाहिर करते हुए किया है, सर्वथा गलत है। न ही यह इस कारण है कि उस शहर के आधिकांश लोगों की नजर में संसदीय व्यवस्था ने अपनी तमाम विश्वसनीयता खो दी थी। यह माओवादियों की साफ-साफ आत्मपरकता है। मुम्बई में कम मतदान के लिए अन्य कारक जिम्मेदार हैं।

किसी खास मामले में, किसी खास समय पर, विशेष परिस्थितियों के कारण बहिष्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात को तो समझा जा सकता है, पर ‘‘एक उल्लेखनीय रूझान के उभरने’’ के रूप में और संघर्ष के एक सर्वाधिक प्रभावशाली तरीके के रूप में इसे बताना, इसे एक सबसे अच्छी नीति, आंदोलन की एक आम कार्यनीति की हैसियत देना है। बहिष्कार संघर्ष का एक विशेष तरीका हो सकता है जो किसी विशेष परिस्थिति के लिए ठीक हो। यह संस्था (यानी संसद) के चरित्र से पैदा नहीं होता। यह एक ऐसा तरीका है जिसे संसदीय चुनाव कराए जाने को रोकने के लिए किया जा सकता है, उदाहरण के लिए ऐसे में जबकि कोई क्रांतिकारी उभार हो रहा हो और शासक वर्ग उस उभार को किसी इस या उस तरीके से डाइवर्ट करने की कोशिश करें।

संसद और उसकी प्रासंगिकता

हम कम्युनिस्ट वर्तमान व्यवस्था की कमियों-खामियों को पूरी तरह से जानते हैं। इसके सम्बंध में अनुभव हमारे सामने हैं। 543 में से 145 संसद सदस्य अपने निर्वाचक गणों में से 20 प्रतिशत से भी कम मतदाताओं के मत प्राप्त कर जीते हैं। अतः वे दावा नहीं कर सकते कि वे वास्तव में अपने चुनाव क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न पार्टियों के अनेक उम्मीदवार होते हैं और निर्दलीय उम्मीदवार भी बीच में होते हैं-तो इतने सारे उम्मीवादरों के बीच मुकाबला इस तरह का हो जाता है कि इन उम्मीदवारों के बीच मत बँट जाने के कारण कोई उम्मीदवार 10 प्रतिशत से कम वोट हासिल कर, भी चुनाव जीत सकता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए कुछ देशों में ऐसे प्रावधान हैं कि यदि किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से अधिक (50 प्रतिशत जमा एक) वोट न मिले तो फिर पहले और दूसरे स्थानों पर आए उम्मीदवारों के बीच में चुनाव कराया जाता है। पर भारत ने निष्ठापूर्वक ब्रिटिश प्रणाली को अपनाया है जिसमें इस तरह का प्रावधान नहीं है।

आज जो पूँजीवादी व्यवस्था मौजूद है, उसमें पैसा ही प्रधान है, अनेक स्थानों पर वोट पूर्णतया खरीदे जाते हैं और धन-बल की एक बड़ी भूमिका रहती है। इस तरह चुनाव लड़ना गरीब और आम आदमी की पहुँच से दूर होता जा रहा है। अतः इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि वर्तमान लोकसभा में 300 सदस्य ऐसे चुनकर आए हैं जिन्होंने स्वयं ही माना है कि वे करोड़पति हैं। अन्य अनेक संसद-सदस्य पैसे वालों के समर्थन से आए हैं और वे वस्तुतः पैसे वालों की जेब में हैं। अनेक अपराधी भी संसद के दोनों सदनों की शोभा बढ़ा रहे हैं।

वर्तमान संसदीय प्रणाली के इन एवं अन्य पहलुओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर क्या इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि संसद एक ‘‘गली-सड़ी, सड़ांध मारती संस्था’’ है, ‘‘बक-झक करने की जगह’’ है और इसके अलावा अन्य कुछ नहीं? विधायिका के चुनाव में भारत की जनता नियमित रूप से भारी संख्या में हिस्सा लेती है। भारत के लोग सरकारों को बदलना जानते हैं, जिस पार्टी को पसंद नहीं करते उसे सत्ता से हटाना जानते हैं और शासक वर्ग के गलती करने वाले संसद सदस्यों को उनकी जनविरोधी नीतियों के लिए सजा देना जानते हैं। अनेक ‘‘जनता के सदस्य’’ भी विभिन्न कारणों से दुर्भाग्यतः चुनाव हार जाते हैं। पर कुल मिलाकर लोग आंदोलन करने में और महत्वपूर्ण मुद्दों को समाधान के लिए उठाने में और सरकारों पर लगाम लगाने आदि में कामयाब हुए हैं, खासकर जब कभी संसदीय संघर्ष के साथ ही साथ जनसंघर्ष भी चल रहा होता है। पर निश्चय ही तमाम मामलों में जनगण की कार्यवाइयाँ ही निर्णायक कारक होती हंै। यद्यपि यह बात हर बार संसद में सही-सही नहीं झलक पाती है। इसके लिए संघर्ष को जारी रखना होगा।

जैसा कि हम देखते हैं कि संसदीय प्रणाली की कुछ सीमाएँ, कुछ कमजोरियाँ हैं, पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में इसकी प्रासंगिकता है।

भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन ने शुरू से ही समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के लिए जोर दिया है। इससेे ‘‘जिसे सबसे अधिक वोट मिले वही जीता’’ की प्रणाली खत्म हो जाएगी क्योंकि इस प्रणाली से आमतौर पर ऐसी सरकार बनती है जिसे अल्पमत वोट मिले होते हैं। वर्तमान सरकार समेत हमारी अधिकांश सरकारें इसी तरह बनी हैं।

कम्युनिस्ट अंादोलन किसी निर्वाचित सदस्य को, जिसने जनता का विश्वास खो दिया है, ‘‘वापस बुलाने’’ के प्रावधान के पक्ष में रहा है।

हमने उपर्युक्त कुछ बातंे यह दिखाने के लिए कहीं हैं कि चुनाव प्रणाली एक ऐसा मुद्दा नहीं है कि उसे यों ही आसानी से खारिज किया जा सके, बल्कि इसके लिए राजनैतिक चेतना को बढ़ाने, वर्ग संघर्ष को विकसित करने के साथ ही साथ हरेक महत्वपूर्ण एवं ठोस मुद्दे पर जन कार्यवाई को चलाने की जरूरत है।

अन्य पार्टियों के कार्यकर्ताओं को मारने, कत्ल करने के सम्बन्ध मंे

स्थानीय एवं क्षेत्रीय स्तर पर अनेक कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं, यहाँ तक कि पार्टी के उन सामान्य कामरेडों की हत्या, जो लालगढ़ इलाके में पंचायतों के सदस्य हैं, से माओवादियों के स्टैण्ड और दृष्टिकोण के सम्बंध में कुछ सवाल उठे हैं। इन कार्यकर्ताओं के घरों को जला दिया गया, सी0पी0आई0 (एम) और सी0पी0आई0 के दफ्तरों में तोड़फोड़ की गई है। यहाँ तक कि पार्टी दफ्तरों पर लहराने वाले लाल झण्डों को भी जलाया गया है। कहने की जरूरत नहीं कि इससे न केवल इन पार्टियों के पीछे चलने वाले लोग बल्कि अन्य लोकतांत्रिक तबके भी नाराज हुए हैं। संचार माध्यमों के कुछ हिस्सों द्वारा इन घटनाओं को ‘‘प्रतिशोध हत्या’’ के रूप में पेश करने की कोशिश को सही नहीं माना जा सकता है। यदि इसे सही मान लें तो यह श्रृंखला कहाँ जाकर खत्म होगी?

यदि सशस्त्र झगड़े के दौरान कोई व्यक्ति मारा जाता है तो बात समझ में आ सकती है। पर यदि किसी व्यक्ति को उसके घर से बाहर खींच कर या घात लगाकर या रास्ते में पकड़कर उसे गोलियों से छलनी कर दिया जाए तो इस बात को माओवादी किस तरह ठीक ठहराते हैं? क्या यह सोचे-समझे तरीके से हत्या से किसी तरह से कोई अलग चीज है? क्या निर्दोष नागरिकों की हत्या को वे ‘‘दुर्घटना’’ या ‘‘आनुषंगिक नुकसान’’ कहकर खारिज कर सकते हैं? अमरीकी साम्राज्यवादी प्रायः इस तरह के बहाने पेश करते हैं।

माओवादी इस आरोप से बच नहीं सकते, और वे इस बात को जानते हैं। यही कारण है गणपति से इण्टरव्यू के दौरान एक प्रश्न पूछा गया और महासचिव ने 2007 के एक मामले का, यानी झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के नेता और जमशेदपुर के संसद सदस्य सुनील महतों की हत्या का जिक्र कर जवाब दिया।

अपने उत्तर में गणपति कहते हैं, ‘‘हम एक बात स्पष्ट करना चाहते हैं, हम राजनैतिक पार्टियों के नेताओं या साधारण सदस्यों की अंधाधुंध हत्याओं के पक्ष में नहीं है। हम विभिन्न राजनैतिक पार्टियों की जनविरोधी नीतियों और समाज में अपराध एवं अव्यवस्था को रोकने के लिए, स्वयं-नियुक्त ‘गैंगों के हमलों’ के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए, उनका पर्दाफाश करने के लिए, उन्हें अलग- थलग करने के लिए बुनियादी तौर पर जनगण की लामबंदी पर भरोसा करते हैं, हम अपनेे पी0एल0जी0ए0 दस्तों और एक्शन टीमों को जहँा जरूरत हो, लगाते हैं। सुनील महतों की हत्या का, पूरे झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के प्रति हमारे विरोध के रूप में अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिए। जब तक वह जनविरोधी गतिविधियों में लिप्त होने से और क्रांतिकारी आंदोलन के विरूद्व हमला करने से विरत रहता है तब तक हम झारखंड मुक्तिमोर्चा के विरूद्व नहीं। निश्चय ही माओवादी ही अकेले ऐसे हैं जो अभियोक्ता (आरोप लगाने वाले) भी होंगे, जज भी होंगे और सजा पर अमल करने वाले भी।

इतना कहने के बाद गणपति ने हत्या को यह कहते हुए ठीक ठहराया कि ‘‘सुनील महतो के मामले में, हमें उसे केवल इस कारण ठिकाने लगाना पड़ा क्योंकि वह झारखंड में क्रांतिकारी आंदोलन का नृशंस दमन शुरू करने में सक्रिय रूप से शामिल था।‘‘

क्या इस स्पष्टीकरण को क्रंातिकारी स्वीकार कर सकते हैं, और क्या क्रांतिकारियों के इस स्पष्टीकरण को स्वीकार किया जा सकता है? अनेक स्थानों पर अनेक कम्युनिस्टों को क्यों मार डाला गया? लालगढ़ एवं अन्यत्र स्थानों पर सीपीआई (एम) के कार्यकर्ताओं को उनके घर से उठाकर या रास्ते में पकड़ कर क्यों मार डाला गया? क्या वे वर्ग शत्रु थे; क्या वे समाज से अपराध एवं अव्यवस्था को ठीक करने के लिए स्वयं-नियुक्त समूहों के लोग थे, पुलिस के मुखबिर थे या क्या थे? माओवादी उन्हें किस केटेगरी में रखते हैं? वे लड़ने वाले लोग थे या महज सीधे-सीधे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी थे जिन्हें किसी इलाके पर कब्जा करने या प्रभुत्व जमाने के लिए खत्म करना जरूरी था? ऐसा कैसे है कि इस मामले मंे लालगढ़ में माओवादी, तृणमूल कांग्रेस और तथाकथित ‘‘पुलिस अत्याचार के विरूद्ध जनसमिति’’ जो माओवादियों का स्वयं का मोर्चा संगठन है- के कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर काम करते हंै?

लालगढ़ में माओवादी नेता ने स्वयं ही बताया है कि नंदीग्राम मामले में उन्होंने किस तरह तृणमूल कांग्रेस की मदद की थी और किस तरह तृणमूल कांग्रेस ने लालगढ़ में उनके साथ मिलकर काम किया। इस बीच तृणमूल के नेता केन्द्र में यूपीए सरकार के मंत्री बन चुके थे। अतः उस माओवादी नेता को अपेक्षा थी कि एवज में तृणमूल का नेतृत्व केन्द्र पर दबाव बनाए कि वह लालगढ़ के आपरेशन में पश्चिम बंगाल सरकार के साथ सहयोग न करे। यह माओवादियों और तृणमूल कांग्रेस के बीच साँठगाँठ का आँखों देखा विवरण है जिसमें कांग्रेस भी शामिल हो गई। यह साँठगाँठ किन दीर्घकालिक या अल्पकालिक लक्ष्यों के लिए है?

अल्पकालिक लक्ष्य सामने नजर आते हैं। लक्ष्य-है आम अराजकता एवं अव्यवस्था के हालात पैदा कर, वाममोर्चा सरकार को अस्थिर बनाया जाए। स्थिति को और अधिक उकसाने-भड़काने के लिए तृणमूल मंत्री उस इलाके में जाते हैं और इस तरह वे लालगढ़ में माओवादियों की मदद करते हैं।

पर उनके दीर्घकालिक उद्देश्य क्या हैं? पश्चिम बंगाल में तृणमूल और कांग्रेस को सत्ता में लाना क्या माओवादियों की व्यापक कार्यनीति का एक हिस्सा है? ऐसा नहीं कि माओवादी इस समस्या को न जानते हों। असल में, चुनाव बाद की स्थिति पर, उनकी रिपोर्ट में माओवादियों ने इस बात का नोट लिया है कि ‘‘विडम्बना है कि ममता की तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा सरकार द्वारा शुरू किए गए आर्थिक सुधारों का अपने स्वयं के कारणों से तीव्र विरोध कर रही थी।’’ इन्होंने पश्चिम बंगाल में अराजकता और हत्या का जो अभियान छेड़ रखा है उसमें दोनों पार्टियाँ जिस तरह घनिष्ठ रूप से मिलकर काम कर रही हैं उसके बारे में इन पार्टियों को काफी सफाई देनी होगी। इसी तरह कांग्रेस को भी सफाई देनी होगी जो अपने संकीर्ण हित साधने के लिए उन्हें पश्चिम बंगाल में बढ़ावा दे रही हैं।

अब ‘‘हत्याओं और व्यक्तियों की राजनैतिक मकसद से हत्या और किसी झगड़े में न शामिल लोगों के खिलाफ हिंसा के व्यवहार के मुद्दे पर आते हैं। इस सम्बंध में विश्व के एक महानतम क्रांतिकारी, एक जीवित महानायक फिडेल कास्ट्रो ने इन विषयों पर अत्यंत प्रबोधक राय जाहिर की है। उन्हें स्वयं भी विश्व की सबसे ताकतवर सैन्य शक्ति-अमरीकी साम्राज्यवाद के हमलों का मुकाबला करना पड़ा और वह भी कोई एक या दो बार नहीं, अमरीका पिछले 50 वर्षों से अधिक समय से लगातार हमले करता आ रहा है। इस एवं अन्य विषयों पर कास्ट्रों के विचारों का एक सार-संग्रह एक पुस्तक के रूप में छपा है-‘‘फिडेल के साथ बातचीत’’। इस लेख में स्थान की कमी के कारण हम उनके कुछ ही उद्धरण दे रहे हैं जो इसी पुस्तक से लिए गए हैंः-

प्रश्न-क्या आपने, उदाहरणार्थ, बाटिस्टा की फौजी टुकड़ियों के विरूद्ध आतंकवाद का सहारा लिया या राजनैतिक मकसद से हत्याओं की साजिशों का रास्ता अपनाया?

उत्तर-न तो आतंकवाद और न ही राजनैतिक मकसद से हत्या। आप जानते हैं, हम बाटिस्टा का विरोध करते थे पर हमनें उन्हें जान से मारने की कोशिश कभी नहीं की, हालाँकि हम इसमें कामयाब हो सकते थे क्योंकि उनकी स्थिति ऐसी थी कि उन पर ऐसे हमले किए जा सकते थे। पहाड़ों में उनकी सेना के विरूद्ध संघर्ष करना या एक ऐसे किले पर फतह पाना, जिसकी रक्षा एक पूरी की पूरी रेजीमेंट करती हो, कहीं अधिक कठिन काम था।

प्रश्नः कार्रवाई के उस सिद्धांत के बारे में, जिसमें निर्दोष लोग शिकार बन सकते हैं, आपका क्या विचार है?

उत्तर-इसके बजाय युद्ध के बारे में बोलते हुए मेरा कहना है कि हमें इस तरह की समस्या से निपटने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि हमारा युद्ध 25 महीने चला और मुझे एक भी मामला याद नहीं कि हमारे पहले दस्ते ने जो लड़ाइयाँ लड़ीं उनमें कोई असैनिक व्यक्ति मारा गया हो, मुझे अन्य सेना प्रमुखों से पूछना होगा कि क्या उन्हें सैनिक कार्रवाइयों के दौरान ऐसी किसी घटना की याद है।

हमारा सिद्धांत यह था कि निर्दोष लोगों को खतरे में न डाला जाए, यह हमारा दर्शन था। यह एक सिद्धांत था जिसका हमने हमेशा पालन किया, एक कट्टर सिद्धांत की तरह। ऐसे मामले हुए थे जिनमें गुप्त लड़ाकों ने, जो आंदोलन से सम्बंध रखते थे, बम चलाए, वह भी क्यूबा में क्रांतिकारी संघर्षों की परम्परा का एक हिस्सा था। पर हम वैसा नहीं करना चाहते थे, हम उस तरीके से सहमत नहीं थे। जहाँ कभी लड़ाई के दौरान असैनिक लोगों को जोखिम होता हम उनका सचमुच ख्याल रखते थे।

प्रश्नः आज विश्व में अन्यत्र ऐसे हिंसक ग्रुप हैं जो राजनैतिक उद्देश्यों पर आगे बढ़ने के लिए अंधाधुंध राजनैतिक हत्याओं और आतंकवाद का सहारा लेते हैं। क्या आप ऐसे तरीकों को अस्वीकार करते हैं?

उत्तर-मैं आपको बता रहा हूँ कि आप आतंकवाद पर चलते हुए किसी युद्ध को जीत ही नहीं सकते, क्योंकि युद्ध को जीतने के लिए आप को जिस जनता को अपने पक्ष में रखने की जरूरत हैं आप उससे उस जनता का विरोध, उससे दुश्मनी और उसकी अस्वीकृति मोल लेंगे।

मैंने आपसे जो कुछ कहा है उसे मत भूलेंः हम पहले ही माक्र्सवादी लेनिनवादी शिक्षा पा चुके थे, और मैंने आपको बताया था हमारे क्या विचार थे। उस शिक्षा ने हमारी कार्यनीतियों को प्रभावित किया। जब आप जानते हैं इसमें कोई समझदारी नहीं है तो राजनैतिक हत्याओं का सहारा लेने की जरूरत नहीं।

न तो हमारी स्वतंत्रता के सिद्धांतकारों ने और न ही उन लोगों ने, जिन्होंने हमें माक्र्सवादी लेनिनवादी विचारधारा की सीख दी, राजनैतिक हत्याओं की या ऐसी कार्रवाइयों की, जिनमें निर्दोष लोग मारे जा सकते हैं, वकालत की। क्रांतिकारी सिद्धांत जिन तरीकों की अपेक्षा करते हैं उनमें ये तरीके शामिल ही नहीं थे।

उस नीति और सैनिक कार्रवाई सम्बंधी अवधारणाओं के बिना हमने उस युद्ध को नहीं जीता होता।

प्रश्नः तथापि, सिएरा माऐस्ट्रा में आपको ‘‘क्रांतिकारी अदालत’’ स्थापित करनी पड़ी थी जो आपको मौत की सजा लागू करने की दिशा में ले गई, क्या ऐसा नहीं है?

उत्तर-हमने यह सिर्फ देशद्रोह के मामलों में किया। मौत की सजा दिए गए लोगों की संख्या अत्यंत कम थी। एक ऐसे समय जब हमारी सेना अत्यंत सीमित थी, हम मुश्किल से 200 लोग ही थे, मुझे विद्रोही सेना के शत्रु के साथ सहयोग करने वाले समूह के कुछ लोगों द्वारा लूट और डकैती के मामले अचानक सामने आने की बात याद आती है।

हमारे लिए लूट एवं डकैती की बातें अत्यंत विनाशकारी हो सकती थीं, और हमें उनमें से कुछ को एकदम फाँसी ही देनी पड़ी। उनमें से जिन लोगों ने घरों को या दुकानों को लूटा था उन पर मुकदमा चलाया गया और उस मौके पर युद्ध के बीच में हमने उन्हें फाँसी की सजा दी। वह अपरिहार्य था, और असरदार था, क्योंकि उसके बाद विद्रोही सेना के किसी सदस्य ने कोई दुकान नहीं लूटी। एक परम्परा बन गई। क्रांतिकारी नैतिकता एवं जनता के प्रति चरम सम्मान की बातें प्रचलित एवं प्रबल रहीं।

का. फिडेल कास्ट्रो ने अपनी विशिष्ट विनम्रता के साथ आगे कहा कि उन्होंने जो गुरिल्ला युद्ध लड़ा वह नैतिकता के सिद्धांतों को ध्यान में रखने वाला कोई एकमात्र युद्ध नहीं था। उससे पहले वियमतनाम के देशभक्तों और ऐसे अन्य क्रांतिकारियों ने भी इन्हीं नैतिक सिद्धांतों को अपनाया था। नैतिकता का आचार महज एक नैतिकता का प्रश्न नहीं है। उन्होंने कहा कि नैतिकता, यदि निष्कपट एवं सच्ची हो तो उससे कुछ अच्छा फल मिल सकता है।

‘‘हमने यदि उस सिद्धांत पर अमल न किया होता तो लड़ाके संभवतः यहाँ-वहाँ कुछ कैदियों को गोली मार देते और तमाम किस्म के निंदनीय काम किए होते। अन्याय एवं अपराध के विरूद्ध इतनी अधिक घृणा थी।’’

मैं अच्छी तरह समझता हूँ कि कोई भी व्यक्ति यह नहीं समझ सकता कि कास्ट्रो भावुक उदारवादी थे। वह एक क्रांतिकारी हैं और उन्होंने एक सिद्धांत, एक दर्शन के रूप में और क्रांतिकारी युद्ध के दौरान एक कार्यनीति के रूप में क्रान्तिकारी नैतिकता की चर्चा की है। क्रांतिकारियों को हमेशा ही अपने स्वयं के अनुभवों एवं व्यवहार से और अन्य क्रांतिकारियों के अनुभवों एवं व्यवहार से सीखना चाहिए। फिडेल कास्ट्रों के इन विचारों के बारे में माओवादियों का क्या कहना है?

प्रतिबंध पर गृह मंत्रालय के सुझाव

भारत सरकार का गृह मंत्रालय पश्चिम बंगाल में सी0पी0आई0 (माओवादी) पर प्रतिबंध लगने के लिए दबाव डालता रहा है, जैसा कि कई राज्यों में किया गया है और केन्द्र ने भी किया है।

सी0पी0आई0 ने प्रतिबंध के सुझाव का विरोध किया है। सी0पी0आई0 (एम) और अन्य वामपंथी पार्टियों ने भी वैसा ही किया है। अतः पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा सरकार ने प्रतिबंध की घोषणा नहीं की है। यह बिल्कुल अलग बात है कि केन्द्र का प्रतिबंध कुल भारत पर लागू होता है और इस कारण पश्चिम बंगाल पर भी लागू होता है। क्या इसका अर्थ यह है कि प्रतिबंध के सम्बंध में वाममोर्चा की अनिच्छा या इंकार महज एक आडम्बर है?

पहली बात तो यह है कि माओवादियों पर प्रतिबंध का उल्टा नतीजा निकलता है, और यह एक निरर्थक कोशिश है। भारतीय राजनैतिक मैदान में वे खुलेआम काम नहीं करते हैं। सशस्त्र संघर्ष, लम्बे युद्ध की उनकी कार्यनीति देश के खुले कानूनी ढाँचे में नहीं चलायी जाती है। जब बात इस तरह की है तो उनकी गतिविधियों पर प्रतिबंध से उनकी कार्यवाइयों पर कोई अंकुश कैसे लगता है, उनकी कार्रवाइयां कैसे रुकती हैं?

दूसरी बात यह है कि किसी राजनैतिक पार्टी पर प्रतिबंध की घोषणा का अर्थ है समस्या के राजनैतिक समाधान की और सम्बंधित पार्टी के साथ राजनैतिक वार्ता की तमाम कोशिशों को छोड़ना, उसे कोई राजनैतिक जगह देने से इंकार करना और उस स्थिति को न देखना या स्वीकार न करना जिसने इस समस्या के पैदा होने और बढ़ाने का काम किया है।

यदि कोई पार्टी या संगठन प्रतिबंध से पहले खुलेआम काम करता है तो प्रतिबंध उसे भूमिगत काम करने की तरफ धकेल देता है। इससे समस्या हल नहीं होती, और न ही वह पार्टी या संगठन प्रतिबंध के कारण गायब हो जाता है।

अन्य बातों के अलावा इन कारणों से हम नहीं समझते कि प्रतिबंध माओवादी कार्रवाइयों से पैदा होने वाली समस्या का कोई जवाब है। अधिक से अधिक प्रतिबंध भविष्य में बनने वाले कुछ समर्थक या हिमायती लोगों को प्रतिबंधित पार्टी से दूर रहने के लिए असर डाल सकता है या डरा सकता है।

‘‘आतंकवाद’’ को और ’’वामपंथ उग्रवाद’’ (वर्तमान मामले में माओवाद का दूसरा नाम) को एक तराजू से तौलना, जैसा कि सरकार करती है, पूरी तरह गलत और अनुचित है। इससे पता चलता है कि सरकार इन दोनों बातों के चरित्र और मूल कारणों को नहीं जानती, समझती। ये दोनों बातें हथियारों की मदद से हिंसा में अभिव्यक्ति पाती हैं। जिससे सुरक्षा बलों के कर्मियों के अलावा मासूम लोगों की जानें जाती हैं-यह पहलुओं को सतही एवं ऊपरी तौर से देखने की बात है।

माओवादी समस्या के कुछ सामाजिक आर्थिक आयाम हैं। यह समस्या अधिकांश उन क्षेत्रों में हैं, जो दूर दराज के और पिछड़े और उपेक्षित क्षेत्र हैं और जहँा सामन्ती एवं अर्ध-सामन्ती शोषण चरम सीमा तक एवं व्यापक पैमाने पर जारी है। ऐसे क्षेत्रों में माओवादियों को अपनी गतिविधियाँ चलाने और अपने असर के दायरे को बढ़ाने के लिए अनुकूल जमीन मिलती है। यह मुख्य धारा की कम्युनिस्ट पार्टियों की विफलता है कि यह मैदान उनके लिए खुला पड़ा है। पर माओवादियों पर यह इल्जाम लगाना कि वे विकास का विरोध करते हैं इस हकीकत को छिपाने की बात है कि माओवादी ठीक उन्हीं सर्वाधिक पिछड़े इलाकों में अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं, जो सरकार एवं प्रशासन द्वारा कई दशकों से उपेक्षित पड़े हैं। निश्चय ही, इन इलाकों को अपना आधार बनाकर माओवादी अब अपनी गतिविधियों को अन्य इलाकों तक फैलाने में कामयाब हैं।

अतः चाहे वह केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, उसे उन सामाजिक आर्थिक समस्याओं का समाधान करना होगा, जिन्होंने माओवादियों को पैदा करने और बढ़ाने का काम किया है। इससे केवल कानून एवं व्यवस्था की समस्या के रूप में निपटने से काम नहीं चलेगा। जब कभी और जहाँ कहीं अराजकता और लोगों की हत्याओं से निपटने के लिए पुलिस कार्रवाइयाँ करनी हों और इस तरह जनता को सुरक्षा प्रदान करनी हो तब भी इस समस्या के सामाजिक, आर्थिक पहलू को भुलाया नहीं जा सकता है। सी0पी0आई0 (माओवादी) और तृणमूल कांग्रेस का एक दूसरे के साथ हो जाना और लालगढ़ में कांग्रेस का उनको मौन समर्थन-यह बहस का मुद्दा रहेगा। कौन किसके मकसद पूरे कर रहा है और इसका अंतिम लक्ष्य क्या है?

अपने इस तरह के दृष्टिकोण और कार्रवाइयों से माओवादी क्रांति के उद्देश्य के लिए भारत की जनता के अत्यधिक विशाल संख्या को अपने समर्थन में नहीं खींच सकते। वास्तव में इससे उस उद्देश्य एवं लक्ष्य को नुकसान पहुँच रहा है जिसके लिए कम्युनिस्टों ने अपने जीवन को समर्पित कर रखा है।
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सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा धन संग्रह अभियान - ११, १२ एवं १३ दिसम्बर को पुरे उत्तर प्रदेश में

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मजदूरों एवं किसानो की पार्टी है। वह अपने वर्ग के हित में तमाम संघर्ष चलती है। पार्टी को तथा संघर्षों को चलने में धन की भी महत्वपूर्ण जरुरत होती है। पार्टी को उसके वर्ग से ही धन की प्राप्ति होती है। पार्टी हर साल एक बार अपने वर्ग की जनता से धन इकट्ठा करती है। उसके कार्यकर्ता समाज के तमाम तबको से धन के लिए संपर्क करते है।
देश में असंगठित मजदूरों की तादाद बढ़ती चली जा रही है। पार्टी उन्हें भी संगठित करने और उनके लिए संघर्ष करने के काम को भी अपने एजेंडा पर ले चुकी है।
हम सन २००९ में ११, १२ एवं १३ दिसम्बर को धन इकट्ठा करने का कम एक अभियान के रूप में करेंगे। हमारे कार्यकर्ता आम जनता के पास जायेंगे। लेकिन उत्तर प्रदेश बहुत ही बार प्रदेश है और हमारे कार्यकर्ताओं की तादाद बहुत ही सीमित है। हम चाह कर भी प्रदेश की जनता के अधिसंख्यक जनता के पास नहीं पहुच पायेंगें। इस बार हम इस ब्लॉग के जरिये नए लोगो तक पहुचना चाहते है।
हम आपसे निवेदन करते है की अगर संघर्षो के इस अभियान में आप कुछ देना चाहते है तो :
- आप भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश के नाम चैक यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया की किसी भी शाखा पर खाता नम्बर ३५३३०२०१००१७२५२ में जमा कर सकते है।
- आप आर टी गी एस द्वारा भी उपरोक्त खाते में जमा कर सकते है। खाता नम्बर वाही रहेगा आप केवल आई ऍफ़ एस सी कोड UBIN0535338 यूनियन बैंक ऑफ़ इंडिया CLARKS AVADH BRANCH लिखे।
- आप लखनऊ में भुगतान योग्य ड्राफ्ट या चैक से भी पैसा भेज सकते है। ड्राफ्ट/ चैक कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया उत्तर प्रदेश स्टेट काउंसिल सा नाम जरी करें और इसे २२, कैसर बाग़ लखनऊ - २२६ ००१ के पते पर भेज देन
धन जमा करने के बाद आप हमें ईमेल पर सूचित करें जिससे आपको रशीद भेजी जा सके।
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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधान सभा उपचुनावों में प्रत्याशी

ललितपुर से कामरेड बाबु लाल अहिरवार
कोलसला से कामरेड सभा जीत यादव
पुवायां से कामरेड सुरेश कुमार
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शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

आओ और सड़कों पर फैला ख़ून देखो...

सब कुछ
एक भारी चिल्लाहट थी, नमकीन चीज़ें,
धड़कती हुई रोटी के ढेर,
मेरी आर्ग्यूवेलस की बस्ती के बाज़ार में जहां मूर्ति
सागर की सफ़ेद मछलियों के बीच एक बेजान दावत-सी लगती थी,
जैतून का तेल जहां कलछुली तक पहुंचता था,
पांवों और हाथों की गंभीर धड़कन जहां
रास्तों में भर जाती थी,
जहां जिंदगी की तेज़ गंध
ढेरों में रखीं मछलियां,
जहां सर्द धूप पड़ती हुई छतों के सांचे, जिन पर
वायु-सूचकों के मुर्गे थक जाते हैं,
जहां आलुओं के सुहावने उन्मत् हाथी-दांत,
सागर तक फैले हुए टमाटर जहां थे

और एक सुबह सब-कुछ जल उठा
और एक सुबह आग की लपटें
पृथ्वी से बाहर लोगों को निगलती हुईं
निकल आईं,
और तबसे आगे आग
और तबसे आगे बारूद
और तबसे आगे ख़ून

डाकू वायुयानों और मूरों के साथ
डाकू अंगूठियों और राजकुल-महिलाओं के साथ
डाकू काले चोगे पहने हुए मठाधीशों के साथ
हवा से होकर बच्चों को मारने आए
और सड़कों पर बच्चों का ख़ून बहने लगा
बच्चों का ख़ून जैसा होता है

विश्वासघाती
सेनापतियो:
मेरे मृत आवास को देखो
टुकड़े हुए स्पेन को देखो:
लेकिन हरेक मृत आवास से फूलों की जगह
प्रज्वलित धातु बाहर निकलती है
स्पेन के हरेक गह्वर से
स्पेन बाहर निकलता है
लेकिन हरेक मृत बच्चे की आंखों से एक बंदूक बाहर आती है
लेकिन हरेक जुर्म से गोलियों का जन् होता है
जो तुम्हारे अंदर वह जगह ढूंढ ही लेंगी
जहां दिल रहता है

तुम पूछोगे: क्यों नहीं मेरी कविता
तुमसे नींद की, पत्तियों की, मेरी मातृभूमि के
भव् ज्वालामुखियों की बात करती है
आओ और देखो
सड़कों पर फैला ख़ून
आओ और सड़कों पर फैला ख़ून देखो...
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हम

हम लेखक हैं
कथाकार हैं
हम जीवन के भाष्यकार हैं
हम कवि हैं जनवादी।
चंद, सूर,
तुलसी, कबीर के
संतों के, हरिचंद वीर के
हम वंशज बढ़भागी।
प्रिय भारत की
परम्परा के
जीवन की संस्कृति-सत्ता के
हम कर्मठ युगवादी
हम श्रस्ता हैं,
श्रम शासन के
मुद मंगल के उत्पादन के
हम द्रष्टा हितवादी।
भुत, भविष्यत्,
वर्तमान के
समता के शाश्वत विधान के
हम हैं मानववादी।
हम कवि हैं जनवादी।


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गुरुवार, 17 सितंबर 2009

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य अल्पसंख्यक समिति की बैठक

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल की अल्पसंख्यक समिति की बैठक १० अक्टूबर २००९ को लखनऊ में राज्य कार्यालय पर शाम को ५.३० बजे से शुरू होगी जिसमें स्ल्पसंख्यक जनता की समस्याओं पर चर्चा होगी और आन्दोलन की रूप रेखा तैयार की जायेगी.
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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा मथुरा में यमुना एक्सप्रेस वे विकास प्राधिकरण द्वारा भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसान सम्मलेन

यमुना एक्सप्रेस वे विकास प्राधिकरण के नम पर आगरा, मथुरा, अलीगढ, महामायानगर जिलों की कृषि योग्य जमीनों का अधिग्रहण कर ८५० राजस्वा ग्रामो के अस्तित्व को समाप्त कर उस इलाके में रह रहे लाखो किसानों एवं ग्रामीण मजदूरों के सामने आजीविका का संकट उत्पन्न करने तथा हजारों सालो से चले आ रहे प्राकृतिक संतुलन को समाप्त कर देने की साजिश के खिलाफ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल ४ अक्टूबर को सुबह १०.०० बजे से मथुरा शहर में कामरेड धर्मेन्द्र स्मृति सभागार, बिजलीघर, मथुरा कैंट में इन चार जनपदों के किसानो का विशाल प्रतिनिधि सम्मलेन आयोजित करेगी जिसमे राज्य सरकार के इस भ्रष्ट फैसले के विरोध में आन्दोलन की रूप रेखा तय की जायेगी। सम्मलेन में आने वाले प्रतिनिधि मथुरा के हमारे निम्न साथिओं से फ़ोन पर संपर्क कर सकते है।
कामरेड गफ्फार अब्बास ९८९७७६८७३५
कामरेड गिरधारी लाल चतुर्वेदी ९२५९२७१३१४
कामरेड बाबु लाल ९३५८७०८२३७
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शनिवार, 12 सितंबर 2009

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल द्वारा कार्यशाला

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य काउंसिल दिनांक ११ अक्टूबर को अपने राज्य कार्यकारिणी के सदस्यों तथा जिला सचिवों के लिए एक विशेष कार्यशाला का आयोजन कर रही है.
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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की राज्य कार्यकारिणी की बैठक

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश राज्य कार्यकारिणी की बैठक दिनांक १० अक्टूबर २००९ को लखनऊ में राज्य कार्यालय पर होगी जिसमें रास्ट्रीय सचिव कामरेड सुधाकर रेड्डी भी उपस्थित रहेंगे।
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पाश के ५९वे जन्मदिवस ९ सितम्बर २००९ पर उनकी एक कविता - "सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना"

श्रम की लूट सब से खतरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सब से खतरनाक नहीं होती
गद्दारी-लोभ की मुट्ठी सब से खतरनाक नहीं होती
बैठे-सोये पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकडे जाना - बुरा तो है
पर सब से खतरनाक नहीं होता

कपट से शोर में
सही होते हुए भी दब जाना - बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना - बुरा तो है
भींच कर जबड़े बस वक़्त काट लेना - बुरा तो है
सब से खतरनाक नहीं होता
सब के खतरनाक होता है

मुर्दा शान्ति से मर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर आना
सब से खतरनाक होता है
हमारे सापनों का मर जाना
सब से खतरनाक वह घरी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़रों के लिए रुकी होती है

सब से खतरनाक वो आँख होती है
जो सब कुछ देखती हुई भी ठंडी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणता को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

सब से खतरनाक वो चाँद होता है
जो हर कत्ल कांड के बाद
वीरान हुए आंगनों में चदता है
लेकिन तुम्हारी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

सबसे खतरनाक वो गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुचनें के लिए
जो विलाप को लांघता है

डरे हुए लोगों के दरवाजे पर जो
गुंडे की तरह हुंकारता है
सब से खतरनाक वो रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ़ उल्लू बोलते, गीदर हुआंते
चिपक जाता स्थायी अँधेरा बंद दरवाजों की चौगाठों पर

सब से खतरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फाँस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाए
श्रम की लूट सबसे खतरनाक नही होती
पुलिस की मर सबसे खतरनाक नहीं होती
गद्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे खतरनाक नहीं होती
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